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वाले को न यह पहले प्राप्त होती है और न वह प्राप्त ही कर सकता है।
इसके पश्चात् सम्यक्त्व प्राप्ति के कारणों पर चिन्तन करते हुये ग्रन्थि-भेद का स्वरूप स्पष्ट किया है। आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की स्थिति, देश न्यून कोटा-कोटि सागरोपम की अवशेष रहती है तब आत्मा सम्यक्त्व के अभिमुख होता है। उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। उसमें से पल्योपम पृथक्त्व का क्षय होने पर देशविरति-श्रावकत्व की प्राप्ति होती है उसमें से भी संख्यात सागरोपम का क्षय होने पर सर्वविरति चारित्र की उपलब्धि होती है। उसमें से संख्यात सागरोपम का क्षय होने पर उपशमश्रेणी प्राप्त होती है। उसमें से भी संख्यात सागरोपम का क्षय होने पर क्षपक श्रेणी प्राप्त होती
कषाय के उदय के कारण दर्शन आदि सामायिक प्राप्त नहीं हो सकती। यदि कदाचित् प्राप्त भी हो गई तो वह पुनः नष्ट हो जाती है। जिससे कर्मों का लाभ हो वह कषाय है। अनन्तानुबन्धी-चतुष्क, अप्रत्याख्यानी-चतुष्क, प्रत्याख्यानी-चतुष्क इन बारह प्रकार के कषायों का क्षय, उपशम या क्षयोपशम होने से चारित्र की प्राप्ति होती है। सामायिक में सावध योग का त्याग होता है। वह इत्वर और पावत्कथिक के रूप में दो प्रकार की है। इत्वर सामायिक अल्पकालीन होती है और यावत्कथिक जीवनपर्यन्त के लिये। भाष्यकार ने सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात चारित्र का विस्तार से विवेचन किया है।
सामायिक चारित्र का उद्देश, निर्देश, निर्गम, क्षेत्र, काल, पुरुष, कारण, प्रत्यय, लक्षण, नय, समवतार, अनुमत, किम्, कतिविध, कस्य, कुत्र, केषु, कथम्, कियच्चिर, कति, सान्तर, अविरहित, भव, आकर्ष, स्पर्शन् और निरु क्ति, इन छब्बीस द्वारों से वर्णन किया है। सामायिक सम्बन्धी जितनी भी महत्त्वपूर्ण बातें हैं, वे सभी इन द्वारों में समाविष्ट हो गई हैं। तृतीय निर्गम द्वार में सामायिक की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विचार करते हुए आचार्य ने भगवान महावीर के ग्यारह गणधरों की चर्चा की है। सामायिक के ग्यारहवें द्वार समवतार पर विवेचन करते हुए आचार्य ने चरणकरणानुयोग, धर्मकथनानुयोग, गणितानुयोग और द्रव्यानुयोग के पृथक्करण की चर्चा की है तथा निह्नवों का भी वर्णन है। निह्नववाद पर विस्तार से चर्चा है। अन्त में 'करेमि भन्ते' आदि सामायिक सूत्र के मूल पदों पर विचार किया गया है।
जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण की प्रबल तार्किक शक्ति, अभिव्यक्ति कुशलता, प्रतिपादन की पटुता तथा विवेचन की विशिष्टता को निहार कर कौन मेधावी मुग्ध नहीं होगा ? भाषा साहित्य में विशेषावश्यकभाष्य का अनूठा स्थान है। विशेषावश्यकभाष्य आचार्य जिनभद्र की अन्तिम रचना है। उन्होंने इस पर स्वोपज्ञवृत्ति भी लिखनी प्रारम्भ की थी, किन्तु पूर्ण होने से पहले ही उनका आयुष्य पूर्ण होगया था, जिससे वह वृत्ति अपूर्ण ही रह गई। विज्ञों का अभिमत है कि जिनभद्र गणी का उत्तरकाल विक्रम संवत् ६५० से ६६० के आसपास होना चाहिये। चूर्णिसाहित्य
नियुक्ति और भाष्य की रचना के पश्चात् जैन मनीषियों के अन्तर्मानस में आगमों पर गधात्मक व्याख्या साहित्य लिखने की भावना उत्पन्न हुई। उन्होंने शुद्ध प्राकृत में और संस्कृत मिश्रित प्राकृत में व्याख्याओं की रचना की, जो आज चूर्णिसाहित्य के रूप में विश्रुत है। चूर्णिसाहित्य के निर्माताओं में जिनदासगणि महत्तर का मूर्धन्य स्थान है। उन्होंने सात चूर्णियां लिखीं। उसमें आवश्यक चूर्णि एक महत्त्वपूर्ण रचना है।
यह चूर्णि नियुक्ति के अनुसार लिखी गई है, भाष्य गाथाओं का उपयोग भी यत्र-तत्र हुआ है । मुख्य रूप से भाषा प्राकृत है किन्तु संस्कृत के श्लोक, गद्य व गद्य पंक्तियां भी उद्धृत की गई हैं। भाषा प्रवाहयुक्त है। शैली में लालित्य व ओज
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