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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जेम मृग एकलो असहाय होइने अनेकचारी थाय छ; अर्थात् अनेक प्रकारनां खावापीवानां मेळववा टेवाइ रहेलो-विविध खानपाननु ग्रहण करवामां तत्पर रहे छे, तेमज अनेक स्थानोमां वास करे छे तथा ध्रुवगोचर-निश्चयपूर्वक फरीनेज लब्ध छे आहार | भाषांतर माजे एवो होय छे, एज प्रमाणे-आ मृग दृष्टांतमां कहेला प्रकारे मुनि-साधु पण गोचरी-भिक्षाटनमां प्रविष्ट थाय त्यां क्याय अण-18 अध्य ॥११६ ग मतुं तथा नीरस कुलित अन्न मळे तो 'आ खराच छे' एम हीलना=अनादर न करे तेमज आहार के पाणी कंइपण न मळे तो ॥११३०॥ कोइ गृहस्थ अथवा गाम के नगरने खिसे नहिं मनमा रोष लावी कोइनी अवगणना नज करे. ८४ मिगचारियं चरिस्मामि ।गवं पुत्तो जहासुहं ॥ अम्मापिऊहिं अणुन्नाओ । जहाइ उवहिं तओ ।। ८५ ॥ "मग चर्या आचरीश" एम मगापुत्र का व्यारे मा बाप बोल्यां के 'हे पुत्र! भले एम तने जेम सुख उपजे तेम कर' आ प्रमाणे मावापे अनुशा आपी ते पछी तेणे उधि-परिगृहनो त्याग कयों. ८५ हा व्यायदा मृगापुत्रेण पितरौप्रतीत्युक्तं, हे पितरावहं मृगचर्या चरिष्यामि, यथा भवदने मृगचर्योक्ता, ताम गीकरिष्यामि, साधुमार्ग ग्रहीष्यामि. यदा मृगापुत्रेणेव मुक्तं तदा मातापितरौ जूतः, हे पुत्र! यद्येवं तदा यथासुरवं, 8 यथा तव सुखं स्यात, यथा भवतेऽभिरुचितं सुग्वमिति यथासुखं तथा कर्तव्यं, अस्माकमाज्ञास्ति. ततो मातापितृदूभ्यामनुज्ञातो मृगापुत्रः कुमार उपधि परिग्रहं सचित्ताचित्तरूपं परित्यजति. ।। ८५ ।। ___ ज्यारे मृगापुत्रे मावाप प्रत्ये कह्यु के-'हे माता पिता! हुं तो मृगचर्या आचरीश-अर्थात् आफ्नी आगळ में जेबी मृगनी 51 चर्या वर्णवी तेनो अंगीकार करी साधुमार्गनुं ग्रहण करीश,-ते वारे माता पिता बोल्या के-'हे पुत्र! जो एमज तारो संकल्प छ। KAROKAR For Private and Personal Use Only
SR No.020858
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 05
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size7 MB
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