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हुए आचार्य शंकर ने लिखा है समत्व का अर्थ तुल्यता है, आत्मवत् दृष्टि है। जिस प्रकार सुख मुझे प्रिय है, दुःख सभी प्राणियों को सुख और दुःख को अनुकूल और प्रतिकूल रूप में देखता है, वह आचरण नहीं करता। वही समदर्शी है। सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि रखना समत्व है। समत्व योगी साधक चाहे अनुकूल स्थिति हो, चाहे प्रतिकूल स्थिति हो, चाहे सम्मान मिलता हो, चाहे तिरस्कार
अप्रिय है, वैसे ही विश्व के किसी के प्रति भी प्रतिकूल
प्राप्त होता हो, चाहे सिद्धि के संदर्शन होते हों, चाहे असिद्धि प्राप्त हो, तो भी उसका अन्तर्मानस उन सभी स्थितियों
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में सम रहता है। कृष्ण ने अर्जुन से कहा जो सुख दुःख में समभाव रखता है, जो इन्द्रियों के विषय सुख में
ही
आकुल व्याकुल नहीं होता, वही मोक्ष / अमृतत्व का अधिकारी है। गीता के अठारहवें अध्याय में श्रीकृष्ण ने बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा जो समत्व भाव में स्थित होता है। वही मेरी परम भक्ति को प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार गीता में समत्वयोग का स्वर यत्र-तत्र मुखरित हुआ है।
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आज विश्व के समत्वयोग के अभाव में विषमता की काली घटाएं मंडरा रही हैं। जिससे व्यक्ति, समाज और राष्ट्र परेशान हैं । समत्वयोग जीवन के विविध पक्षों में इस प्रकार समन्वय स्थापित करता है जिससे न केवल व्यक्तिगत जीवन का संघर्ष समाप्त होता है, अपितु सामाजिक जीवन के संघर्ष भी नष्ट हो जाते हैं, यदि समाज और राष्ट्र के सभी सदस्यगण उसके लिये प्रयत्नशील हों। समत्वयोग से वैचारिक दुराग्रह समाप्त हो जाता है और स्नेह की सुर सरितां प्रवाहित होने लगती है। जीवन के सभी संघर्ष समाप्त हो जाते हैं वैचारिक जगत् के संघर्ष का मूल कारण आग्रह दुराग्रह है । दुराग्रह के विष से मुक्त होने पर मनुष्य सत्य को सहज रूप से स्वीकार कर लेता है। समत्वयोगी साधक न वैचारिक दृष्टि से संकुचित होता है और न उसमें भोगासक्ति ही होती है। इसलिए उसका आचार निर्मल होता है और विचार उदात्त होते हैं वह 'जीओ और जीने दो के सिद्धान्त में विश्वास रखता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि समत्वयोग के द्वारा गीताकार ने समभाव की साधना पर बल दिया है।
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सामायिक आवश्यक में न राग अपना राग आलापता है और न द्वेष अपनी जादुई बीन बजाता है। वीतराग और वितृष्ण बनने के लिये यह उपक्रम है। यह वह कीमिया है जो भेदविज्ञान की अंगुली पकड़कर समता की सुनहरी धरती पर साधका को स्थित करता है। यह साधना जीवन को सजाने और संवारने की साधना है।
चतुर्विंशतिस्तव
षडावश्यक में दूसरा आवश्यक चतुर्विंशतिस्तव है। हमने पूर्व पंक्तियों में देखा कि सामायिक में सावध योग से निवृत्त रहने का विधान किया गया है। सावद्य योग से निवृत्त रहकर साधक किसी न किसी आलम्बन का आश्रय अवश्य ग्रहण करता है, जिससे वह समभाव में स्थिर रह सके। एतदर्थ ही सामायिक में साधक तीर्थंकर देवों की स्तुति करता है ।
चतुर्विंशतिस्तव भक्ति साहित्य की एक विशिष्ट रचना है। उसमें भक्ति की भागीरथी प्रवाहित हो रही है। यदि साधक उस भागीरथी में अवगाहन करे तो आनन्द-विभोर हुए बिना नहीं रह सकता। तीर्थंकर त्याग और वैराग्य की दृष्टि से, संयमसाधना की दृष्टि से महान् है। उनके गुणों का उत्कीर्तन करने से साधक के अन्तर्हृदय में आध्यात्मिक बल का संचार होता है। यदि किसी कारणवश श्रद्धा शिथिल हो जाये तो उसमें अभिनव स्फूर्ति का संचार
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१. श्रीमद्भगवद्गीता, शांकर भाष्य ६ / ३२
२. गीता २ / १५
३. गीता १८/५४
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