Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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मोपचन्द्रिकाका २०२० उ०९ सू०१ लब्धिमतः गत्यादिनिरूपणम् ९५ तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कंते कालं करेइ स खलु यदि तस्य गमानागमन सम्बन्धिपापस्थानस्य आलोचितपतिक्रान्तो भवति आलोचनं-प्रतिक्रमणं च करोति पापस्य प्रमार्जनेन चारित्राराधनस्य संपादनादिति भावः। ‘से गं तस्य ठाणस्स' एतस्यायं भावा-लब्ध्युपजीवनं खलु प्रमादः, तत्र चासेविते प्रमादे आलोचनाया अभावे चारित्रस्य नैव आराधना भवति अपितु विराधना स्यात् । चारित्रविराधकश्च न लभते चारित्राराधनादलमिति । यदप्युक्तं विद्याचारणस्य गमनमुत्पादद्वयेन आगमनं च एकेन उत्पादेन जंघाचारणस्य गमनम् एकेनोत्पादेन भागमनं च द्वयोत्पादेन च तत्सर्व लब्धिस्वभाववत्वादिति । अथवा विद्याचारण स्थिति में उसके चारित्र की आराधना नहीं हो सकती है और यदि वह-तस्स ठाणस्स आलोइयपडिकते कालं करेइ०' उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण कर लेता है और फिर मर जाता है तो उसको आराधना होती है क्योंकि पाप के प्रमार्जन में चारित्र की आरा. धना का उसने संपादन कर लिया होता है 'से णं तस्स ठाणस्स' इसका भाव ऐसा है-लब्धि को काम में लेना यह प्रमाद है इस प्रमाद के सेवन करने पर और उसकी आलोचना नहीं करने पर चारित्र की आराधना नहीं होती है अपि तु विराधना ही होती है चारित्र की विराधना करनेवाला व्यक्ति चारित्र की आराधना के फल को नहीं प्राप्त करता है तथा ऐसा जो कहा गया है-कि विद्याचारण का गमन दो उत्पात से हाता है और आगमन एक उत्पात से होता है, जंघाचारण का गमन एक उत्पात से और आगमन दो उत्पात से होता है सोयह
माराधना 5 ती नथी मने ते-'तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कते कालं करेइ०' ते स्थाननी मायना भने प्रतिभ३ ४२ छ भने पछी भरी જાય તે તેને આરાધના થાય છે અર્થાત્ તેઓ આરાધક થાય છે કેમકે पापना घोपामा यात्रिनी साराधना तेथे भगवी बीधी डाय छे. 'सेणं तस्स ठाणस तन माप -धन भिमा सेवी ते प्रभाह, मा प्रभात સેવન કરવાથી અને તેની આલેચતા ન કરવાથી ચારિત્રની આરાધના થતી નથી પરંતુ વિરાધના જ થાય છે ચારિત્રની વિરાધના કરવાવાળી વ્યક્તિ ચારિત્રની આરાધનાના ફળને પ્રાપ્ત કરતા નથી. તથા એવું જે કહ્યું છે કેવિદ્યાચારણનું ગમન બે ઉત્પાતથી થાય છે અને આગમન એક ઉત્પાતથી થાય છે, જંઘાચારણનું ગમન એક ઉત્પાતથી અને આગમન બે ઉત્પાતથી
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪