________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
उपराष्य सूत्रम् ॥१२०५ ॥
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शकतो नथी. अर्थात्-प्राण लेनारा बैरी करतां पण पोतानी दुरात्मता अधिक हानिकर ले-केमके दुष्टाचारमां प्रवृत्त थयेलो पुरुष | पोताना आत्मानोज घात करनार बने छे एवं हार्द छे. ए दुष्टाचारमां प्रवृत्त थयेलो आत्मा ज्यारे मृत्यु मुखने पामे छे त्यारे ते जाणे छे; पोताने ते वख्ते थता पश्चाताप उपरथी जाणे हे के- 'हाय रे ! में दुष्ट कर्म कर्यां के जेने परिणामे आ दुःख थाय छे' एम ते दयाविहीन थयेलो मरण समये जाणे छे. ॥ ४८ ॥
निरडिआ नग्गरुई उ तस्स । जे उत्तमट्टे विवज्जासमेड़ | इमेवि से नत्थि परेवि लोए। दुहओवि से झिज्जद तत्थ लोए जे साधु उत्तम अर्थमा विपर्यास पाने के, अर्थात श्रेष्ठ साधनामा वैपरीत्य धारे हे तेनी ननतारुचि साधुधर्म पालननी रुचि निरर्थकज छे. तेवा साधुने आ लोक पण नथी तेम पर लोक पण नथी. ते साधुना बेय लोक- आ लोक तथा परलोक-क्षीण घाय के; ते साधु उभय भ्रष्ठ धाय छे. ४९
व्या०-हे राजन् ! य उत्तमायें विपर्यासमेति, तस्य नाग्न्यरुचिर्नाग्न्येि श्रामण्ये रुचिरिच्छा निरर्धिका उत्तमः प्रधानोऽथों मोक्षो यस्मात्स उत्तमार्थः, तस्मिन्नुत्तमार्थे, अर्थात्पर्यत ममयाराधनरूपे जिनाज्ञाराधने वैपरीत्यं प्रामोति, दुरात्मत्वे सुंदरात्मत्वज्ञानं प्राप्नोति, तस्य नग्नत्वादिरुचिर्निर्वस्त्रादिक्लेशवांछा निःफला. मिथ्याविनो हि कष्टं निःफलं, तो अन्यस्य पुरुषस्य तु किंचित्फलं स्यादेव, परंतु मिथ्यास्विनो नग्नत्वरुचेरर्थाद् द्रव्यलिंगिनोऽयं लोको नास्ति, लोचादिनग्नत्वादिकष्टसेवनादिहलोकसुखमपि नास्ति, पुनस्तस्य द्रव्यलिंगिनः संयमविराधनातः परलोकः परलोकसुखमपि नास्ति, कुगतिगमनाद् दुखं स्यात्, तत्रोभयलोकाऽभावे सति स धर्मभ्रष्टो द्विधाप्यैहिकपारलौकिकसुखाऽभावेनो भगलोकसुखयुक्तान्नरान वलोक्यो भयलोक सुखाद् भ्रष्टं मां धिगिति चिंतया
For Private and Personal Use Only
भाषांतर अध्य०२०
||१२०५॥