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शब्द प्रतिक्रमण के सम्पूर्ण अर्थ को समझने में सहायक हैं। वे इस प्रकार हैं -
१. प्रतिक्रमण' - इस शब्द में "प्रति" उपसर्ग है और "क्रमु" धातु है। प्रति का तात्पर्य है - प्रतिकूल और क्रमु का तात्पर्य है - पदनिक्षेप। जिन प्रवृत्तियों से साधक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप स्वस्थान से हटकर मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम रूप परस्थान में चला गया है, उसका पुनः अपने आप में लौट आना प्रतिक्रमण या पुनरावृत्ति है।
२. प्रतिचरणा' - असंयम क्षेत्र से अलग-थलग रहकर अत्यन्त सावधान होकर विशुद्धता के साथ संयम का पालन करना प्रतिचरणा है, अर्थात् संयम साधना में अग्रसर होना प्रतिचरणा है।
३. प्रतिहरणा – साधक को साधना के पथ पर मुस्तैदी से अपने कदम बढ़ाते समय उसके पथ में अनेक प्रकार की बाधाएं आती हैं। कभी असंयम का आकर्षण उसे साधना से विचलित करना चाहता है तो कभी अनुकूल
और प्रतिकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। यदि साधक परिहरणा (प्रतिहरणा) न रखे तो वह पथभ्रष्ट हो सकता है। इसीलिए वह प्रतिपल प्रतिक्षण अशुभ योग, दुर्ध्यान और दुराचरणों का त्याग करता है। यही परिहरणा है।
४. वारणा - वारणा का अर्थ निषेध (रोकना) है। साधक विषय, कषायों से अपने आपको रोक कर संयम-साधना करते हुए ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है। इसलिये विषय, कषायों से निवृत्त होने के लिये प्रतिक्रमण अर्थ में वारणा शब्द का प्रयोग हुआ है।
५. निवृत्ति - जैन साधना में निवृत्ति का अत्यन्त महत्त्व रहा है। सतत सावधान रहने पर भी कभी प्रमाद के वश अशुभ योगों में उसकी प्रवृत्ति हो जाये तो उसे शीघ्र ही शुभ में आना चाहिये। अशुभ से निवृत्त होने के लिये ही यहाँ प्रतिक्रमण का पर्यायवाची शब्द निवृत्ति आया है।
६. निन्दा - साधक अन्तर्निरीक्षण करता रहता है। उसके जीवन में जो भी पापयुक्त प्रवृत्ति हुई हो, शुद्ध हृदय से उसे उन पापों की निन्दा करनी चाहिये। स्वनिन्दा जीवन को माँजने के लिये है। उससे पापों के प्रति मन में ग्लानि पैदा होती है और साधक यह दृढ़ निश्वय करता है कि जो पाप मैंने असावधानी से किये थे वे अब भविष्य में नहीं करूंगा। इस प्रकार पापों की निन्दा करने के लिये प्रतिक्रमण के अर्थ में निन्दा शब्द का व्यवहार हुआ है।
७. गर्दा - निन्दा अपने-आपकी की जाती है, उसके लिये साक्षी की आवश्यकता नहीं होती और गर्दा गुरुजनों के समक्ष की जाती है। गुरुओं के समक्ष निःशल्य होकर अपने पापों को प्रकट कर देना बहुत ही कठिन कार्य है। जिस साधक में आत्मबल नहीं होता, वह गर्दा नहीं कर सकता। गर्दा में पापों के प्रति तीव्र पश्चात्ताप होता है। गर्दा पापरूपी विष को उतारने वाला गारुडी मंत्र है, जिसके प्रयोग से साधक पाप से मुक्त हो जाता है। इसलिये गर्हा को प्रतिक्रमण का पर्यायवाची कहा है।
8. शुद्धि - शुद्धि का अर्थ निर्मलता है। जैसे बर्तन पर लगे हुये दाग को खटाई से साफ किया जाता है, सोने पर लगे हुये मैल को तपा कर शुद्ध किया जाता है, ऊनी वस्त्र के मैल को पेट्रोल से साफ किया जाता है, वैसे ही हृदय के मैल
१. पडिक्कमणं पुनरावृत्तिः। २. अत्यादरात् चरणा पडिचरणा अकार्यपरिहारः कार्यप्रवृत्तिश्च । ३. असुभभाव-नियत्तणं नियत्ती।
- आवश्यकचूर्णि - आवश्यकचूर्णि - आवश्यकचूर्णि
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