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में फंस जाता है। दूसरों की उन्नति को निहार कर उसके अन्तर्मानस में ईर्ष्या अग्नि सुलगने लगती है, वैर विरोध के जहरीले कीटाणु कुलबुलाने लगते हैं । इसीलिए सामायिक की आवश्यकता पर बल दिया गया है।
भगवतीसूत्र में वर्णन है कि पार्श्वपत्य कालस्यवेसी अनगार के समक्ष तुंगिया नगरी के श्रमणोपासकों ने जिज्ञासा प्रस्तुत की थी कि सामायिक क्या है ? और सामायिक का अर्थ क्या है ?
कालास्यवेसी अनगार ने स्पष्ट रूप से कहा, " आत्मा ही सामायिक है और आत्मा ही सामायिक का अर्थ
है। "
तात्पर्य यह है कि जब आत्मा पापमय व्यापारों का परित्याग कर समभाव में अवस्थित होता है, तब सामायिक होती है। आत्मा का काषायिक विकारों से अलग होकर स्वस्वरूप में रमण करना ही सामायिक है और वही आत्म परिणति है। सामायिक में साधक बाह्य दृष्टि का परित्याग कर अन्तर्दृष्टि को अपनाता है, विषमभाव का परित्याग कर समभाव में अवस्थित रहता है, पर पदार्थों से ममत्व हटाकर निजभाव में स्थित होता है जैसे अनन्त आकाश विश्व के चराचर प्राणियों के लिए आधारभूत है, वैसे ही सामायिक साधना आध्यात्मिक साधना के लिए आधारभूत है।
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सामायिक के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए विविध दृष्टियों से सामायिक को प्रतिपादित किया गया है। नाम, स्थापना, द्रव्य, काल, क्षेत्र और भाव आदि से उसका स्वरूप प्रतिपादित है । सामायिक करने वाला साधक साधना में इतना स्थिर होता है कि चाहे शुभ नाम हो चाहे अशुभ नाम हो उस नाम का उस साधक के अन्तर्मानस पर कोई असर नहीं होता। वह सोचता है कि आत्मा अनामी है, आत्मा का कोई नाम नहीं है, नाम प्रस्तुत शरीर का है, यह शरीर नामकर्म की रचना है। इसलिए मैं व्यर्थ ही क्यों संकल्प विकल्प करूँ सामायिक का साधक चित्ताकर्षक वस्तु को निहारकर आह्लादित नहीं होता तो घिनौने रूप को देखकर घृणा भी नहीं करता। वह तो सोचता है कि आत्मा रूपातीत है। सुरूपता और कुरूपता तो पुद्गल परमाणुओं का परिणमन है, जो कभी शुभ होता है तो कभी अशुभ होता है। मैं पुद्गल तत्त्व से पृथक् हूँ । इस प्रकार वह चिन्तन कर समभाव में रहता है। यह स्थापना सामायिक है। सामायिक व्रतधारी साधक पदार्थों की सुन्दरता को देखकर मुग्ध नहीं होता और असुन्दरता को देखकर खिन्न नहीं होता। इसी तरह बहुमूल्य वस्तु को देखकर प्रसन्न नहीं होता और अल्पमूल्य वाली वस्तु को देखकर खिन्न नहीं होता। वह चिन्तन करता है कि पदार्थों की सुन्दरता और असुन्दरता की कल्पना मानव की कल्पनामात्र है। एक ही वस्तु एक व्यक्ति को सुन्दर प्रतीत होती है तो दूसरे को वह सुन्दर प्रतीत नहीं होती। हीरे पन्ने, माणक मोती आदि जवाहरात में भी मानव ने मूल्य की कल्पना की है, अन्यथा तो वे अन्य पत्थरों की भांति पत्थर ही हैं। ऐसा विचार कर साधक सभी भौतिक पदार्थों में समभाव रखता है। यह द्रव्य सामायिक है। ग्रीष्म की चिलचिलाती धूप हो, पौष माह की भयंकर सनसनाती सर्दी हो, श्रावण, भाद्रपद की हजार हजार धारा के रूप में वर्षा हो अथवा रिमझिम रिमझिम बूंदें गिर रही हों, चाहे अनुकूल समय हो, चाहे प्रतिकूल समय हो, सामायिक व्रतधारी साधक समभाव में विचरण करता है। शीत उष्ण आदि स्पर्श पुद्गल के हैं और ये सारे पुद्गल, पुद्गल को ही प्रभावित करते हैं। मैं तो आत्मस्वरूप हूँ, किसी भी पर स्पर्श का कोई प्रभाव नहीं हो सकता। मुझे इन वैभाविक स्थितियों से दूर रहकर आत्मभाव में स्थित रहना है। यह काल सामायिक है।
सामायिकनिष्ठ साधक के लिए चाहे रमणीय स्थान हो, चाहे अरमणीय, चाहे सुन्दर सुगन्धित उपवन हो, चाहे बंजर भूमि हो, चाहे विराट नगर की उच्च अट्टालिका हो, या निर्जन वन की कंटीली भूमि हो, कोई फर्क नहीं
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