Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रे
सञ्चिताः द्वयादित आरभ्य शीर्षप्रहेलिकपर्यन्तं संख्यातेति व्यवहारो भवति, शीर्षम हेलिकायाः परतः असंख्यातेति व्यवहारो भवति, ततश्च संख्यातत्वेन असंख्यात्वेन च यो वक्तुन्न शक्यते सोऽवक्तव्य इति कथ्यते, पतादृशः एकक एव भवति, अस्य संख्याता संख्यातोभयशब्देनापि वक्तुमशक्यत्वात् । ततः अवक्तव्येन एककेन एकत्वोत्पादन ये सञ्चिता उत्पन्ना स्ते अवक्तव्य संचिता इति । हे भदन्त । इमे नारकाः किं कतिसञ्चिता अकतिसञ्चिता अवक्तव्यसञ्चिता वेति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'नेरइया कतिसंचिया वि' नैरयिकाः कविसञ्चिा अपि 'अकतिसंचिया वि' अकतिसञ्चिता अपि, 'अत्तन्नगसंचिया वि' अवक्तव्यकसश्चिता अपि । नैरयिकाः त्रिविधा अपि भवन्ति, एकसमयेन तेषामेकत आरभ्य असंख्यातपर्यन्तानामुत्पादअसंख्यातरूप से अवक्तव्य होने के कारण अवक्तव्यसंचित होते हैंअर्थात् एक समय में एक ही उत्पन्न होते हैं क्योंकि एक जो होता है वह संख्यात, असंख्यात इन दोनों से वक्तव्य नहीं होता है दो से लेकर शीर्षप्रहेलिका तक की संख्या में ही संख्यात ऐसा व्यवहार होता है और शीर्षप्रहेलिका के आगे असंख्यात ऐसा व्यवहार होता है अतः एक ही, "अवक्तव्यकसंचित" पद से कथित हुआ है इस एक से एकस्वोपाद से जो संचित हुए होते हैं वे अवक्तव्यसंचित हैं। इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोयमा !' हे गौतम ! 'नेरइया कइ संथिया वि, अकइसंचिया वि, अवन्त्तव्वगसंचिया वि' नैरयिक कतिसंचित भी होते हैं, अतिसंचित भी होते हैं और अवक्तव्यसंचित भी होते हैं। इस प्रकार से नैरथिक तीनों प्रकार के भी होते हैं । अर्थात्-जो दूसरी गति से
राया छे. 'अवत्तव्वगसंचिया' अथवा संख्यात असंख्यात३५थी भवतव्य હાવાને કારણે અવક્તવ્ય સહચિત હોય છે ? અર્થાત્ એક સમયમાં એક જ ઉત્પન્ન થાય છે ? કેમકે જે એક હાય છે, તે સ ́ખ્યાત, અસ ખ્યાત એ ખતેથી વક્તવ્ય હાતા નથી. એ થી લઇને શીષ પ્રહેલિકા સુધીની સખ્યામાં જ સખ્યાત એવા વ્યવહાર થાય છે. અને શીષ પ્રહેલિકાની આગળ અસ ध्यात सेवा व्यवहार थाय छे मेथी ये 'अवक्तव्यकसंचित' पथी डेवायस छे. या गोस्थी 'एकत्वोत्पाद' थी के संचित थयेत होय छे, ते उत्तव्य सथित डेवाय हे या प्रश्नना उत्तरमा प्रभु - 'गोयमा ! ' हे गौतम! 'नेरइया कइसंचिया वि अकइसंचिया वि अवत्तव्वगसंचिया वि નારકીય કતિ સ ંચિત પશુ ઢાય છે, અતિ સંચિત પણ હોય છે, અને અવક્તવ્ય સૂચિત પણ હોય છે, આ રીતે નારકીય જીવે ત્રણ પ્રકારના હાય
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪