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स्तुति पर प्रकाश डालकर क्षामणा की विधि पर विचार किया है। अन्त में कायोत्सर्ग के दोष, फल आदि पर भी प्रकाश डाला गया है।
षष्ठ अध्ययन में प्रत्याख्यान का विवेचन है। इसमें सम्यक्त्व के अतिचार, श्रावक के बारह व्रतों के अतिचार, प्रत्याख्यान, छह प्रकार की विशुद्धि, प्रत्याख्यान के गुण, आगार आदि पर अनेक दृष्टान्तों के साथ विवेचन किया है।
दस
इस प्रकार आवश्यकचूर्णि जिनदासगणी महत्तर की एक महनीय कृति है। आवश्यकनिर्युक्ति में आये हुये सभी विषयों पर चूर्णि में विस्तार के साथ स्पष्टता की गई है। इसमें अनेक पौराणिक, ऐतिहासिक महापुरुषों के जीवन उट्टङ्कित किये गये हैं, जिनका ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है।
टीकासाहित्य
मूल आगम, निर्युक्ति और भाष्यसाहित्य प्राकृत भाषा में निर्मित है। चूर्णिसाहित्य में प्रधान रूप से प्राकृत भाषा का और गौण रूप से संस्कृत भाषा का प्रयोग हुआ है। उसके पश्चात् संस्कृतटीका का युग आया। जैन साहित्य में टीका का युग स्वर्णिम युग है। नियुक्ति में आगमों के शब्द की व्युत्पत्ति और व्याख्या है। भाष्य साहित्य में विस्तार से आगमों के गम्भीर भावों का विवेचन है। चूर्णि साहित्य में निगूढ़ भावों को लोक-कथाओं के आधार से समझाने का प्रयास है तो टीकासाहित्य में आगमों का दार्शनिक दृष्टि से विश्लेषण है। टीकाकारों ने प्राचीन निर्युक्ति, भाष्य और चूर्णि साहित्यों का तो अपनी टीकाओं मे प्रयोग किया ही है साथ ही नये-नये हेतुओं द्वारा विषय को और अधिक पुष्ट बनाया है। टीकाओं के अध्ययन और परिशीलन से उस युग की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और भौगोलिक परिस्थितियों का भी सम्यक् ज्ञान हो जाता है। टीकाकारों में सर्वप्रथम टीकाकार जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण हैं। उन्होंने अपने विशेषावश्यकभाष्य पर स्वोपज्ञ वृत्ति लिखी पर यह वृत्ति वे अपने जीवनकाल में पूर्ण नहीं कर सके। वे छठे गणधर व्यक्त तक ही टीका लिख सके। उनकी शैली सरल, सरस और प्रसादगुण युक्त थी उनकी प्रस्तुत टीका उनके पश्चात् कोट्याचार्य ने पूर्ण की। इसका संकेत कोट्याचार्य ने छठे गणधरवाद के अन्त में दिया है।
संस्कृत टीकाकारों में आचार्य हरिभद्र का नाम गौरव के साथ लिया जा सकता है। वे संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड पण्डित थे। उनका सत्ता समय विक्रम संवत् ७५७ से ८२७ का है। उन्होंने आवश्यकनियुक्ति पर भी वृत्ति लिखी किन्तु आवश्यकचूर्णि के पदों का उसमें अनुसरण न करके स्वतंत्र रूप से विषय का प्रतिपादन किया है। प्रस्तुत वृत्ति को देखकर विज्ञों ने यह अनुमान किया है कि आचार्य हरिभद्र ने आवश्यकसूत्र पर दो वृत्तियां लिखी थीं। वर्तमान में जो टीका उपलब्ध नहीं है, वह टीका उपलब्ध टीका से बड़ी थी क्योंकि आचार्य ने स्वयं लिखा है 'व्यासार्थस्तु विशेषविवरणादवगन्तव्य इति ।' अन्वेषणा करने पर भी यह टीका अभी तक उपलब्ध नहीं हो सकी है। वृत्ति में ज्ञान का स्वरूप प्रतिपादित करते हुये आभिनिबोधक ज्ञान का छह दृष्टियों से विवेचन किया है। श्रुत, अवधि, मनः पर्यव और केवलज्ञान का भी भेद आदि की दृष्टि से विवेचन किया है।
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सामायिक आदि के तेवीस द्वारों का विवेचन नियुक्ति के अनुसार किया गया है। सामायिक के निर्गम द्वार में कुलकरों के प्रति और उनके पूर्व भवों के सम्बन्ध में सूचन किया है। निर्युक्ति और चूर्धि में जिन विषयों का संक्षेप में संकेत किया गया है उन्हीं का इसमें विस्तार किया गया है। ध्यान के प्रसंग में ध्यानशतक की समस्त गाथाओं पर भी विवेचन किया है । परिस्थापनाविधि पर प्रकाश डालते हुये सम्पूर्ण परिस्थापना सम्बन्धी नियुक्ति के पाठ को उद्धृत किया गया है। प्रस्तुत वृत्ति में प्राकृत भाषा में दृष्टान्त भी विषय को स्पष्ट करने के लिये दिये गये हैं। इस वृत्ति का नाम शिष्यहिता है। इसका ग्रन्थमान २२००० श्लोकप्रमाण है। लेखक ने अन्त में अपना संक्षेप में परिचय भी दिया है।
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