Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 607
________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.२ १०२ सं. सं. पं. असुरकुमारेषूत्पादः ५९३ कालस्थितिकत्वेतु प्रशस्ताप्रशस्तोभयान्यपि अध्यवसायस्थानानि संभवन्ति नत अल्पस्थितिकेषु तत्र कालस्य अल्पत्वादिति । तथा-कायसंवेधे रत्नपभागमेषु सागरोपमेण संवेधः कथितः, असुरकुमारेषु सातिरेकेण सागरोपमेण कायसंबेध! कर्तव्यः बलीन्द्रपक्षापेक्षया एतस्यैव संभवादिति । 'एनदेवाह-'अज्झवसापा पसत्था' अध्यवसानानि-प्रशस्तानि प्रशस्तभावानां प्रशस्ता एवाध्यवसाया भवन्ति, 'णो अपसत्था' नो अपशस्तानि अध्यवसानानि भवन्ति 'सेसं तं चेव' शेषं तदेव एतद्भिन्नं सर्व परिमाणोत्पादावगाहनासंहननसंस्थानादिकं रत्नपभागमवदेव द्रष्टव्यम् स्थित्यनुबन्धावपि पूर्वोक्तरीत्यैव ज्ञात गौ, कायसवेधे पुनरेतावान् भेदः, स्थिति वाले के तो प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के भी अध्यक्ष साय स्थान होते हैं। पर अल्पस्थितिवालों में दोनों प्रकार के अध्यक्ष साय स्थान नहीं होते हैं। क्योंकि वहां कालकी अल्पता रहती है। तथा-कायसंवेध में रत्नप्रभा के गमों में सागरोपम से संबेध कहा गया है पर यहां असुर कुमारों में वह 'सातिरेक-कुछ अधिक सागरोपमसे कहना चाहिये। क्योंकि बलीन्द्र पक्षकी अपेक्षा इसका ही संभव है। 'अज्झवसाणा पसस्था' प्रशस्त भावों के अध्यवसाय प्रशस्त ही होते हैं 'जो अप्पसस्था' अप्रशस्त नहीं होते हैं इसी से कहा गया है। सेसं तं चेव' इस कथन के अतिरिक्त और सष परिमाण, उत्पाद, अवमा. हना, संहनन, संस्थानादि द्वारों के सम्बन्धी कथन नवों गमों में रत्नसभा के गम जैसा ही जान लेना चाहिये, स्थिति और अनुबन्ध भी पूर्वोक्त रीति के अनुसार ही यहां समझना चाहिये, कायसंवेध में इतना તે પ્રશસ્ત અને અપ્રશસ્ત અને પ્રકારના અધ્યવસાન સ્થાન હોય છે, પણ અ૮૫ સ્થિતિવાળાઓમાં બન્ને પ્રકારના અધ્યવસાન આત્મપરિણામ સ્થાન હોતા નથી. કેમકે ત્યાં કાળનું અપપણુ રહે છે. તથા કાયસંવેધમાં રત્ન ભાના ગમમાં સંવેધ સાગરોપમને કહ્યો છે. પરંતુ અહિયાં અસુરકુમારેમાં તે કાંઈક વધારે સાગરોપમને કહ્યો છે. કેમકે-બેલીન્દ્ર પક્ષની અપેક્ષાએ એને र सम छ. 'अज्झवसाणा पसत्था' से प्रमाणे २ धुं छे ते प्रशस्त भावाथी २५६५१सान प्रत पाने ४॥२थे ४९ . 'सेस तं चे' આ કથન શિવાયનું બાકીનું પરિમાણ, ઉત્પાત, અવગાહના, સંહનન, સંસ્થાન વિગેરે દ્વારે સંબંધનું કથન રત્નપ્રભાના ગમ પ્રમાણે જ સમજી લેવું. સ્થિતિ અને અનુબંધ પણ પૂર્વોક્ત રીતે જ અહિયાં સમજવી. કાયસંધમાં भ० ७५ શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૪

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