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पड़ता। वह सर्वत्र समभाव में रहता है। उसका चिन्तन चलता है कि मेरा निवासस्थान न जंगल है, न नगर, मेरा तो निवासस्थान आत्मा ही है, फिर व्यर्थ ही क्षेत्र के व्यामोह में पड़कर क्यों कर्मबन्धन करूं ? प्रत्येक पदार्थ अपने स्वभाव में स्थित रहता है तो मुझे ही आत्मभाव में स्थिर रहना है, यह क्षेत्र सामायिक है।
भाव सामायिकधारी का चिन्तन ऊर्ध्वमुखी होता है। वह सदा सर्वदा आत्मभाव में विचरण करता है। उसका चिन्तन चलता है - "मैं" अजर और अमर हूँ, चैतन्यस्वरूप हूँ, जीवन मरण, मान अपमान, संयोग वियोग, लाभ अलाभ ये सभी कर्मोदयजन्य विकार हैं। मेरा इनके साथ वस्तुतः कोई सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार विचार करके शुद्ध बुद्ध मुक्त आत्मतत्त्व को प्राप्त करना ही भाव सामायिक है। आचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्भटसार में कहा है - परद्रव्यों से निवृत्त होकर जब साधक की ज्ञानचेतना आत्मस्वरूप में प्रवृत्त होती है, तभी भाव सामायिक होती है। राग द्वेष से रहित मध्यस्थ भावापन्न आत्मा सम कहलाता है। उस सम में गमन करना भाव सामायिक है।
आचार्य जिनदासगणी महत्तर ने भाव सामायिक पर विस्तार से चिन्तन किया है। उन्होंने गुणनिष्पन्न भाव सामायिक को एक विराट नगर की उपमा दी है। जैसे एक विराट नगर जन, धन, धान्य आदि से समृद्ध होता है, विविध वनों और उपवनों से अलंकृत होता है, वैसे ही भाव सामायिक करने वाले साधक का जीवन सद्गुणों से समलंकृत होता है। उसके जीवन में विविध सद्गुणों की जगमगाहट होती है, शान्ति का साम्राज्य होता है।
आचार्य जिनदासगणी महत्तर ने सामायिक आवश्यक को आधमंगल' माना है। जितने भी विश्व में द्रव्यमंगल हैं, वे सभी द्रव्यमंगल अमंगल के रूप में परिवर्तित हो सकते हैं, पर सामायिक ऐसा भावमंगल है जो कभी भी अमंगल नहीं हो सकता। समभाव की साधना सभी मंगलों का मूल केन्द्र है। अनन्त काल से इस विराट विश्व में परिभ्रमण करने वाला आत्मा यदि एक बार भी भाव सामायिक ग्रहण कर ले तो वह सात आठ भव से अधिक संसार में परिभ्रमण नहीं करता। सामायिक ऐसा पारसमणि है, जिसके संस्पर्श से अनन्तकाल की मिथ्यात्व आदि की कालिमा से आत्मा मुक्त हो जाता है।
सामायिक के द्रव्य सामायिक और भाव सामायिक ये दो मुख्य भेद हैं। सामायिक ग्रहण करने के पूर्व जो विधि विधान किये जाते हैं, जैसे सामायिक के लिए आसन बिछाना, रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि धार्मिक उपकरण एकत्रित कर, एक स्थान पर अवस्थित होना, यह द्रव्य सामायिक है। द्रव्य सामायिक में आसन वस्त्र रजोहरण, मुखवस्त्रिका, माला आदि वस्तुएं स्वच्छ और सादगीपूर्ण होनी चाहिये, वे रंग बिरंगे न होकर श्वेत होने चाहिए। श्वेत रंग शुक्ल और शुभ ध्यान का प्रतीक है। आधुनिक विज्ञान ने भी श्वेत रंग को शान्ति का प्रतीक माना है। सामायिक में न गन्दे और वीभत्स धर्मोपकरण रखने चाहिए और न चमचमाती हुई विलासितापूर्ण वस्तुएँ ही। भाव सामायिक वह है जिसमें साधक आत्मभाव में स्थिर रहता है। सामायिक में द्रव्य और भाव दोनों की आवश्यकता है। भावशून्य द्रव्य केवल मुद्रा लगी हुई मिट्टी है, वह स्वर्णमुद्रा की तरह बाजार में मूल्य प्राप्त नहीं कर सकती, केवल बालकों का मनोरंजन ही कर सकती है। द्रव्यशून्य भाव केवल स्वर्ण है, जिस पर मुद्रा अंकित नहीं है। वह स्वर्ण के रूप में तो मूल्य प्राप्त कर सकता है किन्तु मुद्रा के रूप में नहीं। द्रव्ययुक्त भाव स्वर्णमुद्रा है। वह अपना मूल्य रखती है और अबाध गति से सर्वत्र चलती है। इसीलिए भावयुक्त द्रव्य सामायिक का भी महत्त्व है।
१. आदिमंगलं सामाइयज्झयणं ।...... सव्वमंगलनिहाणं निव्वाणं पाविहित्ति काऊण सामाइयज्झयणं मंगलं भवति ।
- आवश्यकचूर्णि
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