Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 36
________________ करता है। मिध्यादृष्टि की द्रव्य वन्दन की क्रिया केवल यांत्रिक प्रक्रिया है, उसे किसी भी प्रकार का आध्यात्मिक लाभ नहीं होता । वन्दन के लिये द्रव्य और भाव दोनों ही आवश्यक हैं। धम्मपद' में तथागत बुद्ध ने कहा पुण्य की इच्छा से जो व्यक्ति वर्ष भर में यज्ञ औरं हवन करता है, उस यज्ञ और हवन का फल पुण्यात्माओं के अभिवादन के फल का चतुर्थ भाग भी नहीं है। अतः सरल मानस वाले महात्माओं को नमन करना चाहिये। सदा वृद्धों की सेवा करने वाले और अभिवादनशील पुरुष की चार वस्तुएं वृद्धि को प्राप्त होती हैं। आयु, सौन्दर्य, सुख और बल।' इस प्रकार बौद्धधर्म में वन्दन को महत्त्व दिया है। वहाँ पर भी - श्रमणजीवन की वरिष्ठता और कनिष्ठता के आधार पर वन्दन की परम्परा रही है। वैदिक परम्परा में भी वन्दन सद्गुणों की वृद्धि के लिये आवश्यक माना है। श्रीमद्भागवत में नवधा भक्ति का उल्लेख है । उस नवधा भक्ति में वन्दन भी भक्ति का एक प्रकार बताया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता' के अठारहवें अध्याय में "मां नमस्कुरु" कहकर श्रीकृष्ण ने वन्दन के लिये भक्तों को उत्प्रेरित किया है। - जैन मनीषियों ने वन्दन के सम्बन्ध में बहुत ही विस्तार से और गहराई से चिन्तन किया है। आचार्य भद्रबाहु ने वन्दन के ३२ दोष बताये हैं। उन दोषों से बचने वाला साधक ही सही वन्दन कर सकता है। संक्षेप में वे दोष इस प्रकार हैं - १. अनादृत २. स्तब्ध २. प्रसिद्ध ४ परिपिण्डित ५. टोलगति ६. अंकुश ७. कच्छपरिगत ८. मत्स्योदवृत्त ९ मनसाप्रद्विष्ट १०. वेदिकाबद्ध ११. भय १२. भजमान १३. मैत्री १४. गौरव १५. कारण १६. स्तैन्य १७. प्रत्यनीक १८. रुष्ट १९. तर्जित २०. शठ २१. हीलित २२. विपरिकुंचित २३ दृष्टादृष्ट २४. श्रृंग २५ कर २६. मोचन २७. आश्लिष्ट अनाश्लिष्ट २८. ऊन २९. उत्तरचूड़ा ३०. मूक ३१. ढड्डर ३२ चुडली । सार यह है कि वन्दन करते समय अन्तर्मानस में किसी प्रकार की स्वार्थभावना / आकांक्षा / भय या किसी के प्रति अनादर की भावना नहीं होनी चाहिए। जिनको हम वन्दन करें उनको हम योग्य सम्मान प्रदान करें । मन, वचन, और काया तीनों ही वन्दनीय के चरणों में नत हों। प्रतिक्रमण भारतवर्ष की सभी अध्यात्मवादी धर्म-परम्पराएं आत्मसाधना की प्रबल प्रेरणा प्रदान करती हैं। आत्मा में अनन्त काल से प्रमाद और असावधानी के कारण विकार और वासनाएं अपना प्रभुत्व जमाए हुए हैं। उन्हें हटाकर ईश्वरत्व को जगाना है। मानव में जो पशुत्व वृत्ति है, वह स्वयं उसकी नहीं अपितु बाहर से आई हुई है। साधक की १. धम्मपद, १०८ २. धम्मपद १०९ ३. मनुस्मृति, २ / १२१ ४. श्रीमद्भागवत पुराण ७ / ५ / २३ ५. श्रीमद्भगवद् गीता १८ / ६५ ६. (क) आवश्यकनियुक्ति १२०७-१२११ (ख) प्रवचनसारोद्धार वन्दनाद्वार [३३]

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