Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 560
________________ भगवतीसूत्रे डोए अब्भहियाई' कालादेशेन कालाऽपेक्षया जघन्यतः त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि पूर्वकोटयभ्यधिकानि 'उकोसेण वि तेत्तीसं सागरोवमाई पुचकोडीए अब्भहियाई' उत्कर्षेणाऽपि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि पूर्वकोटधिकानि। 'एवइयं कालं सेवेज्जा' एतावन्तं कालं मनुष्यगति सप्तमनारकगतिं च सेवेत 'एवइयं कालं गइरागई करेज्जा' एतावन्तं कालं गत्यागती कुर्यात् एतावत्कालपर्यन्तमेव मनुष्यगतौ नारकगतौ च गमनागमने कुर्यात् स मनुष्य इति भावः । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाब विहरई' तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त ! इति यावद्विहरति हे भदन्त ! संक्षिपश्चेन्द्रियतिर्यविषये तथा संज्ञिमनुष्यस्य नरकगती गमनागमनादिविषये यद् देवानुपियेण कथितं तत् एवमेव-सर्वथा सत्यमेव केवलितथाऽतीन्द्रियार्थदर्शित्वेन भवद्वाक्यस्य सर्वथैव सत्यत्वादिति कथयित्वा भगवन्तं गौतमो वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति भावः ॥सू०८ इति श्री विश्वविख्यात जगद्वल्लभादिपदभूषितबालब्रह्मचारि 'जैनाचार्य' पूज्यश्री घासीलालप्रतिविरचितायां श्री "भगवती" सूत्रस्य प्रमेयचन्द्रिका ख्यायां व्याख्यायां चतुर्विंशतिशतकस्य प्रथमोद्देशकः समाप्तः॥२४-१॥ अपेक्षा जघन्य से पूर्व कोटि अधिक ३३ सागरोपम तक और उत्कृष्ट से भी पूर्व कोटि अधिक ३३ सागरोपम तक वह मनुष्यगति का और सप्तम नरकगति का सेवन करता है और इतने ही काल तक वह उसमें गमनागमन करता है । 'सेवं भंते ! सेवे भंते ! त्ति' जाव विहरइ हे भदन्त ! संज्ञी पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च के विषय में तथा संज्ञी मनुष्य के नरकगति में गमनागमन के विषय में जो आप देवानुप्रिय ने कहा है यह सर्वथा सत्य ही कहा है, क्योंकि केवली होने के कारण आपके कथन में अतीन्द्रियार्थदर्शी होने से सर्व प्रकार से सत्यता ही है, इस तीसं सागरोवमाइ" नी अपेक्षा न्यथा पूटि मधि 33 तेत्रीस સાગરોપમ સુધી તે મનુષ્ય ગતિનું અને સાતમી નરક ગતિનું સેવન કરે છે. मन मेरा सुधी ततमा जमना मन ४२ छ. 'सेवं भंते ! सेवं भवे' ति जाव विहरइ इ मापन सज्ञी पथन्द्रिय तियन्याना विषयमा तथा સંજ્ઞી મનુષ્યના નરકગતિમાં ગમના ગમન-આવજાના સંબંધમાં આપી દેવાનું પ્રિયે જે કહ્યું છે તે આપનું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. કેમકે—કેવલી હવાને કારણે આ૫ અતીન્દ્રિયાને જેવાવાળા હોવાથી સર્વ પ્રકારથી સત્ય શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪

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