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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अच्य०२. ११९॥ अनगारिक-घर छोडीने प्रवजित थह आउं. ३२ व्या-अहं किमवादिषं तदाह-यदि सकृदप्येकवारमप्यहं वेदनाया विमुच्ये, सदाहं क्षांतो भूत्वा, पुनातो पनपत्रात जितेंद्रियो भूत्वा निरारंभः सन्ननगारत्वं साधुत्वं प्रवजामि दीक्षां गृहामीति भावः कथंभूताया वेदनायाः ? वि॥१९९९ पुलाया विस्तीर्णायाः ॥ ३२ ।। हु शु बोल्यो ? ते कई है.-जो सकृत-एकवार पण हुंआ वेदनाथी मुक्त थाउं, तो हुक्षांत थइ तेमज दांत-जितेंद्रिय रही निरारंभ-सकळ सदोष आरंभ छोडी दइने अनगारव साधुत्व ने पामुं, अर्थात दीक्षा ग्रहण करूं, आवो भावार्थ छे. वेदना केवी ? | |PI विपुला अति विस्तीर्ण एटले सहेलाइथी जेनो अंत न आवे तेवी ।। ३ ।। ___ एवं च चिंतइत्ताणं । पसुत्तोमि नराहिवा । परिवत्तति राईए । बेयणा मे खयं गया । ३३ ।। हे नराधिप ! आम चिंतन करीने हुं ज्या सूतो अने रात्री परिवर्तनी-बीतवा आवी त्यां तो मारी वेदना श्रय पामी. ३३ व्या---एवं पूर्वोक्तं चिंतितं चिंतयित्वा हे नराधिप! यावदहं सुप्तोऽस्मि, तावत्तस्यामेव रात्रौ प्रवर्तमानायामतिक्रामत्यां मे मम वेदनाः क्षयं गताः, वेदना उपशांता इत्यर्थः, ॥ ३३ ॥ MI एवी रीते पूर्वेकडा प्रमाणे चितवन करीने, हे नराधिप ! ज्यां हजी हु सूतो त्यां तो ते रात्री जेम जेम परिवर्तती-बीतती गह तेम तेम मारी बेदना क्षय पामी वेदना उपशांत थइ गइ. ॥ ३३ ॥ तओ कल्ले पभायंमि । आपुच्छित्ताण बंधवे ॥ खंतो दतो निरारंभो । पन्चइओ अणगारियं ॥ ३४ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020858
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 05
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size7 MB
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