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बौद्ध साहित्य के मनीषियों का यह अभिमत है कि यहां जो सम्यक् शब्द का प्रयोग हुआ है वह सम के अर्थ में है, क्योंकि पाली भाषा में जो सम्मा शब्द है, उसके सम और सम्यक् दोनों रूप बनते हैं। यहां पर जो सम्यक् शब्द का प्रयोग हुआ है, वह राग द्वेष की वृत्तियों को न्यून करने के अर्थ में व्यवहत हुआ है। जब राग-द्वेष की मात्रा कम होती है, तभी साधक समत्वयोग की ओर अपने कदम बढ़ा सकता है। अष्टांगिक मार्ग में अन्तिम मार्ग का नाम सम्यक् समाधि है। समाधि में चित्तवृत्ति राग द्वेष से रहित हो जाती है। जब तक चित्तवृत्तियाँ राग-द्वेष से मुक्त नहीं बनतीं, तब तक समाधि के संदर्शन नहीं होते। संयुत्तनिकाय' में तथागत बुद्ध ने कहा - जिन व्यक्तियों ने धर्मों को सही रूप से जान लिया है, जो किसी मत पक्ष या बाद में उलझे हुए नहीं हैं वे सम्बुद्ध हैं समदृष्टा हैं और विषम स्थितियों में भी उनका आचरण सम रहता है। संयुत्तनिकाय में अन्य स्थान पर बुद्ध ने स्पष्ट कहा-आर्यों का मार्ग सम है। आर्य विषम स्थिति में भी सम का आचरण करते हैं। मज्झिमनिकाय में राग-द्वेष, मोह के उपशम को ही परम
मन माना है। सुत्तनिपात में कहा गया है जिस प्रकार मैं हूं, वैसे ही संसार के सभी प्राणी हैं। अतः सभी प्राणियों को अपने सदृश समझकर आचरण करना चाहिये। बौद्धदर्शन में माध्यस्थ वृत्ति पर जो बल दिया है, उसका मूल आधार भी समभाव ही है। इस प्रकार बौद्धधर्म में यत्र तत्र समत्व के उल्लेख प्राप्त हैं। इससे यह स्पष्ट है कि बौद्धधर्म में भी समभाव को साधना का एक आवश्यक अंग माना है। यह सत्य है कि उन्होंने सामायिक का निरूपण नहीं किया, पर सामायिक का जो मूल समभाव है, उसका उल्लेख जरूर किया है।
वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में भी समत्वयोग की चर्चा यत्र तत्र हुई है। श्रीमद्भगवद्गीता वैदिक परम्परा का एक प्रतिनिधि ग्रन्थ है। उसमें योग की चर्चा करते हुए समत्व को ही योग कहा है। ज्ञान, कर्म, भक्ति, ध्यान आदि का उद्देश्य समत्व है। बिना समत्व के ज्ञान, अज्ञान है। जिसमें समत्व भाव है वही वस्तुतः यथार्थ ज्ञानी है। बिना समता के कर्म अकर्म नहीं बनता, समत्व के अभाव में कर्म का बन्धकत्व बना रहेगा। समत्व के अभाव में भक्त भी सच्चा भक्त नहीं है। समत्व में वह अपूर्व शक्ति है, जिससे अज्ञान ज्ञान के रूप में परिवर्तित हो जाता है और वह ज्ञान योग के रूप में जाना जाता है। गीताकार की दृष्टि से स्वयं परमात्मा । ब्रह्म सम है। जो व्यक्ति समत्व में अवस्थित रहता है, वह परमात्मत्वभाव में ही अवस्थित है। नवम अध्याय में श्रीकृष्ण ने वीर अर्जुन को कहा - हे अर्जुन! मैं सभी प्राणियों में सम के रूप में स्थित हूँ। गीताकार की दृष्टि से समत्व का क्या अर्थ है? इस प्रश्न पर चिन्तन करते
१. संयुक्तनिकाय १/१/८ २. संयुक्तनिकाय १/२/६ ३. मज्झिमनिकाय ३/४०/२ ४. सुत्तनिपात ३/३६/७ ५. श्रीमद्भगवद्गीता २/४८ ६. श्रीमद्भगवद्गीता ५/१८ ७. श्रीमद्भगवद्गीता ४/२२ ८. (क) श्रीमद्भगवद्गीता ५/१९ ९. श्रीमद्भगवद्गीता ५/१९ १०.श्रीमद्भगवद्गीता ९/१९
(ख) गीता (शांकर भाष्य)५/१८
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