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के पाँच प्रकार बताये गये हैं - १. सहज श्वास २. शान्त श्वास ३. उखड़ी श्वास ४. विक्षिप्त श्वास और ५. तेज श्वास।
साधक पहले अभ्यास में गहरा और लम्बा श्वास लेता है। दूसरे अभ्यासक्रम में लयबद्ध श्वास का अभ्यास किया जाता है। तृतीय क्रम में सूक्ष्म, शान्त और जमे हुए श्वास का अभ्यास किया जाता है। चतुर्थ अभ्यासक्रम में सहज कुम्भक की स्थिति होती है। इस स्थिति का निर्माण प्राणायाम, प्रलम्ब जाप और ध्यान से किया जाता है। प्राणायाम का सीधा प्रभाव शरीर पर गिरता है किन्तु मनोग्रन्थि पर चोट करने के लिये मन का संकल्पबद्ध होना आवश्यक है। कितने ही जैनाचार्यों ने दीर्घ श्वास को उपयोगी माना है किन्तु तेज श्वास को नहीं। उनका मन्तव्य है कि तीव्र श्वास की चोट से शरीर और मन अत्यधिक थकान के कारण शिथिल हो जाते हैं, चेतना के प्रति सावधानता की स्थिति नहीं होती। उस अवस्था में मूर्छा और थकान के कारण आने वाली तन्द्रारूप शून्यता से अपने आप को बचाना भी कठिन हो जाता है। इसलिये श्वास को उखाड़ना नहीं चाहिये। उसे लम्बा और गहरा करना चाहिये। जितना श्वास धीमा होता है, शरीर में उतनी ही क्रियाशीलता न्यून हो जाती है। श्वास की सूक्ष्मता ही शान्ति है। प्रारम्भ में उर्जा का विस्तार और नया उत्पादन नहीं होता। केवल उर्जा का संरक्षण होता है और कुछ दिनों के पश्चात् वह संचित उर्जा मन को एक दिशागामी बना कर उसे एक ध्येय में लगाती है। श्वास की मंदता से शरीर भी निष्क्रिय हो जाता है, प्राण शांत हो जाते हैं। मन निर्विचार हो और अन्तर्मानस में तीव्रतम वैराग्य उद्बुद्ध हो जाता है। ज्यों-ज्यों श्वास चंचल होता है, त्यों-त्यों मन भी चंचल होता है। श्वास के स्थिर होने पर मन की चंचलता भी नष्ट हो जाती है। श्वास शरीर में रहा हुआ यंत्र है जिसके अधिक सक्रिय होने पर शरीरकेन्द्रों में उथल-पुथल मच जाती है और सामान्य होते ही उसमें एक प्रकार की शान्ति व्याप्त हो जाती है। श्वास की निष्क्रियता ही मन की शान्ति और समाधि है। जब हमें क्रोध आता है उस समय हमारी सांस की गति तीव्र हो जाती है पर ध्यान में श्वासगति शान्त होने से उसमें मन की स्थिरता होती है।
कायोत्सर्ग की योग्यता प्रतिक्रमण के पश्चात् आती है। प्रतिक्रमण में पापों की आलोचना हो जाने से चित्त पूर्ण रूप से निर्मल बन जाता है, जिससे धर्मध्यान और शुक्लध्यान में साधक एकाग्रता प्राप्त कर सकता है। यदि साधक बिना चित्तशुद्धि किये ही कायोत्सर्ग करता है तो उसे उतनी सफलता प्राप्त नहीं होती। एतदर्थ ही षडावश्यक में प्रतिक्रमण के पश्चात् कायोत्सर्ग का विधान किया है।
__ कायोत्सर्ग को सही रूप से सम्पन्न करने के लिये यह आवश्यक है कि कायोत्सर्ग के दोषों से बचा जाये। प्रवचनसारोद्धार प्रभृति ग्रन्थों में कायोत्सर्ग के १९ दोष वर्णित हैं - १. घोटक दोष २. लता दोष ३. स्तंभकुड्य दोष ४. माल दोष ५. शबरी दोष ६. वधु दोष ७. निगड़ दोष ८. लम्बोत्तर दोष ९. स्तन दोष १०. उर्द्धिका दोष ११. संयती दोष १२. खलीन दोष १३. वायस दोष १४. कपित्य दोष १५. शीर्षोत्कम्पित दोष १६. मूक दोष १७. अंगुलिका भ्रू दोष १८. वारुणी दोष और १९. प्रज्ञा दोष।
इन दोषों का मुख्य सम्बन्ध शरीर से तथा बैठने और खड़े रहने के आसन आदि से है । अतः साधक को इन दोषों से मुक्त हो कर कायोत्सर्ग की साधना करनी चाहिये।
जैसे जैनधर्म में कायोत्सर्ग का विधान है, उस पर अत्यधिक बल दिया है, वैसे ही न्यूनाधिक रूप में वह अन्य धार्मिक परम्पराओं में भी मान्य रहा है। बोधिचर्यावतार' ग्रन्थ में आचार्य शान्तिरक्षित ने लिखा है - सभी देहधारियों को जिस
१. चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत्।
निष्फलं तं विजानीयात् श्वासो य लयं गतः॥ २. बोधिचर्यावः र ३। १२-१३
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