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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर हे पिता! में सर्वभवोने विषये एटले त्रस तथा स्थावर भवोमां पण असाता टाढ तडका क्षुधा तृषा आदिक वेदना अनुभवी माछे, जेमां क्याय निमेषांतर मात्र आंखना पलकारा जेटलो वखत पण, साता वेदना=मुखानुभवरूप वेदना नथी, तो पछी दीक्षामां उत्तराध्ययन सूत्रम् IS दुःख ? तमें मने जे सुखोचित-मुखने लायक-फेम कह्यो जाण्यो ? मेंतो सदाय दुःखज अनुभन्यु. ७५ अध्य०१९ ॥११५४॥ तं विति अम्मापियरो । छंदेण पुत्त पव्वय ।। न वरं पुण सामण्णे । दुक्खं निप्पडिकम्मया ॥ ७६ ॥ अम्मापियरो माता पिता ते मृगापुत्रने बोल्या के-पुत्र ! देन-तारी मरजी प्रमाणे प्रबज-सुखेथी प्रवज्या गृहण कर, नवरं ( विशेषता | VI सूचक अन्यय .) तने खास कहेवान ए जे-धामन्यसाधु धर्ममा निष्प्रतिकर्मता कइपण दुःसर्नु निवारण करवानी मनाए अति दुःख हे. . ___व्या०-अथ पितरौ मृगापुत्रं वृतः,हे पुत्र छंदसा स्वकीयेच्छया प्रव्रज? दीक्षां गृहाण? कस्त्वां निषेधयति नवरं शब्देनायं विशेषोऽस्ति.पुमः श्रामण्ये चारित्रे एतद् दुःखं वर्तते,यन्निःप्रतिकर्मतास्ति, रोगोत्पत्तो प्रतीकारोन विधेयः. निर्गता प्रतिकर्मता निःप्रतिकर्मता, चिकित्सा न कर्तव्या, न चिंतनीयापि, सावधवैद्यकन कारयितव्यं. हवे तेना माता पिता मृगापुत्रने कई छे-हे पुत्र! छंद-तारी पोतानी इच्छा प्रमाणे भले प्रनजदीक्षा ग्रहण कर. सने कोण निषेध करे? नवरं एटले आटलं विशेष के के श्रामण्य चारित्रमा आ एक दुःख छ जे निष्पतिकर्मता पाळबानी. अर्थात् रोगोत्पत्ति थायतो तेनो प्रतिकार औषध सेवनादिक कशुनज करायः प्रतिकर्मनु चिंतन पण न कराय. तात्पर्य एवंछे के सावधवैद्यक न करावाय.७६ सो चिंति अम्मापियरं । एवमेयं जहा फुडं । पडिक्कम को कुणई । अरण्णे मियपक्खिणं ।। ७७॥ ते मृगापुत्र माता पिताने कहे के तमे जे कामु ते यथास्फुट-जेम कहुं तेमज-सत्य है परंतु भरण्यमा मृग तथा पक्षीयोनां पतिकर्म% DRI For Private and Personal Use Only
SR No.020858
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 05
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size7 MB
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