Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 622
________________ EMARATHI ६०८ भगवतीसूत्रे काययो' नवर कायसंवेधः, काल देशेन सागरोपमेण कर्तव्य इति । 'सेसं तं चेव' शेषं तदेव-शेष-कायसंवेधातिरिक्तं सर्वमपि परिमाणोत्पादादिकम् रत्नप्रभागमवदेव कर्तव्यमिति संक्षेपः, विस्तरतस्तु रत्नप्रभागमादेव विज्ञेय इति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन ! इति हे भदन्त ! तियग्यो. निकानां मनुष्याणां चासुरकुमारे त्पादपरिमाणादिकं विंशतिद्वारं यदेवानुप्रियेण कथितं तत् एवमेव-सर्वथा सत्यमेव इति कथरिखा गौतमो भवन्त बन्द ते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति । मू० ३॥ इति श्री विश्वविख्यात जगद्वल्लभादिपदभूषितबालब्रह्मचारि 'जैनाचार्य' पूजाश्री पापीलालबतिविरचितायां श्री "भगवती" सूत्रस्य प्रमेयचन्द्रिका ख्यायां व्याख्यायां चतुर्विंशतिशतकस्य द्वितीयोद्देशकः समाप्तः॥२४-२॥ वह यहां पर कालकी अपेक्षा कुछ अधिक सागरोपम का है। 'सेसं तं चेव' बाकी का सब कथन इसके सिवाय रत्नप्रभा के गम जैसा ही है। इसे विस्तार से यदि देखना हो तो इसके लिये रत्नप्रभा गम को देखना चाहिये। 'सेवं भते ! सेवं भते! त्ति' हे भदन्त ! तिर्यग् योनिकों का और मनुष्यों का असुरकुमारों में वीस द्वार रूप जो उत्पाद परिमाण आदि आप देवानुप्रिय ने कहा है वह सर्वथा सत्य ही है २ इस प्रकार कह कर उन गौतमने प्रभु को वन्दना की और नमस्कार किया, फिर वन्दना नमस्कार कर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ॥सू० ३॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत "भगवतीसूत्र" की प्रमेयचन्द्रिका व्याख्याके चोवीसवें शतक का __ दूसरा उद्देशक समाप्त ॥ २४-२॥ તે કાયસંધના સંબધમાં છે. કેમકે તે અહિયાં કાળની અપેક્ષાએ કંઈક पधारे सारोपभने। छे. 'सेस तं चेव' यासीन भी तमाम ॥ ४थन शिवा. યનું કથન રત્નપ્રભોના ગમ પ્રમાણેનું જ છે. આ વિષય જે વિસ્તાર પૂર્વક सभ डाय तो २नमा म धन सभ७ वा. 'सेवं भंते ! सेव भने ! त्ति' है भगवन् तिय योनिकाजामना सन मनुष्याना असु२॥ રોના વીસ દ્વાર રૂપ જે ઉપાદ પરિમાણ, વિગેરે આપ દેવાનુપ્રિયે કહ્યા છે, તે સર્વથા સત્ય છે. આ૫ દેવાનુપ્રિયનું કથન સર્વથા સત્યજ છે. આ પ્રમાણે કાપીને ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા પસૂ. ૩ જૈનાચાર્ય જે ધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત “ભગવતીસૂત્ર”ની પ્રમેયચન્દ્રિકા વ્યાખ્યાના વીસમા શતકને બીજો ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૨૪-રા શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪

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