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प्रकार सुख हो, वैसे ही यह शरीर मैने न्यौछावर कर दिया है। वे चाहे इसकी हत्या करें, निन्दा करें या इस पर धूल फैकें, चाहे खेलें, चाहे हँसें, चाहे विलास करें। मुझे इसकी क्या चिन्ता? क्योंकि मैने शरीर उन्हें ही दे डाला है। इस प्रकार वे देहव्युत्सर्जन की बात करते हैं। कायोत्सर्ग ध्यानसाधना का ही एक प्रकार है। तथागत बुद्ध ने ध्यानसाधना पर बल दिया। ध्यानसाधना बौद्ध परम्परा में अतीत काल से चली आ रही है। विपश्यना आदि में भी देह के प्रति ममत्व हटाने का उपक्रम
है।
प्रत्याख्यान
छठे आवश्यक का नाम प्रत्याख्यान है। प्रत्याख्यान का अर्थ है - त्याग करना। प्रत्याख्यान शब्द की रचना प्रति-आ-आख्यान, इन तीनों शब्दों के संयोग से होती है। अविरति और असंयम के प्रतिकूल रूप में मर्यादा के साथ प्रतिज्ञा ग्रहण करना प्रत्याख्यान है। दूसरे शब्दों में कहें तो आत्मस्वरूप के प्रति अभिव्याप्त रूप से, जिससे अनाशंसा गुण समुत्पन्न हो, इस प्रकार का आख्यान अर्थात् कथन करना प्रत्याख्यान है। और भी अधिक स्पष्ट शब्दों में कहें तो भविष्य काल के प्रति आ-मर्यादा के साथ अशुभ योग से निवृत्ति और शुभ योग में प्रवृत्ति का आख्यान करना प्रत्याख्यान है।
इस विराट् विश्व में इतने अधिक पदार्थ हैं, जिनकी परिगणना करना सम्भव नहीं और उन सब वस्तुओं को एक ही व्यक्ति भोगे, यह भी कभी सम्भव नहीं। चाहे कितनी भी लम्बी उम्र क्यों न हो, तथापि एक मानव संसार की सभी वस्तुओं का उपभोग नहीं कर सकता। मानव की इच्छायें असीम हैं। वह सभी वस्तुओं को पाना चाहता है। चक्रवर्ती सम्राट् को सभी वस्तुएं प्राप्त हो जायें तो भी उसकी इच्छाओं का अन्त नहीं आ सकता। इच्छाएं दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ती रहती हैं। इच्छाओं के कारण मानव के अन्तर्मानस में सदा अशान्ति बनी रहती है। उस अशान्ति को नष्ट करने का एकमात्र उपाय प्रत्याख्यान है। प्रत्याख्यान में साधक अशान्ति का मूल कारण आसक्ति और तृष्णा को नष्ट करता है। जब तक आसक्ति बनी रहती है तब तक शान्ति उपलब्ध नहीं हो सकती। सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दन, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग के द्वारा आत्मशुद्धि की जाती है किन्तु पुनः आसक्ति रूपी तस्करराज अन्तर्मानस में प्रविष्ट न हो, उसके लिये प्रत्याख्यान अत्यन्त आवश्यक है। एक बार वस्त्र को स्वच्छ बना दिया गया, वह पुनः मलिन न हो, इसके लिये उस वस्त्र को कपाट में रखते हैं, इसी तरह मन में मलिनता न आये, इसलिये प्रत्याख्यान किया जाता है। अनुयोगद्वार में प्रत्याख्यान का एक नाम 'गुणधारण' दिया गया है। गुणधारण से तात्पर्य है-व्रतरूपी गुणों को धारण करना। मन, वचन और काया के योगों को रोककर शुभ योगों में प्रवृत्ति को केन्द्रित किया जाता है। शुभ योगों में केन्द्रित करने से इच्छाओं का निरुन्धन होता है। तृष्णाएं शान्त हो जाती हैं। अनेक सद्गुणों की उपलब्धि होती है। एतदर्थ ही आचार्य भद्रबाहु ने कहा - प्रत्याख्यान से संयम होता है। संयम से आश्रव का निरुन्धन होता है और आश्रव के निरुन्धन से तृष्णा का अन्त हो जाता है। तृष्णा के अन्त से अनुपम उपशमभाव समुत्पन्न होता है और उससे प्रत्याख्यान विशुद्ध बनता है। उपशमभाव की विशुद्धि से चारित्रधर्म प्रकट होता है । चारित्र से कर्म
१. प्रवृत्तिप्रतिकूलतया आ-मर्यादया ख्यानं - प्रत्याख्यानम्।
- योगशास्त्रवृत्ति २. अविरतिस्वरूपप्रभृति प्रतिकूलतया आ- मर्यादया आकारकरणस्वरूपया आख्यानं-कथनं प्रत्याख्यानम्।- प्रवचनसारोद्धारवृत्ति ३. पच्चक्खाणंमि कए, आसवदाराई हुंति पिहियाई। आसववुच्छेएणं तण्हा - वुच्छेयणं होई॥
- आवश्यकनियुक्ति १५९४ तण्हा-वोच्छेदेण उ, अउलोवसमो भवे मणुस्साणं । अउलोवसमेण पुणो, पच्चक्खाणं हवइ सुद्धं ॥
- आवश्यकनियुक्ति १५९५
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