Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 77
________________ [ आवश्यकसूत्र दूसरा पद 'नमो सिद्धाणं' है। सिद्ध का अर्थ है - पूर्ण अर्थात् जिनकी साधना पूरी हो चुकी है। जो महान् आत्मायें कर्म-मल से सर्वथा मुक्त होकर जन्म-मरण के चक्र से सदा के लिये छुटकारा पाकर अजर, अमर, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं, वे सिद्ध पद से सम्बोधित होते हैं। सिद्धों का सिद्धत्व बौद्ध मान्यता के अनुसार दीपक बुझ जाने की तरह अभावस्वरूप नहीं है और न किसी विराट् सत्ता में विलीन हो जाना है, अपितु सद्भाव स्वरूप है। सिद्धों का सुख अपार है। चक्रवर्ती आदि मनुष्यों को तथा समस्त देवों कभी सुख प्राप्त है जो पराश्रित है, किन्तु उससे भी अनुपम, अनन्त अव्याबाध एवं अनिर्वचनीय आध्यात्मिक सुख सिद्धों को सदैव प्राप्त रहता है । विस्तार से उस सुख का वर्णन जानने के लिये औपपातिक सूत्र ( आगम प्रकाशन समिति ब्यावर, पृ. १८० - १८१) देखना चाहिये । ६] तीसरा पद 'नमो आयरियाणं' है। आचार्य भारतीय संस्कृति का सच्चा संरक्षक है, पथप्रदर्शक है तथा आलोक-स्तंभ है। आचार्य कोई साधारण साधक न होकर एक विशिष्ट साधक है। आचार्य को धर्मप्रधान श्रमण-संघ का पिता कहा है " आचार्यः परमः पिता" । तीर्थंकर तो नहीं पर तीर्थंकर सदृश है । वह ज्ञानाचार, दर्शनाचार आदि पाँच आचारों का स्वयं दृढ़ता पालन करता है तथा अन्य साधकों को दिशादर्शन देता है। दीपक की तरह स्वयं जलकर दूसरे आत्म- दीपों को प्रदीप्त करता है। साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका, यह चर्तुविध संघ है, इसकी आध्यात्मिक साधना के नेतृत्व का भार आचार्य पर ही होता है । "नमो आयरियाणं" इस पद के द्वारा अनन्त - अनन्त भूत, वर्तमान एवं अनागत आचार्यों को नमस्कार किया जाता है। चतुर्थ पद में उपाध्यायों को नमस्कार किया गया है। यह पद भी बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। साधकजीवन में विवेक - विज्ञान की अनिवार्य आवश्यकता है। भेद-विज्ञान के द्वारा जड़ और चेतन के, धर्म और अधर्म के उत्थान एवं पतन के, संसार और मोक्ष के पृथक्करण का भान होने पर ही साधक अपना उच्च एवं , आदर्श जीवन बना सकता है और साधना के सर्वोत्तुंग शिखर पर पहुंच सकता है। अतः आध्यात्मिक विद्या के शिक्षण का कर्तृत्व उपाध्याय पर है। "उप-समीपेऽधीयते यस्मात् इति उपाध्यायः । 'उपाध्याय मानव-जीवन की अन्तर्ग्रन्थियों को सूक्ष्म पद्धति से सुलझाते हैं और पापाचार के प्रति विरक्ति की तथा सदाचार के प्रति अनुरक्ति की शिक्षा देने वाले हैं। " नमो उवज्झायाणं" इस पद द्वारा अनन्तानन्त भूत, वर्तमान एवं आगामीकाल के उपाध्यायों को वन्दना की जाती है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र से युक्त तथा सूत्र पढ़ाने के कारण उपकारी होने से उपाध्याय नमस्कार के योग्य हैं । יין पांचवें पद में साधुओं को नमस्कार किया गया है। निर्वाण साधक को अर्थात् सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्र रूप रत्नों और इनके द्वारा मोक्ष को साधने वाले अथवा सब प्राणियों पर समभाव रखने वाले, मोक्षाभिलाषी

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