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सामायिक के पात्र भेद से दो भेद होते हैं - १. गृहस्थ की सामायिक और २. श्रमण की सामायिक।' गृहस्थ की सामायिक परम्परानुसार एक मुहूर्त यानी ४८ मिनट की होनी है, अधिक समय के लिए भी वह अपनी स्थिति के अनुसार सामायिक व्रत कर सकता है। श्रमण की सामायिक यावज्जीवन के लिए होती है।
__ आचार्य भद्रबाहु ने सामायिक के तीन भेद बताए हैं - १. सम्यक्त्वसामायिक २. श्रुतसामायिक और ३. चारित्रसामायिक। समभाव की साधना के लिये सम्यक्त्व और श्रुत ये दोनों आवश्यक हैं। बिना सम्यक्त्व के श्रुत निर्मल नहीं होता और न चारित्र ही निर्मल होता है। सर्वप्रथम दृढ़ निष्ठा होने से विश्वास की शुद्धि होती है। सम्यक्त्व में अंधविश्वास नहीं होता। वहां भेदविज्ञान होता है। श्रुत से विचारों की शुद्धि होती है। जब विश्वास और विचार शुद्ध होता है, तब चारित्र शुद्ध होता है।
सामायिक एक आध्यात्मिक साधना है, इसीलिए इसमें जाति पांति का प्रश्न नहीं उठता। हरिकेशी मुनि जाति से अन्त्यज थे, पर सामायिक की साधना से वे देवों द्वारा भी अर्चनीय बन गये। अर्जुन मालाकार, जो एक दिन क्रूर हत्यारा था, सामायिक साधना के प्रभाव से उसने मुक्ति को वरण कर लिया।
जैन साहित्य में सामायिक का महत्त्व प्रतिपादन करने हेतु पूनिया श्रावक की एक घटना प्राप्त होती है - सम्राट श्रेणिक की जिज्ञासा पर भगवान् महावीर ने बताया कि तुम मरकर प्रथम नरक में उत्पन्न होओगे, क्योंकि तुमने इसी प्रकार के कर्मों का अनुबन्धन किया है। सम्राट श्रेणिक ने नरक से बचने का उपाय पूछा। भगवान् ने चार उपाय बताये। उन उपायों में एक उपाय पूनिया श्रावक की सामायिक को खरीदना था। जब श्रेणिक सामायिक खरीदने के लिए पहुंचा तो पूनिया श्रावक ने श्रेणिक से कहा - 'एक सामायिक का मूल्य कितना है? यह आप भगवान् महावीर से पूछ लीजिए।' राजा श्रेणिक के प्रश्न के उत्तर में भगवान् महावीर ने कहा - 'राजन् !' तुम्हारे पास इतना विराट् वैभव है पर यह सारा धन सामायिक की दलाली के लिए भी पर्याप्त नहीं है। सामायिक का मूल्य तो उससे भी कहीं अधिक है। सार यह है कि सामायिक एक अमूल्य साधना है। आध्यात्मिक साधना की तुलना भौतिक वैभव से नहीं की जा सकती। आध्यात्मिक निधि के सामने भौतिक सम्पदाएँ तुच्छ ही नहीं, नगण्य हैं। तुलना : बौद्ध और वैदिक परम्परा से
सामायिक जैन साधना की विशुद्ध साधनापद्धति है। इस साधनापद्धति की तुलना आंशिक रूप से अन्य धर्मों की साधनापद्धति से की जा सकती है। बौद्धधर्म श्रमणसंस्कृति की ही एक धारा है। उस धारा में साधना के लिए अष्टांगिक मार्ग का निरूपण है। अष्टांगिक मार्ग में सभी के आगे सम्यक् शब्द का प्रयोग हुआ है जैसे - सम्यग्दृष्टि, सम्यक्-संकल्प, सम्यक्-वचन, सम्यक्-कर्मान्त, सम्यक्-आजीव, सम्यक्-व्यायाम, सम्यक्-स्मृति और सम्यक्-समाधि।
१. आवश्यकनियुक्ति, गाथा ७९६ २. सामाइयं च तिविहं, सम्मत्तं सुयं तहा चरित्तं च। दुविहं चेव चरित्तं, अगारमणागारियं चेव॥
- आवश्यकनियुक्ति, ७९६ ३. उत्तराध्ययन, हरिकेशी अध्ययन, १२ ४. अन्तकृतदशांग, ६ वर्ग, तृतीय अध्ययन ५. (क) दीघनिकाय-महासतिपट्ठान-सूत्त (ख ) संयुत्तनिकाय ५, पृ. ८-१०
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