Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 34
________________ इस प्रकार तीर्थकरों की स्तुति मानव में अपने पौरुष को जागृत करने की प्रेरणा देती है। आत्मा ही परमात्मा है। कर्मबद्ध जीव है तो कर्ममुक्त शिव है। एक दिन तीर्थंकर की आत्मा भी हमारी तरह ही भोगवासना के दलदल में फंसी थी। पर ज्यों ही उसने अपने स्वरूप को समझा त्यों ही वह उसे त्याग कर नर से नारायण बन गई। आत्मा से परमात्मा बन गई। यदि मैं भी तीर्थकर की तरह प्रयत्न करूं तो मैं उनके समान बन सकता हूँ। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को स्पष्ट शब्दों में कहा था कि तुम मेरी भक्ति करो, मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा।' श्रमण भगवान् महावीर ने भी कहा - मैं भय से रक्षा करने वाला हूँ। तथागत बुद्ध ने कहा - जो मुझे देखता है, वह धर्म को देखता है। तथापि यह स्पष्ट है कि जैन और बौद्ध इन दोनों विचारधाराओं के अनुसार व्यक्ति अपने ही पुरुषार्थ से उत्थान के सर्वोच्च शिखर पर आरूढ होता है और अपने ही कुप्रयत्न से पतन के महागर्त में गिरता है। स्वयं पाप से मुक्त होने का प्रयत्न न कर प्रभु के सहारे मुक्त होने की कल्पना को जैनधर्म में स्थान नहीं दिया है। उसने इस प्रकार की विवेकशून्य प्रार्थना को उचित नहीं माना है। उसका यह स्पष्ट अभिमत रहा है कि इस प्रकार की प्रार्थनाएँ मानव को दीनहीन और परापेक्षी बनाती हैं। जो साधक स्वयं पुरुषार्थ नहीं करता, उस साधक को केवल तीर्थंकरों की स्तुति मुक्ति प्रदान नहीं कर सकती। व्यक्ति का पुरुषार्थ ही उसे मुक्ति महल की ओर बढ़ा सकता है। तीर्थकर तो साधनामार्ग के आलोक स्तम्भ हैं। आलोक स्तम्भ जहाज का पथ प्रदर्शन करता है, पर चलने का कार्य तो जहाज का ही है। वैसे ही साधना की ओर प्रगति करना साधक का कार्य है। जैन दृष्टि से भक्ति का लक्ष्य स्वयं का साक्षात्कार है। अपने में रही हुई शक्ति की अभिव्यक्ति करना है। साधक के अन्तर्मानस में जिस प्रकार की श्रद्धा / भावना बलवती होगी, उसी प्रकार का उसका जीवन बनेगा। इसीलिये गीताकार ने कहा - 'श्रद्धामयोऽयं पुरुषः यो यच्छूद्ध स एव सः।" जिस घर में गरुड़ पक्षी का निवास हो, उस घर में साँप नहीं रह सकता। साँप गरुड़ की प्रतिच्छाया से भाग जाते हैं। जिनके हृदय में तीर्थकरों की स्तुतिरूपी गरुड़ आसीन है, वहां पर पापरूपी साँप नहीं रह पाते। तीर्थकरों का पावन स्मरण ही पाप को नष्ट कर देता है। एक शिष्य ने जिज्ञासा प्रस्तुत की - भगवन् ! चतुर्विंशतिस्तव करने से किस सद्गुण की उपलब्धि होती है? भगवान् महावीर ने समाधान करते हुए कहा - चतुर्विंशतिस्तव करने से दर्शन की विशुद्धि होती है। चतुर्विंशतिस्तव से अनेक लाभ हैं। उससे श्रद्धा परिमार्जित होती है, सम्यक्त्व विशुद्ध होता है। उपसर्ग और परीषहों को समभाव से सहन करने की शक्ति विकसित होती है और तीर्थकर बनने की पवित्र प्रेरणा मन में उबुद्ध होती है। इसीलिये षडावश्यकों में तीर्थंकरस्तुति या चतुर्विंशतिस्तव को स्थान दिया गया है। वन्दन साधना क्षेत्र में तीर्थकर के पश्चात् दूसरा स्थान गुरु का है। तीर्थंकर देव हैं। देव के पश्चात् गुरु को नमन किया जाता है। उनका स्तवन और अभिवादन किया जाता है। आवश्यकनियुक्ति में वन्दन के अर्थ में चितिकर्म, पूजाकर्म आदि पर्यायवाची शब्द व्यवहत हुए हैं। साधक मन, वचन और शरीर से सद्गुण के प्रति सर्वात्मना समर्पित १. गीता १८/६६ २. सूत्रकृतांग १/१६ ३. (क) मज्झिमनिकाय (ख) इतिवृत्तक३/४३ ४. श्रीमद्भगवद्गीता १७/३ [३१]

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