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होता है। जो सद्गुणी हैं, उन्हीं के चरणों में वह नत होता है। जीवन में विनय आवश्यक है। जैन आगमों में विनय को धर्म का मूल कहा है। आगमसाहित्य में विनय के सम्बन्ध में विस्तार से विवेचना है, तथापि यह सत्य है कि जैनधर्म वैनयिक नहीं है। भगवान् महावीर के युग में एक ऐसा पन्थ था जिसके अनुयायी पशु पक्षी आदि जो भी मार्ग में मिल जाता, उसे वे नमस्कार करते थे। भगवान् महावीर ने स्पष्ट शब्दों में कहा - मानव! तेरा मस्तिष्क ऐरे-गैरे के चरणों में झुकने के लिये नहीं है। नम्र होना अलग बात है, पर हर एक व्यक्ति को परमादरणीय समझकर नमस्कार करना अलग बात है। जैनधर्म में सद्गुणों की उपासना की गई है। उसका सिर सद्गुणियों के चरणों में नत होता है। सद्गुणों को नमन करने का अर्थ है सद्गुणों को अपनाना। यदि साधक असंयमी पतित व्यक्ति को नमस्कार करता है, जिसके जीवन में दुराचार पनप रहा हो, वासनाएँ उभर रही हों, राग-द्वेष की ज्वालाएं धधक रही हों, उस व्यक्ति को नमन करने का अर्थ है - उन दुर्गुणों को प्रोत्साहन देना। आचार्य भद्रबाहु' ने आवश्यकनियुक्ति में बहुत ही स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि ऐसे गुणहीन व्यक्तियों को नमस्कार नहीं करना चाहिए, क्योंकि गुणों से रहित व्यक्ति अवन्दनीय होते हैं। अवन्दनीय व्यक्तियों को नमस्कार करने से कर्मों की निर्जरा नहीं होती और न कीर्ति ही बढ़ती है। असंयम और दुराचार का अनुमोदन करने से नये कर्म बंधते हैं। अतः उनको वन्दन व्यर्थ है। एक अवन्दनीय व्यक्ति जो जानता है कि मेरा जीवन दुर्गुणों का आगार है, यदि वह सद्गुणी व्यक्तियों से नमस्कार ग्रहण करता है तो वह अपने जीवन को दूषित करता है। असंयम की वृद्धि कर अपना ही पतन करता है।
जैनधर्म की दृष्टि से साधक में द्रव्य चारित्र और भाव चारित्र ये दोनों आवश्यक हैं। यदि द्रव्य चारित्र नहीं है, केवल भाव चारित्र ही है, तो वह प्रशंसनीय नहीं है। क्योंकि सामान्य साधकों के लिये उसका पवित्र चारित्र ही पथप्रदर्शक होता है। केवल द्रव्य चारित्र ही है, और भाव चारित्र का अभाव है तो भी वह श्लाघनीय नहीं है। वह तो केवल दिखावा है। साधक को ऐसे ही गुरु की आवश्यकता है जिसके द्रव्य और भाव दोनों ही चारित्र निर्मल हों, व्यवहार और निश्चय दोनों ही दृष्टियों से जिसके जीवन में पूर्णता हो, वही सद्गुरु वन्दनीय और अभिनन्दनीय होतः है। ऐसे सद्गुरु से साधक पवित्र प्रेरणा ग्रहण कर सकता है। वन्दना आवश्यक में ऐसे ही सद्गुरु को नमन करने का विधान है।
वन्दन करने से अहंकार नष्ट होता है, विनय की उपलब्धि होती है। सद्गुरुओं के प्रति अनन्य श्रद्धा व्यक्त होती है। तीर्थकरों की आज्ञा का पालन करने से शुद्ध धर्म की आराधना होती है। अतः साधक को सतत जागरूक रहकर वन्दन करना चाहिये। वन्दन करने में किंचिन्मात्र भी उपेक्षा नहीं रखनी चाहिए। जब साधक के अन्तर्मानस में भक्ति का स्रोत प्रवाहित होता है, तब सहसा वह सद्गुरुओं के चरणों में झुक जाता है। जिस वन्दन में भक्ति की प्रधानता नहीं, केवल भय, प्रलोभन, प्रतिष्ठा आदि भावनाएँ पनप रही हों, वह वन्दन केवल द्रव्य वन्दन है, भाव वन्दन नहीं। द्रव्य वन्दन से कितनी ही बार कर्म बन्धन भी हो जाता है। पवित्र और निर्मल भावना से किया गया वन्दन ही सही वन्दन है। आचार्य मलयगिरि ने लिखा है द्रव्य वन्दन मिथ्यादृष्टि भी करता है किन्तु भाव वन्दन सम्यग्दृष्टि ही
- आवश्यकनियुक्ति ११०८
१. पासत्थाई वंदमाणस्स नेव कित्ती न निज्जराहोइ।
कायकिलेसं एमेव कुणई तह कम्मबंधं च॥ २. जे बंभचेरभट्टा पाए उड्डंति बंभयारीणं ।
ते होंति कुंट मुंटा बोही य सुदुल्लहा तेसिं॥
- आवश्यकनियुक्ति ११०९
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