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५. साकार - प्रत्याख्यान करते समय साधक मन में विशेष आकार की कल्पना करता है - यदि इस प्रकार की परिस्थिति उत्पन्न होगी तो मैं इसका त्याग करता हूँ। दूसरे शब्दों में यूं कहा जा सकता है कि मन में अपवाद की कल्पना करके जो त्याग किया जाता है, वह साकार - प्रत्याख्यान है।
६. निराकार - यह प्रत्याख्यान किसी प्रकार का अपवाद रखे बिना किया जाता है। इस प्रत्याख्यान में दृढ़ मनोबल की अपेक्षा होती है । आचार्य अभयदेव ने पाँचवें, छठे प्रत्याख्यान के सम्बन्ध में लिखा कि साकार प्रत्याख्यान में सभी प्रकार के अपवाद व्यवहार में लाये जा सकते हैं, पर अनाकार प्रत्याख्यान में महत्तर की आज्ञा आदि अपवाद भी व्यवहार में नहीं लाये जा सकते, तथापि अनाभोग और सहसाकार की छूट इनमें भी रहती है। वसुनन्दी ने आकार का अर्थ स्पष्ट करते हुये लिखा है कि अमुक नक्षत्र में अमुक तपस्या करनी है। नक्षत्र आदि के भेद के आधार पर लम्बे समय का तपस्या कर प्रत्याख्यान है। नक्षत्र आदि का विचार किये बिना स्वेच्छा से उपवास आदि करना अनाकार प्रत्याख्यान है।
७. परिमाणवत - श्रमण भिक्षा के लिये जाते समय या आहार ग्रहण करते समय यह प्रतिज्ञा ग्रहण करता है कि मैं आज इतना ही ग्रास ग्रहण करूंगा। अथवा भोजन लेने के लिये गृहस्थ के यहाँ जाते समय मन में यह विचार करना कि अमुक प्रकार का आहार प्राप्त होगा तो मैं ग्रहण करूंगा, अन्यथा नहीं। जैसे भिक्षुप्रतिमाधारी श्रमणदत्ति आदि का परिमाण करके ही आहार लेते हैं । मूलाचार में परिमाणकृत के स्थान पर परिमाणगत शब्द आया है।
८. निरवशेष - अशन, पान, खादिम और स्वादिम इन चारों प्रकार के आहार का पूर्ण रूप से परित्याग करना। वसुनन्दी श्रमण का यह अभिमत है कि यह प्रत्याख्यान यावज्जीवन के लिये होता है। पर श्वेताम्बर आगम साहित्य में इस प्रकार का कोई वर्णन नहीं है।
९. सांकेतिक – जो प्रत्याख्यान संकेतपूर्वक किया जाये, वह सांकेतिक प्रत्याख्यान है। जैसे मुट्ठी बाँधकर या किसी वस्त्र में गाँठ लगाकर - जब तक मैं मुट्ठी या गाँठ नहीं खोलूंगा, तब तक कोई भी वस्तु मुख में नहीं डालूंगा। जिस प्रत्याख्यान में साधक अपनी सुविधा के अनुसार प्रत्याख्यान करता है, वह सांकेतिक प्रत्याख्यान कहलाता है। मूलाचार में इसका नाम अद्धानगत है। वसुनन्दी श्रमण में अद्धानगत प्रत्याख्यान का अर्थ मार्गविषयक प्रत्याख्यान किया है। यह अटवी, नदी
आदि को पार करते समय उपवास करने की पद्धति का सूचक है। सहेतुक प्रत्याख्यान का अर्थ है - उपसर्ग आदि आने पर किया जाने वाला उपवास।
१०. अद्धा - समय विशेष की मर्यादा निश्चित करके प्रत्याख्यान करना। इस प्रत्याख्यान के अन्तर्गत (नमोक्कार सहित) नवकारसी, पोरसी, पूर्वार्द्ध, एकाशन, एकस्थान, आचाम्ल, उपवास, दिवसचरिम, अभिग्रह, निर्विकृतिक, ये दस प्रत्याख्यान आते हैं। अद्धा का अर्थ काल है। आचार्य अभयदेव ने अद्धा का अर्थ पोरसी अदि कालमान के आधार पर किया जाने वाला प्रत्याख्यान किया है।
प्रत्याख्यान में आत्मा, मन, वचन और काया की दुष्ट प्रवृत्तियों को रोककर शुभ प्रवृत्तियों में प्रवृत्त होता है। आश्रव का निरुन्धन होने से साधक पूर्ण निस्पृह हो जाता है, जिससे उसे शांति उपलब्ध होती है। प्रत्याख्यान में साधक जिन पदार्थों को ग्रहण करने की छूट रखता है, उन पदार्थों को ग्रहण करते समय आसक्त नहीं होता। प्रत्याख्यान से साधक के जीवन में अनासक्ति की विशेष जागृति होती है।
साधना के क्षेत्र में प्रत्याख्यान का विशिष्ट महत्त्व रहा है। प्रत्याख्यान में किसी भी प्रकार का दोष न लगे, जिसके लिये साधक को सतत जागरूक रहना चाहिये। इसीलिये आवश्यक में छह प्रकार की विशुद्धि का उल्लेख है।
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