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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उचराध्यवन सम् ॥१२३८॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्मनियम आपो.' यति ए तो सम्यक्त्वना मूलभूत बार शतरूप धर्म तेओने उपदेश्यो क्युं छे के ते धर्म कहेबाय के जेमां दया होय अने जेनामा १८ दोष न होय ते देव, तथा गुरू तो ते कहेवाय के जे ज्ञानी होय अने आरंभ तथा परिग्रहथी विरत होय ॥ १ ॥ हवे ए दंपती श्रावक धर्म पामीने संतुष्ट धयां यतिए फरी तेओने शिक्षा दीघी के ज्यां श्राद्धी वसता होय, ज्यां यतिओनी माथे समागम थाय, ज्यां चैत्य स्थान होय अने अन्य पण ज्यां सुयोग मळे तेवा स्वाने जर्बु. | १|| देव गुरुनुं त्रिसंध्य= सवारे, बपोरे तथा सांजे-विधिपूर्वक वंदन कर तथा पुष्प वखादिकथी सर्वकाळ पूजन कर. २ ।। बळी - यथाशक्ति अपूर्व शाननुं ग्रहण कर, प्रत्याख्यान लेनुं, सारा धर्मनुं श्रवण करतुं तथा तपःस्वाध्याय अने योग सेवनां ॥ ३॥ तेमज - भोजन टापे, सुती वखते, जागीये त्यारे, घरथी बहार जती वेळाये तथा गाम जतां सर्व कार्यमां पंच नमस्कारनुं स्मरण कर ॥ ४ ॥ आवी रीते तओने शिक्षा आपीने साधु अन्यत्र विहार करी गया. आ बेब दंपति पोताने घरे मयां अने साधुना उपदेश प्रमाणे धर्मनुं अनुष्ठान करवा लाग्यां. तौ पती स्वगृहे गतौ साधूपदिष्टं धर्मानुष्ठानं कुरुतः कालक्रमेण ताभ्यां पतिधर्मः प्रतिपन्नः कालं कृत्वा धनः सौधर्मदेवलोके देवत्वेनोत्पन्नः सा स्त्री तु तस्यैव मित्रदेवत्वेनोत्पला. तत्र सुरसुखमनुभूय धनदेवजीवो वैताढये सूरतेजोराज्ञः पुत्रश्चित्रगतिनामा विद्याधरराजो जातः, धनवत्यपि कस्यचिद्राज्ञः कन्या जाता, परिणीता च चित्रणतिनैव तत्र मुनिधर्म कृत्वा 'माहिंदे घणो समाणिओ इयरो य तम्मित्तो जाओ, तत्तो चऊण घणो अवराजिओ नाम राया जाओ, सा च पिईमई तरस पत्ती. काउं समणधम्मं गयाई' द्वावपीमावारण्यकल्पे मित्रदेवो जातो, ततश्च्युतो धनदेवजीवः शंखराजा जातः, धनवतीजीवश्च तस्यैव कांता जाता. तत्र शंखराजा For Private and Personal Use Only भाषांतर | अध्य०२२ ॥१२३८॥
SR No.020858
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 05
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size7 MB
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