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खड़ा
बैठा
बैठे-बैठे ही वह कायोत्सर्ग करता है। तन की दृष्टि से वह बैठा हुआ है और भाव की दृष्टि से भी उसमें जागृति नहीं है। उसका मन सांसारिक विषय-वासना में या रागद्वेष में फंसा हुआ है। उसका तन और मन दोनों ही बैठे हुये हैं । कायोत्सर्ग के इन चार प्रकारों में प्रथम और तृतीय प्रकार का कायोत्सर्ग ही सही कायोत्सर्ग है। इन कायोत्सर्ग के द्वारा ही साधक साधना के महान् लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।
शारीरिक अवस्थिति और मानसिक चिन्तनधारा की दृष्टि से आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यकनियुक्ति में कायोत्सर्ग के नौ प्रकार बताये है - शारीरिक स्थिति
मानसिक विचारधारा उत्सृत-उत्सृत खड़ा
धर्म-शुक्लध्यान २. उत्सृत
खड़ा
न धर्म-शुक्ल, न आई-रौद्र किन्तु चिन्तनशून्य दशा ३. उत्सृत-निषण्ण
आर्त-रौद्रध्यान ४. निषण्ण-उत्सृत बैठा
धर्म-शुक्लध्यान निषण्ण
न धर्म-शुक्लध्यान, न आत-रौद्र किन्तु चिन्तनशून्य दशा निषण्ण-निष्ण्ण बैठा
आर्त-रौद्रध्यान निषण्ण-उत्सृत लेटा
धर्म-शुक्लध्यान निषण्ण
न धर्म-शुक्ल, न आत-रौद्र किन्तु चिन्तनशून्य दशा ९. निषण्ण-निषण्ण
लेटा
आर्त्त-रौद्रध्यान कायोत्सर्ग खड़े होकर, बैठकर और लेटकर तीनों अवस्थाओं में किया जा सकता है। खड़ी मुद्रा में कायोत्सर्ग करने की रीति इस प्रकार है-दोनों हाथों को घुटनों की ओर लटका लें, पैरों को सम रेखा में रखें, एडियां मिली हों और दोनों पैरों के पंजों में चार अंगुल का अन्तर हो। बैठी मुद्रा में कायोत्सर्ग करने वाला पद्मासन या सुखासन से बैठे। हाथों को या तो घुटनों पर रखे या बायीं हथेली पर दायीं हथेली रखकर उन्हें अंक में रखे। लेटी हुई मुद्रा में कायोत्सर्ग करने वाला सिर से लेकर पैर तक के अवयवों को पहले ताने फिर स्थिर को। हाथ-पैर को सटाये हुये न रखे। इन सभी में अंगों का स्थिर और शिथिल होना आवश्यक है।
खड़े होकर कायोत्सर्ग करने की एक विशेष परम्परा रही है। क्योंकि तीर्थकर प्रायः इसी मुद्रा में कायोत्सर्ग करते हैं । आचार्य अपराजित ने लिखा है कि कायोत्सर्ग करने वाला साधक शरीर से निष्क्रिय हो कर खम्भे की तरह खड़ा हो जाये। दोनों बाहुओं को घुटनों की ओर फैला दे। प्रशस्त ध्यान में लीन हो जाये। शरीर को एकदम अकड़ा कर न खड़ा रखे और न एकदम झुका कर ही। वह सममुद्रा में खड़ा रहे। कायोत्सर्ग में कष्टों और परीषहों को समभाव से सहन करे। कायोत्सर्ग
लेटा
१. आवश्यकनियुक्ति, गाथा १४५९-६० २. योगशास्त्र ३, पत्र २५०
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