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आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में सामायिक की परिभाषा करते हुए लिखा है - सम उपसर्गपूर्वक गति अर्थ वाली "इण" धातु से 'समय' शब्द निष्पन्न होता है। सम् - एकीभाव, अय - गमन अर्थात् एकीभाव के द्वारा बाह्य परिणति से पुनः मुड़कर आत्मा की ओर गमन करना समय है। समय का भाव सामायिक है। आचार्य मलयगिरि ने लिखा है - राग - द्वेष के कारणों में मध्यस्थ रहना सम है। मध्यस्थभावयुक्त साधक की मोक्ष के अभिमुख जो प्रस्तुति है, वह सामायिक है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने भी विशेषावश्यकभाष्य में यही परिभाषा स्वीकार की है। आवश्यकसूत्र की नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य और हारिभद्रीया वृत्ति मलयगिरिवृत्ति आदि में सामायिक के विविध दृष्टियों से विभिन्न अर्थ किये हैं। सभी जीवों पर मैत्री भाव रखना साम है और साम का लाभ जिससे हो, वह सामायिक है। पापकारी प्रवृत्तियों का त्याग करना ही सावधयोग परित्याग कहलाता है। अहिंसा, समता प्रभृति सद्गुणों का आचरण निरवद्ययोग है। सावधयोग का परित्याग कर शुद्ध स्वभाव में रमण करना 'सम' कहलाता है। जिस साधना के द्वारा उस 'सम' की प्राप्ति हो, वह सामायिक है। 'सम' शब्द का अर्थ श्रेष्ठ है और 'अयन' का अर्थ आचरण है। अर्थात् श्रेष्ठ आचरण का नाम सामायिक है। अहिंसा आदि श्रेष्ठ साधना समय पर की जाती है, वह सामायिक है।
सामायिक की विभिन्न व्युत्पत्तियों पर चिन्तन करने से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि उन सभी में समता पर बल दिया गया है। राग - द्वेष के विविध प्रसंग, समुपस्थित होने पर आत्म - स्वभाव में सम रहना, वस्तुतः सामायिक है। समता से तात्पर्य है - मन की स्थिरता, राग द्वेष का उपशमन और सुख दुःख में निश्चल रहना, समभाव में उपस्थित होना। कर्मों के निमित्त से राग-द्वेष के विषमभाव समुत्पन्न होते हैं। उन विषम भावों से अपने आपको हटाकर स्व-स्वरूप में रमण करना, समता है। समता को ही गीता में योग कहा है।
मन, वचन और काय की दुष्ट वृत्तियों को रोककर अपने निश्चित लक्ष्य की ओर ध्यान को केन्द्रित कर देना सामायिक है। सामायिक करने वाला साधक मन, वचन और काय को वश में कर लेता है। विषय, कषाय और राग द्वेष से अलग थलग रहकर वह सदा ही समभाव में स्थित रहता है। विरोधी को देखकर उसके अन्तर्मानस में क्रोध की ज्वाला नहीं भडकती और न ही हितैषी को देखकर वह राग से आह्वादित होता है। वह समता के गहन सागर में डुबकी लगाता है, जिससे विषमता की. ज्वालाएँ उसकी साधना को नष्ट नहीं कर पातीं। उसे न निन्दा के मच्छर डंसते हैं और न ईर्ष्या के बिच्छू ही डंक मारते हैं। चाहे अनुकूल परिस्थिति हो चाहे प्रतिकूल, चाहे सुख के सुमन खिल रहे हों, चाहे दुःख के नुकीले कांटे बींध रहे हों, पर वह सदा समभाव से रहता है। उसका चिन्तन सदा जाग्रत
१. 'सम्' एकीभावे वर्तते । तद्यथा, संगतं घृतं संगतं तैलमित्युच्यते एकीभूतमिति गम्यते । एकत्वेन अयनं गमनं समयः, समय एव सामायिकम्। समयः प्रयोजनमस्येति वा विग्रह्य सामायिकम्। - सर्वार्थसिद्धि, ७,२१ २. समो-रागद्वेषयोरपान्तरालवर्ती मध्यस्थः, इण गतौ अयनं अयो गमनमित्यर्थः, समस्य अयः समायः - समीभूतस्य सतो मोक्षाध्वनि प्रवृत्तिः समाय एव सामायिकम्।
- आवश्यक मलयगिरिवृत्ति, ८५४ ३. रागद्दोसविरहिओ समो त्ति अयणं अयो त्ति गमणं ति। समगमणं ति समाओ स एव सामाइयं नाम॥
- - विशेषावश्यक भाष्य, ३४७७ ४. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा ३४८१ ५. अहवा समस्स आओ गुणाण लाभो त्ति समाओ सो।
- वि. भाष्य, गा. ३४८० ६. समत्वं योगमुच्यते।
- भगवद्गीता, २-४८
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