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जाता है। आचार्य शान्तिदेव ने ही पापदेशना के प्रकृतिसावद्य और प्रज्ञप्तिसावद्य-ये दो प्रकार बताये हैं। प्रकृतिसावध वह है, जो स्वभाव से ही निन्दनीय है, जैसे हिंसा, असत्य, चोरी आदि और प्रज्ञप्तिसावध है व्रत ग्रहण करने के पश्चात् उसका भंग करना, जैसे विकाल भोजन, परिग्रह आदि। बोधिचर्यावतार में आचार्य शान्तिदेव लिखते हैं - जो भी प्रकृतिसावध और प्रज्ञप्तिसावध पाप मुझ अबोध मूढ ने कमाये हैं, उन सब की देशना दुःख से घबराकर मैं प्रभु के सामने हाथ जोड़कर बारम्बार प्रणाम करता हूँ। हे नायको! अपराध को अपराध के रूप में ग्रहण करो। मैं यह पाप फिर नहीं करूंगा। बौद्ध प्रवारणा, जैसा कि ज्येष्ठ भिक्षु आचारसंहिता का पाठ करता है और प्रत्येक नियम के पढ़ने के पश्चात् उपस्थित भिक्षुओं से वह इस बात की अपेक्षा करता है कि यदि किसी ने नियम का भंग किया है तो वह संघ के समक्ष उसे प्रकट कर दे। जैन परम्परा में गुरु के समक्ष या गीतार्थ के समक्ष पापों की आलोचना करने का विधान है। पर संघ के समक्ष पाप को प्रकट करने की परम्परा नहीं है। संघ के समक्ष पाप को प्रकट करने से अगीतार्थ व्यक्ति उसका दुरुपयोग भी कर सकते हैं। उससे निन्दा की स्थिति भी बन सकती है। इसलिये जैनधर्म ने गीतार्थ के सामने आलोचना का विधान किया। संघ के समक्ष जो प्रवारणा है, उसकी तुलना वर्तमान में प्रचलित सामूहिक प्रतिक्रमण के साथ की जा सकती है। प्रतिक्रमण और संध्या
वैदिक परम्परा में प्रतिक्रमण की तरह संध्या का प्रावधान है। यह एक धार्मिक अनुष्ठान है, जो प्रात: और सायंकाल दोनों समय किया जाता है। संध्या का अर्थ है-सम्-उत्तम प्रकार से ध्यै-ध्यान करना। अपने इष्टदेव का भक्ति-भावना से विभोर होकर श्रद्धा के साथ ध्यान करना, चिन्तन करना। संध्या का दूसरा अर्थ है मिलन/संयोग/सम्बन्ध। उपासना के समय उपासक का परमेश्वर के साथ संयोग या सम्बन्ध होना। तीसरा अर्थ है रात्रि और दिन की संन्धि-वेला में जो धार्मिक अनुष्ठान किये जाते हैं, वह संध्या है। इस संध्या में विष्णुमंत्र के द्वारा शरीर पर जल छिटककर शरीर को पवित्र बनाने का उपक्रम किया जाता है। पृथ्वी माता की स्तुति से अभिमंत्रित कर आसन पर जल छिटककर उसे पवित्र किया जाता है। उसके बाद सृष्टि के उत्पत्तिक्रम पर विचार होता है, फिर प्राणायाम का चक्र चलता है। अग्नि, वायु, आदित्य, वृहस्पति, वरुण, इन्द्र और विश्व देवताओं की महिमा और गरिमा गाई गई है। सप्तव्याहृति इन्हीं देवों के लिये होती है। वैदिक महर्षियों ने जल की संस्तुति बहुत ही भावना के साथ की है। उन्होंने कहा - हे जल! आप जीव मात्र के मध्य में विचरते हो, ब्रह्माण्ड रूपी गुहा में सब ओर आपकी गति है। तुम्हीं यज्ञ हो, वषट्कार हो, अप् हो ज्योति हो, रस हो और अमृत भी तुम्ही हो।' संध्या में तीन बार सूर्य को जल के द्वारा अर्घ्य दिया जाता है। प्रथम अर्घ्य में तीन राक्षसों की सवारी का, दूसरे में राक्षस के शस्त्रों का और तीसरे में राक्षसों के नाश की कल्पना की जाती है। उसके पश्चात् गायत्री मंत्र पढ़ा जाता है। उसमें सूर्य से बुद्धि एवं स्फूर्ति की प्रार्थना की जाती है। इन स्तुतियों में जल छिटकने की भी प्रथा है, जो बाह्यचार पर आधृत है। अन्तर्जगत की भावनाओं को स्पर्श कर पाप-मल से आत्मा को मुक्त करने का उपक्रम नहीं है। एक मंत्र में इस प्रकार के भाव अवश्य ही व्यक्त हुये हैं -
"सूर्य नारायण, यक्षपति और देवताओं से मेरी प्रार्थना है-यक्ष विषयक तथा क्रोध से किये हुये पापों से मेरी रक्षा करें। दिन और रात्रि में मन, वाणी, हाथ, पैर, उदर और शिश्न से जो पाप हुये हों उन पापों को मैं अमृतयोनि सूर्य में होम करता हूँ। इसलिये वह उन पापों को नष्ट करें। २ १. ॐअन्तश्चरसि भूतेषु, गुहायां विश्वतोमुखः।
त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कार, आपो ज्योतिरसोऽमृतम्। २. ओम् सूर्यश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः पापेभ्यो रक्षन्ताम्। यद् अह्रा यद् रात्र्या पापमकाएं मनसा वाचा हस्ताभ्यां
पद्भ्यामुदरेण शिश्ना रात्रिस्तदवलुम्पतु, यत् किञ्चिद् दूरितं मयि इदमहमापोऽमृतयोनी सूर्ये ज्योतिषि जुहोमि स्वाहा।"
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