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उत्तराध्ययन,सूत्रम् ॥११३२॥
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Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie उपशांतो जितकषायः, न उपशांतोऽनुपशांतस्तेन सकषायेण पुरुषेण दम इंद्रियदमोऽर्थाचारित्रं, दम एव दुस्तरत्वा| रसागर इव दमसागरस्तरितुं दुःशक्य इत्यर्थः ॥४३॥
भाषांतर हे पुत्र ! जेम रत्नाकर समुद्र भुजावडे तरवो कठीन छे तेबीज रीते अनुपशांत मनुष्ये अर्थात जेणे कपाय न जीत्या होय
IN अध्य०१९ | तेवा सकषाय पुरुषे दम एटले इन्द्रियवशीकार, अर्थात् चारित्र ए दमरूपी सागर, दुस्तर होवाथी दमने सागर कयो-ए दमरूपी 3॥११३२।। | सागर तरबो दुःशक्य छे. ४३
भुंज माणुस्सा भोए । पंचलवणए तुमं ।। भुत्तभोगी तओ जाया । पच्छा धम्म चरिस्ससि ॥४४॥
है जाया-पुत्र ! तु मनुष्य संबंधी पांच प्रकारना भोगोने भोमव, अने ते पछी भोगव्या के भोगो जेणे एवो यह धर्मनु आचरण करजे. ४४ व्या०-हे पुत्र ! मानुष्यकान, मनुष्यस्येमे मानुष्यकास्तान मानुष्यकान् मनुष्यसंबंधिनः पञ्चलक्षणान् पञ्चवि-15 धान भोगांस्त्वं भुंक्ष्याऽनुभव ? हे जात! हे पुत्र ! ततः पश्चाद भुक्तभोगीभूय धर्म यतिधर्म चरिष्यस्यंगीकरिष्यसि. PIइदानीं तब भोगानुभवसमयोऽस्तीति, न पुनर्भोगत्यागावसर इति भावः ॥४४॥
| हे पुत्र ! मानुष्यक-एटले मनुष्य संबंधी पश्च लक्षण-पांच पकारना भोगो भोगव. हे जात-पुत्र! ते पछी भोग भोगवी लइने | पछी धर्म एटले यतिधर्म आचरी शकीश-अङ्गीकार करजे. हमणां तो तारे भोगो भोगववानो अनुभव लेवानो समय छे आ टाणु | कइ भोग त्याग करवानुं नथी माटे खुब भोग भोगवो ते पछी भले श्रामण्यनो अंगीकार करजो. ४४
सो वितम्मापियरो । एवमेयं जहा फुडं ॥ इहलोएनिम्पिवासस्स । नस्थि किंचि वि दुकरं ।। ४५ ॥
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