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होती हो, आर्त और रौद्र ध्यान बढ़ते हों, वह कायोत्सर्ग के नाम पर किया गया कायक्लेश है। आचार्य भद्रबाहु ने तो यहाँ तक कहा है कि एक साधक कायोत्सर्ग-मुद्रा में लीन है और यदि किसी दूसरे साधक को साँप आदि ने डस लिया तो ऐसी स्थिति में वह साधक उसी समय कायोत्सर्ग छोड़कर दंशित साधक की सहायता करे। उस समय कायोत्सर्ग की अपेक्षा सहयोग देना ही श्रेयस्कर है।
कायोत्सर्ग का अर्थ केवल इतना ही नहीं है कि शारीरिक चंचलता का त्याग कर वृक्ष की भांति या पर्वत की तरह या सूखे काष्ठ की तरह साधक निस्पंद खड़ा हो जाये। शरीर से सम्बन्धित निस्पंदता तो एकेन्द्रिय आदि प्राणियों में भी हो सकती है। पर्वत पर चाहे जितने भी प्रहार करो, वह कब चंचल होता है ? वह किसी पर रोष भी नहीं करता। उसमें जो स्थैर्य है, वह अविकसित प्राणी का स्थैर्य है किन्तु कायोत्सर्ग में होने वाला स्थैर्य भिन्न प्रकार का है। आचार्य जिनदासगणी महत्तर ने कायोत्सर्ग के दो प्रकार बताये हैं-१. द्रव्यकायोत्सर्ग और भावकायोत्सर्ग। द्रव्यकायोत्सर्ग में पहले शरीर का निरोध किया जाता है। शरीरिक चंचलता और ममता का परित्याग कर जिन-मुद्रा में स्थिर होना, कायचेष्टा का निरुन्धन करना, यह कायकायोत्सर्ग है । इसे द्रव्यकायोत्सर्ग भी कहते हैं । इसके पश्चात् साधक धर्मध्यान और शुक्लध्यान में रमण करता है। मन को पवित्र विचार और संकल्प से बांधता है, जिससे उसको किसी भी प्रकार की शारीरिक वेदना का अनुभव नहीं होता। वह तन में रहकर भी तन से अलग-थलग आत्मभाव में रहता है। यही भावकायोत्सर्ग का भाव है। इस प्रकार का कायोत्सर्ग ही सभी प्रकार के दुःखों को नष्ट करने वाला है।
द्रव्य और भाव के भेद को समझने के लिये आचार्यों ने कायोत्सर्ग के चार प्रकार बतलाये हैं - १. उत्थितउत्थित २. उत्थित-निविष्ट ३. उपविष्ट-उत्थित ४. उपविष्ट-निविष्ट ।
१. उत्थित-उत्थित - इस कायोत्सर्ग-मुद्रा में जब साधक खड़ा होता है तो उसके साथ ही उसके अन्तर्मानस में चेतना भी खड़ी हो जाती है। वह अशुभ ध्यान का परित्याग कर प्रशस्त ध्यान में लीन हो जाता है। वह प्रथम श्रेणी का साधक है। उसका तन भी उत्थित है और मन भी। वह द्रव्य और भाव दोनों ही दृष्टियों से उत्थित है।
२. उत्थित-निविष्ट - कुछ साधक साधना की दृष्टि से आँख मूंदकर खड़े हो जाते हैं। वे शारीरिक दृष्टि से तो खड़े दिखाई देते हैं किन्तु मानसिक दृष्टि से उनमें कुछ भी जागृति नहीं होती। उनका मन संसार के विविध पदार्थों में उलझा रहता है। आर्त और रौद्र ध्यान की धारा में वह अवगाहन करता रहता है। तन से खड़े होने पर भी उसका मन बैठा है। अतः उत्थित होकर भी वह साधक निविष्ट है।
३. उपविष्ट-उत्थित - कभी-कभी शारीरिक अस्वस्थता अथवा वृद्धावस्था के कारण कायोत्सर्ग के लिये साधक खड़ा नहीं हो सकता। वह शारीरिक सुविधा की दृष्टि से पद्मासन आदि सुखासन से बैठकर कायोत्सर्ग करता है। तन की दृष्टि से वह बैठा हुआ है किन्तु मन में तीव्र शुभ-शुद्ध भावधारा प्रवाहित हो रही होती है, जिसके कारण बैठने पर भी वह मन से उत्थित है। शरीर भले ही बैठा है किन्तु साधक का मन उत्थित है।
४. उपविष्ट-निविष्ट - कोई साधक शारीरिक दृष्टि से समर्थ होने पर भी आलस्य के कारण खड़ा नहीं होता।
१. सो पुण काउस्सग्गो दव्वतो भावतो य भवति।
दष्वतो कायचेट्ठा निरोहो, भावतो काउस्सग्गो झाणं॥ २. काउस्सगं तओ कुज्जा सव्वदुक्खविमोक्खणो।
- आवश्यकचूर्णि - उत्तराध्ययन २६-४२
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