________________
प्रस्तुत भाष्य में जैनागमसाहित्य में वर्णित जितने भी महत्त्वपूर्ण विषय हैं, प्रायः उन सभी पर चिन्तन किया है। ज्ञानवाद, प्रमाणवाद, आचार नीति, स्याद्वाद, नयवाद, कर्मवाद पर विशद सामग्री का आकलन-संकलन है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जैन दार्शनिक सिद्धान्तो की तुलना अन्य दार्शनिक सिद्धान्तो के साथ की गई है। इसमें जैन आगमसाहित्य की मान्यताओं का तार्किक दृष्टि से विश्लेषण किया गया है। आगम के गहन रहस्यों को समझने के लिये यह भाष्य बहुत ही उपयोगी है और इसी भाष्य का अनुसरण परवर्ती विज्ञों ने किया है। सर्वप्रथम प्रवचनों को नमस्कार किया है, उसके पश्चात् लिखा है कि ज्ञान और क्रिया दोनों से मोक्ष प्राप्त होता है। आवश्यक स्वयं ज्ञान-क्रियामय है। उसी से सिद्धि सम्प्राप्त होती है। जैसे कुशल वैद्य बालक के लिये योग्य आहार की अनुमति देता है, वैसे ही भगवान् ने साधकों के लिये आवश्यक की अनुमति प्रदान की है। श्रेष्ठ कार्य में विविध प्रकार के विघ्न उपस्थित होते हैं। उनकी शान्ति के लिये मंगल का विधान है। ग्रन्थ में मंगल तीन स्थानों पर होता है। मंगल शब्द पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन किया है। ज्ञान भाव मंगल है। अतः ज्ञान के पाँचों भेदों का बहुत विस्तार के साथ निरूपण है।
आवश्यक पर नाम आदि निक्षपों से चिन्तन किया गया है। द्रव्य-आवश्यक, आगम और नो-आगम रूप दो प्रकार का है। अधिकाक्षर पाठ के लिये राजपुत्र कुणाल का उदाहरण दिया है। हीनाक्षर पाठ के लिये विद्याधर का उदाहरण दिया है। उभय के लिये बाल का उदाहरण दिया है और आतुर के लिये अतिमात्रा में भोजन और भेषज विपर्यय के उदाहरण दिये हैं। लोकोत्तर नोआगम रूप द्रव्यावश्यक के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिये साध्वाभास का दृष्टान्त देकर समझाया गया है। भावआवश्यक भी आगम रूप और नोआगम रूप दो प्रकार का है। आवश्यक के अर्थ का जो उपयोग रूप परिणाम है वह आगमं रूप भाव-आवश्यक है। ज्ञान-क्रिया उभय रूप जो परिणाम है, वह नोआगम रूप भाव-आवश्यक है। षडावश्यक के पर्याय और उसके अर्थाधिकार पर विचार किया गया है।
सामायिक पर चिन्तन करते हुये कहा है - समभाव ही सामायिक का लक्षण है। सभी द्रव्यों का आधार आकाश है, वैसे ही सभी सद्गुणों का आधार सामायिक है। सामायिक के दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीन भेद हैं। किसी महानगर में प्रवेश करने के लिये अनेक द्वार होते हैं, वैसे ही सामायिक अध्ययन के उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय - ये चार द्वार हैं। इन चारों द्वारों का विस्तार से निरूपण किया गया है। सामायिकश्रुत का सार सामायिक है। चारित्र ही मुक्ति का साक्षात् कारण है। ज्ञान से वस्तु का यथार्थ परिज्ञान होने से चारित्र की विशुद्धि होती है। केवलज्ञान होने पर भी जीव मुक्त नहीं होता, जब तक उसे सर्व संवर का लाभ न हो जाये। सामायिक का लाभ जीव को कब उपलब्ध होता है ? इस पर चिन्तन करते हुये लिखा है कि आठों कर्म प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थितियों के रहते हुये जीव को सामायिक का लाभ नहीं हो सकता। नाम, गोत्र की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटा-कोटि सागरोपम है। मोहनीय की सत्तर कोटा-कोटि सागरोपम है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय
और अन्तराय की तीस कोटा-कोटि सागरोपम है। आयुकर्म की तेतीस सागरोपम है । मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध होने पर ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, नाम, गोत्र और अन्तराय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बंधती है, किन्तु आयु कर्म की स्थिति के लिये निश्चित नियम नहीं है । वह उत्कृष्ट और मध्यम और जघन्य तीनों प्रकार की स्थिति बंध सकती है। मोहनीय के अतिरिक्त ज्ञानावरण आदि किसी भी कर्म की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध होने पर मोहनीय या अन्य कर्म की उत्कृ स्थिति का बन्ध होता है किन्तु आयुकर्म की स्थिति जघन्य भी बन्ध सकती है। सम्यक्त्व, श्रुत, देशव्रत और सर्वव्रत, इन सामायिकों में से जिसने उत्कृष्ट कर्म स्थिति का बन्ध किया है, वह एक भी सामायिक को प्राप्त नहीं कर सकता। किन्त उसे पूर्व प्रतिपन्न विकल्प से होती भी है और नहीं भी होती। जैसे अनुत्तरविमानवासी देव में पूर्वप्रतिपन्न सम्यक्त्व, श्रुत होते हैं, शेष में नहीं। जिन की ज्ञानावरण आदि की जघन्य स्थिति है, उनको भी इन चार सामायिकों में से एक का भी लाभ नहीं होता, क्योंकि उसे पहले भी प्राप्त हो गई है। अतः पुनः प्राप्त करने का प्रश्न ही समुपस्थित नहीं होता। आयुकर्म की जघन्य स्थिति
[५९]