Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

Previous | Next

Page 39
________________ को प्रतिक्रमण द्वारा शुद्ध किया जाता है। इसलिये उसे शुद्धि कहा है। आचार्य भद्रबाहु ने साधक को उत्प्रेरित किया है कि वह प्रतिक्रमण में प्रमुख रूप से चार विषयों पर गहराई से अनुचिन्तन करे। इस दृष्टि से प्रतिक्रमण के चार भेद बनते हैं - १. श्रमण और श्रावक के लिये क्रमशः महाव्रतों और अणुव्रतों का विधान है। उसमें दोष न लगे, इसके लिये सतत सावधानी आवश्यक है। यद्यपि श्रमण और श्रावक सतत सावधान रहता है, तथापि कभी-कभी असावधानीवश अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह में स्खलना हो गई हो तो श्रमण और श्रावक को उसकी शुद्धि हेतु प्रतिक्रमण करना चाहिये। २. श्रमण और श्रावकों के लिये एक आचारसंहिता आगमसाहित्य में निरूपित है। श्रमण के लिये स्वाध्याय, ध्यान, प्रतिलेखन आदि अनेक विधान हैं तो श्रावक के लिये भी दैनंदिन साधना का विधान है। यदि उन विधानों की पालना में स्खलना हो जाये तो उस सम्बन्ध में प्रतिक्रमण करना चाहिये। कर्तव्यों के प्रति जरा सी असावधानी भी ठीक नहीं है। ३. आत्मा आदि अमूर्त पदार्थों को प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा सिद्ध करना बहुत कठिन है। वे तो आगम आदि प्रमाणों के द्वारा सिद्ध किये जा सकते हैं। उन अमूर्त तत्त्वों के सम्बन्ध में मन में यह सोचना कि वे हैं या नहीं, यदि इस प्रकार मन में अश्रद्धा उत्पन्न हुई हो तो उसकी शुद्धि के लिये साधक को प्रतिक्रमण करना चाहिये। ४. हिंसा आदि दुष्कृत्य, जिनका महर्षियों ने निषेध किया है, साधक उन दुष्कृत्यों का प्रतिपादन न करे। यदि असावधानीवश कभी प्रतिपादन कर दिया हो तो शुद्धि करे। अनुयोगद्वार सूत्र में प्रतिक्रमण के दो प्रकार बताये गये हैं -द्रव्यप्रतिक्रमण और भावप्रतिक्रमण । द्रव्यप्रतिक्रमण में साधक एक स्थान पर अवस्थित होकर बिना उपयोग के यशप्राप्ति की अभिलाषा से प्रतिक्रमण करता है। यह प्रतिक्रमण यंत्र की तरह चलता है, उसमें चिन्तन का अभाव होता है। पापों के प्रति मन में ग्लानि नहीं होती। वह पुनः-पुनः उन स्खलनाओं को करता रहता है। वास्तविक दृष्टि से जैसी शुद्धि होनी चाहिये, वह उस प्रतिक्रमण से नहीं हो पाती। भावप्रतिक्रमण वह है, जिसमें साधक के अन्तर्मानस में पापों के प्रति तीव्र ग्लानि होती है। वह सोचता है, मैंने इस प्रकार स्खलनाएं क्यों की? वह दृढ़ निश्चय के साथ उपयोगपूर्वक उन पापों की आलोचना करता हैं। भविष्य में वे दोष पुनः न लगें, इसके लिये दृढ़ संकल्प करता है। इस प्रकार भावप्रतिक्रमण वास्तविक प्रतिक्रमण है। भावप्रतिक्रमण में साधक न स्वयं मिथ्यात्व आदि दुर्भावों में गमन करता है और न दूसरों को गमन करने के लिये उत्प्रेरित करता है और न दुर्भावों में गमन करने का अनुमोदन करता है। साधरणतया यह समझा जाता है कि प्रतिक्रमण अतीतकाल में लगे हुये दोषों की परिशुद्धि के लिये है। पर आचार्य भद्रबाहु ने बताया कि प्रतिक्रमण केवल अतीतकाल में लगे दोषों की ही परिशुद्धि नहीं करता अपितु वह वर्तमान और भविष्य १. पडिसिद्धाणं करणे, किच्चाणमकरणे पडिक्कमणं । ____ असद्दहणे य तहा, विवरीयपरूवणाए अ॥ - आवश्यकनियुक्ति गाथा १२६८ २. मिच्छात्ताई ण गच्छइ ण य गच्छावेइ णाणुजाणेइ। जं मण-वय-काएहिं तं भणियं भावपडिकम्मणं ॥ - आवश्यकनियुक्ति (हा.भ.वृ.) ३. (क) आवश्यकनियुक्ति (ख) प्रतिक्रमणशब्दो हि अत्राशुभयोगनिवृत्तिमात्रार्थः सामान्यतः परिह्यगृते, तथा च सत्यतीतविषयं प्रतिक्रमणं निन्दाद्वारेण अशुभयोगनिवृत्तिरेवेति, प्रत्युपन्नविषयपि संवरद्वारेण अशुभयोग-निवृत्तिरेव अनागतविषयमपि प्रत्याख्यानद्वारेण अशुभयोगनिवृत्तिरेवति न दोष इति । - आचार्य हरिभद्र [३६]

Loading...

Page Navigation
1 ... 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204