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पापाचरण शल्य के सदृश है। यदि उसे बाहर नहीं निकाला गया, मन में ही छिपा कर रखा गया तो उसका विष अन्दर ही अन्दर बढ़ता चला जायेगा और वह विष साधक के जीवन को बरबाद कर देगा।
मानव की एक बड़ी कमजोरी यह है कि वह अपने सद्गुणों को तो सदा स्मरण रखता है किन्तु दुर्गुणों को भूल जाता है। साथ ही वह अन्य व्यक्तियों के सद्गुणों को भूल कर उनके दुर्गुणों को स्मरण रखता है। यही कारण है कि वह यदाकदा अपने सद्गुणों की सूची प्रस्तुत करता है और दूसरों के दुर्गुणों की गाथाएं गाता हुआ नहीं अघाता। जबकि साधक को दूसरों के सद्गुण और अपने दुर्गुण देखने चाहिये । प्रतिक्रमण के आठ पर्यायवाची शब्दों में निन्दा और गर्हा शब्द प्रयुक्त हुये हैं। दूसरों की निन्दा से कर्म बन्धन होता है और स्वनिन्दा से कर्मों की निर्जरा होती है। जब साधक अपने जीवन का निरीक्षण करता है तो उसे अपने जीवन में हजारों दुर्गुण दिखाई देते हैं। उन दुर्गुणों को वह धीरे-धीरे निकालने का प्रयास करता है । साधक के जीवन की यह विशेषता है कि वह गुणग्राही होता है उसकी दृष्टि हंस दृष्टि होती है। वह हंस की तरह सद्गुणों के पथ को ग्रहण करता है, मुक्ताओं को चुगता है। वह काक की तरह विष्ठा पर मुँह नहीं रखता।
बौद्धधर्म में प्रवारणा
जैनधर्म में व्यवस्थित रूप से निशान्त और दिवसान्त में जिस प्रकार साधकों के लिये प्रतिक्रमण करने का विधान है, उसी प्रकार पाप से मुक्त होने के विधान अन्य परम्पराओं में भी पाये जाते हैं। बौद्धधर्म में प्रतिक्रमण शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है पर उसके स्थान पर प्रतिकर्म, प्रवारणा और पापदेशना प्रभृति शब्दों का प्रयोग हुआ। उदान में तथागत बुद्ध ने कहा
जीवन की निर्मलता एवं दिव्यता के लिये पापदेशना आवश्यक है। पाप के आचरण की आलोचना करने से व्यक्ति पाप के
बौद्धधर्म में प्रवारणा का अत्यधिक महत्व रहा है। वर्षावास के. दोषों के सम्बन्ध में गहराई से निरीक्षण करता कि हमारे जीवन
भार से हल्का हो जाता है। खुला हुआ पाप चिपकता नहीं पश्चात् भिक्षुसंघ एकत्रित होता है और अपने कृत अपराधों में प्रस्तुत वर्षावास में क्या-क्या दोष लगे हैं ? यह प्रवारणा है। इसमें दृष्ट, श्रुत परिशंकित अपराधों का परिमार्जन किया जाता। जिससे परस्पर विनय का अनुमोदन होता । प्रवारणा की विधि इस प्रकार थी - प्रमुख भिक्षु संघ को यह सूचित करता कि आज प्रवारणा है। सर्वप्रथम स्थविर भिक्षु उत्तरासंघ को अपने कंधे पर रखकर कुक्कुट आसन पर बैठता। हाथ जोड़कर संघ से यह निवेदन करता है कि में दृष्ट, श्रुत, परिशंकित अपराधों की आपके सामने प्रवारणा कर रहा हूँ। संघ मेरे अपराधों को बताये, मैं उनका स्पष्टीकरण करूंगा। वह इस बात को तीन बार दोहराता है। उसके बाद उससे छोटा भिक्षु और फिर क्रमशः सभी भिक्षु दोहराते हैं अपने पापों को। इस प्रकार प्रवारणा से पाक्षिक शुद्धि की जाती है। प्रवारणा चतुर्दशी और पूर्णिमा को की जाती। पहले कम से कम पाँच भिक्षु प्रवारणा में आवश्यक माने जाते थे। उसके बाद चार, तीन, दो और अन्त में एक भिक्षु भी प्रवारणा कर सकता है यह अनुमति दी गई है। विशेष स्थिति में प्रवारणा बहुत ही संक्षेप में और अन्य समय में भी की जा सकती थी।
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बोधिचर्यावतार' नामक ग्रन्थ में आचार्य शान्तिदेव ने लिखा है- रात्रि में तीन बार और दिन में तीन बार त्रिस्कन्ध, पापदेशना- पुण्यानुमोदना और बोधिपरिणामना की आवृत्ति करनी चाहिये, जिससे अनजाने में हुई स्खलनाओं का शमन हो
१. उदान ५/५, अनुवादक जगदीश काश्यप, महाबोधि सभा, सारनाथ
२. अनुजानामि भिक्खवे, वस्सं, बुट्ठानं, भिक्खून तीहि ठानेहि पकारेतु दिट्ठेन वा सुतेन वा परिसंकाय वा ।
सा वो भविस्सति अज्ञामज्ञानुलोमता आपत्तिवुट्ठानता विनयपुरेक्खा रता ।
महावग्ग, पृ० १६७
३. बोधिचर्यावतार ५/९८
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