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कृष्णयजुर्वेद में एक मंत्र है कि मेरे मन, वाणी और शरीर से जो भी दुराचरण हुआ हो, मैं उसका विसर्जन करता
इस प्रकार वैदिक परम्परा में संध्या के द्वारा आचरित पापों के क्षय के लिये प्रभु से अभ्यर्थना की जाती है। यह एक दृष्टि से प्रतिक्रमण से ही मिलता-जुलता रूप है।
पारसी धर्म में भी पाप को प्रकट करने का विधान है। खोरदेह अवस्ता पारसी धर्म का मुख्य ग्रन्थ है। उस ग्रन्थ में कहा गया है - मेरे मन में जो बुरे विचार समुत्पन्न हुये हों, वाणी से तुच्छ भाषा का प्रयोग हुआ हो और शरीर से जो अकृत्य किये हों, जो भी मैंने दुष्कृत्य किये हैं, मैं उसके लिये पश्चात्ताप करता हूँ। अहंकार, मृत व्यक्तियों की निन्दा, लोभ, क्रोध, ईर्ष्या, बुरी दृष्टि से निहारना, स्वच्छन्दता, आलस्य, कानाफूसी, पवित्रता का भंग, मिथ्या साक्ष्य, तस्करवृत्ति, व्यभिचार, जो भी पाप मुझसे ज्ञात अथवा अज्ञात रूप से हुये हैं, उन दुष्कृत्यों को मैं सरल हृदय से प्रकट करता हूँ। उन सब से अलग होकर पवित्र होता हूं।
ईसाई धर्म के प्रणेता महात्मा यीशु ने पाप को प्रकट करना आवश्यक माना। पाप को छिपाने से वह बढ़ता है और प्रकट करने से घट जाता है या नष्ट हो जाता है। इस तरह पाप को प्रकट कर दोषों से मुक्त होने का उपाय जो बताया गया है वह प्रतिक्रमण से मिलता-जुलता है। प्रतिक्रमण जीवन शुद्धि का श्रेष्ठतम प्रकार है। किसी धर्म में उसकी विस्तार से चर्चा है तो किसी में समास से। पर यह सत्य है कि सभी ने उसको आवश्यक माना है। कायोत्सर्ग
जैन साधना पद्धति में कायोत्सर्ग का भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। कायोत्सर्ग को अनुयोगद्वारसूत्र में व्रणचिकित्सा कहा है। सतत सावधान रहने पर ही प्रमाद आदि के कारण साधना में दोष लग जाते हैं. भलें हो जाती हैं। भलों रूपी घावों को ठीक करने के लिये कायोत्सर्ग एक प्रकार का मरहम है । वह अतिचार रूपी घावों को ठीक कर देता है । एक वस्त्र बहुत ही मलीन हो गया है, उसे साफ करना है, वह एक बार में साफ नहीं होगा, उसे बार-बार साबुन लगा कर साफ किया जाता है, उसी प्रकार संयम रूपी वस्त्र पर भी अतिचारों का मैल लग जाता है, भूलों के दाग लग जाते हैं। उन दागों को प्रतिक्रमण के द्वारा स्वच्छ किया जाता है। प्रतिक्रमण में भी जो दाग नहीं मिटते उन्हें कायोत्सर्ग के द्वारा हटाया जाता है। कायोत्सर्ग में गहराई से चिन्तन कर उस दोष को नष्ट करने का उपक्रम किया जाता है। कायोत्यर्ग क्यों किया जाता है ? उस प्रश्र पर आवश्यक सूत्र में चिन्तन करते हुये लिखा है - संयमी जीवन को अधिकाधिक परिष्कृत करने के लिये, आत्मा को माया, मिथ्यात्व और निदान शल्य से मुक्त करने के लिये, पाप कर्मों के निर्घात के लिये कायोत्सर्ग किया जाता है।
कायोत्सर्ग में काया और उत्सर्ग - ये दो शब्द आते हैं। जिसका तात्पर्य है-काय का त्याग। पर जीवित रहते हुये शरीर का त्याग सम्भव नहीं है। यहाँ पर शरीरत्याग का अर्थ है-शारीरिक चंचलता और देहासक्ति का त्याग। साधक कुछ समय तक संसार के भौतिक पदार्थों से अलग-थलग रहकर आत्मस्वरूप में लीन होता है। कायोत्सर्ग अन्तर्मुखी होने की एक
१. कृष्णयजुर्वेद - दर्शन और चिन्तन : भाग २, पृ० १९२ से उद्धृत। २. खोरदेह अवस्ता, पृ०५/२३-२४ ३. तस्स उत्तरीकरणेणं पायच्छित्तकरणेणं, विसोहीकरणेणं, विसल्लीकरणेणं, पावाणं कम्माणं निग्घायणट्ठाए ठामि काउस्सग्गं।
- आवश्यकसूर
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