Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 05
Author(s): Sudharmaswami, Lakshmivallabh Gani
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kallassagarsuri Gyanmandir ॥ नमः अनन्तक्षश्विनिधानाय भगवते इन्द्रभूनवे ॥ निःशेषनिन्थागमामरसरिव्हिमाचलभगवडीसुधर्मस्वामीपत्रित लक्ष्मीवल्लभप्रणितटीकासमेतंगूर्जरभाषानुवादयुतं* श्रीमदुत्तराध्ययनसूत्रम् ॥ (पंचमो भागः) प्रकाशक:-पालनपुर ग्राम निवासि 'मणिवाई' इत्यभिध स्वपितुर्महेता 'राजकरण छगनलाल व स्मरणार्थ 'श्रीजैनभास्करोदय मुद्रणालये द्रापिता प्रसिद्ध कृतम् ।। विक्रम संवत् १९९५ पश्यं रुपयनयम ३-०-. प्रायः ५०. HALA For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ श्रीजिनाय नमः ॥ 4- उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥ श्रीमदुत्तराध्ययनसूत्रम् ॥ ( भाग ५) भाषांतर अध्य०१९ ११०५॥ (मूलकर्ता-श्रीसुधर्मास्वामी टीकाकार--श्रीलक्ष्मीवल्लभगणी) (मूल, मूलार्थ, टीका अने टीकाना भापान्तर. सहित ) ॥ अथैकोनविंशतितममध्ययनं प्रारभ्यते ॥ अष्टादशेऽध्ययने भोगर्टानां त्याग उक्तः, भोगड़ियागारमाधुत्वं स्यात्, नत्माधुवं घप्रतिकमतया स्यात् तत् एकोनविंशतितमेऽध्ययने निःप्रतिकर्मतां मृगापुनदृष्टांतेन कथयति अथ उत्तराध्ययननु मृगापुत्री नामर्नु ओगणीशमुं अध्ययन-अढारमा अध्ययनमा भोग तथा ऋद्धिनो त्याग कयो केयके भोगादिनो त्याग कर्याथी साधुत्व थाय, ते साधुत्व पण अप्रतिकर्म पणाथी थाय तेथी आ ओगणीशमां अध्ययनमा निःपतिकर्मता 241:44. For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उचराध्य भाषांतर अध्य०१९ यन सूत्रम् ॥११०६॥ E+%A4%ACCO मृगापुत्रना दृष्टांतवडे निरुपण कराय छे. सुग्गीवे नयरे रम्मे । काणणुज्जाणसोहिए ।। राया वलभह त्ति । मिया तस्सग्गमाहिसी ॥१॥ [सुग्गीवे.] कानन तथा उद्यानधी शोभित रम्य सुग्रीव नगरमा बलभद्र नामे राजा हतो तेनी मृगानामे मुख्य पट्टराणी हती. १ व्या-सुग्रीवे नानि नगरे बलभद्र इति नामा राजाभूत. कीदृशे सुग्रीषे नगरे ? रम्ये रमणीये, पुनः कीदृशे? काननोद्यानशोभिते, तन्त्र काननं बृहवृक्षाणामाभ्रराजादनादितरूणां वनं, उयानं नानाविधपादपलतादीनां वनं, अथवा क्रीडायोग्यं वनमुद्यानमुच्यते. ततः काननं चोद्यानं च काननोद्याने, ताभ्यां शोभितं,तस्मिन्, काननोद्यानशोभितं, समय बलभद्रभूपस्य मृगानाम्म्यग्रमहिष्यभूत, महिषा पदराज्ञी अना प्रधाना सा चासौ महिषी चाग्रमहिषो. ॥१॥ । मग्रीव नामना नगरने विषये बलभद्र एवा नायवाळो राजा हतो. मुग्रीव नगर केबुं ? रम्य रमणीय तथा कानन-एटले महोटां | आंचा रायेण वृक्षवाळ वन अने उद्यान-एटले विविध पुष्पक्षो तथा लताबाळा बाग, एवा कानन तथा उद्यानथी शोभीत. ते नग. |रने विपये ते बलभद्रभूपनी मृगा नामनी अग्रधानन्यहिषी-पट्टराणी हती.१ तेसिं पत्ते बलसिरी । मियापुत्तेति विस्सुए ॥ अम्मापिऊण दहए । जुवराया दमीसरे ॥२॥ For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१९ ॥११०७॥ तेसिं पुरी.] ते बलभा तथा भूगानो बकधी नामे पुत्र इतो. लोकमां ते मगाएत्र नामधी विश्रत प्रबात हतो, ते मातपितामो दयितउत्तराध्य- II प्रिय तथा दमीवर श्रेष्ठ जितेन्द्रिय होह युवराज धयेलो हतो. २ यन सूत्रम् व्या--'तेसिं पुत्ते' इति तयोर्बलभद्रमृगाराझ्योः पुत्रो बलश्रीनामासीत्. बलश्रीति पातापितृभ्या कृतनामी. ॥११०७॥ स बलश्रीविश्रुतो लोकपसिद्धो मृगापुत्र इत्यभूत्. मृगाया महाराज्या: पुत्रो मृगापुत्रा, लोकास्तं मृगापुत्रमित्यूचुरित्यर्थः. कीदृशो मृगापुत्रः ? 'अम्मापिऊण दइए' इति मातापित्रोदयितो वल्लभः, पुनः कीदृशः ? युवराजः, युवा चासो राजा च युवराजः कुमारपद्धारकः, पितरि जीवति सति राज्ययोग्यः कुमारो युवराज उच्यते. पुनः कीदृशः? दमीश्वरः, दमो विद्यते येषां ते दमिनस्तेषामीश्वरो दमीश्वरः, उपशमवतां साधूनामैश्वर्यधारी. अलकुमारावस्थायामेव | दमीश्वर इति विशेषणमुक्तं,तत्तु भाविनि भूनोपचारात्,अथवान द्रव्यनिक्षेपो ज्ञेयः, द्रव्यजिना जिनजीवा इति वचनान.२ | ते बलभद्र तथा मृगाराणीनो पुत्र बलश्री नामे हतो. एटले मा बापे तेनुं बलश्री नाम नाख्यु हतु पण लोकमां मृगामहाराणीनो पुत्र होवाथी मृगापुत्र नामथी प्रख्यात हतो. अर्थात् लोको तेने मृगापुत्र कहीनेज बोलावता दृता. ते कुमार केवो ? माता | पिताने दयित अति व्हालो तथा युवराज एटले युवावस्थामांज राजपदधारी थयो हतो. पिता जीवतां राज्ययोग्य कुमार युव६ राज कहेवाय. ते दमीश्वर उपशम संपन्न साधुओनो पण इश्वर=मुख्य गणाय तेवो. अत्रे कुमारावस्थामांज तेने दमीश्वर text For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य. यन मूत्रम् भाषांवर अध्य०१९ ॥११०८॥ ॥११०८॥ ॐSAA | विषेषण कडं ते भाविमां भूतनो उपचार करीने कडेल छे. अथवा अत्रे द्रव्य निक्षेप समजवानो छे, कारण के-जिनजीवो द्रव्यजिन के एवं बचन छे. २ नंदणे सो उ पासाए । कोलए सह इत्यिहि ॥ देवो दोगुंदगो चेव । निचं मुइग्माणसो ॥ ३ ॥ मणिरयणकुहिमतले । पामायालोयणडिओ ॥ आलोइए नगरस्स । चउकतियचञ्चरे ॥४॥ निंदणे ०] [मणी ] ते कुमार पोताना नंदन नामक प्रसादमा स्वीओए सहित नित्य मुदित मनवाळो दोगुंर देवनी पेढे क्रीडा करे . ३ मणि सधा स्नोव जडित भूमितळवाळा प्रासादना आलोचन-शखामा मेसीने नगरना चतुक चकला, त्रिक-त्रभेटा, अने सत्वर चोतराओने अवलोकतो हतो-जोया करतो हतो. ४ (आयेय गाथानो साथै सम्बन्ध छे) व्या-उभयाभ्यां गाथाभ्यां संबंधः स मृगापुत्रः कुमारोनंदने विशिष्टवास्तुशास्त्रोक्तसम्यग्लक्षणोपेते प्रासादे राजमंदिरे स्त्रीभिः सह क्रीडते. क इव ! दोगुंदकदेव तव, वायस्त्रिंशत्सुर इव. इन्द्रस्य पूज्यस्थानीया देवास्त्रायस्त्रिंशका दोगुंदका अप्युच्यंते. पुनः कीदृशः सः ? नित्यं मुदितमानसो निरंतरहृष्टचित्तः. एतादृशो मृगापुत्रः प्रासा दालोकने स्थितः सन् नगरस्य चतुष्कत्रिकचत्वरानालोकते. प्रासादस्थालोकने गवाक्षे स्थितो नगरस्य चतुष्कादिस्थितानि कौतूहलानि पश्यति. कीडशे प्रासादालोकने? 'मणिरयणकुहिमत' मणयश्च रत्नानि च तैः कुहिमं जटितं ADS *ARAN For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निलं यस्य तन्मणिरत्नकुट्टिमतलं, तस्मिन् ॥ ३-४॥ उत्तराध्ययन पत्रमा (आ धेय गाथाओ एक बीजा साथे संबंधवाळो छ.) ते मृगापुत्र कुमार, वास्तु शाखमा कहेला खास उत्तम लक्षणोथी युक्त मालावर ॥११०९ पोताना नंदन नामना प्रासादराजभवनमा खीओनी साथे क्रीडा करे के कोनी पेठे ? दोगुंदक देव जेम. तेतरीश माहेला देवनी से अध्य०१९ ॥११०९॥ हा पेठे. इन्द्रना पूज्य देवो प्रायस्त्रिशक तथा दोगुंदक पण कहेवाय के. वळी ते कुमार केवो ? नित्य मुदित मानस-निरंतर हर्षयुक्त | मनवालो एवो मृगापुत्र, प्रासादालोकन-पहेलना गोखमां स्थित थइने नगरनां चतुष्क चकमा, त्रिक-त्रमेटा तथा चखर चोतराभामां आवेला कौतुकाने जोतो हतो. पासादनो गोख केबो ? मणि श्री तथा रत्नोथी जडेल तळांचाळो. ३-४ अह तस्थ अच्छतं । पासह समणसंजयं ॥ तवनियमसंजमधरं । मील द्रं गुणागरं ॥ ५॥ (भह तस्य०) अयम्सेवामा त्योधमार्गमा चाल्या भावता, सप नियम तथा संयमने धारण करता, शीला शीकसंपा भने गुणोना आकर-खागरूप एचा श्रमण संयतने जोषा. ५ म्या-अथाननरं म मृगापुत्रः कुमारस्तत्र तस्मिश्चतुष्कत्रिकचत्वरादौ - अच्छतं ' अतिकाभंतं विचरंतं श्रमण पश्यति. कीदृशं श्रमण ? संयतं जीवयतनां कुर्वनं, मंयनमिति विशेषणेन चीतगगदेयमार्गानुमारिणं, न तु शाक्यादिमुनि. पुनः कीदृशं? तपनियमसंयमधरं, तपो बाह्याभ्यंतरभेदेन द्वादशविध, नियमो द्रव्यक्षेत्रकाल-| भावेनाभिग्रहहग्रहणं. संयमः सप्तदशविधः, नपश्च नियमश्च संयमश्च तपोनियमसंयमास्तान धरतीमि तपोनियम| सयमधरस्तं. पुनः कीदृशं? शीलाढयः शीलेरष्टादशसहस्त्रब्रह्मचर्यभेदेगदर्य पूर्ण. पुनः कीदृशं? गुणाकारं गुणानां %-34- 4-4 For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailaseagarsuri Gyanmandie उत्तराध्ययन सत्रम् ॥१९१०॥ भाषांतर अध्य०१९ ॐ4% ज्ञानदर्शनचारित्रगुणानामाकरं खनिसहशं. अनंतर ते मृगापुत्र कुमार त्यां=ते चतुष्क त्रिक चत्वरादिकने विषे विचरता श्रमणने जोया. केवा श्वमण ? संयत जीवयतना करता. संयत विशेषणवडे मुचित अर्थ एवो के के-वीतराग देवना मार्गने अनुसरनारा थे, नहिं के शाक्यादिमुनि दर्शित माने अनुसरनारा वळी ते श्रमण केवा ? तपोनियम संयमधर बाह्य तथा अभ्यंतर भेदथी द्वादविध तपःकर्म, नियम द्रव्य, क्षेत्र, काळ तथा भाववढे अभिग्रह लेवो ते; संयम सत्तर प्रकारना; एप: नियम तथा संयमने धारण करनारा, तथा शीलान्य एटले अदार हजार ब्रह्मचर्य भेदथी संपन्न अने गुणाकर-अर्थात् ज्ञानदर्शन चारित्र ए रत्नत्रयीरूप गुणांना आकर खाणरूप. ५ |तं देहई मियापुते । दिडीए अणिमिस्सिए । कहिं मन्नेरिस रूवं । दिपुरुवं मए पुरा ॥६॥ लामृगापुत्र अनिमिशित हिथी ते मुनिने जोह रखो. मनमा विचार करता-९ मार्नु छु, आq रूप में क्यांक प्रथम जोलु के. एम तेने लाग्युं. व्या-मृगापुत्रस्तं मुनिमनिमेषया दृष्टया देहई' पश्यति. दृष्ट्वा चैवं विचारयति, कचिदेवादशं रूपं मया दृष्टपूर्वमहमेवं मन्ये जानामि, मुनिं दृष्ट्वा प्रमुदितमना अभत्, पूर्वपरिचितमिव मुनि मेने इत्यर्थः ॥ ६ ॥ मृगापुत्र ते मुनिने अनिििषत दृष्टिी जुए छे. जोइने विचार करे छे के-'क्यांक आ रूप में प्रथम जोयेलुछे एम। पान छ' मुनिने जोइने हर्षयुक्त मनवाळो थयो अने जाणे पूर्वे परिचित होय तेम मुनिने भनमां मानवा लाग्यो. ६ ॥ माहुस्स दरिसणे तस्स । अज्झवसाणमि सोहणे ॥ मोहं गयस्म संतस्स । जाईसरणं समुप्पन्नं ॥ ७॥ ते साधुना दर्शन पता शोभन अभ्यवसायमा मोहम्मू ने पामेला.ते [मगापुत्र] ने जातिस्मरण उत्पम ध.. X+ % For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१९ ॥११११॥ उत्तराध्य व्या-तस्य मृगापुत्रस्य कुमारस्य तस्य साधोदर्शने जातिमारणं समुत्पर्य, प्राग्भवस्मरणज्ञानं संजातं. तस्य यन सूत्रम् कथंभूतस्य सतः? शोभने अध्यवसाये, समीचीने मनमः परिणामे क्षायोपशमभावे मोहं मूर्धा गतस्य प्राप्तस्य सतः ॥११शकाप्ययं मया दृष्ट इति चिनासंघमछात्मको मोहः कोऽर्थः? पुरा साधोदर्शनं जातं. दर्शनात्सम्यग्मनःपरिणामोऽभूत. ४ तदा च मछत्पिन्ना, तम्या मूर्छायां च जातिस्मृतिरभूदिति भावः, ते मृगापुत्र कुमारने ते साधुना दर्शन मात्रमा जातिस्मरण उत्पन्न ययु. अर्थात् पूर्वभव स्मरण ज्ञान थइ आव्युं. ते कुमार केवा ? शोभन अभ्यवसाय=समीचीन मनःपरिणाम अर्थात क्षायोपशमभावने विषये मोहम्म ने गत माप्त थया त्यारे एटले क्यांक आ साधु में जोयेल ' आवी चिन्ताजन्य मननी तनुतारूप मोह-मूळ आवतां; एटले 'पूर्वे साधुनु दर्शन थयु छे अने] ते दर्शनथी सम्यक मन=परिणाम थयो हतो' आवा फंडा विचारमा मूर्छा आवी अने ए मूर्छामांन जातिस्मरण थइ म्यू. ७ ॥ देवलांगचुभी संतो माणुस्स भवमागओ ॥ सन्निनाणे समुप्पन्ने । जाईमरणं पुराणयं ।। ८ ।। हुँ देवलोकधी प्युा थइ मानुष्यभवमा आयो छु, आई संविज्ञान उत्पन थाय त्यारे से पुराण-पूर्वभवर्नु जातिस्मरण कहेवाय, ८ च्या०-कितजातिस्मरण? तदाह-अहं देवलोकारुच्युतः मन् मानुष्यं भवभागत इति मंज्ञिज्ञाने ममुत्पन्ने मनि पुराणकं प्राचीन जातिस्मरणमभूदिति शेषः च संझिनो गर्भजपंचेंद्रियस्य ज्ञानं मंजिज्ञोनं, तस्मिन् संज्ञिज्ञाने.॥८॥ ते जातिस्मरण शृं? ते कहे छे-हुं देवलोकथी च्युत थयो अने मानुष्य भवमा आव्यो' आबु संज्ञिज्ञान गर्भज पंचेद्रियने यतुं ज्ञान उत्पन्न याय ते पुराणक-पूर्वभवनुं जातिस्मरण थयूं कहेवाय.८ For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य. यन मुत्रम् ॥१११२॥ भाषांतर अध्य०१९ ।१११२॥ ॐॐॐॐ ॥जाईमरणे समुप्पन्ने । मियापुत्ते महहिए ॥ सरई पोराणियं जाई । सामण्णं च पुरा कहं ॥९॥ जातिस्मरण समुत्पन्न भयुं त्यारे महोटी द्धिवाळाए सगापुत्रे पौराणिकजाति एटले पूर्वभवने करेला श्रामण्य चारित्रने स्मरण करवा लाग्या.. व्या-मृगापुत्रो महाद्धिको राज्यलक्ष्मीयुक्तः पौराणिकी प्राचीनां जाति स्मरनि. किं स्मरति? मया श्रामण्यं चारित्रं पुरा कृतं, पूर्व पालितमभूत. क सति ? जातिस्मरणे ज्ञाने समुत्पन्ने सति संजाते सति. ॥ ९॥ इत्यत्र पाठांतरमस्ति, गाथापाः पुनरुक्तित्वात्. मृगापुत्र महर्दिकराजलक्ष्मीयुक्त पौराणिकी पूर्वनी जाति भवनुं स्मरण करे छे. ' में पूर्वभवे श्रामण्य चारित्र कपाब्यु हतुं. क्यारे ? जातिस्मरण उद्भव्युत्यारे. ( अहीं गाथामा पुनरुक्ति जेवू के तेथी पाठांतर होय एम जणाय छे)९ विसएसु अरजंतो। रजतो संजमंमि य ॥ अम्मापिउरं उवागम्म । इमं वयणमब्यवी ॥१०॥ विषयोमा प्रीति विनानो मात्र संयममाज रंजित रहेसो [मृगापुत्र मातापिता समीपे आधीने आई वचन बोल्यो, . ध्या-मृगापुनः 'अम्मापिउर' मातापितरमुपागम्य समीपमागत्येदं वचनमब्रवीत्. किं कुर्वन् ? विषयेच्चरजन् विषयेभ्यो विरक्तो भवन, च पुनश्चारित्रे संघमे रजन् साधुमार्गे प्रीति कुर्वमित्यर्थः ॥१०॥ मृगापुत्र "अम्मापिउरे" माता पितानी समीपे भावीने आ वचन बोल्यो, के करीने १ विषयोमा रंजन न पामतो; विषयोथी विरक्त थयेलो तथा चारित्र-संयममांज रंजन पामतो, अर्थात् साधुमार्गमां प्रीति घरावतो. १० अरुका For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् सुयाणि मे पंचमहब्वयाणि | नरएसु दुश्वं च तिरिक्वजोनिसु॥ निरिटाणकामोथि महण्णवाओ। अणुजाणह पब्वइस्सामि अम्मो ॥ ११ ॥ भाषांतर में पांच महावत सांभळ्या के तेम नरकोने विषये जे दुःख तथा तिर्यक योनिमा जे दुःख ते पण में सांभळेल के आ महार्णव-संसार अध्य०१९ | सागरथी हुं निर्षिणकाम-निवृत्ताभिलाष थयो छु. है अम्मा हे माता ! मने अनुज्ञा=रजा आपो हुं प्रवज्या गृहण करीश. ११ ॥१११३॥ च्या-हे पितरौ! मे मगा पंच महात्रतानि प्राग्जन्मनि श्रुतानि, नरकेषु पुनास्तिर्यग्योनिषु दुःखं भुक्तमभूत्. ततोऽहं निर्विणकामोऽस्मि, निवृत्तविषयाभिलाषोऽस्मि. महार्णवात्संसारममुद्रात् प्रत्रजिष्यामि निस्तरिष्यानि. | यूयमतो मामनुजानीत ? आज्ञा दत्त ? ॥ ११ ॥ हे माता पिता! में पांच महावतो पूर्वजन्ममा सांभळ्या छे बळी नरकोमा तथा तिर्यक् योनिमां थता दुःखो में भोगन्यां छे तेथी। हुँ निर्विष्णकाम एटले विषयनी अभिलापाओ जेनी निवृत्त थयेली छे एवा हुं. आ महार्णवतुल्य संसारसमुद्रथी प्रत्रजित थइश-संसारसमुद्रने सरीश. माटे तमे मने अनुज्ञा दीक्षा ग्रहण करवानी आज्ञा दीयो. ११ अम्माताय मग भोगा । भुत्ता विसफलोचमा ॥ पच्छा कायधिवागा । अणुबंधदुहावहा ।। १२ । अम्मा वाय-हे माता पिता ! विषफळनी जेने उपमा देवाय तेवा भोगो भोगव्या. के जे पाछळधी कडवा विपाकपाळा होय . अने | उत्तरोत्तर दुःखने लइ आवनारा छे. १२ 4% का ऊन For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥१११४॥ भाषांतर अध्य. १९ ॥१११४॥ व्या०-हे पितरौ मया पूर्व भोगा मुकाः. फोदश भोगाः ? विषफलोपमाः, विषफलैरुपमीयते इति विषफलोपमा, पूर्व भागसमये मधुराः, परं पश्चात्कटुकविपाकाः, कटुको विपाको येषां ते कटुकविपाकाः, प्रांते दुःखदा इत्यर्थः. अध पुनः कीदृशाः? अनुबंधदुःखावहा अनुबंधं निरंतरं दुःखस्य आवहा दायकाः, अविच्छिन्नदुखदायिनः, १२ | हे माता पिता ! में पूर्वजन्ममा भोग भोगव्या छे, केवा भोग ? विषफळोपम-विषफळनी उपमा जेने देवाय एवा, प्रथम भोगवना टाणे तो मधुर लागे पण कटुक विषाक-कडवा परिणामवाळा, अर्थात् अंते दुःख देनारा तथा अनुबंध दुःखावह निरंतर दुःखोज लइ आवनारा=अविच्छिन्नदुःखदायी. १२ इमं शरीरं अणिचं । असुइ असुइसंभवं ।। असासयावासमिण । दुक्ख केसाण भायगं ॥ १३ ॥ आ शारीर अनित्य के अशुधि-पोते अपवित्र के तेमज अशुधिमळमूत्रादिकनी जेमांबी उत्पत्ति थाय हे ते , बळी अशाश्वत-नश्वर पदार्थना भाषासरूप अने दुःख तथा क्लेशन भाजन के. ५ व्या-हे पितराविद शरीरमनित्यमशाश्वतं, अशुच्यपवित्रं च वर्तते. पुनरिदं शरीरमशुचिसंभवमशुचिशुकरेतःसंभूतं. पुनरिदं शरीरमशाश्रतावास, अशाश्वतोऽनित्य आवासो जीवस्य निवासो यस्मिंस्तदशाश्वतावासं. पुनरिदं शरीरं दुःखक्लेशानां भाजनं, दुखानि जन्मजरामृत्युप्रमुखाणि, क्लेशा धनहानिस्वजनवियोगादयस्तेषां भाजनं. स्थानं. अथवा दु:खहेतवो ये क्लेशा रोगास्तेषां भाजनं. ॥ १३ ॥ 4 %A4 For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * हे माता पिता ! आ शरीर अनित्य प्रशाश्वत छ, अशुधि अपवित्र रहे छे बळी ए शरीर अशुचि-शुक्रशोणित-थी संभूत उत्तराध्य- ..... पावनेलु छे तेम अशाचतानाम अर्थात जेने विषये जीवनो आवास अनियत के तेवू तथा दावजन्मजरामृत्यु बगेरे अने क्लेश धन- भाषांतर यन सूत्रम् हानि स्वजन वियोग इत्यादिक- भाजन पात्र स्थान छे. अथवा दुःखना हेतुभूत क्लेश रोगादिक तेनुं भाजन-ठामरूप छे. १३ अध्य०१९ अमामए मरीरंमि । रई नेव लभामि है ।। पच्छा पुरा चइचब्वे । फेणबुभसनिमे ।। १४ ॥ पक्षात भोग भोगल्या पढी तथा पुरा भोग भोगण्या पहेला, त्यजवा योग्य तथा फोगना परपोटा समान अशावतानश्वर एवा शरीरने । स:विषये ई रति-प्रीति नथी पामतो. १५ व्या. हे पितरावहमशाश्वते शरीरे रतिं न लभामि, अहं स्वास्थ्यं न आमोमि. पुनः कीदृशे शरीरे? पश्चाद्भो-13 गभोगानंतरं (भुक्तभोगावस्थायां वार्धक्यादौ पुरा पूर्व भोगभोगादर्बागेव (अभुक्तभोगितायां याल्यादौ) त्यक्तव्ये. | पुनः कीदृशे शरीरे ? फेनबुदखुसंनि मे पानीयप्रस्फोटकमदृशे. ॥१४॥ हे माता पिता ! आ अशाश्वत शरीरने विषये हुं रति नयी पामतो. मने स्वस्थता अनुभवाती नथी. केवु शरीर? पश्चात्म्भोग भोगव्या पछी एटले भोग भोगवी रह्या पछीनी वृद्धावस्थामा तथा पुरा भोग भोगव्या पहेला, अर्थात् भोग भंगव्याज न होय एवी बाल्यावस्थामां त्यजी देवा योग्य तेमज फेनबुवुद संनिभ पाणीमां थवा फीणना परपोटा समान जोत जोतामां नाश पामनारं आवा शरीरमां मने रति-मीति थती नथी. १५ For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चराध्ययन सूत्रम् ॥१११६॥ भाषांतर १९ * माणुसते असारंमि । वाहिरोगाण आलए । जरामरणगत्थंमि । खपि न रमामिहं ।। १५ ॥ साररहित, ग्याधि तथासेगोन आलय-धर, जरामरणधी प्रस्त, एवा मानुषस्वमा मने एक क्षण पण गमतुं नथी, १५ व्या-हे पितारावसारे मनुष्यत्वेऽहं क्षणमपि न रमामि,न हर्ष भजामि.कीदृशे मनुष्यत्वे? व्याधिरोगाणामालये, व्याधयः कुष्टशूलादयः, रागा वातपिच श्लेष्मज्वरादयः, तेषां ग्रहे. पुनः कीदृशे मनुष्यत्वे? जरामरणाभ्यां ग्रस्ते.।१५। हे माता पिता ! आ मनुष्यपणामां मने एक क्षण पण गमतुं नथीमने हर्ष थतो ना, मानुषत्व केवु ? व्याधिो कोढ शूळ| इत्यादिक तथा रोग-पातपित्त कफ जरादिक, तेनु आलय घर, तथा जरा मरणवडे अस्त-चारेकोस्थी उपद्रुत. १५ जम्मदुक्ख जरादुक्खं । रोगा य मरणाणि य ।। अहो दुक्खो हु संसारे । जत्य कीसति जंतुणो ॥१६॥ जन्मदुःख जरादुःख बक्री रोगो अने मरणो, अहो! आ संसार दुःखमय के के जेमा जीयो क्लेश पाम्याज करे. १६ व्या०-हे पितरौ । हु इति निश्चयेन संसारा दुख दुःखहेतुर्वर्तते, अहो इत्याश्चर्ये, धत्र संसारे जीवाः क्लिश्यंति क्लेशं प्राप्नुवंति संसारे किं किं दुख? जरा तदाह-जन्मदुख दुःख, पुनः संसारे रोगास्तापशीतशिरोऽतिप्रमुखाः. पुनर्मरणानि च एतानि सर्वाणि दुःखानि यत्र संति. तस्मादयं संसारा दुःखहेतुरेव. यत्र भवभ्रमणे जीवाः मिश्यति क्लेशार्ता भवंति. हे माता पिता ! 'हु निश्चये संसार, दुःख हेतुन छे. अहो ! आश्चर्य के जे संसारमा जीवो क्लेश पामे छे, संसारमा क्यां * * * For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्यादिका उत्तराध्य यन सूत्रम् भाषांतर अध्य०१९ ॥१११७॥ ॥१११७|| दुःख छे! ते कहेछ-जन्य पामवा ए दुःख, वळी जरा अवस्थानां दःख तथा आ संसारमा तडका टाढ मस्तकपीडा उबर इत्यादिक। रोगो अने मरण पामचानां दाखोः या सर्व दुःखो संसारमा होबाथी संसार दाख हेतूज के जेमां भव भ्रमणमा पडेला जंतु-जावा क्लेशपीडित रह्याज करे छे. १६ ग्वित्तं वत्थु हिरणं च । पुनंदारं च पंधवा ॥ चत्ताणं इमं देहं । गंतवमवसस्म मे ॥ १७॥ क्षेत्र, वस्तु, हिरण्य, पुत्र, स्त्री, बांधवो, अने भा देहने पण त्यजीने मारे अवश्य जवान छे. 1. व्या०-हे पितरौ ! ममाऽचशस्य परवशस्य सतः परभवे गंतव्यं. किं कृत्वा क्षेत्रं ग्रामवाटिकादिकं त्यक्त्वा, | पुनर्वास्तु गृहं, हिरण्यं रूप्यं स्वर्ण, पुत्रं तनयं, दारं कलत्रं च पुनर्यान्धवान् स्वज्ञातीन भ्रातृपितृव्यान, इमान मापक्त्वा. इमं देहं शरीरमपि त्यक्त्वा . ॥१७॥ हे माता पिता ! मारे अवश-परवश बनीने परभवे जवानुं छे. केम करीने क्षेत्र गाम वाडी वगेरे छोडीने, पली वस्तु घर तथा राच रचिलु, हिरग-मोनां रूपां, पुत्र, दारा-स्त्री तथा बांधव-समां संबन्धी भाइ भांडरू वगेरेने ए सर्वेने अने डेवट आ देहने पण त्यजीने जवानुं छे. १७ जहा किंपाकफलाणं । परिणामो न सुंदरो।पचं भुत्ताण भोगाणं । परिणामो न सुंदरो॥१८॥ जेम किंपाक फळनो परिणाम सुदर न होव तेम भोगयेला भोगोनो पण परिणाम सुंदर नज होय. १८ व्या०-हे पितरौ! यथा किंपाकफलानां विषवृक्षफलानां परिणामो भक्षणानंतरपरिणतिसमयः सुंदरोन । - For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भवति, एवं भुक्तानां भोगानामपि परिणामः सुंदगे नास्ति. यादृशं विषफलानां भक्षणं, ताशो भोगानां परि. उत्तराध्य लणामः किंपाकफलानि हि दर्शनेन रमणीयानि, भक्षणसमयेऽपि सुस्वादूनि, भवंति, भुतरनंतरं प्राणापहारीणि, भाषांतर यन सूत्रम् तथा विषसुखान्यपि. ॥१८॥ अध्य०१९ ॥१११८॥ दा हे माता पिता ! जेम किंपाकफळ-विषवृक्षफळनो परिणाम-खाधा पछी थती असर सुन्दर-सारी नथी थती तेज प्रमाणे | ॥१११८॥ | भोगवेला भोगोनो पण परिणाम सुन्दर नथी आवतो. जेवो विषफळनुं भक्षण तेवो भोगनो परिणाम समजयो. किंपाक फळ जोवामां रमणीय तथा खाचा टाणे पण स्वादिष्ट लागे पण खाधा पछी प्राणहर नीवडे नेतेम भोगो विषयसुखी पण एवाज छे. १८ अद्वाणं जो महंतं तु । अपाहेज़ो परजई ॥ गच्छंतो सो दुही होइ । छुहातण्हाहि पीडिभो ॥ १९॥ जे पुरुष महोटा मार्गे पाथेपः भातुं साथे लीधा विना जाय छे ते जता जतां भूख तरसधी पीढाइने बहु दुःखी थाय छे. १९ व्या-हे पितरौ ! यः पुरुषो महांतमध्वानं दीर्घमार्गमपाधेयः संबलरहितः सन् प्रव्रजति, स पुमान् क्षुधातृष्णया पीधितः सन् दुःखी भवति. ॥ १९॥ हे माता पिता! जे पुरुष महोदे मार्गे लांबी मुसाफरीये भातारहित चालतो थाय छे ते पुरुष क्षुधातृषाथी पीडाइ दुःखी थाय छे.१९ । एवं धम्म अकाऊणं । जो गच्छइ परं भवं ।। गच्छतो सो दुही हो। बाहिरोगेहिं पीडिओ ॥२०॥ एमज धर्म कर्या विना जे पुरुष परभवे जाम के ते जातो जातो व्याधि रोगोवढे पीडित भइ दु:खी थाय . २० व्या०-एवममुना प्रकारेण अशंबलपुरुषदृष्टांतन यः पुरुषो धर्ममकृत्वा परभवं गच्छत्यन्यजन्म जति, स For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org उत्तराध्य यन सूत्रम् भाषांतर अध्य०१९ १११९॥ ॥१११९॥ गच्छन् दुःखी भवति. कीदृशः सः ? व्याधिरोगैः पीडित. एमएज प्रमाणे भात विना लांबी मुसाफरीये जनारानी पेठे जे पुरुष धर्म न करीने परभव-जन्मांतरे जाय छे ते जातां दाली थाय छे. केवो दुःखी ? व्याधियो तथा नानाभकारना रोगोवढे पीडित थइने दुःखी याय छे. २० अदाणं जो महंतं तु । सपहेलो पावजइ । गच्छंतो सो सुही होइ । छुहातिण्हा विवजिभो ॥२१॥ ___ जे महोटे मागे पाथेय भातुं साथै लइने चाले छे ते क्षुधा मुंषा विवर्जित बनीने सुखी थाय छे. २१ व्या०-हे पितरौ ! यः पुरुषो महांतमध्वानं दीर्घ मार्ग सपाथेयः शंबलसहितः सन् प्रव्रजति, स पुरुषः क्षुधातृष्णाभ्यां विवर्जितः क्षुधातृष्णाविवर्जितः सन मार्ग गच्छन सुखीभवति. ॥२१॥ हे माता पिता! जे पुरुष महोटे मागे लांचे पंये साथे पाथेय पुष्कळ भातुं लइने संचरे २ ते पुरुष क्षुधा तथा तृष्णाथी विव|र्जित थइने मार्गे जतो सुखी थाय छे. २१ एवं धम्मपि काऊणं । जो गच्छह परं भवं ।। गच्छते स सुही होइ । अप्पकम्मे अवेयणे ॥ २२ ॥ एबीज रीते धर्म पण करीने जे पुरुष परभवे जाथ ले तो ते जता जता अरूप कर्म थइ वेदना रहित बनी सुखी थाय छे. २२ व्या--एवममुना प्रकारेणानेन शंबलसहितपुरषदृष्टांतेन यो मनुष्यो धर्म कृत्वा परभवं परलोकं गच्छति, स धर्माराधकः पुरुषः सुखी भवति, कीदृशः सः? अल्पकर्मा अल्पानि कर्माणि यस्य सोऽल्पका लघुकर्मा. पुनः कीदृशः सः? अबेदनः न विद्यते वेदना यस्य सोऽवेदनः, अल्पवेदनो वेदनारहितो वा अल्पपापकर्मा अल्पाऽसा For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांवर अध्य०१९ ११२०॥ ACTR ६ तावेदन इत्यर्थः ॥ २२॥ Eत्तराध्या एवीन रीते-भातुं साथे लइ मुसाफरीये जनार पुरुषना दृष्टांतानुसारे जे मनुष्य धर्म करीने परभव-परलाके जाप के इन सूत्रम् ते धर्माराधक पुरुष सुखी थाय छे. ते केवो! अल्पकर्मा अल्प अशुभ कर्मोवाळो, अर्थात् लघु कर्मा बनीने तथा अवेदन-जेने वेदना नथी एवो, अर्थात् अल्प पापकर्म होवार्थी ते अल्प असाता वेदनीय यइ सुखी थाय छे. जहा गेहे पलितमि | तस्स गेहस्स जो पह ॥ सारभंडाणि नीणेह । असारं अवउज्झइ ॥ २३ ॥ जेम घरमा पलीतो कागे त्यारे ते धरनो जे प्रभु-स्वामी होय ते सार=कीमती भांड-वस्तुओने कादी ले छे अने असार-नजीवा पदार्थोने छोड़ी दे छे. २३ । व्या०-हे पितरौ ! यथा गृहेऽग्निना प्रदीप्ते प्रज्ज्वलिते सति तस्य गृहस्य यः प्रभुः स्वामी तदा सारभांडानि सारपदार्थानाजीविकाहेतून 'नीणेह' इति निष्कासयति, असारं भांडं चाऽपोज्नति अपोहनि त्यजतीत्यर्थः ॥२३॥ हे माता पिता! जेम घर अग्निथी वळवा लागे त्यारे ते घरनो प्रभु-धणी होय ते सारभांड एटले सारभूत पदार्थो आजीविकानी हेतुभूत जे जे कीमती वस्तु होय तेने नीकाली लीये छे. अने जे असार भांड-हांडला कुंडा जेवी नजीवी चीजो होय ६ तेने मूकी दीये . २३ एवं लोए पलिचमि । जराए मरणेण य ॥ अप्पाणं तारहस्सामि । तुझेहि अणुमनिओ ॥ २४ ॥ एम आ लोकमां पण जरा तथा मरणादिकथी पलीतो लाग्यो छे एमांथी तमोये जेने अनुमति भापीछे एवो हु मारा आस्माने तारीश५ बळतामांथी उगारीश, २४ ESS For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१९ ११२१॥ ब व्या०-एवममुनाऽनेन दृष्टांतेन लोके जरया मरणेन च पदीप्ते प्रज्ज्वलिते सत्यहमात्मानं तारयिष्यामि. कीउत्तराध्य-दशोऽहं? युष्माभिग्नुमतो भवद्भिर्दत्ताज्ञस्तस्मान्मामाज्ञा दातव्या.अहं भवदाज्ञया आत्मन उद्धारं करिष्यामीति भावः यन सूत्रम् । एज प्रकारे आज दृष्टांतथी आ लोक, जरा तथा मरण बडे प्रदीप्त थयो छे. सळगी उठ्यो छे तेमाथी हुँ मारा आत्माने ॥११२१॥ तारीश. केवो हुँ ? तमोए दीधी छे आज्ञा जेने एनो. माटे हवे तमारे मने आशा देवी जोइए. हूं आप बन्नेनी अनुज्ञा पामी * चारित्र ग्रहण करी मारा आत्मानो उद्धार करोश. २४ तं चिंति अम्मापियो । सामन्न पुत्त दुञ्चरं ॥ गुणाणं तु सहस्साई । धारेयवाड भिक्खुगो ॥ २५॥ ते मृगापुत्रने मालपिता बोल्या के-हे पुत्र! श्रामण्य-साधुत्व दुश्वर-आचरयु कठिन छ भिक्षुने तो हजारो गुण धारण करवा पढे छे. २५ व्या-अथ मातापितरौ तं मृगापुत्रप्रति ब्रूतः, हे पुत्र ! श्रामण्यं दुश्चरं, माधुधर्मो दुष्कोऽस्ति. हे पुत्र! चारिअस्योपकारकारकाणां गुणानां सहस्राणि भिक्षोर्धारयितव्यानि. मूलगुणाश्वोत्तरगुणाश्च भिक्षुगा धारणीयाः ॥२५॥ अथ ते पछी माता पिता ते सगापुत्र प्रति बोल्या के-हे पुत्र ! श्रामण्य दुश्वर छे; अर्थान साधु धर्म अति दुष्कर छे. हे पुत्र! चारित्रना उपकारक हजारो गुणो भिक्षुने धारण करवाना होय ,अर्थात मल गुणो तथा उत्तर गुगो भिक्षुप अवश्य धारण करवा पडे छे.२०/ समया सव्वभूएसु । सतुमित्तेसु वा जगे ॥ पाणाइवायविरई । जाबजोवाइ इकरं ॥ २६ ॥ सर्वभूतोमा समता, तेमज जगत्मा शत्रु अने मित्रमा पण समता राखथी तथा यावजीव-जीवता पर्यंत प्राणातिपातविरति प्राणि हिंसाधी १ विराम पामवं; ए टुकर छे. २६ -* - *C45 For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kotbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्ट उत्तराध्य. यन सूत्रम् भाषांतर अध्य०१९ ११२२॥ ॥११२२॥ मरन%** व्या-पुनहें पुत्र ! सर्वभूतेषु समता कर्तव्या, अथवा जगे इति जगति शचुमित्रेषु ममता कर्तव्या. पुनर्याज्जीवं प्राणातिपातविरनिर्दुष्करमिति दुष्करा. ॥ २६ ॥ वळी पण हे पुत्र ! सर्वभूत-पाणीमात्रमा पण समता धारण करवी अथवा जगठमां शायू तथा मित्रमा समता राखत्री अने | यावज्जीव-जीवित पर्यंत कोइ पण पाणीना माणघातथी विरति निवृत्ति, ए दुष्कर ले. २६ निश्चकालप्पमत्तेण । मुसावायविवजणं । भासियब्ध हियं मच्चं । निचाउत्तण दुकरं ॥ २७ ॥ मित्ये सर्वकाळ अप्रमत्तपणे रही मृषावाद विवर्जवो, अने लोकर्नु हित करे तेवु सत्य भाषण करवू ५ विषयमा हमेशा आयुक्त तत्पर रहेवू | आ सपळु अति दुष्कर छे. २७ . व्या-पुननित्यकालं सर्वदा अप्रमादित्वेन मृषावादस्य विवर्जनं मृषावादविधर्जनं कर्तव्य. पुनहित हितकारक सत्यं वक्तव्यं. पुनर्नित्यायुक्तेन स्थातव्यं, तदपि दुष्करमस्ति, आयुक्तः क्रियासु मावधानत्वं, नित्यमायुक्तो | नित्यायुक्तस्तेन स्थातव्यं. अत्र भावप्रधान निर्देशो मंगव्या. नित्यमायुक्तत्वेन स्थानम्यं तदपि दुष्करमित्यर्थः ॥२७॥ | बळी नित्यकाळ-सर्वदा अप्रमादी रहीने मृषावाद-असत्य भाषण विशेषे करी वर्जन करवा छे. तेमज सर्वन हितकारक सत्य वचन बोलबुं अने नित्य आयुक्त दरेक क्रियामां मावधान रहेg ते पण दुष्कर छे. अहीं 'नित्यायुक्त पद भाव प्रधान निर्देश हे अर्थात् निरंतर सावधानपणे रहे, ते अति दुष्कर छे. २७ दंतसोहणमाइस्म । अदत्तस्स विवजण ॥ अणवज्जेसणिज्जस्स । गेण्हाणा अविदुक्कग ॥२८॥ For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥११२३ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दंतशोधन मात्र दांत खोतरवानी सळी जेवुं पण अदत्त को आपे नहि त्यां सुधी लेवं नहि अने अनव निर्दोष एषणीय आहारादिक पदार्थोनुंज ग्रहण कर ए पण अति दुष्कर छे. २८ व्या०-हे पुत्र ! पुनः साधुधर्मे दंतशोधन प्रमुखस्याप्यदत्तस्य वस्तुनोऽपि विवर्जनं. शलाकामात्रमपि वस्त्वदत्तं नग्रहितव्यं, अनवयं च तदेषणीयं चाऽनवद्यैषणीयं तस्यानवद्यैषणीयस्य पिंडादेर्ग्रहणमपि दुष्करं. अनवद्यं निषणमचित्तं प्रासुकमेषणीयं द्विचत्वारिंशदोषरहितं पिंडं ग्रहितव्यं तदपि दुष्करमित्यर्थः ॥२८॥ ! बळी साधु धर्ममां दंतशोधन=दांत खोतरवानी सळी जेवु ं वस्तु पण कोइए दीवेल न होय ते वर्जवातु सळी जेवी चीज पण कोड़ दीये नहिं त्यां सुधी लेवाय नहीं. तेम कोइए दीघेली वस्तुमां पण अनवद्य = निर्दोष =अचित्त, एषणीय= आहारादिक अर्थात बेतालीश दोष रहित मासुकपिंड ग्रहण करवु ए पण दुष्कर छे. २८ विरई अवंभरस्स | कामभोगरसन्तुना ॥ उग्गं महत्वयं भं । धारेव्वं सुदुक्करं ||२९|| काम भोगना रसने जाणनारे अब्रह्मचर्यविषयभोगनी विरति=निवृत्ति, तथा उम्र मेह्मचर्यरूप महाव्रतनुं धारण कर दुष्कर है. २९ व्या०-हे पुत्र ! अब्रह्मचर्यस्य मैथुनस्य विरतिः कर्तव्या, सापि दुष्करा. हे पुत्र ! कामभोगरसज्ञेन पुरुषेणोग्रं घोरं वंभं ब्रह्मचर्य महाव्रतं घर्तव्यं तदपि दुष्करं लब्धभोगसुखास्वादस्य भोगेभ्यो निवृत्तिरत्यंतं दुष्करेत्यर्थः. २० हे पुत्र ! अब्रह्मचर्य = मैथुनी विरति छेक छोडी देवं ते पण दुष्कर छे तेम काम भोगना रसने जाणनार पुरुषे उग्र = उत्कृष्ट ब्रह्मचये महाव्रत धारण करवं ते पण दष्कर छे. जेणे भोग सुखोनो स्वाद लीधो होय तेणे भोगोथी निवृत्ति सेववी ए अत्यंत दुष्कर छे. २९ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य० १९ ||११२३ ।। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् भाषांतर अध्य०१९ www.kobatirth.org धगधन्नपेसवग्गेप्नु । परिग्गहविवज्जगं ॥ सवारंभपरिच्याओ । निम्नमत्तं सुदुक्करं ॥ ३ ॥ धन, धान्य तथा प्रेप्य वर्ग-नोकरवर्गमा परिग्रह छोडी देवो तथा सर्व प्रकारमा आरंभनो परिस्थान करवो अने ममतारहित रहेई ए पण दुष्कर के.३० | ख्या--धनधान्यप्रेष्यवगेषु परिग्रहविवर्जन कर्तव्यं धनं गणिमादि, धान्यं गोधूमादि, प्रेष्यवर्गों दासदास्या- दिवर्गः. धनं च धान्यं च प्रेव्यवर्गश्च धनधान्यप्रेष्यवर्गास्तेषु मोहवुद्धविशेषेण वजन, एतदपि दुष्करं. पुनः सर्वारंभपरित्यागः कर्तव्यः, स चापि दुम्करः ॥ ३०॥ धन, धान्य तया प्रेष्य वर्ग-नोकरवर्गने विषये परिग्रहनुं विशेषे वर्जन कर, अर्थात्-धन-मुरर्णादि, धान्य घ वगेरे तथा प्रेष्यवर्ग दास दासी आदिकमांथी मोहबुद्धि छोडी देवी; ए पण दुष्कर छे तेम सर्व आरंभनो परित्याग तथा कशामां ममत्व न राखए पण दुष्कर छे. ६० चविहे पि आहारे । राईभोयणवज्जणा ॥ सन्निमिसंचओ चेव । वज्जेयात्रा सुटुक्करं ॥ ३१॥ चारे प्रकारना आहारमा रात्रिभोजननी वर्जना करवी तेम संनिधि भेबु करी राबवु तथा सञ्चय संग्रह, धेयने वर्जवा ए पण दुष्कर छे ३१ व्या०-हे पुत्र! पुनः साधुधर्मे चतुर्विधे आहारे रात्रिभोजमस्य वर्जना कार्या. अशनपानखादिमस्वादिमानां चतुर्णामाहाराणामपि रात्रौ भोजनत्याग एव कर्तव्यः च पुनः संनिधितगुडादेरुचितकालातिक्रमेण स्थापनं. ततः संनिधिश्चासौ सञ्चयश्च संनिधिसंचयः, एव निश्चयेन वाजंतव्यः, सोऽपि सुतरां दुष्करः ॥३१॥ हे पुत्र ! वळी साधु धर्ममा अशन पान खादिम एवा चारे कारना आहारनी बाबतयां रात्रि भोजननी वर्जना करवी. अर्थात For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यन सूत्रम् ॥११२५॥ भाषांतर अध्य०१९ ॥११२५॥ रात्रि यइ एटले कशुं मोढामां नाव नहींज. तेमन संनिधि एटले घी गोल जेवा पदार्थों उचित काळ उपरांत राखया, तेनो | संचय-संग्रह निश्चये वर्जयो ते पण अति दुष्कर छे. ३१ छुहा तपहा य सीउण्हे । दमममगवेपणा ॥ अकोसा दुक्खसिजा या तणफामा जल्लमेव य ॥३२॥ क्षुधा, तृष्णा तथा शीत, उष्ण, दश-डांस भने मच्छनी वेदना, आक्रोश-निंदानां दुर्वचनो, दुरसशस्या सूवानु कर तथा तृणस्पर्श-संथा| रानां तृण सुंचे तेनु दुःख, अने जल-मळ परिषह; आ बधु साधुए सहन करयुं पड़े , ३२ व्या०-पुनहें पुत्र ! क्षुधा महनीयेत्यध्याहारः, तृषा तृष्णा च सोढव्या, शीतोष्णं सहनीयं, देशमशकानां वेदना सहनीया, पुनराक्रोशा दुर्वचनानि, तत्महनमपि दुष्कर. पुनः दुःखशय्या उपाश्रयस्य दुःख शय्यादुःखं तदपि सहनीयं. संस्तारके तृणमर्शदुःख, पुनर्जल्लं मलपरीषहोऽपि सोढव्यः माधुना. ॥३२॥ वळी हे पुत्र ! क्षुधा सहेवी पडे, (एटलो अध्याहार छे) तृष्णा तरस सहन करवानी तेमज शीत टाढ, उष्ण-गरमी तथा डांस अने मसलांनी वेदना पण सहन करवानी. तेमज आक्रोश बीजानां कहेला दुर्वचनो पण सहन करवा; बळी दुःखशय्या उपाश्रयमां मूवू ते दुःखशय्या सहन करवी, तथा संथारामां तृण खुचे ते अने जल मळपरीपड पण साधुए सहन करचो. ३२ ताडणा तज्जणा चेव । वहधपरीसहा ॥ दुक्खं भिवस्वायरिया। जायणा य अलाभपा ॥३३॥ कोई ताडना करे, तेम तर्जना करे-तरको तथा बध अने बंधना परीपहो सहन करवाना, वळी दुःखरूर मिशा चर्या तथा वाचना करबी तां अलाभता-लाभ न थाय ए बधुं सहन कर दुष्कर छे. ३३ For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org व्या-पुनस्नाडना चपेटाटकरादिना हननं, पुनस्तजनमंगुल्यादिना निर्भर्सन भयोत्पादनं. पुनर्वधर्वधपरिषहाः सहनीयाः, तत्र वधो गष्ट्यादिभिहनन, बंधनं रज्ज्वादिना दमनं, वधश्च बंधश्च वधबंधौ, तयोः परिषहाः सोढव्याः. उत्तराध्य भाषांतर यन सूत्रम् पुनभिक्षाचर्याया दुःखं, गृहस्थगृहे याचना कर्तव्या, तत्करणेऽपि दुवमस्नि. तत्रापि याचनायां कृतायामप्यलाभता अध्य०१९ |ऽप्राप्तिर्भवेत् , तदापि दुःखं न कर्तव्यमेतदपि दुष्करं ॥३३॥ ॥११२६॥ ॥११२६॥ वळी ताडना एटले थपाट अथवा ठोकरे हणे, तथा वर्जना आंगळी वगेरेथी तरछोडे तेमज व लाकडी वगेरेना मार तथा बन्ध रस्सीवती बांधे इत्यादिकना परीषहो पण सहन करवा. पुनः भिक्षाचर्यानु दुःख गृहस्थने घरे जइ याचना करवी पडे ते छता अलाभता कंड मळे नहीं तो पण दुःख न लगाइए पण दुष्कर छे. ३३ काबोया जा इमा विती । केसलोओ य दारुणो ॥ दुक्खं बंभवयं घोरं । धारेउ अ महप्पणा ॥३४॥ मा जे कापोता पारेवाना जेवीवृत्ति राखवी पढे बळी दारुग-दुःखद केशनो लोच, अने घोर अति कठिन ब्रह्मचर्यमत महात्मा साधुए IA धारण करवू जोइए ए पण दुःखरूप छ. ३४। | ध्या-हे पुत्र ! साधुधर्म पुनः कापोनीया वृत्तिर्वर्तते इति शेषः. कपोतानां पक्षिणां या इयं वृत्तिः सा कापो-५ तीया. यथा हि पक्षिणो नित्यं शंकिताः मनः स्वभक्षग्रहणे प्रवर्तते, आहारं कृत्वा च पुनः साथै किमपि न गृह्णति. कुक्षिशयला भवंति, तथा साधनोऽपि दोषेऽभ्यः शंकमाना आहारग्रहणे प्रवर्नते, आहारं कृत्वा च किमपि मार्थे सिंधयं न कुर्वति. पुनः साधूनां केशलोचोऽपि दारुणो भयदोऽस्ति, पुनर्महात्मना साधुना ब्रह्मवतं । धर्नु दुःखमिति | For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailaseagarsuri Gyanmandie उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥११२७ दुष्कर. यद् ब्रह्मव्रतं महात्मना महापुरुषेण प्रियते तद् ब्रह्मवतं धर्नु दुष्करमिति भावः, कीदृशं ब्रह्मत्रतं ? घोरं, अ-13 न्येषामल्पमत्वानां भयदायक. ॥३४॥ भाषांतर हे पुत्र ! साधुधर्मने विषये वळी कापोता वृत्ति पाळवी पडे छे कपोत पारेवा जेम हमेशां शंकित रही चारो करे छे, भक्षण अध्य०१९ करीने पार्छ कंड पण पोतापासे राखवा माटे गृहण करतां नथी किंतु मात्र पेट भरवा जेटलीन प्रवृत्ति करे छ तेम साधुओए पण २॥११२७॥ शंकित रही आहार ग्रहणमा प्रवृत्त यवु अने आहार करी कंइ पण संचय तरिके पासे भेलु न करवु: एने कापांतीसि कहे हे, आ कापोता वृत्ति बहु दुष्कर छे तेमज केशलोच पण दारुण त्रासजनक छ तथा महात्मा साधुए घोर विकट ब्रह्मत्रत धारण करवा | होय छे ते पण दुःख दुष्कर छ अर्थात् जे ब्रह्मवत महापुरुषोज धारण करी शके ए घोर अन्य अल्प सत्वबाळाथी न पाळी काय | | तेबुंए ब्रह्मचर्यत्रत धारण करने यथावन पालवु ए दुश्वप्रति दुष्कर छे. ३४ सुहोइओ तुम पुत्ता ! सुकुमालो सुमजिओ ।। न हुसी पमू तुमं पुत्ता ! मामण्णमणुपालिउ ।। ३५ ॥ हे पुत्र ! तुं सुबोषित सुख भोगरवा दायक हो बळी सुकुमार शरीरवाळो तथा सारी रीते स्नान करनारो छो तेथी के पुत्र ! तु श्रामण्य% | चारित्र पाळवा माटे निश्चये प्रभु-पमर्थ थइ शकीश नहि. ३५ व्या०-हे पुत्र ! त्वं सुग्वोचिनोऽसि, हे पुत्र! पुनस्त्वं सुकुमालोऽसि, अथ चारित्रग्रहणाय सनुद्यतोऽसि; परं त्वं प्रामण्यं माधुधर्मननुपालयितुं प्रभुः समर्थो न भवसि. हे पुत्र ! तु सुखोचित छो तेमज तुं मृकुमार छो भने चारित्र ग्रहण करवा तैयार थयो छो परंतु तुं श्रामण्य साधुधर्मर्नु अनु-18 For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खत्तराध्ययन सूत्रम् पालन करवा समर्थ धइश नहीं ३५ जावजीवमविस्सामो । गुणाणं तुह महाभरो !गुरूओ लोहमारूव । जो पुत्ता होइ दुवहो ॥३॥ भाषांतर हे पुत्र ! जे गुणोनो महोटो भार हे ते लोढाना भार जेवो अति गुरुक-बोजारूप होड अत्यन्त दुषह-वहन करबो कठिन के, तेमांधी अध्य०१९ बावजीव-जीवतां सूचीमा विसामो मळे तेम नधी. ३६ 12॥११२८॥ व्या-हे पुत्र ! यो गुणानां चारित्रस्य मृलोत्तरगुणानां महाभारः स लोहमार इव गुरुर्गरिष्टो दुर्वहो भवति. कीशो गुणानां महाभारः ? यावजीवमविश्रामो विश्रामरहितः. अन्योऽपि गुरुभारो यदा वोढुं न शक्यते, तदा कचित्प्रदेशे विमुच्य विश्रामो गृद्यते, परमेवं चारित्रगुणभारः कदापि न मोचनीयो यावजीवं धारणोयोऽस्ति ३३ &ा हे पुत्र ! जे गुणो एटले चारित्रना मूलगुणो तथा उत्तरगुणो कह्या छे तेनो महोटो भार लोढाना भारा जेबो गुरुक-बहु बोजादार होइने उठाययो अति कठिन छे, केमके ते यावज्जीव-जीवित पर्यंत विश्राम रहित उठावानो के. महोटो भार क्यांक उतारी विसामो लेनाय, पण आ चारित्र भार तो जीवितपर्यंत धरी राखबानो. ३६ आगासे गंगसोउच्च । पडिसोउम दुत्तरो। बाहाहिं सागरो चेव । तरिअब्बो गुणोदही ॥३॥ आकाशमां जेवो गंगास्रोत दुस्तर तथा जेम अन्य नदीमा प्रतिस्रोत-सामे पूरे तरयु जेम दुष्कर के भने बाहुबडे सागर तरी जबो। माजेवो कर तेवो था गुणोना उदधिरूप साधुधर्म तरबो अति दुष्कर के. ३. व्या०-हे पुत्र! आकाशे गंगायाः श्रोतोवद्दुस्तरमिति योज्यं. यथा हिमाचलास्पतद्गंगापवाहस्तरितुमशक्य For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य. यन सूत्रम् भाषांतर अध्य-१९ । ॥११२९॥ ॥११२९॥ स्तथा संयमा धारितुमशक्यः, प्रतीपजलप्रवाह इच दुस्तरो याहुभ्यां सागरस्तरितव्यः, तथा गुणोदधिर्गुणानां ज्ञानादीनामुदाधिर्गुणोदधिः, अथवा गुणा ज्ञानादयस्त एवोदधिर्गुणोदधिश्चारित्रसमुद्रस्तरणीयः (कायवानोनियंत्रणेनेव तत्तरणात्तस्य च दुःकरत्वात्.) ॥ ३७॥ हे पुत्र ? आकाशमां गंगाश्रीतः (जेवू दुष्तर छ एम योजना करवी) जेम हिमाचळथी पडतो गंगाप्रवाह तरी न शकाय तेम संयम पण धारण करवा दुष्कर छे. बळी सामे पूरे जळपवाह जेवो दुष्तर होय छे तया वे बाहुभुजाओवडे सागर तरी जळू जे दुष्कर के तेवो आ गुणोदधि अर्थात् ज्ञानादि गुणोनो दधि, अथवा ज्ञानादि गुणों एज उदधि चारित्रसमुद्र तरवानो छे. कायावाणी तथा मन, एत्रणेनुं नियमनबढेज ते गुणोदधि तराय अने ए नियमन दुष्कर के. ३७ चालुआकवले चेव । निरस्साए उ संजमे । असिधारागमणं चेव । दुकरं चरित्रं तवो ॥ ३८॥ देखना कोलीया जेबो संयम निःस्वाद छे भने असिम्तरवारनी धार उपर चालवा जेवू तप आचरवु पण दुष्कर के. ३८ व्या०-हे पुत्र ! वालुकाकवलो यथा निःस्वादस्तथा संयमा असिधारागमनमसिधारायां गमनं, स्वाधारायां | चलनं यथा दुष्करं नया तपश्चरितुं दुष्करं वर्तते.। ३८॥ हे पुत्र वालुकाना कोळीया खावा जेवा नीरस स्वाद रहित होय तेवो संयम पाळबो ए पण दुष्कर के अने असिम्खड्गनी धारा उपर हीड, जेवु दुष्कर छे तेवूज तपर्नु आचरण कर ए पण दुष्कर छे. ३८ अहीवेगंतदिडीए । चरित्ते पुत्त दुचरे ॥ जवा लोहमया चेव । चावेयन्वा सुदुक्करं ।। ३५ ।। For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हे पुत्र ! दुश्वर-दुःखे आचरी काय तेषाम्चारित्र मार्गमा सर्पनी पेटे एकांत एकान रष्टि राखीने चालवावें हेमा तप आचरखु ५ लोकाना यव चाववा होय तेना जेवू अति दुष्कर के. ३९ उत्तराध्य भाषांतर यन सूत्रम् व्या०-हे पुत्र! साधुरहिरिकांतदृष्टिः. एकांतो निश्चयो यस्याः सैकांता, एकांता चासो दृष्टिश्चैकांतदृष्टिः. यथा अध्य०१९ ॥११३गार सर्प एकाग्रदृष्ट्या चलति, इतस्ततश्च न विलोकयति, तथा साधुमार्गे साधुश्चरेत्, मोक्षमार्गे दृष्टिं विधाय चरेत.|११३०॥ दकोशे चारित्रे ? दुश्चरे चरितुमशक्ये. यथा लोहमया यवाचवितव्या दुष्करास्तथा चारित्रमपि चरितुं दुष्करं. ॥३९॥ हे पुत्र! साधुए सर्पनी पेठे एकांत दृष्टि रहेवार्नु छे. अर्थात् एकांत निश्चयवाळी दृष्टि एकाग्र दृष्टि जेम सर्प आडं अबछु न जोता सीधो चाल्यो जाय छे तेम साधुए पण साधुमार्गमा मोक्षमार्गमा एकाग्र दृष्ठि राखी चालबानु छे. ए चारित्र केवु? जेम 8 दालोहमय लोढाना यच चावत्रा कठिन के तेम आ चारित्र पण आचरवु अति दुष्कर के. ३९ । जहा अग्गिसिहा दित्ता । पाउं होह सुदुष्करं ।। तह दुक्करं करेउं जे। तारुण्णे समणत्तणं ॥४०॥ जेवी प्रदीप्त अग्निशिखा पीवी बहु दुष्कर होय तेबीज रीते तारुण्य युवावस्थामा जे श्रामण्य साधुपणु करवु ते अति दुष्कर छे. .. व्या-हे.पुत्र ! यथाग्निशिखा दीप्ता सती ज्वलंती पातुं पानं कर्तु सुतरां दुष्करा, तथा तारुण्ये यौवने श्रमहै णत्वं चारित्रं कतु दुष्करं. यौवनावस्थायां हींद्रियाणि दुर्दमानीत्यर्थः ॥४०॥ | हे पुत्र ! जेम अनिनी शिखा ज्वाळा दीप प्रज्वलित थइ होय तेने पीवानु घणुंज दुष्कर होय छे तथा तेवीज गते तारुण्य= यौवनमां श्रमणत्व-साधुपणुं आचर अति दुष्कर छे. कारण के यौवन अवस्थायां इन्द्रियोनु दमन बहु दुःसाध्य होय है.४० For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥। ११३१ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जहा दुक्ख भरेडं जे । होइ वायरस कुत्थलो || तहा दुक्खं करेउं जे। कीवेण समणत्तणं ॥ ४१ ॥ जेम वना कोथळाने वायुधी भरवानुं दुष्कर होय के तेम कलीब-हीनत्तत्व पुरुषे भ्रमणश्व= चारित्र कर दुष्कर के. ४१ व्या०-- हे पुत्र ! यथा वायोरिति वायुना भरितुं पूरितुं कुत्थलो वस्त्रमयं भाजनं दुष्करं, तथा क्लीवेन हीनसस्वेन श्रामण्यं कर्तु दुष्करं ॥ ४१ ॥ हे पुत्र ! यथा जेम मय कोथळो वायुथी भरवा पुरवानुं दुष्कर होय के तेम सवहीन पुरुषे श्रामण्य पाळवु दुष्कर छे. ४१ जहा तुलाए तोलेडं । दुक्करं मंदरो गिरी ।। तहा निहुये निस्संकं । दुकरं समणतणं ॥ ४२ ॥ जेम मंदरगिरि पर्वत तुला वाजवामां तोलवो दुष्कर छे तेची रीते निश्चलपणे तथा नि:शंकपणे भ्रमणत्व साधुत्व चारित्र पाळदुं दुष्कर छे.४२ व्या० - हे पुत्र ! था मंद गिरिर्मेरुपर्वतस्तुलपा तोलितुं दुष्करस्तथा निभृतं निश्चलं निःशकं शंकारहितं यथास्यात्तथा शरीरापेक्षारहितं श्रमणत्वं साधुत्वं शरीरेण धर्तु दुष्करं ॥ ४२ ॥ हे पुत्र ! जेम मंदरगिरि= मेरुपर्वत तुला = ताजवावडे तोळवो दुष्कर छे ते निभृत=निक तथा निःशंक रीते जेम थाय तेम शरीरापेक्षा न राखतां श्रमणत्व साधुत्व शरीरे धारण कर दुष्कर छे. ४२ जहा भुजाहिं तरिडं । दुक्करं रथणायरो | तहा अणुवसंतेणं । दुकरं दमसागरो ॥ ४३ ॥ जेम रस्माकर=समुद्र भुजावडे करीने तरी जवं दुष्कर छे तेवो आ दमरूपी सागर अनुपशांग पुरुषे तरबो दुष्कर से ४३ व्या०-हे पुत्र । यथा रत्नाकरः समुद्रो भुजाभ्यां तरितुं दुष्करस्तथाऽनुपशांतेन मनुष्येण दमसागरस्तरितं दूष् क :. For Private and Personal Use Only भाषांवर अध्य०१९ (११३१ ॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन,सूत्रम् ॥११३२॥ www kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie उपशांतो जितकषायः, न उपशांतोऽनुपशांतस्तेन सकषायेण पुरुषेण दम इंद्रियदमोऽर्थाचारित्रं, दम एव दुस्तरत्वा| रसागर इव दमसागरस्तरितुं दुःशक्य इत्यर्थः ॥४३॥ भाषांतर हे पुत्र ! जेम रत्नाकर समुद्र भुजावडे तरवो कठीन छे तेबीज रीते अनुपशांत मनुष्ये अर्थात जेणे कपाय न जीत्या होय IN अध्य०१९ | तेवा सकषाय पुरुषे दम एटले इन्द्रियवशीकार, अर्थात् चारित्र ए दमरूपी सागर, दुस्तर होवाथी दमने सागर कयो-ए दमरूपी 3॥११३२।। | सागर तरबो दुःशक्य छे. ४३ भुंज माणुस्सा भोए । पंचलवणए तुमं ।। भुत्तभोगी तओ जाया । पच्छा धम्म चरिस्ससि ॥४४॥ है जाया-पुत्र ! तु मनुष्य संबंधी पांच प्रकारना भोगोने भोमव, अने ते पछी भोगव्या के भोगो जेणे एवो यह धर्मनु आचरण करजे. ४४ व्या०-हे पुत्र ! मानुष्यकान, मनुष्यस्येमे मानुष्यकास्तान मानुष्यकान् मनुष्यसंबंधिनः पञ्चलक्षणान् पञ्चवि-15 धान भोगांस्त्वं भुंक्ष्याऽनुभव ? हे जात! हे पुत्र ! ततः पश्चाद भुक्तभोगीभूय धर्म यतिधर्म चरिष्यस्यंगीकरिष्यसि. PIइदानीं तब भोगानुभवसमयोऽस्तीति, न पुनर्भोगत्यागावसर इति भावः ॥४४॥ | हे पुत्र ! मानुष्यक-एटले मनुष्य संबंधी पश्च लक्षण-पांच पकारना भोगो भोगव. हे जात-पुत्र! ते पछी भोग भोगवी लइने | पछी धर्म एटले यतिधर्म आचरी शकीश-अङ्गीकार करजे. हमणां तो तारे भोगो भोगववानो अनुभव लेवानो समय छे आ टाणु | कइ भोग त्याग करवानुं नथी माटे खुब भोग भोगवो ते पछी भले श्रामण्यनो अंगीकार करजो. ४४ सो वितम्मापियरो । एवमेयं जहा फुडं ॥ इहलोएनिम्पिवासस्स । नस्थि किंचि वि दुकरं ।। ४५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से-मृगापुत्र-बोले छ के-हे माता पिता ! तमें जेम स्फुटपणे श्रामण्य दुष्कर छे कj ते एमज छ तथापि आ लोकमां निष्पीपास-तृष्णारहित | होय तेने कइपण दुष्कर छेज नहिं ४५ उत्तराध्या व्या०-अथ मृगापुत्रो ब्रूते, हे पितरावेवमिति यथा भवद्भ्यां प्रोक्तं तत्तथैव. यथा प्रव्रज्या दुष्करत्वं स्फुटं|| भाष यन सूत्रम् प्रकटं वर्तते तदसत्यं नास्ति.तथापीह लोके निष्पिपासस्य,पिपासायास्तृष्णायानिर्गतो नि:पिपासस्तस्य नि:पिपा. ॥११३३॥ ॥११३३॥ सस्य निःस्पृहस्य पुरुषस्य किंचिदपि दुष्करं नास्ति.निस्पृहस्य तृणं जगदित्युक्तेः. यः स्पृहावान् भवति तस्य परिग्रहत्यागो दुष्कर एव. परं निरीहस्य साधुधर्मः सुकर एव. तेनाहं निःस्पृहोऽस्मि. मया सुखेन साधुधर्म कर्तव्यः.४५ ___अथ मृगापुत्र बोले छे-हे माता पिता ! जेम आप बन्नेये का ते तेमज छे. जे प्रव्रज्यानु दुष्करपणु स्फुट-प्रकटन छे, ते जराय असत्य नथी. तो पण आ लोकने विषये निपिपास-तृष्णारहित-निःस्पृह थयेला पुरुषने कंह पण दुष्कर नथी. "निःस्पृहने | जगत् तुणतुल्य " ए वाक्य सत्य छ, जे स्पृहावालो होय तेने परिग्रह त्याग करवो दुष्करज छे पण निरीह जनने साधुधर्म मुक| रज थाय छे. तो हुँ नि:पह होवाथी मारे तो मुखेयी साधुधर्भ पाळी शकाशे. ४५ सारीरमाणसा चेव । वेयणाओ अणंतसो॥मए सोढाओ भीमाओ। असई दुक्खभयाणि य॥४६॥ में अनतवार शरीरमी तथा मननी भयंकर वेदनाओ सही छे तथा अनेकवार दुःख तथा भय पण में सहन करेला छे. ४६ व्या०-हे पितरौ! मया शारीरमानस्यो वेदना अनंतशोऽनंतवारान् सोढा अनुभूताः, चैव पादपूरणे. च पुनरसकृद्वारंवारं दुःखानि भयानि च सोढानि. कीदृशा वेदनाः? भीमा भयानकाः. दुःखानां भयानांच For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उतराध्य यन सूत्रम् ॥ ११३४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीमशब्दो विशेषणेन प्रतिपाद्यः कीदृशानि दुःखानि भयानि च ( भीमानि भयोत्पादकानि दुःखानि च भयानि च दुःखभयानि अथवा दुःखहेतूनि भयानि दुःखभयानि, राजविड्वराग्निचौरवाटीप्रमुखाणि तानि वारंवार मनु भूतानीत्यर्थः ॥ ४६ ॥ हे माता पिता! में शरीर संबन्धिनी तथा मननी भयङ्कर वेदनाओ अनन्तवार भोगवी=सहन करी छे, वळी असकृत्=अनेकवार भयानक दुःखो तथा विविध भय पण सहन करेल छे. अथवा दुःखनां हेतुभूत भयो=जेवांके राज संबन्धी तेमज वैश्य, अमि, चोरनां घाडां वगैरे अनेक प्रकारनां दुःखो वारंवार अनुभव्यां छे तेमज सहन पण कर्या छे. ४६ जरामरणकंतारे । चाउरंते भयागरे ॥ मए सोढाणि भीमाणि । जम्माणि मरणाणि य ॥ ४७ ॥ जरा तथा मरणरूपी कांतार=भरण्य के जे चतुरंत देव मनुष्य तिर्य तथा नारक: ए चार अंतवालुं छे तथा भयागार भयनुं वररूप छे, aat में भयानक जम्मो तथा मरणो सहन कर्या छे. ४७ व्या०-- पुनर्मृगापुत्रो वक्ति, हे पितरौ ! चातुरंते संसारे भीमानि भयदानि जन्मानि च पुनर्भरणानि मया सोढान्यनुभूतानि चत्वारो देवमनुष्यतिर्यग्नरकरूपा भवा अंता अवयवा यस्य स चतुरंतः, चतुरन्त एव चातुरन्त इति व्युत्पत्तिः अर्थात्संसारस्तस्पिश्चातुरंते संसारे. कीदृशे चातुरंते ? जरामरणकांतारे, जरामरणाभ्यामतिगहनतया कांतारं वनं जरामरणकांतारं, तस्मिन् जरामरणकांतारे. ॥ ४७ ॥ बळी पण मृगापुत्र कहे छे-हे माता पिता ! आ चातुरंत एटले देव मनुष्य तिर्यक तथा नारक रूप भव जेना अंत=अवयवो For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१९ ॥११९३४ ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥११३॥ भाषांतर अध्य०१९ ॥११३५॥ छे एवा आ संसारमा में भीम भय देनारां-जन्मो तथा मरणो सद्या अनुभच्या छे. संसार केवो? जरा तथा मरण आ वे अति |* ठा गहन होवाथी ते रूपी कांतार-वन तुल्य आ संसार. ४७ जहा इहं अगणी उण्हो। इत्तो अणंतगुणो तहिं । नरएम वेयणा उपहा । असाया वेड्या मए ॥ ४८॥ जेवो अहीं अग्नि पण छे तेना करतां न्यानरकोने विषये अनंतगुणो उषण छे ए अमिनी उष्ण तथा असाता दुःख देनारी वेदना में अनुभवी छे.४ व्या- पितरौ ! येषु नरकेष्वहमुत्पन्नस्तेषु नरकेषु मयोष्णा: स्पर्शनेन्द्रियदुःखदा असातावेदना वेदिता भुक्ताः कीदृशा उष्णाः? यथेहमनुष्यलोकेऽग्निरूष्णो वर्तते, इतोऽग्नेः स्पर्शात्तत्र नरकेष्वनंतगुणोऽग्निस्पर्शः, तत्र च वावराग्नेरभावात् पृथिव्या एव तथाविधः स्पर्श इति गम्यते. ॥४८॥ | हे माता पिता ! जे नरकोने विषये हुँ उत्पन्न थयेलो ते नरकोपां में उन्ही स्पर्शेन्द्रियने अति दुःख देनारी असाता वेदना वेदिता एटले भोगवी छे. केवी उन्ही ? जेवो अही मनुष्यलोकने विषये अग्नि उष्ण छे एना करतां नरकने विषये अनन्तगुणो अग्निस्पर्श उष्ण छे, त्यां नरकमा बादर अमिनो अभाव होवाथी त्यां पृथिवीज तेवा अति उष्णस्पर्शवाळी होय एम जणाय छे. ४८ जहा इह इमं सीयं । इत्तोणतगुणं तहिं । नरएम वेयणा सीया । अमाया वेड्या मए । ४९।। अहीं जेवी आशीत टाड छे तेना करता त्यानरकमा अनंतगुणी छे ए शीत-ठानी असाता=दुःखप्रद वेदनाओ में वेदित अनुभवी छ.४९ व्या-यह मनुष्यलोके इदं प्रत्यक्ष शीतं वर्तते, इत: शीतात्तत्र नरकेषु मया शीता स्पर्शनेन्द्रियदुःखदाऽसातावेदनानंतगुणाधिका भुक्तानुभूता.॥ ४९ ।। REPARATE For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥११३६॥ ट, पूर्व पक्क इति पका कीडशे हुताशने? ज्वाला जे लोहमय होय हे *SHAIL जेबी आ मनुष्यलोकने विषये आ-प्रत्यक्षशीत लागे छे ९ शीतना करता त्यां नरकने विषये शीताम्स्पशेन्द्रियने अति दुःख देनारो टाइनी अनन्तगुणी वेदना में भोगवी अनुभवी छे. ४९ भाषांतर __कंदतो कंदुकुंभीसु । उपाओ अहोसिरो॥ हुयासणे जलतमि । पक्कपुब्यो अणंतसो ॥ ५० ॥ अध्य०१९ __ आकंद करतो, उंचा पग भने नीचे मस्तक रहे एवी रीते कंदु-भाड तथा कुंभी लोहानी कोठीओमां ज्वलता अग्नि उपरें हुं अनंतवार IM॥११३३॥ पूर्व पका धयो छ अर्थात् ए कोठीओमा घणी यखत रंधाणो ए. ५० व्या--हे पितरावह कंदुकुंभीषु पाकभाजनविशेषासु लोहमयीषु हुताशने देवमायाकृते वहावनंतशोबहुन् वारान् पक्वपूर्वः, पूर्व पक इति पक्कपूर्वः कीदृशोऽहं ? ऊर्ध्वपाद ऊर्ध्वचरणः, च पुनरधःशिरा अधोमस्तकः, अहं किं कुर्वन् ? कंदन पूत्कृति कुर्वन, कीदृशे हुताशने? ज्वलति देदीप्यमाने. ॥५०॥ हे माता पिता ! ९ कंदुकुंभीमा एटले खास प्रकारना संधवानां ठामोमां के जे लोहमय होय छे तेमा हुताशन=देवमायाथी सृजायेला अग्नि उपरे अनंतशा=बहुचार पूर्व पाक्यो -रंधायो छु. केवी रीते ? उंचा पग राखी तथा अधःशिरानीचुं मस्तक रहे | तेबी रीते. अहीं शू करतां ? क्रन्दन् पीडामा बृमो पाडतो. अग्नि केहो ? प्रज्वलित देदीप्यमान. ५० महादवग्गिसंकासे । मरुमि वयरवालुए॥ कलंबवालुया एव । भट्ठपुल्यो अणंतसो ॥ ५१ ।।। महोटा दावानळ जेवा मरु-रेताळ प्रदेश के जेमां बज वालुका-हीराकणी जेवी वेळु होय छे तेमा कलंय वालुका नदीने कांटे हुँ अनंतवार | पूर्वे दग्ध थयो छ-भूआयो छु. ५१ For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यन सूत्रम् ॥११३७ भाषांतर अध्य०१९ ११३७॥ व्या-हे पितरौ ! कलंपवालुकाया नद्या मरुमि वालुकानिवहेऽनंतशो वारंवारमहं दग्धपूर्वः. कलंबवालुका ४ नरकनदी. तस्याः पुलिनधूल्यां भ्रष्टपूर्वः, यथान चणकादिधान्यानि भ्राष्ट्रे भुज्यंते, तथाहमपि बहुशो दग्धः कः थंभूते मरौ? महादवाग्निसंकाशे महादयानलसदृशे दाहकशक्तियुक्ते. पुनः कीदृशे मरौ? वज्रघालुके, वजवा. लुका यस्य स वज्रवालुकस्तस्मिन् वज्रवालुके. ।। ५१॥ हे माता पिता! कलंब वालुका नदीना मरु-कांठा उपरना रेताळ प्रदेशमा अनन्तशःम्बारंबार हुँ पूर्वे वळयो छ. कलंचवालुका नरकनदी तेना कांठगनी रेतीमा पूर्वे अनेकवार भूनायो छ. जेम अहीं चण्या वगेरे धान्य माडमां भुनाय के तेम हुंपण घणीवार दग्ध थयो छु. ए मरु केवो? महोटा दावाग्नि समान असाधारण दाहक शक्तिवाळो तथा वन वालुक हीरकणी जेबी जेमां वेळु होय नेवा मरुमा भुंजायो छु. ५१ रसंतो कंदुकुभीसु । उहूँ बद्धो अबंधवो ॥ करवत्त करवयाईहिं । छिन्नपुब्वो अणंतसो ॥ ५२ ॥ कंदकुंभी लोढानी कोठीयोमा राहो पाहतो तथा बंधु विनानो हुँ उंचे बन्धावेलो करवत तथा कनवरे अनन्तबार पूर्ण वायो यु ५२ | व्या.-हे पितरौ! पुनरहं कंदुकुंभीषु लोहमयपाचन भांडविशेषेषु ऊर्ध्व वृक्षशाग्यादौ पद्धः सन परमाधार्मिकदेवैरिति बुध्ध्या मायमबद्धः कुत्रचिन्नष्ट्वा यायात्, तस्मादधोदेशे कुंभी वर्तते, उपरि च वृक्षशाखायामह | [बद्धः,करपत्रैः क्रकचैश्चानंलशो यहुवारं छिन्नपूर्वो द्विधा कृतः.यथा काष्टं बध्व्या करपत्रैः कचैश्छिद्यते,तथाहं छिन। लघुनि काष्टविदारणोपकरणानि ऋकचानि, बृहंति च तानि करपत्रकाण्युच्यते. कीरशोऽहं ! श्मन् विलपन पू. AchAr> For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥ ११३८ । www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्कृतिं कुर्वन्; पुनः कीदृशोऽहं ? अबांधवः, न विद्यते बांधवो हितकारी यस्य सोऽबांधवः ॥५२॥ हे माता पिता ! बळी हु कंदुकुंभी एटले कोढाना रांधवाना महोटा उामोमां उपर वृक्षनी शाखामां बांधेको अर्थात् ए नरकना परमाधामीक देवो 'बांध्या बगर छूटो रहेतो आ मार वखते रखे क्यांक भागीने जतो न रहे' एवा अभिप्रायथी बांधीने नानी महोटी करवतोवडे अनन्तवार पूर्वे वेरायो लुं. जेम काटने बांधी करवतथी छेदे छे, तेम हुं पण छेदायो हुं. नानां काष्ठ चीरवाने हाथ करवती क्रकच कद्देवाय छे अने महोटा काकडा बेरवानी करवत करपत्र कद्देवाय छे. हु केषो ? रसन=बूमो पाडतो तथा अबांधव जेनो हितकारी कोइ पण बांधव हाजर न होय तेवो, केवळ अशरण. ५२ अइतिक्खकंटयाइण्णे । तुंगे सिंयलिपायवे ॥ खेवियं पासवद्धेणं । कट्टाकट्टाहिं दुक्करं ॥ ५३ ॥ अति क्षीण कंटकोथी व्याप्त युवा शास्मलीना उंचा वृक्षो पाशथी बांधीने फेंकेंका में आ च तथा तानवडे =दुःसह दु:ख अनुभवेल छे. ५३ व्या०-हे पितरावतितीक्ष्णकंटकाकीर्णे तुंगे उच्चे शंबलपादपे कट्टाकट्टैः कर्षापकर्षणैः परमाधार्मिककृतैः क्षेपितं पूर्वोपार्जितं कर्मानुभूतं मया यानि कर्माण्युपार्जितानि तानि भुक्तानीति शेषः कीदृशेन मया ? पाशबद्धेन रज्ज्वा सिंजितेन. हृदमपि दुष्करं कष्टं भुक्तमिति शेषः. ५३ हे माता पिता ! अति तीक्ष्ण कंटकोथी व्याप्त उंचा शाल्मलीना वृक्ष उपरे कट्टाकट्ट=कर्षण तथा अपकर्षणवडे अर्थात् परमाधामी देवोथी कराती खेचताणवठे क्षेपित पूर्वोपार्जित कर्म अनुभब्युं. में जे जे कर्मों करेलां ते ते बधां भोगव्या. हुं केबो ? पाशबद्ध = रस्सीवढे जकडायेलो=आनुं दुःसह कष्ट पण छेवट भोगवी चूक्यो हुं. ५३ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१९ ॥ ११३८ ।। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महाजतेसु उच्छ व । अरसंतो सुभेरवं ॥ पीलिओमि सकम्मेहिं । पावकम्मो अणंतसो॥५४॥ 'सुभैरव आरसंतो' भयङ्कर चीसो पाढतो भने पापकर्म मनार हुँ स्वकर्म=में पोते करेला कोवरे अनन्तबार महोटा यंत्रोचीचोडामा उत्तराध्यलाशेरडीनी माफक पीलाणो हुं. ५४ माषांतर यन सूत्रम् व्या-हे पितरौ! पुनरहं पापकर्मा, पापं कर्म यस्य स पापकर्मा पापः. अनंतशो बहुवारं स्वकर्मभिर्महा- * अध्य०१९ ।।११३९॥ यंत्रेषु पीडितोऽस्मि. क इव ? ईक्षुरिव, यथेामहायंत्रेषु पीब्यते. अहं किं कुर्वन् ! सुभैरवं सुतरामत्यंतं भैरवं ॥११३९॥ |भयानकं शब्दमारसन्नाक्रंदं कुर्वन्. ॥२४॥ | हे माता पिता वळी पापकर्मोनो करनार हुँ अनंतशा घणीवार पोतानाज कर्मोना फळरूपे महायंत्रोमांपीलाणो छ,केनी पेठे? शेरडीनी | पेठे, जेम शेरडी चीचोडामा पीलाय ले तेम हुपण अत्यंत भयानक शब्दोराडोमचीसो पाडी मराण नाखतो पीलाणो ९.५४ | कृयंतो कोलसुणएहिं । सामेहिं सबलेहि य ॥ पाडीओ फालिओ छिन्नो। विप्फुरंतो अणेगसो ॥५५॥ रमो पाडतोज होउं भने बराह तथा कूतराना रूप धारण करनारा श्याम तथा शयल मामक परमाधार्मिक देवोए अनेकवार मने भूमी उपर पाख्यो , फाल्यो छे, छेद्यो के अने हुँ तरफस्यो छु. ५५ व्या-हे पितरावनेकशोऽनेकवारं श्यामः श्यामाभिधान, च पुनः शवलाभिधानः परमाधार्मिकदवैभमौ पृथिव्यामहं पातितः. परमाधार्मिका हि पंचदशविधा.. अंबे १ घ्नंति वनंति च १. अंबरीसे चेवर करीषे पचंति २. सामेय ३ शातनां यातनां च कुर्वति ३. सबलत्ति य ४ अंत्रादि निष्काशयंति ४. रुदो ५ कुतादौ प्रोतयंति ५.. For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥११४०॥ * * ** अवरुद्द ६ अंगोपांगानि मोटयति ६.काले य ७ लादो तलयंति ७. महाकाले नहावरे ७ स्वमांमानि खादयंति ८. ॥१॥ असिपत्ते ९ असिपत्रवनं विकुर्वति ९. धणू १. धनुणिनति १०. कुंभे ११ कुंभिपाके पचंति ११.18 वालुया १२ भ्राष्ट्रे पचंति १२. वेयणत्ति य १३ बैतरिण्यामवतारयंति १३. खरस्सरे १४ शाल्मल्यामारोप्य खरस्वरान् प्रकुर्वति १५. महाघोसे १५ नश्यतो नारकान मिलयंति, महाशब्देन भापयंति च १५. इति परमाधामिकाः कीदृशैः श्यामैः शवलैश्च? कोलशुनकैवराहकुकुररूपधारिभर्देवैः पुनरहं स्फाटितः पुरातनवस्त्रवद्विदारितः. पुनरहं तैर्बराहकुकुरैः स्फाटितो दंतैर्दष्ट्राभिश्च वृक्षवच्छिन्नश्च. पुनः कीदृशोऽहं ? कूजन्नव्यक्त शब्दं कुर्वन्. पुनः कीशोऽहं ? विस्फुरनितस्ततस्तडफडन्. ॥५५|| हे माता पिता ! अनेकवार श्याम नामना तथा शबल नामना परमाधामिक देवोए पृथ्वी उपर मने पछाड्यो छे. ए परमाधामिक पंदर प्रकारना के. अंबे =णे अने बांधे. १, अंबरीस जंगलना बहायामां पकावे. २, श्याम=विविध शातना तथा यातनाओ करे. ३, शबल आंतरडां वगैरे काही लीये. ४, रुद्ध भालो त्रिशूल आदिकमां परोवे. ५, अवरुद-अंग उपांग मरडी नाखे. ६, | काळ तेलमा तळे.७, महाकाळ-पोतानांज मांस खबराके. ८, असिपत्र-तलवार जेवां पानवाला वृक्षोनां वन विकु. ९, धनु:-धतुषना बाणोथी हणे. १०, कुंभकुंभीपाकमा रांधे. ११, वालुका-भाडमा भूले. १२. बैतरणी वैतरणीमा उतारे. १३, खरस्वरशाल्मलीना कांटाबाळां वृक्ष उपर फेंकी राहो पडावे. १४, महाघोष-भागता नारकिजनोने मेळची महोटा शब्दोबडे व्हीवरावे.१५, | आवा परमाधार्मिक श्याम तथा शवमादिक जेओ वराह तथा कूतरा वगेरेनां रूपो धारण करीने भावे छे तेओए मने जुना वस्त्रने * For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१९ ११४१॥ जेम चीरे तेम फाल्यो छे बळी ते मूअर जेवाए मने दांत तथा दाढोरडे सोडीखायो छे ते वारे हुं कूजन-राई पाडतो अने तरफडतो.५५ असीहिं अयसिवण्णाहिं । भल्लीहिं पट्टिसेहि य । छिन्नो भिन्नो विभिन्नो य । उइन्नो पायकम्मुणा ।.५६।। उत्चराध्य गयणीना पुष्प जेवी तलवारोवडे तथा भाला भने पद्विशथी हुँ मारा पापकों उदीय थवाथी छेदाणो छ भेट्टाणो छु तथा विभिन्न अंगे पन सूत्रम् अगना टुकडे टुकडा कराणो छु. ५६ ॥११४१॥ व्या०-हे पितरौ ! पुनरहं पापकर्मणोदीर्णः प्रेरितः सन्नरकेष्वसिभिः खड्गैः, पुनर्भल्लीभिः कुतैत्रिशूलैर्वा, पुनः पिदिशैःप्रहरणविशेषैश्छिन्नो द्विधा कृतः, भिन्नो विदारितः, च पुनर्विभिन्नो विशेषेण सूक्ष्मखंडीकृतः. कथंभूतैरसिभिः १ अतसीकुसुमवणः श्यामवर्णरित्यर्थः ॥५६॥ हे माता पिता ! बळी हुँपापकर्मवडे उदीर्ण पेरायेलो नरकोने विषये खगोबडे तेमज भालाओथी तथा त्रिशूल अने पटिश (एक प्रकारचें हथियार बड़े छेदाणो छ भेदाणोविदीर्ण कराणो छ तथा विभिन्न झीणा टुकडे टुकडा कराणो छ. ते असिम्खड्ग केवा? अतसी-गरणीनां पुष्प जेवा श्याम वर्णवाळा. ५६ अवसो लोहरहे जुत्तो। जलंते समिलाजुए ॥ चोईओ तोत्तजुत्तेहिं । रोज्झोवा जह पडिओ॥ ५७ ॥ बलता तथा समोलयुक्त एवा लोदाना रथमां मने अधश पराधीन करी जोड्यों छे, बळी तोत्र अग्रभागमा भारवाळा परोणा तथा जोतपारवडे मने रेल इकिल के अने पछी रोशनी पेठे पृथ्वी उपर मने पाढवामां आवेल छे. ५७ व्या-हे पितरौ! पुनरहं नरके लोहरथेऽवशःपरवशासन परमाधार्मिकदेवैर्वलत्यग्निना जाज्वल्यमाने समिला 254535AK For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्यय नसूत्रम् ।।११४२ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir युगे युक्तो योत्रितः, समिला युगरंध्रक्षेपणीय कीलिका. युगस्तु धूसरः. उभयोरपि वह्निना प्रदीप्तत्वं कथितं तत्रा| ग्निना ज्वलमाने रथेऽहं योत्रितस्तोत्रयोक्त्रनोंदितः प्रेरितः, तोत्राणि प्राजनकानि पुराणकादीनि योक्त्राणि नासाप्रोतबद्धरज्जुबंधनानि, तैः प्रेरितः पुनरहं रोज्झोवा इति गवयव इव पातितः, यष्टिमुष्ट्यादिना हत्वा पातितः. वाशब्दः पादपूरणे, यथाशब्द इवार्थे ॥ ५७ ॥ हे माता पिता ! बळी नरकमां लोढाना रथमां परवश बनी परमाधामीओये अप्रिथी जाज्वल्यमान वे समेलमा मने जोतर्यो छे. ( समिला एटले घोसराना छिद्रमां नाखवानी लाकडानी खीली जेने भाषामां समेल कहे छे. ) युग-पोंस आ बेय वह्निप्रदीप्त कथां, अग्निथी बळता लोढाना रथमां मने जोड्यो, जोतरीने पुंठे तोर तथा यो नाकमां परोवेल नाथमां बांधे दोरी राश; आ बनेवडे प्रेरित-दांकात हुं रोशनी पेठे पाडी नाखी लाकडीयो तथा काठीवती पछाडी नाखवामां आवतो. ५७ हुयासणे जलंतंमि । चियासु महिसोविव । दढो पक्को य अवसो । पावकम्मेहि पावियो ॥ ५८ ॥ पापक्रमोंधी प्रावृत्त= घेरायेला तथा पराधीन बनेला मने चिताओमां पाडानी पेठे ज्वळता दुवाशनमां दग्धवाकयो छे तथा पकाव्यो पण . ५८ auto- हे पितौ ! पापकर्मभिरहं प्रावृतो वेष्टितः सन् ज्वलति हुताशने जाज्वल्यमानेऽनौ दग्धो भइमसात्कृतः पुनरहं पक्को वृंताकादिवदित्रीकृतः कीदृशोऽहं ? अवशः परवशः अहं क इवाग्नौ दग्धः पक्वश्च १ चितास्वग्निषु महिष इष, यधात्र पापाः पशुं बध्ध्वाग्नौ प्रज्वालयंति भटित्रीकुर्वति, तथा तत्राहं परमाधार्मिकदेवैवैक्रियरचिताग्नौ दग्धः पक्वश्च ॥५८॥ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१९ ॥११४२ ॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१९ ॥११४३॥ हे माता पिता! ९ पापकर्मोथी पावृतबींटायेलो ज्वलता अग्रियां दग्धबळ्यो छु' भस्मरूप थयो छु बळी पक रींगां वगे४ारेनी पेठे मारुं भडधुं करवामां आवेल छे. केवो हु ? अवश-परवश बनेलो अग्रिमो केवी रीते वळ्यो ? चितामा पाडाने बारे तेम. उत्तराध्य जेम पापी पुरुषो पशुने बांधीने अग्निमां भडधु करे छे तेमहुंए परमाधामि देवाए विर्वेला चिताना अग्निमां बाळी रंधायेलो छु.५८ यन सूत्रम् यला संदंतुडेहिं । लोहतुंडेहि पक्विहिं ॥ बिलुत्तो विलवंतोहं । ढंकगिद्धेहिणंतसो ॥ ५९ । ॥११४३॥ साणसी समान मुखधाळा तथा लोहसदृश चांचोवाळा दंक तथा गीध पशियोए हुं विलाप करतो होउं अने बलात्कारथी अनंतवार बुंधायेलो ढुं.५९ व्या०-हे पितरावहमनंतशो बहुवारं ढंकगृ?ढकपक्षिभिधपक्षिभिश्च चलाद्विलुप्तश्चुथितः, विशेषेण दलुतो विलुप्तः, नासानेत्रांत्रकालेयादिषु चुटित इत्यर्थः. कथंभूतैढकधश्च ? संदंशतुंडैः संदंशाकारं तुंडं येषां ते संदंशतुंडाः, तेःसंदंशाकारमुखैः.पुनः कीदृशैः? लोहतुंडैलॊहवत्कठोरमुखैः. किं कुर्यन्नहं विलपन विलापं कुर्वन.५९ हे माता पिता ! अनंतशः धणीवार हु संदंशम्साणसा जेवां मुखबाळा तथा लोह जेबां कठोर मुखवाळा हंक पक्षियोथी तथा गीधपक्षिओथी बलात् पराणे विलुप्त थयो छु चूंथाणो छु, अर्थात्-आंख नाक आदिकमा ठोलायेल छुतेम आंतरडां काळजां | विगेरे चुटायां छे. केवी रीते ? विलपन=हु विलाप करतोज रहुँ अने ने ठोला मारे जाय. ५९ तण्हा किलंतो धावतो । पत्तो वेयरणिं नई ।। जलं पिहंति चिंतितो। खुरधाराहिवाइओ॥ ६॥ तरसथी अकळाइने दोडतो वैतरणी नदीए पोतो त्या "जळ पीयु" एम चिंतन करुं हुं तेटलामा धुर-अस्मानी धाराओबडे छेदाणो. ६० व्या०-हे पितरौ ! पुनरहं तृष्णाक्रांतस्तृषाभिव्याप्तो धावन् वैतरणी प्राप्तः सन् जलं पियामीति चिंतयन् । For Private and Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥११४४॥ www.kobatirth.org क्षुरधाराभिषापादितः कोऽर्थः ? यावदहं तृषाक्रांतो मनसि पानीयं पियामीति चिंतयामि, तावद्वैतरणीनद्या मिभिः कल्लोलेहतो दुःखीकृतः, वेतरणीनचा जलं हि क्षुरधारामायं गलच्छेकमस्तीति भावः ॥६॥ हे माता पिता ! वळी हु तृषानो मार्यो दोडतो वैतरणी नदीने माप्त थयो. त्यां जइने "इवे जळपान करूं" आम ज्यां चिंतन- भाषांतर | विचार कर छु तेटली वारमा तो कोके आवीने मने क्षुर सजायानी धारोबडे व्यापादित चीरी नाख्यो. शुं का? ज्यां हनी हुँ अध्य०१९ तरसथी पीडातो मनमा 'पाणी पीयु' एम विचार करुं छु त्यां तो वैतरणी नदीना तरंगो उछळाने मारा पर पच्या ते सजायाना * ॥११४४॥ जेवी धारवाळा गळ कापी नाखे तेवा होबाथी ए मोजाना आघातथी हुँ बहु दुःखी थयो. ६० उण्हाभितत्ता संपत्तो । असिपत्तं महावणं ॥ असिपत्तेहिं पडतेहिं । छिन्नपुवो अणंतसो ॥३१॥ उष्ण-तडकाना तापथी तप्त भयेको बायानी आशाये असिपत्र (तळवार जेवा जेना पोदढा होय तेवो इस) मामना महावना समाप्त | थयो त्वां तो मारा उपर पड़ता ते असिपत्र-तलवार जेवां पन्नोवो ९ अनेकवार पूर्व कपाणो ए." व्या-हे पितरौ पुनरहमुष्णाभितप्त आतापपीडितश्छायार्थी असिपत्रमहावनं प्राप्तः असिवत्वद्वत्पत्रं येषां तेऽसिपत्राःखड्गपत्रवृक्षास्तेषांमहावनमसिपत्रमहावनं गतः सनसिपत्रैः पतद्भिरनंतशोऽनेकवारंछिन्नपूर्वो द्विधा कृतः. हे माता पिता ! चली हुँ उष्णाभितातडकाथी पीने छांये जवा असिपत्र महावनमां माप्त थयो. त्यां मारा माथा उपर पडतां | ते असिखा जेवा ए वृक्षोना पत्रोवडे अनेकना-यणीवार हुँ पूर्वे छेदायो कुंमारा कटका थया छे. ६१ मुग्गरेहि लुसंदीहिं । सुलेहिं मूसलेहि य ॥ गयासं भग्गगत्तेहिं । पत्तं दुक्खमणंतसो ॥१२॥ For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir ** गात्रोने भांगी नाखे एदा मुद्गरोवरे, भुशदीजोबडे, शूलोबडे तया मुसलोंवहे गताश-वयानी भाशा छोडीने अनंतवार हु दुःख पाम्यो छु.१२ व्या०-हे पितरावहं मुद्गरैलोहमयैर्गुरजैः च पुनर्मुसंढीभिः शस्त्रविशेषलेपेटाभिधानैः शनर्वा, तथा शूलै- | उचराध्य- 18| स्त्रिशूलैश्च पुनर्मुशलैः, पुनर्गदाभिर्लोहमयीभिर्यष्टिभिरनंतशो दुःख प्राप्तः, कथंभूतैरेतैर्मुद्रादिभिः शस्त्रैः ? सं-13 भाषांतर पन सूत्रम् भग्नगात्रैश्चूर्णितशरीरैः ॥ ६२॥ अध्य०१९ ॥११४५॥ ११४६॥ हे माता पिता! हुं मुद्रकोढाना गुरजोवडे,सुझुंडी लपेटा नामक शखोबडे शूल-त्रिशूलोबडे,मनलोबडे,तथा छोडदंडवाळी गदावडे अनंतवार दुःख पाम्यो छुए मुगादिक केवा ! संभग्नगात्र यात्रोने भांगी भूको करी नाखे तेवा. आमां (गयासं भग्गगत्तेहिं ) आवो पदच्छेद करी मूलार्थ करवामां आव्यो के भने "गयासं" पदनो अर्थ गताश एटले जेमांची बचवानी आशा न रहे तेवी रीते; पण व्याख्याकारे (गया संभम्गगोहि) आम पदच्छेद मानीने “गया" पदनो अर्थ गदा करी तेना उपरथी त्रीजी विभक्तिनो लोप मान्यो अने "संभग्न गात्रै ए मदरादिकनुं विशेषण राखी अर्थ कल्पना करी के. पण "गयासं" पदनो गताश अर्थ करवायी। तृतीयालोपनी क्लिष्ट कल्पना नथी करवी पडती तेथी एवो पदच्छेद मानी अर्थ करको ए वारे सारो के. ६२ खुरेहिं तिक्खधारेहिं । रियाहि कप्पणीहि य ।। कप्पिओ फालिओ छिन्नो । उकित्तो य अणेगसो ॥६॥ तीक्ष्ण भारवाला क्षुर सजायाओवडे, कुरियोवदे तथा कापणीयोबडे अनेकवार हुं कपाणो धु, फडायो छु,छेदायो छु तथा उत्तरदायो छु.६३ व्या-हेपितरौ!क्षुरैरोममुंडनसाधनःपुनस्तीक्ष्णधाराभिःक्षुरिकाभिः कल्पनीभिः कर्तरीभिरहं कल्पितो व. स्त्रवत्खंडितः,पुनः स्फाटितो वस्त्रवदूर्व विदारितः,पुनश्छिन्नः क्षुरिकाभिः कर्कटीव खंडितः. पुनरुस्कृतः शरीराद *S HA%*** For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥११४६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दूरीकृतचर्मेत्यर्थः एवमनंतशो वारंवारं कदर्पितः ॥ ६३ ॥ हे माता पिता !ळ मुंडवाना अखाओवडे तथा तीक्ष्ण धारवाळी छुरिभोवडे अने कल्पनी=कातरोवडे हुं कपायो छु तेमज बनी पेठे फडायो छु तथा छुरिओवढे काकडीनी पेठे छेदायो छु अने उत्कृत =शरीरनी चामडी उतरडी नांखी चीरायो छु एम अनंतशः नाम घणीवार कति=कथायो छु. ६३ पासेहिं कूडजाहिं । मिओवा अवसो अहं ॥ बाहिओ बद्धरुद्धो य । बहुसो चेव विवाइओ ॥ ६४ ॥ मृग जेम अवश होय तेवो हुं पराधीन बनी पाश=पासलावडे तथा कूटजाळ कपटयुक्त जाळो पाथरीने बहुशः घणीवेवार ढंगायो एं, बंधाणो धुं रुद्र=क्यांय न जवाय तेम संधाणो हुं भने मराणो हुं. ६४ व्या०-हे पितरौ ! पुनरहं बहुशो वारंवारं पाशैर्वधनैस्तथा कूटजालैः कुडिवागुरादिभिर्मृग इव वाहिओ इति भोलवितस्तथा बद्धो रुद्धश्च बाह्यप्रचारान्निषिद्धः, यथा मृगं वंचयित्वा पाशे निक्षिपति, कूटजाले च पातयंति, तथाहं वंचितो बद्धो रुद्धश्व च पुनरेव निश्चयेनावशः परवशः सन् व्यापादितो मारितः ॥६४॥ माता पिता ! बळी हु बहुशः वारंवार पाशबन्धनना पासलावडे तथा कूटजाळ - कूडकपटथी पाथरेली वागुरा = मृगने पकडवानी जाळवडे बाहित=भोळवी तगडीने बन्धायो, रुद्ध-बहार न जवाय तेम संत्रायो छु, जेम मृगने छेतरीने पासलामां नाखीने | कूटजाळमां फसावे तेम हुं वंचित = छेतराइने बंधाणो तथा रुंधाणो छु, बळी निश्चये परवश थइने मारी नखायो छु. ६४ गलेहिं मगरजाहिं । मच्छो वा अवसो अहं ॥ उल्लिओ फालिओ गहिओ । मारिओ य अणतसो ॥ ६५ ॥ । For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१९ ।। ११४६ ।। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्यय नसूत्रम् ॥११४७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir |nterict Hear पराधीन बनीने हु गढ़ ( अणी उपरना [अन्नादिकने खावा जत माहाना तळवाम भोकाय एवा कांटावाळी दोरी ) वडे तथा मगर अने जाळोवडे अनंतवार बींधानो छु तथा फढाको छु भने पकढीने मराणो पण खुं. ६५ व्या०-हे पितरौ । पुनरहं गलैर्मत्स्यानां पाशैर्मकरजालैर्मत्स्यजालैर्मत्स्य इव विद्धगलोऽभूवं, पुनर्गृहीतो मकररूपधारिभिः परमधार्मिकैर्बलादुपादत्तः पुनरुल्लिओ इति उल्लिखितश्रीरितः पुनः स्फाटितः काष्टवद्विदारितः. पुनरनंतशो मारितो गर्दभ इव कुट्टितः ॥ ६५ ॥ हे माता पिता ! बळी हुं गल एटले माछलां पकडवाना पासला ओवडे तथा मगरजाळोवडे मत्स्यनी पेठे गळे घाणो छु पकडीने मकर रूपधारी परमाधार्मिकोए बलात्कारथी पकडीने मने उल्लिखित चीर्यो छे, फाड्यो छे तथा अनन्तवार मार्यो - डानी पेठे कूट्यो पण छे, ६५ विदंस एहिं जाहिं । लेप्याहिं सउणोविव । गहिओ लग्गो य बद्धो य । मारिओ य अनंतसो ॥ ६६ ॥ विदेशक= पक्षीओने करनारा श्येनादिक पक्षियोवडे तथा जाळवडे भने लेप्या=कही (यां एकही चोपडी होय त्यां पंखी बेसे तो चोंटो जाय भने त्यांची उखडी शके नहिं एवा लेपने लेग्या कहे छे.) वगेरेथी अनंतवार हुं पकड़ायो डुं चोटी रक्षो हुं तथा बधाइ रह्यो एम अनेकवार अनेक प्रकारे मरायो छु. ६६ व्या०-हे पितरौ ! पुनरहं शकुनिरिव पक्षीव विशेषेण दंशंतीति विदेशकाः श्येनादयस्तेजलिस्तारबंधनैः पक्षिबंधनविशेषैर्बलाद्गृहीतः 'विदंशो मृगपक्षिणां' इति हैमः पुनरहं जालैर्गृहीतः पुनर्लेप्याभिः शिरीषलेप For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१९ ।।११४७॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य य नसूत्रम् ॥। ११४८॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न क्रियामिनः लिष्टा, पुनरहं बद्धो दवरकादिना चरणग्रीवादी नियंत्रितः पुनर्मारितः प्राणैर्विहीनः कृतः ६६ हे माता पिता ! बळी हु पक्षीनी पेठे विदेशक-शींचाणा जेबा पक्षीओबडे तेमज जाळ पक्षीयोने पकडवाना पाशवडे बलास्कारथी झलाइ गयो छु, (विंदश शब्द मृग तथा पक्षिनो वाचक छे एम हैमकोषमां कहेल छे.) तेम जाळथी पकडायो छु, फरी लेप्या= शिरीष वृक्षना गुंद वगैरेनी बनावटरूप लाहीनी लेपन क्रियावडे लग्न चोटी रखो छ, अने दोरी बगेरेथी पगमां अथवा गळामां बन्धाइने मराणो गतप्राण पण कराणो छु. ६६ कुहाडपरमाहिं | बहहिं दुम इव कुहिओ फालिओ छिन्नो । तच्छिओ य अनंतसो ॥ ६७ ॥ झाडनी पेठे हुं कुहावा फरसी बगेरेथी सुतारोने हाथे अनंतवार कूटायो हुं, फडायो हुं, छेदायो हुं तथा छोलायो धुं. ६७ व्या०-हे पितरौ ! पुनरहं कुठारैः पर्श्वादिकैः काष्टसंस्करणसाधनप्रहरणै बर्द्ध किभिः काष्टवद्भिर्दुम इव कुद्वितः स्फाटितरिछन्नश्च यथा काष्टवद्भिर्वृक्षः कुठारैः पर्व्वादिभिः प्रहरणैः कुव्यते स्फाव्यते छेद्यते, तथाई परमाधार्मिकैबfरंवारं पीडितः ॥ ६७ ॥ हे माता पिता ! बळी हुं कुहाडा फरशी आदिक लाकडा सुधारखाना साधनरूप इथियारोबडे, परमाचार्मिंके त्रिकुर्वेला सुतारोने | हाये काष्टवद कूटायो छु, फडाणो छु तथा खेदायो छु. जेम सुधार कुहाडा फडशी आदिकवडे झाडने कूटे छे फाडे छे तथा छेदे छे तेम ए परमाधामिओए पीवो वे. ३७ चबेडमुट्टिमाईहिं । कुमारेहिं अयंपिष । ताडिओ कुडिओ भिश्रो चुण्णिओ व अनंतसो ॥ ६८ ॥ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१९ ॥११४८ ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लुहार जेम लोहने कूटे तेम चपेटा=यपाट, मुही वगेरेयी. अनंतबार हुँ ताडित थयो छु, फुटायो छ, भेदायो तथा चर्णित धयो दु. ६८ व्या०-हे पितरो! पुनरहं परमाधार्मिकैवेश्चपेटाभिहस्ततलैः, पुनर्मुष्ट्यादिभिर्बद्धहस्तः, आदिशब्दाल्लाउत्तराध्य-18 ताजानुकूपराप्रहारैरनंतशस्ताडितः कुट्टितः, भिन्नो भेदं प्रापितः, चूर्णितः, कैः कमिव ? कुमारलाहकारैरय इब साभाषांतर य नसूत्रम् | लोह इव, यथा लोहकारेण लोहः कुच्यते भेद्यते चुपयते श्लक्ष्णी क्रियते. ॥६८॥ अध्य०१९ ॥११४९॥ हे माता पिता! बळी हुँ परमाधार्मिक देवोए चपेटा-थपाटोबडे तया मुडी आदिकथी (आदि शब्दथी लात, गोठण कोणी 15११४९॥ वगेरेना प्रहार समजवा) ताडन कराणो छ भेदाणो छु तथा वृणित छंदाणो पण छु. केनी पेठे ? कुमार लुहार लोहांने जेम अर्थात लुहारे लोटु जेम कुटाय भेदाय तथा चूर्णित तपाबीने ढीलं कराय तेवी रीते परमाधामीओए मारी घले अनेकवार करी. ६८ तत्ताई तंबलोहाइं । तउयाइं सीसाइं सीसगाणि य || पाईओ कलकलंताई। आरसंतो सुभेरवं ॥६॥ तपेला तांबा लोढा कधीर तथा सीसा कळकळता ए परमाधामीओए हुं भयानक राई पाढतो रहुं अने मने पायां छे. ६१ व्या-हे पितरो! पुनरहं परमाधार्मिकैस्तप्तानि गालितानि ताम्रलोहादीनि वैक्रियाणि पुकानि कस्तीरकाणि चाहं पायितः कीदृशानि? ताम्रादीनि ? कलकलंतानि कलकलशब्दं कुर्वति, अत्यंतमुत्कलितान्यव्यक्तं शब्दं कुर्वति. कीरशोऽहं ? सुभैरवमतिभीषण शब्दं रसन विलपन्. ॥१९॥ हे माता पिता ! बळी ए परमाधार्मिकोए तपावेला गाळीने रस करेला ताम्र, लोह, पुक-कथीर तथा सीसा भादिक कळकळतां मने पायां छे. केवो हुँ ? सुभैरव-प्रतिभीषण चूमो पाडतो होउं भने ए छणछणतां ममे पायां छे. ६९ For Private and Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥११५० ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुहं पियाई मंसाई | खंडाई सोलगाणि य वाविओमि य मंसाई । अभिगवण्णाइणेगसो ॥ ७० ॥ *" सने मांस प्रिय हतां " एम कहने स्वमसाज मांस, खंड=कटका करने तथा शुरुग=लोढाना त्रिशूकपर चडावी भुञ्जीने ए अविचळवळ अनेकवार मने खवरावेलांडे, ७० व्या०-हे पितरौ ! पुनः परमाधार्मिकेरिति स्मारयित्वा स्वमांसाम्यहं खादितः स्वमांसानि भोजितः, कीदृशानि स्वमांसानि ? खंडानि खंडरूपाणि पुनः कीदृशानि ? सोल्लकानि भटित्रीकृतानि स्वमांसान्येव भटित्रीकृत्य शूलीकृत्य व खादितानि पुनः कीदृशानि ? अग्निवर्णानि जाज्वल्यमानानि तान्यप्येकवारं न खादिनानि | किंत्वनेकवारं खादितानीति, किं स्मारयित्वा ? रे नारक! तव प्राग्भवे मांसानि प्रियाण्यासन् जीवानां हि एवं मांसानि खंडानि सोल्लकान्यादः, इदानीं त्वं स्वमांसमेवाद्धि । इत्युक्त्वा पूर्वकर्म स्मारयित्वा परमाधार्मिकैः स्वमांसानि खादितः स्वमांसेरेव भोजित इत्यर्थः ॥७०॥ हे माता पिता ! वळी ए परमधार्मिक देवीए - "तने मांस बहु प्रिय हत" एम याद आपीने मारा पोताना मांस मने खवरावेळ छे. केवा मांस ? खंड=कटका करेलां तथा सोल्लग=भडयां करेला-मारा पोतानांज मांस भडथीने शूले परोत्रीने मने पराणे खबराव्या छे-ते मांस पण अग्निवर्ण-जाज्वल्यमान = चळवळतां, वळी ते एकाद वार नहीं किंतु अनेकवार ख़बरावेळां ते एम याद करावीने के - "रे नारक! पूर्वभवमां मांस तने बहु मिय हतां तेथी ते अनेक जीवोनां मांसना टुकडा करी भडथीने खाघेलां ते वाटाणे पण मांस खाओ" आम कहीने, पूर्व कर्मनी यादी आपीने ए परमाधामिक देवोए मारा पोतानीज मांस मने खवराव्या छे. ७० For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१९ ॥११५०॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir य नसूत्रम् ॥११५१॥ तुहं पिया सुरा सीह । मेरेई य महणि य ॥ पाइओमि जलंतिओ। बसाओ रुहिराणि य ॥ ७१॥ तने सुरा, सीधु, मेरेवी तथा मधु; आ सपना बहु प्रिय हता-माम कहीने मारी पोतानीज वसा चरबी तथा रुधीर उकाळीने उनां - कणतो मने पीवराम्यो छे. 01 काभागांवर व्या-हे पितरौ ! पुनरहं परमाधार्मिकैर्वसा अस्थिगतरसान्, च पुना रुधिराणि पायितोऽस्मि. किं कृ लाअध्य०१९ त्वा ! इति स्मारयित्वेत्यध्याहारः. इतीति किं? रे नारक! सब प्राग्भवे सुरा चंद्रहासाभिधं मद्य, सीधुस्तालवृ. क्षदुग्धोद्भवा, मेरेई इति पिष्टोद्भवा शाटितोत्पन्नान्नरसा. पुनर्मधूनि पुष्पो बानि मद्यानि प्रियाण्यासन्. इति निर्भत्सनापूर्वकं पायित इत्यर्थः ॥७॥ | हे माता पिता ! वळी ए परमाधार्मिको ए वसा हाडकांनो रस तथा रुधिर मने पाया छे. केम करीने ! (अहीं 'याद आपीने' द्रा एटलो अध्याहार छे) रे नारक ! पूर्व भत्रमा तने सुरा-चन्द्रहास नामनु मध, सीधु-ताडीना छीरनु मद्य, मेरेयी धान्यमा लोटने सोडवीने तेना रसमांथी बनतुं मद्य, तथा मधु-महुडां वगेरेना पुष्षमाथी बनावेल पद्य, आ सपळां मध तने घणांज प्रिय हता' आवी रीते तरछोडीने मने मारा पोतानाज वसा-चरबी तथा रुधिर उकळतां पराणे पीबराबवामा भाव्यां हता. ७१ निचं भीएण तस्थेण । दुहिएण यहिएण य । परमा दुहसंबद्धा । वेयणा वेईया मए ॥ ७२॥ भिस्य हीता, बास पामता, दुःखित तथा व्यथितः एथा में दुःख संबंधवाळी परम-उस्कृष्ट वेदनाओ वेदिता नरकमा भनुभवी है. ७२ व्या-हे पितरो! मया परमोत्कृष्टा वक्तुमशक्या दुःखसंबद्धा, एतादृशी वेदना वेदिता भुक्तत्यर्थः कथं-1 RSS For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AAR भूतेन मया!नित्यं भीतेन, पुनः कीदृशेन ? त्रस्तेनोद्विग्नेन, पुनः कीदृशेन : त्रासवशादेव दुःखितेन. पुनः कीउत्तराध्या दृशेन ? व्यथितेन कंपमानसर्वांगोपांगेन. ॥७२॥ | भाषांतर यन सूत्रम् अध्य०१९ हे माता पिता! में परम उत्कृष्ट-जेनु वर्णन न थइ शके तेवी दुःख संबद्ध वेदनाओ भोगवी .केवी रीते? नित्य भयभीत रहेतो तया का११५२॥ त्रस्त-उद्विग्र, अने एत्रासने लीधेज हमेशां दुःखित तथा जेनां सर्व अंग उपांग थरथरता होय एवी हालतमा में ए वेदनाओ अनुभवी. तिब्वचंडप्पगाढाओ। घोराओ अइदुस्सहा ।। महाभयाओ भीमाओ| नरएसु वेइया मए ॥७३॥ में नरकने विषये-तीन-उप्र, चंड-उत्कट तथा प्रगाढ=उंदी, तेनी साथे घोरा भयानक, अतिदुःसह, महाभयजनक अने भीम एटले याद | आवतां हृदय कंपी उठे एवी (वेदनाओ) जाणी छे, अनुभवी छे. ७३ व्या०-हे पितरौ! मया नरकेषु वेदना वेदिता, असाताऽनुभूता. कथंभूता वेदना ? तीवचंडप्रगाढा, तीवा चासौ चंडा च तीवचंडा, तीव्रचंडा चासौ प्रगाढा च तीव्रचंड प्रगाढा. तीता रसानुभावाधिक्यात्, चंडोत्कटावक्तुमशक्या, गाढा बहुलस्थितिका. पुनः कीदृशा वेदना घोरा भयदा, यस्यां श्रुतायामपि शरीरं कंपते. पुन: कीदृशा ? अतिदुस्सहाऽत्यतं दुरध्यासा, दुःखेनानुभूयते, अत एव महाभया. पुनः कीदृशा वेदना? भीमा या श्रयमाणापि भयपदा. एकाथिकाश्चैते शब्दा वेदनाधिक्यसूचकाः ॥७३॥ हे माता पिता! में नरकमां वेदना भोगवी छे, अर्थात् असाता अनुभवी के. केवी वेदना? तीव्र चंड तथा प्रगाद-अधिकर. सानुभववाळी होवायी तीव्र, उत्कट तथा कही न शकाय तेवी होवाथी चंडा, अने घणाक समय सुषी चालु रहे तेथी प्रगाढा; वळी 2-% For Private and Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir I 4 उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥११५३॥ भाषांतर अध्य०१९ ॥११५३|| % घोरा-सांभळांज हृदयने धूजावे तेवी, अति दुःसहा अत्यंत मनने गभरावी नाखे तेवी अने तेथीज महाभया भयानक तथा भीमा जेनुं श्रवण करतांमां चित्त भयभीत बनी जाय एची वेदनाओ अनुभवी छे. आमां केटलाक शब्दो एकज अर्थना बोधक छे ६ ते वेदनानु आधिक्य सूचवे . ७३ जारिसा माणसे लोए । ताया दीसंति वेयणा ।। इतोणतगुणिया। नरएस दाववेयणा ॥ ७४॥ हे तात ! जेवी आ मनुष्यलोकने विषये वेदना दीसे छे तेना करतां अनंतगुणी नस्कने विषये दुःखवेदना-दुःखनी वेदनाओ थाय . ७४ व्या-हे तात! मनुष्यलोके याश्यः शीतोष्णादिका वेदना दृश्यते, इतस्तच्छीतोष्णवेदनाभ्यो नरकेषु दुःखवेदना अनंतगुणा वर्तते. ॥ ७४ ।। हे तात ! मनुष्यलोकने विषये जेवा पकारनी शीत उष्णा इत्यादिक वेदना दिसे आपणे भोगवीए छइए, ते टाढ तडका वगेरे वेदनाओना करतां नरकने विषये अनुभवाती दुःख वेदनाओ अनन्तगुणी होय छे. ७४ सव्वभवेसु असाया। वेयणा बेड्या मए ॥ निमिसंतरमितमि । ज साया नस्थि वेयणा ।। ७५ ॥ में सर्व भवमा असाता वेदना अनुभवी डे के जेमा निमेषांतरमन्त्र-आंखनुं मटकू मारवा जेटली बार पण साता वेदना सुखरूप वेदना नथी.७५ व्या०-हे पितः! मया वेदना सर्वभवेषु स्थावरत्रसभवेष्वसाता वेदिता, शीतोष्णक्षुत्पिसादिकाऽनुभूता. पितः मेषांतरमात्रमपि यत्सातावेदना सुखानुभवनं नास्ति, तदा दीक्षायां किं दुख ! कथमहं भवद्भिः सुखोचित इत्युक्तः? मया तु सर्वत्र भवे दुःखमेवानुभूतं. ॥७५॥ - 5 5 For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर हे पिता! में सर्वभवोने विषये एटले त्रस तथा स्थावर भवोमां पण असाता टाढ तडका क्षुधा तृषा आदिक वेदना अनुभवी माछे, जेमां क्याय निमेषांतर मात्र आंखना पलकारा जेटलो वखत पण, साता वेदना=मुखानुभवरूप वेदना नथी, तो पछी दीक्षामां उत्तराध्ययन सूत्रम् IS दुःख ? तमें मने जे सुखोचित-मुखने लायक-फेम कह्यो जाण्यो ? मेंतो सदाय दुःखज अनुभन्यु. ७५ अध्य०१९ ॥११५४॥ तं विति अम्मापियरो । छंदेण पुत्त पव्वय ।। न वरं पुण सामण्णे । दुक्खं निप्पडिकम्मया ॥ ७६ ॥ अम्मापियरो माता पिता ते मृगापुत्रने बोल्या के-पुत्र ! देन-तारी मरजी प्रमाणे प्रबज-सुखेथी प्रवज्या गृहण कर, नवरं ( विशेषता | VI सूचक अन्यय .) तने खास कहेवान ए जे-धामन्यसाधु धर्ममा निष्प्रतिकर्मता कइपण दुःसर्नु निवारण करवानी मनाए अति दुःख हे. . ___व्या०-अथ पितरौ मृगापुत्रं वृतः,हे पुत्र छंदसा स्वकीयेच्छया प्रव्रज? दीक्षां गृहाण? कस्त्वां निषेधयति नवरं शब्देनायं विशेषोऽस्ति.पुमः श्रामण्ये चारित्रे एतद् दुःखं वर्तते,यन्निःप्रतिकर्मतास्ति, रोगोत्पत्तो प्रतीकारोन विधेयः. निर्गता प्रतिकर्मता निःप्रतिकर्मता, चिकित्सा न कर्तव्या, न चिंतनीयापि, सावधवैद्यकन कारयितव्यं. हवे तेना माता पिता मृगापुत्रने कई छे-हे पुत्र! छंद-तारी पोतानी इच्छा प्रमाणे भले प्रनजदीक्षा ग्रहण कर. सने कोण निषेध करे? नवरं एटले आटलं विशेष के के श्रामण्य चारित्रमा आ एक दुःख छ जे निष्पतिकर्मता पाळबानी. अर्थात् रोगोत्पत्ति थायतो तेनो प्रतिकार औषध सेवनादिक कशुनज करायः प्रतिकर्मनु चिंतन पण न कराय. तात्पर्य एवंछे के सावधवैद्यक न करावाय.७६ सो चिंति अम्मापियरं । एवमेयं जहा फुडं । पडिक्कम को कुणई । अरण्णे मियपक्खिणं ।। ७७॥ ते मृगापुत्र माता पिताने कहे के तमे जे कामु ते यथास्फुट-जेम कहुं तेमज-सत्य है परंतु भरण्यमा मृग तथा पक्षीयोनां पतिकर्म% DRI For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१९ ॐ॥११५५॥ औषधोपचारादिक कोण करे ? .. व्या०-ततोऽनंतरं मातापितरौप्रति स मृगापुत्रः कुमारो ब्रूते, हे पितरौ! एतद्भवद्भ्यामुक्तमेवं यथा स्फुउत्तराध्य 18 टमवितथं भवदुक्तं सत्यमित्यर्थः. हे पितरावरण्ये मृगाणां पक्षिणांच कः प्रतिकर्मणां कुरुते ? यदा हि मृगा व्या. यन सूत्रम् । धिपीडिता बने भवंति, पक्षिणो वा वने रोग पीडिता भवंति, तदा को वैद्य आगत्य रोगचिकित्सां कुरुते ! न ॥११५५॥ कोऽपि कुरुते इत्यर्थः ॥ ७७ ।। ते पछी माता पिता प्रत्ये ते मृगापुत्र बोल्यो के-हे माता पिता! आ जे आप बन्नेये कहां से यथा स्फुर-बराबर छे. तमाएं F कहे, यथार्थ सत्य छे. परंतु हे माता पिता ! ज्यारे अरण्यमां मृगादि पशुओ तथा पक्षियो व्याधिथी पीडातां होय त्यारे त्यां कोण | वैध आवीने तेना रोगनी चिकित्सा करे छे ? कोइ पण करतो नथी. ७७ एगभूओ अरण्णे वा । जहा य चरई मिओ ॥ एवं धम्म चरिस्सामि । संजमेण तवेण य ॥ ७८॥ जेम अरण्यमा मृध एकलो बिचरे के एम ई संयमवडे तथा तपोवडे धर्म आचरीश-धर्माचरण करतो एकलो बिचलीश. ७८ व्या०-हे पितरौ! यथा मृगोरण्येष्टव्यां, वा इति पादपूरणे. एकीभूत एकाकी सन् चरति, स्वेच्छया भ्रमति. एवमनेन प्रकारेण मृगस्य दृष्टांतेनाहं संयमेन सप्तदशविधेन तपसा द्वादशविधेन धर्म श्रीवीतरागोक्तं | चरिष्याम्यंगीकरिष्यामि. ॥ ७८॥ हे माता पिता! जेम मृग अरण्य अटवीने विषये (वा पादपुरणार्थ हे.) एकभूत एकलो रही चरे स्वेच्छा प्रमाणे भमे छे. ॐ%%%%2595%95 For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्यधनसूत्रम् ॥११५६॥ www.kobatirth.org एज प्रकारे आ मृगना दृष्टांतानुसार हुं पण सत्तर प्रकारना संयमोबडे तथा द्वादश प्रकारना तपोवडे धर्म= श्रीवीतरागे उपदिष्टधर्मने आचरीश- अङ्गीकार करीश. ७८ जया मियस आर्यके । महारनंमि जाय || अच्छंतं रुक्खमूलंमि । को णं ताहे चिगिच्छई ॥ ७९ ॥ ज्यारे महाअरण्यमां मृगने आतंक रोग उत्पन्न थाय छे त्यारे वृक्ष मूळमां पडेला से मृगनी कोण आवीने चिकित्सा करे हे १७९ व्या-यदा महारण्ये महाटव्यां मृगस्यातंको रोगो जायते, तदा तं मृगं वृक्षमूले संतिष्टतं को वैयश्चिकित्सते ? परिचय कुरुते ? सेवां कुरुते ? णमिति वाक्यालंकारे. ७९ ज्यारे महा अरण्य=महावीमां मृगने आतंग रोग थाय त्यारे वृक्ष मूळमां स्थित ए मृगने क्यो वैध चिकित्सापरिचर्या करे छे? एनी सेवा कोण करे छे ? कोइ करतुं नथी. 'पणं' ए पद वाक्यालंकारार्थ छे. ७९ को वा से ओसहं देइ । को वा से पुच्छई सुहं । को वा से भत्तपणं च । आहारिता पणामए ॥ ८० ॥ सेने औषध कोण दीये ? बळी तेने सुख कोण पूढे ? तथा सेने अन्न पाणी कोण आणी आपे के ? फोइज नहिं. ८० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir auto- हे पितरौ तस्य रोगग्रस्तस्य मृगस्य क औषधं ददाति? वाऽथवा तस्य मृगस्य कश्चिदागत्य सुखं पृच्छति ? भो मृग तब समाधिर्वर्तते इति कः पृच्छति? वाऽथवा तस्य मृगस्य भक्तपानमाहारपानार्थमाहत्यानीय ददाति ८० हे माता पिता ! ते रोगग्रस्त मृगने औषध कोण दीये ? अथवा ते मृगने आवीने सुख कोण पुछे ? 'हे मृग तने साता छे ?' एम कोण ? अथवा ते मृगने खावाने अन्न तथा पीवाने पाणी लावीने कोण दीये ? ८० For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१९ ।।११५६ ।। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जया य से सुही होइ । तया गच्छइ गोयरं ॥ भत्तपाणस्स अट्ठाए । वल्लराणि सराणि य ॥ ८१ ॥ ध्यारे ते मृग सुखी होय तदाभ्यारे गोचर घास चरवा जाव के; भत्त-खाचानु तथा पानपीवान ए बेयने अर्धे माटे वल्लर=लीला खडवाळा उत्तराध्यता प्रदेशोमां तथा सरोवरमां जाय डे. भाषांवर यन सूत्रम् डाअध्य०१९ ॥११५७ ग्या-हे पितरौ ! यदा च स मृगः सुखी भवति, स्वभावेन रोगमुक्तो भवति, तदा गोचरं गच्छति, भक्ष्य &॥११५७ स्थाने गच्छति, तत्र च भक्तपानस्पार्थ वल्लराणि हरितस्थलानि, च पुनः सरांसि जलस्थानानि विलोकयतीत्यध्याहारः॥८१॥ हे माता पिता ! ज्यारे ते मृग सुखी होय छे एटले स्वभावथीज रोगमुक्त होय छे त्यारे तो ते गोचर-खायाने स्थाने जाय के अने त्यां कणे खावा तथा पीवा अर्थ वल्लरा-लीला स्थळो तथा सरोवर जेवां जळस्थानो विलोके छे शोधी लेछे (एटलो अध्याहार छे.) ८१ खायइत्ता पाणियं पाउं । वल्लरेहिं सरेहिं वा । मिगचारिय चरित्ताणं । गच्छई मिगचारियं ।। ८२॥ ते स्वस्थ मृग, मृग पर्याथी फरीने वल्लरोमा खाइने तथा सरोवरमा (पाणी) पीने पली मृगोने हरषा फरवाना स्थानोमा जाय के. ८२ व्या०-हे पितरौ! स नीरोगो मृगो मृगचर्यया मृगभोजनपानविधिना चरित्वा वल्लरेम्यो हरितप्रदेशेभ्यः खादित्वा, निजभक्ष्यं भुक्त्वा, तथा सरोभ्यस्तटाकेभ्यः पानीयं पीत्वा मृगो मृगचर्या गच्छति, इतस्तत उत्प्लवनात्मिकां गतिं प्राप्नोतीत्यर्थः ।। ८२ ॥ For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व अणेगाो । मिगचरियं चरितार्थ । उई पकई दिस॥ ३ ॥ हे माता पिता! ते रोग रहित मग, मृगचर्या एटले मृगोने चरवा तथा पाणी पीवानी रीते वल्लर-लीला प्रदेशोमांथी मनगमतां घास खाइ एटले पोतार्नु भक्ष्य बराबर भक्षण करी तथा तळाव वगेरेमाथी पाणी पीने ए मृग, मृगचर्या आमतेम जाय छठेकडा उत्तराध्यमारता फरवानी क्रीया करे छे. ८२ | भाषांतर यन सूत्रम् अध्य०१९ ॥११५८॥ एवं समुडिओ भिक्खू । एवमेव अणेगओ ॥ मिगचरियं चरित्ताण । उई पक्कमई दिस॥ ८ ॥ *॥११५८॥ एमज समुस्धित कियानुष्ठानमा उयुक्त रहेनार=भिक्षु, एवमेव-ए मृगनी पेठेज अनेकग अनेक ठेकाणे अनियमित स्थितिवाळो रही मृगना जेवी दाचर्या आचरी कार्यदिशे प्रक्रमे से. ८३ च्या०-एवममुना प्रकारेण मृगवत्समुत्थितः संयमक्रियानुष्ठानप्रत्युचतोभिक्षुर्मंगचर्या चरित्वांगीकृत्योर्खा दिश प्रतिक्रमते प्रव्रजति. तथाविधरोगोत्पत्तावपि चिकित्साशाभिमुखो न भवति. पुनः कीरशः साधुः? एवमेवानेनैव प्रकारेण मृगवदनेकगोऽनेकस्थाने स्थितोऽनियतस्थानविहारी, यथा मृगो वनखंडे नवीने नवीने स्थाने विहरति, तथा नानास्थानविहारीत्यर्थः. तथा मृगचर्ययाजतंकस्याऽभावे भक्तपानादिगवेषणतयेतस्ततोभ्रमणेन भक्तपानं गृहीत्वा, संयमात्मानं धृत्वा पश्चादूर्वा दिश, मुक्तिरूपां दिशं, प्रतिक्रमिष्यामि, सर्वोपरिस्थो भवि ष्यामीति भाव. ॥८३॥ ए प्रकारे मृगनी पेठे समुत्थित नाम संयम क्रियानुं अनुष्ठान करवामां प्रत्युद्यत-उद्योगपरायण रहेनारो भिक्षु, मृगचर्याच | KESARKARINAGAR For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kotbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१९ ॥११५९॥ रीने स्वाकारीने ऊर्दतदिशा प्रत्ये प्रतिक्रमे संचरे छे. तेवो कोइ रोग थाय तो पण तेनी चिकिम्सा कराववानी आशा तरफ उत्तराध्य ढळतो नथी. केवो भीषु ? एवमेव-एज प्रमाणे पटले मृगनी पेठे अनेकग अनेक स्थाने स्थित थवाथी अनियत स्थानोमा विहार यन सत्रम् करतो एटले मृगनी पेठे नवा नवा वनखंडमां विहार करे छे. तेमज हुँ पण नाना प्रकारनां स्थानोमा मृगचर्या आचरीश. जेम रोग | ॥११५९न होय त्यारे मृग आम तेम खावापीवानुं शोषवा माटे जमीने खानपान मेळवे तेम मेळवीने आत्माने संयममा धारण करी पछी का ऊर्ध्व दिशामुक्ति दिशा जाणी प्रतिक्रमीश-सर्वोपरिस्थानमां स्थित थइश. ८३ जहा मिए एग अणेगचारी । अणेगवासे धुवगोयरे य ॥ एवं मुणी गोयरियप्पवितु । नो हीलए नोवि य खिसहज्जा ॥८४॥ जेम मृग एकलो अनेकचारी अनेक स्थळे फरतो अनेक स्थानोमा वास करतो तथा गोवरनिश्चित गोचरवाळो होय एवीज रीते मुनि पण गोचरीमा प्रविष्ट यह कोहनी हीलना न करे तेम कोइना तरफ आणख पण न रासे. ८५ व्या०-यथा मृग एकोऽसहायी सन्ननेकचारी भवति, अनेकभक्तपानाचरणशीलो नानाविधभक्तपानग्रहणतत्परः स्यात्, पुनर्यथा मृगोऽनेकवासः स्पात, पुनर्यथा मृगो ध्रुवगोचरो भवेत् ध्रुवः सदा गोचरो यस्य स ध्रुवगोचरः, निश्चयेन भ्रमणादेव लब्धाहारः स्यात्. एवममुना प्रकारेण मृगदृष्टांतेन मुनिः साधुर्गोचर्या भिक्षाटनं प्रविष्टः सन् नो हीलयेत्, अनिष्टं निरसं लब्ध्वेदं कुत्सितं विरसमित्यादिवाक्यैन निंदयेत्. तथा अपि निश्चयेन पुनर्नो खिसयेत्, आहारे पानीये वाऽलब्धे सति कमपि गृहस्थं ग्राम नगरमात्मानं वा न निंदेत् ॥ ८४ ॥ ॐकर For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जेम मृग एकलो असहाय होइने अनेकचारी थाय छ; अर्थात् अनेक प्रकारनां खावापीवानां मेळववा टेवाइ रहेलो-विविध खानपाननु ग्रहण करवामां तत्पर रहे छे, तेमज अनेक स्थानोमां वास करे छे तथा ध्रुवगोचर-निश्चयपूर्वक फरीनेज लब्ध छे आहार | भाषांतर माजे एवो होय छे, एज प्रमाणे-आ मृग दृष्टांतमां कहेला प्रकारे मुनि-साधु पण गोचरी-भिक्षाटनमां प्रविष्ट थाय त्यां क्याय अण-18 अध्य ॥११६ ग मतुं तथा नीरस कुलित अन्न मळे तो 'आ खराच छे' एम हीलना=अनादर न करे तेमज आहार के पाणी कंइपण न मळे तो ॥११३०॥ कोइ गृहस्थ अथवा गाम के नगरने खिसे नहिं मनमा रोष लावी कोइनी अवगणना नज करे. ८४ मिगचारियं चरिस्मामि ।गवं पुत्तो जहासुहं ॥ अम्मापिऊहिं अणुन्नाओ । जहाइ उवहिं तओ ।। ८५ ॥ "मग चर्या आचरीश" एम मगापुत्र का व्यारे मा बाप बोल्यां के 'हे पुत्र! भले एम तने जेम सुख उपजे तेम कर' आ प्रमाणे मावापे अनुशा आपी ते पछी तेणे उधि-परिगृहनो त्याग कयों. ८५ हा व्यायदा मृगापुत्रेण पितरौप्रतीत्युक्तं, हे पितरावहं मृगचर्या चरिष्यामि, यथा भवदने मृगचर्योक्ता, ताम गीकरिष्यामि, साधुमार्ग ग्रहीष्यामि. यदा मृगापुत्रेणेव मुक्तं तदा मातापितरौ जूतः, हे पुत्र! यद्येवं तदा यथासुरवं, 8 यथा तव सुखं स्यात, यथा भवतेऽभिरुचितं सुग्वमिति यथासुखं तथा कर्तव्यं, अस्माकमाज्ञास्ति. ततो मातापितृदूभ्यामनुज्ञातो मृगापुत्रः कुमार उपधि परिग्रहं सचित्ताचित्तरूपं परित्यजति. ।। ८५ ।। ___ ज्यारे मृगापुत्रे मावाप प्रत्ये कह्यु के-'हे माता पिता! हुं तो मृगचर्या आचरीश-अर्थात् आफ्नी आगळ में जेबी मृगनी 51 चर्या वर्णवी तेनो अंगीकार करी साधुमार्गनुं ग्रहण करीश,-ते वारे माता पिता बोल्या के-'हे पुत्र! जो एमज तारो संकल्प छ। KAROKAR For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥११६१ ॥ www.kobatirth.org तो तने जेम सुख उपजे, अर्थात् तने मनगमतो आनंद मळे तेम कर-अमारी आज्ञा छे; ते पछी माता पितानी अनुज्ञा पामी ने कुमार मृगापुत्रे उपधि=सचित तथा अचितरुप जे परिग्रह हतो तेनो परित्याग कर्यो. ८५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir fararti परिसामि । सव्वदुक्खविमोक्स्खणिं ॥ तुज्झेहिं समणुन्नाओ । गच्छ पुत जहा सुहं ॥ ८६ ॥ मृगापुत्रे कछु के- 'हे माता पिता! तमोए मने सम्यक् अनुज्ञा आषी तेथी हवे हुं सर्व प्रकारनां दुःखोथी मुक्त करावे एवी मृगचर्या आवरीश; प्यारे मात्रा वयां के 'हे पुत्र ! यथा सुख-तमने सुख धाय स्वां जाओ. ८६ या:- सर्व परिग्रहं त्यक्त्वा पुनर्मृगापुत्रो वदति, हे पितरौ ! अहं भवद्भ्यामनुज्ञातः सन् मृगचर्यामंगीकरिष्यामि कीदृशीं मृगचर्या ? सर्वदुःखविमोक्षण, सर्वविपत्तिविमोचिनीं तदा मृगापुत्रंप्रति पितरौ वदतः, हे पुत्र ! यथासुखं गच्छ ? दीक्षां गृहाण १, ८६ सर्व परिग्रहने त्यजीने वळी मृगापुत्र बोल्या के- 'हे माता पिता ! हुं तमो बन्नेये अनुज्ञात थयो- दीक्षा लेवानी अनुझा आपी एटले हवे मृगचर्यानो अंगीकार कीश, केवी मृगचर्या ? सर्व प्रकारनां दुःख विपत्तिओ तेथी मुकावनारी; त्यारे मृगापुत्र प्रत्ये तेनां मातापिता बोल्यां के - 'हे पुत्र यथा सुख=तने जेम सुख थाय तेम जाओ-दीक्षा लीयो. ८६ एवं सो अम्मापय । अणुमाणिताण बहुविहं ॥ ममत्तं छिंदए ताहे । महानागोच्व कंचुकं ॥ ८७ ॥ पितानी अनुशा लड् तद्नंतर जेन महोदो नाग कांबळीने छोडे तेम बहुप्रकारना ममत्व . ८७ For Private and Personal Use Only भाषांवर अध्य• १९ ॥११६१॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | भाषांतर D॥१९६२॥ FORIES व्या०-एवममुना प्रकारेण स मृगापुत्रो मातापित्रोरनुज्ञां लात्वा, ताहे इति तदा तस्मिन् काले बहुषिधं उत्तराध्य ममत्वं छिनत्ति. इदं धनं मम, इदं गृहं मम, इदं कुटुंब ममेति बुद्धिं त्यजतीत्यर्थः.का किमिव महानागो महासर्पः यन सत्रम् । ॥श कंचुकमिच, यथा महासपों निर्मोकं त्यजति, तथा मृगापुत्रः सर्व ममत्वं त्यजतीति भावः. ८७ है आ प्रकारे ते मृगापुत्रे मातापितानी अनुज्ञा मेळचीने ते पछी तेज समये बहु प्रकारना ममत्वने छेदी नाख्. आ धन मारु, PIआ घर मालं, आ कुटुंब मारू, आवा प्रकारनी ममत्व बुद्धिनो त्याग कर्यो. केनी पेठे। महानाग महोटो सर्प जेम कांचळीने छोडे /तेम मृगापुत्रे सर्व ममत्वने त्यज्यु.८७ इट्टी वित्तं च मित्त य । पुत्ते दारं च नायओ॥ रेणुयं व पडे लग्गं । निध्धुणिसाण निग्गओ॥ ८॥ सदि, वित्त, तथा मित्र, पुत्र तथा दार-मी भने ज्ञाति; मा सर्वेने-पर-वर्षे लागेल रजर्ने जेम संखेरी नाखे तेम-निर्भूत सीने मर्थात् भेडी पहने र निनायधी मृगापुत्र धरनी बहार भोकल्या. 66 व्या:-मृगापुत्र एतत्सर्व निथ्य त्यक्त्वा निर्गतः, संसारागृहाच निःमृता. किं किं त्यक्तमित्याह-ऋद्धिईस्त्यश्वादिः, वित्तं धनधान्यादि, च पुनर्मित्राणि सहजसहवर्षितसहपांशुक्रीडितानि मुहदः, पुनः पुत्राअंगजाः, पुनाराः खियः, पुनर्जातयः स्वजनाः क्षत्रिया, एतत्सर्व परित्यज्य प्रबजितः, किमिव पटे लग रेणुमिव नूतन| वस्त्रे लग्नं रज इव. यथा कश्चिच्चतुरो मनुष्यो वा लग्नं रजो निर्धनोति, तथा मृगापुत्रोऽपीत्यर्थः ॥८॥ ASKARNAKA For Private and Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie www.kobatirth.org उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥११६॥ भाषांतर अध्य०१९ मृगापुत्र आ सघळू त्यजीने निर्गत थया, संसारमाथी तेमज घरमांथी नीसर्या झुंझुं त्यज्यु ? ऋद्धि-हाथी घोडा वगेरे, वित सावन धान्यादि, तथा मित्रो साये जन्मेला, साथे ऊछरेला तथा साथे धूळमा रमेला दोस्तो तथा पुत्रो बळी दारा-श्रीयो तेमज & शातिम्स्वजन क्षत्रियादि आ सपळाने त्यजीने प्रबजित थया. केनी पेठे ? पटम्बत्रमा लागेलरजम्नवां वन उपर पडेली. मूळनेजेम कोइ चतुर मनुष्य झाटकी नाखे तेम मृगापुत्रे ऋद्धि आदिक तमाम मनवी खंखेरी नाल्यु-त्यजी दीधुं. ८८ पंचमहब्बयजुत्तो। पंचसमिओ तिगुत्तिगुत्तो या सम्भितरवाहिरिए । तवोकम्ममि उज्जुत्तो ॥ ८९॥ पंच महाबोधी युक्त तथा पांच समिति सहित अने व्रण गुप्तिथी गुरु थइ नेमज आभ्यंतर तथा बार देय प्रकारनां तपः कोमा ( ते मृगापुत्र) उघुक्त थयो-बलवान् बन्यो. ८९ न्या:-तवा मृगापुत्रो कीडशो जातः? पंचमहाव्रतयुक्तो जातः, पुनः पंचसमितिसहितः, ईर्याभाषेषणा दाननिक्षेपणोचारप्रश्रवणखेलजल्लसंघाणपारिष्टापनिकासमितियुक्तः. पुननिगुसिगुप्तो मनोवाकायगुप्तिसहितः. पुनः साभ्यंतरवायतपःकर्मण्युचतः, पायच्छितं विणओ। यावचं तहेव सझाओ ॥ साणं उस्सग्गोवि य । अपितरोतवोहोई॥१॥अणसणसूणोपरिभा । वित्तीसंखेवणं रसच्चाओ॥कायकिलेसो संली-णपाय ज्योतको हो॥॥द्वादशविधताकमणि सावधानो जाता. ८९ स्वारे मृगा पुत्र केवो थयो ? पंचमहावतोबडे युरूपयो, वळी पांच समिति-ईयादिकथी सहित, तेमज मनवाणी तथा काया सिंधी गुसिवडे गुप्त, वळी आभ्यंतर पाच कर्ममा उपत-बात जांतर तथा नाय देय प्रकारमा कर्मोमां निरंतर प्रयत्नशील थयो. For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उचराध्य भाषांतर अभ्य०१९ ११६४॥ ॥११६४॥ * कथु छ के-'प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, तथा स्वाध्याय, ध्यान अने उत्सर्ग; आ आम्यंतर तपः कहेवाय छे. १ अनशन, ऊनोदरिता (पोताना खोराक करतां न्यून खावु ने)-वृचिसंक्षेपण (भिक्षानी मर्यादा ओछी करवी) रसनो त्याग, काय कलेश, संलीनता-(मन इंद्रियादिनो निरोधक); आ सघळु बाह्य तप हे कदेवाय छे, एम द्वादशविधबार प्रकारनां वप कर्ममां सावधान थयो ८९ निम्ममो निरहंकारो । निस्संगो चनगारवो ॥ समो य सव्वभूएसु । तसेसु थावरेसु य ॥ ९॥ निर्मम ममता वर्जित थयो, बळी निरहंकार-अहंकाररहित तेमज निःसंबवास ता भाभ्यंजर समवर्जीत तथा त्यक्तगास्व-त्रणे प्रकारना गारवयी | मुक्त, सर्व भूत-प्राणिमात्र-प्रस तथा स्थावरने विषये सम-समान परिणामवाको थयो । ९० ॥ व्याः-पुनः कीदृशो मृगापुत्रः निर्ममो वस्त्रपात्रादिषु ममत्वभावरहितः.पुनः कीदृशःनिरहंकारोऽहंकाररहितः पुनः कीदृशः ? निस्संगः, चामाभ्यंतरसंयोगरहितः पुनः कौशः? त्यक्तगारवो गारवनयरहितः, ऋद्धिगारवरसगारवसातागारव इत्यादिगर्वत्रयरहितः, पुनः कीदृशः ? सर्वभूतेषु समोरागद्वेषपरिहारात् समस्त४. प्राणिषु त्रसेषु स्थावरेषु च समस्तजीवेषु सदृशः ॥ ९॥ वळी ते मृगापुत्र केवो थयो ? निर्मम वसपात्रादिकमां ममता विनानो तेमज निरहंकार-अहंकार रहित, निस्संगबाह्य तथा आम्यंतर संग वर्जित, अने त्यक्तगारवऋद्धिगारव, रसगारव तथा सातागारच एकात्रणे गारव (महोटाइ) वगरनो होइ सर्वभूतोमा | बस तथा स्थावर रूप समस्त प्राणिओने विषयेन्सम रागद्वेष छोडी दीधेल होबाथी सर्व जीवोमा समानभावबाळो थयो॥९॥ KACKAGAR For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir A - .. उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥११६५|| लाभालाभे सुहे दुक्खे । जीविए मरणे तहा ॥ समो निंदापसंसासु । तहा माणवमाणओ॥९१॥ लाभ अलाभ, सुख दुःख, जीवन मरण, निंदा प्रशंसा, इत्यादि धंधामा समान तथा मान अपमानमा पण समान धयो. २१ व्या-तथा पुनर्मूगापुत्रो लाभे, आहारपानीयवस्त्रपात्रादीनां प्राप्ती, तथालाभेप्राप्ती, तथा सुखे तथा भापनि दुःखे, तथा पुनर्जीविते मरणे समः समानवृत्तिः, तथा पुनर्निदासु तथा प्रशंसासु स्तुतिषु, तथा माने आदरे, अभ्य०१९ म॥११६५॥ अपमानेऽनादरे, मानश्चापमानश्च मानापमानौ, तयोर्मानापमानयोः समः सदृशः. केनाप्यादरे प्रदत्ते सति मनसि न प्रहृष्टो भवति, केनाप्यपमाने प्रदत्ते सति मनसि दूनो न भवति. ॥ ९१॥ तेमज ए मृगापुत्र लाभ आहार पाणी वस्त्र पात्र इत्यादिनी प्राप्ति थाय अथवा अलाम-अप्राप्तिः एटले कोई टाणे फरतां मटकता पण न मळे, वळी मुखमां तथा दुःखमां तेमज जीवित तथा मरणमां पण सम-समानवृत्तिवाळो थयो. वळी निंदामां तथा प्रशंसान्कोइ स्तुति करे तो तेमां अने मान-आदर तथा अपमान-अनादर; आ आदरअनादररुप मान तथा अपमानना प्रसंगोमां पण समान भाववालो थयो. अर्थात् कोइ आदर आपे तो मनमा हर्ष न पामे तेम कोइ अनादर करे तो मनमां जराय वाय नहि-14 एवा समभाववाळो थयो ।। ९१ ।। गारवेसु कसाएसु । दंडसल्लभएसु य । निवुयत्तो हाससोगाओ। अनियाणो अबंधणो ॥ ९ ॥ गारवोथी, कषायोथी, दंड शल्य तथा भयथी. अने हास्य तथा शोकथी निवृत धद नियाणा वगरनो तेमज कोइपण बंधनधी निवृत्त थयो. ९२ व्या०-पुनः स मृगापुत्रः कीदृशो जातः? गारवेभ्यो निवृत्तः, पुनः कषायेभ्यः क्रोधादिभ्यो निवृत्ता. च HAR For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उचराध्ययन सत्रम् ॥११६६॥ + पुनर्दडशल्यभयेभ्यो निवृत्ता. दंडवयं मनोवाकायानामसदृव्यापारो वंड उच्यते, तस्मानिवृत्तः, पुनः शल्यत्रया भाषाहर निवृत्तः, मायाशल्यं, निदानशल्यं, मिथ्यादर्शनशल्यं चैतच्छल्यत्रय, ततो निवृत्तः. तथा पुनः सप्तभयेभ्यो नि-11 अभ्य०१९ वृत्तः, सप्त भयानीमानि-इहलोकभयं १, परलोकभयं २, आदानभयं ३, अकस्मादयं ४, मरणभयं ५, अयशोभयं ६, आजीविकाभय ७, च. एवं सप्तभवानि. अत्र सर्वत्र प्राकृतत्वात्पंचम्यां सप्तमी. पुनः कीदृशः ? अनिदा नो निदानरहितः पुनः कथंभूतः ? अबंधनो रागद्वेषबंधनरहितः ।। ९२ ।। वळी ते मृगापुत्र विविध गारवथी निवृत्त थयो, तथा क्रोधादिक चार कषायोथो निवृत्त थयो तेमज दंडशल्य तथा भयथी निवृत्त थयो. मन वाणी तथा कायाना असद् व्यापाररूप त्रिविध दंड; तथा मायाशल्य, निदानशल्य अने मिथ्या दर्शनशल्यए |त्रण शल्यो तथा रुहलोक भय=आ लोकना भय, परलोकभय, आदानभय, अकस्मातद्भय, माणभय, अपयशोभय अने आजीविका भय; आ सात प्रकारनां भय एव च दंड शल्य तथा भयथी निवृत्त थयो. अहीं सर्वत्र प्राकृत होवाथी पंचमीविभक्तिना अर्थमां सप्तमी विभक्ति छे. वळी ते अनिदान नियाणारहित तथा अबंधन एटले राग द्वेषादि बंधन रहित थयो. ॥ ९२॥ अणिस्सिओ इहं लोए । परलोग अपिस्सिओ।। वासीचरणकप्पो य । असणे अणसणे तहा ॥ १३ ॥ आ लोकने विषये अनिश्रित कोइनो आश्रय न इन्टनारो तेन परलोक विषये पण अनिधित असहाय थयो. वासी-वांसलो तथा चंदन बेयमा नुल्य वृदियालो तथा भशनमा तेमज अनशन येयमा समनाचाको थयो. १३ व्या-पुनः कीदृशः? अनिश्रितो निधारहितः, कस्यापि साहाय्यं न वांछति तथा पुनरिह लोके राज्यादिभोगे, तथा परलोके देवलोकादिसुखेऽनिश्रितो निश्रां न वांछते. पुनः स मृगापुत्रो वासीचंदनकल्पः, यदा कश्चि । - For Private and Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उचराध्ययन सूत्रम् ॥११६७।' www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'द्वास्या पशुंना शरीरं छिनत्ति, कश्चिचंदनेन शरीरमर्चयति, तदा तयोरुपरि समानकल्पः सदृशाचारः तथा पुनरशने आहारकरणे, तथाऽनशने आहाराऽकरणे सदृशः ॥ ९३ ॥ वळी ते केवो थयो ? अनिश्रित = निश्रारहित, अर्थात् कोइना पण साहाय्यनी वांछना न राखनारो, तथा आ लोकमां = राज्यादि भोगमां के परलोकमा=देवलोकादि सुखमां निश्रा=वांछा न रखनाशे वळी वासी चंदनकल्प - कोइ वांसलो लइने तेनुं अंग छोले अथवा कोइ चंदन वडे तेना शरीरने विलेपन करे ए बेयना उपर समान कल्प= एक सरखा आचरणवाळो तेमज अशन-आहार करवामां तथा अनशन, उपवास करवामां पण सदृश =समान चित्तवाळो थयो ।। ९३ ।। अप्पसत्थेहिं दारेहिं । सबओ पिहियासवे || अज्झप्पज्झाणजोगेहिं । पसत्थदमसासणे ॥ ९४ ॥ अप्रशस्त = निधारो हिंसादिकथी निवृत्त थया तेथी सर्वतः चारेकोरथी विहिताधव पटले पापकर्मना व्यापार जेणे रोक्या ले एवा घया. अने अध्यात्म ध्यानयोगवडे प्रशस्त है. दम तथा शासन जेन एवा थया अर्थात् इन्द्विजय करी शापनानुरागी थया. ९४ व्या० - पुनर्मृगापुत्रोऽप्रशस्तेभ्यो द्वारेभ्यः कर्मोपार्जनोपायेभ्यो हिंसादिभ्यो निवृत्त इति शेषः पुनः कीदृशः १ अप्रशस्तद्वारेभ्यो निवर्तनादेव सर्वतः पिहिताश्रवः, पिहिता निरुद्धा आश्रवाः पापागमनद्वाराणि येन स पिहिताश्रवः पुन कीदृश: ? अध्यात्मध्यानयोगः प्रशस्तदमशासनः, अधिआत्मनि ध्यानयोगा अध्यात्मध्यानयोगास्तैरध्यात्म ध्यानयोगैर्मन सि शुभच्यापारैः प्रशस्ते दमशासने यस्य स प्रशस्तदमशासनः दम उपशमः शासनं सर्वज्ञसिद्धांता यस्य शुभध्यानयोगैरुपशमश्रुतज्ञाने शुभे वर्तते इत्यर्थः ॥ ९४ ॥ वळी ते मृगापुत्र अप्रशस्त द्वार= एटले कर्म उपार्जन करवाना उपायो हिंसादिकथी 'निवृत्त धया' (एटलुं शेष लेबुं.) अने ते For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१९ ॥११६७॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir उपराभ्ययन खत्रम् भाषांतर अध्य०१९ ॥११५८॥ अप्रशस्त द्वारोथी निवृत्त थतांज सर्वतः चारेकोरथी विहिताश्रव-एटले रोकाइ गयां छे पापागमननां द्वार जेना एवा थया, तथा अध्यात्मध्यानयोग वडे एटले आत्मामा ध्यानयोग-शुभ व्यापार बड़े प्रशस्त दमशासन थया. दम एटले उपशम, तथा शासन एटले सर्वज्ञ सिद्धांत, आ बने जेनां प्रशस्त छे तेवा- अर्थात् शुभ ध्यानयोगे करी उपशम तथा श्रुतज्ञान शुभ जेने प्राप्त छे एवा थया.९४ एवं नाणेण चरणेण । दंसपेण तवेण य ॥ भावणाहि य सुद्धाहि । सम्मं भावित अप्पयं ॥ ९५ ॥ बहुयाणि य वासाणि | सामनमणुपालिया ॥ मासिएण उ भत्तणं । सिद्धि पत्तो अणुत्तरं ।। ९६ ॥ युग्म एबीज रीते ज्ञानवडे, चरण-आचरणे करी, दर्शनवडे तथा तपोवडे करी अने शुद्ध भावनाओचडे आरमाने सम्यक् प्रकारे भावित करी बहुकघणांक वर्षों सुधी आमण्यसाधुधर्म पाळीने एक मासना भक्त-अनशन ब्रतवडे अमुत्तर सर्वोत्कृष्ट सिद्धिने पाम्या.९५-९६ । व्या०–उभाभ्यां गाथाभ्यां वदति-तु पुनर्मूगापुत्रो मुनिर्मासिकेन भक्तेन सिद्धि प्राप्तो मोक्षं गतः. मासे भवं मासिकं, तेन मासीकेन भक्तन मासोपवासेनेत्यर्थः. कथंभूतां सिद्धिं ? अनुत्तरां प्रधानां, सर्व-1 स्थानकेभ्य उत्कृष्टं स्थानमित्यर्थः, जन्मजरामृत्यूपद्रवेभ्यो रहितत्वात्. किं कृत्वा! एवममुना प्रकारेण ज्ञानेन मतिश्रुतादिकेन, पुनश्चरणेन यथाख्यातेन, पुनदर्शनेन शुद्धसम्यक्त्वीश्रद्धारूपेण, पुनस्तपसा द्वादशविधेन, च पुनर्भावनाभिर्महाव्रतसंबंधिनोभिः पंचविंशतिसंख्याभिर्भावनाभिः. अथवाऽनित्यादिभिर्वादशप्रकाराभिरा त्मानं सम्यकप्रकारेण भावयित्वा, निर्मलं कृत्वा. कथंभूताभिर्भावनाभिः? शुद्धाभिर्निदानादिदोषमलरहिताभिः. पुनः किं कृत्वा बहूनि वर्षाणि श्रामण्यं यतिधर्ममनुपास्याराप्य ॥९५ ॥ ९६ ॥ (युग्मचे गथानो भेळो अन्वय .) तु-वळी मृगापुत्र मुनि मासिक भक्ते करी सिद्धि-मोक्षगतिन पाम्या. मासिकभक्त एटले C+%ॐॐॐॐॐ For Private and Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उचराध्य यन सूत्रम् ॥११६९ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | एक मासना उपवास केवा प्रकारनी सिद्धि पाम्या ? अनुत्तरा=प्रधान- सर्व स्थानकोथी उत्कृष्टस्थानरूप गति पाम्या मोक्षे गया. जन्म जरा मृत्यु अदिक उपद्रवोथी रहित होवाथी ते स्थान श्रेष्ठ कहेवाय छे. केम करीने? ए प्रकारे ज्ञाने करीने- अर्थात् मतिश्रुतादिज्ञाने करीने तेमज चरणे करी जेवु शास्त्रे वर्णव्युं छे तेवा आचरणे करी तथा शुद्ध सम्यक्त्व श्रद्धारूप दर्शनवडे तथा बार प्रकारना तपोनुष्ठानवडे तेमज भावना = महाव्रत संबंधिनी पचीस भावनाओवडे करी, अथवा अनित्यादिक बार भावनाओवडे आत्माने सम्यक् प्रकारे भावित करी= निर्मळ करीने- केवी भावनाओ? विशुद्ध एटले निदानादि दोषमक रहित भावनाओवडे केम करीने ! बहुकानिघणांक वर्षो श्रामण्य= यतिधर्मनुं अनुपालन करीने ।। ९५-९६ ।। एवं कति संबुद्धा। पंडिया पवियत्रणा ॥ विणिवहंति भोगेसु । मियापुत्ते जहामिसी ॥ ९७ ॥ आवी रीते संज्ञान तथा विवेक बुद्धिमान् तथा विचक्षण पुरुषो भोगोधी विनिवृत्त थाय छे जेवी रीते आ मृगापुत्र ऋषि भोगश्री निवृत्त भइ चारित्रवान् थया. ९७ व्या० - संबुद्धाः सम्यग्ज्ञाततत्वाः पुरुषाः, पंडिता हेयोपादेय बुद्धियुक्ताः, अत एव प्रकर्षेण विचक्षणा अवसरज्ञाः, एवं कुर्वनि भोगेभ्यो विशेषेण निवर्तन्ते क इव ? यथाशब्द हवार्थे, मृगापुत्रर्षिरिव यथा मृगापुत्रर्षि भोगेभ्यो । fafeवृत्तस्तथान्यैरपि चतुरैर्भागेभ्यो विनिवर्तितव्यमिति भावः अत्र मिसीति मकारः प्राकृतस्वादलाक्षणिक. ९७ संबुद्ध एटले सम्यक् प्रकारे एणे तत्त्व जाण्युं छे तेत्रा पुरुषो तथा पंडितो एटले आ तजवा योग्य छे तथा आ ग्रहण करवा योग्य छे. एवी विवेक बुद्धि जेने उद्भवी छे एवा तथा प्रकर्शे करी विचक्षण= अवसरने जाणनारा चतुर पुरुषो आवी रीते करे छे एटले भोगोथी विशेषे करी निवृत्त थाय छे. केनी पेठे? मृगापुत्र ऋषि जेम. (अहीं 'यथा' पद 'इव' पदना अर्थमां प्रयुक्त छे.) For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१९ ॥११६९॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जेम मगापुत्र ऋषि भोगोथी विनिवृत्तम्परादुःख थया तेम बीजा चतुर पुरुषोए पण भोगोथी निवृत्त थवु जोइए. अत्रे ऋषिपदनुं का 'इसी' प्राकृतरुप थाय पण 'मिसी' एम को ते प्राकृत होबाथी मकार अधिक गणेलो ॥ ९७ ।। उचराध्य *भाषांत बन सत्रम् महाप्पमावस्स महाजसस्स । मियाएपुत्तस्स निसम्म भासिय सवप्पहाण चरियं च उत्तमोगहप्पहाणं व तिलोअय-18 १११७०॥ | विस्मयं.९८ वियाणिया दुक्रवविवद्धणं धर्ण। ममत्सबंधं च महाभयावह।सुहावहं धम्मधुरं अणुत्तरं। धारेह निवा १९७०॥ णगुणावह महतिबेमि ॥ ९९॥ महोटा प्रभाववाला तथा महापशवाळा मुगापुनर्नु भाषित सोभळीने तेमज तपःप्रधान उत्तम चरित भने प्रणलोकविदित एवी गतिप्रधान मोक्ष जेवी प्रधान गति तासांभळीने. १८ वळी धन दुःखने वधारना तथा ममत्वबंध-जगत्मा ममतार्नु बंधन महोटा भयने कापी भापपार एम जाणीने निर्णि मोक्ष देतुभूत गुणो शान दर्शन चारित्ररूप खबभी प्राप्ति करावे एवी महोटी सुख आफ्नार सर्वोस्का धर्मधुर धर्मरूपी धुराने धारण करो. एम ९ बोल खु. ५९ व्या. पुनर्गाथायुग्मेन संबंधः, भो भव्या अनुत्तरां सर्वोत्कृष्टां धर्मधुरं धर्मरथस्य भारं धारयध्वं ? कथंभूता धर्मधुरं ? सुम्बावहां सुखप्राप्तिहेतुभूतां. पुनः कीहशा धुर्मधुरं निर्वाणगुणावहां, निर्वाणस्य गुणा निर्वाणगुणा मोक्षगुणाः, अनंतज्ञानदर्शनानंतसुखानंतायुरनंतवीर्यरूपास्तेषामावहा प्रका निर्वाणगुणावहां, तां निर्वाणगुणावहां किं कृत्वा धर्मधुरं धारयध्वं ? धनं दुःखविवर्धनं विज्ञाय, च पुनर्ममत्वं बंधमिव संसारस्य धंधनं विज्ञाय. कीदृशं धनं ममत्वं च महाभयावहं महाभयदायकं, चौराग्निपादिभ्यः कष्टप्रदं. पुनः किं कृत्वा ? च पुनर्मंगाया राश्याः पुत्रस्य मृगापुत्रस्योत्तम प्रधानं चरितं चरित्रं चारित्रवृत्तांतं, तथा तस्य मृगापुत्रस्य भाषितं,मातापितृभ्यां संसार ACCUSTAN RoRARKARE For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उतराध्ययन सूत्रम् ॥ ११७१।" www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्यानित्यतोपदेशदानं निशम्य हृदि धृत्वा कीदृशं मृगापुत्रस्य चरित्रं । तवष्याणं तपःप्रधानं पुनः कीडशे ट गापुत्रस्य चरित्रं ? गइप्पहाणं गत्वा प्रधानं, गतिर्मोक्षलक्षणा, तथा प्रधानं श्रेष्टं, मोक्षगमनाएं. पुनः कीदृशं मृगापुत्रस्य चरित्र ? त्रिलोकविश्रुतं त्रिलोकप्रसिद्ध कीदृशस्य मृगापुत्रस्य ? महाप्रभावस्य रोगादीनाम भावेन दुःकरप्रतिज्ञाप्रतिमारूपाभिग्रहाणां पालनेन महामहिमान्वितस्य पुनः कीदृशस्य मृगापुत्रस्य ? महायशसः, महयशो यस्य स महायशास्तस्य महायशसः, सर्वदिग्व्यापिकीर्तेः इत्यहं मृगापुत्रस्य चरितं तवाग्रे ब्रवीमीति सुधमांखामी जंबूखामिनंप्रत्याह ।। ९९ ।। इति मृगापुत्रीय मे कोनविंशतितममध्ययनमर्थतः संपूर्णं ॥ १९ ॥ इतिश्री मदुत्तराध्ययन सूत्रार्थदीपिकायां श्रीलक्ष्मीकीर्तिगणि शिष्य लक्ष्मीवल भगणिविरचितायामेकोनविंशतितमं मृगाश्रीयमध्ययनमर्थतः संपूर्ण ॥ १९ ॥ श्रीरस्तु ॥ गाथानो भेळ संबंध छे - हे भव्य जीवो। अनुत्तर सर्वोत्कृष्ट धर्मधुर-धर्मरथना भारने धारण करो. केवी ए धर्मधुरा ? | सुखावहा - सुखप्राप्तीनी हेतुभूत तेमज निर्वाण गुणावहा- अर्थात् मोक्ष गुण जे अनंत ज्ञान दर्शन, अनंत सुख, अनंत आयुष, अनंत वीर्य इत्यादिकने प्राप्त करावनारी छे. केम करीने ए महोटी धर्मधुराने धारो धन तो दुःखनी वृद्धि करनारुं छे तथा ममत्व संसारनु बंधनकारक के अने तेथी ए धन तथा ममत्व महोटां भय देनार छे कारण के तेने चोर अग्नि राजा वगेरेनो भय होवाथी कष्टप्रद के एम खास जाणीने तथा मृगाराणीना पुत्रनुं उत्तम चरित चारित्र वृत्तांत तेमज ते मृगापुत्रनां भाषित - संसारनी अनित्यता दर्शावनाएं माता पिता साधना संवादरूप वचनो सांभळीने हृदयमां धरीने मृगापुत्रनुं चरित्र केषु ? तपः प्रधान =जेमां मुख्यत्वे For Private and Personal Use Only भाषांतर ४१ अध्य०१९ ॥ ११७१॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ACA% भाषांतर अध्य०२० उचराध्ययन पत्रम् ॥११७ तपोनुष्ठानज छ तथा गतिप्रधान मोक्ष लक्षणगतिना प्राधान्यवालु, मोक्ष गमन योग्य, तेमज त्रिलोक विश्रुतचने लोकमां प्रसिद्ध मृगापुत्र केवो? महाप्रभावन्दुष्कर प्रतिज्ञाओर्नु पालन करवाथी महोटा महिमायुक्त. तथा महायशा-महोटा यशवाळो, जेनी किर्ति सर्वश दिशा- | ओमां व्याप्त छ तेवो 'इति आवी रीते मृगापुत्रनुं चरित तारी आगळ हुं कहु छु'ए प्रमाणे सुधर्मा स्वामी जंबूस्वामी प्रत्ये बोल्या. ९८-९९ इति मृगापुत्रीय नामर्नु ओगणीश अध्ययन पूर्ण थयु. १९ इति श्रीलक्ष्मीकीर्तिगणिशिष्य लक्ष्मीवल्लभगणि विचित श्री8| उत्तराध्ययनसूत्रनी अर्थदीपिका नामनी टीकामा ओगणीशमुं ममापुत्रीय नामर्नु अध्ययन परिपूर्ण थयु. ॥अथ विंशतितममध्ययनं प्रारभ्यते ॥ पूर्वस्मिन्नध्ययने साधुनां निःप्रतिकर्मतोक्ता, रोगादावुत्पन्ने सति चिकित्सा न कर्तव्या, न कारयितव्या, नानु| मंतव्येत्युक्तं. अथ विशेऽध्ययने सा निःप्रतिकर्मता महानिग्रंथस्य हिता, अतोऽनाथत्वपरिभावनया सेत्युच्यते-- अथ महानिग्रंथीय नामक वीशभु अध्ययन. आना पूर्वेना ओगणीशमां अध्ययनमा साधुनी निःप्रतिकर्मता कही, अर्थात् रोगादिक उत्पन्न थाय त्यारे चिकित्सा न करवी, न कराववी तेम कोइ करे ते अनुमत पण न करवी; एम का, हवे आ वीशमा अध्ययनमां ते निःप्रतिकर्मता महानिग्रंथने हितावह छ अने ते अनाथपणानी भावनावडे थइ शके एम कईबाय छे. सिद्धाणं णमो किचा । संजयाणं च भावओ॥ अत्यधम्मगई तत्थं । अणुसिडिं सुणेह मे ॥१॥ ACCOACAKACTOR For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सचराध्य यन सत्रम् ॥११७३॥ भाषांवर अच्य०२० ॥११७१ सिद्धोने तथा संपत साधुओने भावधी नमन करीने तथ्य यथार्थ एवी अर्थमा कश्या योग्य धर्मसंबंधी गति ज्ञान मां के एतादृश अनुशि. टि-अनुशापन उपदेश हु कहु छु ते तमे मांभळो. . .. व्या--भो शिष्याः ! मे ममानुशिष्टिं शिक्षां यूयं शृणुन ? किं कृत्वा ? सिद्धान पंचदशप्रकारान्नमस्कृत्य, च पुनर्भावतो भक्तितः संयतान् साधूनाचार्योपाध्यायादिसर्वसाधूनमस्कृत्य. कीदृशी मेऽनुशिष्टिं ? अर्थधर्मगति, अयते प्रार्थ्यते धर्मात्मभिः पुरुषैरित्यर्थः, स चासौधर्मश्चार्थधर्मस्तस्य गतिनि यस्यां साऽर्थधर्मगतिस्तां. द्रव्यवद्यो दुःप्राप्यो धर्मस्तस्य धर्मस्य प्राप्तिकारिका. यया शिक्षया मम दुलभधर्मस्य प्राप्तिः स्यादिति भावः. पुनः कीरशी मेऽनुशिष्टि तथ्यां सत्यां, अथवा तत्वं तस्वरूपां वा ।।१।। हे शिष्यो! मारी अनुशिष्टि शिक्षा तमे श्रवण करो. केम करीने ? सिद्ध तीर्थकगदिक पंदर प्रकाग्ना सिद्धोने तथा भाषथीभक्तिथी संयत-आचार्य उपाध्याय आदि साधुओने नमस्कार करीने. मारी अनुशिष्टि शिक्षा केवी अर्थ धर्मगति एटले धर्मात्मा पुरुषोए प्रार्थना करवा योग्य धर्मज्ञान जेमा रहेलं छे एवी, अर्थात् द्रव्यवत् दुष्प्राप्य धर्मनी प्राप्ति करावनारी; तमज तथ्या-सत्य, अथवा तत्वरूपा एवी शिक्षा तमे सांभळो ॥१॥ पभूगरयणो राया। सेणिो मगहाहियो । विहारजतंणिजाओ। मंडिकुञ्छिसि चेहए ॥२॥ प्रभूत-पुष्कळ रनवाळो मगध देशनो अधिपति श्रेणिक नामनो राजा विहार यात्राथें नीकळेलो मंडिकुक्षि नामना चैत्यने विषये-ए नाममा वनमा आग्यो. २ व्या-श्रेणिको नाम राजा, एकदा मंडितकुक्षिनाम्नि चैत्ये उद्याने विहारयात्रयोद्यानक्रीडया निर्यातः, For Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उचराध्य यन सूत्रम् ॥ ११७४ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नगरात् क्रीडार्थं मंडितकुक्षिवने गत इत्यर्थः कीदृशः श्रेणिको राजा ? मगधाधिपो मगधानां देशानामधिपो मगधाधिपः पुनः कीदृशः ? प्रभूतरत्नः प्रचुरप्रधान गजाश्वमणिप्रमुखपदार्थधारी ॥ २ ॥ श्रेणिक नामनो राजा एकदा मंडितकुक्षि नामना चैत्य = उद्यानने विषये विहार यात्रा- उद्यानकीडा अर्थ नीकळेलो-नगरमांथी नीकळी मंडितकुक्षि नामना वनमां गयो ए श्रेणिक केवो? मगध देशनो अधिपति, बळी प्रभूतरत्न, एटले हाथीघोडा वगेरे उत्तम पदार्थो धारण करनारो. नाणादुमलगाइनं । नाणापविनिसेवियं । नाणाकुसुमसंछन्नं । उखाणं नंदणोवमं ॥ ३ ॥ नाना प्रकार तुम तथा लतावडे आकीर्ण व्याप्त तथा विविध पक्षिओये निषेधित वळी अनेक जातनां पुप्पो बडे संसदंकालु ए मंदि aar नाम उद्यान नंदनवनमी जेने उपमा देवाय तेनुं हतुं. ३ व्य० - अथ मंडितकुक्षिनामोद्यानं कीदृशं वर्तते । तदाह--कीदृशं तद्वनं १ नानाद्रुमलताकीर्णविविधवृक्षवल्लीभिव्यति पुनः कीदृशं । नानापक्षिनिषेवितं विविधविहगैरतिशयेनाश्रितं पुनः कीदृशं ? नानाकुसुमसंछन्नं बहुवर्णपुष्पैर्याप्तं पुनः कीदृशं तदुद्यानं ? नागरिकजनानां क्रीडास्थानं, नगरसमीपस्थं वन मुधानमुच्यते पुनः कीदृशं नंदनोपमं नंदनं देववनं तदुपमं ॥ ३ ॥ ए मंडित कुक्षिनामनुं उद्यान के छे तेनुं वर्णन आपे छे. नाना प्रकारनां वृक्षो तथा बल्लीओवडे आकीर्ण व्याप्त, वळी नाना | पक्षि - विविधजातना पंखियोए निषेवित- अतिशय आश्रित, तथा नाना कुसुम भातभातनां पुष्पोबडे संछभ = आच्छादित अर्थात् रंगबेरंगी पुष्पोथी ढंकायेलं ए उद्यान, नंदनोपम-नंदन एटले देववननी जेने उपमा देवाय एवं हतुं नागरिक जनोनुं क्रीडास्थान For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०२० ११७४॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kotbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०२. भूतनगरनी समीपमा आवेलुजे वन-बगीचो होय ते उद्यान कहेवाय ॥ ३ ॥ उपराभ्य तस्थ सो पासई साहुं । संजयं सुसमाहियं ॥ निमण्णं रुक्खमूलमि। सुकुमालं महोइयं ॥४॥ यम एवम्शा त्या-उद्यानमा ते राजा, संयतः यतनावान् तथा सुसमारहित-सारी रीते एकाग्रतावाळा, वृक्षमूले निषण्ण बेठेला सुकुमार-कोमळ शरीरबान तेमज ॥११७५ सुखने लायक जणाता एक साधुने जुए दीठा. ५ मा तत्र बने स श्रेणिको राजा साधुं पश्यति. कीदृशं माधुं? संग्रतं मम्यक्प्रकारेण यतं यत्नं कुर्वतं. पुनः कीदृश? ४ा सुसमाधितं, सुतरामतिशयेन समाधियुक्तं. पुनः कीदृशं वृक्षम्ले निषण्णं स्थितं. पुनः कीदृशं ? सुकुमालं. पुनः | कीदृशं सुखोचितं सुखयोग्यं ॥४॥ ते वनने विषये ते श्रेणिक राजा एक साधुने देखे छे. केत्रा साधु ? संयत सम्यक प्रकारे यत्न करता. घळी केवी! सुसमाधितमृतरा-समाधियुक्त, तथा वृक्ष मूळमां निषण्ण-स्थित अने सुकुमार तेमज सुखने योग्य । ४॥ तस्स रूवं तु पासित्ता । राहणो तमि संजए। अच्चतपरमो आसी । अउलो रूवधिम्हओ॥५॥ तेनुरूप जोइने तो राजाने ते साधुने विषये अत्यंत परम अति उत्कष्ट तथा जेनु माप न धइ शके तेवो पविस्मय-ए मुनिना रूपसंबंधि विस्मय धयो.५ व्या-राज्ञः श्रेणिकस्य तस्मिन् संयते साधावत्यंतपरमोऽधिकोत्कृष्टोऽतुलो निरूपमो रूपविस्मयो रूपाचर्यमासीत्. किं कृत्वा तस्य साधो रूपं दृष्टा. तुशब्दोऽलंकारे ॥५॥ राजा श्रेणिकने ते संयत साधुने विषये अत्यंत परम एटले अधिक उत्कृष्ट तथा अतुल निरूपम रूपविस्मय एटले रूपविषयक + C+CC For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir G | भाषांतर अध्य०२० ११७॥ आश्चर्य थ! . केम करीने १ ते साधुनुं रूप जोड़ने. 'तु' शब्द वाक्यालंकारार्थ छे ॥५॥ सचराध्य अहो वण्णो अहो रूवं । अहो अजस्स सोमया ॥ अहो खती अहो मुत्ती । अहो भोगे असंगया ॥६॥ यम सत्रम् 'अहो' पद सर्वत्र आश्चर्य अर्थ सूचवे हे. आर्यमा साधुना शु वर्ण शरीरनो गौरवर्ण! सु का! शुं एनी सौम्यता! केवी झांति ! शुं था | ॥११७६।। मुक्ति-निबंधना! अने केवी असंगता विषयपरोगमुखता!! व्या०--नदा राजा मनसि चिंतयति, अहो इत्याश्चर्य, आश्चर्यकार्यस्य शरीरस्य वर्णो गौरवादिः, अहो आ|श्चयकृदस्य साधो रूपं लावण्यसहित. अहो आर्श्वयकारिण्यस्यार्यम्य सौम्यता, चंद्रवन्नेत्रप्रियता. अहो! आश्च|र्यकारिणी अस्य क्षांतिः क्षमा, अहो! आश्चर्यकारिणी चास्य मुक्तिनिर्लोभता. अहो! आश्चर्यकारिण्यस्य भोगेऽ संगता, विषये निःस्पृहता ।। ६॥ हा ते समये राजाश्रेणिक मनमा विचार करे छ- 'अहो' ए सर्वत्र आश्चर्यार्थज छे. अहोर्ण-शुआनो देहनो गौरवर्ण आश्चर्यजनक | दछ ! बळी शुआ साधुनुं रूप ! एटले आ मुनिनु लावण्ययुक्त केव॒ अश्चर्यकररूप छे! तेमज आ आर्यनी सौम्यता-चंद्रना जेवी नेत्रने का प्रिय लागे तेवी कांति, केवी आश्चर्यमय छे! तथा शुं आनी शान्ति क्षमा छे ! केवी आश्चर्यकारिणी आ साधुनी मुक्ति-निर्लोभता छ ! अने आनी असंगता भोगने विषये निःस्पृहता अहो केवी आश्चर्यजनक छे !! ॥६॥ नस्स पाए उ वंदिता । काऊण य पयाहिणं ॥ नाइदूरमणासन्ने । पंजली पडिपुच्छह ॥ ७॥ तेना पादने वंदन करी तथा प्रदक्षिणा करीने अतिदूर नहि सेम अति नजीक पण नहिं एम बेसी, हाथ जोडी प्रतिप्रश्न कयों.. AR-SAGAR SACARRIES For Private and Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥ ११७७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ते साधुना चरणने बंदीने तेमज प्रदक्षिणा फरीने ते राजाए अतिदूरवत्र्त्ती नहिं तेम अतिनिकटवर्ती पण नहिं एवीरीते प्रांजलि पुट- वे हाथ जोडीने पूछ-प्रश्न कर्यो । तरूणोसि अज्जो पव्वइओ । भोगकालमि संजया । उवडिओसि सामण्णे । एय महं सुणामि ते ॥ ८ ॥ छतां प्रवजित थया हो. कळी हे संयत ! साधो ! भोग काळे चारित्रमां उपस्थित थया हो. आ अर्थ तमारी पालेथी सांभळवा इच्छु छुट व्या--- तदा श्रेणिकः किं पृच्छति ? हे आर्य! हे साधो ! स्वं तरूणोऽसि युवासि, हे संगत! हे साधो । तस्माद्भोगकाले भोगसमये प्रब्रजितो गृहीतदीक्षः, तारुण्यं हि भोगस्य समयोऽस्ति, न तु दीक्षायाः समयः. हे संयत ! तारूण्ये भोगयोग्यकाले त्वं श्रामण्ये दीक्षायामुपस्थितोऽसि, आदरसहितोऽसि एतदर्थमेतन्निमित्तं त्वत्तः शृणोमि, किं दीक्षायाः कारणं ? कस्मान्निमित्ताद्दीक्षा त्वया गृहीता ? तत्कारणं त्वन्मुखात् श्रोतुमिच्छामीत्यर्थः ॥ ८ ॥ त्यारे श्रेणिक शुं पूछे छे ? ते कहे छे हे आर्य ! हे साधो ! तमे तरुण युवान छो, हे संयत ! हे मुने! तेथी तमे भोगकाळे एटले भोग भोगववाने समये प्रत्रजित केम थया ? दीक्षा केम ग्रहण करी ? केमके युवावस्था ए भोगनो समय छे, ए कह दीक्षानो समय नथी तेथी हे संयत ! आ भोग भोगववाना तारुण्यना समयमां तमे श्रामण्य - दीक्षामां उपस्थित आदरवान् थया ए अर्थनेएटले आम करवानुं जे निमित्त होय ते तमारी पासेथी सांभळ छे, अर्थात् आ बखतमां दीक्षानुं कारण शुं ? शा निमित्ते तमारे दीक्षा लेवी पडी ? तेनुं कारण तमाराज मुखथी श्रवण करवा इच्छु छु ॥ ८ ॥ अणाहोमि महाराय | नाहो मज्झ न विज्जई । अणुकंपगं सुहियं वाबि । किंचि णाभिसमेमहं ॥ ९ ॥ For Private and Personal Use Only भाषांवर अध्य०२० ॥ ११७०॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधु कहे -हे महाराज ! हुं अनाथ छु, मारो कोइ गध से नहि, तेम कोह अनुकंपक-क्या करे एवा अधषा मित्रने हुं पाम्यो नथी. ९ उपराध्य व्या०-इदानी स साधुर्वदति. हे महाराज ! अहमनाथोऽस्मि, न विद्यते नाथो योगक्षेमविधाता यस्य सोऽ- | भाषांवर बन सत्रम् नाथः, निःस्वामिकोऽस्मि, मम नाथो न विद्यते इत्यर्थः. पुनरहं कंचित्कमप्यनुकंपकं कृपाचिंतकं सुहितं सुहद मित्र अध्य०१० ११७८ मा ५॥११७८॥ वा नाभिसमेमिन संग्रामोमि, केनापि दयालुना मित्रेण वा संगतोऽहं न. अनेनार्थेन तारुण्येऽपि प्रवजित इति भावः, दी हवे ते साधु बोले छे-हे महाराज ! हु अनाथ छु. अर्थात् मारे माटे कोइ नाथ एटले योग क्षेम विधाता (न होय त लापी देनारो तथा होय ते साचवी राखे तेवो)नथी. एटले के हुं नधणीयातो छु, मारो कोइ स्वामी बेली नथी. तेम कोइ अनुकंपक-दया लावी मारी चिंता करे एवो तथा सुहित-सुहृद् मित्रने पण हुँनथी पाम्यो. कोइ दयालु मित्र साथे मने संगति पण नथी थइ. आ कारणोने लीधे तारुण्य अवस्थामांज प्रव्रज्या ग्रहण करी छ ।॥ ९॥ ओ पहसिओ राया। सेणिओ मगहाहियो ॥ एवं ते इट्टिमंतस्स । कहं नाहो न विजह ॥ १० ॥ __त्यारे मगधदेशना अधिपति राजा श्रेणिक हस्था के-आची कदिवाळा तमे छो लेनो नाथ केम न होय ! १० ततस्तदनंतरं श्रेणिको मगधाधिपोराजाप्रहसिता.हे महाभाग्यवन्! ते तव ऋद्धिमत ऋद्धियुक्तस्य कथं नाथोन विद्यते । तदनंतर मगधदेशना अधिपति श्रेणिकराजा हसी पख्या अने बोल्या के-हे महा भाग्यवान् ! तमे आया ऋद्धिमान् छो तोएवा ऋद्धियुक्त पुरुषने नाथ केम न होय ॥ ॥ हीमि नाहो भयंताणं । भोगे मुंजाहि संजया ।। मित्तनाई हिं परिवुडो । माणुस सुलु दुलहं . ११ ॥ For Private and Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१० |११७९॥ भाप मदतोनो हुँ नाय थालं. हे संयत ! मित्र तथा ज्ञातिवडे परिवारवाळा बनी भोग भोगवो, कारण के आ मनुष्यपर्ण अयंत दुर्लभ छे." व्या०-हे पूज्याः! अहं 'भयंताण' इति भदंतानां पूज्यानां युष्माकं नाथो भवामि. यदा भवतां कोऽपि यन सत्रम् ट्रस्वामी नास्ति, तदाहं भवतां स्वामी भवामि. यदाऽनाथत्वायुष्माभिदीक्षा गृहीता, तदाहं नाथोऽस्मीति भावः. ॥११७९० हे संयत ! हे साधो! भोगान भुक्ष्व १ कीदृशः सन् ? मित्रज्ञातिभिः परिवृतः सन् ? हे साधो ! खलु निश्चयेन मा. हनुष्यं दुर्लभ वर्तते. तस्मान्मनुष्यत्वं दुर्लभ प्राप्य भोगान् भुक्त्वा सफलीकुरु ॥११॥ अथ मुनिर्वदति॥ हे पूज्य! मदतोनोआप जेवा पूज्य पुरुषोनोन्नाथ हु थाउं. जो आफ्नो कोइ पण स्वामी नथी तो आपनो स्वामी हुथाउं छु.जो अनाथ होवाने लीधे तमे दीक्षा लीधी होय तो हुँ तमारो नाथ बर्नु छुएटले हवे हे संयत ! साधो ! सुखेथी भोग भोगवो. केवा थइने ! मित्र तथा ज्ञाति वगेरेथी परिवृत थइने. हे साधो निश्चये मानुष्य-मनुष्यपणु बहु दुर्लभ छे, माटे दुर्लभ मनुष्यत्व पामी नाना प्रकारना भोग भोगवीने ए मनुष्यपणाने सफळ करो॥३१ । ___अप्पणा वि अणाहोसि । सेणिया मगहाहिव ॥ अप्पणा अणाहो संतो। कहं नाहो भविस्ससि ॥ १२॥ हे मगधाधिप श्रेणिक ! तुं आत्मना-पोतेज अनाथ छो तो स्वयं अनाथ होह तुं बीजानो नाथ केम थइ शकीश? १२ व्या---हे राजन् श्रेणिक! मगधाधिप! त्वमात्मनाप्यनाथोऽसि, आत्मनाऽनाथस्य सतस्तवाप्यनाथत्वं, तदा स्वमपरस्य कथं नाथो भविष्यसि ? ॥ १२ ॥ हे राजन् श्रेणिक! हे मगधदेशना अधिपति! तुं पोते जातेज अनाथ छो, ज्यारे आत्मना-पोते अनाथ बनेलो तुं छो तो पछी CAKACCHI-%E For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तु अपरनो नाथ केम थइ शकीश? ॥ १२ ॥ जा एवं वुत्तो नरिंदो सो । सुसंभतो सुविम्हिओ। वयणं अस्सुयं पुवं । साहुणा विम्हयं निओ॥ १३ ॥ भाषांत यन स्त्रम् CL_ ज्यारे (राजा) नहिं सांभळेलु बचन भावी रीते साधुए नरेंद्रने संनळायुं त्यारे (श्रेणिक) बहु सभ्रांत वधा अर्पन विचित धद माश्चर्यने पाम्बो. IN अध्य०२. ॥११८० व्या-स नरेंद्रः साधुनैवमुक्तः सन विस्मयं नीतः, आश्चर्य प्रापितः कीदृशो नरेंद्रः सुसंभ्रांतोऽत्यंतं व्या-12Mein |कुलता प्राप्तः, पुनः कीदृशः? सुविस्मितः. पूर्वमेव तद्दर्शनात्संजाताश्चर्यः, पुनरपि तद्वचनश्रवणाद्विस्मयवान् जाता. यतो हि नदूचनमश्रुतपूर्व, श्रेणिकाय अनाथोऽसि त्वमिति वचन पूर्व केनापि नो श्रावितं ।। १३ ते नरेंद्र, साधुण ज्यारे आ प्रमाणे का त्यारे विस्मयने पाम्यो आश्चर्य पाम्यो. केवो नरेंद्र! सुसंभ्रांत=अत्यंत व्याकुलताने ५ पामेलो तथा सुविस्मित पेहेलांज ते मुनिनां दर्शनथी तेने आश्चर्य लाग्यु हतुं तेमां बळी तेनुं आयु वचन सांभळतां अधिक विस्मय वाळो बन्यो; कारणके तेनुं आ वचन राजाए अश्रुतपूर्व हतु; अर्थात् श्रेणिकने 'तु अनाथ छो' आयु वचन कोइए पूर्वे सभळावेलु नहोतुं | भी अस्सा हत्थी मणुस्सा मे । पुरं अंतेउरं च मे ॥ भुंजामि माणुसे भोए । आणाइस्सरियं च मे ॥ १४ ॥ एरिसे |संपयरगंमि । सक्ककामसप्पिए । कहं अणाहो हवई । मा हुभंते मुसं चए ॥ १५ ॥ युग्मं ॥ गाथानो मेळो संबंध -श्रेणिक बोल्यो के-घोडा, हाथी, मनुष्यो, पुर नगर तथा अंत:पुर जनाना, इत्यादिक मारे संपळले. हुं मानुष्य * भोग भोगवु खु. वळी माझा हुकम तथा अश्वर्य-समृद्धि पण मारे डे. १४ देश आवा संपतिना प्रकर्षमा हुं सर्वप्रकारनी कामनाओने समर्पित छ अर्थात् मारी सर्व इच्छापूर्ति समीपेज ले तो हुँ अनाथ केम होउ ? हे पूज्य ! आप मृषा मा बोलो. १५ For Private and Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांवर अध्य०२० ॥११८१७ व्याख्या-द्वाभ्यां गाधाभ्यां श्रेणिको वदति, हे भदंत ! पूज्य! हु इति निश्चयेन मृषा मा ब्रूहि ? असत्यं मा वद? एतादृश संपदग्न्ये सति संपत्यक सत्यहं कथमनाथो भवामि कीशोऽहं ! मर्वकामसर्पितः, सर्वे च ते उचराध्य कामाश्च सर्वकामास्तेभ्यः सर्वकामेभ्यः समर्पितः शुभकर्मणा दौकितः. अथ राजा स्वसंपत्कर्ष वर्णयति-अश्वा यन सूत्रम् ॥११८॥ घोटका बहवो मम संति, पुन हस्तिनोऽपि प्रचुराः संति, तथा पुनर्मनुष्याः सुभटाः सेवका बहवो विद्यते. तथा मम पुरं नगरमयस्ति. च पुनमें समांतःपुरं राज्ञीवृदं वर्तते. पुनरहं मानुष्यान् भोगान , मनुष्यसंबंधिनो विषयान हु भुनमि. च पुनराश्वर्य वर्तते. आज्ञा अप्रतिहतशासनस्वरूपं, तयाज्ञयैश्वर्य प्रभुत्वं वर्तते. यतो मम राज्ये ★ामदीयामाज्ञां कोऽपि न खेहयतीन्यर्थः ।।१४ ॥ १५॥ तदा मुनिराहका अर्थ-वे गाथाओवडे श्रेणिक कहे छ-हे भदंत-पूज्य! 'हु' निश्चये आप मृषा खोटुं मा बोलो असत्य न वदो आवो संपचिनो हाप्रकर्ष छतां हुँ अनाथ केम कहेवाउं? केवो हु? सर्वकामसमर्पित, अर्थात् शुभ कर्मयोगे मारी सर्व इच्छाओनी सिद्धि समीपेज वर्षे छ गजा पोतानी संपत्तिनी व्याख्या पोने वर्णवे छे-अश्व-घोडा मारे घणा तेम हाथी पण पुष्कळ छेवळी मनुष्यो सुमट सेवको 8पण बहु छे, तेम मारे पुर नगर पण छे, अने मारे अंतःपुर-राणीओनो वृंद छ, तथा हु मानुष्यक-मनुष्यलोकना भोगो भोगवू छु वळी मारी आज्ञा=अप्रतिहत शासनरूप हुक्रम तथा ऐश्वर्य प्रभुत्व, अथवा ए आज्ञाने लीधे प्रभुत्व, अर्थाद मारा राज्यमां मारी | आज्ञानु कोइ उल्लंघन न करे. एवं मारुं स्वामित्व छे. तो पछी हु अनाथ केम कहेबाउं ? १४-१५ मूलम्-न तुम जाणे अणाहस्स । अत्थं पोत्थं च पत्थिवा । जहा अणाहो हवई। सणाहो वा नराहिय ।। १६ ॥ For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उचराध्ययन सूत्रम् ॥११८२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हे पार्थ! तमे 'अनाथ' शब्दनो अर्थ तथा तेनी प्रोत्था = मूलोत्पत्ति नथी जाणता जेम अनाथ धाय के समाय बने ते तमे हे नराधिप। जाणता नथी. १६ व्याख्या- हे पार्थिव ! हे राजन् ! एवं अणाहस्स अनाथस्यार्थमभिधेयं, चशब्दः पुनरर्थे च पुनरनाथस्य प्रोत्थ भाषांतर न जानासि प्रकर्षेणोत्थानं मूलोत्पत्तिः प्रोत्था, तां प्रोत्थां केनाभिप्रायेणायमनाथशब्दः प्रोक्त इत्येवंरूपां न १ अध्य०२० जानासि हे राजन् ! यथाऽनाथोऽथवा सनधो भवति तथा न जानासि कथमनाथो भवति ? कथं च सनाथो भवति ॥११८२॥ अर्थ- हे पार्थिव ! हे राजन् ! तमे अनाथ (पद) ना अभिधेय अर्थने तथा ए अनाथ शब्दनी प्रोत्था = प्रकर्षे करीने उत्थान - मूलोत्पत्तिने, अर्थात केवा अभिप्रायथी आ अनाथ शब्द कहेवामां आव्यो छे एवा प्रकारनी व्युत्पत्ति तमे जाणता नथी के जेवी | रीते अनाथ अथवा सनाथ थवाय तेवी रीते हे नराधिप । तमे समज्या नहिं ॥ १६ ॥ मूलम् - सुणेह मे महाराय | अव्वक्खित्तेण चेधसा । जहा अणाहो हवई । जहा मे य पवत्तियं ||१७|| हे महाराज ! मारुं (हुं कहुं ते) अध्याप्ति चित्तथी पटले सावधान मनथी सांभळो, के जेम अनाथ थाय छे तथा जेम मारुं (अनाथपणुं प्रवस्युं. १७ हे महाराज ! मे मम कथयतः सतस्त्वमव्याक्षिप्तेन स्थिरेण चेतसा शृणु ? यथाऽनाथो नाथरहितो भवति, यथा मे ममानाथत्वं प्रवर्तितं, अथवा मेय इति एतदनाथत्वं प्रवर्तितं तथा त्वं शृणु ? इत्यनेन स्वकथाया उडङ्कः कृतः. १७ अर्थ- हे महाराज ! हुं ते तमे अन्याक्षिप्त-स्थिर चित्तथी सांभळो. जेम अनाथ थाय छे अने जेम मारुं पोतानुं अनाथत्व प्रवृत्त थयुं, अथवा मारु आ अनाथत्व जेम थयुं ते तमे सांभळो. अहीं पोतानी कथानुं सूचन क । १७ ॥ मूलम् - कोसंबीनाम नयरी | पुराणपुर भेइणी ॥ तत्थ आसी पिया मज्झ । पभूयधणसंचओ ॥ १८ ॥ For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराणा पाहेरोमा प्रकारनी कौशांबी नामनी नगरी छे तेमा पुष्कळ धन संग्रहवाळो धनसंचय नामे मारो पिता हतो, १४ उचराध्यव्याख्या-हे राजन् ! कौशांबीनाम्नी नगर्यासीत्. कीदृशी कौशांची? पुराणपुरभेदिनी, जीर्णनगरभेदिनी.|| भाषांतर यन सत्रम् ॥ अध्य०२० ॥११८३M यादृशानि जीर्णनगराणि भवती, तेभ्योऽधिकशोभावती. कौशांबी हि जीर्णपुरी वर्तते. जीर्णपुरस्था हि लोकाः ११८३॥ 8 प्रायशश्चतुरा धनवंतश्च बहुज्ञा विवेकवंतश्च भवंतीति हार्द. तत्र तस्यां कौशांब्यां मम पिनासीत्. कीदृशो मम | पिता? प्रभूतधनसंचयः, नाम्नापि धनसंचयः, गुणेनापि बहुलधनसंचय इति वृद्धसंप्रदायः ॥१८॥ | अर्थ- हे राजन्! कौशांची नामनी नगरी हती. केवी कौशांबी नगरी! पुराणपुरभेदिनी-जेबां जूनां नगरो होय छे तैना करतां अधिक शोभावाळी, कौशांबी नामे जूनी नगरी छे. पुराणा शहेरना लोको घणे भागे चतुर, धनवान तथा घणु जाणनारा अने विवेकवान् होय छे एबु हार्द अभिप्राय छे. ते कौशांबीमा मारो पिता हतो. केवो मारो पिता? प्रभूतधनसंचय-पुष्कळ धन संग्रहवाळो अने नामे पण धन संचय अर्थात् तेनुं नाम धनसंचय हतुं अने गुणथी पण धन संग्रही हतो ॥१८॥ मूलम्- पढमेवए महाराय । अउला अच्छिवेयणा || अहोत्था विउलो दाहो । मध्वगत्तेसु पत्थिवा ॥ १९ ॥ ___ हे महाराज ! प्रथम वचनगां मने अनुल अक्षिवेदना=नेन्नपीडा उपडी तेथी हे पार्थिव ! मारा सर्व गात्रोमां विपुल-दाह थवा लाग्यो. १९ हे महाराज प्रथमे वयसि यौवने एकदाऽतुलोत्कृष्टाऽस्थिवेदनाऽस्थिपीडा 'अहोत्था इत्यभूत्. अथवा 'अच्छिवेयणा' इति पाठे अक्षिवेदना नेत्रपीडाऽभूत्. ततश्च हे पार्थिव! हे राजन् ! सर्वगात्रेषु विपुलो दाहोऽभूत्.१९ अर्थ-हे महाराज! प्रथम वयम्यौवन अवस्थामा एक समये मने अतुल-उत्कट अस्थिवेदना हाडपीडा उपनी; 'अच्छिवयण' For Private and Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उपराष्ययन सूत्रम् ॥११८४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एवो पाठ होत तो अभिवेदना-नेत्रपीडा उपडी अने तेथी, हे पार्थिव ! हे राजन् मारा सर्व गोमां विपुल= घणो दाह भयो. १९ मूलम् सत्थं जहा परमतिक्खं । सरीरविवरंतरे ॥ पवीलिजह अरी कुद्धे । एवं मे अस्थिवेयणा ॥ २० ॥ जेम परमतीक्ष्ण शस्त्र कोइ कुद्ध शत्रु शरीरना विवर=नाक कान आंख जेवा छिद्रमां परोवी दीये भने तेथी जेवी वेदना धाय तेवी मने ए अस्थि वेदना अथवा अक्षिवेदना थवा लागी. २० - हे राजन् ! यथा कश्चिदरिः क्रुद्धः सन् शरीरविवरांतरे नामाकर्णचक्षुःप्रमुखरंध्राणां मध्ये परमतीक्षणं शस्त्रं प्रपीडयेद् गाढमवगाहयेत् एवं मे ममास्थिवेदनाभूत् ॥ २॥ अर्थ- हे राजन् ! जेम कोह कोधे भरायेलो शत्रु शरीर विवरांतरमां=नाक कान आंख आदिक छिद्रमां परम तीक्ष्ण शस्त्र उंड भोंके अने जेवी पीडा करे तेवी मने ए आंखनी पीडा थतो हती अथवा हाडपीना थती हती ॥ २० ॥ मूलम् - तियं मे अंतरिच्छं च । उत्तमं च पीडई। इंदासणिसमा घोरा । वेयणा परमदारुणा || २१ || मारा for heat पाइला भागने तथा अंतरी खानपानादि इच्छाने अने उमंग मरणने इंद्राशनि-इंद्रना वज्र जेवी परमादरणा पीडा उपडी २१ व्याख्या-- हे राजन् ! सा परमदारुणा वेदना मे मम त्रिकं कटिपृष्टविभागं च पुनरंतरिच्छां, अंतर्मध्ये इच्छा अंतरिच्छा. सामंतरिच्छां भोजनपानरमणाभिलाषरूपां च पुनरुत्तमांगं मस्तकं पीडयति. कीदृशी वेदना ? इंद्राशनिसमा घोरा, इंद्रस्थाशनिर्वज्रं तत्समा, अतिदाहोत्पादकत्वात्तत्तुल्या घोरा भयदा. ॥ २१ ॥ अर्थ- हे राजन् ! ते परम दारुण अति असह्य वेदना, मारा त्रिक एटले केडनी पाछळ बरडाना नीचला अने त्रण हाडकांमा For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०२० ।।११८४७ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उचराध्य यन सूत्रम् ॥११८५ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir केडना पाछळना भागमां अने वळी आंतर इच्छा भोजन पाणी अने भोगा भिलाषरूप अने मस्तकने पीडे छे वळी ते वेदना केवी छे? इंद्रना वज्रतुल्य एटले के अति दाहने उत्पन्न करनार होवाथी भयंकर भयने आपती ॥। २१ ।। मूलम् उचट्टिया मे आयरिया । विज्जामंततिगच्छागा। अघीया सत्थकुसला | मंतमूलविसारया ॥ २२ ॥ स्वारे मारे माटे आचार्य वैद्यो उपस्थित थया से विद्या तथा मंत्र देय प्रकारथी चिकित्सा करे तेत्रा तथा अधीत एटले आयुर्वेद भणेला सेमज शमां कुशल अने मंत्र तथा मूळ जडीबूटी वगेरेमां विशारद = निपुण हता. २२ व्याख्या- हे राजन् ! तदेत्यध्याहारः, आचार्याः प्राणाचार्या वैद्यशास्त्राभ्यासकारका मे ममोपस्थिताश्चिकित्सां कर्तु लग्नाः कीदृशा आचार्याः ? विद्यामंत्रवि चिकित्सकाः, विद्यया मंत्रेण च चिकित्सति चिकित्सां कुर्वतीति विद्यामंत्रचिकित्सकाः, प्रतिक्रियाकर्तारः पुनः कीदृशा आचार्याः ? अधीताः सम्यक् पठिताः 'अबीया' इति पाठे न विद्यतेऽन्यो द्वितीयो येभ्यस्तेऽद्वितीयाः, असाधारणाः पुनः कीदृशास्ते ? शास्त्रकुशलाः शास्त्रेषु विचक्षणाः पुनः कीदृशास्ते ? मंत्रमूलविशारदाः, मंत्राणि देवाधिष्ठितानि मूलानि जटिकारूपाणि तत्र विचक्षणाः, मंत्रमूलिकानां गुणज्ञाः ॥ २२ ॥ हे राजन! (अहीं 'तदा' एटला पदनो अध्याहार करवानो छे.) त्यारे आचार्यो= प्राणाचायों अर्थात् वैद्यशास्त्रना अभ्यासी वैद्यो मारी पासे उपस्थित थया - आव्या अने चिकित्सा करवा लाग्या. ए आचार्यों केवा ? विद्यावडे तथा मंत्रोथी चिकित्सा करवावाळाबेय रीते रोगोनी प्रतिक्रिया करी शके तेवा वळी तेओ अधीत=सारी रीते शास्त्र भणेला. 'अनीया' आवो पाठ होय तो अद्वितीय= For Private and Personal Use Only भाषांवर अध्य०१० ॥१२८५॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उपराध्ययन सूत्रम् ॥११८६ | www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एना जेवा बीजा गोत्या न मळे तेवा अर्थात् असाधारण सामर्थ्यवाळा, ते साथे शस्त्र अथवा शास्त्रमां कुशळ विचक्षण अने मंत्र देवता धिष्ठित (अनुष्ठानादि) तथा मूळ=जडीरूप औषधो बनेमां विशारद = विचक्षण अर्थात् ए बधांयना गुणने जाणनारा ॥ २६ ॥ ते मे तिगच्छं कुवंति । चाउपायं जहा हियं ॥ न य दुक्खा बिमोयंति। एसा मज्झ अणाहया ॥ २३ ॥ ले वैथो मारुं जेम हित धाय तेम चार प्रकारे चिकित्सा करे छे. तथापि मने दुःखयी विमुक्त करावी न शक्या. भाज मारी अनाथता. दुःख का शक तो नाथ कहेवाय पण जे दुःख पामता ने जराय दुःखहान न करावी के तो नाथ केम कड़ेवाय ? २३ जो व्या० - ते वैद्याचार्या मे मम चैकित्स्यं रोगप्रतिक्रियां यथा हितं भवेत्तथा कुर्वति कीदृशं चैकित्स्यं । चातु:पादं चत्वारः पदाः प्रकारा यस्य तच्चतुः पदं तस्य भावः चातुःपादं चातुर्विध्यमित्यर्थः, वैद्य १ औषध २ रोगि ३ प्रतिचारक ४ रूपं अथवा वमन विरेचन २ मर्छन ३ स्वेदन ४ रूपं, अथवा अंजन १ बंधन २ लेपन ३ मर्दनरूपं ४. शास्त्रोक्तं गुरुपरंपर्यागतं चक्रुरिति स्थाने प्राकृतत्वात्कुर्वतीत्युक्त. ते वैद्या मां दुःखान्न विमोचयंतिस्म. प्राकृतस्वाद भूतार्थे वर्तमानार्थप्रत्ययः, एषा ममानाथता वर्तते ॥ २३ ॥ वैद्याचा मारी चिकित्सा करी, मारुं जेम हित थाय तेवी रीते रोमनो प्रतिकार क्यों. केवी चिकित्सा १ चतुष्पाद अर्थात् वैद्य, औषध, रोगी तथा परिचारक; एम चारपादयुक्त अथवा वमन, विरेचन, मर्दन तथा स्वेदनः आम चार प्रकारनी. अथवा अंजन, बंधन, लेपन तथा मर्दन; आवा भेदथी चार प्रकारनी शास्त्रोक्त गुरुपरंपराधी जाणेल चिकित्सा करी. (अहीं प्राकृत होवाथी कुर्वति ए वर्तमानप्रयोग भूतकाळना अमां है. तथापि ते वैद्यो मने दुःखथी न मुकावी शक्या. आ मारी अनाथताज कहेवाय. २३ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१० ॥११८६॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir IA पिया मे सब्यसारं पि । दिजाहि मम कारणा।। न य दुक्खा विमोति । एमा मज्झ अणाया ॥ २४ ॥ उपराभ्य मारा पिता मारे कारणे सर्वसार घरनो सार व नादिक (वैद्य वगैरेने) दइ चूक्या तो पण नने दुःखंथी विमुक्त करावी न शक्या-आ मारी अनाधता. २४ | भाषांवर यन पत्रमा हे राजन् ! मम पिता मम कारणेन सर्वमपि मारं, गृहे यत्सारं सारं वस्तु, तत्सर्वमपि वैद्यभ्योऽदात. तथापि मअभ्य०२० ॥१९८७ वैद्यो मां दुःखात्कष्टान्न विमोचयतिस्म. एषा ममाऽनाथता ज्ञेयेति शेषः ॥ २४ ॥ * १९८७ __हे राजन् ! मारा पिता मारे कारणे घरमांनु सर्व सार, एटले घरनी सारभूत सर्व वस्तुओ वैद्यादिकने दइ बेठा तो पण ते वैद्यो || मने दुःख-कष्टथी मूकावी न शक्या. आज मारी अनाथता ॥ २४ ॥ माया वि में महाराय । पुत्तसोय दुहडिया न य दुक्खा विमोति एसा मज्झ अणाहया ॥ २५ ॥ हे महाराज ! मारी माता पण पुननाशोकधी सदाय दुःखमा रहेती अर्थात् मारा दुःखथी हमेशा पोते मनमा दुःख पामती, मने दुःखधी | मुक्त न करावी शकी एज मारी अनाचता, २५ हे महाराज ! मे मम मातापि दुःखान्मां न विमोचयतिस्म, कथंभूता माता? पुत्रशोकदुःखस्थिता, पुत्रस्य | यः शोकः पीडाप्रादुर्भावः साताऽभावः स एव दुःख, तत्र स्थिता पुत्रशोकदुःखस्थिता, एषा ममाऽनाथताज्ञेया.२५ । हे महाराज ! मारी माताए पण मने दुःखथी न मुक्त कराव्यो. केवी माता? पुत्रशोकदुःखस्थिता, पुत्रने जे शोक-पीडापादुर्भाव एटले सातानो अभाव थाय ए दुःखमा निरंतर खेद पामती. आ पण मारी अनाथत्ता कडेवाय ॥ २५ ।। भायरो मे महाराय । सगा जिट्टकणिट्ठगान य दुक्खा विमोयंति । एसा मज्छ अणाया ॥ २६ ॥ हे महाराज! मारा महोटा तथा नाना सगा भाइओ मने दुःखधी न भूकावी शक्या, आज मारी अनाथता, २६ ISHESA FACA%**** , For Private and Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्या--हे महाराज मे मम भ्रातरोऽपि, स्वका आत्मीया ज्येष्टकनिष्टका वृद्धा लघवश्च न मां दुःखाहिमोंच यतिस्म. एषा ममानाथता ज्ञेया ॥ २६ ॥ उपराज्य | भाषांत यनपत्रम् हे महाराज ! मारा स्वका-सगा आत्मीय भाइयो, ज्येष्ठ तथा कनिष्ट एटले माराथी महोटा तथा न्हाना भाइओपण मने दुःखथी [दाअध्य०२० ॥११८८ न मूकावी शक्या, आ मारी अनाथताज जाणवी ॥ २६ ॥ भइहणीओ में महाराय । सगा जिट्ठकणिठ्ठगा॥ य दुक्खा विमोयंति । एसा मज्म अणाहया ॥२७॥ मारी महोटी तथा म्हानी सगी बहेनो पण भने ए दुःखथी मूकावी न शकी ए मारी अनाथताज कहेवाय. २० हे महराज! में मम भगिन्योऽपि, स्वका एकमातृजाः, ज्येष्ठाः कनिष्ठीश्च मा दुःखान्न विमोचयंतिस्म. एषा ममाऽनाथता ज्ञेया हे महाराज! मारी भगिनीओ, खका-सगी अर्थात् एकज माताथी जन्मेली महोटी तथा न्हानी कोइ चडेन पण दुःखमांथी मने मुक्त न करावी शकी ए मारी अनाथताज गणाय ॥ २७ ॥ भारिया मे महाराय । अणुरत्ता अणुव्वया । असुपुण्णेहिं नयणेहिं । उरं मे परिसिंचई. २८ अन्नं पाणं च | न्हाण च । गंधमल्लविलेवण । मए नायमनायं वा । सा बाला नोवभुजई. २९ खणंपि मे महाराय । पासाओ न विफिट्टई ॥ न य दुक्खा विमोयंति । एसा मज्झ अणाया. ३० तिमृभिर्गाथभिः कुलकं ॥ त्रण गाथानो संबंध भेळोहे, हे महाराज! अनुरक्ता-मारामां प्रीतिवाली तथा अनुव्रता-सर्वधा अनुकूल वर्तनवाळी (पतिव्रता) पवी मारी Mभार्या आंसुथी भरेला नेनोवढे मारा वक्षःस्थळने परिसिंचन करतो. २८ ते बाला-मारी भार्या मारा जाण्ये के अजाण्ये अन्न, पाणी, स्नान, गंध-चंदन, For Private and Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मापन मास्य--पुष्पहार अथवा विलेपन; इत्यादि कशु उपभोग करती नहोती. २५ (एटलुज नहिं) हे महागज ! एक अण पण मारी पासेथी गवसती नहोती उचराध्य IPI ते भार्या पण मने ए दुःखधी मूका: न शकी एज भारी भनाधता. ३. पनपत्रम् __ व्या०-हे महाराज ! मे मम भार्या कामिन्यपि दुःखान्मां न मोचयतिस्म. कथंभूना भार्या ? अनुरक्ता ॥११८९॥ द अनुरागवती. पुनः कथंभूता? अनुबत्ता पतिव्रता; पतिमनु लक्ष्यीकृत्य व्रतं यस्याः साऽनुव्रता. एतारशी भार्यात मे मम उरो हृदयमश्रुपूर्णाभ्यां लोचनाभ्यां सिंचतिस्म. ॥ २८ ॥ पुनः सा पाला मत्कामिनी अनमशनं मोदका|दिकं भक्ष्य, पानं शर्करोदकादिकं, पुनःस्लानं कुंकुमादिपानीयः. गंधै सुरभितैलचोवकगोशीषचंदनप्रमुखैः, माल्यै| रनेकसुरभिपुष्पदामभिर्विलेपनं गात्रार्चनं, मया ज्ञातं वा अज्ञातं, स्वभावेनैवैतत्सर्व भोगांगं नोपभुक्ते, नानुभवति. मम दुःखात्तया सर्वाग्यपि भोगांगानि त्यक्तानि. ॥ २९ ॥ पुनर्हे महाराज! सा वाला मम पाश्चन्निकट्यान्न 'वि|फिदृह' इति न विफिति, नापयातीत्यर्थः परं दुखान्मां न विमोचयति, एषा ममाऽनाथता ज्ञेया.॥३०॥ त्रण गाथाओ कुलक (एकान्वय) के. हे महाराज ! मारी भार्या कामिनी पण दुःखथी मने नथी मुकावी शकी. केवी भार्या ? | अनुरक्ता-मारे विषये अनुगग (प्रति)वाळी, वळी अनुप्रता-पतिव्रता एटले पतिने अनुलक्षीने वर्तनारी एवी भार्या मारा उर-वक्षस्थलने (हृदय प्रदेशने) आंसुथी पूर्ण नेत्रोबडे सिंचन करती.२८ वळी ते बाला-मारी मार्या अन्न-मोदकादि भोजन, पान-साकरना शरबत बगेरे पीवाना पदार्थ, तथा स्नान केसरादि जळथी न्हावू, गंध-सुगंधि तेल, चोक, गोशीर्षचंदन गोरोचना; इत्यादिक पदार्थोनो उपयोग तेमज माल्य अनेक सुगंधि पुष्पनी मालाओ, अने विलेपन-चंदनादिकथी गात्रार्चन आ सघळा मारे जाण्ये *SAKA For Private and Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांत भोगवी से वेदना अनुभषणा अणुभव अथवा अजाण्ये स्वभावथीज भोगना अंगोनो उपभोग करती नहिं अर्थात् मारा दुःखने लीधे तेणीयें सर्व भोगनो परित्याग कर्यो उचराध्य हतो. २९ तेमज हे महाराज ! ते बाला मारी पासेथी एक क्षणवार पण दर जती नहीं परंतु दुःखथी मने न मुकावी शकी. आ|| या स्त्रम् |8मारी अनाथताज जाणवी. ॥ ३०॥ ॥११९०॥ X९१९॥ तओहं एवमाहिंसु । दुक्खमा हु पुणो पुणो वेयणा अणुभवेळ जे । संसारंमि अणतए ॥३१॥ तदनंतर ९ मा प्रमाणे बोस्यो के-निश्चये करीने जे वेदना अनुभववी दुःक्षमा सहन न करी शकाय तेवी (असम होय ) सेवी (वेदना) श्रा अनंत संसारने विषये में पुनःपुनः वारंवार भोगवी छे. ३॥ | व्या-ततोऽनंतरं प्रतीकारेषु विफलेषु जातेष्वहमेवमवादिषं. एवमिति किं हु इति निश्चयेन या वेदना * अक्षिरोगप्रमुखा अनुभवितुं दुःक्षमाः, भोक्तुमसमर्थाः, ता वेदनाः संसारे पुनः पुनर्भुक्ता इति शेष: वेद्यते दुःख मनयेति वेदना. ता वेदना दुखेन क्षम्यते सद्यते इति दुःक्षमा दुःसहाः कीदृशे संसारे ? अनंतकेऽपारे. ॥३१ ।। ४ तदनंतर-प्रतिकार-उपचार बधा निष्फळ नीवड्या पछी हु आवी रीते बोल्यो. शुं बोल्यो ? 'हुँ' निश्चये जे वेदना आंखना रोगथी &उद्भवेली पीडा अनुभव लेता दुःक्षमा भोगवी न शकाय तेवी (असह्य) ते वेदनाओ आ अनंत अपार संसारने विषये में पुन:पुन: | भोगवी, जेनावती दुःख जणाय ते वेदना, ते वेदना सहन करतां बहु दुःल थाय तेथी ए वेदना दुःक्षमा एटले दुःसह कहेवाय ॥३१॥ सइं च जह मुचिज्जा । वेयणा विउलाउडओमे ॥ खंतो दंतो निरारंभो । पब्वइए अणगारियं ॥ ३२ ॥ जो हूँ एकवार या विपुल-घणी वेदनाथी मुक पाटं तो शांत=क्षमाशील तथा दांत इंद्रियोर्नु दमन करी निरारंभ-तमाम आरंभरहित बनी कर ASTROG For Private and Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अच्य०२. ११९॥ अनगारिक-घर छोडीने प्रवजित थह आउं. ३२ व्या-अहं किमवादिषं तदाह-यदि सकृदप्येकवारमप्यहं वेदनाया विमुच्ये, सदाहं क्षांतो भूत्वा, पुनातो पनपत्रात जितेंद्रियो भूत्वा निरारंभः सन्ननगारत्वं साधुत्वं प्रवजामि दीक्षां गृहामीति भावः कथंभूताया वेदनायाः ? वि॥१९९९ पुलाया विस्तीर्णायाः ॥ ३२ ।। हु शु बोल्यो ? ते कई है.-जो सकृत-एकवार पण हुंआ वेदनाथी मुक्त थाउं, तो हुक्षांत थइ तेमज दांत-जितेंद्रिय रही निरारंभ-सकळ सदोष आरंभ छोडी दइने अनगारव साधुत्व ने पामुं, अर्थात दीक्षा ग्रहण करूं, आवो भावार्थ छे. वेदना केवी ? | |PI विपुला अति विस्तीर्ण एटले सहेलाइथी जेनो अंत न आवे तेवी ।। ३ ।। ___ एवं च चिंतइत्ताणं । पसुत्तोमि नराहिवा । परिवत्तति राईए । बेयणा मे खयं गया । ३३ ।। हे नराधिप ! आम चिंतन करीने हुं ज्या सूतो अने रात्री परिवर्तनी-बीतवा आवी त्यां तो मारी वेदना श्रय पामी. ३३ व्या---एवं पूर्वोक्तं चिंतितं चिंतयित्वा हे नराधिप! यावदहं सुप्तोऽस्मि, तावत्तस्यामेव रात्रौ प्रवर्तमानायामतिक्रामत्यां मे मम वेदनाः क्षयं गताः, वेदना उपशांता इत्यर्थः, ॥ ३३ ॥ MI एवी रीते पूर्वेकडा प्रमाणे चितवन करीने, हे नराधिप ! ज्यां हजी हु सूतो त्यां तो ते रात्री जेम जेम परिवर्तती-बीतती गह तेम तेम मारी बेदना क्षय पामी वेदना उपशांत थइ गइ. ॥ ३३ ॥ तओ कल्ले पभायंमि । आपुच्छित्ताण बंधवे ॥ खंतो दतो निरारंभो । पन्चइओ अणगारियं ॥ ३४ ॥ For Private and Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ते पही बीजे दिवसे प्रभातमांन माग बांधवाने पूत्रीने तेओनी अनुमति लइने, झोन अमागाळो, दांत जीतेंद्रिय तथा सर्व प्रकारना आरंभ उपराभ्य-II रहित बहने हुँ भनगारिक गृहादिक तजीने प्रबजित भयो दीक्षा ग्रहण करी. ३५ भाषांतर यनपत्रमा व्या. ततो वेदनोपशांतेरनंतरं कल्पे इति नीरोगे जाते सति प्रभातसमये बांधवान् स्वज्ञातीनापृच्छयाह अध्य०१० मनगारत्वं साधुत्वं प्रव्रजितः, साधुधर्ममंगीकृतवान्. कीदृशोऽहं ? क्षांतः, पुनीतः, पुनरहं निरारंभः । ३४ ॥ *॥११९२० तदनंतर एटले वेदना उपक्षांत थया पछी कल्य-नीरोगता थइ एटले प्रभात समये बांधव-मारा सगां वगेरेने पूछी-ए सर्वेनी अनुरग लइने अनगारत्वसाधुत्वने प्रवजित थयो अर्थात् साधु धर्मनो में अंगीकार को. हु केवो ? क्षांत=क्षमाशील तथा दांत=| इंद्रियोनु दमन करनारो अने निरारंभ-सर्व सदोष आरंभनो परित्यागी. ॥ ३ ॥ तओहं णाहो जाओ। अप्पणो य परस्सय ॥ सव्वेसिं चेव भूयाणं । तमाण थावराण य॥ ३५॥ ते पछी तो हुँ बारमनःमारा पोतानो तथा पर बीजानो तेमज सर्वे त्रस तथा स्थावर प्रात मात्रनो नाथ स्वामी थयो, ३५ . व्या०-हे राजन् ! ततो दीक्षानंतरमात्मनश्च पुनः परस्य नाथो योगक्षेमकरत्वेन स्वामी जाता. आत्मनो हि नाथ: शुद्धप्ररूपणत्वात्, अपरस्य च हितचिंतनात्. एवं निश्चयेन सर्वेषां भूतानां प्रसानां च पुनः स्थावराणां नायो जातः. ॥ ३५ ।। अथ यश्चात्मनो नाथः, स च सर्वेषां नाथा, तदेव दृढयति हे राजन् ! ते पछी-एटले दीक्षा गृहण कर्याने अनंतर आत्मानो-मारा पोतानो अने परनो हुँ नाथ थयो; अर्थात सर्वना योग |क्षेमनो करनार स्वामी बन्यो. में शुद्ध प्ररूपणा आदरी तेथी पोतानो नाथ थयो अने बीजाओगें हित चिंतन करी हु अपरनो पण For Private and Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाथ थयो. आवा निश्चयवडे सबभूत अस तथा स्थावर प्राणी मात्रनो हु नाथ थयो, ।। ३५ ।। हवे जे पोतानो नाथ ते सर्वेनो। उपराज्य | Pनाथ ए वात दृढ करे छे माषांतर बन स्त्रम् अप्पा नई वेयरणी। अप्पा मे कूडमामली | अप्पा कामदुधा घेणु । अप्पा मे नंदणं वर्ण ॥ ३६॥ माअभ्य०१० ॥११९३॥ आरमा नदी वैतरणी हे अने मारो आत्माज कूट शामली-नरकमांनु कंटकाकीणं शेमलानुं वृक्ष के आरमा " कामदुधाधेनुले भने आत्माज | मारे नंदनवन-स्वर्गनो बगीचो हे. ३६ व्या०-हे राजन् ! दीक्षायां गृहीतायामहं नाथोऽभूवं, पूर्वमनाथ आसं. तत्कथं ? उच्यते-अयमात्मा जीवो वेतरणीनदी प्रवर्तते, पुनर्ममात्मैव कूटशाल्मलीवृक्षो नरकस्थो वर्तते. पुनरयमात्मैव कामदुधा धेनुवर्तते, कामं दोग्धि पूरयतीति कामदुधा. जीवो यां शुभक्रियां करोति सा शुभक्रिया सुखदेत्यर्थः मे ममात्मा नंदनं वनं, देवानां सुखदायकं नमस्ति. ॥ ३६ ।।। हे राजन् : दीक्षा ग्रहण करीने हुनाथ थयो, जे पूर्व हुं अनाथ हतो. केवी रीते ? ते कई छे-आ आत्मा-जीव वैतरणी नदी है। वहे छे. तथा मारो आत्माज कूट शाल्मली-नरकमा वर्ततो यातना वृक्ष छे. वळी आ आत्माज कामदुधा धेनु थइने वर्ने छे-अर्थात् मनमा जे जे कामना थाय तेने पूरबावाळी धेनुरुप छे, जीव जे शुभ क्रिया करे के ते शुभ क्रिया तेने मुखदायक थाय छे. आ मारो आत्मा मारे माटे नंदनवन अर्थात् देवोने सूखदायक स्वर्गमा जे नंदन वन छे ए अत्रे मारो आत्मा मने तारश सुखदायक होवाथी नंदनवनज छे. ।। ३६ ।। For Private and Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मापांतर उपराध्ययन सूत्रम् ॥११९४॥ H॥१९९४॥ Sh45 अप्पा कत्ता विकित्ता य । सुहाण य दुहाण य॥ अप्पा मित्तममित्त च । दुप्पट्टि य सुप्पढिओ ॥ ३७ ॥ आत्मा सुखोनो तथा दुःस्रोनो कर्ता ने तथा विकतानाश करनार पण हे. १८ वळी आत्माज मित्र तथा अमित्र तेमज दुःप्रस्थितन्दुरा• |चरणे वळेलो तथा सुप्रस्थित सम्मागे चालनारो पण आस्माज से. ३. व्या०-हे राजन्नात्मा जीव: स एक कर्मा, च पुनरात्मैव विकिरिता विक्षेपका केषां । तदाह-सुस्वानां च पुनर्दुःखानां, अर्थात् सुखासुग्वयोः कर्ता विकिरिता विनाशकश्चात्मैव. च पुनरात्मा मित्रमुपकारकृत् सुहर्तते. | तथात्मैवामित्रं शत्रुरहितकारी वर्तते. हे राजन्नयमात्मा दुष्टाचारे प्रस्थितः प्रवर्तितो वैतरण्यादिनरक भूमिदशको वर्तते, अयमेवात्मा सुष्टु आचारे प्रस्थितः प्रवर्तितः कामधेन्वादिनंदनवनादिधद्धर्षदो वर्तते. ॥३७॥ मी हे राजन् ! आत्मा जीव, एज का छे नेम आत्माज विका-विक्षेपक छ, केनो? ते कद्दे छे-सुखोनो तथा दुःखोनो अर्थात् सुखदुःखनो करनार तथा विनाशक आत्माज छे. वळी ए आत्मा मित्र-उपकार करनारो सुहृद् थइने वर्त छ, तथा ए आत्माज अमित्र-अहितकारी शत्रु थइने वर्ने छे. हे राजन् ! आ आत्मा दुष्टाचारमा प्रवर्तीने वैतरणी आदिक नरकभूमि देखाडनार थाय छे अने एज आत्मा जो सुप्रस्थित सारा आचरणमा प्रवत्तीने कामधेनु तथा नंदनवननी पेठे हर्ष आपनारो थाय छे. ॥३७॥ इमा हु अण्णावि अणाहया निव । तमेगचित्तो निहुओ सुणेहि ॥ नियंठधम्म लहियाण वी जहा । सीयंति एगे बहु कायरा नरा ॥ ३८ ॥ हे सूप! मा भने एवी पीजी पण मनायता निश्चये हे ते तमे एकचित्त थह निवृतपणे-स्थिरपणे सांभको, पके केटलाएक पटु कायर नरो FARRIERAGHAT For Private and Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निर्मथ धर्म साधु धर्मने पामीने पण जेम सीदाय ले. १८ | व्या०-हे नृप ! हे राजन् ! हु इति निश्चये, इयमनाथता, अन्यायनायता वर्तते, तामनाथतामेकचित्तः पुन भाषांतर यन खम् निभृतोऽन्यकार्येभ्यो निवृत्तः सन्नानिश्चितः सन् शृणु ? यथा निन्थधर्म लब्ध्वाप्यके केचिजना वट्टकातराः, बहु५ तालाबन्य०१० यथा स्यात्तथा हीनसत्वाः पुरुषाः सीदंति, साध्वाचारे शिथिला भवंति ॥ ३८ ॥ हे नृप ! हे राजन् ! 'हु' निश्रये आ अनाथता कही तेवी अन्यधीजी पण अनाथता छे ते अनाथताने तमे एकचित्त तथा निभृम अन्य कार्यथी निवृत्त थइ अर्थात् सर्वथा निश्चित बनीने श्रवण करो. यथा=जेवी रीते निथ धर्मने पामीने पण केटलाएक ट्रा बहु कातर कायरजनो घणाज हीनसत्व पुरुषो सीदाय छे साधुना आचार पाळवामां शिथिल चने छे. ॥ ३८ ॥ जोपब्वइत्ताण महब्बयाई । मम्मं च नो फासयई पमाया| अणिग्गहप्पा य रसेसु गिद्धे । न मूलओ छिंदह बंधणं से I जे मनुष्य प्रवन्या-दीक्षा पामीने पछी प्रमादयी महायतोने सम्यक प्रकारे स्पर्धातो सेयतो थी ते अनिग्रहामा जेणे पोतानो पारमा निगृहीत नथी कर्यों एवो तथा रसोने विषये गृद्धी लोलुप रहीने बंधन संसार कारण रागद्वेषादिकने मूल थी छेदी शकतो नथी. ३९ व्या०- हे राजन् ! यो मनुष्यः प्रव्रज्य, दीक्षां गृहीत्वा महाव्रतानि प्रमादात् सम्यग्विधिना न स्पृशति, न सेवते, से इति स प्रमादवशवर्ती, प्रमादादनिग्रहात्मा विषयाऽनियंत्रितात्मा, अत एव रसेषु मधुरादिषु गृद्धो बंधनं कर्मबंधनं रागद्वेषलक्षणं संसारकारण मूलतो मूलान छिनत्ति, मूलतो नोत्पाटयति, सर्वधा रागद्वेषौ न निवारयतीत्या. ॥ ३९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kotbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हे राजन् । जे मनुष्य प्रव्रज्या दीक्षा ग्रहण करीने पश्चात् प्रमादवश वर्ती पंच महाव्रतीने सम्यक विधि पूर्वक स्पर्शतो-सेवतो उपराध्य- नथी ते प्रमादवशताने लीधे अनिग्रहात्मा-विषयोथी नियंत्रित नथी करेल आत्मा जेणे एवो अने तेथीज रसोमा मधुरादिक विष-13 | भाषांतर यम प्रम् योमा गृह्यब्लोलुप रहेनारो ए जीव, बंधन-कर्मबंधनोपलक्षित राग द्वेषादि लक्षण संमार कारणने मूलथी उखेडी नाखतो नथी; अभ्य०२० ॥११९६॥ अर्थात तेना रागदेषादिक सर्वथा निवृत्त थता नथी. ॥ ३० का॥११९॥ आउत्तया जम्म य नस्थि काई । हरियाए भामाए तहेसणाए । आयाणनिक्खेवदुगंछणाए। न धीरजायं अणुजाइ मग्गं । १०॥ जे साधुने ईर्यागमन आगमन समिति, भाषाभाषा समिति, तथा एषणा माहार ग्रहण समिति, तेमज भादान निक्षेप वस्तु लेवा मकवा कारुप समिति, अने दुगछणा-परिष्ठापना समिति; आ पांच समितिने विषये कोइ पण प्रकारनी आयुक्तता-कुशलता नथी होती ते साधु धीर-तीर्थकरादि मा महापुरुषोये गमन करेला नार्गने अनुमरी ककतो नधी. ४. व्या०-हे राजन् ! म साधुर्धारयातं मार्ग नानुयाति, धीरैर्महापुरुषैस्तीर्थकरेंगणधरैश्च यातं प्राप्तं, अर्थान्मोक्षमार्ग न प्रामोति, स कः ? यस्य साधोरीयां गमनागमनसमिती, तथा भाषायां, तथैषणायामाहारग्रहणसमितौ पुनरादाननिक्षेपणसमिती, वस्तूनां ग्रहणमोचन विधौ, तथा 'दुगंछणाए' इति उच्चारप्रश्रवणश्लेष्मजल्लसिंघाणादीनां परिष्टापनसमिती आयुक्तता काचिन्नास्ति. ॥ ४०॥ हे राजन् ! ते साधु धीर=महापुरुषतीर्थकर गणधरादिके यात प्राप्त मार्ग अर्थात् मोक्षमार्गने अनुगत थइ शकतो नथी. ते For Private and Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kotbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कोण? जे साधु इर्या ममिति एटले जवा आववाना नियमो. भाषा समिति-बोलवाना नियमो, एपणा समिति आहार ग्रहणना नियमो, उत्तराध्य आदाननिक्षेप ममितिब्बस्तु लेवा मुकवाना नियमो तथा दुगंछणा समिति एटले मल, मूत्र, कफ, जल्ल-शरीर परनो मेल, लीट; इत्या-171 पन सूत्रमा माषांतर बादिकने ठेकाणे पाडवाना नियमो. आ पांच समितिने विषये जेने कोइपण प्रकारनी आयुक्तता-नियमितता-कुशळता होती ना.।४। । ॥११९७R अध्य०१० चिरंपि से मुंडरूइ भवित्ता । अधिरव्यए तवनियमेहिं भट्टे । चिरंपि अपाण किलेसइत्ता । न पारए होड हु संपराए ते अस्थिबनवाळो नथा तपोनियमधी भ्रष्ट पचो पुरुष चिरकाळ पर्यंत केवळ मुंडरुनि-लोचमात्रमा रुचिवाने रहाने दीर्घकाळ सूधी आम्माने क्लेश आपीने पण संपराय=भा समारनो पग-पार पामतोज नथी. ४i व्या-स पूर्वोक्तः पंचममितिरहितो मुन्याभामश्चिरं मुंडरूचिर्भूत्वा, आत्मानमपि चिरं क्लेशयित्वा क्लेशेद पातयित्वा, हु इति निश्चयेन संपराए संसारे पारगो न भवति, कीदृशः सः ? अस्थिरव्रतोऽस्थिराणि व्रतनि यस्य सोऽस्थिरतनः पुनः कीदृशः सः ? तपोनियमभ्रष्टा. यः कदापि तपो न करोति, तथा पुनर्नियममभिग्रहादिकं च न करोति, केवलं द्रव्यमुंडो भवति, स संसारस्य पारं न प्रामोतीत्यर्थः ॥ ४ ॥ ते पूर्वोक्त पंच ममिति रहित मुन्यामाम (मुनि जेवो भासतो) पुरुष, चिरकाळ मुंडरुचि-मात्र लोचने विषयेज रुचिवाळो-रहीने, तेमज पोताना आन्माने पण चिरकाळ पर्यंत क्लेश आपीने 'हु' निश्चये संपराय संसारनो पारंगत थतो नथी. ते मुन्याभास केको? |जेनु कोइपण व्रत स्थिर नथी, वळी तपो नियमथी भ्रष्ट थयेलो; अर्थात् जे कोइपण तपना नियमोनुं यथावत् पालन करतो न होय त अथवा जे कदापि तप करतो न होय तेमज नियम जे अभिग्रहादिक ते पण न करतो होय किन्तु केवळ लोचमा रुचि राखे एटले For Private and Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपराध्ययवत्रम् ।११९८॥ रिक्तो मुष्टिरसारा निर्गुणत्वादुपेक्षणीय *SASARA | मात्र द्रव्यमुंडज होय तेवो साधु संसारना पारने पामतो नथी. ॥ ४ ॥ पोल्ले व मुट्ठी जह से असारो। अयंतिए कूडकहावणे वा राडामणी वेरुलियप्पगासे । अमहरघए होइ हु जाणएसु ।४२। भाषांतर ते-मुन्याभास, पोली-खाली मुट्ठीना जेवो असार छे तथा कूटकार्षापण बनावटी शिका जेवो अयंत्रित-अनादरणीय छे. वैदूर्य (लीलु पार्नु) | मणिना जेवो प्रकाशवान् होय तो पण राहामणिकाचमणि तेना जाणकार सवेरी-नी आगळ निश्चये ते अमहर्च एटले कंहपण मूल्य विनानोज थवानो. १२ 'अच०१० ॥११९८॥ । व्या०-स पूर्वोक्तमुंडरूचिरसारो भवति, अंतःकरणे धर्माऽभावाद्रिक्तोऽकिंचित्करो भवति.सक इव पोल्लो मुष्टिरिव, यथा रिक्को मुष्टिरसारो मध्ये शुषिर एव. तथा समुंडरूचिः कूटकार्षापण इवाऽसत्यनाणकमिवाऽयंत्रितो भवति, न यंत्रितोऽयंत्रितोऽनादरणीयो निर्गुणत्वादुपेक्षणीयः स्यादित्यर्थ:. उक्तमर्थमर्थांतरन्यासेन दृढयति-हु यस्मात्कारणात् राढामणिः काचमणिः 'जाणएसु' इति ज्ञातृकेषु मणिपरीक्षकनरेषु वैडूर्यप्रकाशोऽमहर्घको भवति, बहुमूल्यो न भवति. वैडूर्यमणिवत् प्रकाशो यस्य स वैडूर्यमणिप्रकाशा, वैडूर्यमणिहरतेजाः. महत्यर्धा यस्य स महर्षः, महर्घ एव महार्घकः, न महाघकोऽमहाघकोऽबहुमूल्य इत्यर्थः. यथा मणिज्ञेषु वैडूर्यमणिबहुमौल्यः स्यात्तथा काचमणिबहुमौल्यो न स्यात् एवं धर्महीनो मुनिः साधुगुणज्ञेषु, यथा सद्धर्माचारयुक्तः साधुवंदनीयः स्यात्, तथा स मुंडरुचिर्वदनीयो न स्यादिति भावः ॥ ४२ ॥ ते पूर्वोक्त मंडरुचि असार होय छे, अर्थात्-अंताकरणमां जराय धर्मभावना न होवाथी रिक्त ठालो, कंइपण करी शके तेवो मा होतो नथी. ते केना जेवो होय छे ? पोल-खाली मुट्ठी जेवो, जेम खाली मुही असार मात्र अंदर पोलीज होय छे तेम बळी ए मणिपरीक्षकनरेषु व महत्थर्धा यस For Private and Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपराज्यपनवम् ॥११९९/ भाषांवर अध्य०२० १९९१॥ मुंडरुचि कूटकार्षापण जेवो अर्थात् खोटां नाणां जेयो अयंत्रित अनादरणीय थाय छ, कारण के निर्गुण होवाथी सर्वेए उपेक्षा करवा योग्य थाय छे. कहेला अर्थने अर्थान्तर न्यास वडे दृढ करे छ--जेमके राढामणि-काचनो बनावटी मणि, जाणकार पुरुषोमां | एटले रत्नना परीक्षक झवेरीना मंडळमां भले ते बैडूर्य मणि लीला पानांना जेवो प्रकाशवान् जणातो होय तो पण महोटी किम्म तनो नज गणाय. अर्थात्-जेम मणिना जाणकारोनी आगळ वैडूर्य मणि बहु मूल्य गणाय तेवो काचमणि कंड बहुमूल्य न गणाय, तेवी रीते धर्महीन मुनि पण साधुना गुणोना जाणकार अमिज्ञ पुरुषोनी आगळ जेबो सद्धर्माचरणी साधु वंदनीय मनाय तेवो ए ४ा मुंडरुचि कंद वंदनीय नज गणाय. ॥ ४॥ कुसीललिंग इह धारयित्ता । इसिज्झयं जीविय बृहइत्ता ॥ असंजए संजय लप्पमाणे। विणिघायमागच्छद से चिरंपि ते-आचारहीन साधु, कुशीललिंग-कुत्सिशीळनां चिन्हो धारण करीने तेमज जीविका अर्थे ऋषिध्वज रजोहरण तथा मुख वखिकाने वधारतो, पोते असंयत संयमहीन छतां 'हुँ संयमी छु' एम ज्यां स्यां कहेतो फरतो आ संसारमा घणा काळ पर्यंत विनिधात अनेक प्रकारनी बात-पीडा पामे के ३ व्या०-से इति स साध्वाचाररहित इह संमारे चिरं चिरकालं यावद्विनिघातमागच्छति पीडां प्राप्नोति. किं कृत्वा ? कुशीललिंग पार्श्वस्थादीनां चिहं धारयित्वा, पुनर्जीविकायै आजीविका ऋषिध्वज रजोहरणमुख| पोतिकादिकं बृंहपित्वा वृद्धि प्रापयित्वा, विवेशेण निघातं विनिघातं विविधपीडां. स किं कुर्वाणः ! असंपतः | सन्नहं संयत इति लालप्यमानः, असाधुरपि साधुरहमिति ब्रुवाणः ॥ ४३ ।। For Private and Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kotbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यनपत्रम् MP ते साधुना आचारथी रहित एवो मुन्याभास, आ संसारने विषये चिरकाळ सूधी विनिघात-विविधपीडा पाम्या करवानो, केम करीने ? कुशीललिंग पार्श्वस्थ आदिकना चिन्होने धारण करतो तथा जीविका माटे ऋषिध्वजरजोहरण तथा मुखपोतिका ४ भाषांतर वगेरेने वृद्धि पमाडतो विविध निघात-पीडा पामे छे, केम करतो? पोते असंयत-संयमरहित छतां लोकोमा 'हुँ संयमवाना अध्य०२० एम सर्वत्र कहेतो, एटले पोते खरो साधु नहिं छतां हुं साधु छ' एम बोलतो. (ज्या त्यां पीडा पामे .)। ४३ ॥ ॥१२००। विसं तु पीयं जह कालकूट । हणाइ सत्थं जह कुग्गहीयं ।। एमेव धम्मो विनओवबनो। हणाइ बथाल इवाविवन्नो।४।। जेम पीधेलु कालकूट विष हणे छ, बळी जेम कुगृहीत अवळी रीते पकडेलु शास्त्र (पोतानेज) हणे छे, एमने एम धर्म पण जो विषयोथी PI उप्पन युक्त होय से अविपक्ष-मत्रादिकथी बलहीन न करेला वेताळनी पेटे हणे 2. ४४ व्या०-हे राजन् ! यथा कालकूटो महाविषः पीतः सन् 'हणाड' इति हति, पुनरथा कुगृहीतं विपरीतवृत्त्या गृहीतं शस्त्रं हति, एवमेवानेनैव दृष्टांतन, महाविषकुगृहीतशस्त्रदृष्टांतेन विषयरिंद्रियसुखरुपपन्नो विषयोपपन्नो विषयसुखाभिलाषयुक्तो धर्मोऽपि हति. पुनः सविषयो धर्मोऽविपन्नवेताल इव हंति, मंत्रादिभिरकीलितः स्फुर बलो मंत्रयंत्रैरनिवारितबलो वेतालो महापिशाचो मारयति, तथा विषयमहितो धर्मोऽपि भारयतीत्यर्थः ॥४४॥ दा हे राजन् ! जेम काळकूट महाविष पीधुं होय तो हणे छे, वळी जेम कुगृहीत=विपरीतपणे गृहण करेलुं शस्त्र पकडनारनेज हणे छे एवीज रीते-आज दृष्टांत प्रमाणे, अर्थात् महाविष तथा कुगृहीत शखना दृष्टांत प्रमाणे, विषयोपपन्न-एटले इंद्रिय सूख बढे का संयुक्त एवो धर्म पण हणे छ, अर्थात् विषय सुखना अमिलापथी युक्त धर्म, मारकज नीवडे छे. जेम अविपन्न मंत्रादिकथी कीलित For Private and Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उचराध्य बम पत्रम् ॥ १२०१ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न थयेलो एटले मंत्रयंत्रादिक बडे जेनुं बल रोकवामां नथी आब्युं एवो अप्रतिबद्ध बळवाळो वेताळ - महापिशाच जेम मारे छे तेम विषय सेवन युक्त धर्म पण मारनारोज थाय. ॥ ४४ ॥ जो लक्खणं सुविणं पउंजमाणे । निमित्तको ऊहलसंपगाढे || कुहेडविजा सवदारजीवी । न गच्छई सरणं तंमि काले ॥४५॥ जे साधु, लक्षणसामुद्रिकशास्त्र तथा स्वशास्त्राना प्रयोग करतो होय तथा निमित्त भूकंप वगेरे तथा कौतूहल एटले लोकोने जोड़ने आश्रयं पमादे तेवा हाथ चालाकीना प्रयोगोमां आसक्त होय तेमज फुटुबिधा मंत्रयंत्र दोराधागा वगैरे आश्रवद्वार उपर आजीविका करतो होय ते, ते काळे एटले ए बंधक कर्मोंना फळोदयकाळे कोइपण शरण पामतो नधी. ४५ यः साधुर्लक्षणं प्रयुंजानः, सामुद्रोक्तं स्त्रीपुरुषशरीरचिन्हं शुभाशुभसूचकं प्रयुक्ते, गृहस्थानां पुरतो वक्ति. पुनर्यः माधुः, 'सुविणं' स्वप्नविद्यां प्रयुंजानो भवति, स्वप्नानां फलाफलं वक्ति. पुनर्यः साधुर्निमित्तकौतूहलसंप्रगाढो भवति, निमित्तं च कौतूहलं च निमित्तकौतूहले, तयोः संप्रगाढोऽत्यंतासक्तः स्यात्, तत्र निमित्तं भूकंपोल्कापातकेतू दयादि, कौतूहलं कौतुकं पुत्रादिप्राप्त्यर्थं स्नान भेषजौषधादिप्रकाशनं, उभयत्र संरक्तो भवति. पुनर्यः साधुः कुटकविद्याश्रवदारजीवी भवति, कुहेटका विद्याः कुहेटकवियाः, अलीकाश्चर्यविधायिमंत्रतंत्रयंत्रज्ञानात्मिकाः, ता एवाश्रवद्वाराणि तैर्जीवितुमाजीविकां कर्तुं शीलं यस्य स कुहेडकविद्याश्रवदारजीवी. एनादृशो यो भवति, हे राजन् ! परं तस्मिन् काले लक्षणस्वप्ननिमित्तकौतूहल कुहेटकविद्याश्रवद्वारोपार्जितपातकफलोपभोगकाले स साधुः शरणं त्राणं दुःकृतरक्षाक्षमं न गच्छति न प्राप्नोति तं साधु कोऽपि दुःखान्नर कलिर्य For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०२० ॥ १२०१ ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ARRA+ मापावर ग्योन्यादौ न त्रायते इत्यर्थः ॥ ४५ ।। जे साधु, लक्षण शाख-स्त्री पुरुषोनां सामुद्रिक शुभाशुभ चिन्होना सूचक शास्त्रना प्रयोग करतो होय, एटले स्त्री पुरुष गृहउचराध्ययम सत्रम् स्थोने कहेतो होय तथा स्वप्नशास्त्र-स्वप्ननां सारां नरतां फळ दर्शवनार शास्त्रनो पण प्रयोग-उपयोग करतो होय; बळी जे साधु ॥१२०२॥ निमित्तकौतूहल संप्रगाढ-एटले निमित्त-भूकंप, उल्कापात, केतुनो उदय, इत्यादिक, तथा कोतूहल-पुत्र प्राप्ति माटे स्नान औषध नमक वगेरे चींधवां वगेरेमा संसक्त लाग्यो रहेतो होय, वळी जे साधु कुहेरक विद्या-एटले मंत्र तंत्र यंत्र वगेरेथी लोकोने आश्चर्य पमाडे PM तेवी कल्पनाओ जेवा आश्रवद्वार चडे आजीविका करवाना शीळवाळो होय तेवो साधु. हे राजन् : तेवे टाणे-एटले ए लक्षण, स्वप्न, निमित्त, कौतूहल, कुहेटकविद्या वगेरे आश्रवद्वारवडे उपार्जन करेला पातकोना फलोनो उपभोग समय आवे त्यारे ते साधु पोते करेला दुःकृत परिणामथी रक्षा करवा समर्थ कइपण शरण पामतो नथी, ते टाणे ए साधुने नरक तिर्यग्योनि वगेरे दुःखोथी कोइपण त्राण रक्षण आपी शकतो नथी, तेने कोइ बचावनार मळतो नथी. ॥ ४५ ॥ दतमंतमेणेव उसे असीले । मया दुही विपरियासुवेई ॥ संधावइ नरगतिरिक्खजोणिं। मोणं विराहित्तु असाहुरूवे ते अशील शीलरहित साधु, अतिशय अज्ञान बड़े सदा दुःखी थतो विपर्यास-विपरीत भावनाने पामे छे. तथा असाधुरुप ए मुंदरुचि, मौन साधु धर्मनी विराधना करीने नरकगतिने पामे के अशा तियग्योनि पामवा 'संप्रधावति'-दोडे थे, वेगथी जाय के. ४६ व्या-तु पुनः स द्रव्यमुंडोऽसाधुरूपो मौन विराध्य साधुधर्म दूषयित्वा नरकतिर्यग्योनि संधापति, सततं गच्छति. पुनः सोऽशीलः कुशीलो विपर्यासमुपैति, तत्वेषु वैपरीत्यं प्राप्नोति, मिथ्यात्वमूढो भवतीति भावः. HARA For Private and Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उचराध्ययम सूत्रस् ॥१६०३ ॥ www.kobatirth.org कीदृशः सः १ तमस्तमसैव सदा दुःखी, अतिशयेन तमस्तमस्तमः तेन तमस्तमसैवाऽज्ञानमहांघकारेणैव संयमविराधनाजनित दुःखसहितः ॥ ४६ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बळी ते द्रव्यमुंड असाधुरुप साधु, मौननी विराधना करी, अर्थात् साधु धर्मने दूषित करी नरक तथा तिर्यग्योनि प्रति दोडे छे- सतत जाय छे तेमज ते अशील-कुशीलियो द्रव्यसाधु विपर्यास पाने छे, एटले तस्वने विषये विपरीतभाव पामे छे अर्थात् मिथ्यात्वमूढ बने छे. ते केवो होय हे ? तमस्तमः = घोर अज्ञानवडे करीने सदाय दुःखी रहेतो; अर्थात् अज्ञानरुपी महांधकारवडे करीने सर्वदा संयम विराधना जनित जे दुःख तेथी क्लेश पाम्या करतो. ॥ ४६ ॥ उद्देसियं की गड नियागं । न मुंबई किंचि अणेसणिज्जं ॥ अग्गीव वा क्वी भविता । इओ चुओ गच्छइ कट्टु पावं ॥ ४७ ॥ arya atita तैयार करेलो, साधुने माटे वचातो लावेलो तथा कोइ गृहस्थने त्यां नियत करेलो, एवो सदोष आहार जे साधुप गृहण म कराय सेवो आहार जे साधु नधी मूकतो, ते अग्निना जेवो सर्वभक्षी थाने आ भवधी व्यवीने पाप करी दुर्गति पाने के. ४७ व्या०—पुनर्यः साधुपाश उद्देशिकं दर्शनिन उद्दिश्य कृतमुद्देशिकमाहारं, नित्यकं नित्यपिंडं गृहस्थस्य गृहे नियतपिंड, एतादृशं सदोषमाहारमनेषणीयं साधुनाऽग्राह्यं न मुंचति, जिह्वालांपत्येन किमपि न त्यजति, सर्वमेव गृह्णाति सोऽग्निरिव सर्वभक्षीभूय हरितशुष्कप्रज्वालको वैश्वानर इव भूत्वा प्रासुकाहारं भुक्त्वा, इतरच्युतो मनुष्य भवाच्च्युतः कुगतिं व्रजति किं कृत्वा १ पापं कृत्वा, संयमविराधनां विधाय ॥ ४७ ॥ For Private and Personal Use Only भाषांतर अभ्य०२० ||१२.३॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अभ्य०१० ॥१२०४॥ वळी जे अधमसाधु, उद्देशिक-साधुने जोया पछी तेने उद्देशीने खास तैयार करेलो आहार, तथा ए साधुने माटे खास वेंचातो आणेलो तेमज नित्यक-कोई गृहस्थने त्यां हमेशने माटे नियत करेलो आहारपिंड; आवा साधुओए अनेषणीय गृहण करवाने यनरत्रम् ॥१२०४॥ | अयोग्य सदोष आहार नयी मुकतो; अर्थात् जिह्वानी लोलुपताने लीधे कंइपण छोडतो नथी किंतु बधुंय गृहण करे छे ते, अग्निनी | पेठे सर्वभक्षी बनीने, एटले अग्नि जेम लीला सूकां तमामने बाळे छे तेम आवो साधु पण गमे तेवो आहार खाइ अहींथी च्युत थइ-अर्थात् आ मनुष्यभवथी च्यवीने कुत्सित गतिने पामे छे. शुं करीने ? पाप करीने, एटले उपर कया प्रमाणे संयमनी विरा है धना करीने-दुर्गति पामे छे. ॥ ४७ ।। न त अरी कंठछित्ता करेइ ज से करे अप्पणिया दुरप्पा से णाहई मच्चुमुहं तु पत्ते । पच्छाणुतावेण दयाविहूणो ने (आचार भ्रष्ट) साधुने गीतानी दुराग्नता जे (अनिष्ट) करे छे तेवु, कंठने छेदवाबाळो शत्रु पण भई करतो नथी. बळी दया विनानो ए। ला साधु ग्यारे मृत्यु मुखे पहोंचे हे रयारे पश्चाताप करीने जाणे के. ४८ व्या-हे राजन्नात्मीया दुरात्मता स्वकीया दुष्टाचारप्रवृत्तिर्यमनर्थ करोति, तमनर्थ कंठे छेत्ता कंठच्छेदकोरिरपि न करोति. प्राणापहारकाद्वैरिणोऽपि दुरात्मता दुष्टा. दुष्टाचारप्रवृत्त आत्मा आत्मन एव घातकदिति दाहा. स च दुष्टाचारप्रवृत्त आत्मा मृत्युमुखं प्राप्तः सन् 'गाई' इति ज्ञास्यति. स्वयमेवेति शेषः. केन ? पश्चाद| नुतापेन, हा ! मया दुष्टं कर्म कृतमिति पश्चात्तापेन मरणसमये ज्ञास्यति. कीदृशः स दुरात्मा? दयाविहीनः ॥४८॥ हे राजन! पोतानीज दुरात्मता-पोते करेली दुष्टाचार प्रवृत्ति, जे जे अनर्थ करे छे तेवो अनर्थ कंठने छेदनारो शत्रु पण करी For Private and Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उपराष्य सूत्रम् ॥१२०५ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शकतो नथी. अर्थात्-प्राण लेनारा बैरी करतां पण पोतानी दुरात्मता अधिक हानिकर ले-केमके दुष्टाचारमां प्रवृत्त थयेलो पुरुष | पोताना आत्मानोज घात करनार बने छे एवं हार्द छे. ए दुष्टाचारमां प्रवृत्त थयेलो आत्मा ज्यारे मृत्यु मुखने पामे छे त्यारे ते जाणे छे; पोताने ते वख्ते थता पश्चाताप उपरथी जाणे हे के- 'हाय रे ! में दुष्ट कर्म कर्यां के जेने परिणामे आ दुःख थाय छे' एम ते दयाविहीन थयेलो मरण समये जाणे छे. ॥ ४८ ॥ निरडिआ नग्गरुई उ तस्स । जे उत्तमट्टे विवज्जासमेड़ | इमेवि से नत्थि परेवि लोए। दुहओवि से झिज्जद तत्थ लोए जे साधु उत्तम अर्थमा विपर्यास पाने के, अर्थात श्रेष्ठ साधनामा वैपरीत्य धारे हे तेनी ननतारुचि साधुधर्म पालननी रुचि निरर्थकज छे. तेवा साधुने आ लोक पण नथी तेम पर लोक पण नथी. ते साधुना बेय लोक- आ लोक तथा परलोक-क्षीण घाय के; ते साधु उभय भ्रष्ठ धाय छे. ४९ व्या०-हे राजन् ! य उत्तमायें विपर्यासमेति, तस्य नाग्न्यरुचिर्नाग्न्येि श्रामण्ये रुचिरिच्छा निरर्धिका उत्तमः प्रधानोऽथों मोक्षो यस्मात्स उत्तमार्थः, तस्मिन्नुत्तमार्थे, अर्थात्पर्यत ममयाराधनरूपे जिनाज्ञाराधने वैपरीत्यं प्रामोति, दुरात्मत्वे सुंदरात्मत्वज्ञानं प्राप्नोति, तस्य नग्नत्वादिरुचिर्निर्वस्त्रादिक्लेशवांछा निःफला. मिथ्याविनो हि कष्टं निःफलं, तो अन्यस्य पुरुषस्य तु किंचित्फलं स्यादेव, परंतु मिथ्यास्विनो नग्नत्वरुचेरर्थाद् द्रव्यलिंगिनोऽयं लोको नास्ति, लोचादिनग्नत्वादिकष्टसेवनादिहलोकसुखमपि नास्ति, पुनस्तस्य द्रव्यलिंगिनः संयमविराधनातः परलोकः परलोकसुखमपि नास्ति, कुगतिगमनाद् दुखं स्यात्, तत्रोभयलोकाऽभावे सति स धर्मभ्रष्टो द्विधाप्यैहिकपारलौकिकसुखाऽभावेनो भगलोकसुखयुक्तान्नरान वलोक्यो भयलोक सुखाद् भ्रष्टं मां धिगिति चिंतया For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०२० ||१२०५॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kotbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उचराध्य मनवम् ॥१२०६॥ 159:34ACHAR 'झिज्झई' इति क्षीयते जीणों भवति. मनसि दूयते इत्यर्थ ।। ४९ ॥ हे राजन् । जे उत्सम अर्थमा विपर्यास पामे छ तेनी नाग्न्यरुचि श्रामण्य (चारित्र)नी इच्छा निरर्थकज छे.-अर्थात्-जेनाथी ६ मापनि मोक्षरुप अर्थज उत्तम छे एवा पर्यंत समय-मरणकाळ-ना साधनरुप जिनाबाना आराधनमा जे वैपरीत्य-विपरीतभाव पामे छे, तेनी | अम.. नग्रवादिरुचि एटले वस्त्र वगर रही क्लेश भोगववानी वांछना निरर्थक-निष्फळ समजवी. मिथ्यात्वीनुं कष्ट निष्फळज छे, वख्ते ॥१२०॥ अन्य पुरुषने तो कंइक पण फळ मळे किंतु मिथ्यात्वीने केवळ द्रव्यलिंगीने तो आ लोके नथी एटले लोच तथा ननत्व इत्यादि कष्ट सेवनथी आ लोकनु सुख नथी तेम मात्र द्रव्यलिंगी साधुनो संयम विराधना वडे परलोक पण नष्ट थतां परलोक सुरख पण नथी. कुगतिमां जबाथी दुःखज थाय छे. एम बेय लोकना अभावथी र धर्मभ्रष्ट बन्ने प्रकारे-आ लोक तथा परलोक संबंधी सुखना अभावे उभय लोकना सुखवाळा लोकोने जोईने 'अरेरे बेय लोकना सुखोथी भ्रष्ट थयेला मने धिकार छ आवी चिंताथी क्षीण थाय छे-हमेशां मनमां वाया करे छे. ।। ४९।। |एमेवहाछंदकुसीलरूवे। मग्गं विराहित जिणुत्तमाणं कुररी इवाभोगरसाणुगिद्धा निरसोया परितावमेह ।। एबीज रीते मरजीमा आवे तेम वर्तनार कुशीलरुप-दुष्टशीळ-साधु, जिनोत्तमना मार्गनी विराधना करीने, भोगना रसमा लोलुप तथा निर्थक शोक करती कुररी-टीटोडीनी पेठे परिताप पामे ले. ५० व्या०-एवमेवामुना प्रकारेण महाव्रतविराधनादिप्रकारेणैव यथाछंदः कुशीलरूपः स्वकीयरुचिरचिताचारः कुत्मितशीलस्वभावः साधुर्जिनोत्तमानां तीर्थकराणां मार्ग विराध्य परितापं पश्चात्तापमेति, क इव प्रामोति? Sctica-CARKAR For Private and Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मनवम् ॥१९०७ भोगरमानुगृद्धा कुररीच पक्षिणीव, भोगानां जिलास्वाददायकानां मांसानां रसेऽनुगृद्धा लोलुपा भोगरसानुगृद्धा. भाषांतर पुनः कीदृशी कुरी? निरसोया, निरर्थक शोको यस्याः सा निर्थकशोका. यथा हि मांसरमगृद्धापक्षिणी अन्ये. अभ्य०१० भ्यो महाबलेभ्यः पक्षिभ्यो विपत्ति प्राप्य शोचते, तद्विपत्तेः प्रतीकारमनवलोकयती पश्चात्तापं प्राप्नोति, तथा ४१२.७॥ संयमविराधको विषयाभिलाषींद्रियसुखार्थी माधुर्लोकद्वयानर्थ प्राप्नोति. ततोऽस्य स्वपरित्राणासमर्थत्वेनाऽनाध स्वमिति भावः ॥ ५० ॥ अथ यत्कृत्यं तदाह६ एज प्रकारे महावतोनी विराधना वगेरे प्रकारे यथाच्छंद-पोतानी मरजीमां आवे तेवी रीते कुशीलरूप निंदितशीळ स्वभाव वाळो साधु, जिनोत्तम तीर्थंकरोना मार्गनी विराधना करीने परिताप पामे छे. केनी पेठे ? भोगरस-जीभने स्वाद आपनारा मांस-16 रसमां अनुगृह्य-लोलुप तथा निरर्थक शोक करती कुररी पक्षिणीवी पेठे पश्चाताप पामे के. जेम मांसरसमां आसक्त थयेली पक्षिणी अन्य महाबळवाळा पक्षिओथी विपत्ति पामीने शोक करे छे. ते विपचिनो प्रतिकार नहि सूजबाथी मात्र पचाताप पामे छे, तेम ला संयमनो विराधक, विषयाभिलाषी इंद्रिय सुखार्थी माधु बेय लोकना अनर्थने पामे छे; तेथी ए पोतार्नु रक्षण करवाने समर्थन होबाथी अनाथज कहेवाय. ॥५०॥ हवे जे करवानुते कहे - सुचाण मेहावि सुभामियं इमं । अणुसासणं नाणगुणोववेयं ॥ मग्गं कुसीलाण जहाय सव्वं । महानियंठाण बए पहेणं ॥५१॥ हे मेधाविन्-बुद्धिमान् राजन् ! भा ज्ञान गुणोथी उपेत संयुक्त सम्पप्रकारे कहेल अनुशासन-उपदेवा वचनोने समितीने कुशीलना सर्व For Private and Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हामार्गने त्यजीने महानिर्गय महामुनियोना पंथे-मार्गे संचरो. ५१ व्या-हे मेधाविन् ! हे पंडित ! हे राजन् ! इदं सुष्टु भाषितं सुभाषितमनुशाननमुपदेशं श्रुत्वा मर्व भाषांतर यवत्रम् | कुशीलानां मार्ग जहायेति त्यक्त्वा महानिमंधानां महासाधूनां पथि मार्गे व्रजेस्वं चरेः ? कीदृशमनुशासन अध्य०३. ॥१२०८॥ ज्ञानगुणोपपेतं, ज्ञानस्य गुणा ज्ञानगुणास्तैरुपपेतं ज्ञानगुणोपपेतं. ॥ ५१॥ १२०८॥ हे मेधाविन्=पंडित ! हे राजन् ! आ सम्यक् प्रकारे भाषित-निरूपणा करायला अनुशासन-उपदेश वचनोने श्रवण करीने 13 सर्वे कुशीलीना दुष्टाचार जनोना मार्गने त्यजीने महानिग्रंथमहात्मा साधुओना पंथे-मागें तमे चालो. केर्बु अनुशासन ? ज्ञान | गुणोपपेत-मकळ ज्ञानगुणोथी संपन्न अनुशासन. ।। ५१ ।। चरित्तम यारगुणानिए तओ। अणुतरं मजमपालियाणं । निरासवे संम्बवियाण कम्मं । उवेड ठाणं विउलुत्तम धुवं॥15 | ततः पूर्वोक्त मार्गे संचस्वाथी चारित्राचार चारित्रनु सेवन तथा ज्ञान शीलादि गुणोथी अम्बित तथा निराश्रव माधवरहित बो साधु, अनुतर सर्वोत्कृष्ट संयमने पाळीने, तेमज कर्मने स्वपावीने विपुल-विशाल, उत्तम तथा ध्रुव शाश्वत स्थान-अर्थान्-मोन्न स्थानने प्राप्त थाय हे. ५२ व्या-ततस्तस्मात्कारणान्महानिग्रंथमागगमनान्निगश्रवो मुनिर्महाव्रतपालका माधुर्विपुलमनं सिद्धानामवस्थानादप्यसंकीर्ण, उत्तम मर्वोत्कृष्टं, पुनध्रुवं निश्चलं शाश्वतमेतादृशं मोक्षस्थानमुपैति प्राप्नोति, कीदृशः साधुः ? चारित्राचारगुणान्वितः, चारित्रस्याचारश्चारित्राचारश्चारित्रसेवन, गुणा ज्ञानशीलादयः, चारित्राचारश्च गुणाश्च चारित्राचारगुणास्तैरन्वितश्चारित्राचारगुणान्वितः अत्र मकार:प्राकृनत्वात्. किं कृत्वासाधुर्मोक्षप्रामोति? For Private and Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उचराध्य बन पत्रम ॥१२०९॥ - - अनुत्तरं प्रधानं भगवदाज्ञाशुद्धं संयम मप्तदशविधं पालयित्वा. पुनः किं कृत्वा ? कर्माण्यष्टावपि संक्षिपय्य क्षयं नीत्वा. एतावता चारित्राचार ज्ञानादिगुणयुक्तः, अत एव निरुद्धाश्रवः प्रधान संयम प्रपाल्य सर्वकर्माणि संक्षय मापांवर नीत्वा मोक्ष प्रामोतीत्यर्थः ॥ ५२ ॥ अधोपसंहारमाह अध्य.२० | ते कारणथी-महानिग्रंथना गार्गे संचरवाथी निराश्रय एवो मुनि-महाव्रतोतुं पालन करतो साधु, विपुल-अनंतसिद्धोनु ज्यां ॥१२०९॥ अवस्थान छे छतां जराय सांकड नयी एवं अने उत्तम सर्वोत्कृष्ट तथा ध्रुव-निश्चल शाश्वत एवा स्थान-मोक्षस्थानने पामे छे, न उत्तम करीने? चारित्रा चारगुणान्वित चारित्र सेवन तथा ज्ञाननीलादि गुणोथी अन्वित संयुक्त एवो साधु, अनुत्तर-प्रधान, अर्थात् HIGH ME भगवदाज्ञा प्रमाणेना विशुद्ध सत्तर प्रकारना संयमोनू पालन करीने तेमज आठे प्रकारनां कर्मोने खपावीने आटला उपरथी एम जणायूं जे-चारित्राचार तथा ज्ञानादि गुण युक्त थयेलो; अने तेथीज निरुद्धाश्रव होइ, प्रधान संयमोने पाळी, सर्व कर्मोने संक्षय पमाडी मोक्षने प्राप्त थाय छे-एवो अर्थ सूचव्यो. ॥५२॥ हवे उपसंहार कहे - एबुग्गदंतेवि महातवोधणे । महामुणि महापडले महायसे । महानियंठिजमिणं महामृयं । से काहए महया वित्थरेण ए प्रमाणे उपदंत-कर्मरुपी शप्रत्ये उग्र भयंकर तथा दांत-एटले इंद्रियादिनु दमन करनार, अने महातप एज जैन धन एवा तथा महाप्रतिज्ञाधारी अने मोटा यशवाळा ते महामुलये महानिधीव एटले महोटा साधु पुरुषोनु हितकर मा महाभुतपूर्वोक्त महोपदेश, महोटा विस्तारथी कहेल के. ५५ व्या०-एवममुना प्रकारेण श्रेणिकेन राज्ञा पृष्टः सन् स महामुनिमहासाधुमहता विस्तरेण वृहता व्याख्या For Private and Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir vi भाषांतर १२१०॥ [नेन इदं महानिग्रंथीय महाश्रुतमकथयत्. महांतश्च ते निग्रंथाश्च महानिग्रंथाः, तेभ्यो हितं महानिग्रंथीयं, महामु | नीनां हितमित्यर्थः. कीहशः सः उग्रः कर्म शत्रुहनने बलिष्टः, पुनः कीदृशः सः दांतो जितेंद्रिया, पुनः कीउपराध्यबनवम् दृशः महातपोधनो महच्च तत्तपश्च महातपः, महातपो धनं यस्य स महातपोधनः पुनः कीदृश ? महाप्रतिज्ञो १२१व्रते हतप्रतिज्ञाधारकः, पुनः कीदृशः महायशा महाकीर्तिः ॥ ५३॥ ..एम-उक्त प्रकारे श्रेणिक राजाना पूछवाथी ते महामुनि-महासाधु महोटा विस्तारथी एटले बहद् व्याख्यानरुपे आ महा|.निग्रंथीय महामुनिओर्नु हितकारक महाश्रुत-महोपदेश कहेल के. ते केवा? उग्र-कर्मशत्रुने हणवामां बलवान्, वळी दांत-जितेंद्रिय, महातपोधन-महोटुं तप एज जैन धन छे एका तथा महाप्रतिज्ञ एटले व्रत पाळवामां दृढ प्रतिज्ञाधारी अने महायशा एटले महोटी कीर्तिवाळा. ।। ५३ ।। ___... तुट्ठो हु सेणिओ राया। इणमुदाह कयंजली ।। अणाहत्तं जहाभूयं । सुडु मे उवदंसिय ॥ ५४॥ राजा श्रेगिक तुष्या=पंतोष पाम्या अने हाथ जोडीने आम बोक्या-के) आपे सारी रीते यथाभूत-खरेखरू (जेवु के तेयु) अनाथस्व मने उपदेश्युं ५५ | व्या-श्रेणिको राजा तुष्टो हु इति निश्चयेनेदमुदाहेदमवादीत. कीदृशः श्रेणिकः कृतांजलिबद्धांजलिः. | इदमिति किं ? हे मुने ! यथाभूतं यथावस्थितमनाथत्वं मे मम सुष्टुपदर्शितं, त्वया मे ममानाथत्वं सम्य. | ग्दर्शितमिति भावः ॥ ५४॥ श्रेणिक राजा निश्चये तुष्ट थइने आम वचन बोलवा लाग्या. केवा श्रेणिक ? कृतांजलिम्बे हाथ जोडीने. आ एटले | बोल्या ? techeechC%.. For Private and Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उपराज्ययम ॥१६११। www.kobatirth.org ते कहे छे. हे मुने ! यथाभूत- जेवं वस्तुताथी ले तेनुं अनाथपणुं मने आपे मारी रीते दर्शाव्यं तमे मने मारुं पण अनाथपणु सम्यक् प्रकारे समजा एवो भाव छे. ॥ ५४॥ तुम्हे सुद्धं खु मणुस्सजम्मं । लाभा सुलद्वा य तुमे महेसी ॥ तुम्हे साहाय संबंधवा । जं भे ठिया मग्गे जिणुत्तमाणं ॥ ५५ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तमे निश्वये मनुष्यजन्म साएं मेळन्युं तथा है महवें ! लाभ रुपवर्ग विद्या आदिकमी प्राप्ति पण तमे सारी रीते संपादन करी वळी तमेज सनाय तथा सांधव हो के जे जिनोसमना मार्गमां स्थित हो. ५५ व्या-किं श्रेणिक आह-हे महर्षे ! मानुष्यं जन्म 'खु' इति निश्चयेन सुलब्धं, सफलं त्वदीयं मानुष्यं जन्म. हे महर्षे । त्वयैव लाभा रूपवर्णविद्यादीनां लाभाः सुलब्धाः रूपलावण्यादिप्राप्तयः सुप्राप्ताः. हे महर्षे ! यूत्रमेव सनाथाः, आत्मनो नाथत्वान्नाथसहिताः च पुनर्यूयमेव सबांधवा ज्ञातिकुटुंबसहिताः यद्यस्मात्कारणात् 'मे' भवतो जिनोत्तमानां तीर्थकराणां मार्ग स्थिताः ॥ ५५ ॥ श्रेणिक राजा बोल्या १ ते कहे छे-हे महर्षे ! मानुष्य जन्म 'सु' निश्चये आपे सुलब्ध = सारं लीधुं, अर्थात् तमारुं मानुध्यजन्म सफळ थयुं. वळी हे महये ! रूप वर्ण विद्या वगेरेना लाभ पण तमेज सम्यक् प्रकारे मेळव्या कहेवाय. रूपलावण्यादिनी प्राप्ति पण तमने सफळ नीवडी गणाय तथा तमेज सनाथ छो-आत्माना नाथ होवाथी नाथ सहित छो अने बळी तमेज सबांधव = ज्ञाति कुटुंब सहित छो, कारण के 'ले' आप पोते जिनोम तीर्थकरोना मार्गमां स्थित छो=दृढताथी वर्चो हो. ॥। ६५ ।। For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०२० १२११० Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराज्ययानम् | ॥१२१२॥ CHA भाषांतर अध्य०१० ॥१२१२॥ % AC5 तं सिणाहो अणाहाणं । सधभूयाण संजया । वामेमि ते महाभाग । इच्छामि अणुसासिउं ॥ ५६ ।। है संयत ! तमे अनाथ एवा सर्वभूतजमाणीमात्रमा नाथ छो, तेथी हे महाभाग्यवान् ! तमने क्षमापन कर ईखमाबु छ भने अनुशासन आपना पासेची शिक्षण लेवा इच्छु छु. १६ व्या-हे संयन ! त्वमनाथानां सर्वभूताना अमानां स्थावराणां जीवानां नाथोऽसि. हे महाभाग ! हे महाभाग्ययुक्त ! ते इति त्वामहं क्षमामि. मया पूर्व यस्तवापराधः कृतः स शंतव्य इत्यर्थः. अथ भवतोऽनुशासयितुं त्वत्त शिक्षयितुमात्मानमिच्छामि, मदीय आत्मा तवाज्ञावर्ती भवत्वितीच्छामीत्यर्थः ।। ६६ । हे संयत-महामुने ! तमे अनाथ एवा आ सर्वभूत-त्रस तथा स्थावर जीवोना नाथ छो. हे महा भाग्ययुक्त! हुं नमने खमार्बु छु. में प्रथम आपनो जे अपराध कयों ते आपे क्षमा करवो. हवे हुँ आफ्नाथी मारा आत्माने कंपण अनुसासन-सदुपदेश शिक्षण मळे एम इच्छु छु. एटले मारो आत्मा आपनी आज्ञामां वः एम इच्छु छु.॥६॥ पुच्छिऊण मए तुम्भ । झाणविग्यो य जो कओ। निमंतिओ य भोगेहिं । तं सव्वं मरिसेहि मे ॥ ५७।। में तमने पूछीने तमारा भयानमा जे विन कर्यो तथा भोग बड़े में तमने निमंत्रित कर्या ते माझं सर्वे क्षमा करो. ५० व्या-हे महर्षे! मया तुभ्यं पृष्ट्वा प्रश्नं कृत्वा यस्तव ध्यानविघ्नः कृतः, च पुन गैः कृत्वा निमंत्रितः, भो स्वामिन् ! भोगान् ! सुंश्वेत्यादिप्रार्थना तव कृता, तं सर्व मे ममापराधं क्षंतुमर्हसि, मर्व ममापराध क्षमस्वेत्यर्थः ।। ५७॥ +4% A + For Private and Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir उचराध्य ॥१२१३॥ RASAC __हे महर्षे ! में तमने पूछीने एटले 'आ श्रामण्य तमे केम लीधुं ?, इत्यादिक प्रश्नो करीने तमारा ध्यानमा जे विघ्न को तेमज में आपने भोग करवा निमंत्रित कर्या, अर्थात्-'हे स्वामिन् भोगोने भोगवो' इत्यादि प्रार्थना करी ते सर्व मारा अपराध आपे धमाल | करवा योग्य छे, तो मारा ए सर्वे अपराधने आप क्षमा करशो. ॥ ५७ ।। एवं थुणित्ताण स रायसीहो। अणगारसीहं परमाइ भत्तीए ॥ सओरोहो सपरिअणो संबंधबो। धम्माणुरत्तो विमलेण चेपसा ॥ ५८ ॥ आवी रीते ते राजालोमा सिंहसमो श्रेणिक, अनगार-साधुओमा सिंहतुल्य ए मुनीनी परमभक्ति बड़े स्तुति करीने पोताना अवरोध जनाना सहित तथा परिजन बने बांधवोए सहित निर्मल चित्तधी धर्ममा अनुरक्त थयो, ५८ व्या०-स राजसु सिंहो राजसिंहः श्रेणिको राजा एवममुना प्रकारेण तमनगारसिंह मुनिसिंह परमयोत्कृ8.टया भक्त्या स्तुत्वा विमलेन निर्मलेन चेतसा धर्मानुरक्तोऽभूदिति शेषः, कीरशः श्रेणिका ? सावरोधोंत:पुरेण ६ सहितः, पुनः कीदृशः सपरिजनः सह परिजनैर्वर्तत इति मपरिजनो भृत्यादिवर्गसहितः पुनः कीदृशः १ स बांधवः सह बांधवैर्धातृप्रमुखैर्वर्तत इति सांधवः. पुरापि बनवाटिकायां सर्वातःपुरपरिजनबांधवकुटुंबसहित एव क्रीडां कर्तुमागात्, ततो मुनेर्वाक्यश्रवणात् सर्वपरिकरयुक्तो धर्मानुरक्तोऽभूदित्यर्थः ॥२८॥ ते राजाओमां सिंह जेवो राजसिंह श्रेणिक राजा आ प्रकारे ते अनगारसिंह साधुअोमा सिंहसमा मुनिने परम-उत्कृष्ट भक्ति बडे स्तुति करीने विमल=निर्मल चित्तथी धर्मानुरक्त थयो (एटलं शे लेवानुं ) केवो श्रेणिक ? सावरोध-अंतापुर सहित नेपाल SCHEES For Private and Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपराध्य पन स्त्रम् १२१४॥ पोताना परिजनोथी पण सहित एटले नोकर चाकर वगेरे सहित तथा बांधन-माइ भांडरु आदि सहित. प्रथम पण वनवाटिका बगीचामां पोताना सर्व अंतपुर परिजन बांधव कुटुंब सहितज क्रीडार्थ आग्यो हतो एटले मुनिना वाक्य श्रवणथी सर्व परिवारयुक्त भापनि धर्मानुरक्त-धर्ममां प्रीतिमान् थयो. ॥ ५८ ॥ बम०२० ॥१२१४॥ उस्ससियरोमकूवो । काऊण य पाहिणं ॥ अभिवदिऊण सिरसा । अझ्याओ नराहिवो ॥ ५९॥ उसित के रोमरूप जेना एवो ए नराधिप, ५ मुनिने प्रदक्षिणा करीने तथा मन्तकधी अभिवंदन कीने चालता थथा. ५९ ब्या०-नराधिपः श्रेणिकोऽतियातो गृहं गतः किं कृत्वा ? शिरसा मस्तकेनाभिवंद्य मुनि नमस्कृत्य, पुन: किं कृत्वा ? प्रदक्षिणां कृत्वा प्रदक्षिणां दत्वा. कथंभूतो नराधिपः ? 'उस्ससियरोमकूवों' उच्छ्वसितरोमकूपः, साधोदर्शनाद्वाक्यश्रवणादुल्लसितरोमकूपः । ५९ ॥ नराधिप श्रेणिक राजा अतियात-पोताना राजगृह भणी गया. केम करीने ? मस्तक वडे अभिवंदन करीने अर्थात् मुनिना चरणमा मस्तक नमावी नमस्कार करीने तथा प्रदक्षिणा करीने. नराधिप केवा थया हता? ए महात्माना दर्शनधी तथा तेमना वाक्योना श्रवणथी उल्लसित रोमरूप-सकळ गात्रमा रोमांच जेने उद्भवेल के एवा. ॥ ५९॥ इयरोवि गुणममिद्धो । तिगुत्तिगुत्तो तिदंडविरओ य॥ विहंग इव विप्पमुको। विहरइ वसुहं विगयमोहोत्तिबेमि।६०४ | इतर महात्मा साधु-पण मुनिना गुणोधी संयुक्त तथा विगुप्तिगुप्त अने वि विरत होह पक्षीनी पेठे विषमुक्त धयेका विगतमोह थाने वसुधा उपर विहरवा लाम्या 'एम हु कहुं छु' ६. RRCHIMBORESC-SA For Private and Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपराभ्यपात्रम् भाषांन अम्ब०१० १२१५० %AATER व्या०--अथेतरोऽपि श्रेणिकापेक्षयाऽपरोऽपि मुनिरपि वसुधां पृथिवीं विहरति विहारं करोति. कीदृशः सन् ? विमोहः सन् मोहरहितः सन्, अर्थात् केवली सन्. कीदृशो मुनिः? गुणसमृद्धः सप्तविंशतिसाधुगुणसहितः, | पुनः कीदृशः त्रिदंडविरतस्त्रिदंडेभ्यो मनोगकायानामशुभव्यापारेभ्यो विरतः, पुनः कीदृशः १ विहग इव विप्रमुक्तः, पक्षीव कचिदपि प्रतिबंधरहितो निःपरिग्रह इत्यर्थः, इति सुधर्मास्वामी जंबूस्वामिनंप्रति वदनि, अह मिति ब्रवीमि, इति महानिग्रंथीयमध्ययनं विंशतितमं संपूर्ण ॥२०॥ 8 इति श्रीमदुत्तराध्ययनसूत्रार्थदीपिकायामुपाध्यायश्रीलक्ष्मीकीर्तिगणिशिष्यलक्ष्मीवल्लभगणिविरचितायां महानिग्रंथीयाख्यं विंशतितममध्यनं समा.॥ श्रीरस्तु.॥ ___अनंतर-पछी इतर एटले श्रेणिकनी अपेक्षाये अपर ए मुनि पण वसुधा पृथ्वीपर विहार करवा लाग्या. केवा थइने ! विगत मोहम्मोहरहित थइने अर्थात् केवळी थइने. मुनी केवा ? गुणसमृद्ध सतावीश साधुना गुणोथी संयुक्त वळी त्रिदंड विरत-एटले दामन वाणी तथा कायाना अशुभ व्यापारथी विराम पामेला अने पक्षीनी पेठे विप्रमुक्त-अर्थात चारे कोरथी प्रतिबंध रहित निःपरि ग्रह थयेला तथा त्रिगुप्तिगुप्त-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति तथा कायगुप्ति ए प्रणे गुप्तिथी रक्षित-मुनि, राजाथी छूटा पड़ी विहारप्रवृत्त यया, 5. एम ९ गोलं ' आम सुधर्मास्वामीये बंदस्वामीने कयु. ॥६॥ ए प्रमाणे आ महानिग्रंथीयनामक बीशमं अध्ययन पूर्ण थयु. इति श्रीमद् उत्तराभ्ययननी उपाध्याय श्रीलक्ष्मीकीर्तिगणिना शिष्य लक्ष्मीवल्लभगणिए विरचित सूत्रार्थदीपिका नामनी टीकामां महानिग्रंथीय नामर्नु वीश अध्ययन समाप्त ययु. SACAARAKHAND For Private and Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥अथैकविंशमध्ययनं प्रारभ्यते ॥ पूर्वस्मिन्नध्ययनेऽनाथत्वमुक्तं, तदनाथत्वं विविक्तचर्यया विचार्यते, अतोऽस्मिन्नध्ययने विविक्तचर्योच्यते- 18 मातिर यात्रम् पूर्वनाधीशमा अध्ययनमा अनाव कडेवामां आव्यु ते अनाथपणानो विचार विविक्त चर्चावडे थइ थइ शके तेटला माटे | अध्य०२१ ॥१२१६॥ १२१६॥ आ एकवीशमा अध्ययनमा विविक्तचर्या एकांतचर्या कहेवामां आवे छे. चंपाए पालिए नाम । सावए आसि वाणिए || महावीरस्म भगवओ। सीसो सो उ महप्पणो ॥१॥ चंपा नामनी नगरीमा पालित नामे श्रावक वाणीमो हतो ते महात्मा श्रीमहावीर भगवाननो शिष्य हतो. ॥१॥ व्या.--'चंपाए' इति चपायां नगाँ पालित इति नाम्ना श्रावको देशविरतिधारी वणिगासीत् . कीदृशः स वणिक् ? भगवतो महाबीरस्य महात्मनो महापुरुषस्य तीर्थंकरस्य शिष्यः शिक्षाधारका. 'सो उ' इति म पुनः जापालितो नाम श्राद्धः कीदृशो वर्तते ? तदाह-॥१॥ ___चंपा नगरीमा पालित एवा नामनो श्रावक एटले देशविरतिधारी वाणीयो हतो. ए वणिक् केवो हतो? भगवान् महात्मा |श्रीमहावीरस्वामी तीर्थकर महापुरुषम्नो शिष्य-अर्थात् महावीरस्वामीए तेने प्रतिबोध करी श्रावक करेलो तेथी ते तेमनो शिष्य कडेवायो. ॥ १ ॥ हवे ए पालित नामनो श्राद्ध केवो हतो ते कई छ निग्गंथे पावयणे । सावए सेवि कोविए । पोएण ववहरते । पिहुंडं नगरमागए ॥२॥ *SHA KESARJANUAR For Private and Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उपराज्य नत्रम् ॥१२१७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निधना प्रवचनमां, एटले वीतरागना सिद्धांतां पण विद्वान् एव ते श्रावक पहाणवटे व्यवहार कस्तोकस्तो एकसमये पिहुंड नामनानगरे आदी पो. व्या० - स पालितनामा श्रावको महात्मा निग्रंथे प्रावचने श्रीवीतरागस्य सिद्धांते कोविदोऽभूत् स पालित एकदा पोतेन व्यवहरन् प्रवहणेन वाणिज्यं कुर्वन् पिहुंड नाम नगरमागतः चंपानगरीतः प्रवहणमामा व्यापारा पहुंडनगरं समायात इति ॥ २ ॥ ते पालित नामनो श्रावकमहात्मा निग्रंथ प्रावचनमां अर्थात् वीतराग प्ररूपित सिद्धांतमां कोविद पंडित हतो, ते पालित एकदा- वहा| वडे वाणिज्य = व्यापार करतो पिहुंड नामना नगरे आवी पहोंच्यो. चंपानगरीथी वहाणमां चडी व्यापारार्थे पिहुंड नगर आवी चढ्यो. पिहुंढे ववहरतस्स | वाणिओ देह धूपरं । तं ससत्तं पइगिज्झ । सयं देतं पट्टिए ॥ ३ ॥ हवे एपिड नगरमभ्यवहारयापार करवा लाग्यो त्यारे कोइ एक वाणीये लेने (पोतानी) दीकरी दीधी=परणावी, पछी ते श्री सरस्वा= गर्भिणी थह एटले तेजीने माथे इ ए पालित स्वदेश तरफ प्रस्थित भयो. ३ व्या०—अथ तत्र पिहुंडनगरे कश्चिद्वणिक व्यवहरतस्वरूप पालितस्य गुणैः संतुष्टः सन् पालिताय धूयरमिति पुत्रीं ददाति स च पालिनस्त्रां परिणीय कतिचिद्दिनानि तत्र स्थित्वा तां वणिक्पुत्रीं ससत्वां सगर्भा प्रतिगृह्य स्वक देशप्रति प्रस्थितः पिहुंडाचंपांप्रति चलितः ॥ ३ ॥ पछी ते पिहुंडनगरमां व्यापार करतो हतो तेवामां ते पालितना गुणोथी संतुष्ट थयेला कोइ एक वणिके पोतानी दुहिता-पुत्री पालितने दीधी-परणावी. हवे तेणीने परणीने केटलाक दिवस ते पिहुंडनगरमा रह्यो तेवामां ते वणिक्नी पुत्री ससन्त्वा = सगर्भा For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०२१ ॥१२१७० Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kotbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर बम-११ १२१८॥ थइ एटले तेणीने साथे लइने स्वदेश भणी प्रस्थित थयो-पिहुंडनगरथी चंपानगरी तरफ चाल्यो. ॥ ३ ॥ अहपालियरस घरणी । ममुइंमि य पसबई ॥ अह दारण तहिं जाए । समुद्दपालोत्ति नामए ॥४॥ Meीते पालित पिहुंडथी वहाणमा चंपा तरफ कार्यों त्यारे तेनी गृहिणीए समुद्रमा पुत्रने जन्म आप्यो समुद्रमा प्रसव थवाधी ते पुत्रनु समुद्रपाल एलुं नामराल्यु. व्या-अधानंतरं पालितस्य गृहिणी समुद्रे दारकं प्रसूतेस्म. अथ तस्मिन् दारके पुत्रे जाते सति समुद्रपाल | इति नामतः स बाल आसीदिति शेषः ॥ ४ ॥ । तदनंतर पालितनी धरणी-धणीयाणी ए समुद्रमां-वहाणमा पुत्रने प्रसव्यो. अने पुत्र जन्म्यो, आ पुत्र समुद्रमा जन्म्यो ते | उपरथी ते बालकनुं समुद्रपाल आईं नाम राख्यु.॥४॥ खेमेण आगा चंपं । सावए वाणिए घरं । संवदइ घरे तस्स । वारए से सुहोइए ॥ ५ ॥ ए श्रावक वाणीयो सेमे-कशले चपानगरीमा पोताने घरे माग्यो भने घरमा तेनो सुखने उचित बालक बधवा मांड्यो, ५ व्या०--तस्मिन् पालिते नानि वणिजि चंपायां नगाँ क्षेमेण सुखेन गृहमागते मति समुद्रपालो बालकः &संवर्धते. कीदृशः स बालकः १ सुखोचितः सुस्खयोग्यः ॥५॥ । ने पालित नामनो बहाणवेपारी वाणीयो चंपानगरीमा क्षेमे-सुखपूर्वक घरे आव्यो अने तेनो समुद्रपाल नामनो सुखने योग्य 18| एवो चालक प्रतिदिन वृद्धि पामवा लाग्यो. ॥ ५॥ ACCINS SAKHARA For Private and Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailaseagarsuri Gyanmandie उत्तराव्य भाषांत मनवम् ॥११॥ यावत्तरीकलाओ य । सिक्विए नीइकोविए ॥ जोवणेण य संपन्ने । सुरुवे पियर्दसणे ॥६॥ ते समुद्रपाल बहोंतेर कलाओ शीण्यो तथा नीतिमां कोविद चतुर थयो, वळी यौवनवडे संपन्न यता सुरुष तथा लोकोने प्रिय लागे तेवो देखावडो थयो. अध्य०११ व्या--च पुनः स समुद्रपालो द्वासप्ततिकलाशिक्षितः सन्नीतिकोविदोऽभूत् , लोकनीतिधर्मनीतिचतुरोऽभूत्. च ॥१२१९॥ पुनयौवनेन संपन्नःसंजात इति गम्यं. कथंभूतः सः १ प्रियदर्शनः पुनः कथंभूतःसमुद्रपालः१ सुरूपः सुंदररूपः. |वळी ते समुद्रपाल बहुंतेर कलाओ शीखीने नितिकोविद थयो. अर्थात्-लोकनीति तथा धर्मनीति बन्नेमां चतुर थयो अने ज्यारे यौवने करी संपन्न थयो एटले युवावस्थाने प्राप्त थयो त्यारे प्रियदर्शन-जोनारना मनने गमे तेवो दर्शनीय तथा सुरूप-रूपाळो थयो. ॥६॥ तस्स रूवईभलं । पिया आणेइ रूविणी ।। पासाए कीलिप रम्मे । देवो दोगुंदगो जहा ॥७॥ ते समुद्रपालमो पिता तेने माटे रुपवती अतिरूपाळी रूपिणी नामनी भार्या लाया; अर्धात् तेने ए रुपिणी साथे परणावी लाव्या. पछी तो ते भार्या सहित रम्यरमणीय प्रासाद महेलमा दोगुंदक देवनी पेठे क्रीडा करका लाग्यो. . ब्या--अथ तस्य समुद्रपालस्य पिता पालितो रूपवती भार्या रूपिणीतिनाम्नीमानयति, परिणायतिस्म. ततो रम्ये रमणीके प्रासादे क्रीडां करोति, को यथा ? दोगुंदको देवो यथा, यथेंद्राणां पूज्यस्थानीयो देवः सुखानि मुंक्त, तथा सुख भुक्ते इत्यर्थः ॥ ७॥ । तदनंतर ते समुद्रपालना पिता पालित, रूपवती रुपिणी नामनी भार्या लाव्या. अर्थात् पोताना पुत्र समुद्रपालने रूपिणी । नामनी स्त्री परणावी लाव्या. ते पछी रम्प-मनोहर प्रासाद बहेलने विषये ए बन्ने क्रीडा करवा लाग्यां. केंनी पेठे ? जेम * Acc4 ** * For Private and Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1-%84% मापार अध्य-२१ ॥१२२०॥ यनबम % दोगुंदक-एटले-इंद्रोना पण पूज्यस्थानीय देव सुख भोगवे तेवा प्रकारनां सुखो ए बन्ने भोगवा लाग्यां ॥७॥ उत्तराय अह अन्नया कयाई । पासायालोयणे ठिओ।। वज्झमंडणसोभागं । बझं पस्सई वज्झगं ॥८॥ भन्यदा ए समुद्रपालक कदाचित् प्रासादना लोकन-गोखमां बेटो के त्यां ने यध्यमंडन एटले राती करेण ना हार वगेरे बभ्यना पाणगारथी ॥१२२०॥ 18 शोभता, वध्यभूमि उपर दोरी जवाता कोइ वध्य पुरुषने वीटो. । व्या०-अयानंतरं समुद्रपालोऽज्यदा कदाचित् प्रामादस्य धवलगृहस्थालोकने प्रासादावलोकने मंदिरगवाक्षे स्थितो वध्यं चौरं पश्यति, वधाचा) वध्यस्तं, कीदृशं वध्यं ? वध्यमंडनशोभाकं वध्यस्य चौरस्य यानि मंड नानि रक्तचंदनबिंबपत्रकरवीरपुष्पसगादीनि वध्यमंडनानि, तैः शोभा यस्य म वध्यमंडनशोभाकरतं. पुनः ४ कीदृशं ? बाह्यगं बहिर्भवं बाह्यं यहिभूमंडल, तद्गच्छति प्रामोतीति बाह्यगस्तं, राजपुरुषैर्यहिनिःसारयंतं. अथवा | वध्यगं, इह बध्यशब्देनोपचारादध्य मिरुच्यते, तत्र वध्यभूमौ गच्छंत ॥ ८॥ अध अनंतर त्यारपछी समुद्र पाल अन्यदा-एक दिवस कदाचित् पोताना प्रासाद-महेलना आलोकनम्मंदिरना गोरखमां बेठो छे त्यां कोई वध्य चोरने जोयो. ए वधने लायक चोर केबो हतो? वध करवाने योग्य चोरने जे रातुं चंदन तेमज लींबडाना |पान तथा राती कणेरना फूलनी माळा वगेरे घरवामां आवे के तेवा पदार्थोथी शणगारेलो अने बाह्यग-राजपुरुषोये शहेरनी बहार लइ जवातो; अथवा वध्यग एटले वध्यभूमि तरफ लइ जवातो. अहिं वध्य शब्द उपचारथी वध्यभूमि वाचक छे. ॥ ८॥ तं पासिऊण संविग्गो । समुहपालो इणमब्ववी ॥ अहो असुहाण कम्माणं । निजाणं पावगं इमं ॥९॥ 94-94223929 For Private and Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्सराध्य बन खम् ॥१२२१॥ CIRCIEFRESS तेने जोइने समुत्रपाल संविग्न खिन्नचित्त थड्ने आम बोल्या के- अहो! अशुभ कर्मोनू आयु पापक निर्माण परिणाम आवे ! ५। व्या-समुद्रपालः संवेगं प्राप्तः सन्निदमब्रवीत्. किं कृत्वा तं चौरं वध्यं दृष्ट्वा. इदमिति किं ? अहो इत्या-| | माषांवर ॥ श्चर्येऽशुभानां कर्मणामिद पापक निर्याणमशुभं प्रांतं दृश्यते ॥९॥ अध्य०११ समुद्रपाल संवेगने पामीने आq बोल्या, केम करीने ? ते वधार्थ लइ जवाता चोरने जोइने | गोल्या ? अहो आश्चर्य । ११२१॥ अशुभ कर्मोनुं आ पापक निर्याण ? आयु अशुभ प्रांत-छेडो परिणाम देखाय छे ! ॥९॥ संबुद्धो सो तहिं भयवं । परमसंवेगमागओ॥ आपुच्छम्मापियरं । पब्बइए अणगारियं ॥१०॥ ते समुद्रपाल भगवान् स्यांज-गोखमा बेठा हता स्यांज-संबुद्ध प्रतिबुद्ध धया अने परमसंवेग-उप्रवैराग्य ने प्राप्त थया, एज समये माता पिताने | पूीने अनुज्ञा लाइने अनगारस्व-साधुत्वने प्रबजित स्वीकार्यु | व्या.-स ममुद्रपालो भगवान् माहात्म्यवान संबुद्धः प्रतिबुद्धः सन् परमसंवेगमागतः, परमवैराग्यं प्राप्त:18 मातापितरमापृच्छयानगारत्वं प्रव्रजितः, प्रकणांगीकृतवान् ॥१०॥ * ते समुद्रपाल भगवान् माहात्म्यवान् संबुद्ध एटले प्रतिबोष पाम्या. अने परम संवेग-परमवैराग्यने पामी माता पिताने पछी ४ अर्थात् तेओनी अनुमति मेळवी पोते अनगारित्वने प्रवजित थया-एटले साधुत्वनो प्रकर्षे करी अंगीकार को. ॥१०॥ जहित्तु संगंथ महाकिलेस, महंतमोहं कसिणं भयावहं । परियायधम्मं अभिरोपहजा, वयाणि सीलाणि परिसहे या महा क्लेशदायक तथा महामोहवाळो भने कृष्ण-अर्थात्-कृष्णय लेश्या कारण होकाथी कृष्ण नेमज भयावह भयोत्पादक एचा संगने-एटले For Private and Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मातापिता स्वजनादि संबंधने स्थजीने पर्यायधर्म-साधुधर्मने विषये अभिरुचित्राको था. अने ब्रतो तथा शील अने परीघहोमा हविवाको था." व्या-समुद्रपालो भगवान् आत्मने 'परियायधम्म' प्रवज्याधर्ममभिरोचयेत्. च पुनर्ब्रतानि अहिंसाउपराध्यनृतास्तेगब्रह्माकिंचनत्वलक्षाणि पंच, तथा शीलान्युत्तरगुणरूपाणि शुद्धाचारगोचरीकरणसप्ततिरूपाणि, तान्य मापांतर कानम् ॥१२२२॥ प्यात्मनेऽभिरोचयेत् अर्थात्प्रवज्यां जग्राहेत्यर्थः, किं कृत्वा ? संग स्वजनादिसंबंधं त्यक्त्वा, य: पादपूरणे. M॥११ ॥ कथंभूतं संगं ? ' महाकिलेस' महान क्लेशो यस्मात्स महाक्लेशस्तं. पुनः कथंभूतं संग महान् मोहो यस्मिन् ५स महामोहस्तं महामोहं प्रचुराज्ञानसहितं. पुनः कथंभूतं 'कसिणं' कृष्णलेश्याया हेतुं, तस्मात्कृष्णं, पुनः कथंभूतं ? भयानकं भयजनकमित्यर्थः ॥११॥ समुद्रपाल भगवान् पोते पर्यायधर्म-प्रव्रज्याधर्मने अभिरुचिपात्र कर्यो. वळी व्रत-अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य अकिंचनत्व लक्षण पांच व्रत, तथा शील-उत्तरगुणरूप शुद्धाहारादिक, अने परिषहोने पोते अभिरुचिपात्र कर्या स्वीकार्या; अर्थात् प्रव्रज्या * अंगीकार करी. केम करीने ? संग एटले स्वजनादिकना संबंधने त्यजीने; आ संगपदना पछी थळे ते पादपूराणार्थ अथ शब्दना | शेष जेवो. संग केवो ? महाक्लेशनो उद्भावक तथा जेमां महामोह-प्रचुर अज्ञान रहेलं छे एवो, वळी कृष्ण लेश्यानो हेतु होवाथी ए संग पोते पण कृष्णपद निर्देश्य तेमज भयानक एटले नानाविध भयनो जनक के.११॥ | अहिंस सच्चं च अतेणगं च, तत्तो यबंभ अपरिग्गहं च । पडिवजिया पंच महब्वयाई, चरिज धम्म जिणदेसिय विऊ।। अहिंसा, सत्य, अस्तेनक तथा पछी ब्रह्मचर्य अने अपरिग्रह, ए पांच महाबतीने प्रतिपक्ष थयु-स्वीकारवां, अने विद्वान् था जिनेंदेशित कहेला धर्मने आचरवो. For Private and Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra -belibe यज सूत्रम् ॥१३२३।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir auto- तानि पंचवतानां नामान्याह-अहिंसा, जीवानां बधो हिंसा, न हिंसाऽहिंसासर्वजीवेषु दया प्रथमं १. च पुनः सत्यं २ च पुनरस्तैन्यकं स्तेनम्य चौरस्येदं कर्म स्तैन्यं, न स्तैन्यमस्तैन्यं, अस्तैन्यमेाऽस्तैन्यकं ३. ततोऽ भाषांतर नंतरं ब्रह्म शीलं ४. च पुनरपरिग्रहं सर्वथा लोभत्यागः ५ म समुद्रपालः पंच महाव्रतानीमानि प्रतिपद्य जिनदे- १ जच्य०२१ शितं धर्म चरेत् सेवेत, महाव्रतानि गृहीत्वैकत्र न तिष्ठेदिति भावः कथंभूतः सः १' विऊ' इति विद्वान्, वेत्ति हेयोपादेयविधीनिति विद्वान ॥ १९ ॥ १२२३ ॥ ते पांच महाव्रतानां नामो कहे छे अहिंसा, जीवोनो वध हिंसा कहेवाय तेनुं वर्जन कर ते अहिंसा, सर्व जीवोने विषये दया राखवी ए प्रथम महात्रत. १ पुनः सत्य वचनादिकमां सत्य रहेनुं, आ बीजुं महाव्रत. २ अस्तेनक- स्तेन चोर तेनुं कर्म - स्वेनक ( कोइए न दीघेल वस्तुनुं ग्रहण कर ) एनुं वर्जन = अस्तेनक, आ त्रीजुं महाव्रत, ३ आना पछी ब्रह्म एटले शील- (ब्रह्मचर्य) ए चोयुं महाव्रत, ४ अने अपरिग्रह - सर्वथा लोभत्याग, आ पांच महाव्रत. १ आ पांचे महाव्रतो ते समुद्रपाले स्वीकार्य अने जिनेश्वरे देशना करेल धर्मने सेवा लाग्या. महाव्रत गृहण करीने एकत्र स्थिति न कराय तेथी विहार कयों. ते केवा ? विद्वान्, अर्थात् | आ ग्रहण करवा योग्य के तथा आ त्याग करवा योग्य छे एवा वस्तुविवेकने जाणनारा ॥ १२ ॥ सव्वेहिं भूएहिं दयाणुकंपे. खंतिस्वमे संजय बंभगारी । सावज्जजोगं परिवज्जयंते, चरिज भिख्खू सुसमाहिइंदिए । सर्व भूत-प्राणीमाम दयानुकंपी= प्रियहित वचमो वढे सर्व प्रति रक्षणभावे वर्ततो तथा शांतिक्षमा-क्षांति राखी अन्य कृत अनादरने सहन करतो. वळी संवत=साधुना आचार पाळवामां प्रयत्नवान् रही तथा ब्रह्मचारी अह्मचर्य धारण करतो, एवो भिक्षु तु सावद्ययोग-सदोषव्यवसायनो त्याग For Private and Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उचराज्यचनम् ॥। १२२४ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करीने इंडियाने सम्यक् प्रकारे समाहित राखोने चारित्र मार्गने विषये चरजे-बिहरने. १३ व्या० - ' भिख्खू' इति भिक्षुः समुद्रपालितसाधुः सुसमाहितेंद्रियः सन् 'परिज' इति विचरतेस्म. कथंभूतः सः सर्वेषु भूतेषु दयानुकंपी, सर्वेषु प्राणिषु दयया हितोपदेशरूपयाऽनुकंपनशीलो दयापालन पर: स दयानुकंपी. पुनः कथंभूतः १ क्षांतिक्षमः क्षांत्या तत्त्वलोचनतया क्षमते दुष्टानां दुर्वचनताडनादिकमिति क्षांतिक्षमः पुनः कथंभूतः १ संगतः साध्वाचारपालकः पुनः कथंभूतः १ ब्रह्मचारी, ब्रह्मणि परमात्मस्वरूपे चरतीति ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्यधारको वा पुनः स किं कुर्वन् विश्वरतेस्म ? सावद्ययोगं वर्जयन्, सपापयोगं परित्यजन् |१३| भिक्षु = समुद्रपालित साधु, सुसमाहितेंद्रिय - एटले इंद्रियोने सारी रीते समाहित = एकाग्र वश राखीने विचरखा लाग्या. केवा थइने ? सर्व भूतोमां दयानुकंपी अर्थात् प्राणी मात्रने विषये हितोपदेशरूप तथा रक्षणरुप दयापालनना स्वभाववाळो तथा क्षांतिक्षम एटले तव लोचना वडे दुष्टोनां दुर्वचनताऽनादिकने सहन करनारो; वळी संयत-साधुना आचार पाळवामां हमेशां सावधान रहे तो तथा ब्रह्मचारी ब्रह्म-परमात्मस्वरूपने विषये विचरे ते - ब्रह्मचारी, अथवा ब्रह्मचर्य व्रतोनो धारक थइ विचरता लाग्या. केम करी विचरता हता : सावद्ययोग- पापयुक्त क्रियाओनो परित्याग करीने. ।। १३ ।। कालेण कालं बिहरिज रहे, बलाबलं जाणिय अप्पणो ऊ । सीहोव्य सहेण न संतसिज्ञा, बजोग सुच्चा न असम्भमा ॥ काळे - नियत समये ते ते काळनी उचित क्रियाओ करीने तथा आत्मा-पोता बळावळ जाणीने राष्ट्रने विषये विहार करे. सिंहनी पेठे शब्द वडे त्रास न पामे, तेमज कोइनो वाभ्योग=अशुभ वचन सांभळीने पोते कंहू पण असभ्य वचन न बोले, १४ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०२१ १२२४॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बन सूत्रम् ॥१२२५। व्या-पुनः स साधुः कालेन प्रस्तावेन प्रथमपौरुष्यादिसमयेन कालमवसरयोग्य कार्य ध्यानानुष्ठानतपस्या | दिकं कुर्वन् राष्ट्र मंडले विचरेत् . किं कृत्वा ? आत्मनो बलाबलं ज्ञात्वा, परीषहादिसहनसामर्थ्य विचार्य, यथा भाषांवर संयमयोगहानिर्म स्यात्तथेति भावः पुनः स साधुः सिंह इव शब्देन भयोत्पादकेन न संत्रसेत् सत्त्वान्नात्रसेत्, अध्य०२१ । अत एव वाग्योग श्रुत्वा दुखोत्पादकं वचनं श्रुत्वा, खलानामस वचनं कर्णे विधायाऽसभ्यं वचनं न आह, न ब्रूयात् , आर्षत्वादाहुरिति. ॥ १४ ॥ | बळी ते साधु, काळ-प्रथमपौरुषी आदि समये काळ-अवसर योग्य कार्य ध्यानानुष्ठान तपस्या आदि कार्यने करतो सतो राष्ट्र देश-मंडळने विषये विचरे. केम करीने ? पोतानुं बळावळ जाणीने-अर्थाद-परीषहादि सहन करवानुं सामर्थ्य विचारीने जेम संयम | योगनी हानि न थाय तेवी रीते विचरे. वळी ते साधु सिंहनी पेठे शब्द वडे, एटले भयोत्पादक शब्दथी त्रास न पामे, तेमज वाग्योग-कोइना मुखथी दुःख उत्पन्न करे एईं वचन सांभळीने, अर्थात् खल पुरुषोनां असभ्य वचन कानमा धारीने पोते असभ्य | वचन सर्वथा न बोले. आ गाथामां झंडे आहने बदले आहुः ए पद आर्ष होवाथी निर्दोष गणाय छ. ॥ १४ ॥ उवेहमाणो उ परिव्यहवा,पियमप्पियं सव्व तितिक्खहज्जा। न सव्वसम्वत्थभिरोअहज्जा,न यावि पूर्य गरहं च संजए। बळी इतरनां कहेला अशुभ वचनोनी उपेक्षा करतो सतो विचरे, तेमज कोइ प्रिय के अप्रिय वचन कहे तेनी तितिक्षा करे-सहन करे. सर्व पदार्थमा सर्वत्र अभिरुचि न करे अने जे कोइ पूजा अथवा गह-निंदा करे तने पण संवत-साधु इच्छे महि तेना प्रति राग के द्वेष करे नहि. १५ व्या-तु पुनः स साधुरुपेक्ष्यमाणोऽसम्यवचनमवगणयन् परिव्रजत्, मनसि वचसि दुर्वचनमधारयन्' 6-%A4%464ckle C4A For Private and Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उचराध्य ।१२२६॥ SCSC RECRACKS ग्रामानुग्रामेष्वतिशयेन विचरेत् , प्रियं च पुनरप्रियं सर्व तितिक्षेत्, लोकानां सम्यग्वचनं दुष्टं वचनं च सहेत.81 पुनः म समुद्रपालितसाधुः सर्व वस्तु सर्वत्र न रोचयेत्, आत्मने नाभिलषयेत्. च पुनः स संयतः स साधुः कामापनि पूजामपि स्तुतिरूपां वाणीमपि निश्चयेन गहाँ निंदां परापवादरूपामपि न रोचयेत्. यतो हि स समुद्रपालित. अम०५१ साधुदृष्टादृष्टपदार्थेष्वभिलाषुको माभूदिति भावः, ननु किं भिक्षोरप्यन्यथाभाव: स्यात येनेस्थमित्वमात्मनो-Bh२६ अनुशासनमसौ चक्रे इत्याह-॥१५॥ ____ वळी ते साधु असभ्य वचनोनी उपेक्षे अवगणना करतो सतो विचरे. अर्थात मनमा के वचनमा दुर्वचनने धारण नहिं करतां एक मामथी बीजे माम विहार करे, तेमज प्रिय तथा अप्रिय सर्वनी तितिक्षा करे. लोकोनां सारां तथा दुष्ट वचनो सहन करे. वळी 5 ते समुद्र पालित साधु सर्व वस्तुने सर्वत्र नज रोचे-मनमा अभिलाष न करे. अने ते संयत-संयमवान् साधु पूजा एटले स्तुतिरुप वाणीने तथा गर्दा-निंदारुप वाणीने पण न इच्छे. कारण के ते साधु समुद्रपालिन दृष्ट के अदृष्ट कोइपण पदार्थमा अभिलाषावालो ना थाओ एवो भाव के. ।। १५ ।। अत्र शंका थाय छ के-भिक्षुकने पण आवो अन्यथा भाव होय के जेने लीधे आत्माने आवी15 रीते शिक्षा आपवी पडे ! आ शंका उपर कहे . अणेगछंदा इहमाणवेहि, जे भावओसंपगरेइ भिक्खु । भय मेरवा तत्थ उविति भीमा,दिव्वा मणुस्सा अदुवा तिरिन्छ। आ संसारने विषये मनुष्योने भनेक छद-नाना प्रकारनी इच्छाओ उद्भवे डे के जे मिक्षु पण बस्ते भावधी सारी रीते करे हे, तेथी करी साधुपणाम भव जनक उम्र अने भीम-ौद्र एवा दिव्य-देव संबंधी तथा मानुष्य-मनुष्य संबंधी अथवा तिर्यक्-पशुपक्षि संबंधी उपसर्गो उदय पामे-उद्भवेले. १६ For Private and Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यमबत्रम् | ॥१५२७ भाषांवर अभ्य०५१ १२२७॥ व्या-इहास्मिन जगति मानवेषु मनुष्येष्वनेकानि छंदांसि बहवोऽभिप्राया वर्तते, याननेकानभिप्रायान, भावतस्तत्ववृत्त्या भिक्षुरपि संप्रकरोति. अतस्तत्र दीक्षायां भय भैरवाः प्रचुरभयोत्पादका भीमा रौद्राः, दिव्या देवसंबंधिनः, अथवा सानुष्या मनुष्यसंबंधिनः, उत्पयते ॥ १६ ॥ आ जगत्मा मनुष्योमा अनेक अभिप्रायो वर्ने के के जे अभिप्रायोने तस्ववृत्तिवडे भिक्षु पण सम्यक् करे माटे ते दीक्षामां घणाज भयने उत्पन्न करनारा तथा भीम रौद्र एवा दिव्य-देवसंबंधी अथवा मनुष्य संबंधी तेमज तिर्यम्योनिसंबंधी उपद्रवो उद्भव छे. परीमहा दुन्विसहा अणेगे, सीदति जत्था बहुकायरा नरा से तत्व पत्ते न बहिलभिखू . संगामसीसे इब नागराया परीषद्धो पण अनेक, दुःखे सहन बह शके तेगा उत्पन्न याय के के जेमा बहु कायर नोखीदाय हे.ते यां प्राप्त थाप त्यारे भिक्षु-साधु । बयेलो तुं, संग्रामने मोवरे श्रयेला नागराज-हाथीनी पेठे न्यथा पामी नहिं. १७ व्या-दुर्विषहा दुःखेन सोढुं शक्याः परीषहा अनेके उत्पद्यते इति संबंधः, यत्र येषूपसर्गेपुत्पन्नेषु बहुकातरा नरा अनेके कातराः सीदति, संयमात् श्लथीभवंति. स साधुस्तत्र परीषहे प्राप्ते उदयमागते मति न व्यथेन्न सत्त्वाचलेत्. क इव ? नागराज इव गजराज इव, यथा गजराजः संग्रामशीर्षे युद्धप्रकर्ष न विपरितमुस्खो भवति. दुर्विसह-दुःखे सहन थइ शके एवा परिषह अनेक उत्पन्न थाय छे. यत्र-जे उपसंग उत्पन्न थता अनेक कायर नरो सीदाय छे-संयममा शिथिल बनी जाय छे. तेवा परिषहो उदय पामे त्यारे ते साधु व्यथा न पामे; सत्त्वथी चलित न थाय. केनी पेठे ? | नागराज-जे मगजराज युद्धने मोखरे विपरीत मुख नथी थतो तेम ॥ १७ ॥ For Private and Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उचराध्ययत्र धम् ।। १२२८ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सीसोसि णादं समसगायफासा, आर्यका विविहा फुसति देहं । अक्कुक्कुओतस्य हियत्सराज, रयाइ खेविज पुरा कडाई शीत, उष्ण, दंश, मशक, तथा स्पर्शो ने विविध आक-व्याधिओ तारा देने सेवेसंगे अकुरकुज आनंद (हायपोष वगैरे) न करतो ते परीषहोने सहन करता है. एम करवाथी तारों पूर्वे करेला रज-कर्मरुपी रजने क्षय माडी शीश. १८ व्या० - शीतोष्णदंशमशकतृणस्पर्शाः, एते परीषहाः साधोदेहं विविधा आतंका रोग परीषहाः स्पृशति, तदा साधुः 'अकुक्कुओ इति' कुत्सितं कूजति पीडितः सन्नाऋदतीति क्रुक्रूजः, न कुक्कूजोऽकुकुजः, आक्रंदम कुर्वस्व तान् परीषहानधिसहेत. एवंविधः साधुः पुराकृतानि रजांसि पापानि क्षपयेत् क्षयं नयेत् ॥ १८ ॥ शीत - टाढ, उष्ण-तडका, दंश, मशक, तृणादिस्पर्श; आ वधा परिषहो साधुना देहने स्पर्शे छ तेम आतंक - रोग परिषहो पण पण स्पर्श छे. तेवे टाणं साधुए अक्कुक्कुज कुत्सिकूजन- एटले पीडामा आक्रंदन- हायवोय इत्यादिक बूमराण नज कराय- अर्थात् जरापण आनंद नहिं करतां ते सकळ परीषहोने दृढतापूर्वक साधु पुरुष सहन करे. एवो सहनशील साधु पोतानां पूर्वकृत रज, एटले रदःपदवाच्य पापोने क्षपित करे. अर्थात् क्षय पभाडे. ॥। १८ ।। पहाय रागं च तव दोसं मोहं च भिक्खू सततं वियक्त्रणो । मेरुव्व वारण अकम्पमाणो परीस हे आयगुते सहेजा निरंतर विचक्षण एयो मुनि राग, द्वेष, मोहने छांदीने जेम वायुवी मेरु पर्वत चलायमान न थाय तेम आमाने गोपवी समभावीथको पोतानां कृत्यकर्म जाणीने परीसह खमे ॥ १९ ॥ व्या - साधुः परीषहान् सहेत. किं कृत्वा ? रागं तथा द्वेष, च पुनर्मोहं प्रहाय त्यक्त्वा कीदृशः साधुः For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०११ ||१२२८ ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उचराध्य यन सूत्रम् ॥। १२२९ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सततं विचक्षणो निरंतरं तत्वविचाररतः क इव १ मेरुरिव वातैरकंपमानः पुनः कीदृशः साधुः ? आत्मगुप्तः कर्म व गुप्तशरीरः ॥ १९ ॥ साधु परीषोनुं सहन करं. शुं करी सहन करवुं ? राग तथा द्वेष, अने वळी मोहनी प्रहाय-त्याग करी. साधु केवा प्रकारां निरंतर तत्रविचारमां तत्पर. कोनी पेठे ? मेरुनी पेठे पवनोथी नहि कंपतो. वळी साधु केवा प्रकारना ? काचवानी पेठे रक्षण करेल छे शरीर जेणे एवा. । १९ ।। अन्न नाव महेसी । नयावि पूयं गरहं च संजए ॥ से उज्जुभावं परिवज्र संजया । निव्वाणमग्गं विरए उवेह | महर्षि अभिमान रहित, तथा दीनतरहित यह पूजा तथा मानो संग को नहि. एवा ने समुद्रपाहि नामना साधु मताने प्राप्त यह तथा पापथी निवृत्त वह मोक्षमार्ग प्राप्त थवा ॥ २० ॥ व्या०-- महर्षिः पूजां स्तुतिं च पुनर्गह निंदामपि न मंगयेत् मंग न कुर्यात, निंदां च श्रुत्वा दुः कुर्यादिति भावः कीदृशो महर्षिः ? अनुन्नतः, न उन्नतोऽभिमानरहितः पुनः कीदृश: ? नावनतो न अवनतो दीनभावेन रहितः स एतादृशः समुद्रपालितः संयत ऋजुभावं सरलत्वं प्रतिपय विरतः पापान्निवृत्तः सन् निर्वाणमार्ग मोक्षमार्गमुपैति प्राप्नोति ॥ २० ॥ महर्षिए स्तुतिनो एटले प्रशंसानो अने निंदानो पण संग नहि करवो, एटले स्तुति तथा निंदानो प्रसंग राखवो नहि अर्थात् स्तुति सांभळी हर्ष नहि धरखो, तेमज निंदा सांभळी दुःख नहि धरतुं महर्षि केवा ? उन्नत नहि, एटले अभिमान रहित. वळी For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य० २१ ||१२२९॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir +trik | केवा अवनत नहि, एटले दैन्या हित एवा ते समुद्रपालित नामना साधु सरलपणाने प्राप्त थइ तथा पापथी निवृत्त यह मोक्षमार्गने प्राप्त थया. उचराध्य माशंवर अरहरइसह पहीणसंथवे। विरए आयहिए पहाणवं । परमपएहि चिट्टई। छिन्नसोए अममे अकिंचणे ॥२१॥ बन सत्रम् मम०५१ ॥१२३०॥ असंथममा अरति तथा संयममा रतिने सहन करनार, गृहस्थोनी साथेना परिचयनो सारी शेत त्याग करनार, पापकर्मधी निवृत्त, जीवोना हितने इच्यनार, संयमवाळा, श्रोतमनो छेद करनार ममतारहित अने परिप्रहरहित ते समुद्रपालित साधुए मोझना म्थानोमा स्थिति करी ॥ २१ ॥ व्या-पुनः स साधुररतिरतिमहः, अरतिश्व रतिश्चारतिरती, ते सहते इत्यरतिरतिसहः, पुनः कीदृशः १ छापहीणसंस्तवः प्रकर्षेगहीनो गमः संस्तवो गृहस्थैः मह परिचयो यस्य स प्रहीणसंस्तवस्त्यक्तसंगः, पुनः कीदृशः? विरतः पापक्रियातो निवृत्तः पुनः कीदृशः? आत्महित आत्मनां सर्वजीवानां हितो हितवांछकः पुनः कीदृशः ! प्रधानवान् , प्रधानः संयमः स विद्यते यस्य स प्रधानवान् संयमयुक्तः पुनः म साधुः किं करोति ? परमार्थपदेषु तिष्टति, परमार्थस्य मोक्षय पदानि स्थानानि मोक्षदायकत्वात्कारणानि परमार्थपदानि ज्ञानदर्शनचारित्राणि, तेषु तिष्ठति. प्राकृतत्वात् सप्तमीस्थाने तृतीया. पुनः कीदशः सः १ छिनशोका, अथवा छिनानि श्रोतांसि । मिथ्यादर्शनादीनि यस्यासौ छिन्नश्रोताः. इह संयमपदानामानंत्यात्तदभिधायिपदानां पुनः पुनर्वचनेऽपि न पौनरुक्त्य, पुनः कीदृशः सः अममो ममत्वरहितः. पुनः कीदृशः? अकिंचनो द्रव्यादिपरिग्रहरहितः ॥२१॥ बळी ते साधु अरतिरतिसह इता. अरति अने रति ए तेओ सहन करे ए वळी ते साधु केवा हता? सारीरीते हीन एटले | गयेलो छे गृहस्थोनी साथे परिचय जेनो एका ते प्रहीणसंस्तव एटले संगनो त्याग करनार. वळी केवा ?-पापकर्मथी निवृत्त, वळी | 96495 -+- + - + For Private and Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नां पदाचे मतभी मेरे जे १९३१ केवा ? सघळा जीवोना हितः-हितनी इच्छा राखनार. वळी केवा प्रधान एटले संयम. ते छे जेने एवा ते संयमवाळा. वळी ते | उपराज्य | साधुए शुं कर्यु परमार्थना एटले मोक्षनां पदो एटले स्थानो, अर्थात मोक्ष आपनार होत्राथी मोक्षना कारणो प ज्ञान, दर्शन तथा भाषान पात्रम् MEINचारित्र तेओमां स्थिर करी. ए स्थळे प्राकृतपणाने लीवे सप्तमी विभक्तिने बदले तृतीया विभक्ति मूकी छे. वळी ते साधु केवा हता? हाजम०५१ नष्ट करेल छे शोक जेणे एवा, अथवा नष्ट करेल छ मिथ्यादर्शन वगेरे जेणे एवा ते. अहिं संयमवायी पदो अनंत छे, तेथी ते 8 संयमने कहेनारां पदो वारंवार कहेबाथी पण पुनरुक्ति थती नथी. बळी ते साधु केवा हता? ममतारहित. वळी केवा ? द्रव्य वगेरेना परिग्रहथी रहित. ॥ २१ ॥ विवित्तलयणाई भएन ताई । निरोवलेवाह असंथडाइ । इसीहि चिनाइ महाजसेहिं । कारण फासिज परीसहाई। ..पट्कायनी रक्षा करनारा ते मुनि निलेप, निबींज, अने महायशस्वी ऋषिओए सेबेला एकांत धर्मस्थामोने सेवता हता, तथा शरीरवडे । परीषहोने सहन करता इता. २२ . व्या०-पुनः समुद्रपालितः साधुः कीदृशः त्रायी, प्रायते रक्षति कायषद्कमिति त्रायी षट्कायरक्षाकारको मुनिरित्यर्थः स विविक्तलयनानि स्त्रीपशुपंडकरहितानि धर्मस्थानानि भजेत्. कीदृशानि विविक्तलयनानि ? निरुपलेपानि द्रव्यभावत परहितानि, द्रव्यतो हि साधुनिमित्तन न लिप्तानि, गृहस्थेन स्वार्थ लिप्तानीस्यर्थः भावतस्तु रागादिलेपरहितानि, मदीयानीमानि स्थानानीति रागबुद्धया रहितानि. पुनः कीदृशानि? 'असंघडाई' असंस्तृतानि शास्यादिवीजैरब्यातानि, सचित्तबीजसंघट्टरहितानि. पुनः कीदृशानि? महायशोभिः ऋभिषि For Private and Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराज्ययन सूच ॥१२३२ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीर्णान्यंगीकृतानि सेवितानीत्यर्थः पुनः समुद्रपालितः साधुः कायेन परीषहान् 'फासिज्ज' हति स्पृशेत् हावशतिपरीषदान् महेत. ॥ २२ ॥ वळी समुद्रपालित साधु केवा हता ? छ कायनी रक्षा करे के ए अर्थात् छ कायनी रक्षा करनार मुनि ते स्त्री, पशु तथा पंडकथी रहित धर्मस्थानो सेवता हता. स्त्री, पशु तथा पंडकथी रहित धर्मस्थानों कां ?-द्रव्यथी तथा भावधी लेपरहित. साधु माटे द्रव्य (पदार्थ) थी लेप वगरनां, अर्थात् गृहस्थे पोताना माटे द्रव्यना लेपवाळां करेलां. 'आ स्थानो मारा है' एवी रागबुद्धी-आसक्तिथी रहित. बळी केवां ? शालि वगेरेनां बीजोथी व्याप्त. अर्थात् सचित बीजोना समूहथी रहित. वळी केवां ? महायशस्वी ऋषिओए स्वीकारेला, अर्थात् सेवेला वळी समुद्रपालित साधु शरीरखडे परीषहोनो स्पर्श करता हता. अर्थात् बावीश परीषहोने सहन करता हता. ॥ २२ ॥ स नाणनाणो गए महेसी । अणुत्तरं चरिडं धम्मसंवयं ॥ अणुत्तरे नाणघरे जसंसी । उभासइ सूरिएन लिरक ||२३|| से श्रुतज्ञानवडे प्राप्त यबेला क्रियाज्ञानदाका महर्षि समुद्रपाल सर्वोत्कृष्ट धर्माना समुहनी आराधना कही सर्वोत्तम ज्ञानने धरनारा तथा यशस्वी यह आकाशमां सूर्यनी पेठे प्रकाशता हता ॥ २३ ॥ व्या० - स समुद्रपाली महर्षिरनुत्तरं प्रधानं धर्मसंचयं दशविधधर्म चरित्वााराध्यावभासते शोभते. कीदृशः सः ? ज्ञानज्ञानोपगतः, ज्ञानेन श्रुतज्ञानेन यद् ज्ञानं सम्यक क्रियाकलापवेदनं, तेनोपगतः सम्यग्ज्ञानक्रियासहितः पुनः कीदृशः १ यशस्वी. स क इव १ अंतरिक्षे आकाशे सूर्य इव यथाकाशे सूर्यो बिराजते, तथा स तप For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०२१ ॥१२३२ ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir RECKites हस्तेजसा विराजते इत्यर्थः ॥ २३ ॥ उचराध्य ते समुद्रपाल महर्षि प्रधान दस प्रकारना धर्मनी आगधना करी शोभता हता. ते केवा हता? ज्ञानवडे एटले श्रुतज्ञानवडे जे भाषांतर यन स्त्रम् ज्ञान, एटले सारीरीते कियाना समूहनुं ज्ञान ए ज्ञानज्ञान ते बडे युक्त, एटले सारीरीते ज्ञान तथा क्रियाधी सहित. वळी ते केवा अध्य०२१ ॥१२३३॥ |हता ? यशस्वी. ते कोनी पेठे प्रकाशता हता ? आकाशमा सूर्यनी पेठे. जेम आकाशमा सूर्य प्रकाशे छे, तेम ते तपना तेजवडे 18॥१२३३३ प्रकाशता हता ए अर्थ छे ॥ २६ ॥ दुविहं खविऊण य पुण्णपाबानिरंगणे सम्बउविप्पमुकारिता समुदं च महाभवोहासमुद्दपालेअपुणागमंगईगहत्तिबेमि समुद्रपाल ने प्रकारना पुण्य तथा पापने क्षीण करी संयममा निश्चल तथा सर्वधी विमुक्त थ६, भने मोटा भवना समूहबाळा समुद्रने फरी भाषया बगरनी गनिने पाम्या एम ९ कहुँ छु ॥ २४ ॥ व्या०-समुद्रपाल, साधुरपुनरागमगतिं गतः, न विद्यते पुनरागमो यस्याः साऽपुनरागमा, अपुनाममार चासौ गतिश्चाऽपुनरागमगतिस्तां गति, यत्र गतौ गतानां जीदानां पुनः संसारे आगमो न भवति, मोक्ष गत इत्यर्थः किं कृत्वा मोक्ष गतः द्विविधं घातिकं भवोपग्राहिकं पुण्यपापं शुभाशुभप्रकृतिरूपं क्षपयित्वा संपूर्ण भुक्त्वा. पुनः किं कृत्वा ? महाभवौघं समुद्रं तरित्वोल्लंघ्य, महांतश्च ते भवाश्च महाभवाः, तेषामोघः समूहो यत्र स महाभवौघः, तमेतादृश समुद्रमर्थात्संसारसमुद्रं विल्लंध्य सिद्धो बभूवेत्यर्थः. परं कीरशास समुद्रपालितः साधुः सर्वतो वाद्याभ्यंतरपरिग्रहाद्विप्रमुक्तः, अथवा शरीरसंगादपि विषमुक्तः पुनः कीदृशः सः? निरंगनो KARNA For Private and Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निर्गतमगनं चलनं यस्मात्स निरंगनः, संयमे निश्चलः, अगेर्गत्यर्थत्वात, माधुमार्ग निश्चलचित्त इत्यर्थः. इत्यह 18| ब्रवीमि, हे जंबू ! श्रीवीरवाक्यात्तवाग्रे इत्यमुना प्रकारेणाहं समुद्रपालितसाधुसंबंध ब्रवीमि. ॥ २४ ॥ उखराध्य भाषांतर पनपत्रमा दा समुद्रपाल साधु नथी फरी आवयं जेमां एवी ते अनुपरागमा एवी ते गति ए ते गतिने एटले जे गतिमां गयेला जीवोने फरी| अध्य०२१ ॥१२३४॥ संसारमा आवयु थतुं नथी ते गतिने एटले मोक्षने प्राप्त थया ए अर्थ छे. शुं करी मोक्ष पाम्या ? बे प्रकारनां घातिक तथा भवो-1॥१२३४॥ पग्राहिक एवां शुभ तथा अशुभ प्रकृतिरूप पुण्य पापने संपूर्ण भोगवी. वळी शुं करी मोक्ष पाम्या ? मोटा एवा ते भवो ए तेओना ओष एटले समूह जेमा छे ते एवा समुद्रने अर्थात् संसाररुप समुद्रर्नु उल्लंघन करी सिद्ध थया ए अर्थ छे. वळी ते समुद्रपालित साधु केचा हता ? बहारना अने अंदरना परिग्रहथी विशेष करी मुक्त, अथवा शरीरना संगथी पण विशेष करी मुक्त. वळी ते केवा हता। नीकळी गय छ अंगन एटले चलन जेमांथी ते निरंगन एटले संयममा निश्चल; केमके धातु गतिना अर्थमां छे. हे जंबूस्वामी ! श्रीमहावीरना वचनथी तमारी पासे आ प्रकारे हुं समुद्रपालित साधुना संबंधमा कहुं छ. ॥ २४ ।। इति ममुद्रपालीय नामर्नु एकवीममुं अध्ययन पूर्ण धयु, २१ । इति श्रीलक्ष्मीकीतिगणिशिष्यलक्ष्मीवल्लभगणिविरचित श्रीउत्तराध्ययनसूत्रनी अर्थदीपिका नामनी टीकामा एकवीसमें समुद्रपालीय नामर्नु अध्ययन परिपूर्ण थy. EEEEEEEEEEEE For Private and Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥अथ द्वाविंशतितममध्ययनं प्रारभ्यते।। भाषांतर वन रकम् । :। अथ रथनेमिय नामनु बावीसमें अध्ययन ॥ अभ्य०२२ ॥१२३|| ४१२३५१ पूर्वस्मिन्नध्ययने विविक्तचर्या धृतिमता कार्या, तत्र च कदाचिन्मनःपरिणामाद्धर्माभ्रष्टा भवंति, तदा रथनेMIमिवञ्चरणे धृतिराधेया, तदृष्टांतमाह-- मा पूर्व अध्ययनमा विविक्तचर्या धैर्यवान् पुरुषे करवी एम कातेमां कदाचित मन-परिणामे धर्मथी भ्रष्ट थाय त्यारे रथनेमिनी 15 8 पेटें आचरणमां धैर्य धारण करवु तदर्थ ते स्थन मिनुज दृष्टांत कहे के. I तत्र श्रीनेमिनाथेन कस्मिन् भवे तीर्थकरनामकर्म निबद्धमिति शिष्यकोतुकोपनोदाय श्रीनेमिचरित लेशतो। लिख्यते-एकस्मिन् सन्निवेशे ग्रामाधिपतिसुतो धननामा कुलपुत्र आसीत् , तन्मातुलदुहिता धनवतीनाम्नी तस्य भार्या. अन्यदा भार्यासहितः कुलपुत्रो ग्रीष्मकाले मध्याह्नसमये प्रयोजनवशेन गतोऽरण्यं, तत्रैक पथः परिभ्रष्ठं, क्षुधातृषापरिश्रमातीरेकनिमिलितलोचनं भूमितलमतिगत कृशशरीरं मुनिवरं ददर्श.तं च दृष्ट्वा स कुलपुत्र एवं |चिंतितवान, अहो एष महातपस्वीही विषमावस्थामापनः, ततस्तं जलेन सिक्तवान् , चेलांचलेन वीजितावांश्च स्वास्थ्यमापन्नो नीतः स्वग्राम, प्रतिजागरितश्चौषधपथ्याहारादिभिः. मुनिनापि दत्त उपदेशः, यथेह दुःखप्रचुरे संसारे परलोकहितमवश्यं जनेन कर्तव्यं. CREATORS For Private and Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मातिर अध्य०२९ यम खम् + + अर्थ:-अत्रे श्रीनेमिनाथे कया भवमा तीर्थकरनामकर्मनिबद्ध कयु ? एवा शिष्यना कौतुकने निवृत्त करवा श्रीनेमिचरित संक्षेपथी | लखाय छे. कोइ एक देशमां गामधणीनो धन नामनो कुलपुत्र हतो ने तेना मामानी धनवती नामनी दीकरीने परण्यो हतो. एक समये ए कुलपुत्र पोतानी आर्या सहित उन्हाळाना दहाडामां मध्याह टाणे कंइ प्रयोजनने लीधे अरण्यमा गयो त्या तेथे मार्गथी भ्रष्ट थयेला तथा भूख तरस अने चाकी आंखो मींचीने पृथ्वीतलपर पडेला दुर्बळ शरीरवाला कोई साधुने दीठा. तेने जोइने पेला कुलपुत्रे विचार्यु के अहो ! आ महान् तपस्वी आवी वसमी दशाने पाम्यो छ, पछी तेणे ते साधु उपर जळ छांटयु, पोताना वखना | छेडावती पवन नाख्यो तेथी ते साधु स्वस्थता पाम्या एटले तेन पोताने गाम तेडी जइ औषध तथा पथ्य आहारादिकवडे तेनी चाकरी करी मेथी मुनि साजा थया एटले ते कुलपुत्रने मुनिए धर्मनो उपदेश कर्यो-'आ दुःखमय संसारमा आवीने मनुष्य का परलोकहित अवश्य कर, जोइए. । ततो भवद्भ्यामपि परमांसमद्याखेटकादिमियम कर्तव्यं यदि पालयितुं शक्तो, यतो बहुदोषाण्येतानि, यदुक्तं-पंचदियवहभूयं । मंसं दुग्गंधमसुइवीभत्थं । ररूग्वपरितुलिय भख्खग । भीईजणयं कुगइमूलं ॥ १ ॥ |तथा-गुरुमोहकलहनिहा । परिहर उवहासरोगभयहेऊ ॥ मज्वं दुग्गहमूलं । हिरिसिरमहधम्मनासकरं ॥॥ अपि च-मुन्ने महुमि मंसमि । नवणीयंमि चउत्थए । उप्पबति असंखा। तब्बण्णा जन्य जंतुणो ॥३॥ तथासपरोवघायजणणी । इहेव तहनरयतिरियगहमलं । दहमारणस्स य हेऊ ॥ पावद्धी वेरवुट्टिकरा ॥४॥ अर्थः-माटे तमो बनेए परमांस न खावू,मघ न पीतुं, शिकार न करवो, इत्यादि नियमो जो पाळी शेको तो लेवा जोइए कारण ++4+%E 9 RUT * For Private and Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यम स्त्रम ॥१२३७॥ भाषांतर अध्य-२१ १२२७॥ के ए बधाये बहु दोषवालां कमों थे. कड्यु के के- पंचद्रियना धरुप मांस, दुगंध, अशुचि तथा बीभत्स होइ राक्षसममा भक्षकने भीति उत्पन्न करनारुं तथा कुगतिर्नु मूळ छे ?' तथा 'महामोह, कलह तथा लोकोना उपहास तेमज रोग अने भयना हेतुभूत मद्य, दुगतिर्नु मूळ छे ते साधे शरम, शोभा तथा मति अने धर्मनो नाश करना है. वळी-'मद्य. मधु. मांस अने माखणमा चोथे समये | असंख्य जंतुओ उत्पन्न थाय छे.' तथा-'पोतानो तथा परनो आ लोकमां उपघात करनारी, परभवे नरक तथा तिर्यक् मतिनी मूलभूत अने दु.ख तथा मृत्युनी हेतु तेमज वैरनी वृद्धि करनारी पाफ्नी ऋद्धिरुप मृगया . इदं श्रुत्वा संविनाभ्यां ताभ्यां भणित, भगवन् ! देवसमाकं गृहस्थावस्थोचितं धर्म ? यतिना तु सम्यक्त्वमूलद्वादशवतरूपो धर्मस्तयोर्दत्तः, ऊक्तं च-सो धम्मो जत्थ दया । दसट्टदोमा न जस्म सो देवो । सो हु गुरू जो णाणी । आरंभपरिग्गहा विरओ ॥१॥ श्रावकधर्म प्रपद्य तो दंपती तुष्टौ. यतिना तयोः पुनरेवं शिक्षा प्रदता यथा-जस्व वसेज्जा सदो। जईहिं मह जस्य होइ संजोगो । जत्थ चेइयभवण । अन्नेवि जत्थ साहम्मी ॥१॥ देवगुरूण तिसंझ । करेन्ज तह परमबंदण विहिणा ।। तह पुष्फवस्थमाईहिं । पूयणं सव्वकालंपि ॥२॥ अन्यच्चअपुब्वनाणगहणं । पचखाण सुधम्ममवणं च ॥ कुजा सह जह सत्तिः । तवसमायाइजोग वा ॥१॥ अन्यच्च भोअणममए मयणे। वियोहणे पवसणे भए वसणे ! पंचनमोकारं म्बलु । समरेजा सबकजेसु ॥ १॥ एवं तयोः शिक्षां दत्वा साधुरन्यत्र विजहार. ।। : अर्थ:-आ वचनो सांभळी ए धणीधणीयाणी देय उद्विग्न थिइने बोल्या के-'हे भगवन् ! अमने गृहस्थावस्थाने उचित ICCAK -*** 645 For Private and Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उचराध्यवन सम् ॥१२३८॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्मनियम आपो.' यति ए तो सम्यक्त्वना मूलभूत बार शतरूप धर्म तेओने उपदेश्यो क्युं छे के ते धर्म कहेबाय के जेमां दया होय अने जेनामा १८ दोष न होय ते देव, तथा गुरू तो ते कहेवाय के जे ज्ञानी होय अने आरंभ तथा परिग्रहथी विरत होय ॥ १ ॥ हवे ए दंपती श्रावक धर्म पामीने संतुष्ट धयां यतिए फरी तेओने शिक्षा दीघी के ज्यां श्राद्धी वसता होय, ज्यां यतिओनी माथे समागम थाय, ज्यां चैत्य स्थान होय अने अन्य पण ज्यां सुयोग मळे तेवा स्वाने जर्बु. | १|| देव गुरुनुं त्रिसंध्य= सवारे, बपोरे तथा सांजे-विधिपूर्वक वंदन कर तथा पुष्प वखादिकथी सर्वकाळ पूजन कर. २ ।। बळी - यथाशक्ति अपूर्व शाननुं ग्रहण कर, प्रत्याख्यान लेनुं, सारा धर्मनुं श्रवण करतुं तथा तपःस्वाध्याय अने योग सेवनां ॥ ३॥ तेमज - भोजन टापे, सुती वखते, जागीये त्यारे, घरथी बहार जती वेळाये तथा गाम जतां सर्व कार्यमां पंच नमस्कारनुं स्मरण कर ॥ ४ ॥ आवी रीते तओने शिक्षा आपीने साधु अन्यत्र विहार करी गया. आ बेब दंपति पोताने घरे मयां अने साधुना उपदेश प्रमाणे धर्मनुं अनुष्ठान करवा लाग्यां. तौ पती स्वगृहे गतौ साधूपदिष्टं धर्मानुष्ठानं कुरुतः कालक्रमेण ताभ्यां पतिधर्मः प्रतिपन्नः कालं कृत्वा धनः सौधर्मदेवलोके देवत्वेनोत्पन्नः सा स्त्री तु तस्यैव मित्रदेवत्वेनोत्पला. तत्र सुरसुखमनुभूय धनदेवजीवो वैताढये सूरतेजोराज्ञः पुत्रश्चित्रगतिनामा विद्याधरराजो जातः, धनवत्यपि कस्यचिद्राज्ञः कन्या जाता, परिणीता च चित्रणतिनैव तत्र मुनिधर्म कृत्वा 'माहिंदे घणो समाणिओ इयरो य तम्मित्तो जाओ, तत्तो चऊण घणो अवराजिओ नाम राया जाओ, सा च पिईमई तरस पत्ती. काउं समणधम्मं गयाई' द्वावपीमावारण्यकल्पे मित्रदेवो जातो, ततश्च्युतो धनदेवजीवः शंखराजा जातः, धनवतीजीवश्च तस्यैव कांता जाता. तत्र शंखराजा For Private and Personal Use Only भाषांतर | अध्य०२२ ॥१२३८॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उधराज्य有素 ॥। १२३९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतिपद्ममुनिधर्मी विंशतिस्थानर्कनिबद्धमीर्थंकरमाममोत्र: कालं कृत्वाऽपराजितविमाने समुत्पन्नः, तत्कांतापि धर्मप्रभावेण तत्रैवोपला. घनजीवाश्च्युत्वा सौर्यपुरे नगरे दशदशाराणां मध्ये ज्येष्ठस्य समुद्रविजयस्थ राज्ञो भार्यायाः शिवादेव्याः कुक्षौ चतुर्दशमहास्वप्नसूचितः कार्तिक कृष्णद्वादश्यां पुत्रत्वेनोत्पन्नः, उचितसमये श्रावशुद्धपचम्यां प्रसूता शिवादेवी, जातो दारकः, विक्कुमारिकाविहितजातकर्मानंतरं सुरासुरैर्मेरुमस्तके जन्मामिषेके कृते सति राज्ञापि वर्धापनं कारितं. अस्मिंश्च गर्भमते कदाचित् स्वप्ने शिवादेव्याऽरिष्टरत्नमयो नेमिर्दृष्टः, अतोऽरिष्टनेमिरित्यस्य नाम कृतं. अयं कुमारोऽष्टवार्षिको जानः ॥ अर्थ:- कालक्रमें ए बेय जणावे यतिधर्म स्वीकार्ये. अंते हुआ पछी ए धन सौधर्मदेवलोकमां देव थयो अने ते स्त्री तो तेना मित्ररुप देव थइ. स्यां देवसुखोने भोगवी धनदेव जीव वैताढ्य पर्वतने विषये सूरतेजा राजानो पुत्र चित्रगति नामनो विद्याधरोनो राजा थयो धनवती पण एक राजानी कन्या अवतरी अने ए चित्रगतिनेज परणी. त्यां मुनिधर्म स्वीकारी महेन्द्र पर्वतमां घनजीव संमानित भयो, अने त्यांज इतर पण थयो त्यांची व्यवीनं धन अपराजित नामे राजा थयो अने ते प्रीतिमती तंनी पत्नी थइ. ते श्रमण धर्मने पाम्यां आ बन्ने फरी आरण्य कल्पने विषये मित्र देव थयां त्वांची व्युत थइने धनदेव जीव शंखराजा थड़ अवतर्षो अमे धनपती जीव तेनी कांता यह. त्यां शंखराजा मुनीधर्म स्वीकारी वीश स्थानके निबद्ध छे तीर्थंकर नाम गोत्र जेणे एवो काल करीने अपराजित विमानमा उत्पन्न थयो. सेन्री श्री पण धर्मप्रभावधी त्यांज उत्पन्न थइ. धनजीत्र त्यांथी व्यवीने सौर्यपुर नगरमां दशदशारना मध्यमां ज्येष्ठ समुद्रविजय राजानी भार्या शिवादेवीनी कुंखे चतुर्दश महा स्वप्नचित पुत्ररुपे कार्त्तिक कृष्ण द्वादशी For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०२२ ||१२३९॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 444CE भाषांतर अध्य०२९ ॥१२॥ दिने प्रविष्ट थयो अने उचित समये श्रावण शुक्ल पंचमीदिने शिवादेवीने पुत्र जन्म्यो. दिशाओनी कुमारिकाओए तेनु जातकम कर्य। स्वराज्य अने सुरासुरोए मळी मेरुमस्तक उपरे जन्माभिषेक कर्यो. राजार पण वर्धापन कराव्यु. आ ज्यारे गर्भमा हतो त्यारे क्यारेक शिवा- बन पत्रम् ॥१२४०० देवीए स्वममा अरिष्ट रखमय नेमि दीठो इतो तेथी एर्नु नाम अरिष्टनेमि गम्यु.॥ ___ अनोतरे कृष्णेन कसे निपातिते जीवयशावचनेन यादवानामुपरि क्रुद्धो जरासिंधुराजा, तन्छकया सर्वेऽपि सायादवाः पश्चिमसमुद्रयावद् गता. तत्र केशवाराधितवैश्रमणेन कृता सर्वकांचनमपी द्वादशयोजनायामा नययो. जनविस्तारा द्वारिकानाम्नी नगरी, तत्र सुखेन यादवास्तिष्ठति, क्रमेण निहते जरासिंधौ रामकेशयो भरतार्धस्वामिनी जातो.॥ अर्थ:---आ कुमार ज्यारे आठ वर्षनो थयो सेवामा कृष्णे कंसने मार्यो. आ खबर जीवयशा राजाए जरासंघने कहेचराव्या तेधी राजा जरासंघ यादवोना उपर कोप्यो. " जरासंघनी शंकाथी सर्वे यादवो पश्चिम समुद्र भणी गया. त्यां के शव आराधित एवा वैश्रमण-कुबेरे सर्व कांचनमयी मार योजन लंबाइनी तथा नव योजन विस्तारवाळी द्वारिका नामनी नगरी निर्माण करी दीधी तेमां यादवो सुखे रखा. ज्यारे राम (बळदेव) तथा केशव (कृष्ण) ए बनेये जरासंघने मार्यो ते पछी ए राम तथा कृष्ण भरतार्धभागना स्वामी थया.॥ __अरिष्टनेमिभगवान् यौवनमनुप्राप्तः. विषयसुखपराङ्मुखोऽपि मित्रैः प्रेयमाणोऽसौ नानाविधक्रीडां करोति. अन्यदासमानवयस्कैरनेकराजकुमारैः सह क्रीडन् स गतो नारायणस्यायुधशालायां.तत्र दृष्टान्यनेकानि देवाधिष्ठिता For Private and Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir F -%* न्यायुधानि, तत्र दिव्यं कालावतं धनुः कौतुकेन गृह्णन नेमिरायुधपालेन भणितः, कुमार ! किमनेनाशक्यानुउचराध्य ठानेन ? न हि नारायणमंतरेणान्यः कोऽपि नर इदं धनुरारोपयितुं शक्तः तदा ईषद्धसित्वा नेमिना तद्धनुर्लील-17 भाषांतर यन स्त्रम् यैवारोपितं. आस्फालिता जीवा, तस्याः शब्देन मेदिनी कंपिता, विस्मिताः सर्वेऽप्यायुधशालिका नराः. ततस्त-18M ॥१२४१॥ अभ्य०२२ धनुर्मुक्त्वा नेमिना शंखो गृहीतः पूरितश्च. तच्छन्देन सर्व जगद्वधिरितं, कंपिता भूमिः, गिरिशिखराणि तुत्रुटु, सा नगरी तु विशेषाञ्चकंपे. सतः कृष्णश्चितयति, किमेष प्रलयकालकलनामापन्नोऽयं शंखनादः श्रूयते ! तावता|आयुधपालेन कृष्णस्य यथार्थों व्यतिकरः कथितः, ततो नेमिकुमारपराक्रमेण विस्मितो हरिबलदेवंप्रत्येवं बभाण. एं यस्य नेमिकुमारस्यैतादृशं मामर्थ्यमस्ति, स वर्धमानो मद्राज्यं सुखेन लास्यति. ततोऽस्य बलं परीक्ष्य राज्यरक्षणोपायं |चिंतयामः बलदेवेन भणितमलमनयाऽलीकशंकया, येनार्य पूर्व केवलिभिनिर्दिष्टो द्वाविंशतितमो जिनः त्वं पुनर्भरतार्धस्वामी नवमवासुदेवः. अयं च भगवानकृतराज्य एवं परित्यक्तसकलसावधयोगः प्रव्रज्यां ग्रहीष्यति.॥ अर्थः-अरिष्टनेमि भगवान् युवावस्थाने प्राप्त थया पण विषयसुखथी चिमुख होइ भित्रोनी प्रेरणाथी अनेक प्रकारनी क्रीडाओ करे छे. एक समये पोताना समान वयवाळा अनेक राजकुमारोनी साथे रमता रमता नारायणनी आयुधशाळामा जइ चल्या. ते शाळामा अनेक देवाधिष्ठित आयुधो जोयां तेमाथी काळवर्त नामनुं दिव्य धनुष उपाडयुं त्यारे ५ आयुधशाळाना रक्षके का हे कुमार ! पोताथी न थइ शके तेम शा माटे करो छो! आ धनुष्नुं आरोपण नारायण सिवाय बीजो कोई नर करी शके तेम नथी.आ वचन सांभळीने मेमिकुमारे हसीने ते धनुष लीलामाथी आरोपित करी तेनी दोरी खणखणावी. ए प्रत्यंचाना आस्फालन शब्दथी ** +CUTCखाय +%A5% For Private and Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥१२४२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पृथ्वी कंपी, आयुधशालामा उभेला सर्वजनो विस्मय पाम्या. ए धनुष मृकी दइने नेमिकुमारे शंख उपाडयो अने फूंक्यो. आ शंखना नादथी बघा बहेरा थइ गया, पृथ्वी कंपी गड़, पर्वतशिखरो खां अने द्वारकानगरी भुजी उठी. कृष्णे जाण्युं के - 'आ ते | भुं प्रलयकाळना जेवो शंखनाद संभळाय हे १ तेटलीवारमां तो आयुधशाळाना रक्षके जड़ने सघळो वृत्तांत कझो. त्यारे नेमिङमारना पराक्रमश्री विस्मय पामी कृष्णे बळदेवने कछु के-जे नेमिकुमारनं आवं सामर्थ्य के ते ज्यारे वृद्धि पामशे त्यारे सुखेथी मारुं राज्य लेशे, माटे आपणे तेनुं बळ पारखी आपणा राज्यरक्षणनो विचार करवो जोइए. बळ दे वे कछु के-आधी खोटी शंका करवा जेतुं कंदज नथी, केमके केवलिओए पूर्व कहेल ने जे ए नेमिकुमार बावीशमां जिन (तीर्थंकर) थशे अने तमे तो भरताना स्वामी नवमा वासुदेव छो. ए नेमिकुमार भगवन् राज्य कर्या विनाज सकळ सावद्ययोगनो परित्याग करी प्रव्रज्या (दीक्षा) ग्रहण करशे. एवं निरंतरं बलदेवेन राज्यहरणशंकया वार्यमाणोऽपि कृष्णः कदाचिदुद्याने गत्वा नेमिनंप्रत्येवमाह - कुमार ! निजनिजबल परीक्षार्थमावां बाहुयुद्धेन युध्याव: नेमिना भणितं किमनेन बुधजननिंदनीयेन बाहुयुद्धेन ? वाग्युद्धेनैवावां युध्यावः बाहुयुद्धेन हारितस्य तव महानयशः प्राग्भारो भविष्यति. कृष्णेनोक्तं क्रीडया युध्यतोरावयोः कीदृशोऽयमपशः समूहः १ ततो भगवता नेमिना स्वबाहुः प्रसारितः कथितं चायं मदीयो बाहुर्यदि भवता नामितस्तदा स्वया जितं मया च हारितमिति, ततः कृष्णेन सर्वशक्त्यांदोलितोऽपि भगवद्बाहुर्न मनाक चलितः यथास्य भगवतो मनो निश्चलं तथा बाहुरपि निश्चल एवेति जनैः प्रशंसा कृता. ततः परमचमत्कारं गतस्थ स्वराज्यहरणशंकाकुलितचेतसो नारायणस्य कियान् कालोऽतिक्रांतः अन्यदा नेमियैावनं प्राप्तो विषय For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०२२ ॥१२४२॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir + EMII उत्तराध्य-द्र सुखानापपासा दिसुखनिःपिपासोऽपि समुद्र विजयादिना विवाहार्थ भृशमुक्तोऽपि न विवाहमंगीकुरुते. ततः समुद्रविजयादिभिः भाषांन यन सत्रमा केशवस्यैवमुक्तं, केशव ! लथा कुरु यथा नेमिर्विवाहमंगीकृते. कृष्णेनाऽपि रुक्मिणीप्रमुखाः स्वभार्याः प्रेरिताः, अध्य०२२ ॥१२४ाताभिर्जलकेलिकरणपूर्वकमेव श्रीनेमिनाथस्योक्तं, स्वामिन् ! लोकोत्तरं तव रूपं, निरुपमाः सौभाग्यादयोऽनंता. ४१२४३॥ स्त्वयि गुणाः, निरामयस्तव देहा, सुरसुंदरीणामप्युन्मादजनकं तव तारुण्यं. ततोऽनुरूपदारसंग्रहेण सफलं कुरु दुर्लभं मनुष्यत्वं.॥ अर्थः-आधी रीते बळदेव हमेशा राज्यहरणनी शंकानुं निवारण करता तो पण कृष्ण गक वख्ते उद्यानमा जइ नेमिकुमारने |3 || मळीने कहेवा लाग्या के-'हे कुमार ! पोतपोताना बळनी परीक्षा माटे आपणे बेय बाहुयुद्ध करीये' नेमि बोल्या के-'समजुर माणम निंदा करे एवा बाहुयुद्धथी शु करवानुं हतुं ? आपणे वाणीथी युद्ध करीये. बाहुयुद्धमा तमे हारशो तो तमारो महारो अपयश | थशे.' कृष्णे का-'क्रीडायुद्ध करता आपणा बन्नेनुं अपयश केम थाय ?' त्यारे नेमिभगवाने पोतानो बाहु लांबो कर्यो अने कह्यु के-'जो तमे आ मारो बाहु नमावो तो तमे जीत्या अने हुं हार्यो.' पछी कृष्णे पोतानी सर्वशक्ति वापरी पण भगवान्नो बाहु जराय नम्यो नहिं अने भगवान्ना मन जेवो तेनो बाहु पण निश्चल जोइ जनोए तेनी प्रशंसा करी. आवो परम चमत्कार पामी पोताना राज्यहरणनी शंकामां कृष्णनो केटलोक काळ बीत्यो, नेमिकुमार युवावस्थामां आव्या, पोते विषयसुखनी लालसा रहित के छतां समुद्रविजय जेवा राजाओ विवाह माटे घणु कहे छे तो पण विवाह करवानो अंगीकार करता नथी. त्यारे समुद्रविजयादिके मळी | केशवने कयु के कोइ पण प्रकारे आ नेमिकुमार विवाह करवानें कबूल करे तेम करावी आपो तो ठीक ते उपरथी कृष्णे केटलीएका Rear MPSC + + + + For Private and Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir समाषांतर यन सूत्रम् खीओने मोकली ने स्वीओए जळक्रीडापूर्वक नेमिने कई के- हे नेमिकुमार ! तमारं आ अलौकिक रूप, निरुपम सौभाग्यादिक उत्तराध्य8| तमारा गुणो, रोगरहित तमारो देह, सुरसुंदरीने पण उन्माद करे एवं तमाळ यौवन; आ बधी योग्यता होबाथी तमे कोई लायक अध्य०२१ भासी परणी दुर्लभ मनुष्यपणानुं साफल्य संपादन कगे. ॥ ५॥१२४४॥ ततो हसित्वा नेमिनाथेन भणितं मुग्धानामशुचिस्वरूपाणां यहुदोषालयानां तुच्छसुखनिबंधनानामस्थिरसंगमानां रमणीनां संगमेन न भवति नरत्वं सफलं. अपि चैकांतशुद्धाया निष्कलंकाया निरुपमसुग्वायः शाश्व-11 तिसंगमायाः सिद्धिवध्ध्वा एव संगमेन नरत्वं सफलं भवति, यतः-माणुसत्ताइसामग्गी । तुच्छभोगाण कारणा॥ | रयण च कोडिआहच । हारिति अबुहा जणा ॥१॥ अहं मिद्धिवधूनिमित्तमेव यतिष्ये ॥ ___अर्थ:-त्यारे नेमिनाथे कयु के'मुग्ध, अशुचिस्वरूप, बहु दोषनां घरतुल्य, तुच्छ सुखना कारणभूत, अस्थिर समागमवाळी ४ रमणीना संगमथी मनुष्यत्व सफळ नथी थतुं किंतु एकांत शुद्ध, निष्कलंक, निरुपम सुखरूप, शाश्वत संगम अर्पनार सिद्धिरुपी वधूना 8 संगमथीज नरपणुं सफल थाय छे. कापण छे के-'आ मनुष्यपणानी सामग्री तुच्छभोगने कारण वापरीने अबुधजनो रत्नने कोडीना | बदलामा हारी बेसे . ' माटे हूं तो सिद्धि वधूने माटे यत्न करीश.॥ ___ नेमेग्यमभिप्रायस्ताभिः कृष्णाय निवेदिता. कृष्णेन च नेमिः स्वयं भणितः, ऋषभादयस्तीर्थकरा वारसंग्रह क्रत्वा सतानपरंपरां वर्धयित्वा स्वेष्टलोकमनोरथान् पूरयित्वा पश्चिमवयसि निष्क्रांताः, शिवं प्राप्ताश्च. स्वमपि तत्तुल्यस्तत्रैव मोक्षे यास्यसीति, दशारचक्रसंतोषाय किं न पाणिग्रहण करोषि इति कृष्णः प्रकामं विगहाग्रह DAREKKERAcience For Private and Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपराभ्यबन बत्रम ॥१२४५ भाषांतर अध्य०२१ ॥१२४५० कृतवान्, नेमिस्तु मौनमालंब्य स्थितः. कृष्णेन चिंतितमनिषिद्धमनुमतमिति न्यायादंगीकृत गव नेमिना विवाह इति दशारचक्रायोक्तवान्. संजातहर्षेण दशारचक्रेण भणितः कृष्णस्त्वमेव नेम्यानुरूपां कन्यां गवेषयः ततः कृष्णन गवेषयतोग्रसेनपुत्री राजीमती कन्या नेमितुल्यरूपाता. सा पुनर्धनवतीजीवोऽपराजितविमानाच्छ्युत्वा तत्रोत्पन्नास्तीति. इयमेव नेम्यनुरूपेति तदर्थ कृष्णेनोग्रसेनः प्रार्थिता, तेनापि मनोरथातीतोऽयमनुग्रह इति भणित्वा कन्या दत्ता. | अर्थः-नेमिनो आ अभिप्राय ते स्वीओए कृष्णने जणान्यो त्यार कृष्ण पोते नेमि पासे जइने बोल्या के-ऋषमादिक तीर्थकरो हास्त्रीओ परणी संतान परंपरा वधारीने तेमज पोताना इष्टजनोना मनोरथ पूर्ण करीने उत्तर अवस्थामा प्रजित थया अने शिव-मोक्ष पाम्या तेम तमे पण ते ओनी बराबर ची त्यांज मोक्षे जब शकशो तो पछी आ दशारचक्रना संतोष माटे शा माटे पाणिग्रहण नथी करता ? आवी रीते विवाह माटे कृष्णे आग्रह कयों, ते नेमि तो मौन धारण करी सांभळी रहा. कृष्णे विचार्य के-निषेध न कों तेथी नेमि संमत थया-आम धारीने दशारचक्रने का के नेमिए परणवानुं स्वीकार्यु माटे कन्या गोतो. दशारचक्रे कृष्णने कार्य के तमेज नेमिने लायक कोइ कन्या शोधी लाचो. कृष्णे तो उग्रसेननी पुत्री राजीमतीनं मागु कयु. उग्रसेन राजाए पोतानो मनोरथ सिद्ध थयो मानी घणी प्रसन्नताथी 'आ तो मारो अनुग्रह थयो' आम कही पोतानी राजीमती कन्या के जे धनवती जीव विमान| मांथी व्यवीने अवतरेल के ते नेमिने आपी. ॥ ततः कारितं कुलदयेऽपि वर्धापन, गृहीतं विवाइलनं, कारितः समस्तजातिवर्गस्य भोजनाच्छादनाविसत्कारः, ROSCORGARH For Private and Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर * उचराध्यबन पत्रम् ॥१२४६॥ प्राप्ते च लग्नदिवसे दिव्यरमणीभिः लापितोऽलंकृतो विभूषितो मत्तवारणमारूढः, समंतान्मिलितदशारचक्रवलदेववासुदेवादियादवपरिकरितः, पृष्टी वादितानेककोटिप्रमाणवादित्रः, शिरोधृतातपत्रचामराज्यमानः, पृष्टौ || गीयमानमंगलः, सर्वतो मागधैः कृतजयजयारवा, सुरनरसंघेन सर्वतो वीक्ष्यमाणः, सुरिभिर्नारीभिश्च प्रार्थ्यमानो ४१२४६॥ | नेमिकुमारःप्राप्तो महताविस्तरेणोग्रसेननृपदारपुरोरचितविवाहमंडपासन्नदेशं. राजीमत्यपि सर्वालंकारविभूषिता गवाक्षस्था नेमि दृष्ट्वानंदपरवशा जाता. एतदपि तदानीं न वेत्ति, काऽहं ! किमत्रास्ति ? कोऽयं कालः कीरशी चेष्टेति. अत्रांनरे करणारवं श्रुत्वा जानतापि नेमिना पृष्टः सारथिः, कोऽयं मरणभीरूणां प्राणिनामेष करुणारवः! तेन कथितं स्वामिस्तव विवाहगौरवायानेकजनभोजनाय मेलिता अमो हरिणादयो जीवा व्यापादयिष्यंते, तेच सांप्रतमादं कुर्वतीति. नेमिराह सारथे। रथमितो निवर्तय ? नाहं विवाहं करिष्ये. यत्रैतावतां प्राणिनां वधस्तेन |विवाहेन मे समाप्त, संसारपरिभ्रमणहेतुरेवायं विवाह.नेभिवचनाते सर्वेऽपि प्राणिना मुक्ता गताः स्वस्थानं सुखेन. अर्थः-बबे कुळमां बधामणां थयां विवाहनु लग्र निश्चित थयं अने समस्त ज्ञातिवर्गने भोजनादि सत्कार शीरु थयो. ला| दिवस आव्यो, दिव्यरमणीओ मळीने नेमिने नवरावी बन्न अलंकारादिकथी शणगार्या, मत्त हाथी उपर चडीने चारेकोर मळेला दशारचक्र, वळदेव, वासुदेव वगेरे यादवोथी परिवारित तथा पाछळ अनेक प्रकारनां वाद्य वागतां मस्तक उपर छत्र घराबी चाम | रोबडे व्यजन कराता वळी पाछळ मंगळगीत गवाय छे अने मागधजन जय शन्दो बोलता आवे छे बळी देव मनुष्योना टोळां सर्वत्र जुए छे मुरनारीओए प्रार्थना कराता नेमिङमार महोटा विस्तार सहित उग्रसेन राजाना द्वार आगळ रचेला मंडप समीपे आवी ॐ For Private and Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir + ACCASSANA + | पहोंच्या. राजीमती पण सर्व आभूषणोथी शणगारली गोखमां बेठी नेमिकुमारने जोइने आनंदमां एटली तो परवश बनी गइ के-ला उत्तराध्या है हु कोण छु ? क्या बेठी छु ? आ को समय छ ? अने भा केवी चेष्टा थाय छे ! ए पण तेणीने भान न रा. आ समये करुण | भाषांत यनरत्रम् अप०२१ ॥१२४७॥ शब्द सांभळी (जाणता हता छता पण) नेमिए सारथीने पछयु के-'जाणे मरणथी त्रास पामतां होय तेवा प्राणीओनो आ “रुण | | १९४७ नाद क्या थाय छे ?' तेणे कछु के-'हे स्वामिन् ! आपना विवाहना उत्सव प्रसंगे अनेकजनोने माटे भोजन बनाववामां उपयोगी * आ हरिण आदिक जीवो मेला कर्या छ तेओने मारशे, ए अत्यारथीज बुमराण करी रह्यां छे.' नेमिए का के-हे सारथि! मारो आ रथ जलदी अहींथीज पाछो वाळ मारे विवाह करवो नथी. ज्यां आटलां वां प्राणीमोनो वध थाय ए विवाह मारे न जोहये. विवाह तो संसारपरिश्रमणनोज हेतु छे.आवखते नेमिना वचनथी ते तमाम प्राणीओने छोडीमुक्यां तेथी ते सघळा स्वस्थानके जता रह्यां. विरक्तचित्तं पश्चादलमान नेमिमालोक्याकांडवज्रप्रहारताडितेच विलला राजीमती धरणीतले निपतिता मूर्छिता, ससंभ्रमेण सम्वीजनेन शीतलजलसिक्ता, तालवृतेन वीजिता लम्धचेतनै विललाप. अहो! मयात्यंत-13 दुर्लमे भुवननायेऽनुराग कुर्वत्याशमा लघूकृतः धिग् मम सुकुलोत्पत्ति, घिग मम रूपयौवनं च धिम् मम कलाकुशलतां, येनाहं नेमिना प्रतिपद्यापि मुक्ता. हे नाथ ! मे जीवितं निर्गच्छति, अंगानि मे घुटंनि, हृदयं मे स्फुटति. विरहानिज्वालाकुलितोऽयं ममात्मा, आहारो मे क्षारसदृशः,जलचंदनचंद्रिकादयः पदार्थाश्चिताप्रिसदृशाः | स्वामिस्तव विरहे मम जायंते, स्वामिन् ! मां त्वं किं त्यजसि ? किं मम विरुद्धं त्वया श्रुतं दृष्टं वा ? जन्मांतरकृतं ममाशुभकमैवोदितं, स्वामिन्नेकवारं ममाभिमुखं दृष्टिं देहि ! प्रेमपरायां मयि त्वं सर्वथा निरपेक्षो माभू अथवा + + + C+ For Private and Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्चराध्ययन स्त्रम् ॥१२४८ - %AKKA सिद्धिवधूत्कंठितस्य तव हृदयं सुरसुंदयोंऽपि न हरंति, मनुष्यस्त्रीणां तद्धरणे का गणना ? एवं महाशोक| भरादिता विलपंति राजीमती सखीजनेन भणिता, अलंघनीयो भवितव्यतापरिणामः, ततो धीरत्वावलंयनं कुरु:भाषांतर अलमत्र विलपितेन, सत्वप्रधाना राजपुत्र्यो भवंतीति भणित्वा संस्थापिता.॥ अध्य०२१ | अर्थ:-विरक्तचित्त थइ पाछा वळता नेमिने जोइ राजीमती तो जाणे अकस्मात् वीजळी पडवाना आघातथी जेम तेम विह्वल | ॥१२४८० | थयेली पृथ्वीतल उपर मूर्छा खाइने पडी गइ, गभराइ गयेल सखीजनोए शीतळ जळ छांटी तालना पंखाबडे पवन नाखतां शुद्धिमा |आवी त्यारे भोंयपर पडीपडी विलाप करवा लागी. अहो ! आ अतिदुर्लभ भुवननाथ जेवामां मे अनुराग करीने मारो आत्मा हलको कर्यो. मारी सारा कुळमां उत्पत्ति थइ तेने धिकार; मारा आ रूपने, यौवनने तथा आ मारी कळाकुशळताने पण धिक्कार छे के जे हुँ नेमिनाथने पामीने त्यजाणी. हे नाथ ! मारुं जीवित जाय छे मारा अंगो त्रुटे छ; मारु हृदय फाटे छे, मारो आ आत्मा विर| हामिनी ज्वाळाथी आकुळ थाय छे, अने आहार खारो थयो, जळ, चंदन, चंद्रिका आदिक पदार्थो चिताना अग्नि समान थया. हे स्वामिन् ! मने केम त्यजो छो ? | आपे कई मारु विरुद्ध आचरण दीर्छ के सांभळ्थु ! आ ते शु मारूं जन्मान्तरमा करेलं अशुभ कर्म उखळ्यु ? हे स्वामिन् ! एकवार मारे सामे दृष्टि करो. आपन विषये प्रेमपरायण थयेली आ किंकरी प्रति अनादरवाळा मा थाओ अथवा सिद्धिवधूमा उत्कंठित थयेला तमाएं सुरसुंदरीओ पण हृदय हरी न शके तो पछी मनुष्य स्त्रीनी शी गणना? आम महाशोकथी| |पीडाइने विलाप करती राजीमतीने तेनी सखीओए कयु के-'भवितव्यतानो परिणाम कोइथी ओळंगी शकातो नथी माटे धीरज धरो. हवे विलाप बन्ध करो. तमारा जेवी राजपुत्रीओ तो सत्वगुणवाळी होय छे.' आवां वचन कहीने जरा शांत करी.॥ वर For Private and Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ACTS भाषांवर अध्य०२१ १२४९॥ -4* द्वितीयदिनेऽनया सखीनां पुर पचमुक्तं, अद्य मयेदृशः स्वप्नो दृष्टः, यथा मवारदेशे एको दिव्यपुरुषो देव उपराध्य दानयपरिवृतः सिंहासनमारूढः, तस्याभ्यर्णेऽनेकजंतवः समायाताः, अहपि तत्रैव गता, स च चतुरः शारीर. सनरत्रम् मानसदुःखप्रणाशकानि पादपफलानि तेभ्यो ददन्मया प्रार्थितो भगवन् ! ममाप्येतानि फलानि देहि ? तेन तानि ॥१२४९॥ दत्तानि. तदनंतरं प्रतिबुद्धाह, सखीभिर्भणितं हे प्रियसस्विी मुखकटुकोऽपि स्वप्नोऽयं शीघ्रं परिणामसुंदरोभविष्यति. अर्थः-चीजे दिवसे राजीमतीए सखीओनी आगळ कछु के-'आज में स्वप्नमा एम दीर्छ के जाणे एक दिव्य पुरुष मारा द्वारप्रदेशमा सिंहासन उपर बेठा छे अने तेने फरता देवदानवो उभा छे, आ पुरुषनी आगळ अनेक जंतुओ आध्या, हु पण त्यांज गइ त्यारे ए चतुर पुरुषे शरीर तथा मननां दुःखोनो नाश करे तेवां वृक्षोनां फळ ए जंतुओने दीधां ते वख्ते में प्रार्थना करी केहे भगवन् ! मने पण ए फळो आपो' एटले तेणे मने पण फळो दीघां, तदनंतर तो हुँ जागी गइ. आ स्वप्ननी हकीकत सांभळीने सखीओए राजीमतीने का के-'हे प्रियसखि ! आ स्वप्न उपरथी कटु जणातो होय तो पण परिणामें घणोज सुंदर नीवडशे. ॥ इतश्च नेमिनाथः समुद्र विजयशिवादेख्यादिभिर्विविधैरुपायै पाणिग्रहणार्थ प्रार्थ्यमानोऽपि नैव तमर्थमंगीचकार. अस्मिन्नवमरे लोकांतिकास्तत्रागत्यैवमूचिरे, भगवन् ! सर्वजगजीवहितं स्वं तीर्थ प्रवर्तयेति मणिवा जननी जनकादीनामंतिके गत्वैवमूचुः, भवत्कुलोत्पन्नःश्रीनेमिःप्रव्रजिषुरस्तीति को भवतां विषादः नेमिरपि मातृपित्रोः XI पुरः कृतांजलिरेवमुवाच, इच्छामि युष्मदनुज्ञातः प्रबजितु. इदं च अत्वा शोकसंघटमिरदहदया धरणीतले निपतिता चूर्णितभुजवलया शिवादेवी, मिलितं तत्र दशारचक्र, जलाभिषेकादिना सन्धसंज्ञासा भणितुमारब्धा, 4-95*4441 * For Private and Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का वत्स! कथमस्माकं मनोरथं मूलादछिदसि कथं वा त्वं सत्पुरुषोऽपि प्रार्थानाभंग करोषि ? दशारचक्रस्यापि मनःसंतापं किं करोषि ? कथं च वयमुग्रसेनराज्ञो मुख दर्शयिष्यामः ? कथं च स्वदेकचित्ता सा वराकी राजीमती भाषांतर उत्तराध्य है भविष्यति ? ततोऽस्मदुपरोधेन तस्याः पाणिग्रहणं कुरु । ततः पश्चात्प्रवज्यां गृहीयाः ? भणितं च भगवता अभ्य०१२ बन एवम् .. . मातर्मन:संताप मा कुर्याः, सर्वभावानामनित्यत्वं भावय ! विषयाणां विपाकदारुणत्वमतृप्तिजनकत्वं चास्ति. ४११५०॥ ॥१२५०* ६ यौवनधनादीनां चंचलत्वं, संध्यासमयाभ्रतुल्यतां च विलासानामवेहि ? अकांडप्रहारत्वं मृत्योः जन्मजरामरण| रोगादिप्रचुरत्वं च संसारस्थालोचय । ततो मातामनुजानीहि भवप्रदीपनाविगच्छत. । ____अर्थः-अहीं नेमिनाथ, समुद्रविजय तथा शिवादेवी बगेरेये विविध उपायोबडे पाणिग्रहण माटे समजाववा मांउचा पण ते ओनी प्रार्थनानो अंगीकार नज कर्यो. आ अवसरे लोकांतिको त्या आवीने बोल्या के-'हे भगवन् ! सर्व जगतना जनोनु हितकर तीर्थ तमे प्रवर्गवो.' आम नेमिनाथने कही पछी तेनां मातापिता आदिकनी पासे जइ कधु के-'आपना कुळमां उत्पन्न बयेला श्रीनेमि प्रव्रज्या गृहण करवा इच्छे छे तो तेयां तमे खेद कां करो छो! आ समये नेमि पोते पण मातापिता आगळ आवी वे हाथ जोडीने कडेवा लाग्या के-आपनी अनुन्ना लइ प्रव्रज्या गृहण करवा इच्छु छ. आ सांभळी शिवादेवी शोकना आघातथी रुंधाइ गर्यु छे हृदय जेनुं एवी थइने धरणीतळे पडी गइ अने तेनां हाधनां कंकण मांगी गया. दशारचक्र मेलु थयु. जळ छांटीने सावध कयाँ त्यारे शिवादेवी पोलवा लाग्यो के-'हे वत्मा अमारा मनोरथने मूळमाथी केम छेदोछो तमे सत्पुरुष कहेवाओ छो अमारी प्रार्थनानो है भंग केम करो छो ? आ दशारचक्रना मनने संताप शा सा सारं करावो छो? अमे राजा उग्रसेनने मुख केम बतावी शक? मात्र % For Private and Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यक्न पत्रम् | भाषांतर अभ्य०२१ १२५१३ ॥१२५१ कनक तमारा एकमांज जेनुं चित्त छे एवी राजीमती कम रही शकशे ? माटे अमारी खातर तेनुं पाणिग्रहण करो अने पछीथी प्रव्रज्या गृहण करजो. आ सांभळी भगवान् नेमि बोल्या के-हे माता! तमे मनमा संताप मा करो. सर्व पदार्थोनी अनित्यता समजो विषयो बधा परिणामे अति दारुण के अने सर्वथा तृप्तिजनक थताज नथी. यौवन धन आदिक सर्व चंचळ छे, आ बधा विलास संध्या समयनां वादळां जेवां क्षणिक छे; मृत्यु अकस्मात् प्रहार करनारो छ, अने आ संसार तो जन्म जरा मरण रोग आदि उपद्रवमयज समजो. माटे हे माता! आवळता भवमाथी नीकळी जवाने मने अनुज्ञा (रजा) आपो. ॥ अत्रांतरे दशारचक्रेण नेमिणतः, कुमार ! संप्रति त्वया परित्यक्तस्य यादवलोकस्य न कश्चित् त्राणमिति ततः कंचित्काल प्रतीक्षस्व ? सदुपरोधशीलया वाण्या भगवता संवत्मरमेकं यावत् स्थितिरंगीकृता, दत्तं च तस्मिन्नेव सांवत्सरिक दानं. प्रतिपूर्णे च संवत्सरे मातृपित्रादीनापुच्छय श्रावणशुद्धषष्ठयां स देवमनुष्यपर्षदा परिवृतो नगर्या निर्गत्य गतः सहस्राम्रबनोद्याने, त्रीणि वर्षशतानि गृहस्थावासे स्थिन्या षष्ठभक्तेन पुरुषसहस्रेण समं तत्र निष्क्रांतस्तपासंयमरतो विहरति.।। अर्थः-आ अवसरे दशारचके नेमिन कधु के-'हे कुमार ! आ टाणे तमे आ यादव लोकोने त्यजतां एओने कोई आश्वासन नथी तो आप केटलोक काळ खोभरो तो सारूं' आवा आग्रहथी तेओना मनःसमाधानार्थ भगवान नेमिनाथे एक संवत्सर सूधी त्यां स्थिति करी. अने त्यांज सांवत्सरिक दान दीधुं. ज्यारे एक संवत्सर पूर्ण थयो त्यारे मातापिता वगेरेनी रजा लइ श्रावण शुक्लषष्ठीदिने देवमनुष्य मंडळथी परिवृत्त नेमिनाथ नगरीमाथी नीकळी सहस्राम्रश्न नामना उद्यानमां गया. त्रणसे वर्ष गृहस्थावासमां %82%A4% *% For Private and Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | रही छटनी तपस्यावाळा हजार पुरुषोनी साथे नीकळेला तपासंयममा दृढता राखी विहार करवा लाग्या.॥ उत्तराध्य- । इतश्च भगवतो भ्राता रथनेमिः प्रीतिपर एकांते राजीमतीमेवमाह, सुभृ!मा कुरु विषादं ? सौभाग्यनिधि | भाषांतर मन सम्ब कः को न प्रार्थयति ? भगवान् पुनर्नेमिनाथो वीतरागत्वान्न करोति विषयानुबंध, ततः प्रतिपद्यस्व मां? सर्व अध्य०२९ ॥१२५२४ कालमहं स्वदाज्ञाकारी भविष्यमि. तया भणितं यद्यहं नेमिनाथेन परित्यक्ता, तथाप्यहं तं न परित्यजामि. यतोऽहं ४१२५२० भगवत् एव शिष्यणो भविष्यामि. ततस्त्वमेनं प्रार्थनानुबंध त्यजीततःस कतिचिद्दिनानि यावन्मौनेन स्थितः अन्यस्मिन् दिने पुनरपि तेन सा प्रार्थिता. ततस्तया तत्प्रतियोधार्थ तत्प्रत्यक्षमेव क्षीरं पीत्वा मदनफल पानेन वांत्वा, तच्च सौवर्णिककचोलके क्षिप्त्वा समुपनीतं स्थनेमेभणितं चेदं पिय? तेनोक्तं कथं वांतं पिबामि ? तया | भणित त्वं किमेतज्जानासि ? स आह बालोऽप्येतज्जानाति.साख्यत्तहि नेमिनाथांतां मां कथं त्वं पातुमिच्छसि ? इदं राजीमत्या वचः श्रुत्वा स उपरतः. राजीमत्यपि दीक्षाभिमुखी तपोविधानः शरीरं शोषयंती तिष्ठति.॥ ___अर्थः-आ तरफ भगवान् नेमिना भाइ स्थनेमि राजीमतीमां प्रीतिमान् बनी एकांतमा तेणीने बोल्या के–'हे शोभन भृकुटीवाळी ! तुं जराय खेद करयां. तारा जेवी सौभाग्यनिधिनी कोण प्रार्थना न करे। भगवन् नेमिनाथ तो वीतराग होवाथी विषयमां न लाग्या तो पछी तुं मने पतिरुपे स्वीकार. हमेशां हुं तारो आज्ञाकारी बनीने रहीश.' आ वचन सांभळी राजीमती बोली के-18 | जो के नेमिनाथे मन त्यजी पण में नेमिनाथने नथी त्यज्या,हुं तो एभगवान्नी शिष्या बनीने रहीशमाटे तुंआ प्रार्थनानो आग्रह छोडी दे. ते पछी ए रथनेमि केटलाक दिवस तो मुंगे मोढे बेसी रह्या पण फरीथी एक दिवस आवीने वळी पाछो पोताने वरवानी मागणी 31 AC For Private and Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करवा लाग्या त्यारेराजीमतीए तेने प्रतिबोध आपवा माटे तेना देखनांध पी नेना उपर मीढण घसीने पीधुं के तस्त वमन थयु, ए वमन उत्तराभ्य- करेल द्ध एक कचोळामां भरी स्थनेमिनी पासे धरी कई के-'आपीओ.' त्यारे रचनेमि कडे 'ए बमन करेल कंड पीवाय? राजीमती भाषावर यन पत्रम् ६ कहे 'आम तमे समजो छो?' रथनेमि कहे 'ए तो नानो बालके समजे के वमन करेलुं न पीवाय एमा शुं ? त्यारे राजीमती बोली | अध्य०१५ 2॥१२५॥ के-'त्यारे नेमिनाथे बात करेली मने तमे केम पीवा इच्छो छो? आq राजीमतीनुं वचन सांभळी ते उपराभ पाम्यो. राजीमती पण दीक्षा लेवानी धारणाथी तपोविधानवढे शरीरनु शोषण करवा लागी.॥ है। अत्रांतरे चतुःपंचाशदिनपर्यते भगवतः श्रीनेमिनाथस्य रेवतगिरिसहस्राम्रबने केवलज्ञानमुत्पन्न. देवैः कृतं ममवसरणं. तत्र समायातासु द्वादशपर्षत्सु देशना कृता. तां च श्रुत्वा बहवः प्राणिनः प्रवजिताः केचिद् गणधरा जाताः, स्थापितं भगवता तीर्थ, राजीमत्यपि विविधकन्याभिःसह प्रवजिता. रथनेमिरपि संविग्नस्तदानीमेव प्रव्रजितः. राजीमती तदानीमेवमचिंतयत, यो मया तदानी दिव्यपुरुषस्वप्नो दृष्टः सोऽद्य मफलो जातः. अर्थ--आ अवसरमा चोपनदिवसने अंते भगवान् नेमिनाथने रैवताचलना सहस्राम्रवनमा केवळ शान उत्पन थयु. देवोए समवसरण कर्य, त्यांकणे आवेली द्वादश पर्षदने विषये देशना करी, ते सांभळीने घणा प्राणिओ प्रवजित थया, केटलाक गणधर प्रथया, मगवाने तीर्थ स्थाप्यु, राजीमती पण विविध कन्याओ सहित प्रबजित थयां. रथनेमि पण संवेगपामी तेज बखते प्रवजित थयो. राजीमतीए ते समये विचार्य के-'में ते वखते स्वप्नमां दिव्य पुरुष दीठो हतो तेनुं फळ मने आजे मळ्यु.॥ अन्यदा राजीमती साध्वीभिः समं भगवतो वंदनार्थ रैवतगिरि गच्छंत्यकस्मान्मेघवृष्ठयाऽभ्याहता. सर्वा For Private and Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उपराष्ययन सूत्रम् ॥१२५४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपि साध्योऽन्यगुहासु निलीनाः राजीमत्यप्येकस्यां गुहायां प्रविष्टाऽस्ति तत्र च पूर्व रथनेमिसाधुः प्रविष्टो परमंधकारप्रदेशे स्थितोऽयं न दृष्टस्तया. ततस्तया चीवराणि सर्वाण्यप्युत्तारितानि, एवं सा निरावरणा जाता. तस्याः शरीरशोभां दृष्ट्वा, इंद्रियाणां च दुर्दाततयाऽनादिभवाम्यस्ततथा च विषयाभिप्रायेण स परवशो जातः, तादृशो रथनेमिच तया दृष्टः, ततो भयभ्रांता सा सब आत्मानं प्रावृत्य बाहुभ्यां संगोप्यां च स्थिता. तेन भणिता हे सुतनु ! तावदनुरागवशेनाहमिदं शरीरमरतिपरिगतं धर्तुं न शक्नोमि ततः कृत्वानुग्रहं प्रतिपयस्व मया समं विषय सेवनं ? पश्चात् संजातमनःसमाधी आवां निर्मलं तपः संयमं च चरिष्यावः तयापि साहसमवलंब्य प्रगल्भवचनैः स भणितः, महाकुलप्रसूतस्य तब किमिदं युक्तं स्वयं प्रतिपन्नस्य व्रतस्य भंजनं १ जीवितमपि सत्पुरुषास्त्यजति न पुनर्ब्रतलोपं कुर्वन्ति ततो महाभाग । मनःसमाधिं कृत्वा चिंतय विषयविपाकदारुणत्वं, शीलखंडनस्य नरकादिकं च फलं ? न च विषयसेवनेन मनःसमाधिः, किं तु भूरितराऽरतिर्भविष्यति, विषयसेवनेन लब्धप्रसरस्य मनसः प्रकाममिच्छा वर्धते उक्तं च- अर्थ :- एक समये राजीमती साध्वीओनी साधे भगवान्ने वंदन करवा रैवतगिरिपर जइ रझां इतां तेटलामां अकस्मात् मेघ वृष्टि थवाथी अकळाने ए सघळी साध्वीओ पर्वतनी गुफाओमां भराइ गयां, राजीमती पण वासे रही जतां एक गुफामां पेठां. आ गुफामां रथनेमि प्रथमथी पेठेला पण अंधकारने लीघे राजीमतीए दीठो नहिं तेथी एकांत निर्जन स्थान जाणी भींजाइ गयेलां बखो ऊतारी पोते निरावरण थतां रथनेमिए दीठां. तेणीना शरीरनी शोभा जोर इन्द्रियोनी स्वछंदता तथा अनादिभवमां अनुभवेल For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य० १२ ॥१२५४॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3 % उपराज्य- बनरत्रम् ॥१२५५ भाषांतर अध्य०२१ १९५५ 3 % - बासनाथी विषयानुभिलाषवडे परवश थयेल रथनेमि तरफ राजीमतीनी दृष्टि जतां भयभ्रांत थइ तेणी पोतार्नु अंग ए भीनां वस्त्रोथी ढांकी बेय हाथवती आवृत करी बेसी गया. त्यारे रथनेमि बोल्या के-'हे सुततु ! आ वख्ते अनुरागना आवशथी बेचेनीमा घेरायेला आ मारा शरीरने हुँ धारी शकतो नथी माटे अनुग्रह करी मारी साथे विषयसेवन करो. पछीथी आपणे बेय मनःसमाधि यतां निर्मल ट्र तपःसंयम आचरण करीशुं. आटाणे ते राजीमतीए साहसन अवलंबन करी प्रगल्भ वचनोवहे रथनेमिने फदकार्यो के-'हे महोटा कुळमां जन्मेला तारा जेवा पुरुषने पोते स्वीकारेला व्रतने आम भांगवू ए योग्य छे ? मनने समाहित राखीने विचारो के-विषय का सेवननो विपाक (परिणाम) घणोज दारुण भयंकर थाय छे अने शीलखंडननुं फळ नरकगतिज छे. तेम विषयसेवन करवाथी मन:समाधि नथी थती, ए तो जेम जेम विषयोने सेवो तेम तेम अरति अधिकाधिक थवानी. विषय सेवनथी मनने मार्ग मळतां इच्छा वधे छे. कलुपण छे के भुक्ता दिव्या भोगा । सुरेसु तह य मणुएसु । न य संजाया तत्ति । अतत्ति रंकस्सवि जीअस्स ॥१॥ द इत्यादिवाक्यैस्तयाऽनुशासितः स संबुद्धः, सम्यगहं प्रतियोधितस्त्वयेति भणन्नात्मानं निंदयित्वा, राजीमती च भृश स्तुत्वा स गतः साधुसभामध्ये, सापि च साध्वीसभामध्ये गतेति. अरिष्टनेमिभगवान मरकतममवर्णो दशधनुरुच्छितदेहः शंखलांछनस्त्रीणि वर्षशतानि गृहवासे स्थिता, चतुःपंचाशद्दिनानि छास्थ्ये स्थितः, चतुःपंचाशदिनानि सप्तशतवर्षाणि केवलपर्यायेण विहृत्यानेकभव्यान् प्रतियोध्य च सर्व वर्षसहस्रायुः परिपाल्य | रैवतगिरावाषाढशुद्धाष्टम्यां सिद्धिं गतः क्रमेण रथनेमिराजीमत्यावपि सिद्धिं जग्मतुः, इत्यरिष्टनेमि - + - For Private and Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०२१ ४॥१२५६॥ चरित्रं सूत्रमने लिख्यतेयन पत्रम् | अर्थः-देवयोनिमां तथा मनुष्यभव मां दिव्य भोगो भोगव्या पण तृप्ति तो नज थइ. रांक जीवने पण अप्तिज रहे. १ इत्यादि वाक्योपडे राजीमतीए स्थनेमिने शीखामण आपतां प्रबुद्ध थइने ते बोल्या के-तमे मने सम्यक् प्रकारे प्रतिबोधित कर्यो आटल बोली पोतानी निंदा करतो तथा राजीमतीनी अत्यंत स्तुति करतो ते रथनेमि साधुसभामा गयो अने राजीमती पण साध्वीसभा मध्ये जइ पहोंची. अरिष्टनेमि भगवान् मरकतमणि समान देहकांतिवाळा दशधनुःप्रमाण दहनी उचाइवाळा तथा शंखलांछन धारण करता त्रणसो वर्ष गृहवासमां स्थित थया, चोपन दिवस पर्यत छमस्थ (वेष बदली छाना) रही विचर्या, चोपन दिवस युक्त सातसो वर्ष केवळ पर्यायथी विहार करी अनेक भव्य जीवोने प्रतिबोध आपीने सकळ सहस्र वर्षनुं आयुष परिपालन करी रैवतगिरिमां ४ आषाढ मासनी शुक्ला अष्टमीदिने सिद्धि पाम्या. क्रमे करी स्यनेमि तथा राजीमती पाम्यां. आ अरिष्टनेमिर्नु संक्षिप्त चरित्र कयु. &ा हवे तत्प्रतिपादक पत्रो आगळ लखाय छे. ॥ ___मृ०-सोरियपुरमि नयरे । आसि राया महडीए ॥ वसुदेवत्ति नामेणं । रायलकावणसंजुए ॥ १ ॥ ध्या-सौर्यपुरे नाम्नि नगरे वसुदेव इति नाम्ना राजासीत्, यद्यपि सौर्यपुरे समुद्रविजयप्रमुखा दश घशाही भ्रातरो विद्यते, तेषु दशसु लघुभ्राता वसुदेवोऽस्ति, तथापि वसुदेवपुत्रो विष्णुरभूत, तेन वसुदेवस्यच वर्णनं कृतं कीडशो वसुदेवः ? महर्द्धिकः, छत्रचामरादिविभूतियुक्तः, पुनः कीदृशः ? राजलक्षणसंयुतः, हस्तपादयोस्तलेषु राज्ञो लक्षणानि चक्रस्वस्तिकांकुशवजध्वजच्छत्रचामरादीनि, तैः महिता, अथवौदार्यधैर्यगांभीर्यादिसहित ॥१॥ For Private and Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उचराध्ययन सूत्रम् १२५७।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ:-- सौर्यपुर नगरमा वसुदेव नामे राजा हता. यद्यपि आ सौर्यपुरमा समुद्रविजय वगेरे दश दशार्ह भाइओ हता ते दशेमां नाना भाइ वसुदेव हता तथापि वसुदेवना पुत्र विष्णु थया तेने लीघे वसुदेवनुं वर्णन करें. केवा वसुदेव ? महधिक = छत्रचामरादि महोटी राजविभूतिथी संयुक्त, तथा राजलक्षणसंयुतः अर्थात् हस्ततलमां तथा पादतलमां चक्र, स्वस्तिक, अंकुश, वज्र, ध्वज, छत्र, चामर; इत्यादि चिन्होथी संयुत अथक्ष औदार्य, शौर्य, धैर्य, गांभीर्य इत्यादि राजगुणोवडे संयुत हता. १ ॥ मूतस्त भजा दुवे आसि । रोहिणी देवई तहा। ताय दोपि दो पुत्ता। अट्ठा रामकेसवा ।। २ ।। व्या० - तस्य वसुदेवस्य द्वे भायें आस्तां रोहिणी तथा देवकी, यद्यपि वसुदेवस्य द्वासप्ततिसहस्रं दारा आसन्, तथाप्यत्रो भयोरेव कार्याद्रोहिणीदेवक्योरेव ग्रहणं कृतं. तयो रोहिणीदेवक्योर्द्वयोद्ध पुत्रावभूतां तौ पुत्रौ को १ रामकेशवौ. कीदृशौ तौ ? अभीष्टौ मातापित्रोरधिकवल्लभो ॥ २ ॥ अर्थः- ते वसुदेवने वे भार्याओ हती, रोहिणी तथा देवकी. जो के वसुदेवने बउंतेर हजार स्त्रीओ हती तो पण अहीं बेनुंज कार्य होवाथी रोहिणी तथा देवकीतुंज ग्रहण करेल . ते रोहिणी तथा देवकीने के पुत्रो हता. ते पुत्रो कया ? राम तथा केशव ते केवा ! माता-पिताने अभीष्ट अर्थात् अतिप्रिय हता. (रोहिणीना बळराम अने देवकीना कृष्ण ) ॥ २ ॥ मृ० - सोरियपुरंमि नयरे । आमि राया महट्टिए । समुहविजए नामं । रायलक्खणसंजु ॥ ३ ॥ व्या० - सौर्यपुरे नगरे समुद्रविजयो राजा मर्धिक आसीत् कीदृशः समुद्रविजयः १ राजलक्षणसंयुक्तः, अत्र पुनः सौर्यपुराभिधानं समुद्रविजय सुवेषयोरेकभावस्थितिदशनार्थ ॥ ३ ॥ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०२२ ॥१२५७॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उतराध्य यन सूत्रम् ॥१२५८ ॥ ৮ভল- এ6 496615. www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ :- सौर्य पुरनगरमां महोटी ऋद्धिवाको समुद्रविजय नामनो राजा हतो. ते केवो १ राजलक्षणो बडे संयुक्त. अहींपण सौर्यपुर नगरनुं नाम, समुद्रविजय तथा वसुदेव बन्नेनी एकत्र स्थिति दर्शाचवा माटे निर्दिष्ट करेलुं छे. ।। ३ ।। मृ० - तस्स मज्जा सिवानाम । तीय पुते महायसे || भयवं अरिट्टनेमित्ति । लोगनाहे दमीसरे ॥ ४ ॥ व्या० तस्य समुद्र विजयस्थ राज्ञः शिवानाम्नी भार्यासीत् तस्याः पिवादेव्याः पुत्रो भगवानैश्वर्यधारी अरिष्टनेमिरासीत्. चतुर्दशस्वमदर्शनानंतरमेकमरिष्टरत्नमयं रथचक्रं सा ददर्श तेनारिष्टनेमिरिति नाम प्रदत्तं कथंभूतोऽरिष्टनेभिः सहायशा महाकीर्तिः पुनः कीदृशोऽरिष्टनेमिः ? लोकनाथश्चतुर्दशरज्जुप्रमाण लोकप्रभुः पुनः कीहशोऽरिष्टनेमिः १ दमीश्वरः कुमारत्वेsपि येन कंदर्पो जितः तस्मादमिनां जितेंद्रियाणामीश्वरो दमीश्वरः ॥ १ ॥ अर्थ - ते समुद्रविजय राजानी शिवा नामनी भार्या हती. ते शिवादेवीना पुत्र भगवान् ऐश्वर्यधारी अरिष्टनेमि हता-ए शिवादेवी ए स्वप्नमां चतुर्दश स्वप्न दीठापछी एक अरिष्टरत्नमय रथचक्र तेणीये दीढुं ते उपरथी ए पुत्रने अरिष्टनेमि एवं नाम धरान्धुं. ते अरिष्टनेमि कंवा ? महोटा यशवाळा तथा लोकनाथ = चतुर्दशरज्जु प्रमाण लोकना प्रभु अने दमीश्वर = कुमारपणामांज जेणे कंदर्पने जीत्यो तेथी दमी - जितेंद्रियोना इश्वर-दमीश्वर थया. ॥ ४ ॥ मू० -- सोरिट्ठनेमिनामो उ । लक्खणस्सरसंजुओ || अट्ठसहस्सलक्खणधरो । गोयमो कालगच्छवी ॥ ५ ॥ व्या-- अथारिष्टनेमे वर्णनमाह-- सोऽरिष्टनेमिनामा भगवानष्टसहस्रलक्षणधरो वर्तते, अष्टभिरधिकं सहस्रमष्टसहस्रं लक्षणानामष्टसहस्रं लक्षणाष्टसहस्रं, तद्धरतीति लक्षणाष्टसहस्रधरः, अष्टसहस्रलक्षणानि धरतीति वाऽष्ट For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०२२ ।। १२५८ ।। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Achan Shri Kailassagarsuri Gyanmandi www.kobatirth.org उचराध्य यन पत्रम् ॥१२५९। - सहस्रलक्षणधरः. पुनः कीदृशः? लक्षणस्वरसंयुतः, लक्षणैः सहितः स्वरो लक्षणस्वरस्तेन संयुतः. स्वरस्यल क्षणानि | भाषांतर | माधुर्यलावण्याऽव्याहतगांभीर्यादीनि, तैः संयुतः. तीर्थकरस्य हि अष्टाधिकसहस्रलक्षणानि शरीरे भवंति. स्वस्तिका | वृषभसिंहश्रीवत्मशंखचक्रगजाश्वच्छत्राब्धिप्रमुखाणि लक्षणानि हस्तपादादो भयंति. पुनः कीदृशोऽरिष्टनेमिः १ १२५९॥ गौतमो गौतमगोत्रीयः, पुनः कीदृशः? कालकच्छविः श्यामकांतिः. ॥५॥ अर्थः-हवे ए अरिष्टनेमि कुमारचं वर्णन करे छे. ते अरिष्टनेमि नामना भगवान् अष्टसहस्रलक्षणधर हता, अर्थात् एक हजारने आठ लक्षणो धारण करनारा हता. वळी ते केवा हता? लक्षण स्वर संयुत-लक्षण सहित स्वरवडे संयुत हता. अर्थात् माधुर्य, लावण्य,15 अव्याहतता, गांभीर्य इत्यादिक स्वरनां जे लक्षणो तेणें करी संयुत हता. तीर्थकरना शरीरमा एक हजारने आठ लक्षणो होय छे; जेवाके-स्वस्तिक, वृषभ, सिंह, श्रीवत्स, शंख, चक्र, गज, अश्व, छत्र, समुद्र; इत्यादि लक्षणो हाथ पग वगेरे शरीरावयवोमां होय छे. वळी ते अरिष्टनेमि केवा ? गौतम, अर्थात्-गौतमगोत्रीय तथा कालकच्छवि-श्याम देहकांतिवाळा हता. ॥ ५ ॥ मू-बजरिसहसंघयणे । समचउरसो झमोयरो ॥ तस्स राइमईकन्नं । भजं जाचइ केसवो ॥ ६॥ व्य-पुनः कीदृशः सः? वज्र कीलिका, ऋषभः पट्टः, नाराच उभयपार्श्वयोमर्कटबन्धः, एभिः संहननं शरीररचना यस्य स बज्रर्षभनाराचसंहननः पुनः कीदृशः समचतुरस्रः प्रथमसंस्थानवान्, यः पनासने स्थितः सन् चतुःषु पार्थेषु सदृशशरीरप्रमाणो भवति, स, समचतुरस्रसंस्थानवानुच्यते. अथ तस्यारिष्टनेमिकुमारस्य केशवः कृष्णो राजीमती कन्या भार्यायै याचते. कृष्णदेवो राजीमत्या जनकपाचै राजीमती कन्यां नेमिनाथस्य भार्यार्थ 45- - HIK For Private and Personal Use Only C Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सत्रम् | ॥१२६०॥ RCISCARRESCRICK याचते इति भावः.॥६॥ अर्थः-पुनरपि ते केवा हता ते कहे छे वर्षभनाराचसंहनन-बन-कीलिका, ऋषभ पट्ट अने नाराचम्बने पाश्चमां मर्कट:भाषांतर बंध; आवा प्रकारचें जेनु संहनन शरीररचना छे एवा, तथा समचतुरस्र-प्रथम संस्थानवान् अर्थात् ज्यारे पद्मासने स्थित थाय त्यारे अध्य०२२ ४॥१२६०॥ | चारे पटखे अदृश शरीरप्रमाण जणाय तेवा होय ते समचतुरस्र संस्थानवाळा कडेवाय छे. बळी ते झपोदर, पटले मत्स्यना समान | उदरप्रदेशवाळा हाता. आवा ए अरिष्टनेमिकुमारने भार्या अर्थे केशव-कृष्णे राजीमती कन्यानी याचना करी. एटले श्रीकृष्णदेवें | राजीमतीना पिता उग्रसेन पासे जइने राजीमती कन्याने नेमिनाथनी भार्या अर्थ याचना करी. ॥ ६ ॥ मू-अह सा रायवरकन्ना । सुसीला चारुपेहिणी ।। सव्वलक्खणर्मपन्ना । विज्जुसीयामणिप्पभा ७॥ व्या०-अथानंतरं सा वरराजकन्या राजीमती कीदृशी वर्तत ? सद्वर्णनमाह-राजसु बरो राजवरः षोडशसहस्रनुकुटबद्धभूपेषु श्रेष्ट उग्रसेनो राजा, तस्य कन्या पुत्री राजवरकन्या. सा कीदृशी? सुशीला शोभनाचारा, पुनः कीदृशी? चारुप्रेक्षणी, चारु प्रेक्षणमवलोकनं यत्याः सा दारुप्रेक्षणी सुंदरावलोकना, सुंदरनयना वा. पुनः कीदृशी? सर्वलक्षणसंपन्ना, चतुःषष्टि कामिनीकलाकोविदा. पुनः कीदृशी? विद्युत्सौदामिनीभा, विशेषेण द्योतते इति विद्युत्, सा चासौ सौदामिनी च विद्युत्सौदामिनी, तद्वत्यमा यस्याः सा विद्युत्सौदामिनीप्रभा, स्फुरद्विद्युत्कांतिः.७४ अर्थः-अथ तदनंतर ते राजकन्या राजीमति केवी छे, तेनु वर्णन करेछे-राजाओमा श्रेष्ठ-सोळ हजार मुकुटबद्ध राजाओमा श्रेष्ठउग्रसेन राजानी कन्या. बळीते केवी ? सुशीला शोभन आचारवाळी तथा चारुप्रेक्षणी, अर्थात् सुंदरनेत्रवाळी तेमज सर्वलक्षणसंपन्ना For Private and Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उचराध्ययवत्रम् १२६१॥ काभावांवर अध्य०१२ १२६१॥ चोसठ कामिनी कळामां निपुणा अने विद्युत्सौदामिनीप्रभा, एटले विशेषरी चमकती वीजळीनाजेबी जेनी देहकांति हे एवी. ॥७॥ मू-अहाह जणओ तीस । वासुदेवं महट्टियं ॥ इहागच्छ उ कुमारो । जा से कन्नं दलामह ॥ ८॥ व्या-अथ कृष्णेन नेभिकुमारार्थ कन्याया याचनानंतरं तस्या राजीमत्या जनको महर्द्धिकं वासुदेवं कृष्णमाह, हे वासुदेव ! कुमारोऽरिष्टनेमिरिहास्मद्गृहे आगच्छतु, 'जा' इति येन कारणेन 'स' इति तस्मै अरिष्टनेमिकुमाराय तां राजीमती कन्यामहं ददामि. आसन्नकोष्टुकिनैमित्तिकादिष्टे लग्ने विवाह विधिनोपडौकयामि. ॥८॥ ___अर्थ:--ज्यारे कृष्णे नेमिकुमारने माटे कन्यानु मागु कयु ते पछी ते राजीमतीना जनक-पिता उग्रसेने महोटी ऋद्धिवाळा श्रीकृष्णने कंधु के-हे चासुदेव! ए अरिष्टनेमिकुमार अमारे घरे आवे एटले ते अरिष्टनेमिकुमारने ते राजीमती कन्या हु आपु. पासे बेठेला नैमित्तिकम्ज्योतिविद् कौटुकिए निश्चित करी आपेल लम समये हुं विवाहविधिथी मारी कन्या तेने अर्पण करूं. ॥८॥ मु०--सवोसहीहिं पहविओ । कयकोउअमंगलो दिव्वजुअलं परिहिओ। आहरणेहिंविभूसिओ ॥९॥ व्या--अथारिष्टनेमिकुमारः क्रोष्टुक्यर्पितलमे सर्वाभिरौषधीभिः, जयाविजयाशल्यविशल्याऋद्धिध्यादिभिः लपितः, पुनः कृतकौतुकमंगला, पुनः कीदृशः? परिधृतदिन्ययुगलः, परिहितं दिव्यं विवाहप्रस्ता. वादेवव्ययुगलं येन स परिहितदिव्ययुगलः, प्राकृतत्वाच्छन्दविपर्ययः. पुनः कीदृशः आभरणैः कुंडलमुकुटहारादिभिर्विभूषितोऽलंकृतः ॥९॥ अर्था--पछी ए अरिष्टनेमिकमारने कोष्टुकिए आपेला लाग्ने सर्वोपषिम्जया विजया शल्यविशल्या ऋद्धि द्धि आदिक औषधि For Private and Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kotbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राष्प मालांतर ॥१२६२ G %EOSRECENSHORE | वडे नवरावीने तेमज कौतुकमंगळ-नक्षबंधनादिक करीने, तथा दिव्यवसायुगल पहेरादीने तेने विवाहोचित मंडल, भाट, हार, कडा, वगेरे आभूषणोयी शणगारीये, ॥९॥ ली मू-मत्तं च गंधहत्थिं च । वासुदेवस्स जिढगं । आरूदो सोहई अहियं । सिरे चूडामणि जहा ॥१०॥ व्या०-च पुनररिष्टनेमिकुमारो वासुदेवस्य ज्येष्ठकं मतं गंधहस्तिनमारूढोऽधिकं शोभते.क इव ! शिरसि ६ मस्तके चूडामणिरिव, यथा मस्तके मुकुट शोभते, तथा नेमिः सर्वेषां यादवानां मध्ये चूडामणिसहशो विराजते. अर्थ:-पछीए अरिष्टनेमिकुमार, वासुदेवना ज्येष्टक-महोटामचगंधहस्ती उपर आरुढ बाजेम मस्तक उपर मकुट शोमे तेम शोभशे, सर्वयादवोना मध्ये चूडामणि समान दीपी नीकलने ॥१०॥ मू-अह उस्सिएण उत्तण | चामराहियसोहिओ। दसारचक्केण य सो। सचओ परिवारिओ ॥ ११॥ 4 मू०-चरिंगिणीए सेणाए । रइयाए जहम ॥ तुडीयाण सन्निनाएण | दिब्वेणं गयणं फुसा ।। १२॥ मू-एयारिसीए इडीए । जुत्तिए उत्तमाइय ।। नियगाओ भवणाओ। णिज्जाओ वण्हिपुङ्गवो ॥१३॥ तिमृभिः कुलकं ॥ व्या०-अधानंतरं वृष्णिपुलचो नेमिकुमारो निजकावनात्स्वकीयगृहादेताहइया समीपतरवर्तिन्या ऋध्या, पुनरुत्तमया प्रधानया पुत्या दीप्त्या पाणिग्रहणाय निर्गतः, उग्रसेनगृहंप्रति स्वमंदिरानिःसूत इत्यर्थः, कीदृश्या अभ्या? तां ऋद्धिपद्धतिमाह-स नेमिकुमार उच्यितेनोवैः कृतेन छत्रेण मेघाडपरछत्रेण, च पुनआमराभ्यपार्श्वयोज्यमानः शोभिता, पुनःस नेमिकुमारो वशाईचक्रेण यादवसमूहेन सर्वतः परिवृतः ॥११॥ For Private and Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पवार ॥१६i IMI पुनः कीरशः चतुरंगिण्या सेनया परिवृतः, पुनः कीदृशः त्रुटितानां तुर्याणां भेरिमृदंगपटहकरतलतालादीनां भाषांत दिव्येन देवयोग्येन सन्निनादेन सम्यक्शब्देन सहितः, कीरशेन तुर्याणां निनादेन ? गगनस्पृशा, गगनं स्पृशतीति य०११ गगनस्पकू, तेनाकाशव्यापिना. ॥ १३ ॥ ६२२६ अर्थः-त्रण गाथाओनुं कलक-पटले एक वाक्य छे. तदनंतर दृष्णिपुंगव वृष्णिकुळमां श्रेष्ठ नेमिकुमार मोताना भुवनयी आवीचर्णवाशे तेवी-ऋषियी तथा उत्तम दीप्तिथी पाणिग्रहण करवा नीकल्या, उग्रसेनना घर प्रति जवा माटे पोताने घरेथीनीकल्या. केवी ऋद्धि ! ते ऋद्धिनी पद्धति वर्णन आपेछे-उच्छ्रित-उपर धरेल छत्र-मेघाडंबर छत्र सहित, तथा बेय पडखे वे चमारो बडे व्यंजन करावाथी शोमता, बळी दशाईचक्र यादव समुदाये सर्वतः परिवारित, तथा क्रमप्रमाणे रचेली-गोठवेली चतुरंगिणी सेनाये परिवृत, ते साये तूर्य-विविधवाघोना गगनस्पर्शी-आकाशव्यापी संनिनाद-मनोहर नाद यता आवे. (एवी ऋद्धिथी | |परणवानीकल्या.) ११-१२-१३. ॥ मु०-अह सो तस्थ निजते । दिस्स पाणे भयददुए ॥ वाडेहिं पंजरेहिं च । संनिरुद्ध सुदुक्खिए ॥१४॥ * मू०-जीवियंत तु संपत्ते । मंसट्टा भक्खियव्वए । पासित्ता से महापन्ने । सारहिं इणमव्यवी ॥ १५ ॥ युग्मं । व्या०-अथानंतरं स नेमिकुमारः सारथिमिदमब्रवीत्, किं कृत्वा ? तत्र विवाहमंडपासन्ने निर्यन्नधिगच्छन् भयद्रुतान् भयव्याकुलान् माणान् जीवान स्थलचरान् मृगश शकशुकरतित्तिरलावकादीन् मांसार्थ भक्षितव्यान् 'पासित्ता' इति विचार्य दृष्टा ताशान् हदि निघाय, कथंभूतान् प्राणान् ! वाटकैभित्तिभिः कंटकवाटि For Private and Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir || कादिभिर्वा निरुद्धानतिशयेन यंत्रितान, पुनः पंजरेलोहवंशशलाकादिविनिर्मितैः पक्षिनियंत्रणस्थानः संस्थानः उत्तराध्य भाषांवर संनिरुद्धान् , अत एव सुदुःखितान्. पुनः कीदृशान् ! जीवितांतं संप्राप्तान्. ते प्राणिन एवं जानत्यम्मा मरणमाबन बत्रम् अभ्य०११ ॥ १४॥ | गतं, कुतोऽस्माकं जीवितमिति मरणदशां संप्राप्तान्. कीदृशो नेमिकुमारः। महाप्राज्ञा महाबुद्धिसहितः, अर्थाद् ६॥१२६४॥ ज्ञानत्रयेण विस्तीर्णबुद्धिरित्यर्थः ॥ ५ ॥ वे गाथानो संबंध भेको छ. अर्थ:--अथ ते पछी ते नेमिकुमार सारथिने आम बोल्या. कम करीने ? त्यां विवाहमंडप पांसे हूँ पहोंच्या ते वख्ते भयथी व्याकुळ प्राणीओ-मृग, शशला सूकर, तित्तिरि, लावक आदिक स्थल चारी तथा पक्षीओ ने मांस भक्षा पार्थ वाडामां तथा पांजराओमां निरुद्ध-पूरेलां अने तेथीज अतिदुःखित थतां, जीवितांतने संप्राप्त अर्थात् मुबाजेवां थइ गयेला | जोइने ए महामासज्ञानत्र यी विस्तीर्णबुद्धिमान् नेमिकुमारे सारथिने पुछ्यु.॥ १४-१५॥ मू-कस्स अट्ठा इमे पाणा । एते सव्वे सुहेसिणो ॥ वाडेहिं पंजरेहिं च । संनिरुद्धा य अच्छिहि ॥ १६ ॥ व्या-सारथिं किमब्रवीदित्याह-हे सारथे। इमे प्रत्यक्ष दृश्यमानाः सर्वे प्राणा वाटश्च पुन: पंजः संनि|रुद्धा अस्तंयं नियंत्रिताः कस्यार्थ कस्य हेतोः? 'अच्छिहि' इति तिष्टंति कीहशा इमे प्राणः? सुखाधिनः, सर्वे संसा-2 |रिणो जीवाः सुखार्थिनः संति, किमर्थ दुःखिनः क्रियते ? भगवान् जानन्नपि जीवदयाप्रकटीकरणा सारथिं पर च्छेति भावः ।। १६ ॥ अर्थः-सारथिने शुं कबु? ते कहे छे-हे सारथे! आ प्रत्यक्ष देखाता प्राणियो जे वाडाओमां तथा पांजराओमा संनिरुद्ध For Private and Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पवन ॥१२६५॥ संधेला पूरेला के ते केने माटे ? शा हेतुथी पम रहेला छे ? आ प्राणी केवा छे ? सुखार्थी, संसारमा सर्वे प्राणी सुखना अर्थीज होय | छे तो पछी आ प्राणी शा माटे दुःखी कराय के ? भगवन् पोते जाणे छ तथापि जीवदया प्रकट करवा सारथिने पूछे छे. ॥ १६ ॥2 | भाषांतर है जब०१९ | मृ०-अह सरही तओ भणइ । एए भद्दा उ पाणिणो ।तुजं विवाहकजंमि । भोयावेउं यहुं जणं ॥ १७॥ ॥११॥ व्या-अथ नेमिकुमारवाक्यश्रवणानंतरं ततः सारथिर्भणति, हे स्वामिन्नेते भद्राः प्राणिनो युष्माकं विवाहकार्ये बहुजनान् यादवलोकान भोजयितुमेकत्र मेलिताः संति. ॥ १७॥ | अर्थ:-अथ नेमिकुमारनु वाक्य सांभळीने तदनंतर सारथि बोल्यो के-ई स्वामिन् ! आविचारा भोळा प्राणियो आपना विवा. हकार्यमा घणाकजनो-यादवलोकोने भोजन कराववा माटे अहीं एकत्र भेळाकरी राखेला . ॥१७॥ मू-मोऊण तस्स वयणं । बहुपाणिविणासणं ॥ चिंतेह से महापन्ने । साणुकोसे जिए हिओ ॥ १८ ॥ व्य-से इति स नेमिकुमारस्तस्य सारथेर्वचनं श्रुत्वा चिंतयति. कीदृशः सः ? महाप्राज्ञो महाबुद्धिमान्, पुनः कीदृशः सः? जीवे हितो जीवविषये हितेप्नुः पुनः कीदृशः ? सानुक्रोशः, सह अनुक्रोशेन वर्तते इति सानुक्रोशः सदयः, अथवा जीवे हि निश्चयेन मानुक्रोश: सकरणः, तु शब्दः पादपूरणे. कीदृशं सारथेर्वचनं? बहुप्रा|णिविनाशनं बहुजीवानां विघातकारक. ॥ १८॥ &ा अर्थः-ते नेमिकुमार ते सारथिनुं वचन सांभळीने चिंतामां पड्या ते केवा ? महाप्राज्ञ-महाबुद्धिमान् तथा जीवोनां हितकर अने सानुक्रोश दयालु अथवा हि-निश्चये जीवने विषये सानुक्रोश-मय. 'तु' शब्द पादपूरणार्थ गणाय, सारथिनुं वचन केवु * CASIRCRACAAAKASARAS For Private and Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उपराज्ययन सूत्रम् १ ॥१२६६।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बहुप्राणिविनाशनघणां प्राणिओनुं घातकारक ॥ १८ ॥ मू० - जड़ मज्झकारणा एए। हन्नंते सुबहुजिया ॥ न मे एवं तु निस्सेयं । परलोए भविस्सइ ॥ १९ ॥ व्या० - तदा नेमिकुमारः किं चिंतयतीत्याह-यदि मम विवाहादिकारणेनैते सुबहवः प्रचुरा जीवा हनिष्यंते मारयिष्यते, तदैाख्यं कर्म परलोके परभवे निःश्रेयसं कल्याणकारि न भविष्यति परलोक भीरुत्वस्यात्यंतमभ्यस्ततयत्रमभिधानं, अन्यथा भगवतश्चरमदेहत्वादतिशयज्ञानत्वाच्च कुत एवंविधा चिंतेत भावः ॥ १९ ॥ अर्थ:-त्य नेमकुमार भुं विचा! ते कहे- जो मारा विवाहने कारणे आबहु-पुष्कळ जीवो हणायच्छे-मराय छे तो आ हिंसात्मक कर्म परलोकमा=परमवे निःश्रेयस= कल्याणकारक थशे नहि, अत्यंत अभ्यस्त होवाथी पोतानी परलोकधी भीरुता कही नाखी. अन्यथा भगवान्नो आबेल्लो देह होवाथी तथा अतिशय ज्ञान होवाथी आवा प्रकारनी चिंता होयज क्यांथी एवो भावाथे छे. ॥१॥ मू० - सो कुंडलाण जुभलं । सुत्तगं च महाजसो | आभरणाणि य सव्वाणि सारहिस्स पणामए ॥ २० ॥ व्यसनेमिक्कुमारो महायशाः, नेमिनाथस्याभिप्रायात् सर्वेषु जीवेषु बंधनेभ्यो मुक्तेषु सत्सु सर्वाण्याभर | णानि सारथये प्रणामयति ददाति कानि तान्याभरणानि १ कुंडलानां युगलं, पुनः सूत्रकं कटीदवरकं, चकारादाभरणशब्देन हारादीनि सर्वांगोपांगभूषणानि सारथेर्ददौ ॥ २० ॥ अर्थ --- महायशाः महोटा यशवाळा ते नेमिकुमारे-ज्यारे नेमिनाथनो अभिप्राय जाणी बधां प्राणियो बंधनथी छोडी मूक्यां त्यारे=कुंडळनुं युगल जोडी, सूत्रक-कंदोरो, 'च' शब्द उपरथी बीजां कडां बाजुबंध हार बगेरे सर्व अंग उपांगना आभारणी उतारीने For Private and Personal Use Only भाषांतर अच्य०१२ ।। १२६६ ।। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उपराज्यपत्र ॥१२६७ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | सारथिने अय-प्रीतिदान- इनाम तरीके आपी दीघां. ॥ २० ॥ मू० - मणपरिणमे य कए । देवा य जहोइयं समोहण्णा || सम्बठ्ठीए सपरिसा । निक्खमणं तस्स काउं जे ॥२१॥ व्या- तस्मिन्नेमिक्कुमारे मनःपरिणामे चित्ताभिप्राये दीक्षां प्रतिकृते सति, लोकांतिकदेववचनात्सांवत्सरि कदाने दत्ते सति, देवाश्चतुर्विधा यथोचितं यथायोग्यं सर्वय समवतीर्णास्तत्रागताः किं कर्तुं ? तस्य भगवतो नेमिकुमारस्य निःक्रमणमहोत्सवं दीक्षामहिमानं कर्तुं जेशब्दः पादपूरणे. कीदृशा देवाः ? सपरिषदः, सह तिसृभिः परिषद्भिर्वर्तते इति सपरिषदः परीषत्सहिता इत्यर्थः ॥ २१ ॥ अर्थ :-- ते नेमकुमारे पोतानो मनः परिणाम चिचनो अभिप्राय दीक्षा प्रति कर्यो त्यारे, एटले लोकांतिक देवोना वचनथी सांवत्सरिक दान देवायां ते समयेचतुर्विध देवो यथोचित रीतें ते भगवान् नेमकुमारनो निष्क्रमण महोत्सव= एटले-दीक्षानो महिमाकरवा माटे त्रणे परिषद सहित तथा सर्व प्रकारनी ऋद्धि सहित समवतीर्ण थया स्वर्गथी उतर्या ॥ २१ ॥ | मू० देवमणुस्स परिवुडो । सिविचारयणं तओ समारूढो । निक्खमिय बारगाओ। रेवययमि ठिओ भगव ॥ २२ ॥ व्या० - ततोsनंतर नेमकुमारो भगवान् ज्ञानवान् दीक्षावसरज्ञो देवैर्मनुष्यैः परिवृतो देवननुष्यपरिवृतः शिविकारनमुत्तरकुरुनामकं समारूढो द्वारिकापुरितो निःक्रम्य निःसृत्य रेवते रैवताचले स्थितः ॥ २२ ॥ अर्थ :--- तदनंतर नेमकुमार भगवान् दीक्षानो अवसर जाणी देव मनुष्योथी परिचारित यह शिविकारल= उत्तरकुरु नामनी पालखी उपर आरूढथइने द्वारिकापुरिमांथी नीकळीने रैवतक पर्वतने विषये जड़ने स्थित थया ।। २२ ।। For Private and Personal Use Only भाषांतर अच्य०१२ १२६७॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उपराष्य बग सूत्रम् ।। १२६८ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मू०--उज्जाणे संपत्तो । उहष्णो उत्तमाओ सिवियाओ । साहस्सीए परिवुडो । अह निक्खमईहिं चित्ताहिं ॥ २३॥ व्याः -- तत्र रेवताचले उद्याने सहस्राम्रनाम्नि बने संप्राप्तः पुनरुत्तमायाः प्रधानायाः शिविकाया उत्तीर्णः, सहस्रेण परिवृतः प्रधानपुरुषसहस्रेण संयुतः सन्. अथ चित्रायां चित्रानक्षत्रे निःक्रामति, दीक्षां गृह्णाति पंचम.हाव्रताचारणं करोति. ॥ २३ ॥ अर्थः- त्यां रैवताचलमां सहस्राम्र नामना उद्यानमा उत्तम शिविकामांथी उतर्या अने सहस्रप्रधान पुरुषोथी परिवारित थ चित्रानक्षत्रयां निष्क्रम्या. दीक्षा ग्रहण करी. अर्थात् पंच महाव्रतोतुं उच्चारण करें. ॥ २३ ॥ मू० - अह सो सुगंधगंधिए । तुरियं मउयकुंचिए । सयमेव लुंबई केसे | पंचमुट्ठीहिं समाहिए || २४ । व्या० - अथ पंचमहावतोचारणानंतरं स नेमिनाथः स्वयमेवात्मनैव त्वरितं केशान् पंचमुष्टिभिः कृत्वा | लुंचते कीदृशः सन् ? समाहितो ज्ञानदर्शनचारित्ररूपसमाधियुक्तः सन् कीदृशान् केशान् ? सुगंधगंधिकान् स्वभावतः सुरभिगंधान्, पुनः कीदृशान् ? मृदुककुंचितान्, मृदुकाश्च ते कुंचिताश्च मृदुककुंचितास्तान् सुकुमा लान् अकुटिलान् ।। २४ ।। अर्थः- अथ - पंच महाव्रतोच्चारण थया पछी ते नेमिनथें पोतेज तुरतज पोतना सुगंधयुत तथा मृदु अने कुंचित अर्थात् कोमळ अने सरल केशने, समाहित थइने - ज्ञानदर्शन चारित्ररूप समाधि युक्त रहीने पांच मुष्टिबडे करीने लुंचित कर्या=केशलोच कर्यो, |२४| मू० - वासुदेवो य तं भणड़ | लुत्तकेसे जिइंदियं ॥ इच्छियमणोरहे तुरियं । पावेलू तं दमीसर || २५ ॥ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०२३ ४ ॥ १२६८ ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उपराज्ययन सूत्रम् ॥१२६९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्या- तदा वासुदेवः कृष्णः चकारात् समुद्रविजयादिनुषगणोऽपि तं नेमिनाथं जितेंद्रियं पुनर्लुप्तकेशं कृतलोचमिति वचनं भणति, इत्याशीर्वादवाक्यं ददाति भो दमीश्वर । दमिनां जितेंद्रियाणामीश्वरो दमीश्वरः, तत्संबोधनं हे दमीश्वर ! यतीश्वर ! ईप्सितं वांछितं मनोरथं त्वरितं शीघ्रं तमिति त्वं प्राप्नुहि १ ।। २५ ।। अर्थः-ते समये लुप्तकेश = जेणे केशलोच करेलने एवा तथा जितेंद्रिय एवा नेमिनाथने वासुदेवे का के- हे दमीश्वर= यतीश्वर ! | ईप्सित= मनोवांछित मनोरथने तमे त्वरित शीघ्र प्राप्त थाओ. ( वासुदेवे आवो आशीर्वाद आप्यो. ) ॥ २५ ॥ मू० - नाणेणं दंसणेणं च । चरितेोगं तहेव य ॥ खंतीए मुत्तीए चेव । वद्रुमाणो भवाहि य ।। ६६ ।। च्या पुनराशीर्वचनमाह - पुनर्हे स्वामिस्त्वं ज्ञानेन दर्शनेन तथैव चारित्रेण च पुनः क्षांत्या, क्षमया च पुनमुक्त्या निर्लोभत्वेन वर्धमानो ' भवाहि ' इति भव ? ।। २६ ।। अर्थ :- पुनरपि आशीर्वचन कहेले हे स्वामिन् । तमे ज्ञाने करी, दर्शने करी तथा चारित्रे करीने अने क्षांति क्षमावडे तथा मुक्ति-निर्लोभताए करी वर्धमान थाओ. ।। २६ । मू एवं ते रामकेसवा । दसारा य बहुजणा ॥ अरिठ्ठनेमिं वंदित्ता । अइगया वारगापुरिं ॥ २७ ॥ व्या- एवममुना प्रकारेण रामकेशत्रौ च पुनर्दशापि दशार्हाः, च पुनर्बहवोऽन्ये जनाश्चत्वारो वर्णा अरिष्टनेमिं स्वामिनं वंदित्वा स्तुत्वा नत्वा च द्वारिकापुरीमतिगताः प्रविष्टाः ॥ २७ ॥ अर्थ:- ए प्रकारें राम केशव तथा दशे दशाई अने अन्य बहुजनो चारे वर्णना लोको अरिष्टनेमि स्वामीने वंदन करी स्तुति For Private and Personal Use Only भाषांवर अध्य०२२ ।। १२६९ ।। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माषांतर उत्तराध्यपन पत्रम् ॥१२७ HEESEARCTC9ी नमस्कार करी द्वारिकापुरीमा प्रविष्ट थया. ॥ ७ ॥ मू०-मोऊण रायकन्ना । पव्वलं सा जिणस्स उ ॥ नीहासा य निराणंदा । सोगेण य समुच्छया ॥२८॥ ॥ व्या--सा राजवरकन्योग्रसेननृपपुत्री राजीमती शोकेन समुच्छया समवस्ताऽवष्टब्धा व्याशाभूदित्यर्थः किं अभ्य-२२ कृत्वा ? जिनस्य नेमिनाथस्य प्रव्रज्यां दीक्षां श्रुत्वा. कथंभूता सा १ निर्हासा निर्गतो हासो यस्याः सा निर्हासा | Reem हास्यरहिता. पुनः कीदृशा सा ? निरानंदा आनंद रहिता. ।। २८॥ अर्थ:-ते रामवर कन्या उग्रसेननृपनी पुत्री राजीमती शोके करीने अवष्टब्ध व्याप्त थइ गइ. केम करीने ? जिननेमिनाथनी टू प्रव्रज्या दीक्षा सांभळीने. ते राजीमती केवी ! निर्हासा हास्यरहित तथा निरानंदा आनंदविनानी. ॥ २८ ॥ मू-राईमईविचिंतेइ । धिगत्थु मम जीवियं ।। जाहं तेण परिचत्ता । सेयं पव्वहां मम ॥२९॥ व्य-सा राजीमती मनसि विचिंतयति, मम जीवितंधिगस्तु, याहं तेन नेमिनाथेन परित्यक्ता, अतो मम |प्रबजितुं दीक्षां गृहीतुं श्रेयः, न तु गृहे स्थातुं श्रेय इति भावः ॥२९॥ अर्थ-ते राजीमती मनमा चितवन करवा लागी के-मारा जीवितने विकार हो; जे हुँ नेमिनाथें त्यजाणी. हवे तो मारे प्रव-17 ज्या-दीक्षा गृहण करवी एज श्रेयछे घरमां देसी रहे, ए श्रेय नथी. ॥ २९॥ मू-अह सा भमरसन्निभे । कुचफणगपसाहिए ।। सयमेव लुचई केसे । घिइमंता ववस्सिया ॥३०॥ । व्या-अथानंतरं सा राजीमती स्वयमेव केशान लुचति. कथंभूता सा? धृतिमती धैर्ययुक्ता, पुनः कथंभूता! For Private and Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4 In दाम्यवसिता निश्चला, धर्म कर्तु स्थिरा. कीदृशान् केशान् ? 'कुच्चफणगपसाहिए' कूर्चफनकप्रसाधितान्, कूचों | भाषांतर उच्राध्य गूढकेशोन्मोचको वंशशलाकारचितः केशसंस्करणोपकरणविशेषः, फनको गजदंतकाष्टमयः कंकतकः, कूर्चश्च |* अध्य०२१ फनकश्च कूर्चफनको, ताभ्यां प्रसाधिताः संस्कृताः कूर्चफनकप्रसाधितास्तान्. पुनः कीदृशान् ! भ्रमरसन्निभान 51१२७१॥ भ्रमरवच्छचामान्. ॥ ३०॥ ___अर्थः--अथ अनंतर ते राजीमति पोताना केशर्नु पोताने हाथेज लुचन करवा लागी. राजीमती केवी ? धृति धैर्यवाळी तथा ? व्यवसिता-धर्मकरवामां निश्चला. केवा केश? कूर्च कनक प्रसाधित, एटले कूर्चासनी सणीयोनो बनावेलो वाळ समारवानी ब्रश तथा फणक एटले हाथीदांतनो दांतीयो; ए बन्ने वडे सुधारेला अने भ्रमर सन्निभ एटले भमराजेवा काळा. ( एवा वाळनो पोतेज लोच कर्यो.)॥ ३०॥ मू-वासुदेवो य त भणई । लुत्तकेसं जिइंदियं ॥ संसारसागरं घोरं । तर कन्ने लहुं लहु ॥ ३१॥ व्या०-च पुनस्तदा वासुदेवः श्रीकृष्णस्तां राजीमती कन्या भणति, आशीर्वादं पठति, हे कन्ये! हे राजीमति घोरं रौद्रं संसारसमुद्रं लघु लघु त्वरितं त्वरितं तर ? संसारसमुद्रस्य पारं कुरु ! लघु लघु इति संभ्रमे आदरे | द्विवचनं. कीदृशीं राजीमती ? लुप्तकेशां कृतलोचां, पुनः कीदृशी ? जितेन्द्रियां साध्वीमित्यर्थः ॥३१॥ | अर्थः-पुनरपि वासुदेव, लुप्तकेशा तथा जितेंद्रिया ते राजीमतीने कहे के के-हे कन्ये राजीमति ! घोरे भयंकर आ संसार | | समुद्रने लघु लघु-बट झट तरीजाओ, संसार सागरनापारने पामो. 'लघु लघु'ए संभ्रममा अथवा आदरार्थमां वे वार का ते राजी AAKAASC %ACTRESS For Private and Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उपराज्ययन ॥१२७२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मती केवी ? जेना केशनो लोच थह गयेल छे तेवी तथा जीतेलछे इंद्रियोने जेणे एवी ते साध्वी राजीमाती. ॥ ३१ ॥ मृ०-सा पव्वइया संतो । पञ्चावेसी तहिं बहु ॥ मयणं परिगणं चैव । सीलवना बहुस्सुया ॥ ३२ ॥ व्य० - सा राजीमती प्रत्रजिता सनी गृहीतदीक्षा सती, तत्र द्वारिकायां बहून् स्वज्ञातीन् स्त्रीजनान् च पुनः परिजनान् दास्यादिस्त्रीजनान् प्राब्राजयत् स्वसार्थेऽपरानपि दारान् प्रत्राजयामासेत्यर्थः कीदृशी सा ? शीलवती, पुनः कीदृशी ? बहुश्रुता प्रचुरकृतज्ञानाभ्यासा. ॥ ३२ ॥ अर्थ :--- ते प्रब्रजिता = दीक्षा जेणे गृहण करी छे एवी तथा शीलवती अने बहुश्रुता, अर्थात् जेणे पुष्कळ ज्ञानाभ्यास करेलो छे एवी राजीमती त्यां द्वारिकामां पोताना स्वजननी स्त्रीयोने तेमज परिजन दासी वगेरे खीजनोनं घणीओने प्रव्रज्या-दीक्षा लेवरावी. ( पोतानी साथै साध्वी खीओनो पण समुदाय कर्यो. ) । ३२ ।। मू० - गिरिं रेवइयं जती। वासेणुल्ला उ अंतरा ।। वासंते अधयारंमि । अंते लयणस्स सा ठिया ॥ ३३ ॥ व्या-सा राजीमत्येकदा स्वामिवंदनार्थं रैवतकं गिरिं गिरनारपर्वतं यांती लग्नस्य गिरिगुहागृहस्थांतर्मध्ये स्थिता. क सति ? वर्षति मेधकारे सति, मेघांप्रकारेण हक्प्रचारे निरुद्धे सति. कीदृशी सा ? अंतरा अर्धमार्गे वसेणेति वर्षाभिलार्द्रा किन्नसर्वचीवरा ॥ ३३ ॥ अर्थ:- एक समये ते राजीमती स्वामिवंदनार्थं रैवतकगिरि=गिरनार पर्वत उपर जती हती त्यां वचमां वर्षाथतां जळी सर्व चीवर= उछु भीजाइगयां बने मेघना अंधकारवडे दृष्टिप्रचार निरुद्धथवा लाग्यो तेथी एक लयन पर्वतनी गुफाना अंदर स्थित थइ. For Private and Personal Use Only भाषांवर अध्य०२१ ॥१२७२॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kotbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उचराध्य ॥१२७३॥ %AFARE मृ०-चीचराणि विसारती । जहाजाइत्ति पासिया ॥ रहनेमी भग्गचित्तो । पच्छा दिठ्ठो तीइवि ॥ ३४॥ व्या-रथनेमिभग्नचित्तोऽभूत, मंयमाचलितमना अभूत. किं कृत्वाचीवराणि सााणि शरीरादुत्तार्य विस्ता भाषांतर अध्य०२२ रवंती यथाजातामित्येवंरूपां निर्वस्त्रां तां राजीमती दृष्ट्वा, तया राजीमत्यापि स रथनेमिभलचित्तः पश्चात् दृष्टः.18 1 ॥१२७३॥ पूर्वमंधकारे सति न दृष्टः. अन्यथा यदि पूर्व दृष्टोऽभविष्यत्, तदैकाकिनी तत्र न प्राविक्षदिति भावः ॥ ३४॥ ___अर्थः-(गुफामा जइ निर्जन स्थान जाणी) ते राजीमती चीवर-भीनावलो उतारी यथाजाता-जन्मटाणे होय तेवी-निर्वस्त्राथइ तेने जोइने-प्रथमथी ते गुफामा पेठेलो ग्थनेमि भन्नचित्त अर्थात् संयमी चलितथयो, तेवोज ए स्थनेमि राजीमतीए दीठो. प्रथम अंधकारमा नहोतो दीठो. जो प्रथम दीठो होत तो राजीमती एकली त्यां पेसतज नहिं. ॥ ३४ ॥ मृ०--भीया य मा तहिं दटुं । एगत संजयं सयं । बाहाहि काउं संगोफं । वेवमाणी निसीयई ॥ ३५ ॥ व्या-सा राजीमती स्वयं तदैकांते गुहायां रथनेमि संयतं साधुं दृष्ट्वा भीता, कदाचिदयंदयं मम शीलभंगं 6 कर्यादिति विचार्य शीलभंगभयाद्वेपमाना कंपमाना सती निषीदति, तदाश्लेषमपरिहारार्थ भूमावुपविशति. किं | कृत्वा ? बाहुभ्यां द्वाभ्यां भुजाभ्यां संगोफ परस्सरवाहुसंगुंफनं स्तनोपरि मर्कटबंध कृत्वा. ॥ ३५ ॥ ॥ अर्थः-तेराजीमती ते वरुने एकांतमा स्थनेमि साधुने जोइ भयपामी. कदाचित् आ साधु मारा शीळनो भंग करे ' एम विचारी शीलभंगना भयथी वेपमाना-ध्रुजनी ध्रुजतीबेसी गइ.ते आलिंगन न करी शके तेटला माटे भूमि उपर बेसी गइ. केम करीने? पोताना चे बाहुबडे संगोफ-वे बाहुथी परस्पर अदबवाळीने, अर्थात् स्तन उपर मर्कटबंध करीने-(बेसी गइ.) ॥ ३५॥ KARANAS SALCHA For Private and Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर उच्राध्ययन पत्रम् ॥१२७४। CHECCAE%E0% मू-अह सोवि रायपुत्तो । समुदविजयंगओ।। भीयं पवेहयं दटुं । इमं वकमुदाहरे ॥ ३६॥ व्या-अथानंतरं सोऽपि राजपुत्रः समुद्रविजयांगजो रथनेमिभीतां प्रवेशितां कंपमानां राजीमती साध्वीं व दृष्ट्वा इदं वाक्यमुदाहरत. ॥ ३६॥ अभ्य०११ अर्थः-अथ अनंतर ते पण राजपुत्र, समुद्रविजयनोपुत्र रथनेमि, भयपमीने कंपती राजीमती साध्वीने जोह आईं वचन बोल्यो.। ॥११७९ मू-रहनेमी अहं भद्दे । सुरूवे चारुभासिणि । ममं भयाहि सुतणू । न ते पीला भविस्सइ ।। ३७ ।। व्या-किं वाक्यमुवाचत्याह-हे भद्रे ! हे कल्याणि ! अहं रथनेमिरमि, मामन्यं कमपि मा जानीहि ? हे | सुरूपे! सुंदराकारे! हे चारुभाषिणि ! हे मधुरबचने ! हे सुतनु शोभनशरीरे ! कोमलगात्रि! त्वं मां भजस्व ! | भर्तृत्वेनांगीकरु? ते तव पीडा दुःखं न भविष्यति, मया सह विषयसुख भुक्ष्व ॥ ३७॥ अर्थ:-शु वाक्य बोल्यो ते कहे के-'हे भद्रे! हे कल्याणि हे सुरूपे ! सुंदर आकारवाळी! हे चारुभाषिणि ! मधुरश्चन बोलनारी! हे सुतनु! कोमलगात्रि ! ९ रथनेमिछु, तुं मने भज-खामीतरीके मारोअंगीकार कर. तने पीडा दुःख थशे नहि. मारी साये विषयसुख भोगन. ॥ ३७ ।। मू-एहि ता भुजिमो भोए । माणुस्सं खु सुदुल्लहं ॥ भुत्तभोए तओ पच्छा | जिणमग्गं चरिस्समो ॥ ३८ ॥ | व्या-हे राजीमति ! एहि मम समीपे आगच्छ १ तावदावां विषयं भुजीवहि. हे प्रिये! खु इति निश्चयेन | मानुष्यं मनुष्यस्य जन्म सुदुर्लभं वर्तते. ततोऽनंतरमावां भुक्तभोगी भूत्वा पश्चाजिनमार्ग जिनोक्तधर्म चारित्र A5 For Private and Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्य०१२ १२७५॥ उचराध्या दिधर्म मोक्षमार्ग चरिष्याव: पूर्व हि यदा भोगसुखं भुज्यते, ततश्च दीक्षा गृह्यते, तदा भुक्तभोगत्वेन पुनर्भोगसुयवसमाद खेषु मनो न स्यात्. तस्मात्पूर्वमधुना यथेच्छ भोगसुखं भोक्तव्यमिति भावः ॥ ३८ ॥ ॥१२७५|| | अर्थः-हे राजीमती ! मारी समीपे आव. आपण बन्ने विषयभोग करीए. हे प्रिये ! खलु-निश्चये मनुष्य-मानुष्य जन्म अति दुर्लभ छे. पछी आपणे भोगभोगवीने पाछा जिनमार्ग-जिनोक्त चारित्रधर्म आचर'. जो प्रथम भोग भोगवीने पछी दीक्षा ग्रहण कराय तो भोग भोगवी लीधा होवाथी फरी भोगनी इच्छा न थाय-मोगमुखमा मन न जाय-माटे पहेला तो हमणां आपणे यथेच्छ भोगसुख भोगवीये. . ३८ ॥ मू-दळूण रहनेमि तं । भग्गजोय पराइयं ॥ राइमई असंभंता । अप्पाणं संवरे तहिं ॥ ३९॥ __व्या-तदा राजीमत्यसंभ्रांता सती, निर्भया सती, तया ज्ञातमहं बलात्कारेणापि शीलं रक्षयिष्यामीति निश्चित्यानस्तासत्यात्मानं शरीरं वस्नः संवृणोत्याच्छादयति, गुहामध्यमेव स्थिता सतीति शेषः, किं कृत्वा ? रथनेमि भग्नयोगं दृष्ट्वा, भग्नो नष्टो योगः संयमोत्साहो यस्य स भग्नयोगस्तं पराजितं स्त्रीपरीषहेण पराभूतं रथनेमि ज्ञात्या. ॥ ३९ ॥ ____ अर्थः-त्यारे राजीमती जराय पण संभ्रम न पामतां निर्भय बनीने एटले तेणीना मनमा निश्चय थह गयो के. बलात्कारथी | पण हुं मारा शीळर्नु रक्षण करवा समर्थछु तेथी त्रास त्यजीने पोताना शरीरने वस्त्रो वडे, गुफामांज उमी उभी ढांकवालागी. केम करीने रथनेमिने भग्नयोग जोइने अर्थाद-जेनो योग-संयमोत्साह नष्ट थयोछे एटले स्त्रीपरीषहवडे पराभूत थयेला र नेमिने जाणीने. For Private and Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उचराज्यमन सम् ॥१२७६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मू० - अह सा रायवरकन्ना । सुट्टिया नियमव्वए || जाइ कुलं च सीलं च । रक्खमाणी तयं वए ॥ ४० ॥ व्या-- अथानंतरं भग्नयोगस्य रथने में दर्शनानंतरं मा राजवरकन्या राजीमती साध्वी ता वदति, कीदृशी मा १ fornar सुस्थिता, नियमे शौचसंतोषस्वाध्यायतपोलक्षणे स्थिरा तथा व्रते पंचमहालक्षणे स्थिरा पुनः मा किं कुर्वाणा १ जातिंकुलं शीलं तपश्च प्रति संरक्षनाणा. तत्र मातुर्वशो जातिः पितुर्वशः कुलमुच्यते, तयोरुभयोरपि नैर्मल्यं विदधतीत्यर्थः ॥ ४० ॥ अर्थः-- अथ=भप्रयोग रथनेमिन जोड़ने ते राजवरकन्या राजीमती पोताना नियम एटले शौच, संतोष, स्वाध्याय, तप आदिकमां सुस्थित दृढतावाळी तथा पंचमहाव्रतमां पण स्थिरतायुक्त, तेमज पोतानी जाति = मातृवंश, कुल पितृवंश, शीळ तथा तपःनुं संरक्षण करती ए साध्वी, पोताना उभयकुळनी निर्मळता जाळवीने ते रथनेमि प्रति बोली. ॥ ४८ ॥ मू० -- जइसि रूवेण वेसमणो । ललिएणं नलकूबरो | तहावि ते न इच्छामि । जहसि सक्वं पुरंदरो ॥ ४१ ॥ व्याः -- भो रथनेमे ! यदि त्वं रूपेण वैश्रमणो धनदोऽसि, यदि पुनर्ललितेन मनोहरलावण्यविलासेन नलकूबरो देवविशेषोऽसि, पुनर्यदि हे रथनेमे ! त्वं साक्षात्प्रत्यक्षं पुरंदरोऽसि, इंद्रावतरोऽसि, तथाप्यहं त्वां नेच्छामि, भोगार्थं नाभिलषामि ॥ ४१ ॥ अर्थः- हे रथनेमि ! यदि तुं रूपमां वैश्रमण धनदसमान हो, कदाच ललित = मनोहरलावण्यविलासादिकमां तुं नलकूबर | तुल्य हो, वळी हे रथनेमे ! भले तुं साक्षात् प्रत्यक्ष इंद्रनो अवतार हो; तथापि हुं तने इच्छती नथी-तारी साथै भोग भोगवचा For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०२१ ॥१२७६॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Icebo भाषांतर अध्य०१२ ॥१२७७॥ k सर्वथा हुँ अभिलाष राखती नथी. ॥ ४५ ॥ उचराध्य- 161 मू०- परवदे जलियं जाई । धूमकेउं दुरासयं ।। न इच्छति वंतयं भोतं । कुले जाया अगंधणे ॥ ४२ ॥ यनरत्रम् व्या-हे रथनेमे ! अगंधने कुले आता उत्पन्नाः, अर्थादगंधकुलोत्पन्नाः सवांतं विषं भोक्तुं, पुनः पश्चाद् ॥१२७७॥ 18| गृहीतु नेच्छंति न बांछन्ति. ज्वलध्धुमकेलोरग्नेज्योतिवालां प्रस्कंदेदिति प्रस्कंदेयुः, प्राकृतत्वाहहुवचने एकवचनं. डाअगंधन जातीयाः सर्पा ज्वलग्निज्वालां प्रविशेयुः, न तूगोर्ण विष पश्चाद् गृह्णन्ति. कीदृशं धूमकेतोज्योतिः? दुरासदं दुस्सहमित्यर्थः ।। ४२ ।। म अर्थ:-हे स्थनेमे ! अगंधन नामना कुळमां उत्पन्न थयेला सर्पो.पोते बमेला विषने पाछु खावा इच्छता नथी, पण प्रज्वलित धूमकेतु-अग्निना दुरासद-असह्य ज्योति ज्वालामा प्रवेश करे छे. (प्राकृतमा बहुवचनस्थाने एक वचन प्रयोग थाय छे.) अगंधन जातिना सर्प बळता अग्निनी ज्वाळामा प्रवेश करे पण पोते दंश करतां नाखेलु विष पार्छ सर्वथा गृहण नथी करता. ॥४॥ मू-धिगत्यु ते जसोकामी । जो ले जीवियकारणा ॥ वत इच्छसि आवेउं । सेयं ते मरणं भवे ॥४३॥ व्या-हे अयशाकामिन् ! हे अकीर्तिवांछक ! अथवा हे अयशः! अकीर्ते । हे कामिन् ! त्वां धिगस्तु. तव जीवितव्यं धिगित्यर्थः. यस्त्वमसंयमजीवितव्यकारणाद्वांत बदनान्निामृतमाहारं पुनरापातुं भोक्तुमिच्छसि, दीक्षां गृहीत्वा भोगांस्त्यक्त्वा पुन भॊगान् भोक्तुमिच्छसि. अतः कारणात्त तवाऽस्मादसंयमजीवितव्यात् पंडितमरणेन ४ मरणं श्रेयः कल्याणकारकं भवेत्, न पुनस्तव भोगाभिलाषः श्रेयस्कर इति भावः ॥४३॥ - - - For Private and Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kotbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराय CAA-% AAS अर्थ:-हे अयश-कामिन ! अपकीचिने चाहनार ! अथवा हे अाजकीनिवाका कापिन् तमे विकार हो. ताई जीव, धिक्छे. जे तुं संयम रहित जीवना कारणे वमनकरेल मुखमांधी नीकळेल आहारने फरी पीवाने हलके है। अर्थात्-दीक्षा लइ मोगमा त्यजीने पाछो भोग मोगववानी वांछना करेके, ते कारणथी तारा आ असंयम जीववाना करतां पंडित मरणथी मर श्रेया तने कल्याणकारक थशे, आ भोगामिलाप सर्वथा श्रेयस्कर नथी थवानो. ॥ ४ ॥ मूक- अहं च भोगरायस्स । तं चासि अंधवहिणो॥मा कुले गंधणा होमो। संजमे निहुओ पर ॥ ४४ ॥ . व्या--राजीमती वदति, हे रथनेमे! अहं भोगराजस्योग्रसेनभूपस्य पुश्यस्मि, च पुनस्स्वमंधकवृष्णेः समुद्रविजयस्य पुत्रोऽसि, तस्मादावां गंधनौ गंधनकुलोत्पन्नौ सौ माऽभूवमभवाव. यतो हि अगंधनकुलोत्पन्नः सों वांतं विषं पश्चाद गृह्णाति, तद्वदावाभ्यां वांता भोगाः पुनर्न वांछनीयाः, यतो हि सर्पा द्विविधाः, अगन्धनकुलोअवा गंधनकुलोद्भवाश्च. यदा हि कस्यचित्पुरुषस्य सो लगति, तदा मंत्रवादिनोऽग्निं ज्वालयित्वा मंत्रेण सर्पा नाकर्षन्ति, तत्र च गंधनकुलोद्भवाः स्वविषं पश्चाद् गृह्णन्ति, अगंधनकुलोद्भवास्त्वग्नौ ज्वलंति, न पुनर्वातं विषं पश्चाद् गृहति, तस्मादावामगंधनकुलोत्पन्नसर्पतुल्यौ भवाव इति भावः तस्मात्वमिदानी संयमे चारित्रे निभृतो निश्चलः सन् चर! साधुमार्गे विचरेत्यर्थः ॥४४॥ अर्थः-राजीमती कहेछे-हे स्थनेमे हुँ भोगराज-उग्रसेन राजानी पुत्रीछु, अने तुं अंधकवृष्णिनाकुळमा जन्मेलोसमद्रविजयनोपुत्रछो. तेथी आपणे आपणा कुळमां गंधन जातिना सर्पसमान थर्बु न जोइए. सर्प, गंधन तथा अगंधन एम वेजातनाकुळमां उत्पन्न करुल्ककवल For Private and Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandi उचराध्यपरखमा ॥१२७९॥ थयेला होय छे. ज्यारे कोइने सर्प डंसे अने कोइ विषवैद्यन्गारुडी मंत्रबादी पांसे जाय त्यारे ते वादी अग्नि प्रज्वलित करीने मंत्रथी का भाषांवर सर्पनुं आकर्षण करेले ते बख्ते जो ते करडनार सर्प मंधन कुलोत्पन्न होय तो पोतानु विष पार्छ खेंचीलीये कारणके जो विष चूसी नT OR लीये तो बादी तेने अग्निमां फेके; ए भयथी विष पार्छ आकर्षीलीये पण जो तेसर्प अगंधन फुलोत्पन्न होय तो अमिज्वाळामा फेंका | कबुल करे पण पोते वमन करेलु विष सर्वथा पार्छ न चूसे. तेमज हे स्थनेमे ! आपण बन्नेये वमन करेला भोगोनी हवे फरी वांछना नज कराय, माटे तुं हवे संयम चारित्रम्नेविषये निभृतनिश्चल रहीने साधुमागने विषये विचर.॥४४॥ भू-जहसं काहिसि भावं । जा जा दिच्छसि नारीओ ॥ वायाविद्धोव्व हठो । अभिप्पा भविस्मसि ॥४५॥ । व्या-हे मुने ! यदि त्वं भावं भोगाभिलाष करिष्यसि, यां यां नारी द्रक्ष्यसि, अर्थायां यां सुरूपां नारी |दृष्ट्वा भोगाभिलाषं करिष्यसि, तदा त्वमस्थिरात्माऽस्थिरचित्तो भविष्यसि क इव ? वातावितो हठ इव. हठो वनस्पतिविशेषः शेवालः, यथा पानीयोपरि शेवालो वातेन प्रेरितोऽस्थिरो भवति, तथा स्वमप्यतिरूपवती कामिनी हा कामाभिलाषी सनस्थिरचित्तो भविष्यसि.॥४५॥ | अर्थ:-हेमने ! जो कदाच तुं भाव-भोगाभिलाष करीश अने जे जे नारीने देखीश, अर्थात् जे जे सुरुप स्त्रीने जोइ भोगा मिलाप करीश त्यारे तुं अस्थिरात्मा अस्थिर चित्त बनीश. केनी पेठे १ वाताविहठनी पेठे, एटले हठ-पाणी उपरनो शेवाळ जेम | पवनयी प्रेरित थतां अस्थिर थायछे तेम तुं पण कोइ अतिरूपवती कामिनीने जोइने कामाभिलाषथी अस्थिरचित्त थइश. ॥ ४५ ॥3 | मू०-गोचालो भंडपालो वा । जहा तहव्वनिस्सरो ॥ एवं अणिस्सरो तंपि । सामन्नस्स भविस्ससि.॥४६॥ ॐ + + For Private and Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपराभ्ययमपत्रम् ॥१२८०॥ 2014-12- भाषांवर अध्य०२१ ॥१२८०॥ SC eKENDHARE व्या-हे मुने ! तथा त्वमपि श्रामण्यस्य साधुधर्मस्थानीश्वरो भविष्यसि, भोगाभिलाषकरणेन संयमफलस्याऽभोक्ता भविष्यसि. क इव ? गोपाल इव, वाऽथवा भांडपाल इव. गाः पालयतीति गोपालो गोरक्षकः, उदरपूरणार्थं परकीयगोचारकः. पुनर्भाण्डानि परकीयक्रयाणकवस्तूनि भाटकादिना पालयतीति भांडपालकः, गोपालो गवां स्वामी न भवति, तद्रक्षणादुदरपूर्तिमात्रफलभाक् स्यात्, न तु गवां स्वामित्वफलभाक. तथा पुनर्भीडपाल: क्रयाणकाधिपेन क्रयाणकरक्षार्थ रक्षितः पुरुषः क्रयाणकानामीश्वरत्वफल भाग न भवति, उदरपूर्तिमात्रफल भागेव भवति. ईश्वरत्वफलभाक स्वपर एव. तथा त्वमपि श्रामण्यवेषधारकत्वेन द्रव्यधर्मपालकत्वादुदरपूर्तिफलभाग् वर्तसे, न तु भावधर्मफलस्य मोक्षस्येश्वरो भविष्यसीति भावः ॥ ४६॥ | अर्थ:-हे मुने! जेम कोइ पोताना गुजारा माटे वरत लइ ? पारकी गायो चारनार-गोवाळ गायोनो स्वामी यतो नथी तथा जेम कोइ भांडपाल पारकी वेचवानी वस्तुओनी भाटक-पगार लइनेरक्षा करनारते क्रयाणक-वस्तुओनो मालिक बनतो नथी किंतु पोताना उदग्भरणमात्र फल पामेछे तेम हे रथनेमि ! तुं पण श्रामण्य-साधुधर्मनो अनीश्वर थइश, भोगाभिलाष करीने संयम फळनो भोक्ता थइ शकीश नहिं. अर्थात् तुं पण श्रामण्य वेषधारक मात्र होइने द्रव्य धर्मपालक थवाथी मात्र उदरभरण रूप फळ भोगवनारो थइने वर्चीश पण कंद भाव धर्मनां फल मोक्षनो इश्वर-खामी सर्वथा थइ शकवानो नथी. ॥ ४६ ।। मु०-कोहं माण निगिह्नित्ता । मायं लोभं च सव्वसो। इंदियाई वसे काउं । अप्पाणं उवसंहरे ॥४७॥ |मृ-तीसे सो वयण सुच्चा । संजयाए सुभासियं ॥ अंकुसेण जहा नागो धम्मे संपडिवाइओ॥४८॥ युग्मं ॥ + % A AM For Private and Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir CIRCRORE 19 व्या-स रथनेमिरिन्द्रियाणि वशीकृत्यात्मानमुपसंहरति स्थिरं करोति, विषयेभ्यो निवारयति. किं कृत्वा ? उपराध्यक्रोधं मानं मायां च पुनः सर्वधा लोभं निगृह्याऽत्यंत जिस्वा. एवं रथनेमिरात्मानं धर्मे रदं चकार. एतदेवोक्तं दृष्टां भाषांवर यनाम् तेन रदयति-तस्या राजीमत्याः संयत्याः साध्व्याः सुभाषितेन स रथनेमिः पूर्व धर्माद भ्रष्टो धर्म संप्रतिपा॥१२८१॥ अध्य०११ ॥१२८२० तितो धम्ये मार्ग स्थापिता, केन क इव ? अंकुशेन नाग इव, याकुशेन नागो हस्ती मार्गाद् भ्रष्टो मार्गे स्थाप्यते, तथा रथनेमिरपि. ॥४८॥ अर्थः- गाथानो साथे अर्थ दर्शावाय छे-ते रथनेमि, इंद्रियोने वश करीने पोताना आत्माने उपसंहरे स्थिर करेठे. विषयोथी निवारेछे. केम करीने ? क्रोध, भान, माया तथा सर्व प्रकारना लोभने निग्रहीने, अर्थात् अत्यंत जीतीने एवी रीते स्थनेमिए आत्माने धर्मना विषये दृढ कर्यो. एज दृष्टांतथी दृढ करेछे-ते संयमवती राजीमती साध्वीना सुभाषितवडे, जे रथनेमि प्रथम धर्मथी । भ्रष्ट हतो ते फरी धर्ममा संप्रतिपातित-धर्ममार्गमा स्थापित थयो. केनी पेठे ? जेम अंकुशवडे मार्गथी भ्रष्ट यतो हाथी, मार्गे लेबाय 3 तेम रथनेमि पण धर्ममार्ग प्रति वळ्यो. ।। ४७-४८॥ मृ०–मणगुत्तो वयगुत्तो । कायगुत्तो जिइंदिओ॥ सामनं निचलं फासे । जावजीब दहब्बए ॥४९॥ व्या-यदा म साधुमार्गे स्थिरोऽभूत्तदा कीहशोऽभूदित्याह-मनसा गुप्तो मनोगुप्तः, तथा वचसा गुप्तो चो-3 गुप्तो गुप्तवाक्. तथा पुनः कायेन गुप्तः कायगुप्तो गुप्तकायः, इति गुप्तित्रयसहितः. पुनः कीदृशः? जितेंद्रियो वशी-14 है कृतेंद्रियः, एतादृशो रथनेमिर्यावजीवं दृढव्रतः सन् श्रामण्यं चारित्रधर्म निश्चलं यथास्यात्तथा स्पृशति, सम्यक GACACARSASARAM 5 % % % For Private and Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राध्य ॥१२८२ क्रियानुष्ठानेन पालयति. ॥४९॥ | अर्थः-ज्यारे ते रथनेमि साधुमार्गमा स्थिर यया त्यारे केवा थया? ते कहेछ-मनवडे गुप्त-मनो गुप्त तथा बचनवडे गुप्त मानंद बचोगुप्त. तेमज कायवडे गुप्त-कायगुप्त; एम त्रणे गुप्तिथी संयुक्त थया वळी जितेंद्रिय-बश करेलछे इंद्रियो जेणे एवा थया, आवा | *बब०११ रथनेमि जीवितपर्यंत दृढव्रत रही श्रामण्य चारित्र्य धर्मने निश्चलपणे सम्यक् क्रियानुष्ठानबडे पालन करवा लाग्या. ॥४९॥ ॥१२८२॥ मू-उग्ग तवं चरित्साणं । जाया दुन्निवि केवली ।। सव्वं कम्मं स्ववित्ताणं । सिद्दूिपत्ता अणुत्तरं ॥५०॥ व्या--अनुक्रमेण सो द्वावपि राजीमतीरथनेमी केवलिनी जातो. किं कृत्वा? उग्रमन्यैः कर्तुमशक्यं तपश्चरित्वा तपः कृत्वा, अनुक्रमेण च सर्वाणि कर्माणि क्षपयित्वा, पुनस्तावनुत्तरां सर्वोत्कृष्टां सिद्धि मोक्षगति प्राप्तौ ॥५०॥ अर्थः-अनुक्रमें ते बेय पणजीमती तथा स्थनेमि केवळी केवळ ज्ञानवाळां-थयां. केम करीने ! उग्र-अन्यथी न था शके | |ते, तपः आचरण करीने, वळी अनुक्रमे सर्व कर्मोने खपावीने ते बने अनुत्तरम्सर्वोत्कृष्ट सिद्धिने पाम्यां, अर्थात् मोक्षे गया. ॥५०॥ मू-एवं करंति संबुद्धा । पंडिया पवियक्त्रणा । विणियति भोगेसु । जहा से पुरिसुत्तमुत्तिबेमि ॥ ५१॥ ___व्या-पंडितास्तत्वमतियुक्ताः, प्रकर्षेण विचक्षणा विवेकिनः पुरुषाः प्रतिबुद्धाःसंतः एवं कुर्वति, किं कुर्वतीत्याह-भोगेभ्यो विशेषेण निवर्तते, कथंचिच्चेतसि विकारे समुत्पन्नेऽपि पुनः कस्यचिद्धर्मात्मनः पुरुषस्य धर्मोपदेशधारणेन चित्तं निरंध्य भोगेभ्यो निवर्तते.क इव यथा स रथनेमिः पुरुषोत्तमः पूर्व चंचलचित्तो भूत्वा पुनर्मोप देशादमें स्थिरचित्तो बभूव. तथान्यैरपि निश्चलचित्तर्मवितव्यमिति, न तु चंचलचित्तेन भाव्यमित्यहं ब्रवीमीति For Private and Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उमराम्य मातील श्रीमतुतगचिताया जा करी विचधारमा विकार ॥१२८॥ श्रीसुधर्मास्वामी जंबूस्वामिनमाह-हे जंबू! अहं भगवदचसेति ब्रवीमि. ।। ५१ ॥ इति रथनेमीयं द्वाविंशतितममध्ययनं संपूर्ण. २७. इतिश्रीमदुत्तराध्ययनसूत्रार्थदीपिकायामुपाध्यायश्रीलक्ष्मीकीर्तिगणिशिष्यलक्ष्मीवल्लभगणि विरचितायां द्वाविंशतितमस्याध्यनस्यार्थः संपूर्णः॥ श्रीरस्तु॥ अर्थ:-पंडितो तत्त्वमतियुक्त, तथा प्रकर्षे करी विचक्षण विवेकी पुरुषो प्रतिबुद्ध थइने एमन करेछे. शुं करेछे ? ते कहेछमोगोथी विशेषपणे निवृत्त थाय छ. कदाच कोइ प्रकारनो चित्तमा विकार उत्पन थाय तो पण पुनः फरीने पाछा कोइ धर्मात्मा पुरुषना धर्मोपदेशथी चित्तने निरुद्ध करीने विवेक पूर्वक भोगोथी निवृत्त थायछे. केनी पेठे ? जेम रथनेमि पुरुषोत्तम पूर्वमां चंचळ चिचवाला थइने पण पाछा राजीमती कृत धर्मोपदेशथी धर्मविषये स्थिरचित्त थया तेवीज रीते अन्य पुरुषोए पण निश्चलचित्तवाळा थQ, चंचळचित्तवाला सर्वथा न थq, 'एम हुं बोमुं हुआ छल्लु वाक्य श्रीसुधर्मस्वामी जंबूस्वामी प्रति बोल्या के-'हे जंबू ! हुं आ सघल्लु भगवद् वचनथी बोलु छु. ॥५१॥ इति स्थनेमीय नामर्नु बावीश अध्ययन पूर्ण थy. EMTOTTA, ETILATOALTERILITETE) CODA ALGEZICO TOZIMO ETRALHOTY TANITE THO- EHYTTERT KETIKULTETE TEATRIN ITATEMEN TENIRATI KLARATSIEHT HEUTETTE इति श्रीमान् लक्ष्मीकीतिगणिना शिष्यलक्ष्मीवल्लभारि विरचित श्रीमदुत्तराध्ययनी सत्रार्थदीपिका नामनी टीकामां पावीशमा स्थनेमीय नामक अध्ययननो अर्थ संपूर्ण थयो. Elementar a controllimitare TERETULCHITATHALUTE CITOHUTU MOTALATOS PERTAMA VAILETEJUHTE TANTA COMBATTERIERNATIONAL PARIETTERIA For Private and Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kotbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०२५ ॥ अथ त्रयोविंशतितममध्ययनं प्रारभ्यते ।। उपराध्या यन खम् | ॥१२८४॥ द्वाविंशतितमेऽध्ययने उत्पन्नविश्रोतसि केनापि रथनेमिबद्रतिश्चरणे विधेयेति कथितं. अथ त्रयोविंशतितमध्ययने ज्ञानिना परेषामपि चित्ते सायं ज्ञात्वा संशयो दूरीकर्तव्यः केशिगौतमवदित्याह-'जिणे पासित्ति नामेणं' इत्यस्यां गाथायां कथितोऽयं पार्श्वनामा तीर्थकरः, कस्मिन् भवे चानेन तीर्थकरनामकर्म नियमिति सकौतुकश्रोतृवैराग्योत्पादनार्थ पार्श्वनाथचरित्रमुच्यते-- | अर्थ:--बावीसमा अध्ययनमा 'कोइ पण मनुष्ये उत्पन्न थयेला उंचा प्रकारना आगमज्ञान वाळा सदाचरणमा स्थनेमिनी पेठे प्रेम घरवो' एम का हवे त्रेवीसमा अध्ययनमा 'ज्ञानीए बीजाना पण चित्तमा संशय जाणी लइ ते संशय केशी अने गौतमनी पेठे दूर करवों' एम कडेले. 'जिणे पासित्ति नामेण' ए आगाथमा पार्श्वनाथ नामना तीर्थकरनुं निरुपण कयु . 'कया जन्ममा #आ पार्श्वनाथे पोतार्नु तीर्थकर एवं नामकर्म बांध्यं ? ए सांभळवाना कौतुकवाळा श्रोताना वैराग्यने उत्पन्न करवा माटे पार्श्वनाथन | चरित्र कहेवामां आवेछे. इहैव जंबूद्वीपे भरते क्षेत्रे पोतनपुरे नगरेरविंदो नाम राजा, तस्य विश्वभूति मा पुरोहितः, स श्रावकोऽस्ति, तस्य द्वौ पुत्रौ, कमठो मरुभूतिश्च. तयोः क्रमेण भार्या वरुणा वसुंधरा च. तयोः कमठमरुभूत्योः शिरसि गृहकार्यभारं विन्यस्य स्वयं धर्म कुर्वाणः क्रमेण कालं कृत्वा विश्वभूतिदेवलोकं गतः, तद्भार्याऽनुद्धरी विशेषतपःकरणेन कावासलकर For Private and Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kotbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दशोषितशरीरा मृता. कमठोऽपि कृतमातृपितृप्रेतकार्यः पुरोहितो जातः. मरुभूतिरपि प्रायो ब्रह्मचारिकृत्योद्यतः | 15 भापहर संपन्नः तस्य भार्या मनोहरा, तस्याश्च यौवनोद्भेदं दृष्ट्वा कमठस्य चित्तं चलितं, सांसविकारलोचनाभ्यां स पश्यति. सबखत अध्य०१५ ॥१९८५॥ सापि कामविरहममहंती तं सविकारं पश्यति. उभयोभृशं रंगोल्लासेऽनाचारप्रवृत्तिर्जाता, मरुभूतिनापि सामा-13॥१२॥ न्यनो ज्ञाता. विशेषज्ञानाय तस्याः कमठस्य च पुरोऽहं ग्रामांतरं यास्यामीत्युक्त्वा निजमंदिराद्वहिर्गत्वा संध्यासमये *कार्पटिकरूपं कृत्वा स्वरभेदेन कमठप्रत्येवं बभाण. अर्थः-आ जंबूद्वीपमा आवेला भरतखंडनेविषे पोतनपुर नामना नगरमा अरविंद नामनो राजा हतो. तेनो विश्वभूति नामनो पुरोहित हतो. ते श्रावक हतो. तेना कमठ अने मरुभूति नामना चे पुत्रो हता. तेओनी अनुक्रमे वरुणा अने वसुंधरा नामनी स्त्रीओ हती. ते कमठ अने मरुभूतिना मस्तक पर घरनां कामकाजनो बोजो नाखी. पोते धर्मर्नु आचरण करतां समय आव्ये मरण पामी विश्वभूति देवलोकमां गयो. अनुद्धरा नामनी तेनी स्त्री विशेष तप करी शरीरने क्षीण थतां मरण पामी. कमठ पण माता तथा पितानी उत्तरक्रियाने पूर्ण करी पुरोहित थयो. मरुभूति पण प्रायशः ब्रह्मचारीना कृत्यमा तत्पर थयो. तेनी खी मनोहर हती. तेने युवान जोइ कमठनु चित्त चम्यु. ते तेने विकारयुक्त नेत्रोवडे जोतो हतो. ते स्त्री पण कामने लीधे वियोग दुःखने सहन नहि करतां तेने मनना विकारवाळी थइ जोती हती. बन्नेनो प्रेमरंग अत्यंत उकळता तेओनी दुराचारमा प्रवृत्ति थइ. मरुभूतिए पण ए वात साधारणपणाथी जाणी लीधी. विशेष जाणवा माटे तेनी अने कमठनी पासे 'हुँ बीजे गाम जाउंछु' एम कही पोताना घरमांथी बहार नीकळी सांजे कापडी साधुनो वेष ला वर बदलावी मरुभूतिए कमठने आ प्रमाणे कयु FACCA4%AEBAR For Private and Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धाम बम बम बम.२६ ॥१२८ ॥१८॥ RAKES हे महानुभाव! निराधारस्य मम शीतत्राणाय किंचिनिवासस्थानं देहि ! अविज्ञातपरमार्थेन कमठेच भणितमहो! कार्पटिक! अन चतुर्हस्तमध्ये स्वच्छंद निवसततस्तत्र रात्रौ स्थितो माभूतिस्तयोः सर्वमनाचारस्वरूपमालोक्येयापरवशो जातः परं लोकापवादभीरुत्वास तयोः प्रतीकारं चकार. प्रभाते च राजांतिके गत्या सर्व तयोः स्वरूपं यथास्थितमाख्यातयान. राज्ञा च कुपितेन समाविष्टाः स्वपुरुषाः, तैडिडिमास्फालनपूर्ण गलारोपितशरावमालः खरारूढः कमठः सर्वतो नगरे भ्रामिता, भ्रातृजायामोगकार्यमिति जनानी पुरो निर्घोषं कृत्वा स नगरानिष्कासितः ततः संजातामर्षः कमठोऽपि समुत्पन्नवैराग्यो गृहीतपरिव्राजकलिंगो दुष्करं तपः कर्तु लमा, तं च वृत्तांतं ज्ञात्वा मरूभूतिः संजातपश्चात्तापः स्वापराधक्षामणाय तस्यांतिके गस्था पादयोः पपात. कमठोऽपि त. दानी समुत्पन्नपूर्ववैरोल्लासेन मरुभूतेन उपरि महाशिलां पातितवान्. ततो मरुभूतिस्तस्याः प्रहारेणारटन् कालं कृत्वा विंध्याचले बहुयूथाधिपतिः करी समुत्पन्ना, इतश्चारविंदराजा कदाचिच्छरस्काले सांतःपुरः प्रासादोपरि स्थितः क्रीडन् शरदनं सुलिग्धं प्रच्छावितनभास्थलं मनोहरं ददर्श.पुनस्तरक्षणादेव वायुना विलीनं तदनं पश्यन् दृष्टांतावष्टंमेन सर्वेषां भावानां क्षणभंगुरतां भाषयन् समुत्पन्नावधिज्ञानः परिजनेन प्रियमाणोऽपि दत्तनिजपुत्रराज्यः स प्रबजितः. अन्यदा स राजर्षिविहरन् सागरदत्तसार्थवाहेन समं सम्मेतशिखरे चैत्यवंदना प्रस्थितः सागरदत्तसार्थवाहेन पृष्टं भगवन् ! क गमिष्यसि ? यतिनोक्तं तीर्थयात्रायां. सार्थवाहेनोक्तं कीहशो भवतां धर्मः ? मुनिना कथितो दयादानविनयमूलः सविस्तरस्तस्य धर्मः तं श्रुत्वा स सार्थवाह प्रावको जातः, क्रमेण महाटवीं ऊरकरवट For Private and Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .१९८७ प्राप्तः, यत्र समभूतिजीवः करी जातोऽस्ति, तत्र महासरोपरं राष्ट्रा तत्तीरे सार्थ उत्तीर्णः, ॥१॥ साभार हे महाप्रतापी कमठ, मने निराधारने ठंडीथी बनवा माटे काइ रहेवावें स्थान आपो. अजाण एवा कमठे कयु हे कापडी | म. | साधु । बा ओरडामां तारी मरजी जब रहे. त्यार पछी त्यां रात्रिए हेलो मरुभूति तेओना सपळा दुराचारना स्वरूपने जोर १९८७ बदेखाइथी परवश पनी गयो, परंतु लोकापवादची मय पामी तेणे तेोनो दुराचार टाळवानो उपाय कयों नहि. सबारे गजा पासे जा तेणे तेओर्नु सपळु स्वरुप जे, हतुं ते, कही बताय. राजाए गुस्से थइ पोताना माणसोने आज्ञा करी. तेओए गळामां रामपात्रनी माळा पहेरावी, गवेडापर बेसाडी, ढोलपीटी, कमठने आखा शहेरमा फेरन्यो, अने 'आ पोतानी माइनी बीनो संमोग कर. नारो छे' एम लोकोनी पासे ढंढेरो बहार पाडी तेने शहरमांधी बहारकाढी मक्यो. त्यार पछी कमठने क्रोध उत्पन्न थयो, परंतु पालथी वैराग्य प्रासयतां ते साधुना वेपनुं ग्रहण करी दुष्कर तप करवा लाग्यो, ते प्रत्तांत जाणी पश्चाताप उत्पन्न यतां मरुभूति पोवाना अपराधनी क्षमा मागवा तेनी पासे जह पगमा पडयो. कमठे पण ते समये जायला वैरनी जागृति थवाथी मरुभूतिना मस्त. कपर मोटी शिला नाही. त्यार पछी मरुभति ते शिलाना प्रहारथी चीसो नासतो नास्वतो मरण पामी विंध्याचल पर्वतमा धणा (सूचनो अधिपति हावी थयो. आतरफ अरविंद रामाए कोई दिबसे शरद् ऋतुमा महेलनी अगाशीमां अंतःपुर सहित रही क्रीडा करता जेथे आकाशने ढांकी दीधुं हर्ट एवा अत्यंत शोभावाला मनोहर शरद् ऋतुना वादळाने जोयां. फरीने सेज वषे वायुषी नाश पामता ते वादळाने जोता अने ते दृष्टांतनो आश्रय लइ सबला पदार्थोना क्षणभंगुरपणाानो विचार करता अरविंद राजाने अवधिशान उत्पन यु. सेवकोए रोकता छतां पण पोताना पुत्रने राज्य आपी ते साधु थयो. कोह दिवसे ते राजर्षिए विहार करतां सागरदच For Private and Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उचराज्य १२८८ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नामना सार्थवाह (संघना अधिपति) नी साधे संमेतशिखरनी यात्रामाटे प्रयाण कर्पु. सागरदत्त सार्थवाहे पूछयुं 'हे भगवन् ! आप क्यां पधारो ?' यतिए कछु 'तीर्थयात्राए.' सार्थवाहे पूछयुं 'आपनो के वो धर्म छे ?' सुनिए तेने दया, दान तथा विनय जैनुं मूळ छे एवो सविस्तर धर्म कह्यो. ते सांभळी ते सार्थवाह श्रावक थयो, अने ते मरुभूति जीव ज्यां हाथी थयो हतो ते मोटा जंगलमां क्रमथी आव्यो. त्यां मोडुं सरोवर जोइ तेना कांठा उपर संघ उतर्यो. ॥ १ ॥ अत्रांतरे तस्मिन्नेव सरसि बहुहस्तिनीपरिवृत्तः स करी जलपानार्थमागतो जलं सविलासं पीत्वा पालमारूढः सर्वत्र चक्षुर्विक्षिपन् सार्थं दृष्ट्वा तद्विनाशनार्थ स्वरितं धावितः तं च तथागच्छतं दृष्ट्वा मार्थजना इतस्ततः प्रणष्टाः, मुनिस्त्ववधिना ज्ञात्वा स्वस्थाने स्थितः कायोत्सर्गेण तेन करिणा सर्व सार्थप्रदेशं भ्रमता दृष्टः ल महामुनिः, तदभिमुखं स धावितः आसन्नप्रदेशे गत्वा तं पश्यन्नुपशांतको पोऽसौ निश्चलः स्थितः तथारूपं तं दृष्ट्वा तत्प्रतिबोधार्थ पारितकायोत्सर्गो मुनिरेवसूचे. भो मरुभूते । किं न त्वं स्मरसि मामरविंदनरपतिमात्मनः पूर्वभवं वा १ एतन्मुनिवचः श्रुत्वा स करी संजातजातिस्मरणः पतितो मुनिचरणयोः, मुनिनापि सविशेषदेशनाकरणपूर्व स श्रावकः कृतः, ततः प्रणस्य स करी स्वस्थानं गतः ॥ २ ॥ अर्थ:-आ अरसामा तेज सरोवरमा घणी हाथणीओथी वींटाइ ते हाथी जळ पीवा माटे आव्यो. ते आनंदथी जळ पी तळावनी पाळपर चढयो, अने चोमेर दृष्टि नाखतां संघने जोइ तेनो विनाश करवा माटे तरत दोडयो. तेने आवतो जोइ संघना माणसो अहिं तहिं नाठा. मुनि तो अवधिज्ञानथी जाणी लह पोताना स्थानमांज कायोत्सर्गवडे उभा रह्या. ते हाथीए सघळा संघना स्थानमां For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०२३ ॥१२८८॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तरफ दोडयो. नजीकका प्रादेशिने पूर्ण करी मुनिका हाथीपोतानी पर्व व + भमतां ते महामुनिने जोया ते तेना तरफ दोडयो. नजीकना प्रदेशमा जहते हाथी मुनिने जोतां शांत कोपवाळो थइ निश्चळ उभो रह्यो. रचनाध्य-18 CIR तेवा रूपवाळा ते हाथीने जोइ तेने ज्ञान आपवा माटे कायोत्सर्गने पूर्ण करी मुनिए आ प्रमाणे का 'हे मरुभूति ! तुं मने अरविंद भाषांत बननम् । क्षाराजाने, के पोताना पूर्वजन्मने केम याद करतो नबी आ मुनिना वचनने सांभळी ते हाथीपोतानी पर्व जातिनं स्मरण थां प्रनिता । जय०१२ ॥१२८९० चरणोमां पडणे. मुनिए पण तेने विशेष देशना आपी श्रावक कयों. त्यार पछी ते हाथी प्रणाम करी पोताना स्थानमा गयो. ॥२॥ अत्रांतरे उपशांतं तं करिणं दृष्ट्वा साश्वर्यः सार्थजनः पुनस्तत्र मिलिता, प्रणम्य च मुनिचरणयुगलं प्रतिपन्नवान् दयामूलं श्रावकधर्म, ततः कृतकृत्यः सर्वोऽपि सार्थों मुनिश्च स्वस्वाचारनिरतो विजहार. इतश्च स कमठप-18 रिवाजको मरुभूतिविनाशनेनाप्यनिवृत्तवैरानुबंधो निजायुःक्षये मृत्वा समुत्पन्नः कुर्कुटसर्पः, विंध्यावनी परिन मता तेन दृष्टः स हस्ती पंकनिमग्नः, पूर्ववेरोल्लासेन कुंभस्थले दष्टः, तद्विषवेदनामनुभवन्नपि श्रावकत्वात् क्षमावान् मृत्वा समुत्पन्नः सहाम्रारकल्पे देवः कुर्कुटसर्पोऽपि समये मृत्वा सप्तदशसागरोपमायुः पंचमनरकपृथिव्यां नारकः संजाता. इतश्च स हस्तिदेवश्च्युत इहैव जंबूद्वीपे पूर्व विदेहे कच्छविजये वैतात्यपर्वते तिलकानगयाँ विद्युगतिविद्याधरस्य भार्यायाः कनकतिलकायाः किरणवेगो नाम पुत्रो जातः स च तत्र क्रमागतराज्यमनुपाल्य सुगुरुसमीपे प्रवजितः, एकत्वविहारी चारणश्रमणो जातः. अन्यदाकाशविहारेण स गतः पुष्करीपे, तत्र कनकगिरिसन्निवेशे कायोत्सर्गेण स्थितः किंचित्तपः कर्तुमारब्धः. इतश्च स कुर्कुटसर्पजीयो नरकादुध्धृत्य तस्यैव कनकगिरेः समीपे संजातो महोरगा, तेन स मुनिष्टो वष्टश्च. विधिना कालं कृत्वान्युतकल्पे जंन्दुमावर्तविमाने 5 For Private and Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir . यावर उचराभ्यबन एवम् ॥१२९०॥ 4- C CES देवो जता, सोपि महोरगः क्रमेण कालं कृत्वा पुनरपि सप्तदशसागरोपमायुः पंचमपृथिवीनारको जातः ॥३॥ अर्थः-आ अरसामां ते हाथीने शांत थयेलो जोह संघ आश्चर्य पामी फरीने त्यां मळ्यो. तेथे मुनिना चरणोमां प्रणाम करी दयाना मूळरूप श्रवकधर्मनो स्वीकार कयों. त्यार पछी सघळा पण संघे अने मुनिए पोतपोताना आचारमा तत्पर थइ विहार कर्षो. आ तरफ ते कमठ साधु, मरुभूतिनो विनान कर्या वतां पण वेरनुं अनुसंधान नहि टळबाने लीधे पोताना आयुषनो क्षय थतां मरण पामी कुर्कुट जातनो सर्प उत्पन थयो. विंध्याचलनी पृथ्वीपर भमतां तेणे ते हाथीने कादवा खूपी गयेलो जोयो. आगलं वेर जागृत थवाथी तेणे ते हाथीना कुंभस्थळमां डंस को. तेना विषनी वेदनानो अनुभव करता छतां पण श्रवक पणाने लीघे क्षमावळो थइ मरण पामी ते हाथी सहावार कल्पमा देवरुपे उत्पन्न भयो. कर्कट सर्प पण समय आवतां मरण पामी सप्तदश सागरोपमना आयुष वाळो थइ पांचमी नरकभूमिमा नरकनो जीव थयो. आ तरफ ते हस्तिदेव सहस्रार कल्पथी भ्रष्ट थइ अहिंज जंबूद्वीपमा पूर्वविदेहविषे कच्छविजयमा वैतात्य पर्वतपर तिलका नामनी नगरीमा विद्युद्गति नामना विद्याधरनी कनकतिलका नामनी स्त्रीने पेटे किरणवेग नामनो पुत्र थयो. ते त्या पापदादाना क्रमथी आवेला रज्यर्नु पालन करी सारा गुरुनी पासे दीक्षा लह एकलापणाथी बिहार करनार चारण श्रमण थयो. एक दिवसे आकाशमा विहार करी ते चारण श्रमण पुष्करद्वीपमा गयो. स्यां तेणे कनकगिरिना सारा निवासस्थानमा कायोत्सर्गवडे रही कांइ तपः करवानो आरंम कयों. आ तरफ ते कुकूट सर्वजीव नरकमाथी नीकळी तेज कनकगिरिना समीपमां मोटो सर्प थयो. तेणे ते मुनिने जोया अने डंस कयों, विधि प्रमाणे मरण पामी ते मुनि अच्युतकल्पमा जंबुद्ध मावर्त नामना विमान विवे देव थया. ते पण महासर्प क्रमथी मरण पामी फरीने सप्तदश सागरोपमना आयुषवाळो थह पांचमी नर For Private and Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मापनि मारा ४ कमिमां नरकनो जीव थयो. ॥३॥ उमराम किरणवेगदेवोऽपि ततश्च्युत्वेहेव जंबूद्वीपेऽपरविदेहे सुगंधविजये शुभंकरानगाँ बज्रवीर्यराज्ञोऽक्षिमताया | भार्याया वज्रनाभनामा पुत्रः समुत्पन्नः सोऽपि तत्र क्रमावतं राज्यमनुपाल्प दत्तचक्रायुधनामस्वपुत्रराज्यः क्षेम ४१२९९० करजिनसमीपे प्रबजिता. तत्र विधिना तपोविधानेन बहुलन्धिसंपन्नोऽसौ गतः सुकच्छविजयं. तत्रामतिवद्धवि-13 हारेण विहरन् स संप्राप्तो ज्वलनगिरिसमीपं. दिने चास्तमिते तत्रैव कयोत्सर्गेण स्थितः. प्रभाते ततश्चलितोष्टव्यां प्रविष्टः, इतश्च स महोरगनारकः पंचमपृथिवीत उध्धृत्य कियंत समारं भ्रात्वा तस्यैव ज्वलनगिरेः समीपे भीमा. टल्या जातो वनेचरचांडाला. तेनाखेटकनिमित्तं निर्गच्छता दृष्टः प्रथम स साधुः, ततः पूर्वभववरवशतोऽपशकुनोऽयमिति कृत्वा वाणेन विद्धः, तेन विधुरीकृतवेदनो विधिना मृत्वा स वज्रनाभो मुनिर्मध्यौवेयके ललितांगो नाम देवो जातः सोऽपि चांडालवनेचरस्तं विपनं महामुनि दृष्ट्वाऽहो। अहं महाधनुर्धर इति मन्यमानो निकाच्चि६ तक्रूरकर्मा कालेन मृत्वा सप्तमे नरके नारकत्वेन समुत्पन्नः॥४॥ अर्थ:-किरणवेग देव पण त्यांची भ्रष्ट थइ अहिंज जंबुद्वीपमा अपरविदेह विषे सुगंधविजयमां शुमंकरा नामनी नगरीमा वजवीर्य नाममा राजानी अक्षमिता नामनी खीने पेटे वज्रनाम नामनो पुत्र उत्पन्न थयो. तेणे पण त्यां बापदादाना क्रमथी आवेला राज्यनु पालन करी दत्तचक्रायुद्धनामना पोताना पुत्रने रज्य आपी क्षेमकर जिन पासे दीक्षा लीधी. त्यां विधिप्रमाणे तप करी बहु धर्म लाभवी युक्त बइ ते मुनि सुकच्छविजयमां गया. त्या कशा पण प्रतिबंध वगरना विहार बडे विहार करतां ते ज्वलनगिरि पासे MARA%AA%AS For Private and Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie चराभ्यबनमवस १२९ | आव्या. दिवस अस्त पामतां ते त्यांज कायोत्सर्ग वडे रह्या. प्रभातमा त्यांची चाली ते जंगलमा पेठा. आतरफ महासर्प नरकजीव । भाषांतर पांचमी नरकभूमिथी नीकळी केटलाक संसारमा भ्रमण करी तेज ज्वलनगिरि पासे भयंकर जंगलमा वनमा फरनारो चांडाल थयो. अध्य०१३ मृगया माटे जतां तेणे प्रथम ते साधुने जोया. त्यार पछी तेणे पूर्वजन्मना वेरनेलीधे 'आ अपशकुन छे' एम मानी ते साधुने बाणथी १२९१॥ बींध्या. तेथी भववेदना टळी जवान ली। विधि प्रमाणे मरण पामी ते वज्रनाभ मुनि मध्यप्रैवेयकमां ललितांग नामना देव थया. ते पण जंगलमा फरनारो चांडाल ते मरण पामेला महामुनिने जोइ 'अहो ! हुँ मोटो धनुर्धारी हुँ' एम मानतां कूर कमने अत्यंत बांधी समय अव्ये मरण पामी सातमी नरकभूमिमां नरकना जीवरूपे उत्पन्न थयो. ॥ ४ ॥ | वज्रनाभदेवस्ततश्च्युत इहैव जंबूद्वीपे पूर्व विदेहे पुराणपुरे कुशलबाहुराज्ञःसुदर्शनादेव्याः कनकप्रभो नाम पुत्रो जातः, स च क्रमेण चक्रवर्ती जाता. अन्यदा प्रामादोपरि संस्थितेन तेनाकाशे निर्गच्छन् देवसंघातो दृष्टः, नदर्शनादेव विज्ञातजगन्नाथतीर्थकरागमः स्वयं निर्गतस्तद्वंदनार्थ. वंदित्वा च तत्रोपविष्टस्य तस्य पुरतो भगवता देशना कृता. तां च श्रुत्वा हृष्टश्चक्रवर्ती बंदित्वा स्वनगयाँ प्रविष्टः, अन्यदा म कनकप्रभनामा चक्रवर्ती तां | तीर्थकरदेशनां भावयन् जातजातिस्मरणः पूर्वभवान् दृष्ट्वा भवविरक्तचित्तः प्रत्रजितः. इतश्च स क्रमेण विहरन् क्षीरवनाटव्यां क्षीरपर्वते सूर्याभिमुखं कायोत्सर्गेण स्थिता ॥ ५॥ अर्थः-वज नाम देव मध्य प्रैवेयकथी च्यवी अहिंन जंघद्वीपमा पूर्व विदेह विषे पुराणपुर नामना अहेरमा कुशल बाहु नामना | राजानी सुदर्शना नामनी राणीने पेटे कनकप्रम नामनो पुत्र थयो, अने ते क्रमेकरी चक्रवर्ती राजा थयो. एक दिवसे महेलनी अगाशी KEEKCXSAR For Private and Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपर उमी तेणे आकाशमा जता देवोना समूहने जोयो. ते जोवाथीज जगदना नाथ एवा तीर्थकरनी पधरामणी जाणी लइ पोते तेने साभार वंदन करवा नीकळयो. चंदन करी बेठेला ते राजानी पासे भगवाने देशना करी. ते सांभळी हर्ष पामेला चक्रवर्ती राजाए तीर्थकरने पनवम् *अध्य०१५ | प्रणाम करी पोवानी नगरीमा प्रवेश कयों. एक दिवसे ते कनकप्रभ नामना चक्रवर्ती रानाने ते तीर्थकरनी देशनानुं मनन करतां ॥१२९॥ ॥११९३॥ पूर्वजन्मोन स्मरण थयं. तेणे पूर्वजन्मोने प्रत्यक्ष जोइ, चित्त संसारमाथी विरक्त थवाथी दीक्षा लीधी. अहिंथी ते क्रमवडे विहार करतां क्षीरवनना जंगलमां क्षीरपर्वतविषे सूर्यसामा मुख राखी कायोतसर्गवडे रह्या. ॥ ॥ इतश्च स चांडालवनेचरजीवस्ततो नरकादुध्धृत्य तस्यामेवाटव्यां क्षीरपर्वतगुहायां सिंहो जातः स च भ्रमन् कथमपि संप्राप्तस्तस्य मुनेः समीपे, ततः समुच्छलितपूर्वक्षरेण तेन विनाशितः स मुनिः समाधिना कालं कृत्वा निषद्धतीर्थकरनामकर्मा प्राणेतकल्पे महाप्रभे विमाने उत्पन्नो विंशतिसागरोपमायुदेवः सोऽपि सिंहो बहुलसंसारं भ्रात्वा कर्मवशाद् ब्राह्मणो जातः. तत्रापि पापोदयवशेन जातमात्रस्य तस्य पितृमातृभ्रातृप्रमुखः सकलोऽपि स्वजनवर्गःक्षयं गतः, स च दयापरेण लोकेन जीवितः संप्राप्तयौवनोऽपि कुरूपो दुर्भगो दुखेन वृत्तिं कुर्वन् वैरा. ग्यमुपगतो बने कंदमूलफलाहारस्तापसो जातः, करोति च बहुप्रकारमज्ञानतपोविशेष. इतश्च स कनकप्रभचक्रव तिदेवः प्राणतकल्पाञ्चैत्रकृष्णचतुर्थ्यां च्युत्वा इहैव जंबूद्वीपे भरते क्षेत्र काशीदेशे वाराणस्यां नगर्यामश्वसेनस्य राज्ञो वामादेव्याः कुक्षौ मध्यरात्रिसमये विशाखानक्षत्रे त्रयोविंशतितमतीर्थकरत्वेन समुत्पन्नः तस्यामेव रात्री *सा वामादेवी चतुर्दशस्वमान् ददर्श, निवेदयामास च राज्ञः, तेनापि राज्ञातीवानंदमुबहता भणितं, प्रिये ! सर्वः For Private and Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लक्षणसंपूर्णः सर्वकलाकुशलस्तव पुत्रो भविष्यति, तद्वचः श्रुत्वा सुष्टुतरं परितुष्टा सा. प्रभाते च राज्ञा स्वम-2 पाठकानाहूय तान् यथार्थानाचख्यो. तेऽपि पूर्ण स्वप्राध्यायं सविस्तरमाख्याय चतुर्दशस्वमानां फलमेवमाहुः, उत्तराध्य. | भाषांवर यनपत्रम् तीर्थकरमाता चक्रवर्तिमाता दा एतांश्चतुर्दश स्वमान् पश्यति. ॥ ६॥ अध्य०२५ आ तरफ ते जंगलमा फरनारो चांडाल जीव ते नरकमांधी नीकळी तेज वनमां क्षीरपर्वतनी गुफामा सिंह थयो. ते भमता P१९९४॥ | भमता मांडमांड ते मुनि पासे आव्यो. त्यार पछी पूर्वनुं वेर उछळतां तेणे मरणनी दशाने पहोंचाडेला ते मुनि समाधि वडे मरण 5 |पामी, तीर्थकर नामकर्म बांधी प्राणतकल्पमां महाप्रभ नामना विमान विषे विंशति सागरोपमना आयुष वाळा देव थया. ते पण सिंह घणा संसारमा भमी कर्मने लीधे ब्राह्मण थयो. त्यां पण ते उत्पन्न थतांज पापना उदयने लीघे तेनो पिता, माता, भाइ वगेरे | सघळो पण खजनवर्ग क्षय पाम्यो. दयामां तत्पर लोकोए तने जीवाडयो. युवावस्था प्राप्त थया छतां पण ते खराब रूपवाळो, अभा-18 गीओ तथा कष्टथी आजीविका चलावतो होवाथी तेने संसारपर अरुचिथइ, अने ते, वनमां कंदमूल तथा फलनो आहार करनारो तपस्वी थयो. ते घणे प्रकारे अमुक जातर्नु अज्ञानतप करतो हतो. आ तरफ ते कनकप्रभ चक्रवर्ती देव, चैत्रमासना कृष्णपक्षनी चोथे प्राणत कल्पथी वीचने अहिंज जंबुद्वीपमां भरतखंडमां काशीदेश विषे वाराणसी नामनी नगरीमा अश्वसेन नामना राजानी द्रवामादेवी नामनी राणीने पेटे मध्यरात्रिना समयमा विशाखा नक्षत्र हतुं त्यारे त्रेवीसमा तीर्थकररुपे उत्पन थया. तेज रात्रिमा ते वामादेवीए चौद खमो जोयां, अने तेनु निवेदन राजाने कयु. अत्यंत आनंदने प्राप्त थता ते राजाए पण 'हे प्रिया ! तमने सर्वलक्ष. णोथी पूर्ण, अने सर्व कळामां निपुण पुत्र प्राप्त थशे. ते वचन सांभळी तेने घणो सारो संतोष थयो. प्रभातमा राजाए खप्नवेत्ताओने || R CASCINA + +KACCI For Private and Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | बोलावी तेओने यथार्थ हकीकत कही. तेओए पण संपूर्ण स्वप्नाध्यायने विस्तार सहित कही चौद स्वप्नोन फळ आ प्रमाणे भाषांतर उपराभ्य- "तीर्थकरनी माता अथवातो चक्रवर्तीनी माता आ चौदे स्वप्नो जुए छे ॥६॥ अध्य०२३ पास्त्रमा ११९५४ का ततोऽस्याः कुक्षौ तीर्थंकरश्चक्री वा समुत्पन्नोऽस्तीति स्वप्नानुसारेण. इदं च तेषां वचः श्रुत्वाजानंदातिरेकेण | पुलकिततनुभूपतिस्तानतीवसत्कारपूर्व विसर्जितवान्. बामादेवी सुखं सुखेन गर्भमुबहति. क्रमेण पूर्णेषु मासेषु शुभवेलायां भगवान जालः, षट्पंचाशदिक्कुमारोभिर्जन्ममहोत्सवः पूर्व कृतः. ततः स्वासनकंपाद्विज्ञातभगवजन्मभिः शकमेकशिरसि जन्माभिषेकः कृता. प्रभाते चाश्वसेनोऽपि नगरांतर्दशाहिकोत्सवं कृतवान्, अस्मिन् गर्भ ४ स्थिते भगवति जनन्या पाचे गच्छन् सो रात्रौ दृष्टः, ततोऽस्य पार्श्व इति नाम कृतं. ततः कल्पतरुवजनानंदकः स भगवान् वृद्धि प्राप, अष्टवार्षिकश्च भगवान् सर्वकलाकुशलो बभूव. अथ भगवान् सर्वमनोहरं यौवनं प्राप.. पित्रा च तदानीं प्रभावती कन्या परिणायितः, भगवान् तया सम विषयसुखं बुभुजे. अन्यदा भगवता प्रासा. दोपरि गवाक्षजालस्थेन दिगवलोकनं कुर्वता दृष्टो नगरलोकः प्रवरकुसुमहस्तो बहिर्गच्छन्, पृष्टं च भगवता कस्य चित्पार्श्ववर्तिनः, भो किमद्य कश्चित्पर्वोत्सवोऽस्ति ? येनेष जनः पुष्पहस्तो बहिर्गच्छन्नस्ति ? तेन पुरुषेणोक्तमद्य कोऽपि पर्वोत्सवो नास्ति, किंतु कमठो नाम महातपस्वी पुरीबहिः समागतोऽस्ति, तद्वंदनाथ प्रस्थितोऽयं जनः. ७ | अर्थ:-तेथी स्वप्नने अनुसारे आ वामादेवीना उदरमा तीर्थकर अथवा तो चक्रवर्ती उत्पन्न थया ३. आ तेओना वचनने 8 ₹ सांभळी आनंदनी वृद्धिथी रोमांचित शरीरवाला राजाए तेओर्नु अत्यंत सत्कारपूर्वक विसर्जन कर्या. वामादेवीएमुखेयी सुखरूप गर्भने । For Private and Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चराध्य पवनम् ११२९६ SAIRAHUA धारण कयों. क्रमथी महिना पूर्ण थतां शुभ अवसरे श्रीभगवन् उत्पन्न थया. छप्पन दिक्कुमारीओए प्रथम श्रीभगवान्नो जन्महो-5 भाषांत त्सव कों. त्यार पछी पोतानां आसनो कंपवाने लीधे श्रीभगवान्नो जन्म थयो जाणी लइ इंद्रोए मेरु पर्वतमा शिखर पर श्रीभग-टू 1अभ्य०१५ चान्नो जन्माभिषेक कयों. प्रभातमां अश्वसेन राजाए पण शहेरमां दस दिवसनो जन्मोत्सव कयों. आ श्रीभगवान् गर्भमा रहेतां ॥२९॥ माताए पोतानी पासेथी जतो सर्प रात्रे जोयो इतो, तेथी आनु पार्श्वनाथ ए नाम पाडयु. त्यार पछी कल्पवृक्षनी पेठे लोकोने आनंद आपनार ते श्रीभगवान् मोटा थता गया. श्रीभगवान् आठ वर्षना थया त्यांनी सर्व कळाओमां कुशळ थया. पछी श्रीभगवन् मनोहर लागती युवावस्थाने प्राप्त थया. पिताए त्यारे तेमने प्रभावती नामनी कन्या साथे परणाच्या. श्रीभगवान् तेनी साये विषयसुख भोगवता हता. एक दिवसे महेलनी उपली भोंमा झरुखामां बेसी दिशाओर्नु अवलोकन करतां श्रीभगवने नगरना लोकोने हाथमा उत्तम | पुष्पो लइ बहार जता जोया. श्रीभगवाने कोइ पासे रहेनारा सेवकने पुछ्यु 'अरे, शुं आजे कोइ पर्वने निमित्त उत्सव छ ? के जेथी आ लोको हाथमां पुष्प लइ बहार जाय छे. १ ते सेवके का आजे कोइ पण पर्वने निमित्ते उत्सव नथी, परंतु कमठ नामना महातपस्वी | शहेरनी बहार आव्या छे, तेने प्रणाम करवा माटे आ लोको जाय छे. ॥७॥ ततस्तदूचनमाकर्ण्य जातकौतुकविशेषो भगवांस्तत्र गतः पंचाग्नितपः कुर्वाणं कमळं दृष्टवान्. त्रिज्ञानवता भगवता ज्ञात एकस्मिन्नग्निकुंडे प्रक्षिप्तातीवमहत्काष्टमध्ये प्रज्वलन् सर्पः. उत्पन्नपरमकरुणेन भगवता भणितमहो कष्टमज्ञानं, यदीडशेऽपि तपसि क्रियमाणे दया न ज्ञायते. ततः कमठेन भणितं राजपुत्रास्तु कुंजरतुरगखेलनमेव जानंति, धर्म तु मुनय एव विदंतीति. ततो भगवतैकस्य स्वपुरुषस्यैवमादिष्टं, अरे! इदमग्निमध्ये प्रक्षिप्तं काष्टं| ॐॐKARCHASE For Private and Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सचराध्ययवस्वम् भाषांत ध्य०१७ १२९७ कुठारेण द्विधा कुरु । तेन पुरुषेण तत्काष्टं द्विधा कृतं, तत्र दृष्टो दह्यमानः सर्पः तस्य भगवता स्वपुरुषवदनेन पंचपरमेष्टिनमस्काराः प्रदापिता.. नागोऽपि तत्प्रभावान्मृत्वा समुत्पन्नो नागलोके धरणेंद्रो नागराजः, लोकैचाहो भगवतो ज्ञानशक्तिरिति भणद्भिर्महान् सत्कारः कृतः, ततो विलक्षीभूतः कमठपरिव्राजको गाढमज्ञानतपः कृत्वा मेघकुमारनिकायमध्ये समुत्पन्नो मेघमालीनाम भवनवासी देवा. अन्यदा सुखेन तिष्टतो भगवतो वसंतस-1 मयः समागतः तत् ज्ञापनार्थमुद्यानपालेन सहकारमंजरी भगवतः समर्पिता. भगवता भणितं भो ! किमेतत् ! म आह भगवन् ! बहुविधक्रीडानिवासो वसंतसमयः प्राप्तः ततो मित्रप्रेरितः श्रीपावकुमारो वसंतक्रीडानिमित्तं बहुजनपरिवारसमन्वितो यानारूढो गतो नंदनं वनं, तत्र यानात्समुत्तीर्य स निषण्णो नंदनवनप्रासादमध्यस्थित कनकमयसिंहासने. अतिरमणीय नंदनवनं सर्वतः पश्यन्, भित्तिस्थं परमरम्यं चित्रं दृष्ट्वा अहो! किमत्र लिखितं? ज्ञातमिति सम्यग् निरूपयता भगवता दृष्टमरिष्टनेमिचरित्रं. ॥८॥ ___अर्थः-त्यार पछी ते वचन सांभळी विशेष कौतुक उत्पन्न थवाथी श्रीभगवाने त्यां जइ पंचाग्नि तप करता कमठने जोया. त्रिकालज्ञानवाळा श्रीभगवाने जाणी लीधुंके एक अग्निकुंडमां नाखेला अत्यंत मोटा काष्टनी वचमा एक सर्प बळेछ. परमा करुणा उत्पन थतां श्रीभगवाने कबु 'अरे ! खेदेनी बात छे के आ मूर्खता छ, केमके आq पण तप करवामां आवतां छतां पण दया जाणवामां आवती नथी.' त्यार पछी कमठे का राजकुमारोतो हाथी तथा घोडा वडे खेलवानुज जाणे, परंतु धर्मतो मुनिओज जाणे.' त्यार पछी श्रीभगवाने पोताना एक सेवकने आज्ञा करी 'अरे! अग्निमा नाखेला आ काटना कोदाडावडे वे भाग करो.' ते सेवके ते For Private and Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काष्ठनां वे फाडचा कयाँ, त्यां सर्पने चळतो जोयो. श्रीभगवाने तेने पोताना सेवकना मुखथी पंच परमेष्ठी नमस्कारो अपान्या. सर्प उचराध्य- पण मरण पामी तेना प्रभावथी नागलोकमां धरणेंद्र नामनो नागराज थयो. 'अहो केवी ज्ञान शक्ति !' एम कहेता लोकोए श्रीभगा भाषांवर पनपत्रम् * वान्नो मोटो सत्कार को. त्यार पछी शरमाइ गयेला कमठ साधु गाढ अज्ञानतप करी मेघमारोना समूहना मध्यमा मेघमाली म.। ॥१२९८४ |नामना भवनवासी देव उत्पना. एक दिवसे श्रीभगवान् सुखेथी रहेता इता त्यां वसंतऋतुनो समय आव्यो. ते जणावचा माटे बगी-18॥१९॥ चाना रक्षके श्रीभगवान्ने आंचाना मोरनु अर्पण कर्य. श्रीभगवाने कद्दु रे ! आशं?' तेणे कबु 'हे भगवन् । घणा प्रकारनी क्रीडाना स्थानरुप आ वसंत समय प्राप्त थयो छे. त्यार पछी मित्रोनी प्रेरणाथी श्रीपार्श्वनाथ कुमार वसंतक्रीडा माटे घणा लोकोना | परिवारथी युक्त थड रथमां बेसी नंदन वनमां पधार्या. त्यां स्थपरथी उतरी ते नंदनवनना महेलना मध्यमा रहेला सुवर्णमय सिंहा| सनपर बेठा. अति रमणीय नंदनवननु चोमेस्थी निरीक्षण करता, महेलनी भीतपर आळेखेला परम रमणीय चित्रने जोइ ते बोल्या | "अहो ! अहिं शुं लख्यु के ? 'जाण्यु' एम कही सारी रीते अबलोकन करता श्रीभगवाने श्रीअरिष्टनेमिनुं चरित्र जोयु.॥८॥ ततः स चिंतितुं प्रवृत्तो धन्यः सोरिष्टनेमियों विरसावसानं विषयसुखमाकलय्य निर्भरानुरागां निरुपमरूपलावण्या जनकवितीणां राजकन्यां च त्यक्त्वा भग्नमदनमंडलपचारः कुमार एव निष्क्रांतः. ततोऽहमपि करोमि सर्वसंगपरित्याग. अत्रांतरे लोकांतिका वेवास्तत्रागत्य भगवंतं प्रतियोधयंतिस्म. त्रिंशवर्षाणि गृहस्थवासेऽसौ स्थितः, ततो मार्गणगणस्य यथोचित सांवत्सरिकवानं दत्वा भगवान् मातृपित्राचनुज्ञया महामहःपूर्वमाश्रमपदोद्यानेऽशोकपावपस्याधः पौषशुदैकादशीदिने पूर्वाह्नसमये पंचमौष्टिकं लोचं कृत्वा अपानकेनाष्टमभक्तेनैकं देव RAKSHAN For Private and Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥१२९९॥ UPSCMA5% दृष्यमादाय त्रिभिः पुरुषशतैः समं निष्क्रांतः, अथ श्रीपाश्चों भगवान् विहरनेकदा वटपादपाधः कायोत्सर्गेण स्थितः इतश्च स कमठजीवो मेघमाली असुरोऽवधिना ज्ञात्वात्मनो व्यनिकर, स्मृत्वा च पूर्वभववैरकारणं समु | भाषांतर स्पन्नतीबामर्षः समागतस्तत्र. प्रारब्धास्तेनानेकसिंहादिरूपैरनेके उपसर्गाः, तथापि भगवान् श्रोपाचोऽक्षुब्धो धर्म अम०५ ध्यानान चालितः. तादृशं तं ज्ञात्वा कमठ एवं चिंतयामास, अहमेनं जलेन प्लावयित्वा मारयामीति ध्यात्वा भग. वदुपरिष्टान्महामेघवृष्टिं चकार. जलेन भगवदंग नाशिकांयाचद्याप्तम् ॥९॥ अर्थः-स्यार पड़ी ते विचारवा लाग्या के 'ते श्रीअरिष्टनेमि माग्यशाळी हता के जेओ विषयसुखने अंतमा रसवगरनुं जाणी, &| पिताए वाग्दानमा आपेली अत्यंत प्रेमवाळी अप्रतिम रूप तथा लावण्यवाळी राजकन्यानो त्यागकरी, कामदेवनी मंडळीनो प्रचार भांगी नाखी कुमारावस्थामांज संसारमांथी नीकळी गया. तेथी ९ पण सघळा संगनो त्याग करूं. आ अरसामा लोकांतिक देवोए" त्या आवी श्रीभगवान्ने समजव्या, ए गृहस्थवासमां त्रीस वर्ष रह्या. त्यार पछी याचक लोकोने यथायोग्य सांवत्सरिक दान आपी श्रीभगवान् माता पिता वगेरेनी रजा लइ महान् उत्सव करी आश्रमस्थानना बगीचामा आसोपालवना झाड नीचे पोष मासना शुक्ल पश्चनी अगीआरसे दिवसना आगला भागमां पंचमौष्टिक लोच करी, जळपान वगरनु अष्टमभक्त करी, एक देवष्य लइ घणसो पुरु पोनी साधे गृहस्थावासमांथी नीकळ्या. पछी श्रीपार्श्वनाथ भगवाने विहार करता एक दिवसे वडना झाड नीचे कायोत्सर्ग बडे स्थिति करी. आ तरफ मेघमाली असुररूपे थयेलो कमठजीव अवधिज्ञानथो पोताना वृत्तांतने जाणी, आगला जन्मना वेरना कारपने संमारी तीव्र क्रोध उत्पन यतां त्यां आध्यो. तेणे अनेक सिंह वगेरेनां रूपो लइ घणां दुखो देवानुं शरू कयु. तोपण श्रीपार्श्व AKAKAR For Private and Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kotbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir EKARNAC अध्य०१३ _ नाथ क्षोभ नहि पामी धर्मध्यानथी डग्या नहि. तेने तेवा प्रकारना जाणी कमठे पोते विचार कयों हुआ पार्श्वनाथने जलवडे चराय-17 पनाम डुबाडी मारी नाखीश' एम विचार करी तेणे श्रीभगवान्नी उपर महामेघनी वृष्टि करी. श्रीभगवान्न अंग जलवडे नासिकापर्यंत भाषांतर ॥१३००॥ व्याप्त थइ गयु.॥९॥ अत्रांतरे कंपितासनेन धरणेंद्रेणावधिना ज्ञातभगवद्धतिकरण समागत्व स्वामिशीर्षोपरि फणिफणाटो १३.०॥ कृत्वा फणिशरीरेण भगवच्छरीरमावृत्य जलोपसर्ग च निवार्य भगवत्पुरो घेणुवीणागीतनिनादः प्रवरं प्रेक्षणं कर्तु समारब्धवान्, कमठासुरस्तादृशमक्षोभ्यं भगवंत धरणेंद्रकृतमहिमानं च दृष्ट्वा समुपशांतदर्पोभगवचरणौ प्रणम्य || गतो निजस्थाने. धरणेंद्रोऽपि भगवंतं निरूपसर्ग ज्ञात्वा स्तुत्वा च स्वस्थानं गतवान्, पाश्वस्वामिनो निष्क्रमण| दिवसाच्चतुरशीतितमे दिवस चैत्रकृष्णाष्टम्यामष्टमभक्तेन पूर्वाह्नसमयेऽशोकतरोरधः शिलापट्टे सुखनिषण्णस्य शुभध्यानेन क्षीणघातिकर्मचतुष्कस्य सकललोकावभासि केवलज्ञानं समुत्पन्नं. चलिनासनैः शस्तत्रागत्य केवल-11 केवलज्ञानोत्मवो महान् कृतः, पाश्चोऽर्हन् सप्तफणाहिलांनो वामदक्षिणपाश्चयोवैरोट्याधरणेंद्राभ्यां पर्युपास्य मानः प्रियंगुवर्णदेहो नवहस्तशरीरो भव्यसत्त्वान् प्रतिबोधयन् चतुर्विंशदतिशयसमेतः पृथिवीमहले विहरति. हा अर्थः-आ अरसामां आसन कंपवाथी धरणेंद्र अवधिज्ञानथी श्रीभगवान्नो वृत्तांत जाणी लइ त्यां आवी, नागनी फेण चडावी, नागना शरीरथी श्रीभगवान्ना शरीरने ढांकी लइ जळनी पीडानुं निवारण करी, श्रीभगवान्नी पासे बांसळी तथा वीणानां गीतोना है। अवाजोथी उत्तम दृश्य रचवानो आरंभ कयों. तेवा अडग अने धरणेंद्रे वधारेला महिमावाला श्रीभगवान पार्श्वनाथने जोइ गर्व शांत || MAHARA For Private and Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उचराध्ययन सूत्रम् १३०१ || www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थतां कमठासुर श्रीभगवान्ना चरणोमां प्रणाम करी पोताने स्थाने गया. धरणेंद्र पण श्रीभगवान्ने पीडावगरना जाणी, तेनी स्तुति करी पोताने स्थाने गया. गृहस्थावासथी नीकळवाना दिवसथी चोराशीमे दिवसे चैत्र मासना कृष्णपक्षनी आठमे दिवसना आगला भागमा आसोपालवना झाडनी नीचे मोटी शिलापर अष्टम भक्तवडे सुखेथी बैठेला, अने शुभध्यानथी चारघाती कर्मों जेनां नष्ट थयां छे एवा श्री पार्श्वनाथस्वामीने सघळा लोकनो प्रकाश करनारूं केवलज्ञाना उत्पन्न थयुं. आसनो चलित थतां इंद्रोए त्यां आवी केवलज्ञाननो मोटो उत्सव कर्यो. सात फेणवाळा सर्पना चिह्नवाळा, डाबा अने जमणा पासामां वैरोच्या अने परणेंद्रथी सेवता, घडंलाना पुष्प जेवा वर्णथी युक्त शरीरवाळा, नव हाथ उंचा शरीरखाळा, अने चोवीस विशेषोथी युक्त श्रीपार्श्वनाथस्वामी संसारना जीवोने प्रतिबोध आपता पृथ्वीमंडळां विहार करता हता. ॥ १० ॥ पार्श्वगत दशगणधरा अभवन, आर्यदिन्नप्रमुखाः षोडशसहस्रमाधवोऽभवत् पुष्पचूलाप्रमुखा अष्टत्रिंशत्सहस्रार्थिका अभवन् सुव्रतप्रभुग्वाः श्रामणोपासका एकं लक्षं चतुःषष्टिसहस्राश्चाभवन् सुनंदाप्रमुखाः श्रमणोपासका लक्षत्रयं सप्तविंशतिसहस्राश्चाभवन्. सार्धत्रीणि शतानि चतुर्दशपूर्विणामभवन्. अवधिज्ञानिनां चतुर्दशशतानि, केवलज्ञानिनां दशशतानि चैक्रियलब्धिमतामेकादशशतानि, विपुलमतीनां सार्धश्रीणि शतानि, वादिनां षट्शतानि, अंतेवासिनां दशशतानि सिद्धिं गतानि. आर्यिकाणां विंशतिशतानि सिद्धानि, अनुत्तरोपपातिकानां द्वादशशतान्यभवन्. श्रीपार्श्वनाथस्यैषा परिवारसंपदभूत् ततः पार्श्वो भगवान् दशोचतुरशीतिदिनानि सप्ततिवर्षाणि केवलपर्यायेण विहृत्यैकं वर्षशतं सर्वायुः परिपाल्य सम्मेतशिखरे ऊर्ध्वस्थित एवाघः कृ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०२३ ॥१३०१ ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % तपाणिनिर्वाणमगमत् तत्कलेवरसंस्कारोत्सवः शक्रादिभिस्तत्रैव विहितः ॥ इति श्रीपाश्र्वनाथचरित्रं ।' अथाने सूत्र लिख्यते- ॥ ११ ॥ भाषांतर पनसम्ला ___ अर्थः-श्रीपाश्वनाथस्वामीनां परिवारमा दस गणवरो थया, आर्यदिन वगेरे सोळ हजार माधुओ थया, पुष्पचूला वगेरे आडत्रीस अभ्य०॥ ॥१२० हजार साध्वीओ थइ, मुव्रत बगेरे एक लाख अने चोसठ हाजार श्रावको थया, सुनंदा वगेरे त्रण लाख अने सत्तावीस हजार श्रावि-100 काओ थइ, घणसो पचास चतुर्दशपूर्वीओथया. एक हजार चारसो अवधिज्ञानीओ थया, एक हजार केवलज्ञानीओ यया, एक हजार अने एकसो वैक्रियल धमान थया, त्रणसो पचास विपुलमतिओ थया. छसो वादीओ थया, सिद्धिने पामेला एक हजार अंतेवासीओ | हता, सिद्धिने पामेली चे हजार आर्याओ इती, तथा एक हजार अने बसो अनुत्तरोपपतिक हता. आ प्रमाणे श्रीपार्श्वनाथनी परिवारसंपत्ति हती. त्यारपछी श्रीपाश्रनाथ भगवान् फक्त चोराशी दिवसोनी न्यूनतावाळां सित्तर वर्षसुधी केवलपर्याय वडे विहार करी सो | वर्षर्नु पूर्ण आयुष् भोगवी संमेतशिखरमां नीचे हाथ राखी उभा रहीनेज निर्वाण पाम्या. तेमना शरीरना छेल्ला संस्कारनो उत्सव इंद्र | वगेरेए त्यांज कयों. श्रीपार्श्वनाथन चरित्र पूरुं थयु. सत्र हवे लखवामां आवे छ.- ॥११॥ मू-जिणे पासित्ति नामेण यरहा लोगपूईए ॥ संबुद्धप्पाय सम्वन्नू । धम्मतित्ययरे जिणे ॥१॥ अर्थ:-(जिणे) रागद्वेष जीतनार, (कोगीए) लोको। पूजेला, (संबुद्धप्पा) तत्वज्ञानयुक्त आरमावाका, (सम्वग्नू) सर्वज्ञ, (धम्मतिस्थवरे) धर्मरूप तीर्थने प्रवर्तावनार. (य) भने (जिणे) सर्व कर्मोने जीतनार (सित्ति) पार्श्वनाथ (नामेणं) नामना (मरहा) तीर्थकर थया हवा. ॥ १ ॥ व्या०-पाइर्व इति नामाहन्न भूत्तीर्थकरोऽभूत. कीदृशः सः? जिनः परीषहोपसर्गजेता, रागद्वेषजेता चा. % % 4X4+ kta * For Private and Personal use only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥१३०३ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुनः कीदृशः स पार्श्वजिनः १ लोकपूजितो लोकेन त्रिजगताऽर्चितः पुनः कथंभूतः सः ? 'संबुद्धा' संबुद्धात्मा तत्त्वावबोधयुक्तात्मा पुनः कीदृशः स पार्थः १ सर्वज्ञः पुनः कीदृशः पाइर्वः ? धर्मतीर्थकरः, धर्म एव भवांबुधि तरणहेतुत्वात्तीर्थं धर्मतीर्थं करोतीति धर्मतीर्थकरः पुनः कीदृश: ? जयतिस्म सर्वकर्माणीति जिनः, द्वितीयजिन विशेषणेन श्री पाश्र्वनाथस्य मुक्तिगमनं सूचितं तदाहि श्रीमहावीरः प्रत्यक्ष तीर्थकरो विहरति श्रीपार्श्वनाथस्तु मुक्ति जगामेति भावः ॥ १ ॥ अर्थः – पार्श्वनाथ एनामना अर्हन्नभूत्-तीर्थंकर हता. ते केवा हता ! जिन:- परीषह अने उपसर्गने जीवनारा, अथवा रागद्वेषने जीतनारा, 'संबुद्धप्पा' संबुद्धप्पा-तत्रज्ञानथी युक्त आत्मावाळा, वळी ते पार्श्वनाथ केवा हता १ सर्वज्ञ हता. वळी पार्श्वनाथ केवा हता ? धर्म तीर्थकर :- संसाररूप समुद्रने तवानुं कारण होवाथी धर्मज तीर्थ छे. धर्मरूप तीर्थने करेछे ए धर्मतीर्थकर, वळी केवा इता ? सर्व कर्मोने जीत्यां हतां ए जिनः, बीजुं 'जिन' ए विशेषण आपवायी श्रीपार्श्वनाथना मुक्तिरूप गति सूचवी छे; केमके ते समये श्रीमहावीर तीर्थकर प्रत्यक्ष विहार करता हता, अने श्रीपार्श्वनाथ तो मुक्ति पाम्या हता ए मतलब छे. ॥ १ ॥ सू० - तस्स लोग पईबस्स । आसि सीसं महाजसे । केसीकुमारसमणे | बिज्जाचरणपारगे ॥ २ ॥ अर्थ:- (भोगाई वस्स) लोकने दीवा समान प्रकाश भापनारा (तस्स) ते श्रीपार्श्वनाथना (कुमार समणे) कुमार अवस्थामांज साधु थयेला (महा| जसे) महायशस्वी अने (बिजाचरगे पारणे) ज्ञान तथा चारित्रना पारने पहोंचेला (केसी केशी नामना (सीसं ) शिष्य बासि (हता.) ॥ २ ॥ व्या० - तस्य लोकप्रदीपस्य श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकरस्य केशीकुमारः शिष्य आसीत्. कुमारो ह्यपरिणीततया, For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१३ ॥१३०३॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kotbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारत्वेनेव श्रमणः संगृहीतचारित्रः कुमारश्रमणः कथंभूतः सः१ महायशा महाकीर्तिः, पुनः कीदृशः ? विद्याचराध्य. पीचरणपारगो ज्ञानचारित्रयोः पारगामी इति. ॥२॥ भाषांतर कास्त्रम् ॥२३०४ अर्थः-ते लोकने दीया समान प्रकाश आपनारा श्रीपार्श्वनाथ तीर्थकरना केशीकुमार शिष्य हता. केशीने कुमार कहवानुजय०२५ कारण पके ते परणेला नहि हता. कुमारपणाथीज श्रमण-चारित्रनो संग्रह (स्वीकार) करनार, अथांद कुमारश्रमण हता. बळी ते केवा हता? महायशाः-मोटी कीर्तिवाळा. वळी कवा हता! विद्याचरण पारगः-ज्ञान अने चारित्रना पारने पहोंचेला. ॥ २॥ मू०-ओहिनाणसुएबुद्धे सीससंघसमाकुले ।। गामाणुगाम रीयंते । मावधि नगरिमागए ॥३॥ भई:-(ओहिनाण सुरबुद्ध) अवधिज्ञान अने श्रुतधी तस्वबोधवाळा, तथा (सीससंघसमाकुले) शिष्यवर्गथी युक्त ते के शी कुमार (गामाणुगाम) एक गामथी बीजे गाम (रीयते) बिहार करता (सावस्थि) श्रावस्सी (नगरि) नगरीमा (भागए) पधार्या. ॥ ३॥ व्या-स केशीकुमारश्रमणः श्रावस्त्यां नगर्यामागतः, किं कुर्वन् ! ग्रामानुग्राम रीयंते' इति ग्रामानुग्राम | विचरन् कीदृशः सः? 'ओहिनाणसुएबुद्धे' इत्यवधिज्ञानश्रुताभ्यां बुद्धोऽवगततत्वो मतिश्रुतावधिज्ञानसहितः। पुनः कीरशः? शिष्यसंघसमाकुलः शिष्यवर्गसहितः ॥ ३ ॥ अर्थ:--ते कुमार साधु केशी श्रावस्ती नगरीमां पधार्या, किं कुर्वन्-शुं करता पधार्या ? ग्रामानुग्रामं रीयंते' एटले एक मामथी बीजे गाम विहार करता. ते केवा हता? 'ओहिनाणसुएबुद्धे' एटले अवधिज्ञान अने श्रुत बडे बुद्धः-जाणेल छ तच जेणे | एवा, अर्थात मति, श्रुत अने अवधिज्ञानथी युक्त. वळी केवा! शिष्यसंघसमाकुल:-शिष्यवर्गसहित. ॥३॥ For Private and Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पासुप सिजसंधारे ।। अपर आवेला ही गरीना (नयरमंडले) पर मूल-तिदुयं णाम उजाण । तम्मी नयरमंडले ॥ पासुए सिजसंधारे। तत्थ वासमुवागए ॥ ४ ॥ सचराध्यअर्थ:-(तम्मी) से श्रावस्ती नगरीना (नयरमंडले) पादरमा (तिदुयं) तिंदुक (गाम) नामनो (उजाणं) बगीचो हतो. (नस्य) तेमा (पासुए) भाषांतर यम सत्रम् | जीवरहित प्रदेशनी अदर भावेला (सिज्जसथारे) उपाश्रय विषे संस्थारा उपर (वास) निवास (उवागए) कर्यो. ॥ ४ ॥ अध्य.२३ 1.१३०५ व्यास केशीकुमारश्रमणस्तत्र श्रावस्त्यां नगर्या, तस्याः श्रावस्त्या नगरमंडले पुरपरिसरे तिंदुकं नामो-12 ११३०५॥ यानं वर्तते, तत्रोद्याने प्रामुके प्रदेशे जीवरहिते शरयासस्तारे वासमुपागतः शय्या वसतिस्तस्यां संस्तारः शिलादाफलकादिः शय्यासंस्तारस्तस्मिन् समवसून इत्यर्थः ॥४॥ * अर्थ:--ते के श्री कुमार साधुए ते श्रावस्ती नगरीमा तस्याः-श्रावस्तीना नगरमंडले-अहेरना पादरमा तिंदुक नामनो भगीचो हतो, ते बगीचामा प्रासुके-जीवरहित प्रदेशनी अंदर भय्यासंस्तारमां निवास कर्यो. शय्या-उपाश्रय, ते विषे संस्तार:-शिला, पाटीआ वगेरे ए शय्यासंस्तारः. तेमा समवसरण कयू ए अर्थ थे।४॥ मु०-अह तेणेव कालेणं । धम्मतित्थयरे जिणे। भगवं वद्धमाणुत्ति । सब्बलोगमि विस्सुए ॥ ५॥ मेर-(मह) इवे (तेणेव) तेज (कालेग) समयमा (मतिरथरे) धर्मरूप तीर्थने प्रवर्तावनारा (जिणे) रागद्वेषने जीतनारा (भमर्च) भगवान् । (वडगाणुति) श्रीवर्धमान एका नामधी (सब्बलोगमि) सर्व लोकमां (विस्सुए) प्रसिद्धि पाम्या हता, ॥ ५॥ अपशब्दो वक्तव्यांतरोपन्यासे.तस्मिन्नेच काले धर्मतीर्थकरो जिनो भगवान् श्रीवर्धमान इति सर्वलोके विश्रुतोऽभूत. अथ शब्द बीजा कथनने कहेवा माटे छे. तेज समयमा धर्मतीर्थकर जिन भगवान् श्रीवर्धमान एवा नामथी सर्व लोकमां प्रख्यात हता. II सस्कर For Private and Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर ॥२३०६॥ मू०--सत्स लेगईरस | आसि सीसे महाजसे। भय गोयमं मरमे । विजाचरणपारगे ॥५॥ उत्ताभ्य मर्थः-(लोगाईबस्स) लोकने दीधा समान प्रकाश आफ्ना (तस्स) ते श्रीवर्धमान सामीन (महायसे) महामशास्त्री भने (विजाचरणपारगे) बनवम् ताज्ञान तथा पारिवना पारने पहोंचेला (भयवं भगवान् (गोममे) गौतम (नाम) नामना (सीसे) शिष्य (मासि) हता. ॥६॥ ॥१३०६॥ व्या--तस्य श्रीवर्धमानस्वामिनो लोकप्रदीपस्य तीर्थकरस्य गौतमनामा शिष्योऽभूत. कथंभूतो गौतमः! महा. महा यशा महाकीनिः पुनः कीदृशी गौतमः विद्याचरणपारगो ज्ञानचारित्रधारी.पुनः कोशो गौतमः भगवांश्च. &ातुर्मानी मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानयुकः ॥ ६॥ | अर्थ:-ते लोकने दीवा समान प्रकाश आपनारा श्रीवर्धमान स्वामी तीर्थकरना गौतम नामना शिष्य इता. गौतम केवा हता।। महायशाः-मोटी कीर्तिवाला हता. बळी गौतम केवा हता विद्याचरणपारगः-ज्ञान अने चारित्रने धारण करनार हता. बळी गौतम केवा हता? भगवान्-चार ज्ञान वाला. अर्थात् मति, श्रुत, अवधि तथा मनःपर्यायज्ञानथी युक्त इता. ॥६॥ मू०-वारसंगंविउ बुद्धे । सीससंघसमाकुले । गामाणुगाम रीयंते । सोवि सावत्थीमागए॥७॥ अर्थ:-(वारसंगाविस) द्वादशांगने जाणनारा, (रे) तत्वज्ञानी, भने (सीससंघसमाकुले) शिष्यवर्गमी युक्त (सो वि) ते गौतमस्वामी पण (गामागुगाम) एक गामथी बीजे गाम (रीयते) विहार करतः (साबस्थीं) श्रावस्ती नगरीमा (आगए) पधार्या. ॥ ॥ व्याः–स गौतमोऽपि ग्रामानुग्राम विहरन् श्रावस्त्यां नगर्यामगतः कीदृशो गौतमः ? द्वादशांगवित्, एका वांगानि दृष्टिवादसहितानि पेन गौतमेन संपूर्णानि ज्ञातानीत्या पुन कीहशो गौतमः बुद्धो ज्ञाततत्वः पुनः कडकन For Private and Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * दीरशः शिष्यसंघसमाकुलः ॥७॥ उचशय- अर्थ:-ते गौतमखामी पण एक मामयी बीजे गाम विहार करता श्रावस्ती नगरीमा पर्या. गौतम केवा हता द्वादशांग- भाषांतर वित्-जे मौतमे दृष्टिवाद सहित अगीबार अंगो संपूर्ण जाण्यां इतां ए अर्थ के. वाळी गौतम केवा हता! बुद्धः-तत्त्वज्ञानी हता. अभ्य०॥ |वळी केवा हता! शिष्यवर्गथी युक्त हता.॥७॥ १३०७॥ मू-कोडगं णाम उजाणं । तम्मि नगरमंडले ।। फासुए सिजसंधारे । तस्य वासमुवागए ॥ ८॥ अर्थ:-ते श्रावस्ती नगरीना पादरमा कोटुक नामनो बगीचो हतो. तेमां जीवरहित प्रदेशनी अंदर मावेला उपाश्रय विषे संसार उपर सेमणे निवास कयों तस्या:श्रावस्था नगर्या मंडले परिसरेकोष्टुकं नामोद्यानं वर्तते.तन्त्र प्रासुके शय्यासंस्तारे वासमवस्थानमुपागतःप्राप्तः | ते श्रावस्ती नगरीना मंडलमा एटले पादरमा क्रोष्टुक नामनो बगीचो हतो. त्यां जीवरहित प्रदेशनी अंदर भय्यासंस्तारमां निवास कर्यो. IN मू-केसीकुमारसमणे । गोयमे य महाजसे ॥ उभओवि तत्थ विहरिंसु । आलीणा सुसमाहिया ॥९॥ | अर्थ:-महायशस्वी, मन, वचन अने कायगुलिमा कीन धयेला, तथा सारी रीते एकाग्रचित्तवाका ए केशी नाम ना कुमार साधु भने गौतम बोए पण से बगीचोमा विहार क्यों. ॥ ९ ॥ ा व्या-केशीकुमारश्रमणश्च पुनौतम एतावुभावपि व्यवाहार्ड्समागतां.कीहशौ तावुभौ? महायशसौ, पुनः कीहशो! आलिनो मनोवाकायागुप्तिष्वाश्रितो, पुनः कीदृशौ सुसमाहिती सम्यक्ससमाधियुक्तो.॥९॥ अर्थ:-केशी कुमार साधु अने मौतम ए बोए पण विहार कयों, अर्थात् ए गये पण आल्या. ते वो केवा हता ? महायशस्वी - * For Private and Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बनवम् ॥१३०८॥ | भाषांतर अण्व.२३ ॥१३०८॥ हता. वळी केवा हता ! आलीन एटले मन, वचन तथा कायमुतिनो आश्रय करी रहेला हता. वळी केवा हता ? सुसमाहित एटले | सारी रीते चित्तनी एकाग्रतावाळा हता. ॥९॥ मूल-उभओ सीससंघाणं | संजयाणं तवस्सिणं ॥ तत्थ चिंता समुप्पन्ना । गुणवंताण ताइणं ॥१०॥ अर्थ:-ते श्रावस्ती नगरीमा पजेना संयमी, तपस्वी, गुणवान् तथा त्रायो शिष्योना संघोने विचार उत्पन्न थयो. ॥ १० ॥ व्या-तत्र तस्यां श्रावस्त्यामुभयोः केशीगौतमयोः शिष्यसंघानां संयतानां तपस्विनां साधूनां गुणवतां ज्ञान दर्शनचारित्रवतां त्रायिणां षड्जीवरक्षाकारिणां परस्परावलोकनाचिंता समुत्पन्ना, विचारः समुत्पन्नः ॥१०॥ ___अर्थ:-त्र-ते श्रावस्ती नगरीका केशी अने गौतम ए बनेना संयमी तथा तपस्वी एटले साधु, अने गुणवाळा एटले ज्ञान, दर्शन तथा चारित्रवाळा, तेमज पायी एटले छ प्रकारना जीवोनी रक्षा करनारा शिष्योना संघोने, एक बीजाने जोवाथी चिंता उत्पन्न थइ एटले विचार उत्पन्न थयो. ॥१०॥ मु०-केरिसो वा इमो धम्मो । इमो धम्मो व केरिसो॥ आयारधम्मपणिही।इमा वा सा व केरिसी ॥११॥ अर्थ:-आ अमारो धर्म केवो के ? अने आ गणधरना शिष्योनो धर्म केवोअथवा तो आ अमारी, अने ते गणधरोना शिष्योनी आचाररूप धर्मनी व्यवस्था केवी! "॥ व्या-अयमस्मत्संबंधी धर्मः कीदृशः वा इति विकल्पे, वशब्दोऽपि वाथे, वाऽधवाऽयं धर्मों दृश्यमानगणभृच्छिष्यसंबंधी कीदृशः ? पुनरयमाचारधर्मप्रणिधिरस्माकं कीदृशः ? पुनरेतेषां वाचारधर्मप्रणिधिः कीदृशः! For Private and Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उचराध्यपनव ३१३०९।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राकृतत्वागिव्यत्ययः. आचारो वेषधारणादिको बाह्यः क्रियाकलापः, स एव धर्मस्तस्य प्रणिधिर्व्यवस्थापनमाचारधर्मप्रणिधिः पृथक पृथक कथं ? सर्वज्ञोक्तस्य धर्मस्य तत्साधनानां च भेदे हेतुं ज्ञातुमिच्छाम इति भावः ११ अर्थः- आ अमारो धर्म केवो के १ वा ए प्रश्नना अर्थमां छे. व शब्द पण वा ना अर्थमां छे ? वा अथवा आ प्रत्यक्ष जोवामां आता गणधरना शिष्योनो धर्म केवो छे ? वळी आ अमारो आचारधर्मप्रणिधि केवो छे ? अने वळी आ गणधरना शिष्योनो आचार प्रणिधि केवो के ? इमा अने सा ए पुलिंगने बदले स्रीलिंग पदो सूक्यां छे, ए प्राकृत भाषानां पदो होवाने लीधे लिंगनो फेरफार छे. आचार:- वेष धारण करवा वगेरे महारनो क्रियाओनो समूह, तेज धर्म, तेनी प्रणिधिः -व्यवस्था ए आचार धर्मप्रणिधि, भिन्न भिन्न कम छे? सर्वज्ञ सुनिए कहेला धर्म अने तेना साधनोना भेदमां हेतु जाणवा इच्छीए छीए ए अभिप्राय के, ॥ ११ ॥ मु० - बाउज्जामो व जो धम्मो । जो इमो पंचसिक्खिओ ॥ देसिओ वद्धमाणेणं । पासेण य महामुनी ॥ १२ ॥ मृ० - अचलगोय जो धम्मो । जो इमो संतरुत्तरो ॥ एककजपवन्नाणं । बिसेसो किं नु कारणं ॥ १३ ॥ युग्मं ॥ अर्थ:-वळी जे मा चातुर्याम धर्म श्रीपार्श्वनाथ महासुनिए, भने जे मा पांच शिक्षा वाळो धर्म वर्धमानस्वामी दर्शाक्यों के, वळी जे ब अचेलक धर्म श्रीवर्धमान स्वामीए भने जे का सांतशेत्तर धर्म श्रीनाथ स्वामीए दर्शायो के, त्यां एक कार्यमा प्रवृत्त भयेका से बचे तीर्थकरोने air awrtant शुं कारण के ? ॥ १२, १३. ॥ आ से गाथाओ मळी युग्म बने के. oute - चायं चातुर्यामो धर्मः पार्श्वेन महामुनिना तीर्थकरेण दर्शितः, चत्वारश्च यामाश्च चतुर्गामस्तत्र चातुर्यामचातुर्वतिको हिंसा १ सत्य २ चौर्यव्याय ३ परिग्रहत्याग ४ लक्षणो धर्मः प्रकाशितः, यश्च पुनरयं धर्मो For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१३ ॥१३०९ ॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर पन पत्रम् ॥१११00 वर्धमानेन पंचशिक्षिका पंचशिक्षितो वा, पंचभिर्महाव्रतैः शिक्षितः पंचशिक्षितः प्रकाशितः. पंचसु शिक्षासु उत्तराभ्य- भवः पंचशिक्षिका पंचमहाव्रतात्मा, अहिंसा १ सत्य २ चौर्यत्याग ३ मथुनपरिहार ४ परिग्रहत्याग ५ लक्षणो धर्मः प्रकाशितः ॥ १२ ॥ पुनर्वर्धमानेनाऽचेलको धर्मः प्रकाशितः, अचेलं मानोपेतं धवलं जीर्णप्रायमल्प मूल्य ॥१३१०॥ वस्त्रं धारणीयमिति वर्धमानस्वामिना प्रोक्तं, असदिव चेलं यत्र सोऽचेलः, अचेल एवाऽचेलका, यद्वस्त्रं सदप्यसदिव तद्धार्यमित्यर्थः पुनर्यो धर्मः पार्श्वन स्वामिना सांतरोत्तरः, सह अंतरेणोत्तरेण प्रधानबहुमूल्येन नानावर्णेन प्रलंबेन वस्त्रेण च वर्तते यः स सांतरोत्तर सचेलको धर्मः प्रकाशितः एककायें मुक्तिरूपे कार्ये प्रवृत्तयोः श्रीवीरपावयोधर्माचारप्रणिधिविषयो विशेषस्तत्र किं नु कारण ? को हेतुः कारणभेदे हि कार्यभेदसंभवः. कार्य तूभयो. रेकमेव कारणं च पृथक पृथक कथमिति भावः किमिति प्रश्ने, नु इति वितर्के. ॥१३॥ ___अर्थः-जे आ चातुर्याम धर्म श्रीपार्श्वनाथ महामुनिए-तीर्थकरे दांच्यो छे, चार याम ए चतुर्यामः, तेमां थयेलो ए चातु कार्यामः एटले अहिंसा, सत्य, चोरीनो त्याग, अने परिग्रहनो त्याग ए रूप चार व्रतवाळो धर्म प्रकट कर्यो छे; बळी जे आ धर्म श्रीवर्धमान खामीए पंचशिक्षिकः अथवा तो पंचशिक्षित:-पांच महावतोबडे शिक्षावळो ए पंचशिक्षित प्रकाशित कर्यो है, अथवातो पांच शिक्षाओ विषे उत्पन्न थयेलो एपंचशिक्षिक-पांच महाव्रत रूप स्वरूपवाळो, अर्थात् अहिंसा, सत्य, चोरीनो त्याग, मैथुननो परिहार तथा परिग्रहनो त्याग ए लक्षणवाळो धर्म प्रकाशित कयों के वळी श्रीवर्धमान खामीए अचेलक धर्म प्रकट कयों के, एटले अचेल अर्थात् अमुक प्रमाण-मापन, धोलं, लगभग जूनु अने थोडा मूल्यवाळू वस्त्र धारण करवू एम श्रीवर्धमान स्वामीए For Private and Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उपराष्यपन सत्रम ॥१३११ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कनुं छे. जेमां जाणे वस्त्र न होय एवो ते अचेल. अचेल एज अचेलक. जे वस्त्र होय छतां पण न होय एवं होय, तेनुं धारण कर ए अर्थ छे, वळी जे धर्म श्रीपार्श्वनाथस्व मीए सांतरोत्तरः- मुख्य अने घणा मूल्यवाळा जातजातना रंगवाळा लांबा बहारना स्त्री जे युक्त छे ते सांतरोत्तर एटले सचेलक धर्म प्रकाशित कर्यो छे. मोक्षरूप एक कार्यमा प्रवृत्त थयेला श्रीवर्धमान स्वामी | अने श्रीपार्श्वनाथ स्वामीना धर्मरूप आचारनी व्यवस्थाना विषयमा जे तफावत जोवामां आवे तेमां शुं कारण छे ? एटले शो हेतु छे ! कारण जुदां जुदा होय तो कार्य जुदां जुदां संभवे छे. बन्ननुं कार्य तो एकज छे, तो कारण जुदुं जुदुं केम होय शके १ ए अभिप्राय छे. किम् ए प्रश्नना अर्थमा छे, अने तु ए वितर्कना अर्थमा छे. १२, १३, # सू० - अह ते तत्थ सीसाणं । विन्नाय पवियतक्कियं ॥ समागमे कथमई । उभओ के सिगोयमे ॥ १४ ॥ अर्थः पछी त्यां से बस केशी भने गौतम शिष्योना वितर्कने संशयने जाणी परस्परना समागमविषे इच्छा वाळा धया ॥ १४ ॥ व्या० - अथानंतरं तयोरुभयोस्तत्र श्रावस्त्यामागमनानंतरं केशिगौतमौ तावुभौ समागमे कृतमती अभूतां. किं कृत्वा ? शिष्याणां क्षुल्लकानां प्रवितर्कितं विज्ञाय, विकल्पं ज्ञात्वा ॥ १४ ॥ अर्थ :- अथ-पली. तेचनेना ते श्रावस्ती नगरीमां आगमन पछी. ते बन्ने केशी अने गौतम परस्परना समागम विषे इच्छाबाळा थया. शुं करीने इच्छावाळा यया १ क्षुद्र शिष्योना वितर्कने जाणी अर्थात् संशयने जणी. ॥ १४ ॥ मू० - गोयमे पडिरुवन्नू । सिम्स संघसमाकुले || जिटुं कुलमविक्खनो । तिंदुयं वणमागओ ॥ १५ ॥ अर्थः यथोचित विनयने जाणनार श्रीगौतम श्रीपार्श्वनाथना ज्येष्ठ संतान- शिवनो विचार करता शिष्योना संघसहित सिंदुक वनमा आग्या १५ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१३ ★ ।। १३११॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चराज्य- बन सब ॥१३१२॥ यथोचितान कुलमपेक्षमाणाव्या , एटले केशी कुमारीतम केवा हताशि स्यन्नित्यर्थः ॥RABL ए प्रतिरूपज्ञ. बीनमा इता त्यां आन्या. व्या०-गौतमस्तिंदुकं वनमागतः, केशीकुमाराधिष्टिते बने आगतः कीदृशो गौतमः १ प्रतिरूपज्ञः प्रतिरूपो यथोचित विनयस्तं जानातीति प्रतिरूपज्ञः, पुनः कीदृशः ? शिष्यसंघसमाकुलः शीष्यवृंदमाहितः, गौतमः किं भाषांतर कुर्वाणः ? ज्येष्ट कुलमपेक्षमाणो ज्येष्टं वृद्धं प्रथमभवनात पार्श्वनाथस्य कुलं संतनं विचारयन्निस्यर्थः ।। १५॥ जय०१५ ___ अर्थ:---श्रीगौतम तिंदुक वनमा आब्या, एटले केशी कुमार जे वनमा इता त्यां आव्या. श्रीगौतम केवा हता? प्रतिरूपन्न हता. | ॥१३१२॥ प्रतिरूप एटले यथायोग्य विनय, ते जाणे हे ए प्रतिरूपज्ञ. वळी श्रीगौतम केवा हता? शिष्यसंघसमाकुल:-शिष्योना संघ सहित दी | हता. श्रीगौतम शुं करता आव्या ? श्रीपवनाथना ज्येष्ठ कुलनो-संताननो. शिष्यनो विचार करता, श्रीपार्श्वनाथना. पहेला होवाथी | ज्येष्ठ एटले वृद्ध कुलनो-संताननो विचार करता एअर्थ छे. ॥1॥ मु०-केसीकुमारसमणे । गोयम दिस्समागयं । पडिरूवं पडिवत्ति। सम्मं च पडिवल्बई ॥१६॥ अर्थ:-अने केशी कुमार साधुए श्रीगौतमने आवेला जोह तेनी शोभन प्रकारनी योग्य सेवा सारी रीते करी. ॥ १६ ॥ व्या-केशीकुमारश्रमणो गौतममागतं दृष्ट्वा सम्यक प्रतिरूपामागतानां योग्यां प्रतिपत्ति सेवां संप्रतिप| द्यते सस्यक्करोतीत्यर्थः ॥ १६ ॥ अर्थः- श्रीकेशी कुमारसाधुए श्रीगौतमने आवेला जोह शोभन प्रकारनी प्रतिरूपाम्-पोताने त्यां आवेलानी योग्य प्रतिप|त्तिम्-सेवा संप्रतिपद्यते-सारी रीते करी ए अर्थ ले. ॥ १६ ॥ मु०-पलालं फासुयं तत्थ । पंचमं कुसतणाणि य गोयमस्स निसिजाए। खिप्पं संपणामए ॥ १७ ॥ For Private and Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन पत्रम् ११३१३॥ अर्थ:- त्यां श्रीके शीकुमार सापुर श्रीगौतमने बेसवा माटे बीज वगार्नु चार प्रकारनु पगळ अने पांचमा दर्भतृणो तरत आया ॥१७॥ व्या-तत्र निंदुकोद्याने एव केशीकुमारश्रमणो गौतमस्य निषद्यायै गौतमस्योपवेशनार्थ प्रासुकं निजभाषांतर चतुर्विध पलालं, पंचमानि कुशतृणानि, चकारादन्यान्यपि माधुयोग्यानि तृणानि 'संपणामए' समर्पयति. पंचम- अध्य०२५ त्वं हि कुशतृणानां पलालभेदेन, चतुर्विधं पलाल यथा-तणपनगं पन्नत्त। जिणेहिं कम्मठुगंठिमहणेहिं ॥ साली १ वीही २ कोदव ३ । रालग ४ रन्ने तणा ५ पंच ॥१॥ इति वचनात्. चत्वारि पलालानि साधुप्रस्तरणयोग्यानि, पंचम हि दर्भादि प्रासुकं तृणं वर्तते. तत् केशीकुमारश्रमणेन गौतमस्य प्रस्तरणार्थ प्रदत्तमिति भावः ॥ १७ ॥ अर्थः-त्यां तिदुक बगीचामांज श्रीकेशी कुमार साधुप श्रीगौतमने निषद्यायै-धेसवा माटे मासुकं-बीज वगरनुं चार प्रका. रनु पराल, अने पांचमां दर्भतृणो चकारथी बीजां पण साधुने योग्य तृणो संपणामए-आप्या, पराकना चार प्रकारथी दर्भवणोनुं | पांचमापणु के पराळ चार प्रकारनुं छे. जेमके-तणपणगं पन्नत्तं । जिणेहिं कम्मठ्ठ गठि महणेहिं ।। साली १वीही २ कोच्व - सलग ५ रन्नेतणा ५ पंच। १॥ (आठे प्रकारनी कर्मग्रंथिओने भेदनाराजिनेश्वरोए शाळी, डांगर, कोदरा, रालक अने बनना तृण एम पांच प्रकारनां तृण कवांछे) ए वचनथी. चार प्रकारनां पराळ साधुना आसनने योग्य छ, अने पांच दर्भ वगेरे निर्जीव तृग पण आसनने योग्य छे. ते श्रीकेशीकुमार माधुए श्रीगौतमने आमन माटे आप्यु ए अभिप्राय छे. ॥१७॥ मू-केसीकुमारसमणो । गोयमे य महाजसे ।। उभओ निसन्ना सोहंति । चदसूरसमप्पभा ॥१८॥ अर्थ:-आसनपर बेठेला, महायशस्वी, अने चंद्र तथा सूर्य समान तिवाला श्रीफेशीकमार माधु तथा श्रीगौतम ने मोहंति (शोभता हता), १८ For Private and Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie बचराय मछर बाज TARA व्या-तवा केशीकुमारश्रमणश्च पुनौतमो महायशा, एतावुभौ तन्त्र सिंदुकोचाने निषण्णावुपविष्टौ शो मे बिराजेते. कथंभूतौ तौर पंद्रादित्यसमप्रभौ. ॥१८॥ अर्थ:-त्यारे महायशस्वी श्रीकेशी कुमार साधु अने वळी श्रीगौतम ए बने ते सिंदुक नामना बगीचामा निषण्णी-बेठेला शोमेते -शोभता हता. तेओ केवा हता? चंद्र अने सूर्यसमान कांतिवाळा हता. ॥१८॥ मू-ममागया बहु तस्थ । पासंहा कोउगा मिया ॥ गिहित्थाणं आजेगाओ। सहस्सीओ समागया ॥१९॥ अर्थ:-त्या कौतुकथी सग जेवा अज्ञानी घणा पाखंडी लोको भाज्या, तथा गृहस्थोनी अनेक इजार संक्या बाबी, अर्थात गृहस्थो भनेक हजार संख्यामा आल्या. ॥ ७ ॥ व्या-तत्र तस्मिस्तिदुकोधाने बहवः पाखण्डा अन्यवर्शनिनः परिव्राजकादया समागता. कीरशास्ते पाखण्डाः? कौतुकान्मृगा आश्चर्यान्मृगा इवाऽज्ञानिनः.तु पुनगृहस्थानामनेकलोकानां सहस्रं ममागतं. अनेका प्रचुरा लोकानां सहस्रीति आर्षत्वात, समागता तत्र संप्राप्ता. ॥ १९ ॥ अर्थ:-तत्र-ते तिंदुक नामनावगीचामा घणा पाखंडी-जैन दर्शनथी भिम दर्शनवाळा संन्यासी वगेरे आव्या. ते पाखंडीजो केवा हता! कौतुकात मृगाः आश्चर्ययी मृगो जेवा अज्ञानी हता. तु-वळी गृहस्थानाम्-अनेक लोकोनी हजार संख्या आवी. अनेका-घणी लोकोनी सहस्त्री ए पद सहस्रम्ने बदले आर्ष प्रयोगपणाथी मक्यु के समागता-स्यां आवी. ॥ १९॥ मू-देवदाणवगंधब्बा । जक्खरक्खसकिन्नरा ॥ अदिस्साण च भूयाणं । आसी तत्थ समागमो ॥ २०॥ For Private and Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बमत्रम् -% SARKA अर्थ:-देव, दानव, गंधर्व, अने किंनर सहित यक्ष तथा सक्षसो भाम्या. अने त्यां अदृश्य भूतोनो-व्यतरोनो समागम धयो हतो. ॥ २०॥ भाषांतर व्या०-तत्र तस्मिन् प्रदेशे देवदानवगंधर्वा यक्षराक्षसकिन्नराः समागता इति शेषः च पुनस्तत्राऽदृश्यानांअभ्य०१५ भूतानां किलकिलव्यतरविशेषाणां समागमः संगम आसीत. ॥२०॥ ॥१३१५० अर्थः-तत्र-ते प्रदेशमा देव, दानव, गंधर्व, यक्ष राक्षस तथा किनर समागता:-आन्या ए पद शेष छे, एटले ए पदनो उपली गाथामांधी अभ्याहार करीलेवो. च-वळी त्यां अदृश्य भूतानम्-किल किल अने व्यंतर ए जानना भूतोनो समागम:- संगम थयो. २० मू०-पुच्छामि ते महाभाग । केसी गोयममधवी । तओ केमी वुवंतं तु । गोयमो इणमब्बवी ॥२१॥ अर्थ:-श्रीकेशी कुमारे श्रीगौतमने क के हे महाभाग्यशाली !हुँ आपने पूछुछु त्यारे बोलता श्रीकेशी कुमारने तो श्रीगोतमे आ प्रमाणे कम् व्या-तयोल्पमाह-तदा केशी गोतममब्रवीत्, किमब्रवीदित्याह-हे महाभाग! ते त्वामहं पृच्छामि, | यवा केशीकुमारणेत्युक्तं तदा केशीकुमारश्रमणं अवंतमिदमब्रवीत् ॥ २१॥ अर्थ:-तेओना संवादने कोछ-त्यारे श्रीकेशीकुमारे श्रीगौतमने कहा 'शुकधु ? ए कहेछे-हे महाभाग्यशाळी ! ते-आपने हुँ पूछु. ज्यारे श्रीकेशीकुमारे आ प्रमाणे कात्यारे श्रीगौतमे ए प्रमाणे कहेता श्रीकेशीकुमार साधुने आ का ॥२१॥ मूल-पुच्छ भंते जहित्य ते । केसि गोयममबवी। तओ केसी अणुनाए । गोयम इणमन्यवी ॥२२॥ अर्थ:-भीकेशीकमारे श्रीगौतमने कई के हे पूज्य ! आपना हृदयमा जे होय ते पूछो, त्यार पछी अनुष्का अपाबेला श्रीकेशीकुमारे श्रीगौतमने आ का. व्या०-गौतमो वदति, हे भवंत! हे पूज्यते तव यथेच्छ यत्तव येतस्यवभासते तश्वं पृच्छ मम प्रश्न कुरु।। AC- +SAX %EC% For Private and Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पवमान । इति केशीकुमारंप्रति मौतमोऽब्रवीत्. 'गौतम' इति प्राकृतत्वात्प्रथनास्थाने द्वितीया, ततो गीतमापादनंतरं । उपराध्या केशीकुमारो गौतमेनानुज्ञातः मन् गौतमैन इत्ताज्ञा सन् गौतमप्रतीदं वक्ष्यमागं वचनमब्रवीत् ॥ १२ ॥ भाषांतर अध्य.२५ ा अर्थः-श्रीगौतम का के हे भदंत-हे पूज्य ! ते आपनी यथेच्छम्-इच्छा प्रमाणे अर्थात आफ्ना चित्तमा जे भाम ने 12॥११॥ १३१६॥ है पूछो. मने प्रश्न करो. एम श्रीकेशी कुमार प्रत्ये श्रीगौतमे को 'गौतम' ए प्राकृत होवाथी प्रथमा विभक्तिना स्थानमा द्वितीया विभक्ति छ. ततः श्रीगौतमना वाक्य पछी श्रीकेशीकुमार श्रीगौतमी अनुज्ञातः सन्- आज्ञा अपायेला थइ श्रीगौतम प्रत्ये आहत्रे कडेवामा आवशे ए वचन ॥ २ ॥ मू-चाउजामो य जो धम्मो । जो इम्मा पंचसिक्खिओ ॥ देसिओ बदमाणेण । पासण य महामुणी ॥ २३ ॥ | मू-एककजपवनाणं । विसेसे किं नु कारणां ॥धम्मे दुविहे मेहावी । कहं विपचओ न ते ॥ २४ ॥ युग्मं ।। IR | अर्थ:--३ळी जे आ चानुयाम धर्भ पानाथ रामुनिए, भने जे आ पांच शिक्षग्यालो धर्म श्रीवर्धमान स्वामीए दांच्यो हे, यां पर कार्यमा प्रवृत्त धयेला ते अन्न तीर्थ रोने धर्मना तफावतमा झुं काय ? हे मेधावी ! के प्रकारना धर्ममा आफ्ने केम संशय थलो नी ! ॥ २३ २४ ॥ काहे गौतम ! पावेन महामुनिना तीर्थकरेण यश्चातुर्यामधातुतिकोऽयमस्माकं धर्म उद्दिष्टः, पुनयोऽयं धमी वर्धमा-15 |नेन पंचशिक्षिकः पंचमहावतात्मको दिष्टः कथिता,॥२३॥ एककार्ये मोक्षमाधनरूपे कार्य प्रपन्नयोः श्रीपार्श्वमहावी-15 रयोविशेषेभेदे किं कारण ? हे मेधाविन् ! द्विविधे धर्मे तब कथं विप्रत्ययः संशयो न भवति यतो द्वावपितीर्थकरौ, | द्वावपि मोक्षकार्यसाधने प्रवृत्ती, कथमनयोर्भेद इति हेतोस्तव मनसि कथं विप्रत्ययो न भवति । संदेहो न भवति । For Private and Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उपराष्यघन सूत्रम् ॥१३१७॥] www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ :- हे गौतम! श्रीपार्श्वनाथ महामुनिए तीर्थकरे जे चातुर्याम-चार व्रतवाळो आ आपणे धर्म को छे, वळी श्रीवर्धमान स्वामी जे आ पंचशिक्षिक- पांच महाव्रतरूप धर्म दिष्टः--कह्यो छे, त्यां मोधने साधवारूप एक कार्यमा प्रवृत्त थयेला श्रीपार्श्व नाथ तथा श्री महावीरखामीना विशेषे मतभेदमां शुं कारण छे ? हे मेधावी ! वे प्रकारना धर्ममां आपने केम संशय थतो नथी १ कारण के ए बने पण तीर्थंकर थे, अने ए बने पण मोक्षरूप एक कार्य साधवामां प्रवृत्त थया है, तो ए बने नो मतभेद शा मटे होय १ ए हेतुथी आपना मनमां केम विप्रत्यय थतो नथी १-केम संदेह थतो नथी १ ।। २३, २४. ॥ 1 मूतओ केसिंबुवंतं तु । गोयमो इणमबच्ची ॥ पण्णा समित्रवर धम्मं । तत्तं तत्थ विणिच्छयं ॥ २५ ॥ अर्थ :- त्यार पछी ए प्रमाणे बोलता श्रीकेशीकुतरने को श्रीगीत आकछु बुद्धिजेनां तयोनो निश्चय के एवा धर्माचने-जाणे ॥२५॥ euro - ततोsनंतर केशीकुमारश्रमणं बुर्वतं कथयंत गोतम इदमब्रवीत् हे केशीकुमारश्रमण : प्रज्ञा बुद्धिर्धतवं धर्मस्य परमार्थं पदयति, धर्मतत्वं वुध्ध्यैव विलोक्यते, न तु चर्मचक्षुषा धर्मतत्वं विलोक्यते. सूक्ष्मं धर्म सुधीतीति वचनात् कीदृशं धर्मतत्वं ? तत्वविनिश्चयं तत्वानां जीवादीनां विशेषेण निश्चयो यस्तित्ववि rai, केवलं धर्मस्य श्रवणमात्रेण निश्चयो न भवति, किंतु प्रज्ञावशादेव धर्मतत्वस्य निश्चयः स्वादिति भावः. अर्थः- ततः त्यार पछी ते प्रमाणे सुबन्तं-बोलता श्रीकेशीकुमार साधुने श्रीगौतमे आ प्रमाणे कछु, हे श्रीकेशीकुमार साधु ! प्रज्ञा - बुद्धि धर्म तस्वने-धर्मना खरा अर्थने जुषे हे, धर्मं तत्त्व बुद्धिबीज जोवाय के, परंतु चर्मचक्षुथी धर्मनुं तच जोवामां आवतुं न थी, कारणके 'म धर्मने सारी बुद्धिवाळो जाणेछे' ए शाखनुं वचन . धर्मनुं तच केतुं ? तस्वविनिश्चयम् जीव वगेरे For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१३ १३१७॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir P उचराष्प- पनपत्रमा ॥१३१८ COCALC तत्वोनो जेमा विशेषथी-खास निश्चय छे एवं. धर्मना तत्चना केवळ श्रवणमात्रथी निश्चय थातो नथी, परंतु बुद्धिथीज धर्मना तश्वनो निश्चय थाय छे, ए अभिप्राय के ॥ २५ भावांतर अभ्य०२३ मू.-पुरिमा उज्जुजडा उ । घशजड़ा य पच्छिमा ।। मज्झिमा उजुपन्नाउ । तेण धम्मो दुहा कओ।॥ २६ ॥ ४/१३१८॥ अर्थ-जेथी पहेला तीर्थकरमा धुलो परजु दोबाछता पण जद हता, तथा छा तीर्थकरना साधुभो बक तेमज जब हता भने मध्यम तीर्थकरना साधुभो मजु नेमत प्राज्ञ हता तेथी धर्म के प्रकारे कयों के. ॥ २६॥ व्या-हे केशीकुमारश्रमण ! पुरिमाः पूर्व प्रथमतीर्थकृत्साधव आदिश्वरस्य मुनय ऋजुजडाः, अजवश्च ते जडाश्च ऋजुजडा बभूवुरिति शेषः. शिक्षाग्रहणतत्परा ऋजवः, दुःप्रतिपाद्यतया जड मूर्खाः,तुशब्दो यस्मादर्थे. पश्चिमाः पश्चिमतीर्थकृत्माधवो महावीरस्य मुनयो वक्रजडाः, वक्राश्च ते जहाश्च वक्रजडाः, वक्राः प्रतिबोधसममे | वक्रज्ञानाः, जडाः कदाग्रहपरा, तादृशा बभूवुः. तु पुनर्मध्यमा मध्यमतीर्थकराणां मुनयो द्वाविंशतितीर्थकृत्सा-1x धव ऋजुम्राज्ञा वभूवुः, ऋजवश्च ते प्राज्ञाश्च ऋजुप्राज्ञाः, ऋजव: शिक्षाग्रहणतत्पराः, पुनः प्राज्ञाः प्रकृष्टबुद्धयः, तेन कारणेन हे मुने! धो द्विधा कृतः ॥ २६ ॥ अर्थ:-हे श्रीकेशीकुमार साधु ! पुरिमा:-पहेला एटले प्रथम तीर्थकरना साधुओ-श्रीआदिनाथना मुनिओ ऋजुजडाःऋजु पवा ते जड ए अजुजडा, 'हता' एनो अध्याहार छे. उपदेशनुं ग्रहण करवामां तत्पर ए ऋजु कष्टथी समावी शकाय एवापणाने लीधे जड-मूर्ख. तु शब्द 'जेथी'ना अर्थमां छे. पश्चिमा:-ल्ला तीर्थकरना साधुओ, एटले श्रीमहावीरस्वामीना साधुओ वक्र %E9999454 For Private and Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kotbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir + जडा:-चक्र एवा ते जड ए वक्रजडा, वक्र एटले उपदेशना समयमां बांका-बहु युक्त ज्ञानवाला, अने जड एटले खोटा आग्रहमां उचराज्य-1| तत्पर, तेवा हता. -वळी मध्यमा:-मध्यम तीर्थंकरोना मुनिओ, एटले बावीस तीर्थकरना साधुओ ऋजुप्राज्ञ हता, ऋजु एवा ते 13ामापांवर बन एवम् अभ्य०२५ ॥१३१९॥ प्राज्ञ ए ऋजुप्राज्ञ, ऋजु एटले उपदेशनुं ग्रहण करवामां तत्पर, बळी प्राज्ञ पटले प्रकृष्ट श्रेष्ठ बुद्धिवाळा, ते कारणथी हे मुनि! धर्म| |१३१९॥ चे प्रकारनो कयों छे. ॥ २६ ॥ तामूल-पुरिमाणं दुब्बिसोझो । चरिमाणं दुरणुपालओ चेव ॥ कप्पो मज्झिमगाणं तु । सुविसोझो सुपालओ २७ अर्थः-पहेला तीर्थकरना साधुओने मुनिधर्मनो आधार कष्टथी निर्मळ कवी शकाय एवोके, बळी छल्ला तीर्थकरना साधुधोनो मुनिधर्मनो आचार कष्टची पाळी शाकाय एवो छ, तथा मध्यमा रहेला बावीस नीधकरना साधुओनो मुनिधर्मनो भाचार तो सुखंधी निर्मक करी काय पवो भने सुवेथी पाळी काय एवो . ॥ २ ॥ । व्या०-'पुरिमाणं' इति प्रथमतीर्थकृत्माधूनां कल्पः साध्वाचारो दुर्विशोध्यो दुखेन निर्मलीकरणीयः, आदी-13 श्वरस्य साधव ऋजुजडाः, ऋजुजडस्वात्कल्पनीयाकल्पनीयज्ञान विकला. पुनश्चरमाणां चरमतीर्थकृत्साधूनां दुरनुपालको दुखेमानुपाल्यते इति दुरनुपालका, महावीरस्य साधवो वक्रजडाः, वक्रत्वाद्विकल्पबहुलत्वात्साध्वाचार जानंतोऽपि कर्तुमशक्का.. तु पुनर्मध्यमगानां द्वाविंशतितीर्थकृत्साधूनानजितमाथादारभ्य पार्श्वनाथपर्यततीर्थकर मुनीनो कल्पः साध्वाचारः सुविशोध्यः सुखेन निर्मलीकर्तव्यः, पुनः सुखेन पाल्पा, द्वाविंशतितीर्थकृत्साधवो हि जुम्राज्ञाः, स्तोकेनोक्तेन बहुज्ञाः, तस्माचातुबतिको धर्म उद्दिष्टः, मैथुनं हि परिग्रहे एव गण्यते. आदीश्वरस्य साधूनां I MEROKN५% For Private and Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir LIAM I यादि पंच महावनानि प्राणातिपातविरतिमृषावादविरतिस्तेयविरतिमैथुनविरतिपरिग्रहविरतिरूपाणि पृथक पृथक | उचराध्य कथ्यंते, तदा ते ऋजुजडाः पंचमहाव्रतानि पालयंति नो चेत्त व्रतभंगं कुर्वति, ते तु यावन्मात्रमाचारं शृपयंति भाषांतर बन सत्रमा हैं| तावन्मात्रमेव कुर्वति, अधिकं खवुध्ध्या किमपि न विदंति. महावीरस्य साधवस्तु चेत्पंचमाहवतानि शृण्वंति ॥१३२०॥ अध्य०२३ तदैव पालयति. तेऽपि वक्रा जडाश्च चेन्चत्वारि व्रतानि शृण्वंति तदा चत्वार्थेव पालयंति, न तु पंचम पालयं नि. ॥१३२०॥ धावक्रजडा हि कदाग्रहग्रस्ता अतीवहभारिणः. द्वाविंशतितीर्थकृत्साधव ऋजवः प्राज्ञाश्च चत्वारि व्रतानि श्रुत्वा सुवुद्धित्यात् पंचापि व्रतानि पालयीत. तस्माश्चत्वारि व्रतानि मोक्तानि. तस्माद्धर्मो द्विविधः कृतः, चातुर्बतका पंचत्रतात्मकश्च. स्वस्ववारकपुरुषाणामभिप्राय विज्ञाय तीर्थकरधमे उपदिष्ट इति भावः ॥२९॥ अर्थः— 'पुरिमार्ग इनि-पहेला तीर्थकरना साधुश्रोनो कल्प एटले मुनिधर्मनो आचार दुर्विशोध्य-कष्टथी निर्म करी काय एवोके, श्री आदिनाथना साधुओ ऋजुजडा-जुजडपणाने लीधे कल्पनीय ज्ञानथी शून्य हता. वळी चरमाणाम् –ल्ला तीर्थ करना साधुओनो मुनिधर्मनो आचार दुरनुपालका कष्टथी पाळी शकाय छे प दुरनुपालक. महावीर तीर्थकरना साधुओ वक्रजड एटले वक्र (बांका) पणाने लीधे-घणा संशयवाळापणाने लीधे मुनिधर्मन! आचारने जागता छतां पण करवा अशक्त हता. तु-अने वचमा रहेला बाबीस तीर्थकर साधुओनो-श्रीअजितनाथथी आरंभी श्रीपार्श्वनाथ पर्यंतना तीर्थकर मुनिओनो कल्प-मुनिधर्मनो आचार लुनिशोध्यः सुपालकश्च-मुखेथी निर्मळकरी शकाय एको, अने वळी सुखेथी पाळी शकाय एवो छे. बावीस तीर्थकरना साधुओ। तो ऋजुप्राज्ञ एटले थोडं कह्याथी घणुं जाणनारा छे, तेथी तेओने चातुर्ऋतिक धर्मनो उपदेश कर्यो छ कारण मैथुनने परिग्रहमांजर For Private and Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra खचराज्यचन १३२१ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणवामां आवे छे. जो श्रीआदिनाथ तीर्थंकरना साधुओने प्राणातिपातविरति (हिंसाथी निवृत्ति), मृषावाद विरति (असत्य वचनथी निवृत्ति), स्तेय विरति ( चोरीथी निवृत्ति), मैथुनविरति (मैथुनश्री निवृत्ति) अने परिग्रहविरति (परिग्रहथी निवृत्ति) ए रूप पांच महा व्रतो जुदां जुदां कहेवामां आवे तो ते ऋजुजड साधुओ पांच महाव्रतोनुं पालन करेछे, अने जो जुदां जुदां न कहेवामां अवे तो व्रतनो भंग करे छे. तेओ तो जेटलो आचार सांभळे छे तेटलोज करेछे, पोतानी बुद्धियी कांइ पण अधिक जाणता नथी. श्रीमहावीरना साधुओ तो जो पांच महाव्रतो सांभळे छे, तो त्यारंज तेओ तेने पाळे छे. वक्र अने जड एवा तेओ पण जो चार व्रत सांभळेछे, तो त्यारे चारज पाळेछे, परंतु पांच व्रत पाळता नथी, कारण के वक्रजड लोको खोटा आग्रहवाळा अने अत्यंत हठ धरनारा होय छे. बावीस तीर्थकरना साधुओ ऋजु अने प्राज्ञ के. तेओ चार व्रतो सांभळी, सारी बुद्धिबळावणाने लीत्रे पांचे पण तो पाळे हे. तेथी चार तो कां छे. तेथी चातुर्व्रतक अने पंचवतात्मक एम ने प्रकारनो धर्म को छे. पोतपोताना अनुयायी पुरुषोना अभिप्रायने आणी तीर्थकरोए धर्मनो उपदेश कर्यो छे ए अभिप्राय छे. ॥ ६७ ॥ मू० - साहु गोग्रम पन्ना ते । छिन्नो मे संमओ इमो || अन्नोवि संसओ मझे । तं मे कहसु गोयमा ॥ २८ ॥ अर्थ :- हे श्रीगोतम ! आपनी बुद्धि सारी के मारो आ संशय दाय गयो छे. मारो बीजो पण संशय छे, हे श्रीगोतम ! मने तेनो उत्तर कहो २८ व्याः - इति श्रुत्वा केशीकुमारः श्रमणो वदति, हे गौनम ! ते तव साधुप्रज्ञास्ति; सम्यग्बुद्धिरस्ति मे ममायं संशयस्त्वया छिनो दूरीकृतः, अन्योऽपि मम संशयोऽस्ति, तमिति तस्योत्तरं हे गौतम । एवं कथयस्व ? इदं वचनं हि शिष्यापेक्ष, न तु तस्य केशीमुनेर्ज्ञानत्रयवत एवंविधसंशयसंभवः ॥ २८ ॥ For Private and Personal Use Only भाषांतर अभ्य०१३ ११३२१॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kotbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थः- प्रमाणे सांभळी श्रीकेशीकुमार साधुए कह्यु, हे गौतम ! ते-आपनी साधुप्रज्ञा छ, अर्थात् सारी बुद्धि छे. मे-मारो रवाष्पपन पत्रम IN आ संशय आपे छिन्न:-दर कयों छे. बीजो पण मारो संशय छे तमिति-तेनो उत्तर हे श्रीगौतम ! आप कहो. आ वचन शिष्योनी भाषांतर अपेक्षाथी छे; कारण के प्रण ज्ञानवाळा ते श्रीकेशीमुनिने आवा प्रकारना संशयनो संभव नथी. ॥ २८ ॥ माअभ्य०२३ | ॥१३२२॥ मू०--अचेलगो य जो धम्मो । जो इमो संतमत्तरो॥ देसिओ बद्धमाणेण । पासेण य महाजसा ॥ २९ ॥ है मूक-एककनपचन्नाणं । विसेसे किं नु कारणं ।। लिंगे दुविहे मेहाबी। कहं विपञ्चओ न ते ३०॥ युग्मं __अर्थ:----वळी जेआ अचेलक धर्म श्रीवर्धमान स्वामीए दर्शायो छे, अने जे आ मांतरोत्तर धर्म महायशस्वी श्रीपार्श्वनाथ स्वामीए दर्शाग्यो छे, या हे मेधावी! एक कार्यमा प्रवृत्त थयेला ते बचे तीर्थकरोने धर्मना तफावतमा शु कारण ? प्रकारना साधुबेषमा मापने केम संशय पत्तो नथी ! ॥ २९, ३० ॥ आबे गाथाओ मळी युग्म बने थे. व्या. -वर्धमानेन चतुर्विंशतितमतीर्थकरेण यो धोऽचेलका प्रमाणोपेलजीर्णमायधवलवस्त्रधारणात्मकः साध्वाचारो दिष्टा, च पुनः पार्श्वन महायशसा त्रयोविंशतितमतीर्थकरेण योऽयं धर्मः सांतरुत्तरः पंचवर्णबहुमूल्यप्रमाणरहितवस्त्रधारमात्मकः साध्वाचारः प्रदर्शितः. हे मेधाविन् ! एककार्यप्रतिपन्नयोः श्रीवीरपार्श्वयोर्विशेषे भेदे किं कारणं? को हेतुः हे गौतम! द्विविधे लिंगे द्विप्रकारके साधुवेषे ते तव कथं विप्रत्ययो नोत्पद्यते! कथं है! संदेहो न जायते ? उभावपि तीर्थकरी, मोक्षकार्यसाधको, कथं ताभ्यां वेषभेदः प्रकाशितः । इति कथं तवायं. संशयो न भवति? ॥ ३०॥ - For Private and Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उचराध्य पन सूत्रम् ॥१३२३।।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांवर अध्य०२३ अर्थः- चोवीसमा तीर्थंकर श्रीवर्धमान स्वामीए जे अचेलक धर्मअमुक प्रमाण ( माप)थी युक्त अने लगभग जूनुं घोळं व धारण करवारूप साधुओनो अचार को छं. चवळी महायशस्वी वसमा तीर्थकर श्रीपार्श्वनाथ स्वामीए जे आ सांतरोतर धर्मपांच रंगवा, घणा मूल्यवाळु, अने अमुक प्रमाण वगरनुं वस्त्र धारण करवारूप साधुओनो आचार दर्शाव्यो छे, त्यां हे मेधावी । ४ ॥१३२३४ | मोक्षरूप एक कार्यमा प्रवृत्त थयेला महावीरस्वामी तथा श्रीपार्श्वनाथ स्वामीन। विशेषे धर्मना तफावतमां किं कारणं ? शुं कारण छे? हे गौतम! द्विविधे लिंगे मे प्रकारना साधुवेपमां ते आपने कथं- कंम विप्रत्यय उत्पन्न थतो नथी १ केम संदेह थतो नयी ! पण तीर्थकरो मोक्षरूप ए कार्यने सिद्ध करनारा छे, तो तेओए बेष भेद-वेषमां तफावत कम प्रकट कर्यो छे १ एम आपने आ संशय केम थतो नथी १ ।। २५५ ३० ॥ मू० - केसि एवं बुवंताणं गोयमो इणमब्बवी ॥ विन्नाणेण समागत । धम्मसाहणमिच्छयं ॥ ३१ ॥ अर्थ :- श्रीगौतमे एम बोलता श्रीकेशी कुमरने श्राश्रीतीर्थको केवलज्ञानधी आणीने धर्मनुं साधन स्वीकार्य छे. ॥ ३१ ॥ व्या- तु पुनर्गौतम एवं बुवाणं केशीकुमारं मुनिमिदमब्रवीत्, हे केशीमुने । तीर्थकरैर्विज्ञानेन विशिष्टज्ञानेन | केवलज्ञानेन समागम्य पद्यग्रस्योचितं तत्तथेव ज्ञात्वा धर्मसाधनं धर्मोपकरणं वर्षाकल्पादि, इदमृजुप्राज्ञयोग्यं, इदं च वक्रजडयोग्यमितीप्सिनमनुमतमिष्टं कथितमिति यावत् यतो हि वीरशिष्याणां रक्तवर्णादिवत्रानुज्ञाने वजडत्वेन रंजनादिषु प्रवृत्तिदुर्निवारैव स्यात्. पार्श्वनाथशिष्यास्तु ऋजुप्राज्ञत्वेन शरीराच्छादनमात्रेण प्रयोजनं जानंति, न च ते किंचित्कदाग्रहं कुर्वति. ॥ ३१ ॥ For Private and Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उचराध्य ब ॥३२ अर्थः-तु-वळी श्रीगौतमे ए प्रमाणे बोलता श्रीकेशीकुमारना साधुने आ का हे श्रीकेशीकुमार साधु. भीतीर्थकरोए विज्ञान थी-विशिष्ट ज्ञानथी, अर्थात् केवल ज्ञानथी समागम्य-जे जेने योग्य योग्य होय ते ते प्रमाणेज जाणी वर्षाकल्प इत्यादि धर्म-3 भाषांतर अध्य.२३ साधन धर्मनु उपकरण आ ऋजुप्राज्ञने योग्य छ, अने आ वक्रजडने योग्य छे एम ईप्सितम्-खीकार्य छ, अर्थात् आ अमोने इष्ट RARYA छे, एम कथु छ, ए तात्पर्य छ, केमके लाल वगरे रंगवाळा वस्त्रोनी अनुज्ञा आपतां वक्रजडपणाने लीये श्रीमहावीर स्वामीना शि व्योनी वस्रो रंगवा वगैरे विषे प्रवृत्ति अटकावी नज काय, अने श्रीपार्श्वनाथना शिष्यो तो ऋजुप्राज्ञपणाने लीधे शरीरने ढांकवा? मात्रथीज वस्त्रोनुं प्रयोजन जाणे हे, परंतु तेओ वस्रो रंगवा वगेरेनो खोटो आग्रह जरापण करता नथी. ॥ ३१ ॥ मू-पञ्चमत्थं च लोगस्स | नाणाविहविगप्पणं ॥ जत्तत्वं गहणत्वं च । लोगे लिंगप्पओयणं ॥ ३ ॥ अर्थ:-आ लोकमा जात जातमा उपकरणो धारण करवारूप साधुवेषनी प्रवृत्ति लोकोना विश्वास माटे संबमना निर्वाह माटे, भने पोताना स्वरूपना भान माटे छे. ॥१२॥ व्या०-हे केशीमुने ! नानाविधविकल्पनं नानाप्रकारोपकरणपरिकल्पनमनेकप्रकारोपकरणचतुर्दशोपकरणधारण वर्षाकल्पादिकं च यत्पुनलोंके लिंगस्य प्रयोजनं, साधुवेषस्य प्रवर्तनं यत्तीर्थकरैरुक्तं तल्लोकस्य प्रत्ययार्थ, लोकस्य गृहस्थस्य प्रत्यपाथ, यतो हि साधुवेषं लुंचनाद्याचारं च इष्वाऽमी तिन इति प्रतीतिरुत्पद्यते. अन्यथा विडंधकाः पाखंडिनोऽपि पूजाय वयं वतिन इति त्रुवीन , ततश्च प्रतिष्वप्रतीतिः स्यात्, अतो नानाविधविकरुपनं लिङ्गप्रयोजनं च पुनर्यात्रार्थ संयमस्यनिर्वाहार्थ, यतो हि वर्षाकल्पादिकं विना वृष्ट्यादिना संयमनिर्वाहो न HTTECH44-- X For Private and Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जन स्त्रम् ॥१३१५॥ भाषांतर अप०१॥ १३२५॥ त्यात्, तेन वर्षाकल्पादिकं वर्षर्तुयोग्याचारोपकरणधारगं च दर्शितं. पुनर्ग्रहणं ज्ञानं, तदर्थमिति ग्रहणार्थ ज्ञानायेत्यर्थः. यदि कदाचिच्चित्तविप्लवोत्पत्तिः स्यात्, परीषहोत्पत्तौ संयमेरतिरुत्पद्यते, तदा माधुवेषधारी मनस्येता. दृशं ज्ञानं कुर्यात्, यतोऽहं साधोर्वेषधार्यस्मि, यतो 'धम्मं रक्खइ वेसो' इत्युक्तस्वात्. इत्यादिहेतोलिङ्गधारणं ज्ञेयं. अर्थ-हे श्रीकेशीकुमार साधु ! नानाविधविकल्पनं अनेक प्रकारनां उपकरण, एटले चौद उपकरणर्नु धारण अने वर्षा कल्प वगेरे लोकमां जे लिंगर्नु प्रयोजन. पटले साधुवेपनी प्रवृत्ति जे श्रीतीर्थकरोए कहीछे, ते लोकोना प्रत्ययार्थ- गृहोना विश्वास माटे , केमके साधुवेषने तथा लोच वगेरे आचारन जोइ 'आ व्रतवाना एबुं ज्ञान उत्पन्न थायछ, नहि तो विडंबका:पाखंडीओ पण पोताना सन्मान वगेरे माटे 'अमे व्रतवाळा छीए' एम बोले, अने तेथी व्रतवाला विषे अविश्वास थाय. आथी जात जातनां उपकरण धारण, च-अने साधुवेषनी प्रवृत्ति यात्रार्थ-संयमना निर्वाह माटे छे. कारणके वर्षाकल्प वगेरे विना दृष्टि वगेरे | वडे संयमनो निर्वाह थाय नहि, तेथी वर्षाकल्प वगेर-बरसादनी ऋतुने योग्य आचारनां साधनोनुं धारण दर्शाब्यु छ. वळी ग्रहण एटले ज्ञान, तेने माटे ए ग्रहणार्थम्-ज्ञान माटे ए अर्थ छ. जो कोइ समये चित्तनी स्थिरतानो नाश थाय-परिषइनी उत्पत्ति थतां संयममा अरुचि पेदा थाय त्यारे साधुना वेष धारण करनार मनमा एवं समजे छ के 'हुँ साधुना वेपने धारण करनार छु'; कारणके 'धम्म रकवह वेसो वेप धर्मनुं रक्षण करेछे) एम शास्त्रमा कयु है. आ वगैरे कारणोथी साधुवेषनुं धारण कधुके, एम जाणवू. मू-अह भवे पइन्नाओ । मोक्खसम्भूयसाहणे ॥ नाणं च दमणं चेव । चरित्तं चेव निच्छए ॥ ३३ ॥ ते अर्थ:-हवे श्रीपाश्वनाथ तथा श्रीमहावीर स्वामीनी प्रतिज्ञा छेज के सिद्धांतनी रीते ज्ञान, दर्शन, अने चरित्र मोक्षमा सत्य साधनो के. ॥१३॥ For Private and Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir HEL उसन- पास ॥१३२६॥ बर RECESSAMACoctsit: व्या०-पुनर्गौतमो वदति, हे केशीकुमारश्रमण ! निश्चयनये मोक्षसभूतसाधनानि ज्ञानदर्शनचारित्राणि सति. मोक्षरूपस्य कार्यस्य ज्ञानदर्शनचारित्राणि सत्यानि साधनानि निश्चयनये वर्तन्ते. अथ प्रतिज्ञा भवेत्, श्रीपा भाषांतर वनाथमहावीरयोरियमेकैव प्रतिज्ञा भवेत्. श्रीपार्श्वनाथस्यापि मोक्षस्य साधनानि ज्ञानदर्शनचारित्राण्येक, श्रीवी- म.॥ रस्थापि मोक्षस्य साधनानि ज्ञानदर्शनचारित्राण्येच. श्रीपार्श्ववीरयोरेषा प्रतिज्ञा भिन्ना नास्तीत्यर्थः. वेषस्यांतरं ॥१३२६॥ जुजडवक्रजडाद्यर्थ, मोक्षस्य माधने वेषो व्यवहारनये ज्ञेयः, न तु निश्चये नये वेषः, निश्चये नये तु ज्ञानदर्श नचारित्राण्येव. तत्र ज्ञानं मतिज्ञानाविक, वर्शनं तत्वरुचिः, चारित्र सर्वसावधविरतिरूपं. तस्मानिश्चयव्यवहा. रनयो ज्ञातव्याचित्यर्थः ॥ ३३ ॥ अर्थः-वळी गौसमे का, हे केशीकुमार साधु । सिद्धांतनी रीते ज्ञान, दर्शन अने चारित्र मोक्षनां सत्य साधनोछे. मोक्षरूप एक कार्यनां सिद्धांतनी रीते ज्ञान, दर्शन अने चारित्र सत्य साधनो के. अथप्रतिज्ञा भवेत्-श्रीपार्श्वनाथ तथा श्रीमहावीर खामीनी आ एकज प्रतिज्ञा छे. श्रीपार्श्वनाथना मतमां पण मोक्षनां साधनो ज्ञान, दर्शन अने चारित्रज छे, अने श्रीमहावीर स्वामीना* मतमां पण मोक्षनां साधनो ज्ञान, दर्शन अने चारित्रज के. श्रीपार्श्वनाथ तथा श्रीमहावीरस्वामीनी आ प्रतिज्ञा जुदी नथी ए अर्थ छे. वेषनी मिन्नता ऋजुजड, वक्रजड वगेरे शिष्योने माटे छे. व्यवहारनी रीते वेष मोक्षनां साधनमां गण्यो छे, परंतु सिद्धांतनी रीते || वेष मोक्षनां साधनमा मण्यो नथी एम जाणवू. सिद्धांतनी रीते तो ज्ञान, दर्शन अने चारित्रज ज्ञानना साधनो छे. त्यां ज्ञान मति ज्ञान बगेरे रूप छे, दर्शन तन्त्रमा रुचिरूप छे अने चारित्र सर्व सदोष पदार्थोथी निवृचिरूपछे. तेथी सिद्धांतनी रीति अने व्यवहा 5 645 For Private and Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चराच-5 बम बम रनी रीते जाणवी जोहए ए अर्थ छे. ॥ ३३ ॥ | मूक---साहु गोयम पन्ना ते। छिनो मे संसओ इमो।। अन्नोचि संसओ मझं । तं मे कह सुगोयमा ॥३४॥ Ixभाषांतर का अर्थः-हे धोमौतम ! मापनी बुद्धि सारी के. मासे आ संशय दाइ गयो है. मासे बीजो पण संशय छे. हे श्रीगौतम ! मने तेनो उत्तर कहो. ३४४ अभ्य०२० 181१३२०० व्या-अस्या अर्थस्तु पूर्ववत्, न वरं प्रसंगतः शिष्याणां व्युत्पत्त्यर्थ जाननप्यपरमपि वस्तुतत्वं गौतमस्य " स्तुतिद्वारेण पृच्छन्नन्योऽपि संशय इत्याचाह--॥ २४ ॥ अर्थ:--आनो अर्थ तो पहेलांनी पेठे छे. हवे बीजु पण वस्तुतत्व जाणतां छतां पण श्रीगौतमनी प्रशंसा द्वारा, शिष्योनी ब्युस्पतिमाटे प्रसंगथी पूछतां, बीजो पण संशय छे इत्यादि कहे छ. ॥ ३४ ॥ मु०-अणेगण सहस्साणं । मज्झे चिट्ठसि गोयमा। ते य ते अभिगच्छति । कहं ते निजिया तुमे ॥ ३५॥ अर्थ:-है श्रीगौतम ! शवयोनी भनेक हजारोनी संख्याना मध्यमा आप उभा छो, अने तेओ भापपर धसी आवेडे मापे सेओने केवी रीते जीत्या के. केशी वदति, हे गौतम! अनेकेषां शत्रुसंबंधिनां सहस्राणांमध्ये त्वं तिष्टसि, ते चानेकसहस्रसंख्याः शब्रवस्ते इति त्वामभि लक्षीकृत्य गच्छंति सन्मुखं धावति, ते शत्रवस्त्वया कथं निर्जिताः१।३॥ अथ गौतम उत्तरं वदतिअर्थ:-श्रीकेशीकुमार साधुए कह्यु, हे श्रीगौतम! शत्रुओनी अनेक हजारोनी संख्याना मध्यमां आप उभा छो, अने ते अनेक हजारोनी संख्यावाला शत्रुओ ते एटले आपने अभि-उद्देशी गच्छति-घसी आवे छे. ते शत्रुओने आपे केवी रीते जीत्या छे ।।३।। मू-एगे जिए जिया पंच । पंचे जिए जिया दस । दसहा उ जिणित्ताणं । सव्वसत्तू जिणामिहं ॥ ३६॥ For Private and Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बाम MERCH अर्थ:-एक शत्रुने जीती लेां पांच शत्रुओ जीती लीधा के पांच अमोने जीती लेता दयशश्री जीती लीधा हे. इसे शत्रुओने जीती लइ हुं सर्व शत्रुभाने जीतुं बु.॥ ३६॥ हाभापांखर | व्या०--हे केशीमुने । एकस्मिन् शत्री जिते पंच शत्रवो जिताः, पंचसु जितेषु दश शत्रयो जिताः, दशैव अभ्य०१५ वैरिणो वशीकृता.. दशप्रकारान् शत्रून् जित्वा सर्वशत्रून् जयामि, यद्यपि चतुर्णा कषायणामबांतरभेदेन षोड- ॥१३२८॥ शसंख्या भवति, नोकषायाणां नवानां मीलनात् पंचविंशतिभेदा भति, तथापि महसूसंहा न भवति, परंतु तेषां दुर्जयत्वात् महसूसंख्या प्रोक्ता. ॥ ३६ ।। अथ केशी पृच्छति। अर्थः- श्रीकेशी साधु! एक शत्रुने जीती लेतां पांच शत्रुओ जीती लीधा छे. पांच शत्रुओने जीती लेतां दस शत्रुओ जीती। लीधा छे. दसे पण शत्रुओने वश कर्या छ. दस प्रकारना शत्रुओने जीती हुं सर्व शत्रुओने जीतुं छु. जो के चार कषायोना पेटा भेदथी, सोळनी संख्या थाय छे, अने तेमां नव नोकषाय भेळववाथी शत्रुओना पचीस प्रकार थाय छ, परंतु हजारनी संख्या थती नथी, तोपण तेओना दुर्जयपणाने लीधे हजारनी संख्या कही छे. ॥ ३६ ।। हवे श्रीकेशी साधु पूछे छे मू-सत्त य के य ते वुत्ते । केसी गोयममब्बवी ॥ तओ केसी वुवंतं तु । गोयमो इणमब्बची। ३७ ॥ मू-गप्पा अजिह सत्त । कसाया इंदियाणि य॥ ते जिणित्तु जहा नायं । विहरामि अहं मुणी ॥ ३०॥ अर्थ:-श्रीकेशी साधुए श्रीगौतमने कयु के आधे केटला शत्रुभो कशा छ ? त्यार पछी ए प्रमाणे बोलता श्रीकेशी साधुने तो श्रीगौतमे भाk का एक अत्मा दुर्जय शत्रु के. कपयो अने इंद्रियो पण दुर्जय शत्रु दे. हे मुनि, न्याय प्रमाणे लेओने जीती हु बिणार करूंछु. ॥३७ ३८ ॥ For Private and Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir eG व्या०-हे मुने ! एक आत्मा चित्तं, तस्याऽभेदोपचारादात्ममनसोरेकीभावे मनसः प्रवृत्तिः स्यात्, तस्मादेक उचराध्य- आत्मा अजितः शत्रुर्दुर्जयो रिपुरनेकदुःखहेतुत्वात्. एवं सर्वेऽप्यते उत्तरोत्तरभेदादेकस्मिन्नात्मनि जिते चत्वारः भाषाकर पन सत्रस्त कषायाः, तेषां मीलनात्पंच, पंचस्वात्मकषायेषु जितेष्विंद्रियणि पंच जितानि, तदा दश शत्रचो जिताः, आत्मा हा अभ्य०१३ कषायाश्चत्वारः, एवं पंच, पुनः पंचेंद्रियाणि, एवं दशैव. आत्मा, कषायाः, नोकषायाः, इंद्रियाणि च, एते सर्वे शत्रवोऽजिताः संति. तान् सर्वान् शत्रून् यथान्यायं वीतरागोक्तवचसा जित्वाऽहं विहरामि. तेषां मध्ये तिष्ठन्नप्यप्रतिबद्धविहारेण विचरामि. अत्र पूर्व हि प्रश्नकालेऽनेकषां सहस्त्राणामरीणां मध्ये तिष्टसीत्युक्तं, उत्तरसमये तु कषायाणामांतरभेदेन षोडशसंख्या भवति, नोकषायाणां नवानां मीलनाच पंचविंशतिभेदा भवंति. तथात्मेंद्रियाणामपि सहस्रसंख्या न भवति, परंत्वेतेषां दुर्जयत्वात् सहस्रसंख्योक्तेति भावः ॥ ३८॥ अर्थ:-एक आत्मा एटले चित्त; कारण के चित्तनो आत्मानी साथे अभेदोपचार कर्यो के. आत्मा तथा मनन एकपणुं थतां 131 दमननी प्रवृत्ति थाय, तेथी एक आत्मा अजित शत्रु एटले दुर्जय रिपु छे; केमके तेमां अनेक दुःखोना कारणपणुं छे. आ प्रमाणे उत्त रोत्तर कहेवामां आवेला भेदने अनुसार आ कषाय वगेरे दुर्जय शत्रुओ छे. एक मनने जीततां चार कषायो जीताइ जाय छे. कपायोने मननी साथे भेळधवाथी पांच थाय हे. मन अने चार कषाय ए पांच जीतातां पांच इंद्रियो पण जीताइ जाय छे. त्यारे दस शत्रुओ जीताया. एक मन अने चार कषायो एवी रीते पांच थाय छे. वळी पांच इंद्रियो ए प्रमाणे दसज थाय छ, मन, कषाय, नोकपाय, है अने इंद्रियो आ सघळा शत्रुओ दुर्जय छे. ते सघळा शत्रुओने न्याय प्रमाणे-राग वगरना मुनिओए कहेला वचनथी जीती हु विहार * ROCERIES For Private and Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उपराष्यबन सूत्रम् ॥१३३०|| 24-2-444 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करूं छु. तेओना मध्यम रहेतां छतां पण प्रतिबंध वगरना विहारथी विचरूं हूं. अर्हि पहेलां प्रश्नना समयमां 'अनेक हजारो शत्रुओना मध्यमां रहोछो' एम कछु, अने पछी तो कषयोना पेटामेदोथी सोळनी संख्या थाय छे, अने तेमां नव नोकषय मळवाथी पचीस भेदो थाय छे, तेम मन तथा इंद्रियोनी पण हजारनी संख्या थती नथी, तोपण आ शत्रुओनुं दुर्जयपणुं होवाने लोत्रे हजारनी संख्या कही छे ए अभिप्राय छे. ॥ ३७. ३८. ॥ मू" - साहु गोग्न पक्षा से । छिन्नो मे संसओ इमो || अन्नोषि संसओ मज्झं । तं मे कह सुगोपमा ॥ ३९ ॥ अर्थ :- हे गौतम! आपनी बुद्धि मारी मरो आ संशय छेदाइ भयोछे माशे बीजो पण संशय छे. हे गौतम! मने तेनो उत्तर कहो. ॥ ३९ ॥ व्या०-- अस्या अर्थः पूर्ववत् ॥ ३९ ॥ अर्थ:--- आनो अर्थ पहेलांनी पेठे छे. ।। ३९ ।। मू० - दीसंति बहवे लोए । पासबद्धा सरीरिणो ॥ मुकपासो लहुप्भूओ । कहं तं विहरसी मुणी ॥ ४० ॥ अर्थ:---हे मुनि संसारमां मां प्राणीओ पाशवी बंधावेला जोवामां आवेछे, आप पाशयी मुक्त धट्ट हलका बनी फेम विहार करो हो ? ॥ ४० ॥ व्या० - पुनः केशी वदति, हे गौतममुने । लोके संसारे बहवः शरीरिणः पाशबद्धा हदयंते, स्वं मुक्तपाशः सन् लघुभूतो वायुरिव कथं विहरसि ? ॥ ४० ॥ अथ गौतमः प्राह अर्थ:-- फरी श्रीकेशी साधु कहे छे के हे श्रीगौतम मुनि ! लोकमां पटले संसारमां घणां प्राणीओ पाशथी बंधाये लां जोवामां आत्रेछे, आप पाशथी मुक्त थर हलका बनीं वायुनी पेठे केम विहार करोछो १ ॥ ४० ॥ इव श्रीगौतम साधु कछेमू० - ते पासे मन्त्रो छिन्ता । निहंतूर्ण उवायओ | मुकपासो लहुरभूओ । विहरामि अहं मुणी ॥ ४१ ॥ For Private and Personal Use Only भाषांतर अच्य०२३ ||१३३०॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir A KHESARKA 6 अर्थ:-हेश्रीकेशी मुनि ! हुं ते सर्व पाशोने छेदी, तथा उपायथी कटके कटका करी नाखी, पाशोथी मुक्त थह हलको बनी विहार करूं छु.॥ ४ ॥ उपराध-काव्या -हे केशीमुनेलान् पाशान् सबंशः सर्वान् छिस्वा. पनस्तान पाशानपायतो निस्संगादिस्वाभ्यासा-1 मापावर पन सत्रम् ||निहित्य पश्चान्मुक्तपाशो बंधनरहितः सन् लघूभूतोऽहं विहरामि. ॥ ४१॥॥ अध्य०१३ ॥१३३१० __अर्था—हे श्रीकेशी मुनि ! ते मर्यशः-सघळा पाशान-पाशोने छेदी, बळी ते पाशोना उपायथी-निःसंगपणा वगेरेना | अभ्यासथी कटके कटका करी नाखी मुक्तपाश-बंधनरहित थइ हलको बनी हु विहार करूं छु. ॥ ४ ॥ मूस-पासा इइ के वृत्त । केसी गोयममब्ववी ॥ तओ केसी बुवंतं तु । गोयमो इणमब्बी ॥४२॥ अर्थ:-श्रीकेशी साधुए श्रीगौवनने कोने पाशो कया के एम बमु. न्यार पछी एम कहता श्रीकेशी साधुने तो श्रीगौतमे आ कटु । ४२ ॥ __ व्या-इति गौतमवाय यादनंतर केशीश्रमणो गौतममब्रवीत्, हे गौतम! पाशाः के उक्ताः ? बंधनानि कान्यु कानि? तत इति पृच्छत केशीकुमारमुनि गौतम इदमुत्तरमब्रवीत्. ।। ४२ ॥ अर्थः-ए प्रमाणे श्रीगौतमना वाक्य पछी श्रीकेशी साधुए श्रीगौतमने कडं, हे श्रीगौतम ! कोने पाशो कह्या छ ? कोने बंधनो कयां ? त्यार पछी एम पूछता श्रीकेशीकुमार साधुने श्रीगौतमे आ उत्तर आप्यो. ॥ ४२ ॥ मू-रागहोसाइओ तिब्वा । नेहपामा भयंकरा ॥ ते छिदितु जहानायं । विहरामि जहकम ॥४३॥ | अर्थी-रागपादिक तीव्र अने भयंकर स्नेह पाशो के तेश्रोने न्याय प्रमाणे छेदी साधु लोकोना बाचारनी पद्धति प्रमाणे विहार करू छ. ॥॥॥ हे केशीमुने जीवानां रागद्वेषादयस्तीवाः कठोराइछेत्तुमशक्याः स्नेहपाशा मोहपाशा उक्ताः कीदृशास्ते स्नेहपाशा? RI - % % e. For Private and Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie भाषाम ६ भयंकरा भयं कुर्वतीति भयंकराः, रागद्वेषावादी येषां ते रागद्वेषादयः, रागद्वेषमोहा एवं जीवानां भयदाः, तान् । उराध्य-स्नेहपाशान् यथान्यायं वीतरागोक्तोपदेशेन छित्वा यथाक्रम माध्याचारानुक्रमेणाहं बिहरामि, माधुमार्गे विचरामि. यवस्खम् । अर्थ:-हे श्रीकेशी मुनि ! गगद्वेषादिकने जीवोना तीव-कठोर पटले छैदवाने अशक्य स्नेहपाशो अर्थात् मोहपाशो कया छे. ते स्नेहपाशो केवा छे ? भयंकरा:-भयने करके ए भयंकर. जेओनी शरूआतमां राग अने द्वेप डे ए रागद्वेषादि-राग, द्वेष अने | मोहज जीवोने भय आपनारा . ते स्नेह पाशोने न्याय प्रमाणे-रागवगरना साधुओए कहेला उपदेशथी छेदी क्रम प्रमाणेसाधुओना आचारनी पद्धतिथी विहार करुं छु. ।। ४३ ।।। मू-साह गोयम पन्ना ते । छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नोवि संसओ मज्झं । तं मे कहसु गोत्रमा ॥४४॥ सामर्थः-(जुनो. गाथा ३९मी प्रमाणे) व्या-अस्या अर्थस्तु पूर्ववत्, ।। ४४ ।। अर्थ:--आनो अर्थ तो पहेलांनी पेठे छे. ॥४४॥ * मु०-अंतोहिययसंभूया । लथा चिठ्ठह गोयमा । कलेइ विनभक्खीणं । सा उ उद्धरिया कहं ॥ ४५ ॥ *हे श्रीगौतम ! मनमाथी उत्पन्न थयेली जे लता रही छे, तथा जे लता विष जे फळो उत्पन्न करे छे ते लता केवीरीते आपे उखेडी नावी ! हे गौतम! सा लता सा वल्ली त्वया कथं केन प्रकारेणोध्धृतोत्पाटिता? मा का? या लता अंतहृदयसंभूता सती दतिष्टाते. अंतहृदयं मन उच्यते, एतावता मनस्युद्गता, पुनर्या वल्ली विषभक्ष्याणि फलानि फलति. विषवद्भक्ष्याणित विषभक्ष्याणि विषफलानि निष्पादयति, पर्सतदारुणतया विषोपमानि फलानि यस्या लताया भवति. ॥४५॥ अर्थ:-हे श्रीगौतम! सा लता-ते वेल आपे कथं-केवी रीते उढ़ना-उखेडी नाखी छे? ते लता कयी ! जे लता अंदरना हृदय-15 For Private and Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kotbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कि | भाषांन Ram मांथी उत्पन्न थइ रही छे. अंतहृदय ए मन कहेवाय छे. आटलाथी मन विषे उत्पन्न थयेली. बळी जे वेल विषमक्ष्यो-फळो आवे छे. उत्तराय- विष जेवां भक्ष्यो ए विपभक्ष्यो-विषजेत्रां फळो उत्पन्न करे छे. जे लतानां परिणाममा दारुणपणाने लीधे विष जेवां फळो थाय छे. कारबाट ॥१३॥ म.-तं लय सम्वसो छित्ता । उद्धरित्ता समूलियं ।। विहरामि जहानायं । मुक्कोमि विसभक्खणा ।। ४६ ॥ से लताने सर्व रीते वेदी, तथा मूल सहित उखेडी नाली न्याय प्रमाणे विहार करूं छ; अने तेथी विष जेबा फळोनो आहार करवाथी मुक्त रह्यो छु. व्या०-गौतमो वदति हे मुने! तां लतां सर्वतः सर्वप्रकारेण छित्वा वंडीकृत्य, पुनः समूलिका मूलसहितामुध्धृत्योत्पाटय यथान्यायं साधुमार्ग विहरामि. ततोऽहं विषभक्षणाद्विषोपमफलाहारान्मुक्तोऽस्मि ॥१६॥ अर्थ:-श्रीगौतम कहेछ। हे मुनि ! ते लताना सर्वतः-सर्व रीते छित्त्वा-टुकडा करी, बळी समूलिकां-मूळसहित उद्धृत्य-उखेडी नाखी न्याय प्रमाणे-साधुना मार्गमा विहार करूं छु. तेथी हुँ विषभक्षणान-विप जेवां फळोनो आहार करवाथी मुक्त रह्यो छु.। मू०-लया इइ का वुत्ता । केसी गोयममध्वधी । तओ केसीवुवंतं तु । गोयमो इणमयी ॥४७॥ अर्थ:-श्रीकेशी साधुए श्रीगौतम ने कई के लता ए कोने कही छ ? त्यार पछी ए प्रमाणे बोलता श्रीकेशी साधुने तो श्रीगीत मे मा का'. ॥४७॥ व्य-हे गौतम ! लता इति का उत्ता? इति पृष्टे सति, इति ब्रुवंतं केशीमुनि गौतम इदमब्रवीत्. ॥४७॥ अर्थ-हे श्रीगौतम ! लता ए कोने कहीछे ? एम पूछवामां आवतां, एम कहेता श्रीकेशी मुनिने श्रीगौतमे आ कयु. ॥४७॥ | भू-भवतण्हा लया वुत्ता। भीमा भीमफलोदया । तमुद्धित्तु जहानायं । विहरामि महामुणी॥४८॥ हे महामुनि ! भयंकर अने भयंकर फलोना उदयवाळी संसार विषेनी तृष्णाने खता कहीले. ते तृष्णाने न्याय प्रमाणे उखेडी नाली हुं बिहार करुं .। For Private and Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ASS व्या०-हे केशीमुने! भवे संसारे तृष्णा लोभप्रकृतिलता वल्ल्युक्ता, कीरशी सा! भीमा भयदायिनी, पुनः उपराय-18 कीहशी? भीमफलोदया, भीमो दुःखकारणानां फलानां दुष्टकर्मणामुदयो विपाको यस्याः सा भीमफलोदया, दुः भाषांतर पनपत्रमा खदायककर्मफलहेतुभूता, लोभमूलानि पापानीत्युक्तत्वात्. तां तृष्णावल्लीं यथान्यायमुध्धृत्याहं विहारं करोमि. ४८ ॥१३३४| | अर्थ:-हे श्रीकेशी मुनि ! भवे-संसारमा तुष्णा-लोभप्रकृतिने लता-वेल कही छे. ते केवी छ ? भीमा-भय आपनारी के. १३३४॥ वळी ते केवी हे ? भीमफलोदया-दुःखना कारणभूत दुष्ट कमोनो भयंकर उदय-विपाक जेथी थाय छे एवी, अर्थात् दुःख आपनारां कमोनां फळोना कारणभूत; कारणके 'पापो लोभ छे मूळ जेओनुं एवा छे' एम कहेवामां अव्यु छे. ते तृष्णारूप वेलने न्याय प्रमाणे उखेडी नाखी हुँ विहार करूं छु.॥४८॥ म.-साहु गोयम पन्ना ते । छिनो मे संसओ इमो। अन्नोवि संसओ मज्झं । तंमे कहसु गोयमा ॥४९॥ ____ अर्थ:-( जुओ गाथा ३९मी प्रमाणे) व्या०- अर्थस्तु पूर्ववत् ॥ ४२ ॥ अर्थ:---आनो अर्थ तो पहेलांनी पेठे छे. ॥४९॥ मू-संपजलिया घोरा । अग्गी चिठ्ठह गोयमा ॥ जे डहति सरीरत्था । कहं विज्झाविया तुमे ॥ ५० ॥ हे श्रीगौतम ! अन्यत दीपता, तथा भयंकर अनिओ संसारमा रह्या के, जेओ शरीरमा रहेला जीवोने बाळे के आपे तेजओने केबी रीते दुसाध्या के ? व्या०-हे गौतम! संप्रज्वलिता जाज्वल्यमाना घोरा भीषणा अग्नयः संसारे तिष्टंति, येऽग्नयः शरीरस्थान अर्थात् प्राणिनो जीवान् दहति ज्वालयंति, तेऽग्नयस्त्वया कथं विध्यापिताः कथं शामिता इत्यर्थः ॥५०॥ ____ अर्थ:-हे श्रीगौतम ! संप्रज्वलिताः-अत्यंत दीपता, अने घोरा:-भयंकर अनिओ संसारमा रह्या के. जे अनिओ शरीरमां 81 PRESENCECRECOctors ESReseeBORICA For Private and Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir KIरहेला अर्थात् प्राण युक्त जीवोने दहंति-बाळे . ते अमिओने आपे केवी रीते विध्यापिता:-शांतकर्या के ? ए अर्थ के. ॥५०॥ भाषांतर बन खम् । | मूo-महामेहप्पभूयाओ। गिजा वारि जलुत्तमं ॥ सचामि सययं ते उ । सित्ता नेव डहंति मे ॥५१॥ काअध्य०२५ ॥१३३५॥ अर्थ:-माहामेघधी उत्पा थवेला प्रवाहमांधी जळोमा उत्तम एवा जळने ग्रहण करी ते अग्निनो पर निरंतर रेटु छु. जळधी सींचावेला-16॥१३३५० | छटावेला तेओ मने नथीज वाळता. ॥ ५॥ व्या-हे केशीमुने ! महामेघमभूतान्महामेघसमुत्पन्नादर्थान्महानदीप्रवाहाद्वारि पानीयं गृहीत्वा तानग्नीन् सततं निरंतरं सिंचामि. तेऽग्रयो जलेन सिक्ताः संतो मां नैव दहंति. कथंभूतं तद्वारि ? 'जलुत्तम' जलोत्तम, सर्वेषु जलेषु मेघोदकस्यैवोत्तमत्वात् ॥५१॥ अर्थ:-हे श्री केशी मुनि ! महामेघप्रभूतान्-महान् मेघथी उत्पन्न थयेलामाथी अर्थात् महानदीना प्रवाहमांथी बारिनेपाणीने ग्रहण करी ते अग्निओ पर सतत-निरंतर रेड ए. जलवडे सींचवामां-छांटवामां आवतां ते अग्निओ मने नथीज वाळता. ते जळ केचु छ ? 'जलुत्तम'-जळोमा उत्तम छे, कारण के सर्व जळोमा मेघना जळर्नु उत्तमपणुं छे. ।। ५१ ।। मू-अग्गी इह के बुत्ते । केसी गोयममब्ववी । तओ केसी बुवंतं तु । गोयमो । इणमब्ववी ॥५२॥ अर्थ:-श्रीकेशी साधुए श्रीगौतमने कधुके अमिनो एम कोने कथा के ? बार पछी ए प्रमाणे बोलता श्रीकेशी साधुने तो श्रीगौतमे जा कर. ५२ ला व्या०-तदा केशीश्रमणो गौतममिदमब्रवीत् । हे गौतम! तेऽग्नय इति के उक्ताः? इत्युक्तवतं केशीकुमार. मुनि गौतम इदमब्रवीत्. ॥५२॥ RAKAR For Private and Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपराष्य ॥१३३६॥ tech अर्थः--त्यारे श्रीकेशी साधुए श्रीगौतमने आ कछु'. हे श्रीगौतम ! ते 'अनिओ'ए कोने कह्या छ.१ एम कहेता श्रीकेशी कुमार मुनिने श्रीगौतमे का ॥५२॥ मृ.-कसाया अग्गिणो वुत्ता । सुय सील तवो जलं । सुयधाराभिहया संता। भिन्ना हुन डहंति मे ॥ ५३॥ कषायोने अमिलो कहा ले. श्रुत, शीक तथा तपने जळ कां..ते कषायरूप अनिओ श्रुतनी धाराथी हणायेला थइ बुझाइ जतां मने नथीज बाळगा. का व्या-हे केशीमुने ! कषाया अग्नय उक्ताः, श्रुतं शीलं तपश्च जलं वर्तते, तत्र श्रुतं च श्रुतमध्योपदेशः महामे घस्तीर्थकरः, महाश्रोतश्च तदुत्पन्न आगमः, ते कषायाग्नयः श्रुतधाराभिहताः, श्रुतस्यागमवाक्यस्य, उपलक्षणस्वाच्छीलतपसोरपि, धारा इव धाराः, ताभिरभिहता विध्यापिताः श्रुतधीराभिहताः संतो भिन्ना विध्यापिताः, हुनिश्चयेन मे इति मान दहंति, मां न ज्वालयंति. ॥५३॥ है अर्थ:-हे श्रीकेशी मुनि ! कपायोने अग्निओ कह्या छे. श्रुत, शील अने तप जळ छे. त्यां श्रुत एटले शास्त्र श्रवणमा आवेलो उपदेश. महान् मेघ एटले तीर्थकर. महाप्रवाह ए तेनाथी उत्पन्न थयेल आगम. ते कषायरूप अग्निओ श्रुतधाराभिहता:-श्रुतस्य एटले आगमना वाक्यनी, उपलक्षण पणाने लीधे शील तथा तपनी पण धारा:-धारा जेवी धारा. तेओथी अभिहताः-हणायेला थइ भिन्ना:-बुझाइ जतां मे एटले मने हुँ-नकी न दहन्ति-मने बाळता नथी. ।। ५३ ॥ म.-साह गोयम पन्ना ते । छिनो मे संसओ इमो॥ अन्नोवि संसओ मजझं । तं मे कहसु गोयमा ॥१४॥ अर्थ:-( जुमो गाथा ३९मी ) व्या०-अर्थस्तु पूर्ववत्. ॥ ५४॥ अर्थः-आनो अर्थ तो पहेलांनी पेठे छे.॥५४॥ KE% EHELKACCI For Private and Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्यपनपत्र ॥१३३७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मृ० - अइमाहसिओ भीमो । दुट्टस्सो परिधावई || जंसि गोयममारूढो | कहं तेण न हिरसि ॥ ५५ ॥ अर्थ :- हे श्रीगौतम ! जेनापर आप बैठा हो से अति साहसिक तथा भयंकर दुष्ट घोडो चोमेर दोडे छे. तेनाथी आप केम नथी हरीजवाता ? ५५ व्या०-हे गौतम! अतिसाहसिको दुष्टाश्वः परिधावति यस्मिन् दुष्टाश्वे हे गौतम! त्वमारूढोऽसि तेन दुष्टाश्वेन कथं न ह्रियसे । कथमुन्मार्ग न नीयसे ? कथंभूतः स दुष्टाश्वः ? सहसाऽविचार्य प्रवर्तते इति साहसिकः, अविचारिताताध्वगामी पुनः कीदृशो दुष्टाश्वः ? भीमो भयानकः ।। ५५ ।। अर्थ :- हे श्रीगौतम ! अति साहसिक दुष्ट घोडो चोमेर दोडे हे. जे दुष्ट घोडापर हे श्रीगौतम ! आप स्वार थया छो. ते दुष्ट | घोडाथी आप केम नथी हरी जवाता ? अबळे मार्गे केम लइ जत्राता नथी ? ते दुष्ट घोडो केवो छे? सहसा विचार कर्या वगर वर्ते है ए साहसिक, विचार कर्या वगरना मार्गपर जनार. बळी दुष्ट घोडो केवो ? भीमः भयानक. ।। ५५ ।। ० -- पहावनं निगिह्णामि । सुगरस्सीममाहियं । न मे गच्छई उम्मग्गं । मग्गं च पडिवज्जई ॥ ५६ ॥ अर्थः- सिद्धांत रूप लगामश्री बांधेला दोडता घोडाने वश करूं कुं, तेथी ते मासे घोडो अच्छे मार्गे नथी जातो; भने सीधी मार्ग लीए . ५६ aro - अथ गौतमो वदति, हे केशीमुने । तं दुष्टाभ्वं प्रधावंतमुन्मार्ग व्रजतमहं निगृह्णामि वशीकरोमि कीदृशं तं दुष्टाचं श्रुतसमाहितं सिद्धांतल्या बर्द्ध. ततः स मे मम दुष्टा व उन्मार्ग न गच्छति स दुष्टा मार्ग च प्रतिपद्यतंगीकरोति. ॥ ५६ ॥ १ अर्थः-- पछी श्रीगौतम कहे छे-हे श्रीकेशी मुनि ! ते प्रधावन्तं - अवळे मार्गे जता दृष्ट घोडाने हुं निगृह्णामि वश करुं खुं. For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१३ ॥१३३७॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माकेा दुष्ट योडाने ? श्रुतरस्मिसमाहितं-सिद्धांवरुप लगामथी गांधेला. तेथी ते मारो दुष्ट घोडो अबळे मार्गे जतो नथी, अने ते उचराध्य दुष्ट घोडो सीधो मार्ग प्रतिपद्यते-स्वीकारे छे. ॥५६॥ भाषांत पनखम मू-अस्से इइ के बुत्ते । केसी गोयममव्ववी ॥ तओ केसी वुवंतं तु गोयमो इणमब्ववी ।। ५७ ॥ अध्य०२७ ॥१३३८ का अर्थ:-श्रीकेशी साधुए श्रीगौतमने के घोटो ए कोने कझो छ ? त्यार पछी ए प्रमाणे बोलता श्रीकेशी साधुने श्रीगौतमे भा ॥ ५ ॥ १३५८॥ व्या-केशी पृच्छति, हे गौतम ! अश्व इति क उक्त तत इति ब्रुवंत केशीमुनि गौतम इदमब्रवीत्. ५७ श्री केशी साधु पूछे छे-हे श्रीगौतम ! 'घोडो' ए कोने कयो छे ? त्यार पछी ए प्रमाणे कहेता श्रीकेशी साधुने श्रीगौतमे आ कछु। मू-मणो माहसिओ भीमो । दुहस्सो परिधावई ॥ तं सम्म निगिहामि । धम्मसिक्खाय कंधगं ॥ ५८॥ अर्थ:--मनका साहसिक अने भयंकर दुष्ट घोडो चोमेर दोडे छे धर्मना अभ्यास माटे सारी जानना घोबानी पेठे तेने सारी रीते वश करुं बु. ५८ हे केशीमुने! मनो दुष्टाश्वः साहसिकः परिधावति, इतस्तत: परिभ्रमति तं मनोदुष्टाश्वं धर्मशिक्षायै धर्माभ्यासनि | मित्तं कंथकमिव जात्याश्वामिव निगृह्णामि वशीकरोमि, यथा जात्याश्वो वशीक्रियते, तथा मनोदुष्टा वशीकरोमि. | अर्थ:-हे श्रीकेशी मुनि ! मनरुप साहसिक दुष्ट घोडो परिधावति-आम तेम चोमेर दोडे छे. ते मनरुप दुष्ट घोडाने धर्म-18 शिक्षायै-धर्मना अभ्यास माटे सारी जातना घोडानी पेठे निगृह्णामि-वश करूं छु. जेम सारी जातनो घोडो वश करवामां आवे | छे, तेम मनरूप दृष्ट घोडाने वश करूं छु.॥ ५८॥ म.-माह गोयम पन्ना ते । छिन्नो मे संसओ इमो। अमोवि संसओ मजसं । तं मे कहसु गोयमा ॥५९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बनवम् ॥१३३९॥ अर्थः- ( जुलो गाथा ३९मी ) च्या-अस्या अर्थस्तु पूर्ववत.॥५९ ॥ आनो अर्थ तो पहेलांनी पेठे ॥ ५९॥ । है।भापनि | मू.-कुप्पहा बहवो लोए । जहिं नासंति जंतयो । अद्धाणे कह वहतो । तं न नासिसि गोयमा ॥ ६ ॥ अध्य०१७ | अर्थ:- लोकमां पणा कुमार्गो है. मे बहे प्राणीमो नाश पामे छे. तो हे श्रीगौतम ! सन्मार्गमा वर्तता एवा आप केम नाश पामता नथी ! ६. ॥१३३० हे गौतम! लोके बहवः कुपथाः कुमार्गाः संति, यैः कुमार्गर्जतवो नश्यंति, दुर्गतिवने ब्रजंतो विलीयंते, मन्मार्गा ते इत्यर्थः हे गौतमत्वमध्वनि वर्तमानः सन् कथं न नश्यसि ? नाशं न प्रामोषिः सत्पथावं कथं न च्यवसे? ___अथ:-हे श्रीगौतम! आ लोकमां घणा कुपथा:-कुमार्गो. छे. जे कुमार्गो बड़े प्राणीणो नाश पामे डे-दुर्गतिरुप वनमा जताई विनाश पामे में सन्मार्मथी भ्रष्ट थाय के ए अर्थ थे. हे श्रीगौतम ! आप सन्मार्गमा रहेता केम न नश्यसि-नाश पामता नथी। | आप सन्मार्गधी केम भ्रष्ट धता नथी! ॥६॥ मु०-जे य मग्गेण गच्छति । जे य उम्मग्गपटिया । ते सव्वे विइहा मज्झं । सो ण णस्सामिहं मुणी ॥ ६१ ॥ |है श्रीकेशी मुनि ! जे सन्मान गमन करे , अने जेभोए विमार्ग तरक प्रयाण क्यु छे ते सघळाने में जागी लीधा ले तेथी हुँ नाश पामतो नथी. व्या०-हे केशीमुने! ये भव्यजना मार्गेण वीतरागोपदेशेन गच्छंति, च पुनर्येऽभव्या उन्मार्गप्रस्थिता भग | वलुपदेशाद्विपरीतं प्रचलितास्ते सर्वे मया विदिताः. भन्याभव्ययोः सन्मार्गाऽसन्मायोनि मम जातमिति भावा. 'तो' तस्मात्कारणादहं न नश्यामि, अपथपरिज्ञानान्नाशं न प्रामोमि, ॥६१॥ अर्थ:--हे श्रीकेशी मुनि ! जे पुण्यशाळी लोको मार्गेण-वैराग्यवाळा साधु लोकोना उपदेश प्रमाणे चाले छे, च-अने जे मंद ASHOKAR + + वर For Private and Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उचराध्य पनसमा भाषांतर अध्य०१७ ॥१३४०॥ २३४ | भाग्यवाळा लोको उन्मार्गप्रस्थिता:-भगवान्ना उपदेशथी उल्टा चाले छे ते सपळाओने में जाणी लीधारे. पुण्यशाळी लोको, मंद भाग्यवाला लोको, सन्मार्ग तथा विमार्गनुं ज्ञान मने थयु छे ए आशय छे. तोते कारणथी हुं न नश्यामि-कुमार्गनुं ज्ञान होवाने लीधे हु नाश पामतो नथी. ।। ६१ ॥ I मू.--मग्गे इह के वुत्ते । केसी गोयममब्ववी । तओ केसी बुवंतं तु । गोयमो इणमयी ।। ६२ ॥ | अर्थ:-श्रीशी साधुए श्रीगोतमने के मार्ग अने उन्मार्ग कोने कया हे ! त्यार पळी ए प्रमाणे बोकता श्रीशी साधुने तो श्रीगीतमे आ यमु. ६२ व्या०-अस्या अर्थः पूर्ववत् ॥ ६२ ॥ अर्थः-पानो अर्थ पहेलांनी पेठे छ. (जुओ गाथा ५७मी) ॥ ६२ ॥ मू-कुप्पवयणपासंडा। सब्बे उम्मग्गपडिया । समग्गं तु जिणक्खायं । एस मग्गे हि उत्समे ॥ ६३ ।। अर्थ:-कुदर्शनो विषे पाखंडीओ सधळा उन्मार्ग गामी जे. सन्मार्ग तो जिनदर्शन ले. या मार्गज उत्तम छे. ॥६॥ व्या०-हे केशीमुने कुत्सितानि प्रवचनानि कुप्रवचनानि कुदर्शनानि, तेषु पाखंडिनः कुप्रवचनपाखंडिन, एकांतवादिनः, ते सर्वे उन्मार्गे प्रस्थिताः, उन्मार्गगामिनः संति. सन्मार्ग तु पुनर्जिनाख्यातं विद्यते, एष जिनोक्तो। मार्गः सर्वमार्गेपूत्तमः, सर्वमार्गेभ्यः प्रधानो विनयमूलस्वादित्यर्थः । ६३ ।। अर्थ:--हे श्रीकेशी मुनि ! कुत्सित प्रवचनो ए कुप्रवचनो अर्थात् कुदर्शनो. तेोमां पाखंडीओ ए कुप्रवचन पाखंडीओ, अर्थात एकांतवादीओ. ते सघळा अबळे मार्गे खाना थया छ, अर्थात् उन्मार्ग गामी छे. सारो मार्ग तु-तो जिनदर्शन छ. आ श्रीजिने कहेलो मार्ग सर्व मार्गोमा उत्तम छ-सर्व मार्गोथी मुख्य छे, करण के तेनुं मूळ विनय छे, ए अर्थ छे. ॥ ६३ ॥ For Private and Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उपराज्यसूत्र १३४१॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मू० -- साहु गोयम पना ते । छिन्नो मे संसओ इमो || अनोवि संसओ मज्झ । तं मे कहसु गोयमा ॥ ६४ ॥ अर्थ:-( जुओ गाथा ३९.मी ) व्या० - अस्या अर्थस्तु पूर्ववत् ।। ६४ ।। अर्थ:-आनो अर्थ तो पहेलांनी पेठे छे. ॥ ६४ ॥ मू०- महाउदगवेगेणं | बुड्डुमाणाण पाणिणं || सरणं गईपहठ्ठाय । दीवं कं मनसी मुणी ॥ ५५ ॥ | अर्थ :- हे मुनि ! कया द्वीपने मोटा जलना प्रवाहथी डूबता प्राणीओना शरण गति भने प्रतिष्ठा रूप मानो हो ? ॥ ६५ ॥ suro - केशी गौतमप्रतिपृच्छति, हे गौतममुने ! महोदकवेगेन महाजलप्रवाहेण बुब्यमानानां प्लवतां प्राणिनां त्वं द्वीपं कं मन्यसे ? इति प्रश्नः कीदृशं द्वीपं । शरणं रक्षणक्षमं पुनः कीदृशं ? गतिमाधारभूमिं पुनः कीदृशं ? प्रतिष्टां स्थिरावस्थान हेतुं. द्वीपं निवासस्थानं जलमध्यवर्ति ।। ६५ ।। अर्थ :- श्री केशी साधुए श्री गौतमने पूछयं के हे श्रीगौतम मुनि ! महोदकवेगेन- मोटा जलना प्रवाहथी बुज्यमानानां डूबता प्राणीओना द्वीपरूपे आप कोने मानो हो ? ए प्रश्न छे. केवा द्वीपने ! शरणं-रक्षण करी शके एा. वळी केवा ? गतिम् - आधारनी भूमीरूप. बळी केवा ? प्रतिष्ठाम् स्थिर रहेवाना कारणरूप द्वीपम् - जलना मध्यमां रहेला निवासस्थानने ।। ६५ ।। मू०- अस्थि एगो महादीवो। वारिमज्झे महालओ | महाउदगवेगस्स | गइ तत्थ न बिज्जई ॥ ६६ ॥ अर्थः- पाणीना मध्यमां मोटा घेरावावाको एक महान् द्वीप के. त्यां जलना मोटा प्रवाहनी गति नथी. ६६ ॥ व्या०-हे केशीमुने ! वारिमध्ये पानीयांतराले यो ' महालओत्ति ' महानुचैस्त्वेन विस्तीर्णतया वाऽालयः स्थानं स महालय विस्तीर्ण एको द्वीपोsस्ति, द्विर्गता आपो यस्मिन् स द्वीपः, तत्र तस्मिन् द्वीपे महोदकवे For Private and Personal Use Only भाषांतर अच्य०१३ ॥१३४१ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उधराज्यपन पत्रम ॥१३४२ ॥ www.kobatirth.org गस्य गतिर्न विद्यते, पातालकलशवातैः क्षुभितस्य जलवेगस्य गमनं नास्ति, अपरत्र द्वीपे प्रलयकाले समुद्रजलक्ष्य गतिरस्ति परं तत्र द्वीपे नास्ति ॥ ६६ ॥ अर्थ: --- हे श्रीकेशी मुनि ! वारिमध्ये पाणीना मध्यमां जे 'महालओत्ति' उंचापणाथी अथवा विस्तीर्णपणाथी जेनुं आलयः स्थान. मोढुं छे एवो महालय :- विशाळ एक द्वीप छे बने बाजुओथी जेमां जळ छे ए द्वीप. तत्रः- ते द्वीपमां जलना मोटा प्रवाहनी गति नथी. पातालना समुद्रना पवनोथी क्षोभ पामेला जलना प्रवाहनी गति नथी. बीजा द्वीपमां प्रलयना समयमा समुद्रना जलनी गति छे, परंतु ते द्वीपमां नथी. ॥ ६६ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मू० - दीवे इइ के बुत्ते । केसी गोयममब्बवी ॥ तओ केसीं बुवतं तु । गोयमो इणमन्ववी ॥ ६७ ॥ अर्थः—श्रीकेशी माधुर श्रीगौतमने क' के 'द्वीपने' प कोने कछु छे ! त्यार पछी ए प्रमाणे बोलता श्रीकेशी साधुने तो श्रीगौतमे आ . ६० व्या-केशी गौतमं पृच्छति, हे गौतम! द्वीपमिति किमुक्तं ? इत्युक्तवनं केशीश्रमणप्रति गौतम इदमब्रवीत्. ६७ श्रीकेशी साधुए श्रीगौतमने पूछयूँ के हे गौतम! 'द्वीपने' ए कोने कछु छे ? एम बोलता श्रीकेशी साधुने श्रीगौतमे आ क. ६७ सू० -- जरामरणवेगेणं । बुडुमाणाण पाणिणं ॥ धम्मो दीवो पट्टा य गई। सरणमुत्तमं ॥ ६८ ॥ अर्थः-- वृद्धावस्था तथा मरणरुप जलना प्रवाहथी बतां प्राणीओने प्रतिष्ठा, गति अने श्रेष्ठ दारणरूप धर्म द्वीप छे. ॥ ६८ ॥ या०-हे केशीमुने ! जरामरणजलप्रवाहेण बुडतां तां प्राणिनां संसारसमुद्रे श्रुतधर्मश्चारित्रधर्मरूपो द्वीपो वर्तते, मुक्तिसुखहेतुर्धर्मोऽस्तीति भावः कीदृशः स धर्मः ? प्रतिष्ठा निश्चलं स्थानं पुनः कीदृशो धर्मः १ गति For Private and Personal Use Only भाषांतर अभ्य०१३ ||१३४२॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra -kaling पन सम् ॥१३४३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विवेकिनामाश्रयणीयः, स धर्म उत्तमं प्रधानं स्थानं शरणमस्तीति भावः ॥ ६८ ॥ अर्थ :- हे श्रीकेशी साधु ! संसाररूप समुद्रमां वृद्धावस्था तथा मरणरुप जलना प्रवाहथी इनतां प्राणीओने श्रुतधर्म एटले चारि धर्मरूप द्वीप छे, मुक्तिरूप सुखनुं कारण धर्म है ए आशय . ते धर्म केबो के १ प्रतिष्ठा एटले निश्चल स्थान छे. बळी ते धर्म केवो छ ? गति पटले विवेकीओने आश्रय करवा योग्य के. ते धर्म उत्तम प्रधान स्थान शरण ले प अभिप्राय छे. ॥ ६८ ॥ मू० -- साहु गोयम पना ते । छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नोषि संसओ मज्झं । तं मे कहसु गोत्रमा ॥ ६९ ॥ अर्थः--( जुओ गाथा ३९मी ) व्या० - अस्या अर्थस्तु पूर्ववत् ।। ६९ ।। अर्थः--आनो अर्थ तो पहेलांनी पेठे छे. ६९ मू० -- अन्नवंसिनहोहंसि । नावा विपरिधानई जंसि गोयममा रूढो । कहं पारं गमिस्मसि । ७० ॥ अर्थः- हे श्रीगौतम ! मोटा प्रवाह वाळा समुद्रमां नौका माम तेम भमे से जेना पर चडेला आप केवी रीते ममुना पारने पासो ? हे गौतम महौघे महाप्रवाहे समुद्रे नावा इति नौर्विपरिधावति, इतस्ततः परिभ्रमति यस्यां नौकायां त्वमा रूढः सन् कथं पारं गमिष्यसि ? कथं पारं प्राप्स्यसि ? | ७०॥ अथ केशीमुनिना ने कृते सति गौतमा वदति - हे श्रीगौतम! महौघे अर्णवे-मोटा प्रवाहवाळा समुद्रमां नावा एटले नौका विपरिधावति-आम तेम भमे . जे नौकापर आप बडीने केवी रीते पारं गमिष्यसि केवी रीते समुद्रना पारने पामशो ? || ७० ॥ पछी श्रीकेशी सुनिए प्रश्न करतां श्रीगौतम कहे छे-मू०-जा उ आस्साविणी नावा । न सा पारस्स गामणी । जा निस्साविणी नावा । सा उ पारस्स गामिणी ७१ अर्थः- जे नौका छिद्रयुक्त होय ते पारने पहोंचनारी थाय नहि. परंतु जे नौका छिरहित होय ते पारने पोंचनारी थाय ॥ ७१ ॥ For Private and Personal Use Only भाषांवर अध्य०१३ ॥ १३४३॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपराव्य व्या:-हे केशीमुने! या नौः आश्राविणो छिद्रसहिनास्ति, आश्रवत्यागच्छति पानीयं यस्यां नानाविणी, सा ६ नो पारस्य गामिनी नास्ति, या निःप्राविणो निश्छिद्रा नौः, सातु पारस्य गामिनी. ७१ अथ केशी पृच्छति भाषांतर पवस्त्रमा अध्य०२३ Heavit अर्थ:-हे श्रीकेशी मुनि ! जे नौका आश्राविणी-छिद्रसहित होय, आवति-आवेरे पाणी जेवां ए आप्राविणी, ते है. ॥१३४४ नौका समुद्र नापारने पहोंचनारी थती नथी, परंतु जे नौका निःश्राविणी-छिद्र वगरनी होय ते तो समुद्रना पारने पहोंचनारी 12 थाय छे. ॥ ७१ ।। हवे केशी साधु पूल मु०-नावा इइ का बुत्ता । केमी गोयममन्ववी ॥ तओ केसी बुवंतं तु । गोयमोहनब्बी ॥ ७२ ।। अर्थ:---श्रीकेशी साधुए श्रीगौतमने कम' के नौका ए कोने कही है ? त्यार पठी ए प्रमाणे बोलता श्रीकेशी साधुने तो श्रीगौतमे आ का. ॥७२॥ व्या-नौः इति का उक्ता? इति केशी गौतम अब्रवीत् , ततः केशीमुनिप्रति गौतमोऽब्रवीत्. ।। ७२ ॥ अर्थः-'नौका' ए कोने कही छ ? एम श्रीकशी साधुए श्रीगौतमने का. त्यार पछी श्रीकेशी मुनिने श्रीगौतमे कयु. ७२ मू-सरीरमाहुनावित्ति । जीवो बुच्चड़ नाविओ॥ संसारो अन्नबो वुत्तो । जे तरंति महेसिणो ॥७३॥ अर्थ:-शरीरने ए नौका के एम कहे हे. जीवने नाविक को डे, संसारने सागर कह्यो छे, जेने महर्षिभो तरी जाय छे. ॥ ७३ ॥ व्या -हे केशीमुने ! शारीरं मौर्वर्तते, जीवो नाविको नोखेटक उच्यते. संसारोऽर्णवः समुद्र उक्तः, यं संसारसमुद्र महर्षयस्तरंति, एतावाता महर्षयः स्वजीवं तपोऽनुष्ठानक्रियावंतं नौवाहकं नाविकं कृत्वा चतुर्गतिभ्रमण रूपे भवार्णवे स्वशरीरं धर्माधारकत्वेन नावं कृत्वा पा प्राप्नुवंति, मोक्षं ब्रजंतीति भावः ॥ ७३ ॥ CAKCONS Katri ka For Private and Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SMOCK । + अर्थ:-हे केशी मुनि ! शरीर नौका छे, जीव नाविक एटले खलासी कहेवाय छे. संसारने समुद्र कह्यो छे, जे संसारने महर्षिओ चराध्य तरी जाय छे. आटलाथी महर्षिो तपने आचरवानी क्रियावाळा पोताना जीवने नौवाहिक-नाविक करी चारगति (जरायुज, अंडज, IT भाषांतर पब स्वस्त खदेज अने उभिन्न) मां भ्रमणरुप संसार समुद्रमा पोताना शरीने धर्मर्नु धारण करनारपणाथी नौकारुप करी संसाररुप समुद्रना | अब.२५ V१३४॥ पारने पहोंचे के-मोक्षने पामे छे ए आशय छे. ॥ ७३ ॥ मु०-साहु गोयम पन्ना । ते छिन्नो मे संसओ इमो ॥ अन्नोवि संसओ मज्झं । तं मे कहसु गोयमा ॥ ७४॥ | ा अर्थ:- जुनो गाथा ३९मी ) व्या०-अस्या अर्थस्तु पूर्ववत्. ॥ ७४ ॥ अर्थः-आनो अर्थ तो पहेलांनी पेठे .७४ | मु०-अंधयारे तमे घोरे । चिढते पाणिणो बहू ॥ को करिस्सइ उजोयं । सव्वलोगमि पाणिणं ॥ ७५ ॥ अर्थः-लोकोने अंध करनार-बाटा भने भयंकर अंधारामा घणां प्राणीओ रहे थे. सधळा लोकमां कयो पदार्थ प्राणीमोने प्रकाश भापशे. ॥ ४ ॥ __ व्या०-अथ पुनः केशीश्रमणो गौतमं पृच्छति, हे गौतम ! अंधकारे तमसि प्रकाशाभावे बहवः प्राणिनस्तिष्टंति. अंधकारतमः शब्दयोर्यद्यप्येक एवार्थस्तथाप्यत्रांधकारशब्दस्तमसो विशेषणत्वेन प्रतिपादितः, कीरशें तमसि ? अंधकारे, अंधं करोति लोकमित्यंधकारं, तस्मिन्नंधकारे. पुनः कीदृशे तमसि ! घोरे रौद्रे भयोत्पादके. हे। गौतम! एतादृशे सर्वस्मिन् लोके सर्वेषां प्राणिनां सर्वजीवानां कः पदार्थ उद्योतं करिष्यति प्रकाशं करिष्यति डून किंचित्तादृशं पध्याम इति भवः ॥ ७ ॥ II अर्थ:-अध-पछी श्रीकेशी साधु श्रीगौतमने पूछे छे, हे श्रीगौतम! अंधकार एवा अंधारामां-प्रकाशना अभावमा घणां प्राणीओ रहे छे. SCORCAX For Private and Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर ॥१३॥ *अंधकार अने तमस् ए शब्दोनो जो के एकज अर्थ छे, तो पण अंधकार शब्दनुं तमस् ना विशेषणपणाथी प्रतिपादन कयु छे. केवा अंधारामां ? अंधकारे-लोकने अंध करे के ए अंधकारम् , तस्मिन्-अंधकारनी सातमी विभक्तिनुं एकवचन अंधकारे छे. वळी पवा खयह केवा अंधारामां ? घोर एटले रौद्र अर्थात् भयने उत्पन्न करनारा अंधारामां. हे श्रीगौतम! आवा सपळा लोकमां सघळां प्राणीओने॥१३४६५ " सर्वजीवोने कयो पदार्थ उद्योत आपशे! प्रकाश आपशे तेवु (प्रकाश आपनालं.) कांड पण अमे जोता नथी ए आशय छे. ॥७५॥ मू-उग्गओ विमलो भाणू । सबलोगप्पभंकरो। सो करिस्सइ उजायं । मब्बलोगमि पाणिणं ॥ ७६ ॥ अर्थ:--सर्व लोकमां प्रभा करनारो निर्मळ सूर्य उदय पाम्यो के. ते सर्व लोकमां प्राणीमोने प्रकाश मापशे, ॥ ६ ॥ __ व्या-गौतमः प्राह, हे केशीमुने! सर्वलोकप्रभाकरी विमलो भानुरुङ्गतः, स भानुः सर्वस्मिन् लोके सर्वेषां प्राणिनामुद्योतं करिष्यति. सर्वस्मिन् लोके प्रभां करोतीति सर्वलोकप्रभाकरः, मर्चलोकालोकप्रकाशको निर्मलो वाद| सादिनाऽनाच्छादितो भानुरेव मर्वेषां प्राणिनां सर्वत्रोद्योतं करोति, नान्यः कोऽपि तेजस्वी पदार्थ इति भावः. ७६ है। अर्थ:-श्रीगौतमे कयुके हे श्रीकेशी मुनि ! सर्व लोक विषे प्रकाश करनारो निर्मळ सूर्य उदय पाम्यो के. ते सूर्य सघळा लोकमां सर्व प्राणीओने प्रकाश आपशे. सघळा लोकमां प्रभा करे छे ए सर्व लोकप्रभाकरः. सर्व लोक तथा अलोकनो प्रकाश करनारो निर्मळ एटले वादळां वगेरेथी नहि ढंकायेलो सूर्यज सघळां प्राणीओने सर्वत्र प्रकाश आपशे, सूर्यना करतां बीजो कोइ पण तेजस्वी पदार्थ नथी ए आशय के. ॥ ७६ ॥ ___ मू.-भाणू य इइ के बुत्ते । केसी गोयममब्यबी॥तओ केसी बुवंतं तु । गोयमो हणमव्ययी ॥ ७७ ।। RECRestocesstt CARE For Private and Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बनाम् ॥१३४७॥ SATURE अर्थ:-श्रीकेशी साधुए श्रीगौतमने क्षु के सूर्य ए कोने कयो के ? स्थार पछी म प्रमाणे बोलता श्रीकेशी साधुने श्रीगौतमे भा क । ४ ॥ ___ व्या०—तदा केशीमुनिौतमं पृच्छति, हे गौतम! भानुरिति क उक्तः ! केशीमुनिगौतममित्यब्रवीत्. ततः भाषांत | केशीमुनिमिति ब्रुवतं गौतम इदमब्रवीत्. ।। ७७ ।। ४।१३४ अर्थ:-त्यारे श्रीकेशी मुनि श्रीगौतमने पूछे छे के हे श्रीगौतम ! 'मर्य' ए कोने कह्यो छे? एम श्रीकेशी मुनिए श्रीगौतमने को. त्यारे पछी एम कहेता श्रीकेशी मुनिने श्रीगौतमे आ का ॥ ७७ ॥ मू-एगओ खीणसंसारो । सम्बन्नू जिणभक्खरो॥ सो करिस्सह उज्जोयं । सबलोगमि पाणीणं ।। ७८ ॥ अर्थ-क्षीण करेल ये संसार जेणे एत्रो सर्वज्ञ एक श्रीजिनरुप सूर्य थे. ते सर्व लोकमा प्राणीभोने प्रकाश भापशे ॥ ४ ॥ व्या-हे केशीमुने ! क्षीणः संसारो भवभ्रमणं यस्य स क्षोणसंमारः क्षयीकृनसमारः, सर्वज्ञः मर्वपदा-12 र्थवेत्ता, जिनो रागद्वेषयोर्बिजेता, स एको भास्करासूर्यः सर्वस्मिन् लोके चतुर्दशरज्ज्वात्मके लोके सर्वेषां प्राणिनामुषोतं करिष्यति, प्रकाशं करिष्यति. ॥ ७८॥ ___अर्थ:-हे श्रीकेशी मुनि श्रीण थल छे संसार एटले संसारमा भ्रषण जेनु एवो ते क्षीणमंसार:-क्षय करेल छे संसार जेणे एवो. सर्वज्ञः-सर्व पदार्थाने जाणनार. जिन:-रागद्वेषने जीतनार. ते एक भास्करः-सूर्य सघळा लोकमां-चौद रज्जुरुप लोकमा सर्व प्रणीओने उद्योत करशे-प्रकाश आपशे. ॥ ७८ ॥ | मू. साहु गोयम पन्ना ते । छिन्नो मे संसओ इमो ।। अनोवि संसओ मजझं । तं मे कहसु गोयमा ॥ ७९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kotbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अध्य०२५ अर्थ:-( जुओ माथा ३९मी ) व्या-अस्या अर्थस्तु पूर्ववत् ॥ ७९ ॥ आनो अर्थ तो पहेलानी पेठे छ. ।। ७९ ॥ उपाध्य भाषांतर यवसूत्रमा भू-मारीरमाणसे दुक्खे । बज्झमाणाण पाणिणं ॥ खेमं सिवं अणावाहं । ठणं किं मन्नसी मुणी ॥ ८॥ ॥१२४८॥ अर्थ:-हे श्रीगौतम मुनि ! आप शरीरना तथा मननां दुःखोथी पीडाता प्राणीमोनु व्याधि तथा आधिथी रहित उपद् कारन तथा पीडा-16॥१३४८० विन- स्थान क्युं मानो छो? ॥ ८ ॥ व्या०-अथ पुनः केशीमणो गौतमं पृच्छति, हे गौतममुने! शारीरकैः शरीरादुत्पन्नः, तथा मानसर्मनस उत्पन्नैर्दुःस्वैर्वध्यमानानां पीड्यमानानां प्राणीनां त्वं क्षेमं व्याध्याधिरहितं, शिवं जरोपद्रवरहितं, अनायाधं शत्रु जनाऽभावात्स्वभावेन पीडारहितं, गतादृशं स्थानं किं मन्यसे ? मां वदेरिति शेषः ।। ८०॥ 31 अर्थ:--अथ एटले पछी श्रीकेशी साधु श्रीगौतमने पूछे छे के हे श्रीगौतम मुनि ! शारीरकैः-शरीस्थी उत्पन्न थयेला तथा टूमानसैः-मनी उत्पन्न थयेला दुःखोथी वध्यमानानाम्-पीडाता प्राणीओन आप क्षेमम्-शरीरना तथा मननां दुःखोथी रहित || | शिवम्-जरा वगेरे उपद्रव वगरनु तथा अनाबाधम्-शत्रु लोकोना अभाव ने लीधे स्वाभाविक रीते पीडा विनानु. एवं स्थान | | कयु मानो छो? मने कहो ए शेष छे. ॥ ८ ॥ मु०-अस्थि एग धुवं ठाणं । लोगग्गमि दुरारुहं ।। जत्थ नत्थि जरा मच्चू । बाहि णो वेयणा तहा ॥१॥ अर्थ-लोकना अन विष कधी चड़ी शकाय एवं एक निश्चळ स्थान छ बा वृद्धावस्था, मृत्यु, ब्याधिभो तथा वेदना नथी. ॥ १ ॥ व्या०-हे केशीमुने! लोकाग्रे लोकस्य चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्यानं लोकाग्रं, तस्मिन् लोकाग्रे एकं ध्रुवं निश्चलं स्थानम 53-15 * * For Private and Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SAJHA --- - स्ति. कथंभूतं तत्स्थानं दुरारोह, दुःखेनारुह्यते यस्मिंस्तद् दुरारोहं दुःपापमित्यर्थः. पुनर्यत्र यस्मिन् स्थाने जरा-18 जब- मृत्यू न स्तः, जरामरणे न विद्यते. पुनर्यस्मिन् व्याधयस्तथा वेदना वा वातपित्तकफश्लेष्मादयो न विद्यते ॥८॥ भापतित बनवम् . अर्थ:--हे श्रीकेशी साधु लोकाग्रे-चौद रज्जुरुप लोकनु अग्रए लोकायम्, ते लोकाग्रमा एक ध्रुव एटले निश्चळ स्थान छे.18 ॥१३४९॥ V॥१३४९॥ ते स्थान केबु छे? दुरारोहम्-जेपर दुःखथी चहाय छे एq ते दुरारोहम् अर्थात् कष्टथी मेळवी शकाय ए. वळी यत्र-जे स्थानमा जरा तथा मृत्यु-वृद्धावस्था तथा मरण न स्त:-नथी, बळी जेमां व्याधिओ तथा वेदना के वात, पित, कफ, लेन्म बगेरे नथी. ८१1। मू०-ठाणे य इइ के वुत्ते । केसी गोयममवधी ॥ तओ केसी वुवंत तु । गोयमो इणमब्बी ॥ ८२॥ अर्थ:-श्रीकेशी साधुए श्रीगौतमने 4 के स्थान " कोने का ? त्यार पछी प प्रमाणे कहेता श्रीकेशी साधुने तो श्रीगीतमे आ कबु. ॥४२॥15 हे गौतम ! स्थानमिति किमुक्तं ? केशीश्रमणो गौतममित्यब्रवीत्. ततः केशीकुमारमिति ब्रुवंत गौतम इदमब्रवीत्.. अर्थ:-हे श्रीगौतम ! 'स्थान' ए कोने का छे १ एम श्रीकेशीसाधुए श्रीगौतमने क{. त्यार पछी ए प्रमाणे कहेता श्रीकेशी दकुमारने श्रीगौतमे आ कह्यु.॥ ८२ ॥ मु०-निव्वाणंति अवाहति । सिद्धी लोगग्गमेव य ॥ खेमं सिवमणायाहं । जं चरंति महेसिणो ।। ८३ ॥ मु०-तं ठाणं सासयं वास । लोयग्गमि दुरारुहं ॥ ज संपत्ताण सोयति । भवोहतकरा मुणी ।। ८४ ॥ युग्म अर्थ:-जे निर्वाण ए नामथी, अबाध ए नामथी, सिद्धि ए नामथी, लोकान ए नामथी, क्षेम ए नामथी, शिव ए नामश्री, अने अनाचाच ए | नामथी कहेवाय , अने जेने महरिओ पामेडे ते नित्य, कष्टवीचक्षय एg, निवास रुप स्थान लोकाग्रमा जे स्थानने प्राप्त थवेला संसारना प्रवा S AHU For Private and Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भावांतर अब.२० १३५०० हनो विनाश करनारा मुनियो शोककरता नथी. ॥ ८५ ८४॥ भावे गाधामो मळी युग्म बने .. उच्चराय- व्या-हे केशीमुने ! तत् शाश्वतं सदातनं वासं स्थानं लोकाग्रे वर्तते, यत्स्थानं संप्राप्ताः संतो भवौघांतकराः पनि खस संसारप्रवाहविनाशका मुनयो न शोचंते, शोकं न कुर्वति. कीरशं तत्स्थानं ? दुरारोह, दुःखेन तपःसंयमयोगेनार ५०"खते आसाद्यते इति दुगरोहं दुःप्राप्यमिति द्वितीयगाथया संबंधः अथ प्रथमगाथाया अर्थ:-पुनः कीदृशं तत्स्थानं ? । यत्स्थानमेमिर्नामभिरुच्यते-कानि तानि नामानि ? निर्वाणमिति, अवाधमिति, सिद्धिरिति, लोकाग्रमेव, च पुनः शिवमिति नामानि, एतादृशः सार्थकैरभिधानैर्यत्स्थानमुच्यते, तेषां नानामों यथा-निर्वाति संतापस्याऽभावात् शीतीभवंति जीवा यस्मिन्निति निर्वाण. न विद्यते वाघा यस्मिं स्तदबाधं निर्भयं. सिध्यति समस्तकार्याणि भ्रम णाऽभावाचस्यामिति सिद्धिः लोकस्याग्रमग्रभूमिलोकाग्रमेव.क्षेमं क्षेमस्य शाश्वतसुखस्य कारकत्वात्क्षेम, शिव. मुपद्रवाऽभावात्. पुनर्यस्थानप्रति महर्षयोऽनावाधं यथा स्यात्तथा चरांत ब्रजति सुखेन मुनयः प्राप्नुवंति. मुनयो हि चक्रवर्त्यधिकसुखभाज: संतो मोक्षं लभते इति भावः ॥ ८४ ॥ अर्थ:-हे श्रीकेशी मुनि ! ते शाश्वत-सदानु अर्थात् नित्य स्थान लोकना अप्रविषे (लोकनी उपर ) के. जे स्थानने प्राप्त थह संसारना प्रवाइनो विनश करनारा मुनिओ न शोचन्ते-शोक करता नथी. ते स्थान के दुरारोहम्-दुःखेन-तप अने संयमना सहयोगथी आफयते चढाय छे ए दुरारोहम्-कष्टयी प्राप्त थाय एबुं छे, एम बीजी गथानी साथ संबंध छे. हवे पहेली माथानो अर्थ आपवामां आवे छे:-बळी ते स्थान के छे । जे स्थान नामोथी कडेवामां आवे के एचु के. ते नामो क्या छ । निर्वाण, अबाघ, AAVAT For Private and Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir IX ॥१३५१० सिद्धि, लोकाग्र अने वळी शिव ए नामो के. आवां सार्थक नामोथी जे स्थान कहेनामा अवे छे. ते नामोनो अर्थ आ प्रमाणे छे:स्चराय निर्वान्ति-संतापना अभावी ठंडा थाय के जीवो यस्मिन्-जेमा ए निर्वाणम् , न विद्यते-नथी बाधा-पीडा यस्मिन्-जेमां MITHए अबाधम्-निर्मय, सिध्यन्ति-संसार विषे भ्रमणना अमावधी सिद्ध थाय छे सघळां कार्यों यस्याम्-जेमा ए मिद्धिः, लोक लास्य-लोकनी अग्रम्-अप्रभूमि (उपरनी भूमि) एजलोकाग्रम, क्षेमं-नित्य सुखने करनार होवाथी क्षेमम् , अने उपद्रवना अभा. बने लीधे शिवम्. वळी जे स्थान प्रत्ये महर्षिो काइ पण अडचण न आवे एवी रीते चरन्ति-जाय छे-जे स्थानने मुनिओ सुखेथी पामे छे. मुनिओ चक्रवर्ती राजाना करतां अधिक सुख भोगवनारा थह मोक्ष पामेछे ए आशय के. ॥ ८४॥ | मु०-साहु गोयम पन्ना ते । छिनो मे संसओ इमो ।। नमो ते संसयातीत । सव्वसुत्तमहोयही ।। ८ । *अर्थ:-हे भीगौतम! आपनी बुद्धि खारी के. मारो भा संशय घेदाइ गयो. हे संदेह महित! हे सर्व सिद्धांतोना समुद्र! मापने प्रणाम होजो. ८५ न्या-अथ केशीकुमारो मुनिौतम स्तौति, हे गौतम ते तव प्रज्ञा साध्वी वर्तते, मेममाय संशयश्छिन्नः, संदेहो दूरीकृतः हे संशयातीत! हे संदेहरहित ! हे मर्वसूत्रमहोदधे! सकलसिद्धांतसमुद्र! तुभ्यं नमो नमस्कारोऽस्तु. ८५ अर्थ:-पछी श्रीकेशीकुमार साधुए गौतमनी स्तुति करी के हे श्रीगौतम ! आपनी बुद्धि सारी छे, मारो आ संशय छेदी नाख्यो छसंदेह दूर कर्यो छे. हे संशयातीत-हे संदेहरहित. हे सर्वसूत्र महोदधे-सघळा सिद्धांतोना समुद्र ! आपने नमः-प्रणाम होजो. ा मू-एवं तु संसए छिन्ने । केशी घोरपरक्कमे । अभिवंदित्ता सिरसा । गोयमं तु महाजसं ॥ ८६ ।। मू-पंचमहव्वयं धम्मं । पडिवाइ भावओ । पुरिमस्स पछिमंमि । मग्गे तत्थ सुहावए ॥ ८७ ॥ युग्मं ॥ 9454 c+ कर For Private and Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ:-ते सिंदुक उशानमा ए प्रमाणे तो संशय दातां घोर परक्रमकाका श्रीकेशी साधुए मोटा यशवाळा श्रीगीतमने तो मस्तक बड़े प्रणाम उपराध्य 16करी आदि तीर्थकरना सुख आफ्नारा मार्ग विषे पांच महायतरुप धर्मनो श्रद्धाधी स्वीकार को. ॥ ८६ ८७ ॥ आबे गाथाओ मळी युग्म बने है. 5भाषांतर बाळास व्या--केशीकुमारश्रमणो भावतः अद्धातः 'पुरिमस्स' इति प्रथमतीर्थकृतो मार्गे, पश्चिमे पश्चिमतीर्थकरस्य अन्य०॥ १३५२॥ मार्गे, अर्थादादीश्वरमहावीरयोः सुखावहे मार्गे, तत्र सिंदुकोद्याने पंचमहाव्रतरूपं धर्म प्रतिपद्यतेंगीकरोति. किं IR॥१३५२४ कृत्वा! गौतम शिरसा मस्तकेनाभिवंद्य नमस्कृत्य, क सति ! एवममुना प्रकारेण गौतमेन मंशये छिन्ने सति. कीदृशं गौतम ? महायशसं. कीदृशः केशीमुनिः १ घोरपराक्रमो रौद्रपुरुषाकारयुक्तः. पूर्व केशीकुमारश्रमणेन चस्वारि प्रतानि गृहीतान्यामन् , तदा गौतमवाक्यात्पंचमहाव्रतान्यंगीकृतानीति भावः ।। ८७ ।। अर्थ:-श्रीकेशीकुमार साधुए भावता-श्रद्धाथी 'पुरिमस्स' इति-प्रथम तीर्थकरना मार्गमां, पश्चिमे-छल्ला तीर्थकरना मार्गमां, ल अर्थात् श्रीआदिनाथ तथा श्री महावीर स्वामीना मुख आफ्नारा मार्गमां, तत्र-ते तिंदुक नामना उद्यानमां पंचमहाव्रतरुप धर्मनो | प्रतिपद्यते-स्वीकार को. शुं करी स्वीकार कर्यों ? श्रीगौतमने मस्तकवडे अभिवंद्य-प्रणाम करी, शुं थतां प्रणाम करी? एवम् आ प्रकारे श्रीगौतमे संशय छेदी नाखता. केवा श्रीगौतमने? महायशवाळा गौतमने. श्रीकेशीमाधु केवा हता! घोरपराक्रमःप्रशंसनीय पराक्रमवाळा हता. पहेलां श्रीकेशीकुमार साधुए चारव्रतो लीयां हतां अने श्रीगौतमनो समागम थयो त्यारे तेना वच नथी पांच महाव्रतोनो स्वीकार को ए आशय छे. ।। ८६८७॥ BI मू-केसीगोयमओ निचं । तम्मि आसि समागमो॥ सुयसीलसमुकरिसो । महत्थविणिच्छओ ॥ ८८ ॥ For Private and Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailasagarsuri Gyanmandi का भाषांतर अप०२३ M॥१३५६॥ SHANK अर्थ:-ते नगरीमा निरंतर श्रीकेशी भने गौतमनो समागम धतो इतो. तेोनां शाबज्ञान तथा चारित्रनो सारी रीते उत्कर्ष थयो, अने उपाय-माशाखीव विषयो नो महान् निर्णय भयो. ॥ ८८. . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . बम बम्ब्या -तत्र तस्यां नगर्या केशीगौतमयोनित्यं समागम आसीत्. तयोः पुनः श्रुतशीलसमुत्कर्षः श्रुतज्ञानचा |रित्रयोः समुत्कर्षोऽतिशयोऽभूत्. पुनस्तयोरुभयोर्महानर्थविनिश्चयोऽभूत्, शिक्षाव्रततत्वादीनां निर्णयोऽभूत्. ८८ अर्थ:-तत्र एटले ते नगरीमा श्रीकेशी साधु तथा श्रीगौतमनो निरंतर समागम थतो हतो. तेओना पळी श्रुतशीलसमु. स्की-शासज्ञान तथा चारित्रनो समुत्कर्षः-अत्यंत उत्कर्ष थयो. वळी तेओ बनेने अर्थविनिश्चयः अभूत-शिक्षा, व्रत तथा तव बगेरेनो निर्णय थयो. ।। ८८॥ मू-तोसिया परिसा सव्वा । सम्मरगं समुवटिया ॥ संथुया ते पसीयंतु । भयवं केसिगोयमे।त्तिबेमि ॥ ८९ ॥ मार्थ:-सधळी सभा संतुष्ट करेली सन्मार्गमा सावधान बनी, स्तुति पामेला ते भगवान् श्रीकेशी तथा गौतम मुनिको प्रसव थाओ एम ९ कहूं. ५ हा व्या-सदा सर्वा परिषत् सदेवमनुजासुरसभा तोषिता प्रीणिता, सम्यग्मार्गे समुपस्थिता सावधामा जाता. तौ भगवंतो ज्ञानवंतौ केशीगौतमौ परिषदि संस्तुती प्रसीदतां प्रसन्नौ भवातां सतामिति शेषा, इत्यहं ब्रवीमि. इति सुधर्मास्वामी जंबूस्वामिनं प्राह.। ८९ ॥ | अर्थः-त्यारे सर्वा परिषद्-देव, मनुष्य तथा असुर सहित सघळी समा तोषिता-संतुष्ट करेली थइ सम्यग्मार्गे-सन्मा. दममा समुदस्थिता-सावधान थइ. समामां बखणायेला ते भगवंतो-ज्ञानवाला श्रीकेशी अने गौतम मुनिओ प्रसीदताम्-प्रसन +5+4%AEKASIA For Private and Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उपराज्यनत्रय ॥१३५४॥ www.kobatirth.org थाजो. 'सत्पुरुषो पर' एनो अध्याहार करबो, ए हुं कहुं हुं, एम श्रीसुधर्मास्वामी श्रीजंबूस्वामीने कछु ॥ ८९ ॥ इति केशिगौतमाध्ध्ययनं संपूर्ण. इति श्रीमदुत्तराध्ययन सूत्रार्थदीपिकायामुपाध्यायश्रीलक्ष्मीकीर्तिगणिशिष्यलक्ष्मीवल्लभमणिविरचितायां केशीगौतमीयमध्ध्ययनं त्रयोविंशतितमं संपूर्ण ॥ २३ ॥ 30:38 :0 इति केशी गौतमीय नामनुं जेवीसचं अध्ययन पूर्ण थयुं. ।। २३ ।। इति श्रीलक्ष्मीकी तिंगणि शिष्य लक्ष्मीवल्लभमणिविरचित श्रीउत्तराध्ययनत्रनी अर्थदीपिका नामनी टीकामा वीस केशीगौतमीय नामनुं त्रेवीसनुं अध्ययन परिपूर्ण थयुं. 10:0 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१३ ॥१३५४॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org इति श्रीमदुत्तराध्ययनसूत्रे पंचमो भागः समाप्तः । Kushwor WATER SORENE ERREUNITE FENDER CAUSED) (D) (DSTRANIT For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir CSI For Private and Personal Use Only