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निर्जीण होते हैं। उससे केवलज्ञान, केवलदर्शन का दिव्य आलोक जगमगाने लगता है और शाश्वत मुक्ति रूपी सुख प्राप्त होता
प्रत्याख्यान के मुख्य दो भेद हैं - १. मूलगुण-प्रत्याख्यान और २. उत्तरगुण-प्रत्याख्यान। मूलगुण-प्रत्याख्यान यावज्जीवन के लिये ग्रहण किया जाता है। मूलगुणप्रत्याख्यान के भी दो भेद हैं - १. सर्वमूलगुण-प्रत्याख्यान और २. देशमूलगुण-प्रत्याख्यान । सर्वमूलगुणप्रत्याख्यान में श्रमण के पाँच महाव्रत आते हैं और देशमूलगुणप्रत्याख्यान में श्रमणोपासक के पाँच अणुव्रत आते हैं। उत्तरगुणप्रत्याख्यान प्रतिदिन ग्रहण किया जाता है या कुछ दिनों के लिये। उत्तरगुणप्रत्याख्यान के भी देश उत्तरगुणप्रत्याख्यान और सर्व उत्तरगुणप्रत्याख्यान ये दो भेद हैं । गृहस्थों के लिये तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत, ये सात उत्तरगुणप्रत्याख्यान हैं। श्रमणों और श्रमणोपासक दोनों के लिये दस प्रकार के प्रत्याख्यान हैं। भगवतीसूत्र, स्थानांगवृत्ति, आवश्यकनियुक्ति और मूलाचार में दस प्रत्याख्यान का वर्णन है। जिसका संक्षिप्त सार इस प्रकार है -
१.अनागत - पर्युषण आदि पर्व में जो तप करना चाहिये, वह तप पहले कर लेना जिससे कि पूर्व के समय वृद्ध, रुग्ण, तपस्वी आदि की सेवा सहज रूप से की जा सके। मूलाचार के टीकाकार वसुनन्दी ने लिखा है - चतुर्दशी को किया जाने वाला उपवास प्रतिपदा को करना।
२. अतिक्रान्त – जो तप पर्व के दिनों में करना चाहिये, वह तप पर्व के दिनों में सेवा आदि का प्रसंग उपस्थित होने से न कर सके तो उसे बाद में अपर्व के दिनों में करना चाहिये। वसुनन्दी ने लिखा है - चतुर्दशी को किया जाने वाला उपवास प्रतिपदा को करना।
३. कोटिसहित - जो पूर्व तप चल रहा हो, उस तप को बिना पूर्ण किये ही अगला तप प्रारम्भ करना। आचार्य अभयदेव ने भी स्थानांगवृत्ति में यही अर्थ किया है आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार में कोटि सहित प्रत्याख्यान का अर्थ लिखा है कि शक्ति की अपेक्षा उपवास आदि करने का संकल्प करना। वसुनन्दी के अनुसार यह संकल्प समन्वित प्रत्याख्यान है। जैसे अगले दिन स्वाध्यायवेला पूर्ण होने पर यदि शक्ति रही तो मैं उपवास करूंगा, अन्यथा नहीं करूंगा।
४. नियंत्रित – जिस दिन प्रत्याख्यान करने का विचार हो उस दिन रोग आदि विशेष बाधाएं उपस्थित हो जायें तो भी उन बाधाओं की परवाह किये बिना जो मन में प्रत्याख्यान धारण किया, वह प्रत्याख्यान कर लेना। मूलाचार में इसका नाम विखंडित है, पर दोनों में अर्थभेद नहीं है। प्रस्तुत प्रत्याख्यान चतुर्दश पूर्वधारी जिनकल्पी श्रमण, दशपूर्वधारी श्रमण के लिये है, क्योंकि उनका संकल्प बल इतना सुदृढ़ होता है कि किसी भी प्रकार की कोई भी बाधा उनको निश्चय से विचलित नहीं कर सकती। जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् जिनकल्प का विच्छेद हो गया है, इसलिये यह प्रत्याख्यान भी वर्तमान में नहीं है।
- आवश्यकनियुक्ति १५९६
. १. तत्तो चरित्तधम्मो, कम्मविवेग तओ अपुव्वं तु ।
तत्तो केवलनाणं, तओ य मुक्खो सयासुक्खो॥ २. भगवतीसूत्र ७।२ ३. स्थानांगवृत्ति पत्र ४७२-४७३ ४. आवश्यकनियुक्ति, अध्ययन ६ ५. मूलाचार, षट्आवश्यक अधिकार, गाथा १४०-१४१
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