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आत्मा घनघोर घटाओं से घिरे हुए सूर्य के सदृश है। कर्मों की काली घटाओं के कारण आत्मा का परम तेज दिखाई नहीं दे रहा है। वह अपने आप को दीन हीन समझ रहा है। भूतकाल में जो अज्ञान और प्रमाद के कारण भूलें हुई हैं, उन भूलों का परिष्कार प्रतिक्रमण के द्वारा ही सम्भव है। पापरूपी रोग को नष्ट करने में प्रतिक्रमण रामबाण औषध के सदृश है।
प्रतिक्रमण जैन परम्परा का एक विशिष्ट शब्द है । प्रतिक्रमण का शाब्दिक अर्थ है पुनः लौटाना । हम अपनी मर्यादाओं का अतिक्रमण कर अपनी स्वभाव-दशा से निकलकर विभावदशा में चले गये, अतः पुनः स्वभाव रूप सीमा में प्रत्यागमन करना प्रतिक्रमण है। जो पाप मन, वचन और काया से स्वयं किये जाते हैं दूसरों के करवाये जाते हैं और दूसरों के द्वारा किये हुए पापों का अनुमोदन किया जाता है, उन सभी पापों की निवृत्ति हेतु, किये गये पापों की आलोचना करना, निन्दा करना प्रतिक्रमण है। आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है शुभ योगों में से अशुभ योगों में गये हुए अपने आप को पुनः शुभ में लौटा लाना प्रतिक्रमण है।' आचार्य हरिभद्र ने भी आवश्यकवृत्ति में यही कहा
गृहीत नियमों और मर्यादा के अतिक्रमण से पुन: लौटना ही प्रतिक्रमण है। साधना के क्षेत्र में मिध्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग ये पांचों भयंकर दोष हैं। साधक प्रातः और संध्या के सुहावने समय में अपने जीवन का अन्तर्निरीक्षण करता है, उस समय वह गहराई से चिन्तन करता है कि वह कहीं सम्यक्त्व के प्रशस्त पथ को छोड़कर मिथ्यात्व की कंटीली झाड़ियों में तो नहीं उलझा है ? व्रत के स्वरूप को विस्मृत कर अव्रत को तो ग्रहण नहीं किया है ? अप्रमत्तता के नन्दनवन में विहरण के स्थान पर प्रमाद की झुलसती मरुभूमि में तो विचरण नहीं किया है ? अकषाय के सुगन्धित सरसब्ज बाग को छोड़कर, कषाय के धधकते हुए पथ पर तो नहीं चला है? मन, वचन, काया की प्रवृत्ति जो शुभ योग में लगनी चाहिये थी वह अशुभ योग में तो नहीं लगी ? यदि मैं मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग में गया हूँ, तो मुझे पुनः सम्यक्त्व, व्रत, अकषाय, अप्रमाद और शुभ योग में आना चाहिए। इसी दृष्टि से प्रतिक्रमण किया जाता है।
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आवश्यक निर्युक्ति, आवश्यकचूर्णि आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति, आवश्यक मलयगिरिवृत्ति प्रभृति ग्रन्थों में प्रतिक्रमण के सम्बन्ध में बहुत विस्तार के साथ विचार चर्चाएं की गई हैं। उन्होंने प्रतिक्रमण के आठ पर्यायवाची शब्द भी दिये हैं, जो प्रतिक्रमण के विभिन्न अर्थों को व्यक्त करते हैं। यद्यपि आठों का भाव एक ही है किन्तु ये
१. प्रतीपं क्रमणं प्रतिक्रणम्, अयमर्थः शुभयोगेभ्योऽशुभयोगान्तरं क्रान्तस्य शुभेषु एवं क्रमणात्प्रतीपं क्रमणम् । - योगशास्त्र, तृतीय प्रकाश, स्वोपज्ञवृत्ति
२. स्वस्थानाद् यत्परस्थानं प्रमादस्य वशाद् गतः ।
तत्रैव क्रमणं भूयः प्रतिक्रमणमुच्यते ॥
३. (क) प्रति प्रतिवर्तनं वा, शुभेषु योगेषु मोक्षफलदेषु । निःशल्यस्य यतेर्यत् तद्वा ज्ञेयं प्रतिक्रमणम् ॥ (ख) आवश्यकनिर्युक्ति, गाथा १२५०
४. पडिकमणं पडियरणा, परिहरणा वारणा नियत्ती य निन्दा गरिहा सोही, पडिकमणं अट्टहा होइ ॥
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आवश्यकनिर्युक्ति १२३३