Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

Previous | Next

Page 58
________________ प्रवचनसारोद्धार, योगशास्त्र आदि ग्रन्थों में प्रत्याख्यान ग्रहण करने वाले साधक और ग्रहण कराने वाले साधक की योग्यता और अयोग्यता को लक्ष्य में रखकर चतुभंगी का प्रतिपादन किया है - १.प्रत्याख्यान ग्रहण करने वाला साधक भी विवेकी हो और प्रत्याख्यानप्रदाता गुरु भी गीतार्थ हो तो वह पूर्ण शुद्ध प्रत्याख्यान है। २. प्रत्याख्यान ग्रहण करने वाला प्रत्याख्यान के रहस्य को नहीं जानता पर प्रत्याख्यान प्रदान करने वाला गुरु प्रत्याख्यान के मर्म को जानता है और वह प्रत्याख्यान करने वाले शिष्य को प्रत्याख्यान का मर्म सम्यक् प्रकार से समझा देता है तो शिष्य का प्रत्याख्यान सही प्रत्याख्यान हो जाता है। यदि वह उसके मर्म को नहीं समझता है तो उसका प्रत्याख्यान अशुद्ध प्रत्याख्यान है। ३. प्रत्याख्यान प्रदान करने वाला गुरु प्रत्याख्यान के मर्म को नहीं जानता किन्तु जो प्रत्याख्यान ग्रहण कर रहा है, वह प्रत्याख्यान के रहस्य को जानता है, तो वह प्रत्याख्यान शुद्ध प्रत्याख्यान है। यदि प्रत्याख्यान ज्ञाता गुरु विद्यमान हों, उनकी उपस्थिति में भी परम्परा आदि की दृष्टि से अगीतार्थ से प्रत्याख्यान ग्रहण करना अनुचित है। ४. प्रत्याख्यान ग्रहण करने वाला प्रत्याख्यान के मर्म को नहीं जानता और जिससे प्रत्याख्यान ग्रहण करना है, वह भी प्रत्याख्यान के रहस्य से अनभिज्ञ है तो उसका प्रत्याख्यान अशद्ध प्रत्याख्यान है।। षडावश्यक में प्रत्याख्यान सुमेरु के स्थान पर है। प्रत्याख्यान से भविष्य में आने वाली अव्रत की सभी क्रियाएँ रुक जाती हैं और साधक नियमों-उपनियमों का सम्यक् पालन करता है। उत्तराध्ययन में प्रत्याख्यान के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुये निम्र प्रकार बताये हैं - १. संभोग-प्रत्याख्यान - श्रमणों द्वारा लाये हुये आहार को एक स्थान पर मण्डलीबद्ध बैठ कर खाने का परित्याग करना। इससे जीव स्वावलम्बी होता है और अपने द्वारा प्राप्त लाभ से ही संतुष्ट रहता है। २. उपधि-प्रत्याख्यान - वस्त्र आदि उपकरणों का त्याग करना। इससे स्वाध्याय आदि करने में विघ्र उपस्थित नहीं होता। आकांक्षा रहित होने से वस्त्र आदि मांगने की और उनकी रक्षा करने की उसे इच्छा नहीं होती तथा मन में संक्लेश भी नहीं होता। ३. आहार-प्रत्याख्यान - आहार का परित्याग करने से जीवन के प्रति ममत्व नहीं रहता। निर्ममत्व होने से आहार के अभाव में भी उसे किसी प्रकार के कष्ट की अनुभूति नहीं होती। ४. योग-प्रत्याख्यान - मन, वचन और काय सम्बन्धी प्रवृत्ति को रोकना योग-प्रत्याख्यान है। यह चौदहवें गुण स्थान में प्राप्त होता है। ऐसा साधक नूतन कर्मों का बन्ध नहीं करता वरन् पूर्वसंचित कर्मों को क्षय करता है। १. जाणगो जाणगसगासे, अजाणगो जाणगसगासे, जाणगो अजाणगसगासे, अजाणगो अजाणगसगासे। - प्रवचनसारोद्धारवृत्ति २. योगशास्त्र, स्वोपज्ञवृत्ति ३. उत्तराध्ययन २९/३३ ४. उत्तराध्ययन २९/३४ ५. उत्तराध्ययन २९/३५ ६. उत्तराध्ययन २९/३७

Loading...

Page Navigation
1 ... 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204