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उचराध्य
मनवम् ॥१२०६॥
159:34ACHAR
'झिज्झई' इति क्षीयते जीणों भवति. मनसि दूयते इत्यर्थ ।। ४९ ॥ हे राजन् । जे उत्सम अर्थमा विपर्यास पामे छ तेनी नाग्न्यरुचि श्रामण्य (चारित्र)नी इच्छा निरर्थकज छे.-अर्थात्-जेनाथी ६
मापनि मोक्षरुप अर्थज उत्तम छे एवा पर्यंत समय-मरणकाळ-ना साधनरुप जिनाबाना आराधनमा जे वैपरीत्य-विपरीतभाव पामे छे, तेनी |
अम.. नग्रवादिरुचि एटले वस्त्र वगर रही क्लेश भोगववानी वांछना निरर्थक-निष्फळ समजवी. मिथ्यात्वीनुं कष्ट निष्फळज छे, वख्ते ॥१२०॥ अन्य पुरुषने तो कंइक पण फळ मळे किंतु मिथ्यात्वीने केवळ द्रव्यलिंगीने तो आ लोके नथी एटले लोच तथा ननत्व इत्यादि कष्ट सेवनथी आ लोकनु सुख नथी तेम मात्र द्रव्यलिंगी साधुनो संयम विराधना वडे परलोक पण नष्ट थतां परलोक सुरख पण नथी. कुगतिमां जबाथी दुःखज थाय छे. एम बेय लोकना अभावथी र धर्मभ्रष्ट बन्ने प्रकारे-आ लोक तथा परलोक संबंधी सुखना अभावे उभय लोकना सुखवाळा लोकोने जोईने 'अरेरे बेय लोकना सुखोथी भ्रष्ट थयेला मने धिकार छ आवी चिंताथी क्षीण थाय छे-हमेशां मनमां वाया करे छे. ।। ४९।। |एमेवहाछंदकुसीलरूवे। मग्गं विराहित जिणुत्तमाणं कुररी इवाभोगरसाणुगिद्धा निरसोया परितावमेह ।।
एबीज रीते मरजीमा आवे तेम वर्तनार कुशीलरुप-दुष्टशीळ-साधु, जिनोत्तमना मार्गनी विराधना करीने, भोगना रसमा लोलुप तथा निर्थक शोक करती कुररी-टीटोडीनी पेठे परिताप पामे ले. ५०
व्या०-एवमेवामुना प्रकारेण महाव्रतविराधनादिप्रकारेणैव यथाछंदः कुशीलरूपः स्वकीयरुचिरचिताचारः कुत्मितशीलस्वभावः साधुर्जिनोत्तमानां तीर्थकराणां मार्ग विराध्य परितापं पश्चात्तापमेति, क इव प्रामोति?
Sctica-CARKAR
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