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ANANAMIK
AANANAVARAN
MAVALANA
तीर्थ दर्शन
द्वितीय खाड
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1.
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सायम
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तीर्थ दर्शन
द्वितीय खंड
प्रकाशक : श्री जैन प्रार्थना मन्दिर ट्रस्ट (रजि) (श्री महावीर जैन कल्याण संघ प्रांगण)
चेन्नई - 600 007.
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Research - Study - Compilation
First Published in 1980 by Shree Mahaveer Jain Kalyan Sangh 96, Vepery High Road, Chennai - 600 007.
Copyright's Registered
Second Publication & Future Reprints (As authorised by Shree Mahaveer Jain Kalyan Sangh)
By Shree Jain Prarthana Mandir Trust (Regd.) 96, Vepery High Road, Chennai - 600 007.
Year 2002.
आवश्यक आवेदन
अंजनशलाकायुक्त प्रतिष्ठित प्रभु प्रतिमाओं के फोद्र प्रभु स्वरुप है, जिनमें दैविक परमाणुओं की उर्जा अवश्य रहती है। आजकल इन प्रभु प्रतिमाओं के फोटु केलेन्डर, पोस्टर, पत्रिकाओं आदि में छापे जा रहे हैं, क्या इन्हें संभालकर सही स्थान में रखना संभव है ? कब तक? आशातना से बचने हेतु इसके अंत परिणाम व अंत विसर्जन पर थोडा
अवश्य सोचें व उचित निर्णय लें।
कृपया इसमें छपे फोटुओं आदि की किसी भी प्रकार कापी न करें । आवश्यकता पर संपर्क करें ।
अवश्य सहयोग दिया जायेगा ।
-प्रकाशक
Printed at: "Srinivas Fine arts Ltd", Sivakasi - 626123. INDIA.
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सम्पादकीय - "तीर्थ-दर्शन" पावन ग्रंथ के प्रथम प्रकाशन के आमुख आदि में सम्पूर्ण विवरण दिया हुवा था उसे ज्यों का त्यों इस प्रकाशन के प्रथम खण्ड में पाठको की जानकारी हेतु छापा गया है । उसी भान्ति इस प्रकाशन की आवश्यकता आदि के बारे में भी काफी विवरण पाठकों की जानकारी हेतु इस आवृति के प्रथम खण्ड में दिया है ।
हमारे पूर्व नियमानुसार इस आवृति में 40 प्राचीन तीर्थ स्थलों को मिलाया गया जिनका इतिहास सात सौ वर्ष से पूर्व का है । मिलाये गये तीर्थ स्थलों की प्राचीनता, विशेषता आदि का विवरण तैयार करके छपवाने के पूर्व उन-उन तीर्थ स्थलों के व्यवस्थापकों को जानकारी व सुझाव हेतु भेजा गया । पश्चात् आचार्य भगवंत श्री कलापूर्णसूरीश्वरजी को भी जानकारी व ध्यान से निकालने हेतु भेजा गया था ताकि कोई, त्रुटि उनके ध्यान में आ जाय तो सुधर सके ।
पाठकों व दर्शनार्थीयो से अनुरोध है कि कृपया प्रथम खण्ड में छापी गई प्रस्तावना आदि भी अवश्य पढ़े ताकि आपको सारी जानकारी अवगत हो जाय ।
इस बार हिन्दी व गुजराती के अतिरिक्त अंग्रेजी में भी तीर्थ-दर्शन के तीनों खण्ड प्रकाशन हुवे है । ताकि विदेश में बसने वाले जैन व जेनेतर बंधुवों को भी जानकारी मिल सके जिससे उनमें भी यात्रा की उत्कंठा पैदा होकर यात्रा का लाभ मिल सके । ___ग्रंथ छपते-छपते कुछ और प्राचीन तीर्थ स्थलों का विवरण प्राप्त हुवा जहाँ का इतिहास प्राचीन है अतः अलग रखा है । कम से कम पच्चीस तीर्थ स्थलों का विवरण प्राप्त होने पर उन्हें देखकर अलग इसी भान्ति नया चौथा खण्ड निकालने की कौशीश करेंगे व अभी खरीदने वाले सभी महानुभावों को लागत आदि की इतला कर दी जायेगी ताकि उनके पास भी वह पहुँच सके ।
इस बार अग्रीम बुकिंग के समय पता लगा कि बहुत से बंधुवों ने अभी तक तीर्थ-दर्शन देखा ही नहीं न उन्हें उसकी जानकारी है । मेरी ख्याल से कम से कम पचतर प्रतिसत जैन भाई अवश्य होंगे, जिन्हे जानकारी ही नहीं अतः हमने निर्णय लिया है कि इसका ज्यादा से ज्यादा प्रचार हो ताकि आवश्यतानुसार पुनः पुनः नई आवृति छपा सकेंगे जिससे ज्यादा से ज्यादा बंधुवों को इसका लाभ मिल सके । अब नई आवृति में दिक्कत नहीं रहेगी क्योंकि अब फिल्म आदि संभालकर रखने के बहुत साधन हो गये हैं ।
इस ग्रंथ के पाठकों से विशेष अनुरोध है कि इसके प्रचार प्रसार में अपना पूर्ण सहयोग दें । आपसे तो हम यहीं चाहते है कि यह पावन ग्रंथ ज्यादा से ज्यादा महानुभावों को दिखावें व ज्यादा से ज्यादा घरों में जाने के आप भी निमित बने ताकि पुण्य के भागीदार आप भी बन सके जिसका प्रतिफल निरन्तर मिलता रहेगा । करना कराना व अनुमोदन करना इन तीनों का समान फल शास्त्रों में बताया है ।
"तीर्थ-दर्शन" मार्ग दर्शिका भी छपवाने की कोशीश में है ताकि यात्रा में वह साथ में रखने से ज्यादासुविधा रहेगी व मूल ग्रंथ खराब नहीं होगा । उसमें फोटु नहीं रहेंगे बाकी आवश्यक विवरण सारा रहेगा जिसकी लागत भी बहुत ही कम रहेगी ।
इस बार और भी ज्यादा विवरण देने की कोशीश की है । परन्तु त्रुटि भी रहना स्वाभाविक है पाठको से अनुरोध है कि कोई त्रुटि हो तो कृपया क्षमा करें व कोई सुझाव या कोई त्रुटि हो तो अवश्य हमारे ध्यान में लावें, उन पर अवश्य गौर, करके अगली आवृति में सुधारने की कोशीश करेंगे ।
अंत में प्रभु से प्रार्थना है कि यह ग्रंथ ज्यादा से ज्यादा घरों में पहुंचे व वहाँ की ज्योति बनकर पुण्योपार्जन का निरन्तर साधन बने इसी शुभ कामना के साथ.....
सम्पादक व संस्थापक मानन्द मंत्री चेन्नई, मार्च 2002
यू. पन्नालाल वैद
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अ लो सिद्धों का निवास सिखा का निवास/
दुध मोटाएक राजू
तीन लोक
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की आकृति
अरविमान
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-ऊर्य लोक
आरण
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आनत
प्राणत
महाशुक्र
सहप्रार
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सनत्कुमार
ऊर्ध्व लोक
सौधर्म
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रलप्रभा
अब्द
शर्कराप्रभा
वालुकाप्रभा
अधोलोक
पप्रभा
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धूमप्रभा
सात नरक
तम प्रभा
महातम प्रभ
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निगोद
धनोदधिवातनय Urआतलस
बीमारयोजनna
हजार गोजन मीटर वीसारमोटा
तनवातलय
सात राजू
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भाग -1
164 166 168 170 172 174
अनुक्रमणिका (नाम-विशिष्टता-पृष्ठ संख्या)
2. वारंग 3. कारकल 4. मूडबिद्री 5. श्रवणबेलगोला 6. धर्मस्थल 7. हेमकूट-रत्नकूट तमिलनाडु 1. जिनगिरि 2. विजयमंगलम 3. पोन्नूरमले 4. मुनिगिरि 5. तिरुमलै 6. जिनकांची 7. मनारगुड़ी 8. पुडल (केशरवाड़ी) केरला 1. कलिकुण्ड 2. पालुकुन्नू महाराष्ट्र 1. रामटेक 2. भद्रावती 3. अंतरिक्ष पार्श्वनाथ 4. बलसाणा 5. मांगी तुंगी 6. गजपंथा 7. पद्मपुर 8. अगासी 9. कोंकण 10. दहीगांव 11. कुंभोजगिरि 12. बाहुबली
178 180 182 184 186 188 190 192
196
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बिहार 1. क्षत्रियकुण्ड 2. ऋजुबालुका 3. सम्मेतशिखर 4. गुणायाजी 5. पावापुरी 6. कुण्डलपुर 7. राजगृही 8. काकन्दी 9. पाटलीपुत्र 10. वैशाली 11. चम्पापुरी 12. मन्दारगिरि बंगाल 1. जियागंज 2. अजीमगंज 3. कठगोला 4. महिमापुर 5. कलकत्ता उड़ीसा 1. खण्डगिरि -उदयगिरि उत्तर प्रदेश 1. चन्द्रपुरी 2. सिंहपुरी 3. भदैनी 4. भेलुपुर 5. प्रभाषगिरि 6. कौशाम्बी 7. पुरिमताल 8. रत्नपुरी 9. अयोध्या 10. श्रावस्ती 11. देवगढ़ 12. कम्पिलाजी 13. अहिच्छत्र 14. हस्तिनापुर 15. इन्द्रपुर 16. सौरीपुर 17. आगरा आन्ध प्रदेश 1. कुलपाकी 2. गुड़िवाड़ा 3. पेदमीरम् 4. अमरावती 5. गुम्मीलेरु कर्नाटका | 1. हुम्बज
214 216
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भाग - 2 राजस्थान 1. पद्मप्रभुजी 2. महावीरजी 3. रावण पार्श्वनाथ 4. अजयमेरु 5. माण्डलगढ़ 6. नागौर 7. खिंवसर 8. फलवृद्धि पार्श्वनाथ १. कापरड़ा 10. मान्डव्यपुर 11. गांगाणी 12. ओसियाँ 13. तिंवरी 14. विजयपुरपत्तन 15. जैसलमेर
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258 260 262 264 266 268 270 272 274 276 280 282 286
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16. लोद्रवपुर
17. अमरसागर
18. ब्रह्मसर
19. पोकरण
20. नाकोड़ा 21. नागेश्वर
22. चंवलेश्वर
23. चित्रकूट
24. केशरियाजी
25.
आयड़
26. डुंगरपुर
27. पुनाली 28. वटपद्र
29. राजनगर
30. करेड़ा
31. नागहृद
32. देवकुलपाटक
33. नाड़लाई
34. मुछोला महावीर
35. राणकपुर
36. नाडोल
37. वरकाणा
38. हथुण्डि
39. बालि
40. जाखोड़ा
41. कोरटा
42. खीमेल
43. पाली
44. वेलार
45. खुड़ाला 46. सेवाड़ी 47. कोलरगढ़
48. सेसली
49. राड़बर
50. उथमण
51. सांडेराव
52. सिरोही
53. गोहिली
54. मीरपुर
55. वीरवाड़ा
56. बामनवाड़ा
57. नान्दिया
58. अजारी
59. नीतोड़ा
60. लोटाणा
61. दियाणा
62. सीवेरा
63. धनारी
64. वाटेरा
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quan quan quan giai quan qua ma quai ngan
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65. झाड़ोली
66. आहोर
67.
68. लाज
69. नाणा
70. काछोली
71. कोजरा
72. पिण्डवाड़ा
73. हंडाऊद्रा
74. धवली
75. दंताणी
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354 89. अचलगढ़
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76. भाण्डवाजी
स्वर्णगिरि
77.
78. मिनमाल
79. सत्यपुर
80. किंवरली
81. कासीन्द्रा
82. देलदर
83.
डेरणा
84. मुण्डस्थल
85. जीरावला
86. वरमाण
87. मण्डार
88. ओर
90. देलवाड़ा (आबू)
पंजाब
1. सरहिन्द
2. होशियारपुर
हिमाचल प्रदेश
1. कांगडा
दिल्ली
1. इन्द्रप्रस्थ
भाग
-
गुजरात 1. कुंभारियाजी
2. प्रहलादनपुर
3. दांतपाटक
4. जूनाडीसा
5. थराद
6. ढ़ीमा
7. वाव
8. भोरोल
9. जमणपुर
10. पाटण
11. मेत्राणा
12. तारंगा
13. खेडब्रह्मा
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562 564 566
63. पावागढ़ 64. कावी 65. गंधार 66. भरुच 67. झगड़ीया 68. दर्भावती 69. बोड़ेली 70. पारोली मध्य प्रदेश 1. लक्ष्मणी 2. तालनपुर 3. बावनगजाजी 4. पावागिरी 5. सिद्धवरकूट 6. माण्डवगढ़ 7. धारानगरी 8. मोहनखेड़ा 9. भोपावर 10. अमीझरा 11. इंगलपथ 12. बिबडौद 13. सेमलिया 14. परासली 15. दशपुर 16. वही पार्श्वनाथ 17. भलवाड़ा पार्श्वनाथ 18. कुंकटेश्वर पार्श्वनाथ 19. अवन्ती पार्श्वनाथ 20. उन्हेल 21. अलौकिक पार्श्वनाथ 22. बदनावर 23. मक्षी 24. विदिशा 25. सोनागिर 26. थुवौनजी 27. अहारजी 28. पपोराजी 29. नैनागिरि 30. द्रोणगिरि 31. खजुराहो 32. कुण्डलपुर
686 688 690 692 694
568
بیا
14. वड़ाली 15. ईडर 16. देवपत्तन 17. मोटा पोसीना 18. वालम 19. मेहसाणा 20. आनन्दपुर 21. रत्नावली 22. गांभु 23. मोढेरा 24. कम्बोई 25. चाणश्मा 26. शियाणी 27. चारुप 28. भीलड़ियाजी 29. भद्रेश्वर 30. तेरा 31. जखौ 32. नलिया 33. कोठारा 34. सुथरी 35. कटारिया 36. गिरनार 37. नवानगर 38. वामस्थली 39. चन्द्रप्रभाष पाटण 40. अजाहरा 41. दीव 42. देलवाड़ा (गुजरात) 43. ऊना 44. दाठा 45. महुवा 46. तालध्वजगिरि 47. घोघा 48. कदम्बगिरि 49. हस्तगिरि 50. शत्रुजय 51. वल्लभीपुर 52. धोलका 53. शंखेश्वर 54. उपरियाला 55. वामज 56. भोयणी 57. पानसर 58. महुड़ी 59. शेरीशा 60. कर्णावती 61. मातर 62. खंभात
بیا
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570 577 580 582 585
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708 710
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730 731 734
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1 - पुरातन क्षेत्र 2 - भोजनशाला की सुविधायुक्त
चमत्कारीक क्षेत्र या मुनियों की तपोभुमि
कल्याणक भूमि 5 - पंचतीर्थी 6 - कलात्मक
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__तीर्थ - 'दर्शन'
पावन गंध का उपयोग एवं प्रतिफल इस पावन ग्रंथ में सभी तीर्थाधिराज जिनेश्वर भगवंतों की अंजनशलाका युक्त प्रतिष्ठित प्रतिमाओं के मूल फोटु रहने के कारण यह ग्रंथ शुभ दें विक परमाणुओं की उर्जा से ओत प्रोत । जिसे हमेशा, र समय ध्यान में रखते हुर निम्न प्रकार उपयोग में लें। 1. उस पावन ग्रंथ को जिनेश्वर देवों का स्वरूप ही. समझकर
अच्छे से अच्छे उच्च, शुद्ध, साफ क पवित्र स्थान में ही रखें जिससे वहाँ के परभाओं में शुहता व निर्मलता अवश्य रहेगी व शांति की अनुभुति होगी। २. पुति दिन अगर बन सके तो सामाधिक ग्रहण करके कम से कम
48 मिनर दर्शनार्थ उपयोग में हमें जिससे सामायिक लाभ के साथ चित्र प्रभु में एकाग्र होने के कारण पुन्योपार्जन व निर्जरा
का लाभ निरंतर मिलता रहेगा) 3. प्रतिदिन कम से कम एक तीर्य का इतिष अवश्य पटें व दूसरों
को पढ़ने की प्रेरणा देवें जिससे सबको यात्रार्थ जाने की भावना जागृत होगी व वहां जाने से विषेश आनंद की अनु सुति होगी
जो पुग्यो पार्जन का साधन होगा। 4. कृप्या झूठे मुंह, गंदे तथों व -वस्पल आदी पहनकर इस पावन
ध का उपयोग न करें और नहीं इसे आतित्र जगह रखें ताकि पाप कर्म म आशातना से बच सके। 5. हमेशा दर्शन स्वाध्याय करने से शनै: शनैः दैविक परमाणुओं
में वृट्टी होयी जो सुख समृट्टि का कारण बने गा ।
यह तीर्थ दर्शन -ग्रंथ है जिसके माध्यम से हमें घर बैठे ही मानस यात्रा - भाव यात्रा करने का लाभ प्राप्त होता है। भूतिकी तरह चित्र भी शुभ भाव जगाने में कामयाब होते है। इस दृष्टि से उस ग्रंथ का उपयोग आत्मा के लिये हितकर रहेगा।
परमात्मा के प्रति जो भक्ति भाव हमारे हृदय में प्रदिप्त होंगे वह हमें आत्मिक वसन्ता एवं आतिभक उन्नति की और ले जायेंगे, यह निशिचत बात है। लिलामरिकाल
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കാങ്കം
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राजस्थान
398 400
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416
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420
280
422
282
424 426
1. पद्मप्रभुजी 2. महावीरजी 3. रावण पार्श्वनाथ 4. अजयमेरु 5. माण्डलगढ़ 6. नागौर 7. खिंवसर 8. फलवृद्धि पार्श्वनाथ 9. कापरड़ा 10. मान्डव्यपुर 11. गांगाणी 12. ओसियाँ 13. तिंवरी 14. विजयपुरपत्तन 15. जैसलमेर 16. लोद्रवपुर 17. अमरसागर 18. ब्रह्मसर 19. पोकरण 20. नाकोड़ा 21. नागेश्वर 22. चंवलेश्वर 23. चित्रकूट 24. केशरियाजी 25. आयड़ 26. डुंगरपुर 27. पुनाली 28. वटपद्र 29. राजनगर 30. करेड़ा
286 290 296
31. नागहृद 32. देवकुलपाटक 33. नाड़लाई 34. मुछाला महावीर 35. राणकपुर 36. नाडोल 37. वरकाणा 38. हथुण्डि 39. बालि 40. जाखोड़ा 41. कोरटा 42. खीमेल 43. पाली 44. वेलार 45. खुडाला 46. सेवाड़ी 47. कोलरगढ़ 48. सेसली 49. राड़बर 50. उथमण 51. सांडेराव 52. सिरोही 53. गोहिली 54. मीरपुर 55. वीरवाड़ा 56. बामनवाड़ा 57. नान्दिया 58. अजारी 59. नीतोड़ा 60. लोटाणा
330 332 334 338 340 346 348 350 352 354 356 358 360 362 364 366 368 370 372 374 376 378 380 382 384 386 389 392 394 396
61. दियाणा 62. सीवेरा 63. धनारी 54. वाटेरा 65. झाड़ोली 66. आहोर 67. सियाणा 68. लाज 69. नाणा 70. काछोली 71. कोजरा 72. पिण्डवाड़ा 73. हंडाऊद्रा 74. धवली 75. दंताणी 76. भाण्डवाजी 77. स्वर्णगिरि 78. भिनमाल 79. सत्यपुर 80. किंवरली 81. कासीन्द्रा 82. देलदर 83. डेरणा 84. मुण्डस्थल 85. जीरावला 86. वरमाण 87. मण्डार 88. ओर 89. अचलगढ़ 90. देलवाड़ा (आबू)
428
298
430 433 436
438
440 442
444
300 302 306 308 310 314 318 320 322 324 326 328
446 448 452
454
456
458 462
250
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RAJASTHAN
JAIN PILGRIM CENTRES
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Note: For route maps of other centers refer
page Nos. 252, 253, 255, 258, 261, 262, 267, 298, 301, 307, 327 & 428
JAIN PILGRIM CENTRES
STATE CAPITAL • DISTRICT HEADQUARTERS
DISTRICT BOUNDARIES
32
Kama
31 Gaigi
Eklingia chirwa
Arnoda
Tarawar
Bhindaro
Boheda
Satola
Lunda
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Nathdwara Banoria Goani
Kapasan
CHITTAURGARH Sunwaro
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Ghatiaoli Gurachy Mav
Kanaui Delwara Changeri
Sawa Bhadura
Sangesa Vallabhnagar Ointah
Bhadesar Thur 25 - Bedia L
64 Vano Chikara Nimbahera Kelio
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Mangarwar Nai 6 u de Sagar
1 CHITTAURGARH Wayagaon R . Dungla. . Semlia
Bano bobardhan Vilas Lakawas Kotra
Mandakia Korabar
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Chhoti Sadri Kherio Bagpura
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Dhebar Lake Madri Serro Parsad
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Saripiplio Barawarda Papalwara_Chawand
Singautakhera 24 Salumbar Bedawał Ki Pal Pipla
Dhamotar Babalwara Rikhabdey
Dhariawad 37 Beolia
j Pratapgarh Jaitara Shabrapa
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251
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RAJASTHAN (PALI).
JAIN PILGRIM CENTRES
JAIN PILGRIM CENTRES
GANGANAGAR
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Bhaonta JAIN PILGRIM CENTRES BANSWARA STATE CAPITAL
Ras,
O Jettand • DISTRICT HEADQUARTERS
Khejarla DISTRICT BOUNDARIES
Lototi
Babna Lumana Manga Saitaran Garnia Nima
Kharwa Nes Bilara Kushalpura Baranthia Khurd i Bandar
Bar Kankani
Masud Atbara deol Hainut Chandawal
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Kalaliaj /Jawaa S Path Khama Sojat Bagawase
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Asir Marwan Hemawas
Todgarh Bhim Samelia
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Khinwara Surha Andla Sankhwali
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33
Narlai, Samanth Amet Harji Sandera
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Agria Ghanerao. 34 Garbor
10 Manadar
Jhilwara (Korta do 40 /Bali 3947 Sadri Kumbhalga
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Ranakpur
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RAJASTHAN (SIROHI)
JAIN PILGRIM CENTRES
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JAIN PILGRIM CENTRES STATI CAPITAL DISTRICT HEADQUARTERS DISTRICT BOUNDARIES
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Bikarni Mandar Bhatana
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श्री पद्मप्रभुजी तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री पद्मप्रभ भगवान, पद्मासनस्थ, गुलाबी वर्ण, कमल के फूल पर सुशोभित लगभग 67 सें. मी. (दि. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल छोटे से बाड़ा गाँव के बाहर ।
प्राचीनता ® इस गाँव का इतिहास प्राचीन नहीं है । परन्तु यह अलौकिक व चमत्कारिक प्राचीन प्रभु-प्रतिमा यहाँ भूगर्भ से प्रकट होने के कारण इस क्षेत्र का इतिहास भी प्राचीन माना जा सकता है । क्योंकि यह स्पष्ट होता है कि किसी समय यहाँ मन्दिर रहे होंगे । वि. सं. 2001 वैशाख शुक्ला पंचमी के शुभ प्रातः के समय किसान परिवार के दो भाग्यवान माता व पुत्र को अपने खेत में खोदते वक्त इस प्रतिमा के दर्शन हुए । किसान-परिवार फूला न समाया व अपने आप को धन्य समझने लगा । नजदीक के चबूतरे पर छोटे से मन्दिर का रूप देकर प्रतिमा वहाँ विराजित की गयी, जहाँ 18 वर्षों तक रही । तत्पश्चात् वि. सं. 2019 में इस भव्य व विशाल मन्दिर में प्रतिष्ठत किया गया । प्रतिष्ठा-महोत्सव पर राजस्थान के राज्यपाल श्री सरदार हुकुमसिंहजी भी उपस्थित थे।
विशिष्टता * प्रभु-प्रतिमा अति ही चमत्कारिक है । जब से यह प्रतिमा प्रकट हुई उसी दिन से यात्रियों की अत्यन्त भीड़ आने लगी । अनेकों की मान्यता थी कि यहाँ आने पर भूत-प्रेतों से कष्ट सहनेवाले भक्तगण बिना उपचार छुटकारा पाते हैं । यह वृत्तान्त दिन-प्रतिदिन फैलने लगा व इस व्याधि से पीड़ित व अन्य लोग दिन-प्रति दिन ज्यादा संख्या में आने लगे । अभी भी हमेशा अनेकों भक्तगण आते रहते हैं व अपना मनोरथ पूर्ण करते हैं । आज तक अनेकों ने इस उपद्रव से छुटकारा पाया है । यहाँ के मन्दिर की बनावट व मन्दिर के हद की विशालता शायद भारत में बेजोड़ है । इस ढंग का निर्मित मन्दिर अन्यत्र नहीं है ।
अन्य मन्दिर ® जहाँ प्रतिमा प्रकट हुई थी, वहाँ छतरी बनी हुई है, जहाँ यह प्रतिमा 18 वर्ष रही वहाँ . चबूतरा अभी भी कायम है व दूसरी प्रतिमा विराजित की हुई है ।
दिगम्बर जैन मंदिर श्रीपाप्रमजी।
श्री पद्मप्रभ भगवान-पद्मपुरा
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सुविधाएँ * ठहरने के लिए सर्वसुविधायुक्त विशाल दिगम्बर धर्मशाला है जहाँ भोजनशाला सहित सारी सुविधाएँ उपलब्ध है ।
पेढी श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र पद्मपरा पोस्ट : पद्मपुरा (बाड़ा) - 303 903. जिला : जयपुर, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 01429-7225, 7210.
कला और सौन्दर्य कमल के फूल पर विराजित प्राचीन इस ढंग की पद्मप्रभ भगवान की प्रतिमा के दर्शन अन्यत्र दुर्लभ हैं । मन्दिर की निर्मित कला बिलकल अनूठे ढ़ग की है, जो अति ही दर्शनीय है । अन्दर गोल आकार का विशाल सभामण्डप भी अन्यत्र देखने नहीं मिलेगा ।
मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन जयपुर-सवाई माधोपुर ब्राँच लाईन पर शिवदासपुरा 5 कि. मी. दूर है । यह स्थल जयपुर-कोटा ब्राड गेज रेल्वे लाइन व N.H. 12 पर है । शिवदासपुरा (पद्मपुरा) स्टेशन से बस की सुविधा हैं । यहाँ जयपुर-टोंक मुख्य सड़क मार्ग पर शिवदासपुरा होकर आना पड़ता है । जयपुर यहाँ से 34 कि. मी. व शिवदासपुरा 5 कि. मी. दूर है । मन्दिर तक पक्की सड़क है । आखिर तक कार व बस जा सकती है ।
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श्री पद्मप्रभ जिनालय-पत्रपुरा
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रही थी । चमार द्वारा जाँच करने पर पता चला कि श्री महावीरजी तीर्थ
गाय निकट के एक टीले पर जाकर खड़ी होती है वहीं
सारा दूध झर जाता है । चमार ने गाय को वहाँ जाने तीर्थाधिराज श्री महावीर भगवान, ताम्र वर्ण, से रोकना चाहा लेकिन गाय नहीं रुक रही थी । चमार पद्मासनस्थ ।
के दिल में अनेकों प्रकार की शंकाएँ होने लगीं। कुछ तीर्थ स्थल श्री महावीरजी (चान्दनपुर) गाँव के
पता नहीं लग सका । आखिर टीले को खोदना शुरु गंभीर नदी के तट पर ।
किया, खोदते-खोदते प्रभु-प्रतिमा दृष्टिगोचर हुई । प्राचीनता * यह प्रतिमा सत्रहवीं से उन्नीसवीं
___ चमार ने भाव भक्ती के साथ सावधानी पूर्वक प्रकट हुई शताब्दी के बीच काल में इस मन्दिर के निकट एक
प्रतिमा को बाहर विराजमान किया । भाग्यवान चमार टीले पर भूगर्भ से प्राप्त हुई मानी जाती है । प्रतिमाजी
अपने को कृतार्थ समझने लगा । भगवान की प्रतिमा अति ही प्राचीन, शान्त, सुन्दर व प्रभावशाली है ।
प्रकट हुई का वृत्तान्त चारों तरफ फैलने लगा व दूर-दूर
से भक्त जनों की भीड़ उमड़ पड़ी । दर्शन मात्र से प्रतिमा-भूगर्भ से प्रकट होने पर भव्य मन्दिर का
भक्तजनों की मनोकामनाएं पूर्ण होती रहीं, जिससे निर्माण हुआ व प्रतिष्ठित की गयी ।
दिन-प्रतिदिन भक्तजनों का आवागमन बढ़ने लगा । विशिष्टता भगवान श्री महावीर की यह
भव्य मन्दिर का निर्माण करवाकर प्रतिमाजी को प्राचीन प्रतिमा चमत्कारी घटनाओं के साथ प्रकट हुई।
प्रतिष्ठित किया गया । अभी भी हमेशा यात्रियों का थी । कहा जाता है एक चमार की गाय दूध नहीं दे
आवागमन रहता है । भक्तजनों के कथनानुसार यहाँ
श्री वीरप्रभु जिनालय-महावीरजी
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आने से उन्हें अपार शान्ति का अनुभव होता है व मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं । वार्षिक मेला चैत्र शुक्ला त्रयोदशी से वैशाख कृष्ण प्रतिपदा तक रहता है । इस अवसर पर लाखों की संख्या में जैन एवं जैनेतर भक्तजन, मीणे, गुजर एवं जाट आदि आकर भगवान को अपनी श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं । __यहाँ के अतिशय से प्रभावित होकर जयपुर राज्य के नरेशों ने प्रभु की पूजा, दीप, धूप आदि खर्च के लिए आलमगीरपुर-नौरंगाबाद गाँव अर्पण किया था-ऐसा उल्लेख है ।
अन्य मन्दिर इसके अतिरिक्त चार और दि. मन्दिर है । प्रभु-प्रतिमा भूगर्भ से जहाँ प्रकट हुई थी, उस स्थान पर एक छत्री में प्रभु के चरण स्थापित हैं।
कला और सौन्दर्य मन्दिर की निर्माण शैली अति ही रोचक है । मन्दिर के शिखर समूहों का दृश्य दूर से ही दिव्य नगरी सा प्रतीत होता है । . .
मार्ग दर्शन ® यहाँ से रेल्वे स्टेशन श्री महावीरजी 7 कि. मी. दूर है । जहाँ बस व टेक्सी की सुविधा है। बम्बई-दिल्ली मार्ग पर गँगापुर व हिन्डोन के बीच महावीरजी रेल्वे स्टेशन है । दिल्ली से महावीरजी 305 कि. मी. जयपुर व आगरा से 175 कि. मी. दूर है।
श्री महावीर भगवान-महावीरजी जयपुर, अजमेर व फिरोजाबाद से सीधी बसें है। जयपुर से महुवा, हिन्डोन, खेड़ा होकर महावीरजी आया जाता है । राजपथ संख्या 11 पर स्थित महुवा
सुविधाएँ ठहरने के लिए मन्दिर के चारों तरफ गाँव यहाँ से 60 कि. मी. है ।
6 धर्मशालाएँ हैं । सैकड़ों कमरे है । जहाँ पर भोजनशाला सहित सारी सुविधाएँ उपलब्ध हैं ।
पेढ़ी श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, श्री महावीरजी पोस्ट : महावीरजी - 322 220. जिला : करौली, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 07469-24323, 24339, 24577. फेक्स : 07469-24323.
वीर प्रभु चरण स्थल
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श्री रावण पार्श्वनाथ तीर्थ
जहाँ पर जिनेश्वर भगवान के परम भक्त अतीव श्रद्धावान आगामी चौवीसी में तीर्थंकर पद प्राप्त करनेवाले
लंकापति श्री रावण व मंदोदरी द्वारा श्री पार्श्वप्रभु की तीर्थाधिराज * श्री रावण पार्श्वनाथ भगवान,
अलौकिक प्रतिमा यहाँ निर्मित हुई व मन्दिर में प्राचीन परिकरयुक्त श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 35
प्रतिष्ठित होकर श्री रावण पार्श्वनाथ के नाम तीर्थ सें. मी. प्रतिमा मात्र (श्वे. मन्दिर) ।
विख्यात हुवा । तीर्थ स्थल अलवर शहर के बीरबल मोहल्ले में।
अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त एक प्राचीनता * यहाँ की प्राचीनता बीसवें तीर्थंकर
मन्दिर व एक दादावाड़ी हैं ।। श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान के समय की मानी जाती है।
__ कला और सौन्दर्य * मन्दिर में विराजित
श्री रावण पार्श्वनाथ भगवान के सिवाय अन्य प्राचीन लंकापति श्री रावण व मंदोदरी द्वारा अपनी सेवा-पूजा
प्रतिमाएं भी कलात्मक, भावात्मक व दर्शनीय है । हेतु कई बार कई जगहों पर जिनेश्वर भगवान की प्रतिमा बनाकर पूजा करने का उल्लेख कई जगह आता
उक्त उल्लेखित निकट के प्राचीन मन्दिर के खण्डहर
अवशेषों की कला भी दर्शनीय है । यहाँ पर भी एक उल्लेखानुसार कहा जाता है कि
मार्ग दर्शन के यहाँ का अलवर रेल्वे स्टेशन व श्री रावण व मंदोदरी विमान द्वारा कहीं जा रहे थे ।
बस स्टेण्ड मन्दिर से लगभग 7 कि. मी. दूर है, रास्ते में अलवर के निकट विश्राम हेतु ठहरे । भोजन
मन्दिर तक बस व कार जा सकती है । शहर में सभी के पूर्व पूजा करना उनका नियम था । संयोगवश प्रभु
तरह की सवारी का साधन है। प्रतिमाजी साथ लाना भूल गये थे अतः मंदोदरी ने यहीं यहाँ से जयपुर 151 कि. मी. दिल्ली 165 कि. मी. पर बालु से प्रतिमा बनाकर भक्ति भाव से पूजा की थी मथुरा 110 कि. मी. व भरतपुर लगभग 110 कि. वही प्रतिमा श्री रावण पार्श्वनाथ नाम से विख्यात हुई। मी. दूर है । इन सभी स्थानों से बस, रेल्वे व टेक्सी जो यहाँ विद्यमान है । इसी कारण यह तीर्थ श्री रावण का साधन है । पार्श्वनाथ के नाम विख्यात हुवा ।
___ नजदीक के हवाई अड्डे दिल्ली, जयपुर व आगरा हैं। _ विक्रम सं. 1449 में यहाँ पर श्री रावण पार्श्वनाथ सुविधाएँ * ठहरने के लिए मन्दिर के निकट ही मन्दिर रहने का उल्लेख है । तत्पश्चात् भी अलग-अलग बीरबल मोहल्ले में जैन धर्मशाला है जहाँ बिजली, तीर्थ मालाओं में यहाँ के श्री रावण पार्श्वनाथ मन्दिर पानी, बर्तन व ओढ़ने-विछाने के वस्त्रों की सुविधा है। का उल्लेख आता है । इनसे यहाँ की प्राचीनता सिद्ध भोजनशाला प्रारंभ होने वाली है । होती है ।
पेढ़ी श्री रावण पार्श्वनाथ जैन श्वे. मन्दिर, वि. सं. 1645 में मन्दिर का पुनः निर्माण करवाकर श्री जैन श्वे. मूर्तिपूजक मन्दिर ट्रस्ट, श्री रावण पार्श्वनाथ भगवान की प्राचीन प्रतिमा प्रतिष्ठित बीरबल का मोहल्ला । करवाने का उल्लेख है । जो अभी विद्यमान है । पोस्ट : अलवर - 301 001. (राजस्थान),
यहाँ से लगभग 4 कि. मी. दूर एक जैन मन्दिर फोन : पी.पी. 0144-700760, खण्डहर अवस्था में अभी भी विद्यमान है उसे रावण
341228, 334362. देहरा (श्री रावण पार्श्वनाथ जैन मन्दिर) कहते हैं । संभवतः किसी राजकीय, धार्मिक या सामाजिक कारण
MES से स्थान का परिवर्तन करना आवश्यक हो गया हो ।
ALWARSoundgarh Di कुछ भी हो उक्त वर्णणों से इस तीर्थ की प्राचीनता सिद्ध होती है ।
Portatgan Tony Rajgarh, Michel Jon Samu Gore Nad विशिष्टता यह तीर्थ स्थल प्राचीन होने के साथ-साथ एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल भी है,
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श्री रावण पार्श्वनाथ भगवान
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श्री अजयमेरु तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री संभवनाथ भगवान, पद्मासनस्थ ( श्वे. मन्दिर ) ।
तीर्थ स्थल अजमेर शहर के लाखन कोटड़ी में । प्राचीनता आज का अजमेर शहर पूर्वकाल में अजयमेरु के नाम विख्यात था ।
महाराजा अजयदेव द्वारा बारहवीं सदी में यह शहर बसाने का उल्लेख है । पहिले किला बनाकर पश्चात् शहर बसाया अतः इसका नाम अजयमेरु दुर्ग रखा था।
शहर बसाते वक्त प्रारंभ से ही कुछ जैन श्रेष्ठीगण अवश्य साथ रहे होंगे व कुछ मन्दिरों का भी निर्माण हुवा होगा अन्यथा प. पू. युग प्रधान भट्टारक शिरोमणी दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरीश्वरजी म. सा. का शहर बसने के कुछ ही वर्ष पश्चात् यहाँ पदार्पण संभव नहीं होता ।
विक्रम की तेरहवीं सदी के प्रारंभ में युगप्रधान दादागुरुदेव श्री जिनदत्तसूरीश्वरजी का यहाँ पदार्पण हुवा उस समय यहाँ के राजा अजयदेव के पुत्र राजा श्री अर्णोराज थे । गुरुदेव के उपदेश से राजा अर्णोराज प्रभावित हुए और गुरुदेव को हमेशा के लिये यहीं पर रहने हेतु विनती की । जैन संतों का एक जगह रहना सवाल ही नहीं उठता अतः गुरुदेव ने कहा कि आता-जाता रहूँगा । राजा अर्णोराज ने दक्षिण दिशा में पहाड़ की तलहटी में उपयुक्त जगह श्रावकों के निवास व मन्दिरों के निर्माण हेतु प्रदान की । संभवतः उस समय भी कुछ मन्दिरों का निर्माण हुवा ही होगा ।
दुर्भाग्यवश उसी दरमियान वि. सं. 1211 आषाढ़ शुक्ला ऐकादशी के दिन दादागुरुदेव का यहाँ देवलोक हो जाने पर महाराजा अर्णोराज द्वारा गुरुदेव के दाह संस्कार हेतु उपयुक्त जगह अजमेर के पूर्व दिशा में मदार पहाड़ के पास प्रतापी नरेश श्री वीसलदेव द्वारा निर्मित "वीसला पाल" (सागर की पाल) के ऊँचे स्थान पर प्रदान की गई । उसी स्थान पर अंतिम संस्कार हुवा ।
दादा गुरुदेव के दाह संस्कार के स्थल पर छत्री का निर्माण करवाया गया जिसे वि. सं. 1221 में दादागुरुदेव के पट्टधर मणीधारी दादा जिनचन्द्रसूरीश्वरजी
260
ने संस्थापित किया । तदपश्चात् स्थानीय गुरुभक्तों द्वारा छत्री को अभिनव नयनाभिराम रूप में परिणित करके दादागुरुदेव के पट्टधर विद्याशिरोमणी आचार्य भगवंत श्री जिनपतिसूरीश्वरजी के सुहस्ते वि. सं. 1235 में प्रतिष्ठा करवाने का उल्लेख है ।
वि. सं. 1221 में यहाँ पर श्री महावीर भगवान का विशाल मन्दिर रहने का उल्लेख है। कर्नल टॉड ने अढ़ाई दिन के झुपड़े के नाम से विख्यात विशाल - कलात्मक जैन मन्दिर यहाँ के किले के पश्चिम तरफ रहने का उल्लेख किया है । संभवतः उसके पश्चात् भी कई मन्दिर बने होंगे ।
कालक्रम से कई जगह मन्दिरों को क्षति पहुँची उसी भान्ति यहाँ भी क्षति पहुँची हो, आज उन प्राचीन जिन मन्दिरों के सिर्फ कुछ भग्नावशेष इधर-उधर नजर आ है ।
वर्तमान में स्थित पूजित मन्दिरों में यहाँ श्वेताम्बर मन्दिरों में श्री संभवनाथ भगवान का मन्दिर प्राचीनतम माना जाता हैं । विशिष्टता यहाँ का गौरवमयी इतिहास ही यहाँ की विशेषता है । जैन धर्म के प्रतिभा सम्पन्न युगप्रधान भट्टारक शिरोमणी आचार्य भगवंत बड़े दादाजी के नाम जग - विख्यात एक लाख तीस हजार नूतन जैन बनाकर ओशवंश में सम्मलित करनेवाले महाप्रभाविक दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरीश्वरजी का अन्तिम संस्कार स्थल रहने के कारण यहाँ की मुख्य विशेषता है । यहीं • दादा गुरुदेव देवलोक सिधारे व वि. सं. 1211 आषाढ़ शुक्ला ऐकादशी के दिन इसी स्थान पर अंतिम संस्कार हुवा, जहाँ पर दादा गुरुदेव के पट्टधर महान तेजस्वी मणीधारी श्री जिनचन्द्रसूरिजी की निश्रा में स्तूप का संस्थापन किया गया । वि. सं. 1235 में दादागुरुदेव के पट्टधारी विद्याशिरोमणी श्री जिनपतिसूरिजी महाराज जब अजमेर पधारे तब उनकी निश्रा में गुरुभक्त श्रावकों ने स्तूप को अभिनव नयनाभिराम रूप में परिणित कर प्रतिष्ठा करवाई जो आज भी विद्यमान है। गत लगभग आठ शताब्दियों में कालक्रम से जगह-जगह अनेकों मन्दिरों आदि को क्षति पहुँची परन्तु यह पवित्र स्थान प्रभु कृपा से आज भी सुरक्षित है, यह भी एक महान विशेषता है ।
जगह-जगह से जैन-जैनेतर हमेशा दर्शनार्थ आते रहते है ।
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कहा जाता है कि अजमेर के संस्थापक राजा अजयपाल के पुत्र राजा अर्णोराज का परिवार श्री दादा गुरुदेव के उपदेश से प्रभावित होकर जैन धर्म के अनुयायी बनकर ओशवंश में मिला था ।
आज भी जगह-जगह से जैन-जैनेतर हमेशा दर्शनार्थ आते रहते हैं । आज भी दादागुरुदेव चमत्कारिक है व श्रद्धालु भक्तजनों की मनोकामनाएँ पूर्ण करते है।
प्रतिवर्ष आषाढ़ शुक्ला ऐकादशी को वार्षिक मेले का आयोजन दादावाड़ी में होता है ।
अन्य मन्दिर इस मन्दिर के अतिरिक्त और 4 श्वे. मन्दिर एवं 8 दि. मन्दिर व उपरोक्त वर्णित एक दादावाड़ी है । __ कला और सौन्दर्य यहाँ के प्राचीन कलात्मक मन्दिरों का उल्लेख मिलता है परन्तु आज उन कलात्मक मन्दिरों के अवशेष जीर्णशीर्ण हालत में जहाँ-तहाँ दृष्ठी । गोचर होते हैं । दि. सोनी मन्दिर अतीव दर्शनीय है। यहाँ के म्यूजीयम में भी प्राचीन कलात्मक जैन प्रतिमाएँ व अवशेष दर्शनीय हैं । अजमेर के निकट खड़ली, हर्षपुर, पुष्कर आदि गांवों में भी प्राचीन कलात्मक अवशेष एवं शिलालेख पाये जाते है, जो इस क्षेत्र की प्राचीनता को सिद्ध करते है ।
मार्ग दर्शन यहाँ का रेल्वे स्टेशन अजमेर जंक्शन मन्दिर से सिर्फ 3 कि. मी. दूर है । शहर में सभी तरह की सवारी का साधन है । कार व बस मन्दिर तक जा सकती है ।
यहाँ से जयपुर 135 कि. मी., दिल्ली 375 कि. मी., जोधपुर 210 कि. मी., मेडता रोड़ 100 कि. मी. आगरा 280 कि. मी., व राजनगर 225 कि. मी. दूर है । हर स्थान पर सभी तरह की सवारी का साधन है। नजदीक का हवाई अड्डा जयपुर है ।
@ ठहरने के लिये दादावाड़ी विनयनगर में सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला है, जहाँ भोजनशाला की सुविधा भी उपलब्ध है ।
पेढ़ी श्री संभवनाथ भगवान मन्दिर, प्रबंध समिति : श्री जैन श्वे. श्री संघ लाखन कोटड़ी, पोस्ट : अजमेर - 305001. (राजस्थान), फोन : 0145-429461 (संभवनाथ मन्दिर),
0145-423530 (दादावाड़ी) ।
श्री संभवनाथ भगवान-अजयमेरु
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श्री मांडलगढ़ तीर्थ
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तीर्थाधिराज श्री आदीश्वर भगवान, बादामी वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 70 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल मांडलगढ़ किले में ।
प्राचीनता 8 मेवाड़ के अन्तर्गत मांडलगढ़ किले में इस मन्दिर का निर्माण किसने व कब करवाया उसके अनुसंधान की आवश्यकता है । संभवतः किले के निर्माण के समय ही हुवा हो जैसा कि प्रायः सभी जगह पाया जाता है क्योंकि हर जगह राजधानी बसाने में राजाओं को जैन श्रेष्ठीगणों का साथ व सहकार रहा है उसी भान्ति यहाँ भी हुवा हो ।
मन्दिर व प्रभु प्रतिमा की कलाकृति से पता लगता है कि इसका निर्माण लगभग नवमीं शताब्दी में हुवा होगा । पश्चात् कई बार जीर्णोद्धार भी अवश्य हुवे होंगे, परन्तु उनका कोई उल्लेख नहीं मिल रहा है ।
विशिष्टता है यहाँ की प्राचीनता की विशेषता के साथ-साथ मेवाड़ के अन्तर्गत भीलवाड़ा जिले का यह एक मुख्य प्राचीन तीर्थ स्थल रहने के कारण इसे मेवाड़ी श@जय कहते हैं । यह यहाँ की मुख्य विशेषता है।
अन्य मन्दिर इसके निकट भगवान पार्श्वनाथ मन्दिर के नाम विख्यात एक और मन्दिर है,परन्तु इस मन्दिर में वर्तमान मूलनायक श्री महावीर भगवान है। संभवतः किसी समय कोई कारणवश प्रतिमा बदली गई हो । परन्तु इस मन्दिर हेतु मेवाड़ राज्य सरकार द्वारा अर्पित भूमि श्री पार्श्वनाथ भगवान के नाम पर है । इनके अतिरिक्त एक दिगम्बर जैन मन्दिर भी है ।
कला और सौन्दर्य ॐ चित्तौडगढ़ किले की भान्ति यह स्थान भी समुद्र की संतह से 1856 फीट की ऊँचाई पर है । इस किले का घेराव लगभग 4 मील का है व तीन तरफ तीन तालाबों से घिरा हुवा प्राकृतिक सौन्दर्य से भरा एक आरोग्यधामसा है । मन्दिर के पीछे लगभग 12 कि. मी. पर दो प्रख्यात जलाशय, सागर व सागरी के नाम विख्यात हैं । अकाल में भी पानी का अभाव नहीं रहता । इसीके पास तीन नदियाँ, बनास-बडेच-मेनाल का त्रीवेणी संगम होता है जो मनमोहक है ।
श्री आदीश्वर भगवान-मांडलगढ़
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प्रभु प्रतिमा भी प्राचीन अत्यन्त, चमत्कारिक बादामी वर्ण में शिखरबंध मन्दिर में विराजित अतीव सुन्दर व शोभायमान है । मन्दिर में कुल आठ प्राचीन प्रतिमाएँ विराजमान है जो दर्शनीय हैं । निकट के मन्दिर में विराजित श्री महावीर प्रभु की प्रतिमा भी प्राचीन, कलात्मक व मनमोहक है ।
मार्ग दर्शन यहाँ का रेल्वे स्टेशन मांडलगढ़ है । जो मन्दिर से लगभग 212 कि. मी. दूर है । मांडलगढ़, आगराफोर्ट- नीमच बड़ीलाहन पर स्थित है । किले में मन्दिर तक सड़क है । जहाँ तक जीप, आटो व कार जा सकती है । बस स्टेण्ड लगभग 2 कि. मी. दूर है। गांव में आटो व टेक्सी का साधन है। नजदीक का हवाई अड्डा जयपुर 260 कि. मी. व उदयपुर 225 कि. मी. है ।
सुविधाएँ ठहरने के लिये जैन उपाश्रय हैं, जहाँ ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र व बिजली, पानी की सुविधा है। भोजनशाला वर्तमान में नहीं है ।
पेढ़ी शेठ आनन्दजी मंगलजी की पेढ़ी, श्री आदिनाथ भगवान जैन श्वे. मन्दिर, पोस्ट : किला-मांडलगढ़ - 311604. जिला भीलवाड़ा ( राजस्थान),
फोन : 01489-30169 (पढ़ी)
प्राचीन मन्दिर दृश्य-मांडलगढ़
श्री महावीर स्वामी-मांडलगढ़
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श्री नागौर तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री आदिनाथ भगवान, पद्मासनस्थ (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल नागौर गाँव में सिंघवियों की पोल के पास ।
प्राचीनता ® प्राचीन ग्रन्थों में इसका नाम नागपुर रहने का उल्लेख है । किसी समय यह जैन-धर्म का मुख्य केन्द्र था । कण्हमुनि के शिष्य आचार्य श्री जयसिंहसूरीजी द्वारा रचित "धर्मोपदेशमाला" में विक्रम की नवमी सदी में अनेकों जिन मन्दिर यहाँ रहने का उल्लेख है । श्री कण्हमुनि द्वारा सं.919 में श्री महावीर भगवान के मन्दिर की प्रतिष्ठापना करवाने का उल्लेख है ।
विक्रम की सत्रहवीं सदी में आचार्य श्री विशालसुन्दरसूरीश्वरजी के शिष्य द्वारा रचित "नागौरचेत्यपरिपाटी” में यहाँ सात मन्दिर रहने का उल्लेख है । वर्तमान में स्थित मन्दिरों में विक्रम सं. 1515 में निर्माणित श्री शान्तिनाथ भगवान के मन्दिर में एक धातु-प्रतिमा पर सं. 1216 का लेख उत्कीर्ण है । हीरावाड़ी में श्री आदिनाथ भगवान का मन्दिर सं. 1596 में निर्माणित होने का उल्लेख है ।
श्री आदीश्वर भगवान का यह मन्दिर सोलहवीं सदी में निर्माणित माना जाता है, जो बड़े मन्दिर के नाम से विख्यात है । अन्य मन्दिर सत्रहवीं सदी पश्चात् के हैं ।
विशिष्टता श्री आम राजा के पौत्र श्री भोजदेव के राज्यकाल में वि. सं. 915 भादरवा शक्ल पंचमी के शुभ दिन श्री कण्हमुनि के शिष्य आचार्य श्री जयसिंहसूरीश्वरजी ने “धर्मोपदेशमाला" ग्रन्थ की रचना यहीं पर एक जिनालय में की थी ।
बारहवीं सदी में आचार्य श्री वादीदेवसरीश्वरजी के यहाँ पदार्पण पर राजा अर्णोराज ने भव्य स्वागत-समारोह का आयोजन किया था, जो उल्लेखनीय है ।
कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य को आचार्य-पद से यहीं पर विभूषित करके एक विराट समारोह का आयोजन किया गया था । मानद श्रेष्ठी धनद ने उक्त समारोह के अपूर्व अवसर पर अपनी चंचल लक्ष्मी का 264
मुक्त हस्तों से सदुपयोग किया, जो उल्लेखीय है । __ श्री पार्श्वचन्द्रसूरिगच्छ की स्थापना यहीं पर हुई । आज भी यहाँ तपागच्छ, खरतरगच्छ, पार्श्वचन्द्रसूरिगच्छ व लोंकागच्छ के उपाश्रय हैं । विक्रम की बारहवीं सदी में यहाँ वरदेव पल्लीवाल नाम के धर्मश्रद्धालु श्रावक हुए उनके पुत्र आसधर ने व उनके पुत्र नेमड़, आभट, माणिक, सलखण व थिरदेव, गुणधर, जगदेव, भुवणा द्वारा श्री शत्रुजय, गिरनार आबू-देलवाड़ा, जालोर, तारंगा, प्रहलादनपुर, पाटण, चारुप आदि विभिन्न तीर्थ स्थानों पर करवाये जीर्णोद्धार आदि के कार्य अति प्रशंसनीय हैं । इन्होंने और भी अनेकों जन-कल्याण के कार्यों में भाग लिया जो उल्लेखनीय है । इस प्रकार अनेकों धर्मवीर श्रावकों की जन्मभूमि होने व प्रकाण्ड आचार्यों का पदार्पण होने से धर्मप्रभावना के अनेकों कार्य सम्पन्न होने के कारण यहाँ की मुख्य विशेषता है ।
अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त सात मन्दिर एक गुरु मन्दिर व दो दादावाड़ीयाँ हैं ।
कला और सौन्दर्य यहाँ के मन्दिरों में प्राचीन प्रतिमाओं के दर्शन होते हैं । इस मन्दिर में काष्ठ से निर्मित एक दरवाजे की कला अति ही दर्शनीय है । मन्दिर में काँच का काम अति ही सुन्दर ढंग से किया हुआ है ।
मार्ग दर्शन यहाँ का रेल्वे स्टेशन नागौर, मन्दिर से लगभग 1 कि. मी. दूर है । स्टेशन पर व गाँव में आटों व टेक्सी की सुविधा है । मन्दिर तक कार जा सकती है । रास्ता तंग रहने के कारण बस को लगभग 4 कि. मी. दूर ठहरानी पड़ती हैं । सड़क मार्ग द्वारा यह स्थल लगभग जोधपुर से 135 कि. मी. व बिकानेर से 115 कि. मी. दूर है ।
सुविधाएँ ठहरने के लिए रेल्वे स्टेशन के पास जैन धर्मशाला है । जहाँ बिजली, पानी की सुविधा है। भोजन आदि की व्यवस्था श्री अमरचंद माणकचंद बेताला तपागच्छीय जैन भवन में पूर्व सूचना देने पर हो सकती है ।
पेढ़ी श्री जैन श्वेताम्बर मन्दिर मार्गी ट्रस्ट (रजि) बड़ा जैन मन्दिर, पोस्ट : नागौर - 341 001. जिला : नागौर, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 01582-40318, 42281 पी.पी.
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श्री आदिनाथ भगवान-नागौर
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महान विशेषता है । शोधकर्ताओं के लिए यह एक बड़ा श्री खींवसर तीर्थ
भारी आवश्यक शोध का विषय है ।
जिस भूमि में देवाधिदेव प्रभ ने अपना चातुर्मास पूर्ण तीर्थाधिराज श्री महावीर भगवान, प्राचीन किया हो, उस भूमि की महानता का शब्दों में वर्णन चरण, चन्दन वर्ण, लगभग 37 से. मी. (श्वे. मन्दिर)।
करना संभव नहीं । निरन्तर चार-माह प्रभु के तीर्थ स्थल खींवसर गाँव के बाहर तालाब के
मुखारबिंद से कितने पुण्यवान नर-नारियों, पशु-पक्षियों किनारे ।
आदि ने अमृतमयी वाणी सुनकर अपना जीवन सफल प्राचीनता इसका प्राचीन नाम अस्थिग्राम था। किया होगा । प्रभु के चरणों से जहाँ का कण-कण यह अति प्राचीन क्षेत्र माना जाता है । अस्थिगाँव के
स्पर्श हुआ हो उस स्थान की महानता का क्या वर्णन नाम का उल्लेख 'कल्प सूत्र' में भी आता है । किसी
किया जाय । ऐसे पवित्र व पावन तीर्थ स्थल की यात्रा समय यह एक विराट नगरी रही होगी । कहा जाता
करने से आत्मा को विशिष्ट शान्ति का अनुभव होता है। है भगवान महावीर मरुभूमि में विचरे तब यहाँ उनका
अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त यहाँ चातुर्मास हुआ था । चरण पादुका पर कोई लेख उत्कीर्ण नहीं है । ये चरण लगभग दो हजार वर्ष
__ कोई मन्दिर नहीं है । प्राचीन बताये जाते हैं ।
___ कला और सौन्दर्य * मन्दिर गाँव के बाहर विशिष्टता चरम तीर्थंकर श्री महावीर भगवान एकान्त में होने के कारण वातावरण शान्त व दृश्य अति का यहाँ चातुर्मास हुआ माना जाने के कारण यहाँ की सुन्दर लगता है ।
श्री महावीर प्रभु जिनालय-खींवसर
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मार्ग दर्शन है यह तीर्थ सड़क मार्ग द्वारा जोधपुर से लगभग 95 कि. मी. व ओसियाँ से 60 कि. मी. दूर है । यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन नागौर 44 कि. मी. दूर है, जहाँ से बस व टेक्सी की सुविधा है। यहाँ का बस स्टेण्ड मन्दिर से करीब 3/4 कि.मी. दूर है। मन्दिर तक कार व बस जा सकती है।
* फिलहाल ठहरने के लिए कोई साधन नहीं है । गाँव में उपाश्रय है, नागौर ठहरकर ही आना सुविधाजनक है ।
पेढ़ी 8 श्री महावीर भगवान जैन मन्दिर, श्री जेन श्वेताम्बर मन्दिर मार्गी ट्रस्ट, (नागौर) । पोस्ट : खींवसर - 341 025. जिला : नागौर, प्रान्त : राजस्थान, फोन : मुख्य कार्यलाय नागौर,
01 582-40318.पी.पी
श्री महावीर प्रभु के प्राचीन चरण-खींवसर
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श्री फलवृद्धि पार्श्वनाथ तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री फलवद्धि पार्श्वनाथ भगवान, पद्मासनस्थ, श्याम वर्ण, लगभग 105 से. मी. (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल * मेड़ता रोड़ स्टेशन से लगभग 200 मीटर दूर गाँव में ।
प्राचीनता यह तीर्थ विक्रम की बारहवीं शताब्दी में पुनः प्रकाश में आया माना जाता है । दुग्ध व बालू से निर्मित, चमत्कारी घटनाओं के साथ भूगर्भ से प्रकट इस प्रभु-प्रतिमा की प्रतिष्ठापना वि. सं. 1181 में आचार्य श्री धर्मघोष सूरीश्वरजी के सुहस्ते चतुर्विधसंघ के सन्मुख अत्यन्त हषोल्लास पूर्वक सुसम्पन्न हुई थी, ऐसा उल्लेख है । वि. सं. 1199 में प्रकाण्ड विद्वान आचार्य श्री वादीदेवसूरीश्वरजी के सुहस्ते विराट महोत्सव के साथ यहाँ प्रतिष्ठा सुसम्पन्न होने का भी उल्लेख है । वि. सं. 1204 में मन्दिर में कलश-ध्वजा आरोपण होने का उल्लेख है । 'पुरातन प्रबन्ध संग्रह', उपदेश तरंगिणि, तपागच्छ
पट्टावली व विविध तीर्थ कल्प आदि में इस तीर्थ का विस्तृत उल्लेख है । वि. सं. 1552 में संघपति सूरवंशी श्री शिवराजजी के सुपुत्र श्री हेमराजजी द्वारा इस मन्दिर के जीर्णोद्धार करवाने का उल्लेख है । वि. सं. 1653 में इस मन्दिर में अन्य जिन प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित होने का उल्लेख है । वि. सं. 1935 व वि. सं. 1992 में भी इस मन्दिर के जीर्णोद्धार हुए हैं ।
विशिष्टता 8 श्री जिनप्रभ सूरीश्वरजी ने चौदहवीं शताब्दी में रचित 'विविध तीर्थ कल्प' में इस तीर्थ के दर्शन करने से अड़सठ तीर्थों के दर्शन का लाभ होना बताया है । इस वर्णन का कुछ न कुछ रहस्य अवश्यमेव होगा । इस कल्प में यह भी बताया है कि यहाँ गोपालक श्री धाँधल श्रेष्ठी की एक गाय दूध नहीं
लगा कि एक टीबे के पास पेड़ के नीचे गाय के स्तनों से दूध हमेशा झर जाता है । वह वृत्तान्त सेठ से कहा। सेठ को स्वप्न में अधिष्ठायकदेव ने बताया कि जहाँ दूध झरता है वहाँ देवाधिदेव श्री पार्श्वनाथ प्रभु की सप्तफणी प्रतिमा है । प्रयत्न करने पर वहाँ से प्रकट होगी, जिसे मन्दिर का निर्माण करवाकर प्रतिष्ठित
श्री फलवृद्धि पार्श्वनाथ मन्दिर-मेड़ता रोड़
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करवाना । धाँधल सेठ ने यह वृत्तान्त अपने ईष्ट मित्र श्री शिवंकर से कहा । दोनों मित्र अत्यन्त प्रसन्न हुए। स्वप्नानुसार यह भव्य चमत्कारिक प्रतिमा प्राप्त हुई। मन्दिर-निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया गया । अर्थाभाव से कार्य को कुछ रोकना पड़ा । दोनों मित्र व्याकुल थे। अधिष्ठायक देव ने फिर स्वप्न में प्रकट होकर कहा कि हमेशा प्रातः प्रभु के सम्मुख स्वर्ण मुद्राओं से स्वस्तिक किया हुआ मिलेगा उससे कार्य पूर्ति कर लेना । लेकिन यह बात किसीको मालूम नहीं पड़ने देना । पुनः मन्दिर निर्माण का कार्य प्रारम्भ हुआ । पाँच मण्ड़प भी बनकर तैयार हो गये । एक दिन सेठ के लड़के ने यह अनोखा दृश्य छिपकर देख लिया । उस दिन से स्वर्ण मुद्राएँ मिलनी बन्द हो गयी, जिससे मन्दिर कुछ अपूर्ण अवस्था में रह गया । वि. सं. 1181 में जब आचार्य श्री धर्मघोषसूरीश्वरजी पधारे तब श्रीसंघ को उपदेश देकर कार्य को पूर्ण करवाकर प्रतिष्ठा करवायी । सुलतान शाहबुद्दीन ने आक्रमण के समय इस मन्दिर पर प्रहार किया, जिससे प्रतिमा भी कुछ खण्डित हो गई । परन्तु दैविक शक्ति से वह बीमार पड़कर बहुत ही दुःख का अनुभव करने लगा। इस मन्दिर को अखण्डित रखने का अपनी सेना को आदेश दिया । इसलिए मन्दिर व प्रतिमा को ज्यादा क्षति नहीं पहुँची व वही प्रतिमा पुनः स्थापित की गयी । यहाँ के अधिष्ठायक देव जागरूक व चमत्कारी हैं । प्रतिवर्ष आसोज कृष्णा दशमी व पोष कृष्णादशमी को मेले भरते हैं । उन पावन अवसरों पर जगह-जगह से हजारों नर-नारियाँ आकर प्रभु भक्ति का लाभ लेते हैं। चमत्कारिक घटनाएँ अभी भी घटने के वृत्तान्त सुनने में आते रहते हैं ।
अन्य मन्दिर वर्तमान में इस मन्दिर के पास ही एक मन्दिर, और एक दादावाड़ी हैं । __ कला और सौन्दर्य प्राचीन प्रभु-प्रतिमा अति ही सुन्दर, चमत्कारी व साक्षात् है । भावपूर्वक वन्दन मात्र से आकांक्षाएँ पूर्ण होती हैं । यहाँ पार्श्वनाथ भगवान व महावीर भगवान के भवपट्ट व अन्य पट्ट कलात्मक ढंग से बनाये हुए हैं ।
मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक का स्टेशन मेड़ता रोड़ जंक्शन 1/4 कि. मी. दूर है । स्टेशन पर सवारी का साधन उपलब्ध है । मेड़ता सिटी यहाँ से लगभग
श्री फलवृद्धि पार्श्वनाथ भगवान-मेड़ता रोड़
15 कि. मी. दूर है । जोधपुर, मेड़ता सिटी व नागौर से सीधी बसें मिलती है । मन्दिर तक पक्की सड़क है, कार व बस आखिर तक जा सकती है । यहाँ के लिए दिल्ली, जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, पंजाब, जम्मू, मुम्बई, अहमदाबाद व कलकत्ता से रेल व्यवस्था है ।
1 ठहरने के लिए मन्दिर के अहाते में ही सर्वसुविधायुक्त विशाल धर्मशाला है, जहाँ पर भोजनशाला सहित सारी सुविधाएँ उपलब्ध हैं ।
पेढ़ी * श्री फलवृद्धि पार्श्वनाथ तीर्थ ट्रस्ट, पोस्ट : मेड़ता रोड़ - 341511. जिला : नागौर, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 01591-52426,76226.
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पदार्पण हुआ, तब व्यवस्था में शिथिलता के कारण होती हुई आसातना को देख उन्हें दुःख हुआ । शीघ्र ही अपने पूर्ण प्रयास से जीर्णोद्धार का कार्य प्रारम्भ करवाकर मन्दिर की सुव्यवस्था की । वि. सं.1975 माघ शुक्ला वसंत पंचमी के दिन आचार्य श्री के सुहस्ते पुनः प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई । पहले इस चौ-मंजिले चतुर्मुख मन्दिर में श्री स्वयम्भू पार्श्वनाथ भगवान की एक प्रतिमा ही थी । इस प्रतिष्ठा के समय अन्य 15 प्रतिमाएँ भी प्रतिष्ठित करवाई गई। आचार्य श्री का प्रयास व तीर्थ सेवा अति ही उल्लेखनीय हैं ।
विशिष्टता * भंडारी गोत्र के श्री भानाजी, राजा गजसिंह जी के राज्यकाल में जोधपुर राज्य में जेतारण परगने के हाकिम थे । किसी कारणवश उनपर राजा कोपायमान होकर उन्हें जोधपुर आने का आदेश दिया। भयाकुल श्री भन्डारीजी जोधपुर के लिए रवाना हुए । मार्ग में कापरड़ा ठहरे । भंडारीजी को प्रभु-प्रतिमा का दर्शन करके ही भोजन करने का नियम था । गाँव में
तलाश करने पर वहाँ उपाश्रय में विराजित एक यतिवर श्री स्वयंभू पार्श्वनाथ मन्दिर-कापरड़ा
के पास प्रभु प्रतिमा रहने का पता लगा । भन्डारीजी प्रभु का दर्शन करके जब जाने लगे तब निमित्त शास्त्र के जानकार यतिजी ने भंडारीजी से जोधपुर जाने का कारण सुनकर कहा कि यह आपकी कसौटी है, धैर्य
रखना । आपको वहाँ जाने पर राजा द्वारा सम्मान तीर्थाधिराज ॐ श्री स्वयंभू पार्श्वनाथ भगवान,
मिलेगा, क्योंकि आप निर्दोष हैं । इधर राजा को स्वप्न पद्मासनस्थ, चाकलेट वर्ण, लगभग 55 से. मी.
में संकेत मिला कि जेतारण के हाकिम निर्दोष हैं, सुनी (श्वे. मन्दिर) ।
हुई सारी बातें झूठी हैं । राजा द्वारा पूछताछ करवाने तीर्थ स्थल कापरड़ा गाँव में ।
पर भानाजी निर्दोष मालूम पड़े, जिससे भानाजी के प्राचीनता कापरड़ा गाँव की स्थापना कब हुई। जोधपुर पहुंचने पर उन्हें राजा द्वारा सम्मान दिया गया उसका पता लगाना कठिन-सा है । इसके प्राचीन नाम व उन्हें पाँच सौ रजत मुद्राएँ उपहारस्वरूप भेंट कर्पटहेडक व कापडहेडा थे ऐसा उल्लेख मिलता है । दी गई। चमत्कारिक घटनाओं के साथ वि.सं.1674 पौष कृष्णा
भन्डारीजी खुश होकर जेतारण जाते वक्त पुनः 10 को प्रभु के जन्म कल्याणक के शुभ दिन भूगर्भ यतिजी से मिले व सारा वृत्तान्त कहा । यतिजी ने यहाँ से यह प्रतिमा प्रकट हुई थी । जेतारण के हाकिम श्री
सुन्दर मन्दिर बनवाने की प्रेरणा दी । इस पर भंडारीजी भानाजी भन्डारी द्वारा निर्मित चौमंजिले अद्भुत भव्य
ने कहा कि उपहार प्राप्त पाँच सौ मुद्राएँ सेवा में अर्पित जिनालय में वि. सं. 1678 वैशाख शुक्ला पूर्णिमा
हैं और जो बनेगा जरूर करूँगा । यतिजी ने प्रसन्नता सोमवार के दिन आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरिजी के सुहस्ते
पूर्वक मुद्राओं को एक थैली में भरकर ऊपर वर्धमान इस प्रभु प्रतिमा की प्रतिष्ठा सम्पन्न हुए का लेख
विद्या सिद्ध वासक्षेप डालकर भंडारीजी को सौंपते हुए प्रतिमा के नीचे उल्लेखित है ।
कहा कि थैली को उल्टी न करना, मन्दिर की _ वि. सं. 1975 के लगभग जब तीर्थोद्धारक, शासन आवश्यकता पूरी होती रहेगी । भन्डारीजी फूले न सम्राट, आचार्य श्री नेमिसूरीश्वरजी महाराज का यहाँ समाये । 270
श्री कापरड़ा तीर्थ
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नयाhitingtaitarai नागyि - Nachegiation नमुनsanilivan
भन्डारीजी का पुण्य प्रबल था । उनकी इच्छानुसार एक अभूतपूर्व मन्दिर का नक्शा बनाया गया व कार्य प्रारम्भ हुआ । भानाजी ने अपने पुत्र श्री नरसिंह को इस कार्य के लिये रखा । कार्य संपूर्ण होने में ही था कि नरसिंहजी ने थैली उल्टी करके देखना चाहा । ज्यों ही थैली उल्टी, कि सारी मुद्राएँ बाहर आ पड़ी । नरसिंहजी भूल के लिए, पश्चाताप करने लगे । यतिजी को इससे अवगत कराया गया । यतिजी ने कहा कि जो होना था हो गया, पिताजी को कापरड़ा बुला लो। भानाजी को कापरड़ा बुलाकर सारे वृत्तान्तों से अवगत करवाया । भन्डारीजी को अत्यंत दुख हुआ लेकिन उपाय नहीं था । मन्दिर उनकी भावनानुसार पूरा न हो पाया, लेकिन काफी हद तक हो चुका था। पाली में विराजित परम पूज्य आचार्य श्री जिनचन्द्र सूरीश्वरजी के सुहस्ते प्रतिष्ठा करवाने का निर्णय लेकर उनसे विनती की गयी व इस मन्दिर के अनुरूप प्राचीन . प्रतिमा के लिए भी निवेदन किया गया । वि. सं.
को पाईनाथायनमो नमा 1674 प्रभु के जन्म कल्याणक पौष कृष्णा 10 के शुभ दिन यहाँ के बबूलों की झाड़ी में प्रकट हुई प्रभु-प्रतिमा को श्री भानाजी भन्डारी द्वारा नवनिर्मित मन्दिर में वि. सं.1678 वैशाख शुक्ला पूर्णिमा के शुभ दिन जोधपुर नरेश श्री गजसिंहजी के उपस्थिति में आचार्य श्री जिनचन्द्र सूरीश्वरजी के हाथों बहुत ही विराट महोत्सव व अगणित जनसमुदाय के बीच प्रतिष्ठित किया गया। भक्तगण प्रभु को श्री स्वयंभू पार्श्वनाथ कहने लगे । शिखर के चारों मंजिलों में चौमुखजी विराजमान है।
श्री स्वयंभू पार्श्वनाथ भगवान-कापरड़ा यह यहाँ की मुख्य विशेषता है । प्रति वर्ष चैत्र शुक्ला पंचमी को मेला भरता है ।
बिलाड़ा से 25 कि. मी., व जोधपुर से 50 कि. मी. अन्य मन्दिर 8 वर्तमान में इसके अतिरिक्त कोई दूर है । सभी जगहों से बस व टेक्सी की सुविधाएँ मन्दिर नहीं हैं ।
उपलब्ध है। जोधपुर-जयपुर मुख्य सड़क मार्ग पर यह कला और सौन्दर्य यहाँ के शिखर की कला तीर्थ स्थित है । अति ही दर्शनीय है । 95 फुट उत्तुंग यह शिखर पाँच सुविधाएँ ठहरने के लिए सर्वसुविधायुक्त मील दूरी से भी अत्यन्त ही सुन्दर दिखायी देता है । विशाल धर्मशाला है, जहाँ पर भोजनशाला सहित सारी इस शिखर की निर्मित कला अन्य शिखरों से भिन्न है। सुविधाएँ उपलब्ध हैं । सभा मण्डप में आकर्षक पुतलियाँ, गुम्बज के छत, रंग पेढ़ी 8 श्री जैन श्वेताम्बर प्राचीन तीर्थ, कापरड़ा मण्डप के स्तंभ व तोरणों की शिल्प कला भी पोस्ट : कापरड़ा - 342 605. तहसील : बिलाड़ा अनूठी हैं ।
जिला : जोधपुर, प्रान्त : राजस्थान, मार्ग दर्शन यह तीर्थ सड़क मार्ग द्वारा लगभग फोन : 02930-63909 व 63947.
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श्री मांडव्यपुर तीर्थ
तीर्थाधिराजश्री पार्श्वनाथ भगवान, पद्मासनस्थ, पीत वर्ण, लगभग 71 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल मंडोर गाँव में बगीचे के पास ।
प्राचीनता आज का मंडोर गाँव प्राचीन काल में मंडोवर, मांडव्यपुर आदि नामों से विख्यात था ।
कहा जाता है कि मांडुऋषि का यहाँ आश्रम था उसी कारण इस गाँव का नाम मांडव्यपुर या मंडोवर पड़ा । यह भी कहा जाता है कि मयदानव द्वारा यह नगर बसाया गया था । जो भी हो इस गौरवशाली गाँव का इतिहास पुराना है, और मारवाड़ की प्राचीन राजधानी बनने का सौभाग्य इस पावन भूमी को प्राप्त हुआ। था ।
उपलब्द्ध शिलालेखों के अनुसार प्रतिहार (पडिहार) वंशी राजाओं की यह राजधानी थी जिन्होंने लगभग आठवीं सदी से वि. सं. 1438 तक राज्य किया । इसी पडिहार वंश के श्री कक्कुक नाहडराय द्वारा
यहाँ जिनेश्वरदेव का मन्दिर बनवाकर वि. सं. 918 चैत्र शुक्ला 2 बुधवार के दिन श्री धनेश्वर गच्छ को अर्पित किये का उल्लेख है । नाहडराय द्वारा सत्यपुर न नाडोल आदि में भी जिनमन्दिरों का निर्माण एवं प्रतिष्ठा करवाने का उल्लेख है । अतः हो सकता है यह पडिहार वंश जैन धर्म का उपासक रहा हो, अन्यथा जगह-जगह पर मन्दिर बनवाने व प्रतिष्ठा करवाने का सवाल ही नहीं उठता ।
विक्रम की पन्द्रवीं सदी तक यह स्थल अतीव जाहोजलालीपूर्ण रहा एवं अनेकों सुसम्पन्न श्रावकों के यहाँ रहने का उल्लेख है । यहाँ के श्रेष्ठी श्री गोसल व महण के पुत्र-पौत्रों द्वारा आबू के विमल वसही मन्दिर के जीर्णोद्धार करवाने का उल्लेख है । अतः इन्होंने व अन्य श्रावकों ने यहाँ भी कई मन्दिरों का निर्माण अवश्य ही करवाया होगा । आज उन प्राचीन मन्दिरों के भग्नावशेष मात्र कहीं कहीं नजर आते हैं, हो सकता है कालक्रम से उन्हें क्षति पहुँची हो या भूमीगत हवे हों ।
वर्तमान में यहाँ चार जैन मन्दिर है । जिनमें यहाँ के बगीचे के पास वाला श्री पार्श्वनाथ भगवान का
श्री पार्श्वनाथ प्राचीन मन्दिर-मांडव्यपुर
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मन्दिर प्राचीनतम माना जाता है । परन्तु मन्दिर का निर्माण कब व किसने करवाया उसका पता नहीं । किन्तु मूलनायक प्रतिमाजी पर उत्कीर्ण लेख के अनुसार
ओसवाल ज्ञातीय भंडारी भानाजी के पुत्र नारायण तत्पूत्र ताराचन्द ने यह प्रतिमा भरवाकर सं. 1723 माघ वदी अष्टमी के दिन महाराजा जसवंतसिंहजी, कुंवरपृथ्वीसिंह, मघराज विजयराज्य काल में वृहद खरतरगच्छ के देवसूरिजी की परम्परा में लब्धि कुशलसूरिजी के आदेश से उपाध्याय कीर्ति वर्धनजी की निश्रा में प्रतिष्ठिा करवाई । संभवतः उस समय मन्दिर का जीर्णोद्धार होकर पुनः प्रतिष्ठा हुई हो ।
विशिष्टता * यहाँ का इतिहास प्राचीनता के साथ अत्यन्त गौरवपूर्ण है ।
यह पडिहार वंशीय जैन धर्म के उपासक राजाओं की राजधानी रही व उनके द्वारा मन्दिर निर्माण के सिवाय अनेकों प्रकार के धर्मप्रभावना व जन कल्याण के कार्य किये जाने का उल्लेख है । पडिहार वंशीय राजा कक्कुक नाहडराय ने अन्य स्थानों पर भी मन्दिरों का निर्माण करवाया था । राजा नाहडराय धर्मिष्ठ व दयालु
तो थे ही, साथ में विद्वान भी थे । ____ जोधपुर के नरेश राव जोधाजी ने वि. सं. 1515 में यहीं से जाकर जोधपुर बसाया था जो आज भारत में एक मुख्य व प्रसिद्ध शहरों में है । जोधपुर शहर के प्रथम दिवान बनने का सौभाग्य भी इसी मांडव्यपुर के एक जैन श्रावक को प्राप्त हुआ था । __ अन्य मन्दिर ® वर्तमान में इसके निकट तीन
और मन्दिर व एक दादावाड़ी है । निकटतम शहर जोधपुर में 27 मन्दिर व 5 दादावाड़ी है ।
कला और सौन्दर्य यह प्राचीन क्षेत्र रहने के कारण प्राचीन कलात्मक भग्नावशेष इधर-उधर कुछ नजर आते हैं । मन्दिर में कोई खास प्राचीन कला के नमूने नहीं हैं । किले में प्राचीन कलात्मक अवशेष नजर आते हैं ।
मार्ग दर्शन * यहाँ का मंडोर रेल्वे स्टेशन मन्दिर से 1/2/2कि.मी. व जोधपुर रेल्वे स्टेशन 9 कि.मी. दूर है । जहाँ पर टेक्सी व आटो की सुविधा है। मन्दिर तक कार व बस जा सकती है । नजदीक का हवाई अड्डा जोधपुर है । यहाँ से पाली लगभग 75 कि. मी. अजमेर 230 कि. मी., फलोदी पार्श्वनाथ
श्री पार्श्वनाथ भगवान-मांडव्यपुर 105 कि. मी., बीकानेर 270 कि. मी. अहमदाबाद 455 कि. मी. फलोदी 120 कि. मी. व जैसलमेर 275 कि. मी. दूर है । हर जगह सभी तरह की सवारी का साधन हैं ।
ठहरने के लिये यहाँ पर निकट में ही सिंह सभा दादावाड़ी व जोधपुर में भेरुबाग मन्दिर, सरदारपुरा-दसवीं रोड़ दादवाड़ी में सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला है, जहाँ भोजनशाला की भी सुविधा है ।
पेढ़ी * श्री पार्श्वनाथ जैन श्वे. मन्दिर, बगीचे के मुख्य द्वार के पास ।। पोस्ट : मंडोर - 342 304. जिला : जोधपुर (राज.), प्रबंध समिती : श्री जैन श्वे. खरतरगच्छ संघ, कुशल भवन, आहोर की हवेली के पास, जोधपुर - 342 301. फोन : 0291-626242.
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जिसका उल्लेख वि. सं. 1662 में कवि श्री समयसुन्दरजी उपाध्याय ने अपने रचित श्री गांगाणी मण्डन में विस्तृत रूप से किया है । इसका उल्लेख 'वीर वंशावली' में भी आता है ।
इन प्रतिमाओं में से श्री पद्मप्रभ भगवान की प्रतिमा श्री संप्रतिराजा ने वीर सं. 273 माघ शुक्ला 8 के शुभ दिन आर्य श्री सुहस्तीसूरीश्वरजी के सुहस्ते प्रतिष्ठा करवायी थी । एक और श्वेतवर्णमयी श्री पार्श्वप्रभु की प्रतिमा सम्राट चन्द्रगुप्त द्वारा भरवाने का उल्लेख है । इन सब प्रतिमाओं का आज पता नहीं । संभवतः आक्रमणकारियों के भय से पुनः भूमिगत कर दी गयी हों ।
दुधेला तालाब और खोखर मन्दिर आज भी विद्यमान हैं । वि. की नौवी शताब्दी में उपकेशनगर के श्रेष्ठीवर श्री बोसट द्वारा इस मन्दिर के जीर्णोद्धार करवाने का उल्लेख है । वि. की बारहवीं शताब्दी में भूरंटों ने इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया था । ___चौदहवीं शताब्दी में ओसियाँ के आदित्यागान गोत्रीय शाह सारंग सोनपाल द्वारा जीर्णोद्धार करवाने का उल्लेख मिलता है ।
विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में बीकानेर के श्रावकों द्वारा जीर्णोद्धार करवाने का उल्लेख है । और भी अनेकों बार यहाँ का जीर्णोद्धार हुआ होगा । अंतिम जीर्णोद्धार वि. सं. 1982 में होने का उल्लेख है । प्रतिमाजी पर वि. सं. 1914 का लेख उत्कीर्ण है । जीर्णोद्धार के समय नई प्रतिमा स्थापित की गयी प्रतीत होती है । श्री आदिनाथ भगवान की एक सर्वधातुमयी प्रतिमा पर वि. सं. 937 का लेख उत्कीर्ण हैं। यह प्रतिमा अति ही चमत्कारी है । ऊपरी मंजिल में श्री धर्मनाथ भगवान की मूर्ति पर वि. सं. 1684 का लेख उत्कीर्ण हैं ।
विशिष्टता * चौदह पूर्वधारी श्री भद्रबाहुस्वामीजी के सुहस्ते सम्राट चन्द्रगुप्त द्वारा व आर्य श्री सुहस्तीसूरीश्वरजी के सुहस्ते राजा संप्रति द्वारा प्रतिष्ठित मन्दिरों का क्षेत्र रहने के कारण इसकी मुख्य विशेषता है।
सं. 1662 में कविवर श्री समयसुन्दरजी उपाध्याय ने बड़े ही सुन्दर ढंग से यहाँ की व्याख्या की है । यहाँ पाटोत्सव का मेला प्रतिवर्ष होली के बाद चैत्र कृष्णा
श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान-गांगाणी
श्री गांगाणी तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 40 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थलगांगाणी गाँव में । प्राचीनता इस नगरी का प्राचीन नाम अर्जुनपुरी बताया जाता है । बाद में गांगाणक कहते थे । यह अति प्राचीन क्षेत्र माना जाता है । किसी वक्त यह एक विराट नगरी थी । वि. सं. 1662 ज्येष्ठ शुक्ला 12 के दिन यहाँ दुधेला तालाब के पास खोखर नामक मन्दिर के एक तलघर में से 65 प्रतिमाएँ निकली थीं, 274
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सप्तमी को व श्री पार्श्वप्रभु के जन्म कल्याणक का मेला पोष वदी दशमी को भरता है ।
अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त और कोई मन्दिर नहीं हैं । __ कला और सौन्दर्य * जमीन से लगभग 22 मीटर ऊँचा, भव्य व विशाल दो मंजिला गगनचुम्बी शिखर यात्रियों को दूर से ही आकर्षित करता है । __ मार्ग दर्शन * यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन जोधुपर 36 कि. मी हैं । जोधुपर-भोपालगढ़ सड़क मार्ग पर यह तीर्थ स्थित है । जोधपुर से बस व टेक्सी का साधन है । बस स्टेण्ड मन्दिर से सिर्फ 4 कि. मी. दूर है । बस व कार मन्दिर तक जा सकती है। यहाँ से ओसियाँजी तीर्थ लगभग 35 कि. मी. व कापरड़ाजी तीर्थ 60 कि. मी. दूर हैं ।
सुविधाएँ @ ठहरने के लिए मन्दिर के निकट धर्मशाला है । जहाँ पानी, बिजली, ओढ़ने-बिछाने के वस्त्रों व भोजनशाला की भी सुविधा हैं ।
पेढ़ी श्री जैन श्वेताम्बर प्राचीन तीर्थ, गांगाणी पोस्ट : गांगाणी - 342027. तहसील : भोपालगढ़, जिला : जोधपुर, प्रान्त : राजस्थान ।
नाभिनंदन प्रभु आदिनाथ-गांगाणी
श्री पार्श्वनाथ जिनालय-गांगाणी
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मुहूर्त में कोरटा व ओसियाँ नगरी में जिन-मन्दिरों की श्री ओसियाँ तीर्थ
प्रतिष्ठा करवाने का उल्लेख है । भीनमाल के इतिहास
में भी राजकुमार उपलदेव व मंत्री द्वारा इसी काल में तीर्थाधिराज श्री महावीर भगवान, पद्मासनस्थ, यहाँ उपकेशनगर बसाने का उल्लेख है । श्वर्ण वर्ण, लगभग 80 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) ।
नव प्रमोद द्वारा रचित 'ओसियाँ वीर स्तवन' के तीर्थ स्थल ओसियाँ गाँव के मध्य ।
अनुसार अगर यह नगरी ही विक्रम की 11 वीं सदी प्राचीनता इस नगरी के प्राचीन नाम में बसाई गई होती तो उसके सात सौ वर्ष पूर्व संप्रति उपकेशपट्टण, उरकेश, मेलपुरपत्तन, नवनेरी आदि रहने
राजा के यहाँ आने का व प्रतिमा निर्मित करवाने का के उल्लेख मिलते हैं । विक्रम की चौदहवीं सदी में ____ कारण ही नहीं बनता । आठवीं सदी की शिल्पकला भी रचित उपकेशगच्छपट्टावली के अनुसार विक्रम की चार यहाँ कैसे उपलब्ध होती ? शताब्दी पूर्व लगभग वीर निर्वाण सं. 70 में श्री अतः यह सिद्ध होता है कि यह नगरी वीर प्रभु के पार्श्वनाथ भगवान के सातवें पाटेश्वर आचार्य निर्वाण के लगभग 70 वर्ष पश्चात् बस चुकी थी। व रत्नप्रभसूरीवरजी अपने पाँच सौ शिष्यसमुदाय सहित इस मन्दिर का निर्माण भी उसी काल में हुआ था । यहाँ पधारे थे । तब यहाँ के राजा उपलदेव व मंत्री समय-समय आवश्यक जीर्णोद्धार होते ही है । उसी उहड़ थे । राजा उपलदेव व मंत्री उहड ने आचार्य भाँति आठवीं सदी में जीर्णोद्धार हुआ होगा । लेकिन श्री से प्रतिबोध पाकर जैन धर्म अंगीकार किया था । यह प्रतिमा वही प्राचीन मानी जाती है, जो भगवान राजा उपलदेव द्वारा इस मन्दिर का निर्माण करवाकर महावीर के 70 वर्षों पश्चात् भूगर्भ से प्रकट हुई थी। आचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी के सुहस्ते इस प्रभु अभी भी जीणोद्धार का कार्य चालू है, जो कुछ वर्षों पूर्व प्रतिमा की प्रतिष्ठा होने का उल्लेख है । किसी समय प्रारंभ किया गया था । यह एक समृद्धशाली विराट नगरी थी । इस नगरी का
विशिष्टता भगवान महावीर के 70 वर्षों क्षेत्रफल बहुत बड़ा था । लोहावट व तिंवरी आदि इसके
पश्चात् श्री पार्श्वनाथ भगवान के सातवें पाटेश्वर मोहल्ले थे ।
आचार्य श्री रत्न-प्रभुसूरीश्वरजी ने यहाँ के राजा __ श्री हीर उदयन के शिष्य श्री नयप्रमोद द्वारा वि. सं. उपलदेव, मंत्री उहड़ व अनेकों शूरवीर राजपूतों को 1712 में रचित 'ओसियाँ वीर स्तवन' में इस प्रतिमा जैन-धर्म अंगीकारकरवाया एवं ओशवंश की स्थापना को संप्रति राजा द्वारा निर्मित बताया है । सदियों तक करके उन्हें ओशवंश में परिवर्तित किया था । यह यह प्रतिमा भूगर्भ में रही । जब उहड़ मंत्री ने यह ओशवंश का उत्पत्ति स्थान रहने के कारण यहाँ की नगरी बसाई तब आचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी का मुख्य विशेषता है । आज ओशवंश के श्रावकगण भारत यहाँ पदार्पण हुआ व उहड़ मंत्री ने आचार्य श्री से में ही नहीं, दुनिया के हर कोने में बसे हुए हैं व प्रायः प्रतिबोध पाकर जैन धर्म अंगीकार किया था । उस सारे समृद्धिशाली है, जो सदियों से धर्म प्रभावना व समय यह प्रतिमा भूगर्भ से प्रकट हुई थी, जिसे मन्दिर परोपकार के अनेकों कार्य करते आ रहे हैं । यह सब का नव निर्माण करवाकर वि. सं. 1017 माघ कृष्णा शुभ समय में प्रकाण्ड आचार्य द्वारा किए स्थापना का 8 के दिन प्रतिष्ठित करवाने का उल्लेख है ।
मूल कारण है । 'ओसवाल उत्पत्ति' शीर्षक के हस्तलिखित पत्र में
ओशवाल समाज का हर व्यक्ति अपने पूर्वजों की उहड मंत्री द्वारा वि. सं. 1011 में ओसियाँ बसाने का पवित्र भूमि पर ओशवंश के संस्थापक द्वारा प्रतिष्ठित व वि. सं. 1017 में मन्दिर बनवाने का उल्लेख है। भगवान महावीर के दर्शन करने का अवसर
पुरातत्व-वेत्ताओं के अनुसार यहाँ की शिल्पकला न चुकें । आठवीं सदी की मानी जाती है ।
मन्दिर में श्री पुनिया बाबा के नाम से विख्यात अति कोरटा के इतिहास में वीर प्रभु के निर्वाण के 70 चमत्कारिक श्री अधिष्ठायक देव की प्रतिमा नाग-नागिनी वर्ष पश्चात् आचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी द्वारा एक ही के रूप में विराजित है । यह प्रतिमा भी मूल प्रतिमा 276
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CCTIDES
HONE
श्री महावीर भगवान-ओसियाँ
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के समय की मानी जाती है । कहा जाता है यहाँ की अधिष्ठायिका श्री चामुण्डादेवी को भी आचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी ने प्रतिबोधित करके सम्यक्त्वी बनाकर श्री सच्चियायका माता नाम से अलंकृत किया, जिसकी ही दिव्य शक्ति से गौ-दुग्ध एवं बालू से भगवान महावीर की प्रतिमा बनी व आचार्य श्री द्वारा प्रतिष्ठित की गई, जो अभी विद्यमान है ।
प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ला 3 को वार्षिक मेला लगता है, जब हजारों भक्तगण भाग लेकर प्रभु भक्ति का लाभ लेते हैं ।
अन्य मन्दिर इस मन्दिर से लगभग एक कि. मी. दूर गाँव के पूर्व में टेकरी पर दादावाड़ी है जहाँ आचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी आदि की चरण-पादुकाएँ विराजित हैं । श्री सच्चियाय माताजी का प्रसिद्ध मन्दिर भी यहाँ से लगभग एक कि. मी. दूर हैं ।
कला और सौन्दर्य के शिल्प और कला की दृष्टि से ओसियाँ विश्व में प्रसिद्ध है । पत्थरों पर खुदी हुई यहाँ की कलात्मक प्रतिमाएँ अद्वितीय हैं । भगवान महावीर का मन्दिर व अन्य मन्दिर अपनी विशालता, कलागत विशेषता एवं सौन्दर्य के कारण विश्व-विख्यात है । रंग-मण्डप में स्तम्भों पर नाग-कन्याओं के दृश्य एवं दिवालों पर देवी-देवताओं के दृश्य अति सुन्दर ढंग से अंकित हैं । इसके अतिरिक्त देहरियों पर भगवान नेमिनाथ का जीवनचरित्र, भगवान महावीर का अभिषेक-उत्सव एवं गर्भहरण का दृश्य बड़ा ही सजीव चित्रण किया हुआ है । अष्ट पहलू मण्डप में आचार्य श्री द्वारा अपने साधु एवं श्रावकों को उपदेश देने के चित्र अंकित हैं । नृत्य मण्डप के गुंबज में नृत्यकाएँ साज के साथ नृत्य करती हुई अति आकर्षक रमणीय मुद्रा में अंकित हैं । मन्दिर की भमती में प्रसिद्ध तोरण की कारीगरी एवं बनावट अति आकर्षक है । यह स्थल
श्री महावीर जिनालय-ओसियाँ
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रत्नप्रभसूरि ओसवाल नगर धर्मशाला भी हैं, जिसके प्रांगण में बसे व कारें भी ठहर सकती हैं । यहाँ पर भोजनशाला व नास्ते की भी सुविधा है ।
पेढ़ी है शेठ श्री मंगलसिंहजी रतनसिंहजी देव की पेढ़ी ट्रस्ट, पोस्ट : ओसियाँ - 342 303. जिला : जोधपुर, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 02922-74232, 74251.
अधिष्ठायक देव श्री पुणिया बाबा-ओसियाँ
पुरातत्व दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण, स्थान रखता है । देश-विदेश से भी शोधकर्तागण यहाँ की प्राचीनता व शिल्पकला की शोध हेतु यहाँ आते रहते हैं । __मार्ग दर्शन ओसियाँ रेल्वे स्टेशन जो जोधुपर-जैसेलमेर रेल मार्ग में स्थित है, मन्दिर से लगभग 1 कि. मी दूर है । स्टेशन पर टेक्सी व आटो की सुविधा है। यह स्थान जोधपुर-फलोदी मुख्य सड़क मार्ग पर है । जोधपुर यहाँ से 60 कि. मी. व फलोदी लगभग 65 कि. मी. दूर हैं । यहाँ का बस स्टेण्ड लगभग 1/27 कि. मी. दूर है । मन्दिर तक पक्की सड़क है । बस व कार मन्दिर तक जा सकती है । यहाँ से जोधपुर, जयपुर, अहमदाबाद, सुरत, बीकानेर, नागौर, फलोदी व जैसलमेर जाने के लिए बसें मिलती है ।
सुविधाएँ * मन्दिर के अहाते में ही पुरानी धर्मशाला के अतिरिक्त निकट ही सर्वसुविधायुक्त श्री
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श्री तिंवरी तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री वासुपूज्य भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण, (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल तिंवरी गाँव के मध्य ।
प्राचीनता यह तीर्थ लगभग ओसियाँ के समकालीन माना जा सकता है । ओसियाँ तीर्थ के उल्लेखानुसार ओसियाँ नगरी का विस्तार तिंवरी तक था, अतः यह सिद्ध होता है कि उस समय भी यह नगर आबाद था । यहाँ की कला भी ओसियाँ के समकालीन प्रतीत होती है ।
इस मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि वि. सं. 222 में यहाँ एक किसान का हल भूतल में स्थित इस मन्दिर से टकरा गया था । खोदने पर इस मन्दिर का शिखर दिखाई दिया व तत्पश्चात् विधिवत खुदाई करने पर भव्य मन्दिर पाया गया जो आज भी गाँव के बीच उसी स्थान पर विद्यमान है ।
यह पता लगाना मुश्किल है कि इस मन्दिर का निर्माण कब हुवा व किसने करवाया था । परन्तु यह जरुर है कि इस कलात्मक मन्दिर का निर्माण लगभग 1800 वर्ष पूर्व हुवा होगा ।
हर जगह आवश्यकता पड़ने पर समय-समय जीर्णोद्धार होता है, उसी प्रकार यहाँ भी जीर्णोद्धार बार-बार हुआ। पूर्व में यहाँ के मूलनायक श्री पार्श्वनाथ भगवान थे । परन्तु कोई कारणवंस 700 वर्ष पूर्व जीर्णोद्धार के समय श्री वासुपूज्य भगवान विराजमान करवाये गये जो आज विद्यमान है ।
विशिष्टता * यहाँ की प्राचीनता व गौरवपूर्ण इतिहास यहाँ की विशिष्टता है। यह स्थान तंवर राजाओं की राजधानी रहा माना जाता है। अतः संभवतः उन्हीं के नाम पर गाँव का नाम तिंवरी पड़ा हो ।
पूर्व काल में जगह जगह कई राजा लोग जैन धर्म के उपासक बने व धर्मप्रभावना के अनेकों कार्य किये। मन्दिरों के निर्माण व जीर्णोद्धार आदि में भी भाग
श्री वासुपूज्य मन्दिर दृश्य-तिवरी
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लिया। उसी भान्ति यहाँ भी तंवर राजा व प्रजा जैन धर्म के उपासक होकर उनके द्वारा कई मन्दिरों का निर्माण हुवा माना जाता है उसी में का यह भी एक मन्दिर होना माना जाता है ।
कहा जाता है कि मन्दिर निर्माण के समय यहाँ के मूलनायक श्री पार्श्वनाथ भगवान थे। प्रतिमा पन्ने की थी । लगभग विक्रम की तीसरी सदी के समय किसी कारणवश वह प्रतिमा यहाँ से अलोप हुई मानी ज है । न मालुम किसी भय के कारण भूतल कर दी गई या कहाँ गई, उसका पता नहीं । बीच-बीच में और भी जीर्णोद्धार हुवे । वर्तमान मूलनायक भगवान की प्रतिमा ग्यारहवीं सदी में हुवे जीर्णोद्धार के समय की मानी जाती है। एक उल्लेखानुसार कहा जाता है कि श्रीपूज्यजी ने अपने चमत्कार द्वारा उपस्थित होकर जीर्णोद्धार के समय श्री वासुपूज्य भगवान व श्री पद्मप्रभु भगवान की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करवाई थी । यह कोनसे जीर्णोद्धार के समय की घटना है उसका पता नहीं । यह अनुसंधानीय है । अन्तिम जीर्णोद्धार वि. सं. 2041 में हुवा ।
अन्य मन्दिर इसके अतिरिक्त निकट ही श्री पद्मप्रभु भगवान का विशाल मन्दिर है । जो वि. सं. 911 में निर्मित माना जाता है । पूर्व में इस मन्दिर के मूलनायक भी श्री पार्श्वनाथ भगवान थे प्रतिमा कुछ जीर्ण होने के कारण प्रतिमाजी को मन्दिर के भन्डार गृह में रखा गया एवं जीर्णोद्धार के समय श्री पद्मप्रभु भगवान की प्रतिमा मूलनायक के रूप में विराजमान की गई जो आज विद्यमान है। निकट में एक दादावाड़ी भी है ।
कला और सौन्दर्य यहाँ के मन्दिरों की कला लगभग ओसियाँ व आबू देलवाड़ा आदि जगहों के भांति की हैं। मन्दिर में विराजित प्राचीन प्रतिमाएँ भी अतीव मनोरम व कलात्मक है जो दर्शनीय है । मन्दिर में काउसग्ग मुद्रा में दो प्रतिमाएँ कलात्मक है जो यहाँ की प्राचीनता को प्रमाणित करती है ।
मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक के रेल्वे स्टेशन ओसियाँ लगभग 20 कि. मी. व जोधपुर 42 कि. मी. है, जहाँ से टेक्सी, आटो की सुविधा उपलब्ध है । तिंवरी भी रेल्वे स्टेशन है । इस मन्दिर से तिंवरी रेल्वे स्टेशन व बस स्टेण्ड लगभग 1/2 / 2 कि. मी. है, जहाँ पर आटो की सुविधा उपलब्ध है। मन्दिर तक कार
श्री वासुपूज्य भगवान-तिवरी
व बस जा सकती है। जोधपुर में हवाई अड्डा है ।
सुविधाएँ मन्दिर के परिसर में ठहरने की व्यवस्था है। निकट ही पद्मप्रभुजी मन्दिर के पास भी धर्मशाला है, जहाँ बिजली, पानी, व ओढ़ने-बिछाने के वस्त्रों की सुविधा है। वर्तमान में भोजनशाला नहीं है परन्तु कहने पर पुजारी व्यवस्था कर देता है ।
पेढ़ी श्री जैन मन्दिर व दादावाड़ी ट्रस्ट, श्री वासुपूज्यस्वामीजी का मन्दिर, पोस्ट : तिंवरी - 342 306. जिला : जोधपुर (राजस्थान),
फोन : पी.पी. 0291-620016 (जोधपुर) ।
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मदविजया
ओलीकीर
रजीमसा
रण
TENSI
अन्तिम शासक श्री वसुराव के रहने का उल्लेख है ।
एक और उल्लेखानुसार सिंध-सौवीर की राजधानी वितभयपुरपत्तन थी, जिसके शासक प्रभु वीर के परम भक्त राजा उदायन थे व पश्चात् उनके भाणेज श्री केशीकुमार रहे थे । श्री केशीकुमार के शासनकाल में भारी भूकम्प व तूफान आदि के कारण इस नगरी को भारी क्षति पहुँचकर ध्वंस होने का उल्लेख है । वह अति ही जाहोजलालीपूर्व नगरी अभी तक अज्ञात है । जगह की निकटता व नाम में लगभग समानता देखते लगता है संभवतः यही वह नगरी हो क्यों कि जगह की निकटता होने के कारण यह भाग सिंध-सौवीर के अंतर्गत रहा हो व भूकम्प से ध्वंस होने के पश्चात् पुनः बसा हो, लेकिन इसके अन्वेषण की आवश्यकता है । __ लगभग चौदवीं सदी के मध्य तक यह विजयपुरपत्तन नगरी किले के साथ अति ही जाहोजलालीपूर्ण आबाद रहने का उल्लेख है ।
यह भी कहा जाता है कि जब यह नगर विजयपुरपत्तन कहलाता था उस समय यह नगर आंचन राजपूतों के अधिकार में था । अतः हो सकता है वि. सं. 550 से लगभग चौदवीं सदी तक उनका शासन रहा हो ।
लगभग चौदवीं सदी के पश्चात् इस पावन स्थल को पुनः भारी क्षति पहुँचने का उल्लेख है । पश्चात् उस विरान सी नगरी का अधिकार रावजोधाजी के पास आया । जोधाजी ने वि. सं. 1517 में अपने पुत्र सुजाजी को अधिकार प्रदान किया । सुजाजी ने यहाँ की पुनः उन्नति के लिये पूर्ण प्रयास किया । पश्चात् इसका कार्यभार अपने पुत्र राव नरा को संभलाया । तदुपरांत इसका कार्यभार नरा के पुत्र राव हमीर के पास आया। राव हमीर का शासन काल लगभग 1590 तक रहने का उल्लेख है ।
वि. सं. 1515 से 1545 के दरमियान यहाँ किला व जैन मन्दिर भी बनवाने का उल्लेख है । परन्तु संभवतः उस समय जीर्णोद्धार हवा हो क्योंकि पहले किला रहने का उल्लेख आता है । जब भी कहीं कोई नगर बसा तो वहाँ पहिले किले का निर्माण होने व साथ-साथ प्रायः हर जगह जैन मन्दिर भी बनने का उल्लेख आता है । आज भी प्रायः प्रत्येक किले में जैन मन्दिर पाये जाते हैं क्योंकि प्रारंभ से हर राजा को नगर नया या पुनः बसाने व संचालन में जैन श्रावों का हमेशा साथ रहा व प्रायः हर राजा के दीवान,
श्री शान्तिनाथ भगवान-विजयपुरपत्तन
श्री विजयपुरपत्तन तीर्थ
तीर्थाधिराज * श्री शांतिनाथ भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण, लगभग 43 सें. मी. ।
तीर्थ स्थल 8 फलोदी शहर के सदर बाजार में।
प्राचीनता 8 आज का फलोदी शहर पूर्वकाल में विजयनगर, विजैपुर, विजयपुरपत्तन, फलवृद्धिकानगर, फलादी आदि नामों से विख्यात था ।
कहा जाता है कि इस प्राचीन विजयपुरपत्तन की स्थापना, जैन धर्मोपासक, प.पू. ओशवंश के संस्थापक आचार्य भगवंत श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी म.सा. द्वारा प्रतिबोधित, ओसियाँ नगर के शासक, श्री उपलदेव के पुत्र श्री विजयदेव ने की थी ।
एक अन्य मतानुसार इन्हीं विजयदेव ने वि. सं. 282 में इस नगरी की स्थापना की थी । इसी वंश का शासन लगभग वि. सं. 550 तक रहने का व 282
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खजांची आदि जैन श्रावक ही रहे ।
राव हमीर के पश्चात् यहाँ की सत्ता राव राम, राव इंगरसी, राव मालदेव व उदयसिंह के पास रही । पश्चात् कुछ वर्ष तक जैसलमेर व बीकानेर के आधीन रही । वि. सं. 1672 से पुनः जोधपुर के आधीन है।
उक्त वर्णन से यहाँ की प्राचीनता स्वतः सिद्ध होती है व प्रतीत होता है कि इस स्थान का अनेकों बार उत्थान पत्तन हुवा ।
पूर्व काल में जैन राजाओं, जैन मंत्रीगणों व जैन श्रेष्टीगणों द्वारा समय-समय पर अनेकों मन्दिरों का भी अवश्य निर्माण हुवा होगा, परन्तु आज उन प्राचीन मन्दिरों का पता नहीं हैं । संभवतः राज्य क्रांति या भूकम्प आदि के कारण भूमीगत हो गये होंगे, जैसा प्रायः हर जगह पाया जाता है । यहाँ पर भी भूगर्भ से प्राचीन भग्नावशेष प्राप्त होते रहने का उल्लेख है।
वर्तमान पूजित जैन मन्दिरों में यह श्री शांतिनाथ भगवान का मन्दिर प्राचीनतम माना जाता है ।
श्री शान्तिनाथ जिनालय शिखर-विजयपुरपत्तन जिसका अंतिम जीर्णोद्धार वि. सं. 1689 में होने का उल्लेख मन्दिर में एक शिलालेख में है । उस समय
भी सहयोग मिलने का उल्लेख है, जो सराहनीय है । इस शहर का नाम फलवृद्धिकानगर रहने का उल्लेख
कहा जाता है कि श्री सिद्धूजी कल्ला पुष्करणा ब्राह्मण
थे । आज भी यहाँ ओसवाल समाज व पुष्करणा किले में स्थित प्राचीन जैन मन्दिर के भग्नावशेष ब्राह्मण समाज के घर ज्यादा है ।। भगवान की गादी के साथ आज भी दिखाई देते है जो शताब्दी पूर्व प्राचीन काल में और भी अनेकों जैन यहाँ की प्राचीनता की याद दिलाते हैं । परन्तु मन्दिर श्रावकों ने धर्म प्रभावना व जन कल्याण के अनेकों में प्रतिमाएं नहीं है संभवतः सुरक्षार्थ कहीं और जगह कार्य किये होंगे । वर्तमान शताब्दी में भी यहाँ के विराजमान करदी होगी । किले के दरवाजे के ऊपरी श्रावकों ने धर्म प्रभावना व जन कल्याण के अनेकों भाग में पाट पर श्री पार्श्व प्रभु की अति मनोरम । कार्य किये हैं उनका पूर्ण विवरण यहाँ देना संभव नहीं। प्रभाविक सुन्दर प्रतिमा उत्कीर्ण है जो आज भी । अनेकों यात्रा संघों का भी आयोजन हुवा, जिनमें वि. विद्यमान है।
सं. 1990 में श्री पांचूलालजी वैद द्वारा आयोजित यहाँ विशिष्टता * इस पावन नगरी की प्रथम से जैसलमेर का भव्य छःरी पालक यात्रा संघ विख्यात स्थापना करने का सौभाग्य जैन धर्मावलम्बी राजा को व चिरस्मरणीय है । जिसे आज भी भाग लेने वाले प्राप्त हुवा जिन्होंने सैकड़ों वर्ष तक राज्य किया । यह साधु-साध्वीगण व यात्रीगण याद करते हैं । स्व. श्री यहाँ की मुख्य विशेषता है ।
किशलालजी लुणावत दानवीरों में आज भी मशहूर है, गत विध्वंस के पश्चात् भी पुनरोद्धार में जैन श्रावक जिन्होंने किसी याचक को खाली हाथ नहीं भेजा । राव जोधाजी के विश्वासपात्र खजांची श्री मेहपालजी के उन्होंने मन्दिर, धर्मशाला व उपाश्रय का भी निर्माण पुत्र श्री कोचरजी का भी विशेष सहयोग प्राप्त हुवा था। करवाया । आज भी यहाँ के श्रावक भारत भर में ऐसा उल्लेख है । यह भी यहाँ की विशेषता है । गत जगह-जगह बसे हुवे हैं व अनेक प्रकार के जन विध्वंस के पश्चात् पुनरोद्धार में श्री सिद्धूजी कल्ला का कल्याण व धर्म प्रभावना के कार्य करते आ रहे हैं ।
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विरतरगच्छीयपपू जीमको शुशि की छप. बसंती
जी मसा एवं पूधर्म जैदानिवासीशा दी तपार्थेश्री
श्री आदीश्वर भगवान-विजयपुरपत्तन
यहाँ पर प्रायः सभी प्रकाण्ड विद्वान आचार्य भगवंतों व मुनि भगवंतों के समय-समय पर चातुर्मास हुवे हैं। उन्होंने यहाँ के श्रावकों की भूरी-भूरी प्रशंसा की है । आचार्य श्री यतिन्द्रसूरीश्वरजी ने वि. सं. 1987 में लिखा है कि यहाँ के श्रावक भावुक व श्रद्धालु हैं और योग्य साधु-साध्वियों की अच्छी कदर करने वाले हैं ।
श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज (घेवरमुनिजी) ने यहाँ रहकर लगभग 375 से ज्यादा धर्म से सम्बंधित स्तवनों आदि की पुस्तकें लिखी थी जो श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला के नाम विख्यात हुई । वे पुस्तकें आज भी एतिहासिक व अति ही महत्वपूर्ण मानी जाती है ।
श्री छगनसागरजी, हरीसागरजी, कंचनविजयजी, कमलविजयजी आदि 18 मुनि भगवन्तों व 112 साध्वीगणों की यह जन्म भूमि है । वर्तमान में जगह-जगह प्रभु भक्ति का प्रचार व मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाने वाले, कच्छ वागड देशोद्वारक, अध्यात्म योगी प. पू. आचार्य भगवंत श्री कलापूर्णसूरीश्वरजी म. सा. ने भी यहाँ जन्म लेकर इस भूमी को पावन
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श्री पार्श्वनाथ भगवान, प्राचीन- फलोदी किला
बनाया है । हमारे प्रांगण में निर्मित श्री जैन प्रार्थना मन्दिर की प्रतिष्ठा भी आप ही के सुहस्ते वि. सं. 2050 वैशाख शुक्ला पंचमी को सम्पन्न हुई थी ।
अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त और 10 मन्दिर 1 रत्नप्रभसूरिगुरु मन्दिर व 4 दादावाड़ीयाँ है। निकट के गांव खीचन, लोहावट व आऊ में भी प्राचीन जैन मन्दिर हैं जो अति दर्शनीय है ।
कला और सौन्दर्य शांतिनाथ भगवान के मन्दिर में हस्तलिखित स्वर्ण कला अति ही विशिष्ट व अनूठी है जो प्राचीन काल के कला का स्मरण कराती हैं । ऐसी कला के दर्शन अन्यत्र दुर्लभ है ।
अन्य सभी मन्दिरों में कला के कुछ न कुछ नमूने अवश्य मिलेंगे, जिनमें श्री आदीश्वर भगवान एवं श्री गोड़ी पार्श्वनाथ भगवान के मन्दिर बहुत ही अनूठे ढंग से बने है। आदिनाथ प्रभु का मन्दिर भी प्राचीनता में लगभग श्री शांतिनाथ भगवान मन्दिर के समकालीन है, जो बाजार के बीच चारों तरफ रास्तों के साथ बना है ऐसा कम जगह मिलेगा । श्री गोडी पार्श्वप्रभु का भव्य मन्दिर अपनी विशालता व तीन पोल के साथ शहर के लगभग बीच में बहुत ही अनुपम ढंग से निर्मित है, जो देखने योग्य है । इस जगह को त्रीपोलीया कहते है । प्रायः सभी यात्री इस मन्दिर का दर्शन अवश्य करते हैं ।
मार्ग दर्शन
यहाँ का रेल्वे स्टेशन फलोदी इस
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मन्दिर से लगभग 2 कि. मी. दूर है । ठहरने के लिये ओसवाल ज्याति नोहरा लगभग एक कि. मी. दूर है। स्टेशन पर व गांव में टेक्सी व आटो का साधन है । यह क्षेत्र जोधपुर से जैसलमेर रेल मार्ग पर व जोधपुर, नागौर व बीकानेर से जैसलमेर सड़क मार्ग पर स्थित है ।
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यहाँ से जोधपुर लगभग 135 कि. मी. जैसलमेर 165 कि. मी. नागौर 160 कि. मी. बीकानेर 165 कि. मी. व नाकोड़ा 190 कि. मी. दूर है। सभी जगहों से सवारी का साधन है। मन्दिर व न्याति नोहरा तक कार व बस जा सकती है । यहाँ से खींचन लगभग 5 कि. मी. लोहावट 30 कि. मी. तिंवरी कि. मी. व ओसियाँ लगभग 75 कि. मी. दूर है। ठहरने हेतु विशाल ओसवाल जैन न्याति नोहरा है जहाँ सर्वसुविधायुक्त कमरे बने है। कार व बस भी अन्दर तक जा सकती है । भोजनशाला की भी सुविधा है । यहाँ 20 उपाश्रय हैं ।
सुविधाएँ
पेढ़ी • श्री शांतिनाथ भगवान जैन मन्दिर, श्री जैन तपागच्छीय संघ पेढ़ी, सदर बाजार, पोस्ट : फलोदी जिला : जोधपुर (राज.) फोन: 02925-23334 पी. पी.
342 301.
श्री ओसवाल जैन व्याति नोहरा, जसवन्तपुरा पोस्ट फलोदी 342 301 जिला जोधपुर (राज.) : - :
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फोन : 02925-22013.
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श्री गौडी पार्श्वनाथ भगवान-विजयपुरपत्तन
श्री गौडी पार्श्वनाथ जिनालय-विजयपुरपत्तन
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श्री जैसलमेर तीर्थ
इधर-उधर जाकर, बसी, जिससे लोद्रवा सूना-सा दिखने लगा । जैसलजी ने लोद्रवा से यहाँ आकर
अपनी नयी राजधानी बसायी । कहा जाता है, यहाँ के तीर्थाधिराज श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान, मूलनायक श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 105 सें. मी. वही है, जो लोद्रवा मन्दिर में थी । इस पर सं. 2 (श्वे. मन्दिर) ।
का लेख उत्कीर्ण है । तीर्थ स्थल जैसलमेर गाँव के पास टेकरी पर लोद्रवा ध्वंस हुआ तब यह प्रतिमा यहाँ लायी गयी। किले में ।
वि. सं. 1263 फाल्गुन शुक्ला 2 को यह प्रतिमा प्राचीनता * रावल जैसलजी ने अपने नाम पर आचार्य श्री जिनपतिसूरीश्वरजी द्वारा विराजित करवाने जैसलमेर बसाकर किले का निर्माण कार्य वि. सं. का उल्लेख है । इसका उत्सव श्रेष्ठी श्री जगधर ने बड़े 1212 आषाढ़ शुक्ला प्रतिपदा रविवार के दिन प्रारम्भ ही धूमधाम के साथ किया था । यह भी कहा किया । इनके भतीजे भोजदेव रावल की राजधानी जाता है कि इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा आचार्य लोद्रवा थी । काका-भतीजे में कुछ अनबन के कारण। श्री जिनकुशलसूरीश्वरजी के हाथों हुई थी । वि सं. जैसलजी ने मोहम्मद गोरी से सैनिक संधि करके 1459 में आचार्य श्री जिनराजसूरीश्वरजी के उपदेश से भतीजे के नगर लोद्रवा पर चढ़ाई की, युद्ध में भोजदेव मन्दिर निर्माण का कार्य प्रारम्भ होकर वि. सं. 1473 व हजारों योद्धा मारे गये । लोद्रवा जैसलजी के में राउल लक्ष्मणसिंहजी के राज्य काल में रांका गोत्रीय अधिकार में आया । लोद्रवा की जनता भय के कारण श्रेष्ठी श्री जयसिंह नरसिंह द्वारा आचार्य श्री जिनवर्धन
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किले पर जिनालयों का दृश्य-जैसलमेर
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श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान-जैसलमेर
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सूरीश्वरजी के हाथों प्रतिष्ठा करवाने का भी उल्लेख आता है । हो सकता है, मन्दिर का जीर्णोद्धार होकर प्रतिमा की पुनः प्रतिष्ठा वि. सं. 1473 में करवायी गयी हो । उस समय मन्दिर का नाम लक्ष्मण विहार रखने का उल्लेख है । इसी मन्दिर में कई अन्य प्रतिमाओं व पाषाण पट्टों पर वि. की पन्द्रहवीं व सोलहवीं सदी के भी लेख हैं । यह जैसलमेर का मुख्य मन्दिर माना जाता है व श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान के मन्दिर के नाम से प्रचलित है । यहाँ के अन्य मन्दिर प्रायः सोलहवीं सदी में निर्मित हुए का उल्लेख है ।
किसी समय यहाँ सुसम्पन्न जैन श्रावकों के 2700 परिवार रहते थे व जैन धर्म का यह केन्द्र स्थान था।
विशिष्टता * जैसेलमेर अपनी विशिष्ट कला के लिए प्रसिद्ध है । शिल्पकारों ने किसी पाषाण में कहीं भी ऐसी जगह नहीं छोड़ रखी है, जहाँ कला के कुछ न कुछ दर्शन न हो । भारत मे जैसलमेर ही एक ऐसा
स्थान है, जहाँ मन्दिरों में ही नहीं, हर घर के छज्जों, झरोखों आदि में झीणी-झीणी कला के नमूने नजर आते हैं । यहाँ का पीला पत्थर इतना कड़क होते हुए भी शिल्पकारों ने अपनी कला का जबरदस्त नमूना पेश किया है ।
जैसलमेर जैन ग्रन्थ-भन्डारों के लिये भी देश-विदेश में विख्यात है । विभिन्न विषयों पर यहाँ ग्रन्थ संग्रहीत हैं । ऐसा अमूल्य संग्रह अन्यत्र कम है । यह जैन धर्म का अमूल्य खजाना है । शोधकर्ताओं के लिए यह एक महत्वपूर्ण व आकर्षक केन्द्र है ।
यहाँ बृहत् ग्रन्थ-भन्डार में प्रथम दादा श्री जिनदत्तसूरीश्वरजी की 800 वर्षों से प्राचीन चादर, महपत्री व चौलपट्टा भी सुरक्षित हैं । यह मान्यता है कि गुरुदेव के दाह-संस्कार के समय ये वस्तुएँ दिव्य शक्ति से अग्निसात न होने के कारण गुरुभक्तों ने सुरक्षित रखीं । ___ यहाँ निम्र ग्रन्थ भन्डार हैं :- बृहत् भन्डार - किले के मन्दिर में, तपागच्छीय भन्डार - आचार्यगच्छ के उपाश्रय में, बृहत् खरतरगच्छीय भन्डार - भट्टारकगच्छ के उपाश्रय में, लोंकागच्छीय भन्डार - लोंकागच्छ के उपाश्रय में, डुंगरसी ज्ञान भन्डार - डुंगरसी के उपाश्रय में, थीरूशाह भन्डार-थीरूशाह सेठ की हवेली में । ___ यहाँ अनेको आचार्य भगवन्तों ने यात्रार्थ पदार्पण किया है । वि. सं.1461 में जिनवर्धनसूरीश्वरजी जब जैसलमेर आये, तब मूलनायक श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान के पास भैरवजी की मूर्ति थी । उन्होंने स्वामी व सेवकको बराबर बैठाना उचित न समझकर भैरवजी को बाहर विराजमान करवाया । दूसरे दिन देखने पर भैरवजी की मूर्ति पुनः अन्दर उसी जगह पर थी । दूसरे दिने वापिस बाहर बैठाने पर भी यही हुआ । आखिर में सूरिजी ने हठीदेव समझकर गर्जना के साथ मंत्रोच्चारण किये । उसपर मूर्ति स्वयं ही बाहर विराजित हो गई, तब सूरिजी ने ताँबे की 2 मेखें लगवायीं । भैरवजी की मूर्ति अति चमत्कारी है । सूरिजी द्वारा यहाँ और भी चमत्कार बताये गये हैं । उन सब का वर्णन यहाँ सम्भव नहीं ।
यहाँ पर हजारों छोटी-बड़ी पूजित जिन-प्रतिमाओं के दर्शन होते हैं । इतनी प्रतिमाएँ शत्रुजय के बाद यहीं पर है । एक पाषाण पट्ट में जौ जितने मन्दिर में तिल जितनी प्रतिमा उत्कीर्ण है ।
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श्री पार्श्वप्रभु जिनालय का प्रवेशद्वार-जैसलमेर
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यहाँ के सेठ श्री थीरुशाह, संघवी श्री पाँचा, सेठ सँडासा, सेठ श्री जगधर आदि श्रेष्ठियों ने अनेकों धार्मिक कार्य करके ख्याति पायी है । थीरुशाह बड़े दानवीर व सरलस्वभावी थे । उनका निकाला हुआ 'शत्रुजय यात्रा संघ' प्रसिद्ध है । लौद्रवपुर तीर्थ का अन्तिम जीर्णोद्धार इन्होंने करवाया था ।
संघवी श्री पाँचा ने शत्रुजय महातीर्थ के लिए 13 बार संघ निकाले थे । सेठ श्री सँडासा द्वारा किले पर कोट बनवाने का कार्य व मन्दिर के लिए मुलतान जाने की कथा रोचक है। उसी प्रकार सेठ श्री जगधर आदि श्रेष्ठियों द्वारा किया गया धार्मिक-कार्य उल्लेखनीय
श्री संकट हरण पार्श्वनाथ-जैसलमेर
__ अन्य मन्दिर 8 वर्तमान में इसके अतिरिक्त किले पर 9 मन्दिर और हैं । गाँव में 5 मन्दिर हैं । यहाँ के ग्रन्थ-भन्डार अति दर्शनीय हैं । बृहत् ग्रन्थ-भन्डार में पन्ने की प्रतिमा, दादा जिनदत्तसूरिजी की आठ सौ. वर्ष से प्राचीन चादर चौलपट्टा आदि दर्शनीय हैं । __कला और सौन्दर्य के जैसलमेर की कला का जितना वर्णन करें कम हैं । हर एक मन्दिर में स्तों , तोरणों, पुतलियों, नृत्तिकाओं आदि के अद्वितीय बेजोड़ नमूने हैं । यहाँ पर आपको पश्चिम-राजस्थान की कला के सानदार नमूने नजर आयेंगे । ऐसी कला के नमूनों के दर्शन अन्यत्र संभव नहीं । यहाँ की कला निहारते ही आबू देलवाड़ा, राणकपुर, खजुराहो आदि याद आ जाते हैं । लेकिन यहाँ के नमूने वहाँ से भिन्न हैं । यहाँ के कड़क पीले पत्थर में इस ढंग की बारीकी से शिल्प काटना मामूली बात नहीं । तोरण, नृत्तिकाओं व पुतलियों की शिल्पकला यहाँ की विशिष्टता है । जैसलमेर में मन्दिरों के अतिरिक्त पटवों के हवेलियों आदि इमारतों में की हुई कला भी बेजोड़ है । पीले पाषाण से निर्मित शिखर समूहों का दृश्य दूर से ही स्वर्ण शिखरों जैसा प्रतीत होता है । जैन ग्रन्थ-भन्डारों में प्राचीन हस्तलिखित विभिन्न प्रकार के चित्र अति दर्शनीय हैं ।
मार्ग दर्शन ® जैसलमेर रेल्वे स्टेशन से गांव की धर्मशालाएं लगभग 11/2 कि. मी. व किले के मन्दिर 2 कि. मी. दूर हैं । कार व बस गाँव में धर्मशालाओं तक व किले के नीचे तक जाती है । ऊपर पैदल चढ़ना पड़ता है, लगभग 10 मिनट का रास्ता है । परन्तु जीप ऊपर किले में मन्दिर के निकट तक जा सकती
है । जोधपुर, बाडमेर, फलोदी, अहमदाबाद, जयपुर, जालोर व बीकानेर से सीधी बसें है । बस स्टेण्ड से धर्मशालाएँ लगभग 1/2 कि.मी. हैं, जहाँ आटो रिक्शा व टेक्सी का साधन है ।
सुविधाएँ ठहरने के लिए यहाँ पर जैन भवन, नाकोड़ा भवन व श्री महावीर भवन धर्मशालाएँ अलग-अलग स्थान पर है । जो लगभग स्टेशन से 17 कि. मी. दूरी व बस स्टेण्ड से 1/2 कि. मी. दूरी पर है । जैन भवन में सर्वसविधायुक्त कमरे व भोजनशाला की सविधा उपलब्ध है, जहाँ पर कार व बसें भी ठहर सकती है । किले पर भी मन्दिर के निकट छोटी धर्मशाला है जहाँ पूजा-सेवा के लिए पानी की व्यवस्था है ।
पेढ़ी जैसलमेर लोद्रवपुर पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर ट्रस्ट, जैन भवन, पोस्ट : जैसलमेर-345001. प्रान्त : राजस्थान, फोन : 02992-52404.
02992-52330 (किला मन्दिर) तार : JAIN TRUST
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अधिष्ठायक श्री धरणेन्द्रदेव प्रसन्न मुद्रा में प्रत्यक्षा-लोद्रवपुर
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प्राचीन व चमत्कारिक तीर्थक्षेत्र-लोद्रवपुर
श्री लोद्रवपुर तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री सहस्रफणा चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान, श्याम वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 100 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल जैसलमेर से लगभग 15 कि. मी व अमरसागर से लगभग 5 कि. मी. दूर ध्वंश हुए लोद्रव गाँव में ।
प्राचीनता कहा जाता है प्राचीन काल में यह लोद्र राजपूतों की राजधानी का एक बड़ा वैभवशाली शहर था । भारत का प्राचीन विश्व-विद्यालय भी यहाँ था । इस स्थान की विश्व में प्रतिष्ठा थी । एक समय यह राज्य सगर राजा के अधीन था । उनके श्रीधर व राजधर नामक दो पुत्र थे । इन्होंने जैनाचार्य से प्रतिबोध पाकर जैन-धर्म अंगीकार किया । उन्होंने यहाँ श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान का अति विशाल भव्य
श्री अधिष्ठायक देव का आशीर्वाद हेतु
आगमन-लोद्रवपुर
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व अति सुन्दर (कसौटी पाषण में निर्मित) दो प्रतिमाएँ, लेकर मुलतान जा रहे थे । तब विश्राम के लिए यहाँ रुके । रात में दैविक शक्ति से इनको स्वप्न आया कि यहाँ के सेठ थीरुशाह को ये प्रतिमाएं दे देना । उधर थीरुशाह को भी स्वप्न में इन प्रतिमाओं को लेने के " लिए प्रेरणा मिली । दूसरे दिन दोनों एक दूसरे को ढूँढ़ने निकले व मिलने पर सेठ ने दोनों प्रतिमाओं के बराबर सोना देकर प्रतिमाएँ प्राप्त की । कारीगर लोग अत्यन्त खुश हुए । जिस काष्ट के रथ में कारीगर प्रतिमाएँ लाये थे वह अभी भी यहाँ विद्यमान है ।
एक मत यह भी है कि सेठ थीरुशाह जो रथ संघ में साथ लेकर गये थे वही यह रथ है । वापस आते
वक्त इन प्रतिमाओं को पाटण से लेकर आये थे । इन "तीर्थ-दर्शन" सफलता हेतु आशीर्वाद-लोद्रवपुर
विशिष्ट कलात्मक प्रतिमाओं की इस मन्दिर में वि. सं. 1673 मिगसर शुक्ला 12 के दिन आचार्य श्री
जिनराजसूरीश्वरजी के सुहस्ते प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। मन्दिर का निर्माण करवाया था, जिसका उल्लेख विद्वान इस प्रकार सेठ थीरूशाह ने जीर्णोद्धार करवाकर इस श्री सहकीर्ती गणिवर्य द्वारा लिखित सतदल पद्मयन्त्र की प्राचीन तीर्थ के गौरव को अक्षुण बनाये रखा । वर्तमान प्रशस्ती में है, जो अभी भी इस मन्दिर के गर्भद्वार के में लगभग 25 वर्षों पूर्व मन्दिर का पुनः जीर्णोद्धार दाहिनी ओर स्थित है । तत्पश्चात् सेठ श्री खीमसी द्वारा करवाया गया । जीर्णोद्धार का कार्य प्रारम्भ होकर उनके पुत्र श्री विशिष्टता जैसलमेर पंचतीर्थी का यह प्राचीनतम पूनसीद्वारा सम्पूर्ण होने का उल्लेख है।
मुख्य तीर्थ स्थान है । यहाँ की शिल्पकला बहुत ही कालक्रम से यहाँ के रावल भोजदेव व जैसलजी निराले ढंग की है । पश्चिम राजस्थान के कारीगरों ने (काके-भतीजे) के बीच हुए भंयकर युद्ध के कारण पूरा हर स्थान पर विभिन्न ढंग की शिल्पकला का नमूना शहर विध्वंस हुआ तब इस मन्दिर को भी क्षति पहुंची। प्रस्तुत करके राजस्थान का गौरव बढ़ाया है । प्राचीन विजयी जैसलजी ने अपनी नयी राजधानी बसाकर कल्पवृक्ष के दर्शन सिर्फ यहीं पर होते हैं । उसका नाम जैसलमेर रखा । यहाँ के राज-सम्मान किसी जमाने में भारत के बड़े शहरों में इसकी प्राप्त सम्पन्न श्रावकों द्वारा जैसलमेर किले में मन्दिरों गिनती थी। तब ही तो भारत का बड़ा विश्वविद्यालय का निर्माण करवाया गया । उस समय श्री चिन्तामणि यहाँ रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था । पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा को यहाँ से जैसलमेर ले पूर्व काल में जैनाचार्य इसी रास्ते मुलतान जाते जाकर नव निर्माणित मन्दिर में पुनः प्रतिष्ठित करवायी होंगे। तभी तो यहाँ के राजकुमार प्रतिबोध पाकर जैन थी जो अभी वहाँ विद्यमान है ।
धर्म के अनुयायी बन सकें, जिन्होंने यहाँ एक बड़े भारी दानवीर धर्मनिष्ठ सेठ श्री थीरुशाह ने इस प्राचीन तीर्थ की स्थापना कर दी । जो सहसों वर्षों से इस मन्दिर का पुनः जीर्णोद्धार का कार्य प्रारम्भ कर संघ वीरान रेगिस्तान में आँधी व तूफानों की झपेटों को लेकर शत्रुजय यात्रार्थ पधारे । यात्रा से लौटे तब तक सहता हुआ जैन इतिहास के गौरवगरिमा की याद जीर्णोद्धार का कार्य सम्पूर्ण हो चुका था । अब वे दिलाता है । यह सब शुभ समय में आचार्य भगवन्त सुन्दर, अलौकिक व अपने आप में विशिष्टता पूर्ण ऐसी व पुण्यवान राजकुमारों द्वारा शुद्ध विचारों से किये प्रतिमा की खोज में थे । दैवयोग से पाटण के प्रभ महान कार्य का फल है । भक्त दो कारीगर अपने जीवन काल की कृतियों में जंगलों में बिखरे सहस्रों इमारतों के खण्डहर यहाँ सर्वोत्कृष्ठ सहस्रफणा पार्श्वनाथ भगवान की अलौकिक, के प्राचीन इतिहास की याद दिलाते हैं । जंगल में
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श्री लोद्रव पार्श्वनाथ भगवान-लोद्रवपुर
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मंगल करता हुआ यहाँ का शान्त व शुद्ध वातावरण लिए फोटोग्राफी हेतु पूरे भारत के तीर्थ स्थानों का आत्मा को परम शान्ति प्रदान करता है। यहाँ के भ्रमण करते हुए यहाँ आये । प्रतिनिधिगण प्रभु की अधिष्ठायक देव अत्यन्त चमत्कारिक व साक्षात हैं । पूजा-सेवा करके उल्लासपूर्वक आ रहे थे । तब प्रवेश तब ही तो अनेकों बार यह क्षेत्र आक्रमणकारियों द्वारा ।
द्वार में नागदेव के दर्शन हुए । अधिष्ठायक देव का विध्वंस होने पर भी इस मन्दिर को आँच नहीं आयी।
स्वरूप समझकर फोटो लिये गये । इतने में नागदेव
वहाँ पर स्थित एक पत्थर के नीचे चले गये, जहाँ पर कहा जाता है हाल ही में पाकिस्तान द्वारा हुए
कोई छिद्र आदि नहीं था । जीर्णोद्धार का काम आक्रमण के समय यहाँ के अधिष्ठायक, नागदेव के
करनेवाले उपस्थित शिलावटों आदि ने कहा कि यहाँ स्वरूप में कभी-कभी शिखर के ध्वजा दण्ड पर बैठे
कोई छिद्र नहीं हैं । पत्थर हटाते ही नागदेव बाहर आ नजर आते थे । इस आक्रमण के समय भी इस स्थान
जायेंगे, आप मन चाहे फोटो फिर ले सकेंगे । उनका को कोई आँच नहीं आयी । यहाँ से गुजरनेवाले
यह भी कहना था कि जंगल में अनेकों सर्प घूमते भारतीय सेना के अफसर आदि भी प्रभु के दर्शन कर
नजर आते हैं । इनको यहाँ के अधिष्ठायक आगे बढ़ते थे । आक्रमण के समय सुविधा हेतु आखिर
श्री धरणरेन्द्र देव उसी हालत में हम मान सकते हैं, मन्दिर तक डामर सड़क का निर्माण सरकार द्वारा हो
अगर यहाँ से लगभग 10 मीटर दूर स्थित उनके ही चुका था । अभी वर्तमान में एक अभूतपूर्व चमत्कार
स्थान पर प्रकट होकर दर्शन दें । संवाद चल ही रहा हुआ, जिसका संक्षेप में आँखों देखा वर्णन इस प्रकार
था, कुछ सज्जन पुनः दर्शन की अति उत्सुकता के साथ
पत्थर के निकट बैठे थे । परन्तु देव तो अदृश्य हो चुके दिनांक 1 अप्रैल, 1975 को श्री महावीर जैन थे । इतने में एक सज्जन ने पुकारा कि अधिष्ठायक कल्याण संघ, मद्रास के प्रतिनिधिगण इस ग्रन्थ के देव नागदेव के रूवरूप में अपने ही स्थान पर प्रकट
डेलीगेसन के सदस्यों को अधिष्ठायक देव के अपूर्व दर्शन-लोद्रवपुर
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भक्तजनों को अधिष्ठायक देव के आशीर्वाद-लोद्रवपुर
हए हैं । आश्चर्यमयी घटना का वृत्तान्त सुनकर प्रतिनिधिगण, सिल्पीगण व पुजारी आदि तुरन्त ही प्रफुल्लता के साथ दर्शन की अभिलाषा से उस स्थान की तरफ दौड़े । उस समय के उनके हर्ष का वर्णन शब्दों में करना संभव नहीं । सब ने साक्षात् प्रकट हुए अधिष्ठायक देव को भक्ति-भाव पूर्वक वन्दना की । श्रद्धालु फोटोग्राफर श्री गोपालरत्नम् के इच्छानुसार अधिष्ठायक देव ने फोटो लेने दिये, जो कि सदियों तक इस अलौकिकघटना की याद दिलायेंगे । यह दृश्य लगभग 20 मिनट रहा । चलचित्र भी लिया गया । प्रतिनिधिगण पूजा के वेश में थे । उनकों पूजा करने की अभिलाषा थीं । केशर की कटोरी उनके पास थी। केशर के छाँटनों से पूजा की अभिलाषा पूर्ण होते ही अधिष्ठायक देव अदृश्य हो गये । कभी-कभी यहाँ के अधिष्ठायक देव नागदेव के रूप में प्रकट होकर श्रद्धालू भक्तजनों को दर्शन देते हैं, जिसे आज तक किंवदन्ति बताया जाता था । परन्तु इस आश्चर्यमयी अलौकिक घटना ने उन किंवदन्तियों को प्रमाणित सिद्ध करने के साथ यह भी स्पष्ट किया है कि जैन धर्म के अधिष्ठायक आज भी जागरूप हैं । भक्तजन इस पुण्य पावन चमत्कारिक तीर्थ स्थल की यात्रा करने का अवसर न चूकें ।
अन्य मन्दिर ॐ वर्तमान में इसके अतिरिक्त कोई मन्दिर नहीं हैं । मन्दिर के सामने धर्मशाला में एक दादावाड़ी है ।
कला और सौन्दर्य के यहाँ पर भी विचित्र व कलात्मक कारीगरी का अद्वितीय स्वरूप मिलता है । यहाँ के स्तम्भ, छत और शिखर के एक-एक पत्थर बारीक काम का सजीव दृश्य प्रस्तुत कर रहे हैं । ऐसी बारीकी का काम अत्यन्त दुर्लभ हैं । यहाँ की मूर्तियों को देखने से ज्ञात होता है कि शिल्पकारों में सजीव सौन्दर्य चित्रित करने की होड़-सी लगी थी । प्रवेशद्वार की तोरण कला सौन्दर्य को जागृत करती हैं । सहस्रफणा पार्श्वनाथ भगवान की कसौटी पाषाण में
और में बनी, ऐसी भव्य, चमत्कारी प्रतिमा के दर्शन अन्यत्र दुर्लभ है । इन प्रतिमाओं को पाटण से जिस काष्ठ के रथ में लाया गया था, उस कलात्मक रथ की कला भी अपना अलग स्थान रखती है ।
मार्ग दर्शन ® यहाँ का रेल्वे स्टेशन जैसलमेर लगभग 15 कि. मी. दूर है, जहाँ से जीप, टेक्सी व
लोदरवा मन्दिर प्रवेश द्वार आटो की सुविधा है । मन्दिर तक पक्की सड़क है । कार व बस मन्दिर तक जा सकती है ।
सुविधाएँ * ठहरने के लिए सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला है, जहाँ भोजनशाला की भी सुविधा है।
पेढ़ी ® श्री जैसलमेर लोद्रवपुर पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर ट्रस्ट, गाँव : लोद्रवपुर, व्हाया : जैसलमेर, पोस्ट : जैसलमेर - 345 001. प्रान्त : राजस्थान, फोन : 02992-50165.
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अन्य मन्दिर * इसके निकट तालाब के किनारे श्री अमरसागर तीर्थ
दो और मन्दिर हैं, जो शेठ श्री सवाईरामजी
प्रतापचंदजी व ओसवाल पंचायत के बनाये हुए हैं । ये तीर्थाधिराज श्री आदिनाथ भगवान, श्वेत मन्दिर वि.सं. 1897 व वि. सं. 1903 में बने हैं । वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 75 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) । ओसवाल पंचायत द्वारा बनाये मन्दिर को डुंगरसी का
तीर्थ स्थल जैसलमेर से 3 कि. मी दूर लौद्रवा मन्दिर कहते हैं । इस मन्दिर की प्रतिमा विशालकाय मार्ग पर अमरसागर गाँव में तालाब के बीच। व अति ही सुन्दर है, जो विक्रमपुर से लायी हुई
प्राचीनता ® यह मन्दिर वि. सं. 1928 में पटवा लगभग 1500 वर्ष पूर्व की मानी जाती है । इनके शेठ श्री हिम्मतरामजी बाफणा द्वारा निर्मित करवाया अतिरिक्त दो दादावाड़ियाँ भी हैं दादावाड़ियों में युगप्रधान गया व आचार्य श्री जिनमहेन्द्रसूरिजी के सुहस्ते प्रतिष्ठा दादा श्री जिन कुशलसूरीश्वरजी के चरण स्थापित हैं । सम्पन्न हुई ।
___ कला और सौन्दर्य ® तालाब के बीचों बीच लगभग 25 वर्षों पूर्व मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया। निर्मित इस भव्य कलात्मक दो मंजिल के मन्दिर का गया लेकिन प्रतिमाजी अभी भी वही विद्धमान है जो दृश्य अति ही सुन्दर है। यहाँ के मजबूत पीले पत्थर प्राचीन सम्प्रति राजा के समय की मानी जाती है। में बनाये गये विभिन्न कला के नमूने अद्वितीय व
विशिष्टता ® जैसेलमेर की पंचतीर्थी का यह दर्शनीय हैं । मन्दिर के सामने सुरम्य उद्यान अपने ढंग तीर्थ स्थान माना जाता है । यहाँ के बाफणा बंधुओं का अनोखा है । यहाँ की शिल्प-कला भारतीय कला द्वारा निकाला हुआ शत्रुजय-यात्रा संघ प्रसिद्ध है । देश का एक विशिष्ट नमूना है । मन्दिर का सभा मन्डप के प्रसिद्ध पीले पत्थर की खानें यहीं पर है । यह बड़ा ही सुन्दर व कलापूर्ण है । यहाँ की खुदाई का पत्थर पानी पड़ने से दिन-प्रतिदिन मजबूत बनता जाता कार्य पत्थर पर बहुत गहराई से हुआ है । मन्दिर के है, यह इसकी विशेषता है । यहाँ का पत्थर जैसलमेर चारों ओर पत्थर की जालियों की कला निहारने योग्य के पत्थर के नाम से प्रख्यात है ।
है । यह यहाँ की विशेषता है ।
श्री आदीश्वर जिनालय-अमरसागर
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SITORS
श्री आदीश्वर भगवान-अमरसागर
मार्ग दर्शन * यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन जैसलमेर लगभग 5 कि. मी. दूर है, जहाँ से टेक्सी आटो की सुविधा है । मन्दिर तक पक्की सड़क है । कार व बस मन्दिर तक जा सकती है ।
सुविधाएँ * ठहरने के लिए यहाँ पर छोटी धर्मशाला है. जहाँ पानी, बिजली आदि की सविधा है। जैसलमेर में ठहरकर यहाँ दर्शनार्थ आना ज्यादा सुविधाजनक है ।
पेढ़ी के श्री जैसलमेर लोद्रवपुर पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर ट्रस्ट, गाँव : अमरसागर, व्हाया : जैसलमेर, पोस्ट : जैसलमेर - 345 001. जिला : जैसलमेर, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 02992-52405. मुख्य पेढ़ी : जैन भवन, जैसलमेर, फोन : 02992-52404.
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FELHI
विशिष्टता यह क्षेत्र श्री जैसलमेर पंचतीर्थी का एक तीर्थ-स्थान माना जाता है। यहाँ से लगभग 1 कि. मी. दूर दादा श्री जिनकुशलसूरीश्वरजी का स्थान व कुन्ड हैं । जन श्रुति के अनुसार लूणिया गोत्र के एक सेठ देराउर गाँव में यवनों द्वारा बहुत सताये जाते थे । गुरुदेव ने सेठ को राजस्थान जाने को कहा और कहा कि पीछे नहीं देखना । लूणिया परिवार ऊँटों पर सामान आदि लादकर चले । इस स्थान पर पहुँचने पर उजाला देखकर पीछे की ओर देखा तो गुरुदेव वहीं रुक गये व आशीर्वाद देकर कहा कि अब मैं जाता हूँ। तुम डरना नहीं, पास ही ब्रह्मसर गाँव में चले जाओ। जिस पाषाण पर गुरुदेव ने खड़े होकर दर्शन दिये थे उसी पर गुरुदेव के चरण उत्कीर्ण करवाकर छत्री में स्थापित किये । वे चरण आज भी विद्यमान हैं । दादावाड़ी का निर्माण भी हुवा दादावाड़ी में एक कुन्ड है जो अकाल में भी हमेशा निर्मल जल से भरा रहता है । यह स्थान बहुत ही चमत्कार-पूर्ण व देखने योग्य है। ___ इसके निकट ही वैशाखी नाम का वैष्णवों का तीर्थ स्थान है, जो बौद्धकालीन माना जाता है । वैशाखी व ब्रह्मसर के बीच 'गडवी' नामक एक कुआँ हैं दुष्काल के समय जैसलमेर की पनिहारिनियाँ यहाँ से पानी ले जाया करती थी, ऐसा कहा जाता है ।
अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त लगभग 1/2 कि. मी. दूर एक दादावाड़ी है, जिसका वर्णण विशिष्टता में किया है ।
कला और सौन्दर्य ® मन्दिर के सामने उपाश्रय के दरवाजे पर कुछ विशिष्ट कला के नमूने उत्कीर्ण हैं। __ मार्गदर्शन * यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन जैसलमेर लगभग 13 कि. मी. दूर है, जहाँ से टेक्सी व आटो की सुविधा है । यह स्थान जैसलमेर बागसा मार्ग में स्थित है । मन्दिर तक कार व बस जा सकती है । लोद्रवा तीर्थ इस स्थान से लगभग 13 कि. मी. हैं।
सुविधाएँ ठहरने के लिए मन्दिर के पास छोटीसी धर्मशाला है, जहाँ पानी बिजली का साधन है। यहाँ से लगभग 17 कि. मी. दूर दादा जिनकुशलसूरि ट्रस्ट द्वारा संचालित उक्त उल्लेखित दादावाड़ी के परिसर में सर्वसुविधायुक्त बड़ी धर्मशाला है जहाँ भोजनशाला की भी सुविधा है । यात्रियों को जैसलमेर या लोद्रवपुर में ठहरकर यहाँ आना सुविधजनक है या उक्त
श्री जगवल्लभ पार्श्वनाथ भगवान-ब्रह्मसर
श्री ब्रह्मसर तीर्थ
तीर्थाधिराज * श्री जगवल्लभ पार्श्वनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 75 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल जैसलमेर से 13 कि. मी दूर छोटे से ब्रह्मसर गाँव में ।।
प्राचीनता यहाँ के श्रेष्ठी श्री अमोलखचन्दजी माणकलालजी बागरेचा ने इस मन्दिर का निर्माण करवाकर वि. सं. 1844 माघ शुक्ला 8 के शुभ दिन प्रतिष्ठा करवायी ।
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उल्लेखित दादावाड़ी की धर्मशाला में ठहरना सुविधाजनक रहेगा ।
पेढ़ी श्री जैसलमेर लोद्रवपुर पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर ट्रस्ट, गाँव : ब्रह्मसर, पोस्ट : जैसलमेर - 345001. जिला : जैसलमेर, प्रान्त : राजस्थान, मुख्य पेढ़ी : जैसलमेर, फोन : 02992-52404.
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ऐतिहासिक कलात्मक रथ-लोद्रवा
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श्री पार्श्वप्रभु जिनालय-ब्रह्मसर
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पता
श्री पार्श्वनाथ भगवान -पोकरण
MAN
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श्री पोकरण तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री पार्श्वनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 75 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल पोकरण गाँव के मध्यस्थ ।
प्राचीनता र इस मन्दिर की प्रतिष्ठा वि. सं. 1548 में हुई थी । जीर्णोद्धार होकर पुनः प्रतिष्ठिा वि. सं. 1883 में सम्पन्न हई । अभी पुनः जीर्णोद्धार की अतीव आवश्यकता है ।
विशिष्टता श्री जैसलमेर पंचतीर्थी का यह एक तीर्थ-स्थान माना जाता है ।
अन्य मन्दिर 8 इसके अतिरिक्त इसके निकट ही निम्न दो और मन्दिर हैं व गाँव के बाहर जोधपुर मार्ग
र मार्ग में एक प्राचीन दादावाड़ी है । 1. श्री आदिनाथ भगवान जिनालय, जिसकी प्रतिष्ठा
वि. सं. 1536 में हुई थी। श्री पार्श्वनाथ भगवान जिनालय जिसकी प्रतिष्ठा वि. सं. 1548 में हुई थी व वि. सं. 1856 में जीर्णोद्धार होकर पुनः प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई । पहले यह मन्दिर श्री शान्तिनाथ भगवान के नाम से प्रसिद्ध था ।
कला और सौन्दर्य * लाल पत्थर की बनी इमारतों में कोतरणी का काम देखने योग्य है ।
मार्ग दर्शन 8 यहाँ का रेल्वे स्टेशन पोकरण मन्दिर से करीब एक कि. मी. दूर है । रास्ता तंग रहने के कारण कार व बस मन्दिर से करीब 100 मीटर दूर ठहरानी पड़ती है । बस स्टेण्ड मन्दिर से करीब 14 कि. मी. दूर है । यह क्षेत्र जोधपुर-जैसलमेर, रेल व सड़क मार्ग पर स्थित हैं । पोकरण से जैसलमेर करीब 40 कि. मी. दूर है ।
सुविधाएँ ठहरने के लिए मन्दिर के पास ही एक छोटी धर्मशाला है, जहाँ पानी, बिजली की सुविधा है ।
पेढ़ी 8 श्री जैसलमेर लोद्रवपुर पार्श्वनाथ श्वेताम्बर जैन ट्रस्ट, पोस्ट : पोकरण - 345 021. जिला : जैसलमेर, प्रान्त : राजस्थान, मुख्य पेढ़ी : जैसलमेर, फोन : 02992-52404.
Sirdon
Phalodi.
Shri Bhadriya
14
F
660
R Ramdevra
Odania
19 Pokaran
Kolu Paru
श्री पार्श्वनाथ जिनालय-पोकरण
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श्री नाकोड़ा तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री पार्श्वनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 58 सें. मी. (श्वे. मन्दिर)।
तीर्थ स्थल बालोतरा से 13 कि.मी. व मेवा-नगर से 1 कि.मी. दूर जंगल में पर्वतों के बीच।
प्राचीनता इसका प्राचीन नाम वीरमपुर होने । का उल्लेख है । कहा जाता है कि वि. पूर्व तीसरी शताब्दी में श्री वीरसेन व नाकोरसेन भाग्यवान बंधुओं ने अपने नाम पर बीस मील के अन्तर में वीरमपुर व नाकोरनगर गाँव बसाये थे । श्री वीरसेन ने वीरमपुर में श्री चन्द्रप्रभ भगवान का व नाकोरनगर में श्री सुपार्श्वनाथ भगवान का मन्दिर निर्मित करवाकर परमपूज्य आर्य श्री स्थूलिभद्रस्वामीजी के सुहस्ते प्रतिष्ठा संपन्न करवायी थी । तत्पश्चात् श्री संप्रतिराजा प्रतिबोधक आचार्य श्री सुहस्तीसूरीश्वरजी,विक्रमादित्य राजा की
सभा के रत्न आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर, भक्तामर स्तोत्र रचयिता आचार्य श्री मानतुंगसुरिजी, श्री कालकाचार्य, श्री हीरभद्रसुरिजी, श्री देवसूरिजी आदि प्रकाण्ड विद्वान आचार्यों ने इन तीर्थों की यात्रा कर राजा श्री संप्रति, राजा श्री विक्रमादित्य आदि राजाओं को प्रेरणा देकर समय समय पर इन मन्दिरों के जीर्णोद्धार करवाने के उल्लेख हैं । नाकोरनगर लगभग तेरहवीं शताब्दी के अन्त तक आबाद रहा । वि. सं. 1280 में जब आलमशाह ने चढ़ाई की, तब श्री संघ ने प्रतिमाओं को वहाँ से चार मील दूर कालीदह गाँव में सुरक्षा हेतु गर्भगृह में रख दिया था। बादशाह ने मन्दिरों को खाली पाकर तोड़ डाला । भय से जनता इधर-उधर गाँवों में जा बसी ।
वि. सं. 909 में वीरमपुर शहर, सुसम्पन्न श्रावकों के लगभग 2700 घरों की आबादी से जगमगा रहा था । उस समय श्रेष्ठी श्री हरखचंदजी ने प्राचीन मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाकर श्री महावीर भगवान के प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवायी थी, ऐसा उल्लेख है । वि. सं.
श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ जिनालय का अपूर्व दृश्य
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PRATI
श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ भगवान-मेवा नगर
1223 में पुनः जीर्णोद्धार करवाने का उल्लेख मिलता है । वि. सं. 1280 में आलमशाह ने इस नगर पर भी चढ़ाई की । तब इस मन्दिर को भारी क्षति पहुँची। वि. की लगभग 15 वीं शताब्दी के आरंभ में इस मन्दिर के नवनिर्माण का कार्य पुनः प्रारंभ किया गया। कालीद्रह में स्थित नाकोरनगर की 120 प्राचीन प्रतिमाएँ यहाँ लाकर उसमें से श्री पार्श्वनाथ भगवान
की इस सुन्दर चमत्कारी प्रतिमा को मूलनायक के रूप में इस नवनिर्मित मन्दिर में वि. सं. 1429 में पुनः प्रतिष्ठित किया गया जो अभी विद्यमान है । मूल प्रतिमा नाकोरनगर की रहने के कारण इस तीर्थ का नाम नाकोड़ा प्रचलित हुआ ।
एक और मान्यतानुसार यह प्रतिमा, भाग्यवानसुश्रावक
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श्री जिनदत्त को श्री अधिष्ठायक देव द्वारा स्वप्न में दिये संकेत के आधार पर नाकोरनगर के निकट सिणदरी गाँव के पास एक तालाब से प्रकट हुई थी, जिसे अति ही उल्लास व विराट जुलूस के साथ यहाँ लाकर वि. सं. 1429 में भट्टारक आचार्य श्री उदयसूरीश्वरजी के सुहस्ते प्रतिष्ठित करवाई गई । उस दिन से इस तीर्थ का नाम नाकोड़ा पड़ा ।
वि. सं. 1511 के जीर्णोद्धार के समय यहाँ के प्रकट प्रभावी साक्षात्कार अधिष्ठायदेव श्री भैरवजी की स्थापना आचार्य श्री कीर्तिरत्नसूरिजी द्वारा करवाई गई, जो इस तीर्थ की रक्षा करते हैं व भक्तों की मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं ।
सं. 1564 में ओशवाल वंशज छाजेड गोत्रिय सेठ जुठिल के प्रपौत्र सेठ सदारंग द्वारा जीर्णोद्धार होने का उल्लेख है । वि. सं. 1638 में इस मन्दिर के पुनरुद्धार हुए का उल्लेख है । लगभग सत्रहवीं शताब्दी तक यहाँ की जाहोजलाली अच्छी रही । उसके बाद श्रेष्ठी मालाशाह संकलेचा के भ्राता श्री नानकजी ने यहाँ के राजकुमार का अप्रिय व्यवहार देखकर गाँव छोड़ने
उसके पश्चात् इस गाँव की जनसंख्या दिन प्रति दिन घटने लगी । आज जैनियों का कोई घर नहीं है, लेकिन श्री संघ द्वारा हो रही तीर्थ की व्यवस्था उल्लेखनीय है । सत्रहवीं सदी के बाद सं. 1865 में जीर्णोद्धार होने का उल्लेख है । उसके पश्चात् भी समय-समय पर आवश्यक जीर्णोद्धार हुए ।
विशिष्टता ॐ परमपूज्य श्री स्थूलिभद्रस्वामीजी द्वारा प्रतिष्ठित इस तीर्थ की महान विशेषता है । पार्श्वप्रभु की प्राचीन प्रतिमा सुन्दर व अति ही चमत्कारी है । यहाँ के अधिष्ठायक श्री भैरवजी महाराज साक्षात हैं व उनके चमत्कार जगविख्यात हैं । हमेशा सैकड़ों यात्री अपनी अपनी भावना लेकर आते हैं । उनकी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं । यहाँ मन्दिर के अतिरिक्त कोई घर नहीं है । परन्तु यात्रियों का निरन्तर आवागमन रहने के कारण यह स्थल नगरी सा प्रतीत होता है । प्रतिवर्ष श्री पार्श्वप्रभु के जन्म कल्याणक दिवस पौष कृष्णा दशमी को विराट मेले का आयोजन होता है ।
अन्य मन्दिर इसके अतिरिक्त मन्दिर के अहाते में ही 4 मन्दिर व बाहरी भाग में एक मन्दिर एक दादावाड़ी व एक गुरु मन्दिर हैं । बाहरी भाग में एक और भव्य समवसरण मन्दिर का निर्माण कार्य चालू है। अन्दर के मन्दिरों में श्री आदिनाथ भगवान व श्री शांतिनाथ भगवान के मन्दिर लगभग सोलवी । सत्रहवीं शताब्दी के माने जाते हैं । - कला और सौन्दर्य * यहाँ भोयरों में बारहवीं सदी से सत्रहवीं सदी तक की प्राचीन प्रतिमाएँ दर्शनीय है । मूलनायक भगवान की प्रतिमा का तो जितना वर्णन करें कम है । एक बार आने वाले यात्री की भावना पुनः आने की सहज ही में हो जाती है । यह स्थल जंगल में छट्टायुक्त पहाड़ियों के बीच एकान्त में रहने के कारण यहाँ का प्राकृतिक दृश्य देखते ही बनता
सारे जैन कुटुम्बीजनों के साथ गाँव छोडकर चले गये ।
मार्ग दर्शन * यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन बालोतरा 13 कि. मी. दूर हैं । वहाँ पर टेक्सी व बसों की सुविधा है । यहाँ जालोर-बालोतरा सड़क मार्ग में जसोल होकर आना पड़ता है । यहाँ से जोधपुर, सिरोही, फालना, देसूरी, जालौर, बाड़मेर, राणकपुर, पाली, उदयपुर व अहमदाबाद के लिए सीधी बसें हैं । मन्दिर के बाहर ही बस स्टेण्ड है । आखिर तक पक्की
दुर दृश्य-नाकोड़ा
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साक्षात्कार श्री नाकोड़ा भैरवजी महाराज-मेवा नगर
सड़क है । कार व बस मन्दिर तक जा सकती है । यात्रियों के खानेकी सविधा है । भोजन समय के
* ठहरने के लिए मन्दिर के निकट ही। अलावा भाता भी दिया जाता है । वृद्ध व्यक्तियों के 8 विशाल धर्मशालाएँ है, जिनमें सर्वसुविधायुक्त 500 लिए व्हील चेयर की भी सुविधा है । कमरें हैं । संधों के ठहरने की व्यवस्था संघ भवन में पेढ़ी 8 श्री जैन श्वेताम्बर नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ, व भोजन बनाने एवम् खाने की समुचित व्यवस्था पास पोस्ट : मेवानगर - 344 025. स्टेशन : बालोतरा, ही नवकारसी भवन में है, जहाँ पर आवश्यक बर्तन,
जिला : बाड़मेर, प्रान्त : राजस्थान, बिस्तर आदि भी उपलब्ध है ।
फोन : 02988-40761, 40005, व 40096 भोजनशाला भवन अलग है, जहाँ एक साथ 800 फेक्स : 02988-40762.
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श्री नागेश्वर तीर्थ
तीर्थाधिराज
श्री पार्श्वनाथ भगवान, कायोत्सर्ग मुद्रा, हरित वर्ण, 420 सें. मी. ( श्वे. मन्दिर) | उन्हेल गाँव के पास झरने के
तीर्थ स्थल
किनारे ।
प्राचीनता यहाँ उपलब्ध विध्वंश अवशेषों आदि से इस तीर्थ की प्राचीनता लगभग 1200 वर्षों के पूर्व की मानी जाती है । प्रतिमाजी की कलाकृति से प्रतिमा लगभग 1100 वर्षों से पूर्व की होने का अनुमान है। इस प्रतिमा का प्रभु पार्श्वनाथ के जीवित काल में प्रभु के अधिष्ठायक श्री धरणेन्द्र देव द्वारा निर्मित होने की
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भी मान्यता है । यह प्राचीन मन्दिर जीर्ण अवस्था में था, जिसकी देखभाल एक सन्यासी बाबा वर्षों से कर रहा था, प्रतिमा हमेशा अपूजित रहती थी । यह दृश्य कुछ वर्षों पूर्व निकटवर्ती जैन संघ के ध्यान में आकृष्ट हुआ । परमपूज्य उपाध्याय तपस्वी श्री धर्मसागरजी महाराज एवं गणिवर्य श्री अभयसागरजी महाराज की प्रेरणा से जैन संघ ने सरकारी तौर पर उचित कदम उठाकर मन्दिर का कार्यभार अपने हाथ में संभालकर विधिपूर्वक सेवा-पूजा प्रारम्भ की व पुनः जीर्णोद्धार का कार्य प्रारंभ किया गया जो गत पच्चीस वर्षों की अवधि में प्रभु कृपा से बहुत ही विशालता पूर्वक सुसम्पन्न हुवा । इस तीर्थ को प्रकाश में लाने का श्रेय श्री दीपचन्दजी जैन व वषन्तीलालजी डाँगी को है ।
श्री नागेश्वर पार्श्वप्रभु जिनालय
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विशिष्टता श्री पार्श्वप्रभु के देहप्रमाण नव हाथ ऊँची (13% फुट) व हरीत वर्ण (मूलवण) में मरकतमणी सी प्रतीत होती यह भव्य चमत्कारिक प्रभु के समयकालीन मानी जाने वाली प्राचीन प्रतिमा अद्वितीय है, जो यहाँ की मुख्य विशेषता है । यह प्रतिमा जब सन्यासी बाबा की देखभाल में थी, तब भी चमत्कारिक घटनाओं के कारण स्थानीय लोग आकर्षित होकर दर्शनार्थ आते रहते थे । उसके पश्चात् भी अनेकों प्रकार की चमत्कारिक घटनाएं समय-समय पर घटने का उल्लेख है । अभी भी चमकारिक घटनाएं घटती रहती हैं । यहाँ के अधिष्ठायक प्रत्यक्ष हैं ।।
अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त बाहरी भाग में एक दादावाड़ी व दो गुरु मन्दिर हैं । ___कला और सौन्दर्य * प्रभु प्रतिमा की कला अति ही मनोहर बेजोड़ है । आजू बाजू में कायोत्सर्ग मुद्रा में लगभग 135 सें. मी. ऊँची श्री शान्तिनाथ भगवान व श्री महावीर भगवान की प्रतिमाएँ हैं । मन्दिर की अन्य देरियों व गोखलों में विराजित प्रभु की व देव-देवियों की प्रतिमाएं व पट्ट आदि भी अति सुन्दर व दर्शनीय है ।
मार्ग दर्शन 8 यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन विक्रमगढ़ आलोट 8 कि. मी. व चौमहला 15 कि. मी. दिल्ली-मुम्बई लाईन पर है । यहाँ से नागदा 60 कि. मी. व रतलाम 90 कि. मी. दूर है । सभी जगहों पर टेक्सी आदि का साधन है । पूर्व सूचना देने पर पेढ़ी द्वारा भी वाहन व्यवस्था उपलब्ध हो सकती है ।
सुविधाएँ ® ठहरने के लिए मन्दिर के पास 300 कमरों की सर्वसुविधायुक्त धर्मशालाएँ है । विशाल भोजनशाला की सुविधा भी उपलब्ध है ।
पेढ़ी श्री जैन श्वेताम्बर नागेश्वर पार्श्वनाथ तीर्थ पेढ़ी, पोस्ट : उन्हेंल - 326515. स्टेशन : चौमहला, जिला : झालावाड़, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 07410-40711, 40715 फेक्स : 07410-40716.
(9000000000
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श्री नागेश्वर पार्श्वनाथ भगवान-नागेश्वर
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श्री चंवलेश्वर तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री चंवलेश्वर पार्श्वनाथ भगवान, पद्मासनस्थ ।
तीर्थ स्थल मेवाड देशांतर्गत भीलवाडा जिले में बनास नदी के तटपर विध्वंश हुवे मिणाय नगर के पारोली गांव से लगभग 6 कि. मी. दूर कालीघाटी पर्वतीय भाग में चेनपुरा गांव के निकट लगभग 1000-1200 फुट ऊंचे रमणीय पहाड़ की चोटी पर।
प्राचीनता 8 इस तीर्थ की प्राचीनता लगभग सात सौ वर्ष पूर्व की मानी जाती है । कहा जाता है किसी समय बनास नदी के तटपर बसे मिणाय नगर का क्षेत्र लगभग पांच-छ: सो मील तक फैला हुवा समृद्ध जहोजलाली पूर्ण था । यहाँ के स्वतंत्र राजा की राजधानी मिणाय थी । प्रायः देखा जाता है जहाँ भी राजाओं ने अपना राज्य बसाया उन्हें समृद्धिशाली जैन श्रावकों का साथ रहा । उसी भांति संभवतः यहाँ पर भी अवश्य रहा होगा व कई जैन श्रावक यहाँ बसे होंगे। पुण्यवान श्रावकों द्वारा जगह-जगह सार्वजानिक व धार्मिक कार्यों में भाग लेने व मन्दिरों के निर्माण करवाने का उल्लेख आता है । उसी भांति दन्तकथानुसार कहा जाता है कि यहाँ के श्री नाथू काबड़िया के पुण्योदय से यहाँ पधारे एक जैन यतिवर्य की कृपा
उनपर हुई । जिसके फलस्वरुप वे प्रतिष्ठा सम्पन्न बने। इनके द्वारा संभवतः किये सार्वजनिक व धार्मिक कार्यों में यहाँ पर अतीव सुन्दर, सुट्टढ़ व गहरी वाव के बनाने का कार्य अतीव प्रशंसनीय है जो आज भी उनके गौरव गाथा की याद दिलाती है व कावडिया-नाथूशाह वाव, दुर्ग-मिणाय वाव आदि नामों से आज भी प्रचलित है । इस वाव की प्राचीनता लगभग सात सौ वर्ष की मानी जाती है । दन्त कथानुसार यह भी कहा जाता है कि श्रेष्ठी श्री नाथू ने वाव बनवाने के पूर्व ही यहाँ श्री चंवलेश्वर पार्श्वनाथ भगवान के मन्दिर का निर्माण करवा दिया था । पर्वत पर अवस्थित दुर्ग-खण्डहर, मिणाय तालाब आदि भी यहाँ की प्राचीनता व भव्यता की याद दिलाते है । उक्त विवरणों से यहाँ की प्राचीनता स्वतः सिद्ध होती है । प्रायः सभी तीर्थों पर समय-समय पर जीर्णोद्धार होने का उल्लेख आता है । यहाँ पर जीर्णोद्धार का कार्य कम हुवा नजर आता है । मुनिश्री खुशालविजयजी ने सं. 1811 में श्री पार्श्वनाथ नाम माला तीर्थावली बनाई जिसमें श्री चंवलेश्वर पार्श्वनाथ नाम का उल्लेख है । __वर्तमान में इस तीर्थ पर श्वे. व दि. दोनों समुदाय अपनी-अपनी मान्यतानुसार पूजा-पाठ में भाग लेते है। इस मन्दिर का जीर्णोद्धार व प्रतिमा का विलेपन इस मान्दर शीध्र होना अतीव आवश्यक है । विशिष्टता यह प्रभाविक प्रतिमा बालु की बनी
श्री चंवलेश्वर पार्श्वनाथ मन्दिर-चंवलेश्वर
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हुई है। कहा जाता है कि निकट की बनास नदी के एक स्थान पर एक गाय खड़ी रहती थी, वहाँ उसका दूध झर जाता था । यह क्रम कई दिनों तक चलता रहा । गोपालक इससे हैरान था क्योंकि उसे दूध नहीं मिल रहा था । अतः इसका कारण जानने हेतु एक दिन उसने गाय का पीछा किया। वह देखता है कि बनास नदि के एक स्थान पर गाय जाकर खड़ी रहती
व दुध स्वतः ही झरने लगता है। गोपालक यह द्दश्य देखकर आश्चर्य चकित हुवा ।
कहा जाता है कि यहाँ के नाथू नाम के श्रेष्ठी को स्वप्न में अधिष्ठायकादेवी ने संकेत दिया कि बनास नदी के उस स्थान में श्री पार्श्वप्रभु की एक प्रतिमा है, जिसे निकालकर चूलवत पर्वत पर मन्दिर का निर्माण करवाकर विधिवत प्रतिष्ठित कर संकेतिक स्थान पर प्रतिमा प्राप्त हुई व उसने मन्दिर का निर्माण करवाकर पार्श्वप्रभु की प्रतिमा की विधिवत प्रतिष्ठा करवाई जो अभी विद्यमान है। संभवतः नाथू नाम का श्रेष्ठी ही वह गौपालक होगा, जिसकी एक गाय का दूध वहाँ पर झरता था क्योंकि पुराने जमाने में प्रायः काफी श्रावकों के खेती रहती थी व गायें भी रखते थे। शायद नाथू काबड़िया, नाथू श्रावक व गौपालक एक ही होंगे ।
प्रतिमा अतीव चमत्कारिक है । आज भी अनेकों प्रकार की चमत्कारिक घटनाएँ घटती रहती है ।
प्रतिवर्ष पोष कृष्णा नवमी व दशमी को मेले का आयोजन होता है तब जैन-जैनेतर आकर प्रभु को अपनी श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं व अपनी मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं ।
श्वे व दि. दोनो आम्नाय के लोगों का यह श्रद्धा का केन्द्र है अतः दोनों ही भक्ति भाव से पूजा-पाठ करते है । कहा जाता है कि कभी-कभी तनाव भी बढ़ जाता है । प्रभु से प्रार्थना है कि यह तनाव हमेशा के लिये दूर होकर आपस में पुनः भाईचारा स्थापित हो । पूर्ण विश्वास है कि प्रभु महावीर की इस छबीसवीं जन्म शताब्दी में यह तनाव अवश्य दूर होगा । प्रतिमाजी के विलेपन का व मन्दिर के जीर्णोद्वार का कार्य भी शीघ्र प्रारंभ होगा । जिसकी अतीव आवश्यकता है ।
अन्य मन्दिर वर्तमान में पहाड़ी पर यही एक
श्री चंचलेश्वर पार्श्वनाथ चंवलेश्वर
मात्र मन्दिर है। तलहटी में एक और पार्श्व प्रभु मन्दिर है, जो खण्डहर अवस्था में है। इसके भी जीर्णोद्धार की आवश्यकता है ।
कला और सौन्दर्य
मन्दिर पहाड़ी पर रहने के कारण यहाँ का पहाड़ी दृश्य अत्यन्त शांत, सौम्य मनमोहक व सुहावना लगता है। यात्रियों को शत्रुंजय का स्मरण हो आता है ।
मार्ग दर्शन यहाँ से भीलवाड़ा 70 कि. मी. दूर है । जहाँ पर सभी तरह के वाहनों का साधन है। भीलवाड़ा से पारोली होकर आना पड़ता है । पारोली गांव यहाँ से 8 कि. मी. दूर काछोला गांव से शाहपुरा जाने वाली रोड़ पर है । मन्दिर तक कार व जीप जा जा सकती है। बस तलहटी तक जा सकती है। यहाँ पर सवारी का कोई साधन नहीं है । नजदीक का हवाई अड्डा उदयपुर 200 कि. मी. है ।
सुविधाएँ ठहरने हेतु विश्राम स्थल बने डुवे हैं परन्तु सुविधाजनक नहीं है । भोजनशाला नहीं है । पेढ़ी
गाँव
जिला
फोन
:
श्री चंवलेश्वर पार्श्वनाथ जैन मन्दिर, चेनपुरा पोस्ट पारोली 311001. भीलवाड़ा (राजस्थान)
:
पी.पी. (श्वे.) 01482-24430 (भीलवाड़ा)
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श्री चित्रकूट तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री आदिनाथ भगवान, श्वेत वर्ण पद्मासनस्थ, लगभग 35 सें. मी. (श्वे. मन्दिर ) । तीर्थ स्थल समुद्र की सतह से लगभग 560 मी. ऊँचे, समतलपर्वत पर बने 32 मील लम्बे व आधा मील चौड़े चित्तौड़ किले में ।
प्राचीनता विक्रम की प्रथम शताब्दी में श्री सिद्धसेन दिवाकर, जिन्हें सम्राट विक्रमादित्य की राज्यसभा के रत्न बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, यहाँ विद्यासाधन हेतु आकर रहे थे, ऐसा उल्लेख मिलता है। आचार्य श्री हरिभद्रसूरिश्वरजी, जो विक्रम की आठवीं-नवमी शताब्दी में हुए, उनका जन्मस्थान यही शहर है, जो
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उस समय मध्यमिका नगरी के नाम से प्रसिद्ध था ।
यह किला मौर्यवंशी राजा चित्रांगद द्वारा निर्मित होने के कारण इसे चित्रकूट भी कहते हैं । विक्रम की आठवीं शताब्दी में मेवाड़ के गुहिलवंशी राजा बापा रावल ने मौर्यवंशी राजा मान को हराकर किला अपने अधीन किया । बारहवीं शताब्दी में यह सिद्धराज जयसिंह के अधिकार में आ गया । यह अधिकार कुमारपाल राजा के समय तक रहा । कुमारपाल राजा द्वारा उनके प्राण की रक्षा करनेवाले आलिक कुम्हार को सात सौ गाँवों सहित चित्रकूट पट्टा करके दिये जाने का उल्लेख मिलता है । राजा कुमारपाल सं. 1216 में जैनधर्म के अनुयायी बने । उसके पूर्व के कुछ शिलालेख मिलते हैं। बाद में कुमारपाल के भतीजे अजयपाल को मेवाड़ के गुहिलवंशी राजा सामतसिंह ने
श्री आदिनाथ जिनालय - चित्रकूट
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श्री आदिनाथ भगवान चित्रकूट
हराकर वि. सं. 1231 में इस पर अपना अधिकार किया । उसके बाद मुसलमानों का राज्य होते हुए भी चित्तौड़ गुहिलवंशी सिसोदिया राजाओं के अधिकार में ही रहा ।
वि. सं. 1167 में यहाँ श्री महावीर भगवान का मन्दिर निर्मित होने का उल्लेख हैं । युगप्रधान दादा श्री जिनदत्तसूरीश्वरजी को वि. सं.
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1169 वैशाख शुक्ला प्रतिपदा के दिन श्री जिनवल्लभ सूरीश्वरजी के पाट पर विराट महोत्सव के साथ यहीं अभिषिक्त किया गया था । दादागुरू का पूर्व नाम पण्डित सोमचन्द्र गण था । दादागुरू ने अपने योगबल से श्री वज्रस्वामी द्वारा रचित अनेक विद्याओं से युक्त, अद्वितीय, प्राचीन ग्रन्थ को यहाँ के वज्रस्तंभ में से प्राप्त करने में सफलता पाई थी, जो उल्लेखनीय है ।
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ग्रन्थ में समाविष्ट अपूर्व मंत्रों की साधना से दादा सम्मानित श्रेष्ठी श्री वीसल ने पंद्रहवीं शताब्दी में किले गुरूदेव ने सप्तम प्रभाविक सिद्धि प्राप्त की थी । में श्री श्रेयांसनाथ भगवान का मन्दिर बनवाया था ।
दादा गुरूदेव ने जिन-शासन की प्रभावना के अनेकों श्रेष्ठी गुणराज के पुत्र बाल ने पन्द्रहवीं शताब्दी में, कार्य किये जो चिर-स्मरणीय हैं । आज भी दादागुरू कीर्तिस्तंभ के पास, चारों ओर देवकुलिकाओं से साक्षात् हैं । गुरूदेव के स्मरण मात्र से श्रद्धालु शुसोभित विशाल जिनमन्दिर बनवाकर उसमें श्री भक्तजनों की मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं ।
सोमसुन्दरसूरीश्वरजी के सुहस्त से तीन जिनप्रतिमाओं महाराणा तेजसिंहजी की पटरानी और समरसिंहजी
की प्रतिष्ठा करवायी थी । की मातुश्री जयतल्लदेवी द्वारा यहाँ वि. सं. 1322 में महाराणा मौकल के समय उनके मुख्य मंत्री श्री पार्श्वनाथ भगवान का मन्दिर बनवाने का उल्लेख हैं।
श्री सरणपालजी द्वारा यहाँ अनेकों जिनमन्दिर बनवाने __वि. सं. 1335 फाल्गुन शुक्ला 5 के दिन युवराज
का उल्लेख हैं । मान्डवगढ़ के महामंत्री पेथडशाह ने अमरसिंहजी की सान्निध्यता में श्री आदिनाथ भगवान
भी यहाँ मन्दिर बनवाया था । के मन्दिर पर ध्वजारोहण होने का उल्लेख मिलता है। वि. सं. 1566 में श्री जयहेमरचित तीर्थमाला में एवं वि. सं. 1353 में महाराजा समरसिंह के राज्यकाल वि. सं. 1573 में श्री हर्षप्रमोद के शिष्य गयंदी द्वारा में जलयात्रापूर्वक ग्यारह जिनमन्दिरों में जिनप्रतिमाएँ रचित तीर्थमाला में यहाँ विभिन्न गच्छों के 32 जैनमन्दिर प्रतिष्ठित की गयी थी । श्री कंभाराणा के खजांची श्री रहने का उल्लेख है, जिनमें जैन कीर्तिस्तंभ भी शामिल वेला ने, वि. सं. 1505 में, पुराने जीर्ण मन्दिर के है । इस सात मंजिल के जैन कीर्तिस्तंभ का निर्माणकाल स्थान पर श्री शान्तिनाथ भगवान का कलापूर्ण मन्दिर चौदहवीं सदी का माना जाता है, जो श्री आदिनाथ बनवाकर श्री जिनसेनसूरीश्वरजी के हाथों प्रतिष्ठा भगवान के स्मारक के निमित्त बनाया था । इसमें करवायी थी । इसका नाम अष्टापदावतार श्री अनेकों जिनप्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं । शान्तिजिनचैत्य था, जिसे आज शृंगारचौरी कहते हैं । इस समय चित्तौड़ के किले पर निम्र प्रकार छः
वि. सं. 1524 में रचित 'सोमसौभाग्य काव्य' के जिनमन्दिर विद्यमान हैं :अनुसार देवकुलपाटक के निवासी व श्री लाखा राणा से सबसे बड़ा व मुख्य मन्दिर हैं, श्री ऋषभदेव भगवान
जैन कीर्ती स्तम्भ-चित्रकूट
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श्री शान्तिनाथ भगवान-चित्रकूट
का । बावन देवकुलिकाओं से आवृत्त इस मन्दिर का स्थान 'सत्ताईस देवरी' के नाम से पहिचाना जाता है । इसका अर्थ यह किया जाता है कि किसी समय इस जगह पर छोटे-बड़े, 27 मन्दिर बने होंगे । इस मन्दिर के अहाते में भगवान श्री पार्श्वनाथ के दो मन्दिर हैं ।
किले के अन्दर रामपोल में एक ही अहाते में भगवान श्री महावीरस्वामी व भगवान श्री शान्तिनाथ के मन्दिर है । श्री शान्तिनाथ भगवान का मन्दिर छोटा होते हुए भी उच्च कोटि की कला से समृद्ध है । इसे ही 'शृंगार चौरी' कहते हैं ।
गौमुखीकुंड के पास श्री पार्श्वनाथ भगवान का चौमुखजी मन्दिर हैं ।
विशिष्टता 8 चित्तौड़ का किला पूरे भारत में विख्यात है । तभी तो कहा जाता है, 'गढ़ तो चित्तौड़ गढ़ और सब गढैया है ।" यह सूरमाओं की भूमि है। यहाँ पर अनेकों शूरवीर जैन मंत्री व राजा हुए, जिन्होंने समय समय पर धर्मोत्थान के अनेकों कार्य किये ।
चौदहवीं शताब्दी में निर्मित कलात्मक जैन कीर्तिस्तंभ आज भी अपनी शान से खड़ा है व किले पर जैन । इतिहास के गौरवगाथा की याद दिलाता है ।
वि. सं. 1587 में शत्रुजय का सोलहवाँ उद्धार कराने वाले श्रेष्ठी श्री कर्माशाह यहीं के निवासी थे । महाराणा प्रताप के खजाँची दानवीर श्री भामाशाह का महल भी यहीं था ।
अन्य मन्दिर इसके अतिरिक्त किले में पाँच जिन मन्दिर हैं, जिनका वर्णन प्राचीनता में दे चुके हैं। किले में मीराबाई का मन्दिर तथा समिधेश्वर का मन्दिर भी दर्शनीय हैं । किले के नीचे गाँव के प्रवेशद्धार के पास श्री हरीभद्रसूरीश्वरजी का स्मृतिमन्दिर
की कला अति दर्शनीय है । श्री शान्तिनाथ भगवान की प्रतिमा भी अति ही सुन्दर है । ऐसे तो हरेक मन्दिर की कला भी मेवाड़-देलवाड़ा, कुंभारिया आदि के शिल्प से मुकाबला करती हैं । यहाँ अनेकों प्राचीन तालाब, कुन्ड, भग्न महल व इमारतें दिखायी देती हैं। मीराबाई के भव्य विशाल मन्दिर में कहीं कहीं जिनप्रतिमाओं के दर्शन होते हैं । जैन कीर्तिस्तंभ की कला व जोड़नी देखने योग्य हैं ।
मार्ग दर्शन ® यहाँ का रेल्वे स्टेशन चितौडगढ़ जंक्शन जो अजमेर-खण्डवा लाईन में है । चितौड़गढ़ स्टेशन के सामने ही ठहरने हेतु धर्मशाला है। किले पर के मन्दिर स्टेशन से लगभग 7 कि. मी. दूर है । मन्दिर तक पक्की सड़क है । बस व कार मन्दिर तक जा सकती है ।
सुविधाएँ * चितौडगढ़ जंक्शन रेल्वे स्टेशन के सामने सर्वसुविधायुक्त नवीन धर्मशाला है, जहाँ भोजनशाला की भी सुविधा है किले पर मन्दिर के निकट भी धर्मशाला है, जहाँ बिजली पानी की सुविधा है ।
पेढ़ी ॐ श्री सताबीस देवरी जैन श्वेताम्बर मन्दिर ट्रस्ट, जैन धर्मशाला, रेल्वे स्टेशन रोड़, पोस्ट : चितौड़गढ़ - 312 001. प्रान्त : राजस्थान, फोन : 01472-41971 (पढ़ी आफिस)
01472-42162 (किला आफिस)।
हैं
।
__ कला और सौन्दर्य * पहाड़ी पर स्थित इस किले से नीचे का दृश्य अति ही मनोरम प्रतीत होता है । पहाड़ के ऊपर समतल में इतना लम्बा-चौड़ा विशाल किला भारत में यह एक ही है । यहाँ प्राचीन जिनमन्दिरों के खण्डहर व कलात्मक अवशेष जगह-जगह दिखायी देते हैं। वि.सं. 1505 में जीर्णोद्धार हुए श्री शान्तिनाथ भगवान के मन्दिर (जिसे शृंगारचौरी कहते है)
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श्री केशरियाजी तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री आदिनाथ भगवान, अर्द्ध पद्मासनस्थ श्याम वर्ण, लगभग 105 सें. मी. ।
तीर्थ स्थल ऋषभदेव गाँव में, पहाड़ों की ओट में। प्राचीनता * भव्य, चमत्कारी, भक्तों की मनोकामनाएँ पूर्ण करने वाली इस प्रतिमा की प्राचीनता व इतिहास के बारे में अनेकों मान्यताएँ हैं । उनमें यह भी एक है कि यह अलौकिक प्रतिमा बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान के समय प्रतिवासुदेव लंकापति श्री रावण के यहाँ पूजित थी । पश्चात मर्यादा-पुरूषोत्तम श्री रामचन्द्रजी अयोध्या लेकर आये। बाद में उज्जैन में रही । पश्चात दैविक शक्ति से वटप्रदनगर (बडोदा) के बाहर वटवृक्ष के नीचे प्रकट हुई। (जहां अभी भी प्रभु के चरण स्थापित हैं) कुछ वर्षों तक वटप्रदनगर में पूजी जाने के बाद पुनः दैविकशक्ति द्वारा यहाँ से लगभग एक कि. मी. दूर एक वृक्ष के नीचे प्रकट हुई, जहाँ पर भी प्रभु के चरण स्थापित है व वार्षिक मेले का विराट जुलुस वही पर विसर्जित होता है ।
इस मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि मन्दिर प्रथम ईंटों का बना व बाद में पत्थरों का बना था । वि. सं. 1831 में जीर्णोद्धार होने के प्रमाण मिलते हैं। उसके पश्चात् भी जीर्णोद्धार होने के उल्लेख हैं । समय-समय पर अनेकों यात्री संघ व आचार्यगण यहाँ दर्शनार्थ आने के उल्लेख हैं ।
विशिष्टता यह मेवाड़ राज्य में जैनियों का एक मुख्य तीर्थ-स्थान हैं । मेवाड़ के राणा हरदम प्रभ के अनुयायी रहे व श्रद्धा-भक्ति से प्रभु के चरणों में दर्शनार्थ आते थे । राणा फतेहसिंहजी ने प्रभु के लिए स्वर्णमयी रत्नों जड़ित अमूल्य आँगी भी भेंट की थी । अभी भी यह आँगी नकरे से चढ़ायी जाती है । यहाँ पर जैनेतर भी श्रद्धा व भक्ति पूर्वक हमेशा आते रहते हैं। भील समुदाय में प्रभु काला बाबा के नाम से प्रचलित हैं।
यहाँ नयी-नयी चमत्कारिक घटनाओं का अनेकों भक्तों द्वारा वर्णन किया जाता है । भक्तगण जो भी भावनाएँ लेकर आते हैं उनकी इच्छाएँ पूर्ण होती हैं । यहाँ पर केशर चढ़ाने की मानता सदियों से चली आ रही है व हमेशा अत्यधिक मात्रा से केशर चढ़ती है ।
श्री केशरियाजी मन्दिर-ऋषभदेव
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श्री ऋषभदेव भगवान (श्री केशरियाज) धुलेव - ऋषभदेव
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कभी-कभी तो केशर का इतना विलेपन हो जाता है कि प्रभु-प्रतिमा की कला तो अवर्णनीय है ही, प्रभु का प्रभु का वर्ण केशर-सा प्रातीत होने लगता है । आज मुखमण्डल इतना आकर्षक है कि दर्शन मात्र में मन तक मणोबद्ध केशर चढ़ गयी । इसलिए प्रभु को प्रफुल्लित हो उठता हैं । केशरियानाथ कहते हैं । प्रभु को केशरियालाल, मार्ग दर्शन यहाँ का रेल्वे स्टेशन रिषभदेवरोड़ धुलेवाधणी आदि भी कहते हैं ।
लगभग 11 कि. मी. व उदयपुर सिटी 66 कि. मी. प्रतिवर्ष चैत्र कृष्णा अष्टमी को प्रभु के जन्म-कल्याणक है । उदयपुर से बसों व टेक्सियों की सुविधा है । यह के दिवस मेला भरता है । इस अवसर पर हजारों क्षेत्र उदयपुर-अहमदाबाद मार्ग पर स्थित है । अहमदाबाद नर-नारी इकट्ठे होते हैं । भील लोग अत्यन्त भक्ति से 190 कि. मी. है । यहाँ से नजदीक का बड़ा गाँव भाव से नाचते-झूमते हैं । यह दृश्य अति ही रोचक खेरवाड़ा 16 कि. मी. दूर है । बस स्टेण्ड धर्मशाला व भक्ति भाव को बढ़ाता हैं ।
के सामने है । धर्मशाला तक पक्की सड़क है, कार यहाँ की देदीप्यमान आरती अति ही दर्शनीय हैं । व बस आखिर तक जा सकती है । मन्दिर धर्मशाला उस समय हर भक्त तल्लीन होकर अपने आप को प्रभु के पास ही है । नजदीक का हवाई अड्डा उदयपुर है, में खो देता है ।
जो 66 कि. मी. हैं । अन्य मन्दिर इसी मन्दिर के अहाते में वि. सं. सुविधाएँ* ठहरने के लिए धर्मशाला है । 1688 में स्थापित हस्तिरूढ़ श्री मरूदेवी माता की मूर्ति जिसमें लगभग 150 कमरे व 20 डिलक्स कमरे हैं, व श्री जगवल्लभ पार्श्वनाथ भगवान का मन्दिर हैं । जहाँ पानी, बिजली, बर्तन, ओढ़ने-बिछाने के वस्त्रों की गाँव के बाहर वृक्ष के नीचे एक देहरी में प्रभु की
सुविधा है । धर्मशाला का कार्य-भार वर्तमान में प्राचीन चरणपादुकाएँ हैं । कहा जाता है प्रभु की प्रतिमा देवस्थान विभाग राजस्थान सरकार के हाथ में है । यही से प्रकट हुई थी । मेले के दिन प्रभु की रथयात्रा एक श्वेताम्बर जैन भोजनशाला व दो निजी भोजनशालाएँ यहीं पर सम्पूर्ण होती हैं ।
है । वर्तमान में मन्दिर का कार्य-भार भी राजस्थान कला और सौन्दर्य , श्री केशरियाजी का यह
देवस्थान विभाग संभाल रहा हैं । बावन जिनालय मन्दिर दूर से ही अति ही सौम्य प्रतीत पेढ़ी प्रभारी अधिकारी भन्डार धुलेव श्री रिषभदेवजी होता है । शिखरों, तोरण-द्वारों व स्थम्भों आदि की। मन्दिर, देवस्थान विभाग राजस्थान । कला अतीव सुन्दर व आकर्षक हैं ।
पोस्ट : रिषभदेव -313 802. जिला : उदयपुर, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 02907-30023.
प्रतिमा प्रकट स्थान-केशरियाजी
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श्री ऋषभदेव भगवान (श्री केशरियाजी) धुलेव-ऋषभदेव
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ताड़पत्रों पर लिखवाने का उल्लेख मिलता हैं । श्री आयड तीर्थ
इसके बाद भी अनेकों प्रकाण्ड आचार्यों का यहाँ
पदार्पण हुआ हैं । यह मन्दिर बारहवीं शताब्दी का माना तीर्थाधिराज श्री आदीश्वर भगवान, पद्मासनस्थ, जाता हैं । श्वेत वर्ण (श्वे. मन्दिर) ।
यहाँ का अन्तिम जीर्णोद्धार वि. सं. 1995 में होकर तीर्थ स्थल 0 उदयपुर से लगभग एक कि. मी. प्रतिष्ठा आचार्य श्री विजयनीतिसूरीश्वरजी के सुहस्ते दूर आयड़ गाँव में ।
सम्पन्न हुई । अभी पुनः जीर्णोद्धार का काम प्राचीनता इसका प्राचीन नाम आघाट व चालू हैं । आहड़ था, ऐसा उल्लेख मिलता है । भट्टारक आचार्य विशिष्टता रेवती दोष की भयंकर बीमारी से श्री यशोभद्र सूरीश्वरजी के शिष्य श्री बलिभद्र सूरीश्वरजी
पीड़ित यहाँ के राजा श्री अल्लुराज की रानी द्वारा प्रतिबोधित श्री अल्लुराज (अल्लाट) दसवीं शताब्दी हरियदेवी की देह को हथंडी में विराजित आचार्य में यहाँ के राजा थे, ऐसा शिला-लेखों से प्रतीत होता श्री बलिभद्रसूरीश्वरजी ने वहीं से निरोग किया था, है । आचार्य श्री यशोभद्र सूरीश्वरजी द्वारा यहाँ जिससे प्रभावित होकर राजा व रानी ने उत्साहपूर्वक श्री पार्श्वनाथ भगवान के मन्दिर की प्रतिष्ठापना जैन-धर्म अंगीकार किया था । उनके मंत्री ने श्री करवाने का उल्लेख है । यह वृत्तान्त वि. सं. 1029 पार्श्वनाथ भगवान का मन्दिर बनवाया था, जिसकी पूर्व का है । ग्यारहवीं शताब्दी में हुए कवीश्वर प्रतिष्ठा श्री बलिभद्रसूरीश्वरजी के गुरू प्रकाण्ड आचार्य श्री धनपाल द्वारा रचित 'सत्यपुरमण्डन महावीरोत्साह' यशोभद्रसूरीश्वरजी के सुहस्ते हुई थी । में यहाँ के मन्दिरों का उल्लेख हैं ।
तेरहवीं शताब्दी में यहीं पर श्रावक हेमचन्द्र श्रेष्ठी ने तेरहवीं शताब्दी में राजा श्री जयसिंहजी के समय सारे आगम ताड़पत्रों पर लिखवाये थे । उस समय यहीं श्रावक श्री हेमचन्द्र द्वारा समग्र आगम ग्रन्थों को यहाँ पर आचार्य श्री जगच्चन्द्रसूरीश्वरजी द्वारा उग्र तपश्चर्या
श्रीआयड़ जैन तीर्थ.
श्री जैन श्वेलाम्बर महासभा
Awe-keralamne-MET
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मन्दिर-समूह का दृश्य-आयड़
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श्री आदीश्वर भगवान-आयड़
करने पर राजा ने 'तपा' विरूद से अलंकृत किया था । तभी से तपागच्छ अस्तित्व में आया । आचार्य श्री जगच्चन्द्र सूरीश्वरजी ने कई वादियों को शास्त्रार्थ में पराजित किया था । उस पर राजा ने उन्हें 'हीराला' विरूद से भी सुशोभित किया था ।
अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त चार और मन्दिर है । इनमें तीन बारहवीं शताब्दी के माने जाते हैं । क्योंकि एक मन्दिर में श्री जगच्चन्द्रसूरीश्वरजी की भी प्रतिमा विराजित हैं ।
निकट उदयपुर में कुल 44 मन्दिर हैं, जिनमें भावी चौवीसी के प्रथम तीर्थंकर श्रीपद्मनाभ स्वामी का मन्दिर (चौगान का मन्दिर) विशिष्ट है भावी चौवीसी के तीर्थंकर प्रभुका यही एक मात्र मन्दिर है जो भव्य प्राचीन व अतीव दर्शनीय है । वहाँ पर भी भोजनशाला सहित सारी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। __ कला और सौन्दर्य सारे मन्दिर प्राचीन रहने के कारण मन्दिरों में प्राचीन कलात्मक प्रतिमाओं आदि के दर्शन होते हैं ।
मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन उदयपुर सिर्फ 3 कि. मी. दूर है,जहाँ से टेक्सी व आटो की सुविधा उपलब्ध है । मन्दिर तक पक्की सड़क है । कार व बस मन्दिर तक जा सकती है। दिल्ली,
अहमदाबाद व जयपुर से यहाँ के लिए सीधी रेल व बस सुविधा है । उदयपुर में हवाई अड्डा भी हैं।
सुविधाएँ वर्तमान में इस मन्दिर के निकट ठहरने की कोई सुविधा नहीं हैं । उदयपुर में हाथी पोल की जैन धर्मशाला या चौगान मन्दिर धर्मशाला में ठहरकर आना सुविधाजनक है । वहाँ पर भोजनशाला भी उपलब्ध हैं ।
पेढ़ी 8 श्री जैन श्वेताम्बर आयड़ मन्दिर पेढ़ी, पुलिस चौकी के सामने, आयड़ पोस्ट : उदयपुर - 313 001. प्रान्त : राजस्थान, फोन : 0294-421637. चौगान मन्दिर फोन : 0294-523750. हाथी पोल धर्मशाला : 0294-420462.
चाणाण
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श्री आदिनाथ भगवान-डुंगरपुर
श्री डूंगरपुर तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री आदिनाथ भगवान, पद्मासनस्थ, लगभग 105 सें. मी., श्वेत वर्ण, धातुमयी परिकर युक्त (श्वे. मन्दिर) । तीर्थ स्थल * डुंगरपुर गाँव के माणकचौक में। प्राचीनता कहा जाता है विक्रम सं. 1526 में
इस मन्दिर का निर्माण सेठ सांवलदास दावड़ा ने करवाकर आचार्य श्री रत्नसूरिजी के शिष्य श्री उदय वल्लभसूरिजी एवं श्री ज्ञानसागरसूरिजी के सुहस्ते श्री आदिनाथ प्रभु की विशालकाय धातुमयी प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई थी । मुसलमानों के राजत्वकाल में स्वर्ण प्रतिमा समझकर प्रतिमा को क्षति पहुँचाई गई, तब श्वेतवर्ण यह प्रतिमा पुनः प्रतिष्ठित की गई। परन्तु धातुमयी परिकर आज भी मौजूद है, जिसपर वि. सं. 1526 का लेख उत्कीर्ण हैं ।
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विशिष्टता इस प्रभु-प्रतिमा के धातुमयी परिकर में भूत, वर्तमान व भविष्य के चौबीस तीर्थंकरों के यानी 72 प्रतिमाओं के दर्शन होते हैं, यह यहाँ की मुख्य विशेषता है । ऐसे परिकरयुक्त प्रतिमा के दर्शन अत्यन्त दुर्लभ हैं। प्रभु का पबासण भी धातु से निर्मित है, जिसमें 14 स्वप्न, 9 ग्रह, अष्ट मंगल व यक्ष-यक्षिणियों के दर्शन होते हैं।
डुंगरपुर के राजा गोपीनाथ व सोमदास के मुख्य मंत्री ओशवाल वंशीय पराक्रमी शेठ शालाशाह यहीं के थे, जिन्होंने उपद्रवी भीलों को हराकर विजय पताका फहराई थी । शेठ शालाशाह पराक्रमी, शूरवीर व धर्मवीर थे । उन्होंने श्री गंभीरा पार्श्वनाथ भगवान का भव्य शिखरोंयुक्त मन्दिर वि. सं. 1312 में बनवाया था, जो यहाँ के जूने घाटी मोहल्ले में स्थित है । जो यहाँ की प्राचीनता प्रमाणित करता हैं । शेठ शालाशाह के समय यह एक विराट नगरी थी व लगभग 700 जैन श्रावकों के घर थे ।
अन्य मन्दिर वर्तमान में इस मन्दिर के अतिरिक्त 6 और मन्दिर हैं ।
कला और सौन्दर्य प्रभु प्रतिमा के धातुमय
श्री आदिनाथ भगवान मन्दिर-डुगरपुर
परिकर व पबासण की कला अपना विशेष स्थान रखती हैं । इस प्रकार के प्राचीन कलात्मक धातुमयी परिकर व पबासण के दर्शन अत्यन्त दुर्लभ हैं । इसी मन्दिर में श्री शान्तिनाथ भगवान की 33 सें. मी. स्फटिक की प्रतिमा व राजा सप्रंतिकाल के पंच धातु से निर्मित 34 जिन बिंब दर्शनीय हैं ।
मार्ग दर्शन के केशरियाजी तीर्थ से यह स्थल लगभग 42 कि मी. दूर है । अहमदाबाद-उदयपुर सड़क मार्ग में बीछीवाड़ा से 24 कि. मी. दूर है, जहाँ से टेक्सी, बस की सुविधा उपलब्ध है । यहाँ का रेल्वे स्टेशन डुंगरपुर लगभग 2 कि. मी. दूर है । बस स्टेण्ड एक कि. मी. दूर है ।
सुविधाएँॐ ठहरने के लिए धर्मशाला है, जहाँ पानी बिजली का साधन है । पूर्व सूचना पर भोजन की व्यवस्था भी हो सकती है ।
पेढ़ी ॐ श्री आदिनाथ भगवान जैन श्वेताम्बर मन्दिर पेढ़ी, माणक चौक । पोस्ट : डुंगरपुर - 314 001. जिला : डुंगरपुर, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 02964-33186,33259 पी.पी.
श्री शान्तिनाथ भगवान-डुंगरपुर
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श्री पुनाली तीर्थ
तीर्थाधिराज वर्ण, पद्मासनस्थ (श्वे. मन्दिर ) ।
श्री आदिनाथ भगवान, श्याम
तीर्थ स्थल पुनाली गाँव में । प्राचीनता यह मन्दिर लगभग विक्रम की ग्यारवीं सदी में निर्मित होने का उल्लेख है । जीर्णोद्धार के समय इस प्रतिमा के वि. सं. 1657 में प्रतिष्ठित होने का उल्लेख है । कहा जाता है कि पुरानी प्रतिमा व मन्दिर को कुछ क्षति पहुँचने के कारण जीर्णोद्धार के समय प्रतिमाजी को भी बदलना आवश्यक हो
गया था |
विशिष्टता यह प्राचीन स्थल होने के साथ-साथ चमत्कारिक स्थल भी है। प्रभु प्रतिमा अतीव चमत्कारिक है । जैन - जैनेतर दर्शनार्थ आते रहते हैं । दर्शन- पूजन करने वालों की मनोकामना पूर्ण होती है । हर माह पूर्णीमाको आजू-बाजू गांव वालों का दर्शनार्थ आवागमन
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विशेष तौर से रहता है ।
अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त और कोई मन्दिर नहीं हैं ।
कला और सौन्दर्य प्रभु प्रतिमा अव प्रभावशाली व कलात्मक है । वर्तमान में अन्य कोई कला के नमूने नजर नहीं आते हैं । मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन डुंगरपुर 25 कि. मी. दूर है, जहाँ से बस, टेक्सी व आटो की सुविधा है। यहाँ का बस स्टेण्ड मन्दिर से लगभग 1/2 कि. मी. दूर है । मन्दिर तक बस व कार जा सकती है ।
सुविधाएँ फिलहाल यहाँ ठहरने की कोई सुविधा नहीं है ।
पेढ़ी श्री आदिनाथ भगवान जैन श्वे. मन्दिर, श्री आदिनाथ मूर्तिपूजक श्वे. संघ, पुनाली पोस्ट : पुनाली 314028. जिला : डुंगरपुर (राजस्थान) फोन : पी.पी. 02964-67215.
श्री आदिनाथ जिनालय पुनाली
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KISATORRENCE
PAPER
श्री आदिनाथ भगवान-पुनाली
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श्री वटपद्र तीर्थ
तीर्थाधिराज * श्री पौरूषादानीय पार्श्वनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल बड़ोदा गाँव के मध्य ।
प्राचीनता ® इसके प्राचीन नाम मेघपुरपाटण, वटपद्रनगर आदि रहने का शास्त्रों में उल्लेख है । इस मन्दिर का निर्माण वि. सं. 1036 में हुआ माना जाता है । धुलेवा में विराजित श्री केशरियानाथ भगवान की प्रतिमा वि. सं. 909 में यहीं प्रकट हुई थी, ऐसी मान्यता है । कोई जमाने में यह एक विराट नगरी थी। गाँव के चारों तरफ बिखरे हुए ध्वंसावशेष यहाँ की प्राचीनता की याद दिलाते नजर आते हैं ।
विशिष्टता यह राजस्थान-मेवाड़ के डुंगरपुर जिले का प्राचीनतम तीर्थ रहने के कारण यहाँ की विशिष्ट महानता है ।
नगर धुलेवा में विराजित श्री केशरियानाथ भगवान की प्राचीन व चमत्कारिक प्रतिमा यहाँ से लगभग 4 फर्लाग दूर एक वट वृक्ष के नीचे भूगर्भ से प्रकट हुई थी, ऐसे मान्यता है । जहाँ प्रतिमा प्रकट हुई थी वहाँ
पर प्रभु की चरण पादुकाएँ प्रतिष्ठित हैं व हजारों जैन व जैनेतर दर्शनार्थ आते हैं । भक्तों के दुखहरनार श्री केशरिया बाबा का यह प्राचीन स्थान माना जाने के कारण भक्तगण विशेष श्रद्धा से यहां आकर अपनी-अपनी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं । __ अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त यहाँ से लगभग 4 फल्ग दूर एक पीपल के पेड़ के नीचे देरी में श्री आदीश्वर भगवान की चरण पादुकाएँ हैं । जहाँ से श्री केशरिया नाथ भगवान की प्रतिमा प्रकट हुई थी, ऐसा माना जाता है । कुछ वर्षों पूर्व ही यहाँ पुनः जीर्णोद्धार हुआ है । आज भी यह पवित्र स्थल केशरियाजी का पुराना स्थान के नाम से प्रचलित हैं । ___ कला और सौन्दर्य यह प्राचीन तीर्थ क्षेत्र रहने के कारण गाँव के चारों तरफ अनेकों प्राचीन कलात्मक खण्डहर नजर आते हैं । इसी मन्दिर में एक प्राचीन प्रतिमाजी पर वि. सं. 1359 का लेख उत्कीर्ण हैं । कहा जाता है यह प्रतिमा भी यहाँ से लगभग 4 फर्लाग दूर एक पेड़ के नीचे से प्रकट हुई थी । प्राचीन बीशविहरमान पट्ट, चौबीस जिन कल्याणक पट्ट आदि दर्शनीय हैं । मार्ग दर्शन ® यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन
श्री पौरुषदानीय पार्श्वप्रभु जिनालय-वटपद्र
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श्री पौरुषदानीय पार्श्वनाथ भगवान-वटपद्र
डुंगरपुर लगभग 40 कि. मी. है, जहाँ से बस व टेक्सी की सुविधा है । डुंगरपुर से बाँसवाडा सड़क मार्ग पर यह क्षेत्र स्थित है । केशरियाजी से डुंगरपुर होकर आया जाता है । मन्दिर तक सड़क है ।
सुविधाएँ * ठहरने के लिए उपाश्रय है, जहाँ पानी बिजली की सुविधा है ।
पेढ़ी श्री जैन श्वेताम्बर श्री पौरुषादानीय पार्श्वनाथ भगवान मन्दिर पेढ़ी । पोस्ट : बडोदा - 314038. जिला : डुंगरपुर, (राज.)।
श्री केशरीयानाथ प्रभु के प्राचीन चरण
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श्री राजनगर तीर्थ
करवाई थी, ऐसा उल्लेख है । उस समय यह मन्दिर नव मंजिल का था व इसकी ध्वजा के दर्शन बारह मील तक होते थे । कहा जाता है बादशाह औरंगजेब
के समय इस मन्दिर को राज शाही किला समझकर तीर्थाधिराज श्री आदिनाथ भगवान, पद्मासनस्थ तोप से तोड़ डाला था । आज इस मन्दिर की सिर्फ श्वेत वर्ण, लगभग 150 सें. मी., चतुर्मुख प्रासाद (श्वे. दो मंजिलें कायम रही हैं । मन्दिर के निचले भाग में मन्दिर) ।
भोयरे भी बने हुए हैं । तीर्थ स्थल काँकरोली से 1/2 कि. मी. दूर, विशिष्टता 8 यह मेवाड़ की पंचतीर्थी का एक राजसमन्द मुख्य मार्ग में एक पहाड़ी पर, जिसे तीर्थ-स्थान माना जाता है। श्री दयालशाह की शूरवीरता दयालशाह का किला कहते हैं ।
मेवाड़ के इतिहास में प्रसिद्ध है । इन्होंने अपनी बुद्धि, प्राचीनता महाराणा श्री राजसिंहजी ने यह
दीर्घ दृष्टि और शूरवीरता से राणा को जिन्दा बचा लिया गाँव अपने नाम पर बसाया था । महाराणा के शूरवीर
था, जिससे महाराणा के विश्वास पात्र मंत्री बन गये मंत्री ओशवाल वंशज श्री दयालशाह संघवी ने अपनी
थे । इन्होंने वीरता पूर्वक औरंगजेब से बदला लेकर एक करोड़ से अधिक रूपयों की विपुल धनराशि का
__जीत में पाई हुई ऊँटों लदी स्वर्ण संपत्ति भी राणा को सदुपयोग करके इस भव्य मन्दिर का निर्माण करवाकर
भेंट दीं । दयालशाह ने इस पहाड़ी पर मन्दिर बनवाने वि. सं. 1732 वैशाख शुक्ला 7 गुरुवार के शुभ दिन
की भावना प्रकट की । उसपर राणा ने सहर्ष मंजूरी आचार्य श्री विनयसागर सरीश्वरजी के सहस्ते प्रतिष्ठा प्रदान की । राजमहल की टेकरी के सन्मख स्थित इस
श्री आदीश्वर जिनालय-राजनगर
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वHIT
हैं । यहाँ से आजू-बाजू के गाँवों का दृश्य अति मनलुभावना लगता है । __ मार्ग दर्शन 8 यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन काँकरोली लगभग 5 कि. मी. है, जहाँ से बस, टेक्सी की सुविधा उपलब्ध है । यह स्थान काँकरोली-राजसमन्द मार्ग पर काँकरोली व राजसमन्द से लगभग 1/2 कि मी. दूर है । उदयपुर यहाँ से 60 कि. मी दूर है । कार व बस टेकरी पर थोड़ी दूर तक जा सकती है, जहाँ धर्मशाला है । वहाँ से पैदल चढ़ना पड़ता है । चढ़ने के लिए 250 पगथीये बने हुए है। परन्तु सरक्यूट हाउस रास्ते से बस व कार मन्दिर तक जा सकती है ।
सुविधाएँ * ठहरने के लिए सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला है, जहाँ बिजली, पानी, ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र व भोजनशाला की सुविधा उपलब्ध है ।
पेढ़ी 8 श्री ऋषभदेव भगवान की पेढ़ी, दयालशाह का किला, जैन तीर्थ, पोस्ट : राजसमन्द - 31 3 326. जिला : राजसमन्द, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 02952-20149.
तीर्थाधिराज श्री आदीश्वर भगवान-राजनगर
टेकरी पर एक भव्य जिन मन्दिर का निर्माण करवाया गया । यह मन्दिर शूरवीर, दानवीर, धर्मनिष्ठ मंत्रीश्वर श्री दयालशाह के धर्मनिष्टता की आज भी याद दिलाता है । प्रतिवर्ष भादवा शुक्ला 6 को मेला भरता है ।
तेरापंथी संप्रदाय का उत्पत्ति स्थान भी यही राजनगर है । यहीं से आचार्य श्री भिक्षुस्वामीजी ने अपने मत का प्रचार प्रारम्भ करने का निर्णय लिया था ।
अन्य मन्दिर इसके अतिरिक्त तीन और मन्दिर व एक गुरु मन्दिर हैं ।
कला और सौन्दर्य 8 राजमहल की टेकरी व इस टेकरी के बीच नवचौकी नाम का स्थल है, जहाँ प्राचीन कलात्मक तोरण व अन्य अवशेष दिखायी देते
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श्री करेड़ा तीर्थ
तीर्थाधिराज ॐ श्री करेड़ा पार्श्वनाथ भगवान, श्याम वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 90 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल भूपालसागर गाँव के मध्य ।
प्राचीनता * इस तीर्थ की प्राचीनता का सही प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं । वर्तमान जीर्णोद्धार के समय एक प्राचीन स्थंभ प्राप्त हुआ, जिसपर सं. 55 का लेख उत्कीर्ण है, इससे यह प्रतीत होता है कि यह तीर्थ वि. के पूर्व काल का होगा । इस मन्दिर को श्री खीमसिंह शाह द्वारा वि. सं. 861 में बनवाने व आचार्य श्री जयानन्दसूरीश्वरजी के सुहस्ते प्रतिष्ठित करवाने का भी उल्लेख है अतः संभवतः उस समय जीर्णोद्धार करवाकर पुनः प्रतिष्ठा करवाई होगी । दशवीं सदी में पुनः जीर्णोद्धार होकर आचार्य श्री यशोभद्रसूरीश्वरजी के सुहस्ते प्रतिष्ठा हुवे का उल्लेख है । वि. सं. 1326 चैत्र कृष्णा सोमवती अमावस्या के दिन महारावल श्री चाचिगदेव द्वारा यहाँ श्री पार्श्वनाथ भगवान के मन्दिर की सेवा-पूजा निमित कुछ धनराशि अर्पण करने का
उल्लेख है । भमती में कुछ मूर्तियों पर वि. सं. 1303, 1341 व 1496 के लेख उत्कीर्ण हैं ।
गुर्वावली में उल्लेखानुसार मान्डवगढ़ के महामंत्री श्री पेथड़शाह ने भी श्री पार्श्वनाथ भगवान के मन्दिर का यहाँ निर्माण करवाया था ।
मान्डवगढ़ के महामंत्री श्री पेथड़शाह के पुत्र श्री झांझण शाह वि. सं. 1321 में जब श्री शत्रुजयगिरि यात्रा संघ लेकर यहाँ आये तब श्री पार्श्वप्रभु के मन्दिर का जीर्णोद्धार प्रारम्भ करके सात मंजिल का मन्दिर बनवाने का उल्लेख है । लेकिन आज उस भव्य मन्दिर का पता नहीं । वर्तमान मन्दिर वि. सं. 1039 का निर्मित माना जाता है । वि. सं. 1656 में पुनः जीर्णोद्धार हुए का उल्लेख है । प्रभु प्रतिमा पर भी वि. सं. 1656 का लेख उत्कीर्ण है । हो सकता है जीर्णोद्धार के समय यह प्रतिमा प्रतिष्ठित करवायी गई होगी ।
इस मन्दिर का हाल ही में पुनः जीर्णोद्धार होकर वि. सं. 2033 माघ शुक्ला 13 के शुभ दिन आचार्य श्री सुशील सूरीश्वरजी के सुहस्ते इस प्राचीन प्रभु-प्रतिमा की पुनः प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई ।
श्री करेड़ा पार्श्वप्रभु जिनालय-भूपालसागर
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विशिष्टता 8 यह मन्दिर संडेर गच्छ के आचार्य श्री यशोभद्रसूरीश्वरजी द्वारा प्रतिष्ठित माना जाता है । यशोभद्रसूरीश्वरजी के जीवन प्रसंग की चमत्कारिक घटनाएँ जन-प्रचलित है । जिस दिन इस मन्दिर की प्रतिष्ठा हुई उसी समय उन्होंने अन्य चार जगह भी अलग-अलग रूप धारण कर एक ही साथ प्रतिष्ठा करवायी थी, ऐसी किंवदन्ती प्रचलित हे । अकबर बादशाह का यहाँ दर्शनार्थ आने का उल्लेख है । मान्डवगढ़ के महामंत्री श्री पेथड़शाह के पुत्र मंत्री झांझण शाह आचार्य श्री धर्मघोससूरीश्वरजी आदि अनेकों आचार्यगणों के साथ जब जैन इतिहास में उल्लेखनीय शत्रुजय यात्रा संघ लेकर यहाँ उपसर्ग हरनार श्री पार्श्वप्रभु की प्रतिमा के दर्शनार्थ आये तब संघपति का तिलक यहीं हुआ था । वर्तमान प्रतिमा भी अति ही चमत्कारी व उपसर्ग हरनारी है । प्रतिवर्ष प्रभु के जन्म कल्याणक पौष कृष्णा 10 के दिन मेला भरता है, जब हजारों नर नारी प्रभु भक्ति में भाग लेते हैं ।
अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त और कोई मन्दिर नहीं हैं । __कला और सौन्दर्य के प्राचीन मन्दिरों के अनेक कलात्मक खण्डहर दिखाई देते हैं । अगर शोधकार्य किया जाय जो प्रमाणिक इतिहास मिलने की संभावना
मार्ग दर्शन 8 यहाँ का रेल्वे स्टेशन भूपालसागर मन्दिर से करीब एक कि. मी. दूर हैं । यह स्थान चितौड़ से 56 कि. मी. चित्तौड़-उदयपुर मार्ग पर स्थित है । मावली जंक्शन से तीसरा स्टेशन है । यहाँ का बस स्टेण्ड मन्दिर से 100 मीटर दूर है । मन्दिर तक पक्की सड़क है । कार व बस आखिर तक जा सकती है । चित्तौड़गढ़ से आने के लिए व्हाया कपासन होकर व उदयपुर से आने के लिए व्हाया डबांक मावली होकर आना पड़ता है ।
सुविधाएँ ठहरने के लिए मन्दिर के अहाते में ही सर्वसुविधायुक्त विशाल धर्मशाला है जहाँ भोजनशाला व नास्ते की भी सुविधा उपलब्ध है ।।
पेढ़ी 8 श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्री करेड़ा पार्श्वनाथजी तीर्थ पेढ़ी । पोस्ट : भूपालसागर - 312 204. जिला : चित्तौड़गढ़, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 01476-84233.
श्री करेड़ा पार्श्वनाथ भगवान-भूपालसागर
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तीर्थ स्थल 2 एकलिंगजी (कैलाशपुरी) से एक मील दूर पहाड़ी की ओट में बाघेला तालाब किनारे ।
प्राचीनता 2 इसका प्राचीन नाम नागहृद था, ऐसा उल्लेख है । एक समय यहाँ मेवाड़ की राजधानी थी। सदियों तक यह स्थान जाहोजलालीपूर्ण रहा । यहाँ श्री पार्श्वनाथ भगवान का मन्दिर श्री सम्प्रतिराजा द्वारा बनवाने का उल्लेख श्री मुनिसुन्दरसूरीश्वरजी ने 'नागहृदतीर्थ स्तोत्र' में किया है। लगभग विक्रम की पांचवीं शताब्दी में शास्त्रविशारद आचार्य श्री समुद्रसूरिश्वरजी ने शास्त्रार्थ में विजयी होकर यह तीर्थ पुनः श्वेताम्बर संघ के अधीन किया था, ऐसा उल्लेख है। राजा श्री भोजराज ने मान्डवगढ़ में 'भारती भवन' महा-विद्यालय के प्रधानाचार्य कर्णाटकी श्री भट्ट-गोविन्द को उनकी कार्यकुशलता पर प्रसन्न होकर यह गाँव इनाम में दिया था, ऐसा उल्लेख मिलता है । मंत्री श्री पेथड़शाह द्वारा यहाँ श्री नेमिनाथ भगवान का मन्दिर बनाने का उललेख है । कहा जाता है किसी वक्त यहाँ 350 जिन मन्दिर थे । सायं आरती के वक्त इन मन्दिरों के घंटियों की मधुर-मधुर स्वर लहरी एक साथ ऐसी लगती थी मानों देवलोक में इन्द्रों द्वारा प्रभु की भक्ति हो रही हो । यहाँ से देवकुलपाटक तक सुरंग थी । कहा जाता
श्री आदिनाथ प्रभु-प्राचीन प्रतिमा
श्री नागहृद तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री शान्तिनाथ भगवान, श्याम वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 270 सें. मी. (श्वे. मन्दिर)।
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मन्दिरों का दृश्य-नागहृद
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है सुलतानसमसुदीन के समय इस स्थान को भारी क्षति पहुँची । आज यहाँ सिर्फ यह एक ही मन्दिर है । इस मन्दिर का जीर्णोद्धार कार्य भव्य रूप से चल रहा है । वि. सं. 1494 माघ शुक्ला एकादशी गुरुवार के दिन आचार्य श्री जिनसागरसूरीश्वरजी के सुहस्ते देवकुलपाटक के नवलखागोत्रीय श्रेष्ठी श्री सारंग द्वारा इस मन्दिर की प्रतिष्ठिा करवाने का लेख उत्कीर्ण है । पास के एक जिन मन्दिर में पबासणों पर वि. सं. 1192 व 1356 के लेख उत्कीर्ण हैं, इसे श्री पार्श्वनाथ भगवान का प्राचीन मन्दिर कहते हैं । इस मन्दिर में प्रतिमाजी नहीं हैं । अभी अभी खुदाई में कई प्राचीन प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं। तालाब में कमलों से धिरी पावापुरी जैसा मन्दिर निकला है । जिसमें श्री सम्प्रति कालीन श्री वीरप्रभु की प्रतिमा है ।
विशिष्टता मेवाड़ की पंचतीर्थी का यह एक तीर्थ स्थान है । श्री शान्तिनाथ भगवान की पद्मासन में इतनी विशालकाय सुन्दर व प्राचीन प्रतिमा के दर्शन अन्यत्र अति दुर्लभ हैं ।
इस मन्दिर के अलावा यहाँ अनेकों मन्दिरों के खण्डहर पहाड़ी पर दिखाई देते हैं । अगर शोध की जाय तो काफी महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री प्रकाश में आ सकती है ।
अन्य मन्दिर इसके पास दो और मन्दिर जीर्ण अवस्था में हैं, जिनमें प्रतिमाजी नहीं हैं । इन मन्दिरों के भी जीर्णोद्धार का कार्य चालू है । कुछ ही दूरी पर एक और मन्दिर है, जिसे सास-बहू के मन्दिर के नाम से संबोधित किया जाता है । इसमें भी प्रतिमा नहीं हैं।
कला और सौन्दर्य प्रभु प्रतिमा की कलाकृति । का जितना वर्णन करें कम है, क्योंकि श्री शान्तिनाथ भगवान की इतनी विशालकाय सुन्दर प्रतिमा शायद ही कहीं हो । पास के जीर्ण मन्दिर में स्थंभों व छतों आदि की कला अति दर्शनीय है । पहाड़ पर जंगल में भी प्राचीन मन्दिरों के कलात्मक खण्डहर दिखायी देते हैं ।
मार्ग दर्शन * यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन उदयपुर 20 कि. मी. हैं । जहाँ से बस व टेक्सी की सुविधा है । यह तीर्थ नाथद्वारा से 30 कि. मी. राणकपुर से 80 कि. मी. देवकुलपाटक तीर्थ (मेवाड़ देलवाड़ा) 7 कि. मी. व एकलिंगजी (कैलाशपुरी) से उदयपुर मार्ग में सिर्फ 11/2 कि. मी. पर स्थित है।
श्री शान्तिनाथ भगवान-नागहृद
सुविधाएँ * ठहरने के लिए मन्दिर के निकट ही धर्मशाला व भोजनशाला की सुविधा उपलब्ध है ।
पेढ़ीॐ श्री जैन श्वेताम्बर अद्भुतजी तीर्थ ट्रस्ट, पोस्ट : नागदा (कैलाशपुरी) - 313 202. जिला : उदयपुर, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 0294-772281.
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श्री आदिनाथ प्रभु
श्री पार्श्वनाथ प्रभु
श्री वीर प्रभु
श्री देवकुलपाटक तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री आदिनाथ भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण, लगभग 105 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल * देलवाड़ा गाँव के बाहर पहाड़ी की ओट में ।
प्राचीनता ® इस तीर्थ की सही प्राचीनता का पता नहीं लग रहा है । वि. सं. 1469 में जीर्णोद्धार होकर पुनः प्रतिष्ठा होने का उल्लेख है ।
यह क्षेत्र पहिले 'देवकुलपाटक' के नाम से विख्यात था । किसी समय यह एक विराट नगरी थी । वि. सं. 1746 में रचित 'तीर्थ माला' में इसका वर्णन आता है ।
वि. सं. 1954 में अंतिम जीर्णोद्धार होने का उल्लेख है ।
विशिष्टता * यह स्थान मेवाड़ की पंचतीर्थी का एक तीर्थ स्थल माना जाता है । कहा जाता है किसी वक्त यहाँ 300 जिन मन्दिर थे । यहाँ दो पर्वतों पर शत्रुजयावतार व गिरनारावतार की स्थापना की हुई थी। यहाँ से नागदा तक सुरंग थी, ऐसा उल्लेख है । 'संतिकरं' स्तोत्र की रचना यहीं पर हुई थी । श्री आदिनाथ प्रभु की इतनी सुन्दर प्रतिमा के दर्शन अन्यत्र दुर्लभ हैं । आचार्य श्री सोमसुन्दरसूरीश्वरजी महाराज अनेकों बार अपने विशाल साधु समुदाय के साथ यहाँ पधारे ऐसा 'सोम सौभाग्य काव्य' में वर्णन आता है । यहाँ की शिल्पकला देखते ही आबू व राणकपुर याद आ जाते हैं, क्योंकि यहाँ की शिल्पकला भी अपने-आप में अलग स्थान रखती हैं । शिखर की बाह्य कला अपना विशिष्ठ स्थान रखती है ।
अन्य मन्दिर इस मन्दिर के अतिरिक्त तीन
श्री आदिनाथ जिनालय-देवकुलपाटक
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और प्राचीन मन्दिर पन्द्रहवीं शताब्दी के हैं ।
कला और सौन्दर्य यहाँ की कला के दर्शन करते ही आबू व कुंभारियाजी याद आ जाते हैं । मन्दिर के शिखर, गुम्बज, स्थंभों आदि पर किये विभिन्न प्रकार की कला के नमूने अपने-आप में निराले प्रतीत होते हैं । यहाँ के मूलनायक श्री आदिनाथ प्रभु की मूर्ति की कला तो देखते ही बनती हैं। लगता है प्रभु साक्षात् विराजमान हैं । इतनी प्राचीन प्रतिमा जैसे आज बनी प्रतीत होती हैं । ऐसी प्रतिमा के दर्शन अन्यत्र निःसन्देह दुर्लभ हैं । मन्दिर में और भी अनेकों प्राचीन कलात्मक प्रतिमाएँ हैं । जैसे मोर व सर्प के बीच आदिनाथ प्रभु के चरण, द्रौपदी, कुन्ती, पाण्डव आदि ऐसे कई प्रतिबिम्ब हैं । पार्श्वप्रभु के मन्दिर में भोयरे में विशालकाय प्राचीन प्रतिमाएँ है ।
Kisan
मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन खेमली 13 कि. मी. व उदयपुर 26 कि. मी दूर है। उदयपुर से बस व टेक्सी की सुविधा है । गाँव का स्टेण्ड मन्दिर से लगभग 1/2 1/2 कि. मी. दूर है । उदयपुर-अजमेर मार्ग पर यह स्थल है । मन्दिर तक कार व बस जा सकती है ।
सुविधाएँ
है, जहाँ बिजली, पानी की सुविधा है । श्री जैन श्वेताम्बर महासभा,
पेढ़ी
पोस्ट : देलवाड़ा - 313 202.
ठहरने के लिए यहाँ पर धर्मशाला
जिला : उदयपुर, प्रान्त राजस्थान, फोन : 0294-89340 पी.पी. प्रधान कार्यालय : हाथी पोल (उदयपुर) फोन : 0294-420462.
श्री आदीश्वर भगवान-देवकुलपाटक
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मन्दिर-समूहों का दृश्य-नाडलाई
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श्री नाडलाई तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री नेमिनाथ भगवान, श्याम वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 75 सें. मी. एवं श्री आदिनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 75 सें. मी. (श्वे. मन्दिर)।
तीर्थ स्थल नाडलाई गाँव के बाहर लगभग 2 फर्लाग दूर अलग-अलग आमने-सामने पहाड़ियों पर।
प्राचीनता है इसके प्राचीन नाम नड्डुलडागिका, नन्दकुलवती, नडुलाई, नारदपुरी आदि शास्त्रों में उल्लेखित हैं । श्री नारदजी ने मेवाड़ देश के इस विशाल भूमि को देखकर नारदपुरी नगर बसाया था व श्री कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न कुमार ने नजदीक पर्वत पर जिन मन्दिर बनवाकर श्री नेमिनाथ भगवान की सुन्दर प्रभावशाली प्रतिमा प्रतिष्ठित करवायी थी, ऐसा 'विजयप्रशस्ति महाकाव्य' में उल्ले खा आता है । इस पर्वत को यादवटेकरी कहते हैं । इस पर्वत के सम्मुख एक पर्वत है जिसे शत्रुजयटेकरी कहते हैं । इस टेकरी पर श्री आदिनाथ प्रभु का भव्य मन्दिर हैं । प्रतिमाजी पर वि. सं. 1686 में जीर्णोद्धार हुए का उल्लेख है । इसलिए ये दोनों पर्वत प्राचीन माने जाते हैं जिन्हें गिरनार व शत्रुजयावतार कहते हैं।
वि. सं. 1195 में राजा रायपाल द्वारा उनको मिलने वाले कर का बीसवाँ हिस्सा इन मन्दिरों की सेवा पूजा के लिए भेंट करने का उल्लेख है । सत्रहवीं शताब्दी में श्री समय सुन्दरजी उपाध्याय द्वारा रचित तीर्थ-माला में इन मन्दिरों का उल्लेख किया है ।
पं. श्री शीलविजयजी ने भी तीर्थ माला में यहाँ का वर्णन किया है ।
गाँव का श्री आदिनाथ भगवान का मुख्य मन्दिर लगभग वि. सं. 964 में श्री यशोभद्रसूरीश्वरजी द्वारा अपनी साधनाशक्ति से आकाश मार्ग द्वारा वल्लभीपुर से लाया बताया जाता है । एक और उल्लेखानुसार यह मन्दिर खेड़नगर से लाया बताया जाता है । किसी समय यह नगरी अत्यन्त जाहोजलाली पूर्ण थी, ऐसा उपलब्ध उल्लेखों व शिलालेखों से प्रतीत होता है । कहा जाता है यहाँ से नाडोल तक सुरंग थी । विशिष्टता ॐ श्री नारदजी द्वारा बसाई इस
श्री नेमिनाथ भगवान-नाडलाई
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नगरी में श्री कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न कुमार द्वारा इस तीर्थ को निर्मित बताये जाने के कारण यहाँ की विशेष महत्ता है । प्रकाण्ड विद्वान आचार्य श्री यशोभद्रसूरीश्वरजी एवं योगी तपेसरजी के बीच राजसभा में कई बार शास्त्रार्थ हुआ था व तपेसरजी अनेकों बार हारे थे । एक उल्लेखानुसार बाद में तपेसरजी ने श्री यशोभद्रसूरिश्वरजी के पास दीक्षा ग्रहण की थी, जो बाद में केशवसूरिजी (वासुदेवाचार्य) के नाम से प्रख्यात हुए । श्री केशवसूरिजी ने हथुडी के राजा विदग्धराज को प्रतिबोध देकर जैन धर्म अंगीकार करवाया था । __ श्री यशोभद्रसूरिजी द्वारा आकाश मार्ग से अपनी साधना द्वारा लाया हुआ श्री आदिनाथ भगवान का मन्दिर अभी भी विद्यमान है । एक शैव मन्दिर भी विद्यमान है, जो कहा जाता है, श्री केशवसूरिजी द्वारा दीक्षा ग्रहण पूर्व श्री यशोभद्रसूरीश्वरजी के साथ हुए शास्त्रार्थ के समय आकाश मार्ग से लाया गया था । जन साधारण में जसीया व केशीया के नाम से ये
आज भी प्रचलित हैं ।
श्री यशोभद्रसूरिजी व श्री केशवसुरिजी यहीं पर देवलोक सिधारे, जिनके स्तप यहाँ पर अभी भी विधमान है ।
श्री लावण्य समय रचित तीर्थ माला में इस घटना का वर्णन आता है ।
श्री यशोभद्रसूरि रास में अनेकों चमत्कारिक घटित घटनाओं के वर्णन हैं । अकबर प्रतिबोधक श्री हीरविजयसूरिजी के शिष्य श्री विजयसेनसूरिजी की यह जन्मभूमि है । वि. सं. 1607-08 में श्री हीरविजयसूरिजी को पन्यास व उपाध्याय की पदवी से यहीं पर अलंकृत किया गया था ।
अन्य मन्दिर 0 इनके अतिरिक्त पर्वतों की तलहटी में 7 मन्दिर और गाँव में चार मन्दिर हैं । गाँव के मुख्य मन्दिर में अधिष्ठायक देव चमत्कारिक
श्री आदिनाथ प्रभु-गाँव मन्दिर
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कला और सौन्दर्य यादव टेकरी व शत्रुजय टेकरी के बीच की पहाड़ी का प्राकृतिक दृश्य अति ही सुन्दर है । गाँव में श्री आदिनाथ भगवान के मन्दिर में सभा मण्डप के छत पर किये हुए रंगीन चित्रों की कला प्राचीन होते हुए भी साफ व अति सुन्दर दिखायी देती हैं । __ मार्ग दर्शन * यहाँ से नजदीक के रेल्वे स्टेशन फालना (अहमदाबाद-दिल्ली, ब्राडगेज लाईन में) लगभग 40 कि. मी. व रानी लगभग 28 कि. मी दूर है। इन जगहों से बस व टेक्सी की सुविधा है । यहाँ से देसूरी लगभग 6 कि. मी. धाणेराव 13 कि. मी. व मुछाला महावीर 16 कि. मी. है । यहाँ का बस स्टेण्ड पर्वतों से लगभग 72 कि. मी. दूर है । धर्मशाला से पर्वतों की तलहटी लगभग 3 कि. मी. हैं । लेकिन पर्वतों की तलहटी तक कार व बस जा सकती है । पर्वतों पर चढ़ने के लिए पगथीए बने हुए है । पर्वतों की चढ़ाई खास कठिन नहीं हैं । दोनो पर्वतों पर जाकर आने में लगभग एक घंटा लगता है ।
सुविधाएँ ठहरने के लिए गाँव मन्दिर के निकट सर्वसुविधायुक्त धर्मशालाएँ है, जहाँ भोजनशाला व आयंबिलशाला की भी सुविधा है ।
पेढ़ी 8 श्री नारलाई श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ पोस्ट : नारलाई - 306 703. जिला : पाली, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 02934-82424.
श्री आदीश्वर भगवान-नाडलाई
श्री शत्रुजय टेकरी का मनोहर दृश्य
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श्री मुछाला महावीरजी तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री महावीर भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 120 सें. मी. (श्वे. मन्दिर)।
तीर्थ स्थल घाणेराव गाँव से लगभग 5 कि. मी. दूर पहाड़ियों के मध्य एकान्त जंगल में ।
प्राचीनता * यह तीर्थ अति ही प्राचीन माना जाता है, लेकिन प्राचीनता का पता लगाना कठिन सा है । प्रतिमाजी पर कोई लेख उत्कीर्ण नहीं है । अंतिम जीर्णोद्धार वि. सं. 2017 में प्रांरभ होकर सं. 2022 में पुनः प्रतिष्ठा की गई ।
विशिष्टता * यह गोड़वाल पंचतीर्थी का एक तीर्थ स्थान माना जाता है । यहाँ के चमत्कार भी
लोकप्रसिद्ध हैं । एक वक्त उदयपुर के महाराणा यहाँ दर्शनार्थ पधारे । महाराणा ने तिलक करते वक्त केशर की कटोरी में बाल देखकर हँसते हुए पुजारी से कहा कि मालूम पड़ता है भगवान के मूंछे हैं । महावीर भक्त पुजारी ने, जी हाँ कहते हुए कहा कि भगवान समय समय इच्छानुसार अनेक रूप धारण करते हैं । हठीली प्रकृतिवाले महाराणा ने पुजारी से कहा कि मुझे मुंछों सहित भगवान के दर्शन करना है । मैं यहाँ तीन दिन रहूंगा । भक्त पुजारी की अनन्य भक्ति से प्रशन्न होकर प्रभु ने मुंछों सहित महाराणा को दर्शन दिये । उसी दिन से इस तीर्थ का नाम मुछाला महावीर पड़ा, ऐसी किंवदन्ति है। कहा जाता है आज भी चमत्कारिक घटनाएँ घटती हैं। प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ला 13 को मेला होता है । वैशाख शुक्ला अष्टमी को भी वार्षिक ध्वजारोहण का मैला होता है ।
अन्य मन्दिर वर्तमान में यहाँ पर अन्य कोई मन्दिर नहीं हैं ।
कला और सौन्दर्य जंगल में मंगल करता हुआ दोनों तरफ पहाड़ियों के बीच यह प्राचीन मन्दिर अति ही मनोरम प्रतीत होता है । मन्दिर के मण्डप, स्थंभों व भमती में उत्कीर्ण कला के नमूने दर्शनीय हैं।
मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक के रेल्वे स्टेशन फालना 40 कि. मी. व रानी 50 कि. मी दूर है। इन जगहों से बसों व टेक्सी की सुविधा है । नजदीक का गाँव धणेराव 5 कि. मी. है । सरकारी बसे धाणेराव तक आती है । धाणेराव से बस व टेक्सी का साधन मिलता है । धाणेराव से मन्दिर तक पक्की सड़क है। किसी भी प्रकार के वाहन आखिर तक जा सकते है। यहाँ से नाइलाई लगभग 16 कि. मी. राणकपुर 24 कि. मी. व सादड़ी 15 कि. मी. दूर हैं । सादड़ी से टेक्सी की सुविधा मिलती है ।
सुविधाएँ , ठहरने के लिए मन्दिर के पास ही सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला है, जहाँ भोजनशाला की भी सुविधा उपलब्ध है ।
पेढ़ी * श्री आनन्दजी कल्याणजी पेढ़ी, मुछाला महावीरजी । पोस्ट : धाणेराव - 306 704. जिला : पाली, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 02934-84056.
श्री मुछाला महावीर जिनालय
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श्री मुछाला महावीर भगवान
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श्री राणकपुर तीर्थ
तीर्थाधिराज ॐ श्री आदीश्वर भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 180 सें. मी. (श्वे. मन्दिर)।
तीर्थ स्थल अरावली गिरिमाला की छोटी-छोटी । पहाड़ियों व शान्त, एकान्त तथा निर्जन आरण्य प्रकृति के त्रिविध सौन्दर्य के बीच कलकल बहती हुई नन्ही-सी मघाई नदी के किनारे ।
प्राचीनता इस तीर्थ का इतिहास वि. सं. 1446 से प्रारम्भ होता है । इस मन्दिर का निर्माण कार्य युगप्रधान आचार्य श्री सोमसुन्दर सूरीश्वरजी के सदुपदेश से, राणा कुंभा के मंत्री श्री धरणाशाह द्वारा, वि. सं. 1446 में प्रारम्भ करवाया गया । अर्द्ध शताब्दी जितने सुदीर्घ समय के निर्माण-कार्य के पश्चात् जब मन्दिर तैयार हो गया, तब वि. सं. 1496 में 'नलिनीगुल्मदेव-विमान' तुल्य गगनचुंबी इस 'धरणविहार' मन्दिर की प्रतिष्ठा, युगप्रधान आचार्य श्री सोमसुन्दरसूरिजी के सुहस्ते असंख्य जनसमुदाय के बीच विराट महोत्सव के साथ हर्षोल्लासपूर्वक सुसंपन्न हुई । साथ ही साथ इस मन्दिर के निकट एक विराटनगरी का भी निर्माण हो चुका था, जिसे राणापुर कहते थे । तत्पश्चात् राणकपुर पड़ा ।
वि. सं. 1499 में स्वयं यात्रा करते हुए आँखों देखकर पं. मेघ कवि ने अपने द्वारा रचित 'राणिगपुर चतुर्मुख प्रासाद स्तवन में इस राणकपुर नगरी को पाटण के समान बताया है । उस समय सुसम्पन्न श्रावकों के 3000 घर विद्यमान थे । अकबर प्रतिबोधक आचार्य श्री हीरविजयसूरीश्वरजी के सदुपदेश से मेघनाद मंडप बनवाने का व जीर्णोद्धार करवाने का उल्लेख मिलता है । अठारहवीं सदी में श्री ज्ञानविमलसूरिजी व श्री समयसुन्दर उपाध्यायजी ने अपने स्तवनों में इस तीर्थ का अत्यन्त सुन्दर वर्णन किया है । ___पं. कवि मेघ गणिवर ने यहाँ 7 जिनमन्दिर व श्री ज्ञानविमलसूरिजी ने यहाँ 5 जिन मन्दिर होने का लिखा है, किन्तु वर्तमान में यहाँ सिर्फ 3 ही जिन मन्दिर हैं और जैन व अन्य जाति का घर तो एक भी नहीं है । इस प्रकार एक समय का विराट राणकपुर, कालांतर में बिलकुल वीरान हो गया । यह नगरी कब 340
ध्वस्त हुई, उसका इतिहास उपलब्ध नहीं । कहा जाता है, औरंगजेब के समय आक्रमणकारियों द्वारा इस नगरी को भी क्षति पहुँची होगी । ऊँची टेकरियों पर अनेकों खणडहर दिखाई देते हैं । 'धरण विहार' तो अभी भी अपनी शान से छटायुक्त पहाड़ियों के मध्य गगन से बातें करता गत सदियों की याद दिलाता है। राजस्थान के गोड़वाड़ की पंचतीर्थी का यह मुख्य तीर्थ है । समस्त जैन संघ द्वारा स्थापित सेठ श्री आनन्दजी कल्याणजी पेढ़ी ने इन मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाकर पुनः प्रतिष्ठा वि. सं. 2009 में करवाई थी ।
विशिष्टता इस तीर्थ की विशेषता का इतिहास भी अति ही गौरवशाली है । इस तीर्थ के निर्माण का मुख्य श्रेय युगप्रधान आचार्य श्री सोमसुन्दरसूरीश्वरजी को है । इनकी ही प्रेरणा से राणकपुर के समीपस्थ नान्दियाँ गाँव के निवासी पोरवाल वंशीय श्रेष्ठी कुंवरपाल शेठाणी कामलदे के पुत्र रत्नाशाह के लधु भ्राता व राणा कुंभा के मंत्री श्री धरणाशाह में उत्कृष्ट धार्मिक भावना जाग्रत हुई, जिससे प्रेरित होकर, 32 वर्षों की यौवनावस्था में ही, शत्रुजय महाशास्वत तीर्थ पर एकचित्र 32 विभिन्न शहरों के संघों के बीच, संघतिलक करवाकर इन्द्रमाला पहिनने का, चौथे ब्रह्मचर्यव्रत धारण करने का व दान-पुण्य एवं तीर्थयात्रा करने का सौभाग्य उन्हें प्राप्त हुआ । उनको श्री आदिनाथ भगवान का भव्य मन्दिर बनवाने की भी भावना हुई। एक दिन स्वप्न में 'नलिनीगुल्मदेवविमान' के उन्हें दर्शन हुए, जिस पर उनकी अन्तरात्मा में 'नलिनीगुल्मविमान' जैसा एक अलौकिक, भावी पीढ़ी के लिए प्रेरणाप्रद, विश्व में जैनधर्म का गौरव बढ़ावे ऐसा, शिल्पकला में उत्कृष्ठ व सर्वांगसुन्दर मन्दिर बनवाने की भावना जाग्रत हुई ।
धर्मनिष्ठ राणा कुंभा द्वारा मन्दिर के निर्माणकार्य में दिया गया योगदान भी उल्लेखनीय है । जब धरणाशाह ने राणा के सम्मुख उक्त मन्दिर बनाने की भावना प्रकट की व उस के लिये जमीन देने की प्रार्थना की, तब राणा प्रफुल्लित हुए व मन्दिर के लिये उपयुक्त जमीन देने के अतिरिक्त उन्होंने मन्दिर के निकट नगर बसाने की भी सलाह दी ।
मुंडारा निवासी सिद्धहस्त, शिल्पकार श्री देपा (दीपा या देपाक) को भी हम नहीं भूल सकते । उन्होंने जिन्दगी की बाजी लगाकर भारतीय जैन शिल्पकला का
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तीर्थाधिराज श्री आदिनाथ भगवान-राणकपुर
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नलिनीगुल्म देवविमान तुल्य "धरण-विहार" मन्दिर का चित्ताकर्षक अपूर्व दृश्य - राणकपुर
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एक उत्कृष्ट नमूना विश्व के सामने पेश किया,जिस के दर्शन करता है, तब वह अपने आपको भूल जाता है दर्शन कर,विश्व के शिल्पशास्त्रविशारद,विद्वान व व ऐसा अनुभव करता है, जैसे सचमुच ही वह किसी आबाल-वृद्ध-वनिता आज भी प्रफुल्लित व मुग्ध होते दिव्यलोक में आ पहुँचा है ।
___ भारतीय शिल्पकला का एक श्रेष्ठ व बेमिसाल नमूना जब धरणाशाह ने विभिन्न शिल्पकारों से अपने यहाँ नजर आता है । भारतीय वास्तु-विद्या कितनी विचारों के अनुकूल नक्शे मंगाये, तब अनेंको शिल्पकारों बढ़ी-चढ़ी थी व इस देश के कलाकार कैसे सिद्धहस्त ने अपने-अपने नक्शे पेश किये । उस समय धरणाशाह थे, इसका यह तीर्थ प्रत्यक्ष प्रमाण है । यह मन्दिर के दिल की बात समझकर प्रभुभक्त व आत्मसंतोषी इतना विशाल और ऊँचा होने पर भी इसमें, नजर कलाकार, मुंडारा निवासी श्री दीपा ने भी अपना नक्शा आती सप्रमाणता, मोती, पन्ने, हीरे, पुखराज और पेश किया, जो धरणाशाह के दिल में बस गया । फिर माणक की तरह जगह-जगह बिखरी हुई शिल्प-समृद्धि, तो शीध्र ही शुभ दिन को, मन्दिर -निर्माण का कार्य विविध प्रकार की कोरणी से सुशोभित अनेकानेक तोरण प्रारंभ किया गया । कहा जाता है, धरणाशाह की और उन्नत स्तंभ, आकाश में निर्निराली छटा बिखेरते भावना सात मंजिला मन्दिर बनवाने की थी । परन्तु शिखरों की विविधता, कला की यह विपुल समृद्धि मानों अपनी वृद्धावस्था व आयु का निकट में ही अन्त मुखरित बनकर यात्रि का मंत्र-मुग्ध बना देती है । समझकर तीन मंजिल का कार्य होते ही अपने
इस मन्दिर के चार द्वार हैं । मन्दिर के मूल गर्भगृह मार्गदर्शक, युगप्रधान आचार्य श्री सोमसुन्दरसूरीश्वरजी
में भगवान आदिनाथ की बहत्तर इंच (180 सें. से प्रतिष्ठा के लिए विनती की। आचार्य श्री ने अपने
मी.) जितनी विशाल चारों दिशाओं में चार प्रतिमाएँ 500 साधु-समुदाय के साथ पधारकर वि. सं. 1496 बिराजमान हैं । दूसरे व तीसरे मंजिल में भी इसी में अपने सुहस्ते प्रतिष्ठा सम्पन्न करवायी । इस मन्दिर ।
तरह चार-चार जिन प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हैं । इसी लिए का नाम 'धरण विहार' रखा गया, जिसे
इसे चतुर्मुख-जिनप्रसाद भी कहते हैं । त्रैलोक्य-दीपकप्रासाद' व त्रिभुवनविहार' भी कहते हैं ।
___76 शिखरबंद छोटी देव कुलिकाएँ, रंगमंडप तथा 'नलिनी-गुल्मविमान' के नाम से भी यह मन्दिर
शिखरों से मंडित चार बड़ी देवकुलिकाएँ और चारों विख्यात है । किंवदन्ति के अनुसार इस मन्दिर के
दिशाओं में चार महाधर प्रासाद-इस प्रकार मन्दिर के निर्माण कार्य में 99 लाख रूपये लगे थे।
चारों तरफ कुल चौरासी देवकुलिकाएँ है । मानों ये अन्य मन्दिर वर्तमान में यहाँ पर इस मख्य
संसारी आत्मा को जीवों की चौरासी लाख योनियों से मन्दिर के अतिरिक्त श्री नेमिनाथ भगवान, श्री पार्श्वनाथ
व्याप्त भवसागर को पार करके मुक्त होने की प्रेरणा भगवान, व सूर्य मन्दिर हैं । ये भी सुन्दर व दर्शनीय देती हैं । हैं । यहाँ से करीब एक कि. मी. दूरी पर श्री चक्रेश्वरी
____ चार दिशाओं में आए चार विशाल व उन्नत मेघनाद माता का मन्दिर है ।
मंडपों का तो जोड़ मिलना ही मुश्किल है। झीनी-झीनी कला और सौन्दर्य राणकपुर, प्राकृतिक सौन्दर्य ।
सजीव कोरणी से सुशोभित लगभग 40 फुट ऊँचे के साथ कला व भक्ति का संगम स्थान है । इस ढंग स्तंभ. बीच-बीच में मोतियों की मालार्यों के समान का विशिष्ट संगम-स्थान कम जगह देखने मिलेगा ।
लटकते सुन्दर तोरण, चारों ओर जड़ी हुई देवियों की __ यहाँ प्रकृति का सहज सौन्दर्य एवं मानव-निर्मित सजीव पुतलियों और उभरी हुई कोरणी से समृद्ध कला-सौन्दर्य का सुभग समन्वय सध जाता है । अतः तोलक से शोभित गुंबज दर्शक को मुग्ध कर देते हैं। यह कैसे सुन्दर एवं अपूर्व योग बनकर मानव के चित्त शिखरों के गुंबज में और अन्य छतों में भी कलाविज्ञ को आलह्यादित करता हुआ, प्रभुभक्ति की ओर उसे और भक्तिशील शिल्पियों की मुलायम छेनियों ने कई कैसे खींच लेता है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण यह पुरातन कथाप्रसंगों को जीवंत किया है, कई आकृतियों तीर्थस्थल है ।
को मानों वाचा प्रदान की है और कई नये-नये शिल्प मानव जब इस अपूर्व प्राकृतिक दृश्य के साथ । खड़े किये हैं । इन सब कलाकृतियों का मर्म हृदयंगम स्वर्गलोक के देवविमानतुल्य इस कलात्मक मन्दिर के होने पर भावुक जन मानों, स्थल-काल आदि को भूल
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कलात्मक गुम्बज
ही जाता है और इन मूक आकृतियों की भावभंगिमा को समझने में तन्मय हो जाता है । __ इस मन्दिर में उत्तर की ओर रायणवृक्ष व उस के नीचे भगवान ऋषभदेव के चरणचिह्न हैं, जो श्री शत्रुजय महातीर्थ की याद दिलाते हैं । मन्दिर में श्री सम्मेतशिखर, अष्टापद (अपूर्ण), नंदीश्वरद्वीप, शत्रुजय व गिरनार की रचना की गई है । इसके अलावा मन्दिर में सहसफणा पार्श्वनाथ तथा सहस्रकूट के जो कलापूर्ण शिलापट्ट बने हैं, वे भी निराली ही भावना पैदा करते हैं । ___ मन्दिर की सबसे अनोखी विशेषता उसकी विभिन्न कलायुक्त विपुल स्तंभावली है । कुल 1444 स्तंभ बताये जाते हैं, लेकिन गिनना कठिन है । इस मन्दिर को स्तंभों की महानिधि या स्तंभों का नगर कह सकते हैं । जिस ओर दृष्टि डाले उस ओर छोटे, बड़े, मोटे, पतले, विभिन्न कोरणी से उभरे हुए स्तंभ ही स्तंभ नजर आते हैं । शिल्पियों ने स्तंभों की सजावट ऐसे व्यवस्थित ढंग से की है कि मन्दिर के किसी भी कोने में खड़ा भक्त प्रभु के दर्शन कर सकता है । मेघनाथ मंडप में प्रवेश करते समय बायें हाथ के एक स्तंभ पर मंत्री धरणाशाह व स्थपति श्री देवा की प्रभु सन्मुख कोरी हुई आकृतियाँ में इन दोनों महानुभावों को देखते हैं तो मंत्री की भक्ति की कला व स्थपति की कला की भक्ति के सामने भक्त का सिर झुके बिना नहीं रहता ।
मन्दिर में कईनेक तलघर बनाये हुए हैं । इन तलघरों में बहुत सी जिनप्रतिमाएँ हैं ।
आबू के मन्दिर अपनी कोरणी के लिए विश्व-विख्यात हैं, तो राणकपुर के मन्दिर की कोरणी भी कुछ कम नहीं है । फिर भी जो बात प्रेक्षक का ध्यान विशेष आकर्षित करती है वह है इस मन्दिर की विशालता। जनसमूह में “आबू की कोरणी व राणकपुर की। मांडणी” यह कहावत भी प्रसिद्ध है । इस मन्दिर की निर्माण शैली बिलकुल निराली व विश्वविख्यात है । मन्दिर का बाहरी दृश्य जैसे अपनी अलग ही शान रखता है, वैसे इस के अन्दर के कलापूर्ण दृश्य भी अपना अद्भुत नमूना पेश करते हैं ।
इस मन्दिर के अतिरिक्त श्री नेमिनाथ भगवान व श्री पार्श्वनाथ भगवान के मन्दिर की शिल्पकला अपना अलग ही स्थान रखती है ।
कोई मानव इस ढंग के प्राकृतिक सौन्दर्य से ओत-प्रोत स्वर्गलोक के नलिनीगुल्मविमान जैसा कलात्मक जिन मन्दिर के दर्शन करने का अवसर न चूकें ।
मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन फालना लगभग 35 कि. मी. दूर है। बड़ा गाँव सादड़ी 9 कि. मी. | सिरोही, बाली, पाली व जालौर इन सब स्थानों से भी बसें व टेक्सियाँ उपलब्ध है । उदयपुर, आबु, जालोर व नाकोड़ा से यहाँ के लिए सीधी बसें चलती है । मन्दिर से बस स्टेण्ड सिर्फ 100 मीटर दूर है । मन्दिर तक पक्की सड़क है । आखिर तक कार व बस जा सकती है । नजदीक का हवाई अड्डा उदयपुर 90 कि. मी. व जोधपुर 170 कि. मी. दूर है।
सुविधाएँ * ठहरने के लिए मन्दिर के निकट ही सर्वसुविधायुक्त विशाल धर्मशाला है, व एक दुसरी धर्मशाला भी है । इनके अतिरिक्त यहाँ सर्वसुविधायुक्त गेस्ट हाऊस भी बने हुए है । यहाँ पर पानी, बिजली, बर्तन, ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र, भोजनशाला व भाते की सुविधा उपलब्ध है ।
पेढ़ी 8 शेठ श्री आनन्दजी कल्याणजी पेढ़ी, राणकपुर तीर्थ । पोस्ट : सादड़ी - 306 702. जिला : पाली, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 02934-85019. सादड़ी कार्यालय : 02934-85021.
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बाबा
श्रीसुमतिसूरिजी वि. सं. 1237 में व श्री विजयदेवूसरिजी द्वारा वि. सं. 1686 में यहाँ मन्दिरों की प्रतिष्ठापना करवाने के उल्लेख यहाँ शिलालेखों में पाये जाते हैं । श्री ज्ञानविमल सूरिजी द्वारा वि. सं. 1755 में रचित तीर्थ माला में भी इस तीर्थ का उल्लेख है । मूल प्रतिमा पर वि. सं. 1686 का लेख उत्कीर्ण है । अन्य प्रतिमाओं पर वि. सं. 1215 का लेख है । सदियों से यह स्थल जाहोजलालीपूर्ण रहा । किसी समय यह एक विराट नगरी रही होगी, ऐसा जगह जगह पर उपलब्ध ध्वंसावशेषों से व उल्लेखों से प्रतीत होता है।
विशिष्टता यहाँ श्री नेमिनाथ भगवान के मन्दिर में एक प्राचीन भोयरा है । कहा जाता है यह भोयरा नाडलाई तक जाता है । वि. सं. 300 के पूर्व आचार्य श्री मानदेवसूरीश्वरजी ने तक्षशिला में फैले महामारी उपद्रव शान्ति के लिए इसी भोयरे के अन्दर योग साधना कर 'लघुशान्ति' स्तोत्र की रचना की थी। लघुशान्ति स्तोत्र आज भी शान्ति के लिए हर जगह
मन्दिर का कलात्मक शिखर
श्री नाडोल तीर्थ
गा
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IILETITIVIDIOINDINITITIOTIC
तीर्थाधिराज * श्री पद्मप्रभ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 135 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल नाडोल गाँव के मध्यस्थ ।
प्राचीनता * शास्त्रों में इसका नन्दपुर, नड्डूल, नडूल, नदूल, नर्दुलपुर आदि नामों का वर्णन है । यह तीर्थ अति ही प्राचीन, संप्रति राजा के पूर्व का माना जाता है । वि. सं. 300 के पूर्व श्री देवसूरिजी के शिष्य आचार्य श्री मानदेवसूरिजी ने यहाँ चातुर्मास करके 'लघुशांति स्तोत्र' की रचना की थी । वि. सं. 700 में श्री रविप्रभसूरिजी द्वारा श्री नेमिनाथ भगवान के प्रतिम की प्रतिष्ठा हुए का उल्लेख है । सं. 1228 के एक भेंट पत्र से प्रतीत होता है, चौहाणवंशीय राजा आलनदेव ने श्री महावीर भगवान का मन्दिर बनवाया था ।
श्री शालिभद्रसूरिजी वि. सं. 1181 में, श्रीदेवसूरिजी के शिष्य श्री पद्मचन्द्रगणिजी वि. सं. 1215 में, 346
श्री पद्मप्रभ भगवान मन्दिर-नाडोल
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उपयोग में लाया जाता है । उक्त भोयरे में प्रवेश द्वार पर आचार्य श्री की मूर्ति विराजमान है व अखण्ड ज्योति 1775 वर्षों से प्रज्वलित हैं। वादिवेताल श्री शान्तिसूरिजी ने श्री मुनिचन्द्रसूरिजी को यहीं पर न्यायशास्त्र का अभ्यास कराया था । वि. सं. 1049 में यहाँ के राजा श्री लाखणसी के पुत्र दादराव ने प्रकाण्ड विद्वान आचार्य श्री यशोभद्रसूरिजी से यहीं पर दीक्षा ग्रहण की थी । ग्यारहवी शताब्दी में इस नगर के राजा ने मंत्री श्री विमलशाह को सोने का सिंहासन भेंट किया था । भन्डारी व कोठारी गोत्र का उत्पत्ति स्थान नाडोल माना जाता है ।
अन्य मन्दिर इसके अतिरिक्त तीन और मन्दिर हैं, जिनमें श्री नेमिनाथ भगवान का मन्दिर अति प्राचीन माना जाता है। भोयरा भी इसी में हैं, जिसमें श्री मानदेवसूरिजी ने 'लघुशान्ति' स्तोत्र की रचना की थी ।
कला और सौन्दर्य
इस मन्दिर में व श्री नेमिनाथ भगवान के मन्दिर में प्राचीन कलात्मक प्रतिमाओं का दर्शन होता हैं । इसी मन्दिर में एक सूर्य भगवान की प्रतिमा व एक ही कसौटी का बना अखण्ड, छोटा, चौमुखा, प्राचीन मन्दिर अति ही सुन्दर व कलात्मक हैं। भगवान महावीर के प्राचीन मन्दिर के खण्डहरों से तीन विशाल प्रभावशाली जिन प्रतिमाएँ प्राप्त हुई थीं, जिनकी प्रतिष्ठा वि. सं. 2014 में इसी मन्दिर में हुई, जो अति ही दर्शनीय है। गाँव के पास कई प्राचीन अवशेष व बावड़ियाँ नजर आती है। अगर शोध की जाय तो काफी प्राचीन इतिहास व कलात्मक अवशेष मिलने की सम्भावना है ।
मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन रानी लगभग 18 कि. मी. है । यहाँ से फालना 50 कि. मी. नाडलाई 10 कि. मी. व मुछाला महावीरजी 22 कि. मी. दूर है। कार व बस मन्दिर तक जा सकती हैं ।
सुविधाएँ ठहरने के लिए मन्दिर के निकट ही सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला है, जहाँ भोजनशाला की भी सुविधा उपलब्ध है ।
पेढ़ी
श्री जैन श्वेताम्बर देवस्थान पेढ़ी, पोस्ट : नाडोल 306603. स्टेशन : रानी जिला : पाली (राज.), फोन : 02934-40044.
श्री पद्मप्रभ भगवान- नाडोल
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श्री वरकाणा तीर्थ
तीर्थाधिराजश्री पार्श्वनाथ भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण, लगभग 30 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल वरकाणा गाँव के मध्य ।
प्राचीनता शास्त्रों में इसका प्राचीन नाम वरकनकपुर व करकनकनगर बताया है । प्राचीन काल में यह समृद्ध व विशाल नगरी थी व अनेकों जिन मन्दिर थे, ऐसा उल्लेख मिलता हैं । महाराणा कुंभा के समय श्रीमालपुर के श्रेष्ठी ने इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया था । प्रतिमाजी पर कोई लेख नहीं हैं । नवचौकी के एक स्तम्भ पर वि. सं. 1211 का लेख उत्कीर्ण है । दरवाजे के बाहर वि. सं. 1686 का एक शिलालेख है । विजयदेवसूरिजी द्वारा मेवाड़ के राणा श्री जगतसिंहजी से यहाँ का यात्री कर माफ करवाने का उल्लेख है । यह प्रतिमा लगभग वि. सं. 515 में प्रतिष्ठित हुई मानी जाती हैं । यह तीर्थ गोड़वाल पंचतीर्थी का एक तीर्थ माना जाता है । 'सकल तीर्थ स्तोत्र' में इस तीर्थ का उल्लेख है । आचार्य श्री विजयवल्लभसूरिजी के शिष्य आचार्य श्री विजयललितसरिजी
की प्रेरणा से बना हुआ यहाँ का छात्रालय व छात्रावास का कार्य सराहनीय है । प्रतिवर्ष पौष कृष्णा 10 को मेला लगता है ।
अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त अन्य कोई मन्दिर नहीं है । ___ कला और सौन्दर्य * प्रभु प्रतिमा की कला
अपना विशिष्ट स्थान रखती है । शिखरों पर बनी शिल्पकला भी अपनी अनुपम कला का उदाहरण प्रस्तुत करती है।
मार्ग दर्शन ® यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन रानी 7 कि. मी. व फालना लगभग 25 कि. मी. है, जहाँ से बस व टेक्सी की सुविधा उपलब्ध है । यहाँ का बस स्टेण्ड सिर्फ 100 मीटर है । मन्दिर तक पक्की सड़क है । कार व बस जा सकती हैं ।
सुविधाएँ ® ठहरने के लिए मन्दिर के पास ही धर्मशाला है, जहाँ बिजली, पानी, बर्तन, ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र, भोजनशाला एवम् भाते की सुविधा है ।
पेढ़ी 8 श्री पार्श्वनाथ जैन देवस्थान पेढ़ी वरकाणा तीर्थ । पोस्ट : वरकाणा - 306601. जिला : पाली (राज.), फोन : 02934-22257.
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पार्श्वप्रभु जिनालय-वरकाणा
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श्री पार्श्वनाथ भगवान-वरकाणा
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श्री हथुण्डी तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री महावीर भगवान, पद्मासनस्थ, रक्त प्रवाल वर्ण, 135 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल बीजापुर गाँव से लगभग 3 कि. मी. दूर, छटायुक्त सुरम्य पहाड़ियों के बीच ।
प्राचीनता ॐ शास्त्रों में इसके नाम हस्तिकुण्डी, हाथिउन्डी, हस्तकुण्डिका आदि आते हैं । मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज द्वारा रचित 'श्री पार्श्वनाथ भगवान की परम्परा इतिहास' में महावीर भगवान के इस मन्दिर का निर्माण वि. सं. 370 में श्री वीरदेव श्रेष्ठी द्वारा होकर आचार्य श्री सिद्धसूरिजी के सुहस्ते प्रतिष्ठित हुए का उल्लेख है । राजा हरिवर्धन के पुत्र विदग्धराजने महान प्रभावक आचार्य श्री यशोभद्रसूरिजी के शिष्य आचार्य श्री बलिभद्रसरिजी, (इन्हें वासदेवाचार्य व केशवसूरिजी भी कहते थे) से प्रतिबोध पाकर जैन धर्म अंगीकार किया था । वि. सं. 973 के लगभग इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाकर प्रतिष्ठा करवायी थी । राजा विदग्धराज के वंशज राजा मम्मटराज, धवलराज,बालप्रसाद आदि राजा भी जैन धर्म के
अनुयायी थे । उन्होंने भी धर्म प्रचार व प्रसार के लिए काफी योगदान दिया था व मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाकर भेंट-पत्र प्रदान किये थे ।
वि. सं. 1053 में श्री शान्त्याचार्यजी के सुहस्ते यहाँ श्री आदिनाथ भगवान की प्रतिमा प्रतिष्ठित होने का उल्लेख आता है । वि. सं. 1335 में पुनः रातामहावीर भगवान की प्रतिमा यहाँ रहने का उल्लेख है । सं. 1335 में सेवाड़ी के श्रावकों द्वारा यहाँ श्री राता महावीर भगवान के मन्दिर में ध्वजा चढ़ाने का उल्लेख है । लगभग वि. सं. 1345 में इसका नाम हथुण्डी पड़ गया था, ऐसा उल्लेख मिलता है। बीचकाल में श्री आदिनाथ प्रभु की प्रतिमा क्यों बदली गयी व वही श्री राता महावीर भगवान की प्रतिमा क्यों व कब पुनः प्रतिष्ठित की गयी उसका उल्लेख नहीं । यहाँ का पुनः जीर्णोद्धार वि. सं. 2006 में होकर पंजाब केशरी युगवीर आचार्य श्रीमद् विजयवल्लभ सूरिश्वरजी महाराज के सुहस्ते अति उल्लास व विराट महोत्सव के साथ प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न हुआ । प्रतिमा वही प्राचीन चौथी शताब्दी की अभी भी विद्यमान है ।
विशिष्टता भगवान श्री महावीर की प्रतिमा के नीचे सिंह का लांछन है । उसका मुख हाथी का है । हो सकता है इसी कारण इस नगरी का नाम
श्री राता महावीर जिनालय-हथुण्डी
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हस्तिकुण्डी पड़ा हो। इस प्रकार का लांछन अन्यत्र किसी भी प्रतिमा पर नहीं पाया जाता, यह इसकी मुख्य विशेषता है। आचार्य श्री कक्कसूरि सप्तम, आचार्य श्री देवगुप्तसूरि सप्तम, आचार्य श्री कक्कसूरि अष्टम,श्री वासुदेवाचार्य, श्री शान्तिभद्राचार्य, श्री शान्याचार्य, श्री सूर्याचार्य आदि प्रकाण्ड विद्वान आचार्यों ने यहाँ पदार्पण करके नाना प्रकार के धर्म प्रभावना के कार्य किये हैं, जो उल्लेखनीय हैं । ___ श्री वासुदेवाचार्य ने हस्तिकुण्डीगच्छ की स्थापना यही पर की थी। यहीं पर रहते हुए आचार्यश्री ने आहड़ के राजा श्री अल्लट की महारानी को रेवती दोष बीमारी से मुक्त किया था। किसीसमय इस पर्वतमाला पर एक विराट नगरी थी व आठ कुएँ एवं नव बावड़ियाँ थीं । लगातार सोलह सौ पणिहारियाँ यहाँ पानी भरा करती थीं, ऐसी कहावत प्रसिद्ध है । झामड़ व रातड़िया, राठौड़, हथुण्डिया गोत्रों का उत्पत्ति स्थान भी यही है, इनके पूर्वज राजा जगमालसिंहजी ने वि. सं. 988 में आचार्य श्री सर्वदेवसूरिजी व राजा श्री अनन्त सिंहजी ने वि. सं. 1208 में आचार्य श्री जयसिंहदेवसूरिजी के उपकारों से प्रभावित होकर जैन धर्म अंगीकार किया था ।
प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ला 13 को विशाल मेला भरता हैं, इस अवसर पर पहाड़ों में रहनेवाले आदिवासी, भील, गरासिये एवं दूर दूर से हजारों भक्तगण आकर प्रभु भक्ति में तल्लीन हो जाते हैं । यहाँ के रेवती यक्ष अति चमत्कारी हैं, जिनकी प्रतिष्ठा प्रकाण्ड विद्वान आचार्य श्री यशोभद्रसूरिजी के शिष्य के वासुदेवाचार्यजी ने करवाई थी ।
अन्य मन्दिर ॐ इसके अतिरिक्त यहाँ पर नवनिर्माणित श्री महावीर वाणी का पांच मंतिला समवसरण मन्दिर हैं ।
कला और सौन्दर्य * यह अति प्राचीन क्षेत्र रहने के कारण अभी भी अनेकों प्राचीन अवशेष इधर-उधर पाये जाते हैं । प्रभु महावीर के प्रतिमा की कला अपना विशिष्ठ स्थान रखती हैं । प्राचीन राजमहलों के खण्डहर व प्राचीन कुएँ व बावड़ियाँ अभी भी प्राचीन कहावतों की याद दिलाते हैं ।
मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन जवाई बाँध लगभग 20 कि. मी. व फालना लगभग 28 कि. मी. दूर है, नजदीक का बड़ा गाँव बाली
श्री रातामहावीर भगवान-हथुण्डी
लगभग 25 कि. मी है । यहाँ का बस स्टेण्ड बीजापुर गाँव मे है जो कि लगभग 3 कि. मी. है जहाँ पर टेक्सी, आटो का साधन है । आखिर मन्दिर तक सड़क है, कार व बस जा सकती है । राणकपुर तीर्थ यहाँ से लगभग 40 कि. मी. है ।
18 ठहरने के लिए मन्दिर के निकट ही सर्वसुविधायुक्त दो धर्मशालाएँ, बड़े हाल, ब्लाक व गेस्ट हाऊस बने हुए है । जहाँ पर भोजनशाला व गेस सिस्टम के साथ रसोडे की सुव्यवस्था है ।
पेढ़ी श्री हथुण्डी राजा महावीर स्वामी तीर्थ, पोस्ट : बीजापुर - 306707. जिला : पाली (राज.), फोन : 02933-40139.
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हस्ते हुई थी । कहा जाता है पहिले यहाँ के मूलनायक श्री शान्तिनाथजी भगवान थे । एक प्रचलित किंवदन्ति के अनुसार यह मन्दिर लगभग दो हजार वर्ष पूर्व राजा गंधर्वसेन द्वारा निर्माणित करवाया गया था ।
विशिष्टता प्रभु प्रतिमा अति ही चमत्कारिक है। कहा जाता है श्री अधिष्ठायक देव ने श्री गेमाजी श्रावक को स्वप्न में कहा कि बाली से दो मील दूर बसे सेला गाँव के तालाब में पार्श्वप्रभु की प्राचीन चमत्कारिक प्रतिमा है । जिसे यहाँ लाकर स्थापन कर। स्वप्न के आधार पर तालाब में खुदाई का कार्य करवाया गया व संकेतिक स्थान पर यह भव्य प्रतिमा प्रकट हुई । सेला गाँव के श्रावकों की इच्छा थी कि उसी गाँव में प्रतिष्ठा करवाई जाय । आखिर तय हुआ
कि प्रभु प्रतिमा को लेजानेवाले बैल जिस तरफ चले श्री मनमोहन पार्श्वप्रभु जिनालय-बाली वहीं पर विराजित की जाय । बैलगाड़ी प्रभु प्रतिमा को
लेकर बाली तरफ ही रवाना हुई । बाली में भव्य
जिनालय का निर्माण करवाकर बड़े ही उल्लासपूर्वक श्री बाली तीर्थ
प्रतिष्ठित करवाया गया ।
अन्य मन्दिर , वर्तमान में इसके अतिरिक्त 3 तीर्थाधिराज श्री मनमोहन पार्श्वनाथ भगवान, और मन्दिर हैं । श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 78 सें. मी. कला और सौन्दर्य * प्रभु प्रतिमा अति ही (श्वे. मन्दिर) ।
सौम्य व प्रभावशाली हैं । मन्दिर की निर्माण शैली भी तीर्थ स्थल 8 बाली गाँव के मध्य भाग में । निराले ढंग की अति ही सुन्दर हैं । श्री आदीश्वर प्राचीनता यह अति प्राचीन गाँव है । कहा भगवान के मन्दिर में राता महावीर भगवान की जाता है पहिले यह गाँव चौहान राजाओं के अधिकार सुनहरी प्रतिमा अति ही सुन्दर दर्शनीय है । में रहा । पश्चात् जालोर के सोनागरा सरदारों के मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन अधिपत्य में रहा व तत्पश्चात् मेवाड़ के महाराणाओं के फालना लगभग 8 कि. मी. है, जहाँ से बस व टेक्सी अधिकार में आया ।
का साधन है । यहाँ का बस स्टेशन मन्दिरों से करीब मूलनायक श्री मनमोहन पार्श्वनाथ भगवान की 100 मीटर है । मन्दिर तक पक्की सड़क है । कार प्रतिमा के परिकर पर सं. 1161 ज्येष्ठ कृष्णा 6 का व बस मन्दिर तक जा सकती है । लेख उत्कीर्ण है । यह प्रतिमा बाली से लगभग 2 मील
ठहरने के लिए धर्मशाला है । जहाँ दूर बसे सेला गाँव के तालाब में से प्रकट हुई थी। बिजली, पानी, बर्तन, ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र व इस प्रतिमा के प्रतिष्ठाता संडेरकगच्छीय आचार्य श्री भोजनशाला की सुविधा है । यशोभद्रसूरीश्वरजी होने का अनुमान है ।
पेढ़ी 8 श्री मनमोहन पार्श्वनाथ जैन लगभग 300 वर्ष पूर्व इस मन्दिर का नव निर्माण देवस्थान पेढ़ी, पार्श्वनाथ चौक । करवाकर यह प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई गई । वर्तमान पोस्ट : बाली - 306 701. जिला : पाली (राज.), में लगभग बीस वर्ष पूर्व पुनः जीर्णोद्धार करवाया गया। फोन : 02938-22029.
यहाँ एक और श्री आदीश्वर भगवान का मन्दिर है, जिसकी प्रतिष्ठा आचार्य श्री हीरविजयसूरीश्वरजी के
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श्री मनमोहन पार्श्वनाथ भगवान-बाली
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श्री जाखोड़ा तीर्थ
गव
तीर्थाधिराज श्री शान्तिनाथ भगवान, पद्मासनस्थ, प्रवाल वर्ण, लगभग 35 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल जाखोड़ा गाँव के पहाड़ी की ओट में।
प्राचीनता , कहा जाता है इस प्रभु-प्रतिमा की अंजनशलाका आचार्य श्री मानतुंगसूरीश्वरजी के सुहस्ते हुई थी । विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में श्री मेघ कवि द्वारा रचित तीर्थ-माला' में इस तीर्थ का वर्णन है । प्रतिमाजी के परिकर पर वि. सं. 1504 का लेख उत्कीर्ण है । लेकिन यह परिकर बाद का प्रतीत होता है।
विशिष्टता यह तीर्थ प्राचीन होने के साथ-साथ चमत्कारिक क्षेत्र भी है । यहाँ पर जल की बड़ी भारी समस्या थी । इस पथरीली भूमि में पानी मिलने की संभावना ही नहीं थी । एक दिन अधिष्ठायकदेव ने श्री चान्दाजी कोलीवाड़ावालों को मन्दिर के निकट एक जगह पानी रहने का संकेत दिया । तदनुसार खुदवाने पर विपुल मात्रा में मीठा व स्वास्थ्यवर्धक पानी प्राप्त हुआ । जैन-जैनेतर और भी अनेक तरह के चमत्कारों
का वर्णन करते हैं । यहाँ कार्तिक पूर्णीमा व चैत्री पूर्णीमा को मेले का आयोजन होता है तब हजारों यात्री दर्शनार्थ आते हैं ।
अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त एक और मन्दिर हैं ।
कला और सौन्दर्य * प्रभु प्रतिमा की कला दर्शनीय है ।
मार्ग दर्शन 8 यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन जवाई बाँध 10 कि. मी. व फालना 18 कि. मी. है। नजदीक के बड़े गाँव शिवगंज लगभग 8 कि. मी. व सुमेरपुर 6 कि. मी. है । इन स्थानों से बस व टेक्सी की सुविधा उपलब्ध है । यहाँ का बस स्टेण्ड मन्दिर से 200 मीटर दूर हैं । आखिर तक कार व बस जा सकती है ।
ठहरने के लिए विशाल धर्मशाला है। जहाँ पानी, बिजली, बर्तन, ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र व भोजनशाला की सुविधा उपलब्ध है ।
पेढी श्री शान्तिनाथ भगवान जैन श्वेताम्बर तीर्थ पेढ़ी । पोस्ट : जाखौड़ा - 306 902. जिला : पाली (राज.), फोन : 02933-48045.
श्री शान्तिनाथ जिनालय-जाखोड़ा
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श्री शान्तिनाथ भगवान-जाखोड़ा
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श्री कोरटा तीर्थ
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तीर्थाधिराज श्री महावीर भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 135 सें. मी. । प्राचीन मूलनायक भगवान (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल * कोरटा गाँव के बाहर एकान्त जंगल में ।
प्राचीनता किसी समय कोरटा एक प्रमुख नगर था व यहाँ पर जनसमृद्धि का कोलाहल विस्तृत आकाश को गुंजित करता था । इस मन्दिर की प्रतिष्ठापना चरम तीर्थंकर श्री महावीर भगवान के 70 वर्ष बाद श्री पार्श्वनाथ संतानीय श्री केशी गणधर के प्रशिष्य व श्री स्वयंप्रभसूरीश्वरजी के शिष्य उपकेशगच्छीय ओशवंश के संस्थापक श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी के सुहस्ते माघ शुक्ला पंचमी गुरुवार के दिन धनलग्न ब्रह्म मुहुर्त में होने का उल्लेख शास्त्रों में मिलता है । राजा भोज की सभा के रत्न पण्डित श्री धनपाल ने वि. सं. 1081 में रचित 'सत्यपुरीय श्री 'महावीरोत्सह' में कोरटा तीर्थ का वर्णन किया है । 'उपदेश तरंगिणि' ग्रन्थ में वि.
श्री आदिनाथ भगवान-कोरटा
श्री महावीर भगवान मन्दिर-कोरटा
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सं. 1252 में नाहड़ मंत्री द्वारा 'नाहड़ वसहि' आदि अनेकों जिनमन्दिर बनवाने का व श्री वृद्धदेव सूरीश्वरजी द्वारा प्रतिष्ठा सम्पन्न होने का उल्लेख मिलता है । तपागच्छीय श्री सोमसुन्दरसूरिजी के समयवर्ती कवि मेघ द्वारा वि. सं. 1499 में रचित तीर्थमाला में भी इस तीर्थ का वर्णन है। वि.सं. 1728 में श्री विजयगणि के उपदेश से इस तीर्थ का उद्धार होने व प्राचीन प्रतिमा के स्थान पर श्री महावीर भगवान की दूसरी प्रतिमा प्रतिष्ठित किये जाने का उल्लेख है । यह प्रतिमा खंडित हो जानेके कारण वि. सं. 1959 के वैशाख पूर्णिमा के दिन नवीन प्रतिमा की प्रतिष्ठापना श्री विजयराजेन्द्र सूरीश्वरजी के सुहस्ते सम्पन्न हुई थी । प्राचीन प्रतिमा मण्डप में विराजमान है । कुछ वर्षों पूर्व मन्दिर के जीर्णोद्धार का कार्य पुनः प्रारम्भ किया गया जो अभी तक चल रहा है।
विशिष्टता वीर निर्वाण के 70 वर्ष पश्चात् कोरंटकगच्छ की स्थापना यहीं पर हुई थी, जिसके संस्थापक आचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी के गुरु भाई आचार्य श्री कनकप्रभसूरीश्वरजी माने जाते हैं । ओसवंश के संस्थापक आचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी ने अपनी अलौकिक विद्या से दो रूप करके एक ही मुहूर्त में ओसियाँ व कोरटा के मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवायी थी। वि. सं. 1252 में आचार्य श्री वृद्धदेवसूरिजी ने मंत्री श्री नाहड़ व सालिग को प्रतिबोध देकर हजारों अन्य कुठुम्बीजनों के साथ जैनी बनाया था ।
अन्य मन्दिर 8 इसके अतिरिक्त गाँव में एक और श्री आदिनाथ भगवान का प्राचीन मन्दिर व एक गुरु मन्दिर हैं ।
कला और सौन्दर्य प्राचीन मूलनायक भगवान की प्रतिमा अति ही सुन्दर व कलात्मक है । गाँव में स्थित श्री आदिनाथ भगवान के मन्दिर में कुछ प्राचीन प्रतिमाओं की कला दर्शनीय है । इस मन्दिर के नीचे संग्रहालय है, जिसमें तेरहवीं सदी के प्राचीन तोरण आदि कलात्मक अवशेष दर्शनीय हैं ।
मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन जवाई बाँध 24 कि. मी. दूर है । नजदीक बड़ा शहर शिवगंज 13 कि. मी. है । इनजगहों से आटो व टेक्सियों की सुविधा है । मन्दिर तक बस व कार जा सकती है ।
श्री महावीर भगवान प्राचीन मूलनायक - कोरटा
सुविधाएँ ठहरने के लिए गाँव में मन्दिर के सामने धर्मशाला है । जहाँ पानी, बिजली, बर्तन, ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र, भोजनशाला व भाते की सुविधा है । मन्दिर के सामने बगीचा बनाने की योजना है ।
पेढ़ी * श्री कोरटाजी जैन श्वेताम्बर तीर्थ पेढ़ी पोस्ट : कोरटा - 306901. व्हाया : शिवगंज जिला : पाली, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 02933-48235. शिवगंज पेढ़ी फोन : 02976-60969.
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श्री खीमेल तीर्थ
तीर्थाधिराज * श्री शान्तिनाथ भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण, लगभग 75 सें. मी. (श्वे. मन्दिर)।
तीर्थ स्थल खीमेल गाँव के बाहर ।
प्राचीनता ® यह गाँव विक्रमकी बारहवीं सदी पूर्व का माना जाता है । शेठ श्री लालाशाह ओशवाल द्वारा यह मन्दिर निर्मित किये का उल्लेख है । प्रभ-प्रतिमा की अंजनशलाका वि. सं. 1134 वैशाख शुक्ला 10 के शुभ दिन आचार्य श्री हेमसूरीश्वरजी के सुहस्ते सम्पन्न हुए का लेख उत्कीर्ण है । ____एक प्रतिमा आचार्य श्री विजयसेनसूरीश्वरजी द्वारा वि. सं. 1653 वैशाख शुक्ला 11 के दिन प्रतिष्ठित हुए का लेख है । विशिष्टता प्रति वर्ष फाल्गुन शुक्ला 3 को
ध्वजा चढ़ायी जाती है ।
अन्य मन्दिर इसके अतिरिक्त वर्तमान में 3 और मन्दिर हैं ।
कला और सौन्दर्य * प्रभु-प्रतिमा प्राचीन व अति सुन्दर हैं ।
मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन खीमेल एक कि. मी. व फालना 11 कि. मी. दूर है। रानी व फालना से टेक्सी व बस की सुविधा है । यहाँ का बस स्टेण्ड लगभग 200 मीटर दूर हैं । कार व बस मन्दिर तक जा सकती है ।
सविधाएँ ठहरने के लिए धर्मशाला व ब्लाक हैं । जहाँ पानी, बिजली, बर्तन, ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र व भोजनशाला की सुविधा हैं ।
पेढी श्री जैन श्वेताम्बर देवस्थान टस्ट. पोस्ट : खीमेल - 306 115. जिला : पाली, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 02934-22052.
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श्री शान्तिनाथ जिनालय-खिमेल
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पिबारकाम-२००५शमाराम-मराठावमा
श्री शान्तिनाथ भगवान-खिमेल
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श्री पाली तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री नवलखा पार्श्वनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल 8 पाली गाँव के मध्यस्थ नवलखा रोड़ में । इसे नवलखा मन्दिर कहते हैं ।
प्राचीनता ® इसके प्राचीन नाम पल्लिका व पल्ली है । श्री साँडेराव तीर्थ के इतिहास से ज्ञात होता है कि वि. सं. 969 में साँडेराव के मन्दिर के जीर्णोद्धार प्रसंगे प्रतिष्ठा महोत्सव पर प्रकांड विद्वान आचार्य श्री । यशोभद्र सूरीश्वरजी द्वारा मांत्रिक शक्ति से पाली से घी । मँगवाया गया था, जिसका व्यापारी को पता नहीं लग सका । पश्चात् साँडेराव के श्रावकगण घी की लागत के रुपयों का भुगतान करने आये । परन्तु भाग्यशाली
व्यापारी ने रुपये लेने से इनकार किया व उक्त शुभ काम के लिए अपनी अमूल्य लक्ष्मी का सदुपयोग होने के कारण अति ही प्रसन्नता पूर्वक अपने को कृतार्थ समझने लगा । घी के मूल्य की राशि नव लाख रुपयों से यहीं मन्दिर बनवाने की योजना बनाकर इस मन्दिर का निर्माण किया गया जो नवलखा मन्दिर कहलाने लगा । तत्पश्चात् इस मन्दिर का जीर्णोद्धार वि. सं. 1144 में होने का उल्लेख है। मन्दिर में कई प्रतिमाओं पर सं. 1144 सं. 1178 वि सं. 1201 के लेखों में इस मन्दिर में मूलनायक श्री महावीर भगवान रहने का उल्लेख है । वि. सं. 1686 में हुए पुनः जीर्णोद्धार के समय मूलनायक श्री महावीर स्वामी के स्थान पर श्री पार्श्वनाथ भगवान की यह प्रतिमा प्रतिष्ठित होने का उल्लेख है । प्रतिमाजी पर भी वि. सं. 1686 का लेख उत्कीर्ण है।
श्री नवलखा पार्श्वनाथ मन्दिर - पाली
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विशिष्टता पल्लीवाल गच्छ का उत्पत्ति स्थान यही है। इस गाँव के नाम पर ही पल्लीवाल ओशवाल नाम पड़ा । वि. सं. 969 में संडेरक गच्छाचार्य श्री यशोभद्रसूरीश्वरजी को आचार्य पदवी से यहीं पर विभूषित किया गया था । प्रारम्भ से ही यह स्थान जाहोजलालीपूर्ण रहा । यहाँ के श्रावकों ने धर्म प्रभावना के अनेकों कार्य किये जो आज भी उनके धर्मनिष्ठा की याद दिलाते हैं । प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ला 3 के दिन ध्वजा चढ़ाई जाती है । भाखरी मन्दिर पर कार्तिक पूर्णिमा के दिन मेला भरता है । __ अन्य मन्दिर इस मन्दिर के अतिरिक्त गाँव में 10 और मन्दिर व 4 दादावाड़ियाँ हैं । गाँव के बाहर पुनागिरी टेकरी पर श्री पार्श्वनाथ भगवान का मन्दिर है, जो भाखरी मन्दिर के नाम से विख्यात हैं ।
कला और सौन्दर्य * प्रभु-प्रतिमा की कला अति ही सुन्दर है । इसी मन्दिर में कई प्राचीन सुन्दर आकर्षक प्रतिमाओं के दर्शन होते हैं ।
मार्ग दर्शन * यह स्थल जोधपुर-अजमेर मार्ग पर है । यहाँ से जोधपुर लगभग 70 कि. मी. दूर है। पाली स्टेशन मन्दिर से लगभग 3 कि. मी. है जहाँ से टेक्सी व आटो की सुविधा है । बस स्टेण्ड आधा कि. मी. हैं । मन्दिर तक पक्की सड़क है । आखिर तक कार व बस जा सकती है । - सुविधाएँ ठहरने के लिए धर्मशाला है । जहाँ पानी, बिजली, बर्तन, ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र व भोजनशाला की सुविधा हैं ।
पेढ़ी श्री नवलचंद सुव्रतचंद जैन पेढ़ी, गुजराती कटला । पोस्ट : पाली - 306 401. जिला : पाली, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 02932-21747 (मुख्य पेढ़ी)
02932-21929 (मन्दिर) ।
HINORITIES
श्री नवलखा पार्श्वनाथ भगवान - पाली
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विशिष्टता 8 वि. सं. 1265 में यहाँ नाणकीय गच्छ की गादी रहने का उल्लेख है । प्रतिवर्ष ज्येष्ठ कृष्णा 6 के दिन ध्वजा चढ़ती है ।
अन्य मन्दिर 8 वर्तमान में इसके अतिरिक्त अन्य कोई मन्दिर नहीं है । निकट के गांव चामुंडेरी में श्री आदिनाथ भगवान का मन्दिर दर्शनीय है ।
कला और सौन्दर्य गाँव के बाहर पहाड़ी की ओट में मन्दिर का दृश्य अति ही मनोरम लगता है । प्रभु- प्रतिमा अति ही सुन्दर व प्रभावशाली है ।
मार्ग दर्शन नजदीक का रेल्वे स्टेशन नाणा 3 कि. मी. है। जहाँ से आटो व टेक्सी का साधन है । यहाँ के निकट का गाँव चामून्डेरी 272 कि. मी. दूर है जहाँ से भी आटो व टेक्सी की सुविधा उपलब्ध है। मन्दिर तक कार व बस जा सकती है । सिरोही यहाँ से 45 कि. मी. दूर है ।
सविधाएँ मन्दिर के पास धर्मशाला है. लेकिन वर्तमान में कोई सुविधा नहीं है । नाणा तीर्थ ठहरकर ही आना सुविधाजनक है ।।
पेढ़ी * श्री आदिनाथ जैन पेढ़ी, वेलार । पोस्ट : चामुंडेरी - 306 504. तहसील : वेलार, जिला : पाली, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 02933-45153 पी.पी.
श्री आदिनाथ जिनालय-वेलार
श्री वेलार तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री आदीश्वर भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 75 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल चामुंडेरी गाँव से 27 कि. मी. वेलार गाँव के बाहर, पहाड़ी की ओट में ।
प्राचीनता 8 मन्दिर में स्तम्भों पर वि. सं. 1265 के उत्कीर्ण शिलालेखों से प्रतीत होता है कि इसका प्राचीन नाम 'बधि लाट' था । वि. सं. 1265 में यहाँ के श्रेष्ठी श्री राम व गोस्याक द्वारा इस मन्दिर में रंग-मण्डप बनवाने का लेख उत्कीर्ण है । उस अवसर पर श्री नाणकीय गच्छ के अधीश्वर आचार्य श्री शांतिसूरीश्वरजी यहाँ विराजमान थे । उस समय यहाँ के राजा धाँधल थे ।
उक्त लेख से सिद्ध होता है कि यह मन्दिर उनसे भी प्राचीन है। वर्तमान मूलनायक प्रतिमा पर 1545 का लेख उत्कीर्ण है । जीर्णोद्धार के समय यह प्रतिमा प्रतिष्ठित की गयी होगी, ऐसा प्रतीत होता है ।
वि. सं. 1918 में पुनः जीर्णोद्धार होने के प्रमाण मिलते हैं ।
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श्री आदीश्वर भगवान-वेलार
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व यहाँ के स्टेशन फालना पर पार्श्वनाथ भगवान का श्री खुडाला तीर्थ
एक मन्दिर है।
___ कला और सौन्दर्य के जीर्णोद्धार के समय तीर्थाधिराज * श्री धर्मनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, मन्दिर में मीनाकारी का काम सुन्दर ढंग से किया हुआ पद्मासनस्थ, लगभग 60 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल है खुडाला गाँव के रावला मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन वास में ।
फालना लगभग 3 कि. मी. है । जहाँ पर टेक्सी व प्राचीनता * पोरवाल वंशज श्री रामदेव के पुत्र आटो उपलब्ध है । यहाँ का बस स्टेण्ड लगभग एक श्री सुराशाह ने इस भव्य मन्दिर का निर्माण करवाया कि. मी. है । कार व बस मन्दिर तक जा सकती हैं। व उनके भ्राता श्री नलधर द्वारा इस प्रभु-प्रतिमा को वि. सुविधाएँ* ठहरने के लिए निकट ही सं. 1243 में प्रतिष्ठित किये जाने का लेख प्रतिमाजी सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला है, जहाँ भोजनशाला की पर उत्कीर्ण है । प्रतिमाजी पर विलेपन किया सुविधा भी उपलब्ध है । हुआ है ।
पेढ़ी श्री जैन श्वेताम्बर धर्मनाथ पार्श्वनाथ वि. सं. 1523 व वि. सं. 1543 में अन्य प्रतिमाएँ टस्ट.पेठी प्रतिष्ठित हुए का उल्लेख है ।
पोस्ट : खुडाला - 306 116. स्टेशन : फालना, विशिष्टता प्रतिवर्ष ज्येष्ठ कृष्णा 6 को ध्वजा । जिला : पाली, प्रान्त : राजस्थान, चढ़ाई जाती है ।
फोन : 02938-33300 (खुडाला) अन्य मन्दिर ® इसके अतिरिक्त एक घर देरासर
02938-33109.
श्री धर्मनाथ मन्दिर-खुडाला
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LOSE
श्री धर्मनाथ भगवान-खुडाला
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जिसपर वि. सं. 1244 माघ शुक्ला प्रतिपदा का लेख श्री सेवाड़ी तीर्थ
उत्कीर्ण है ।
विशिष्टता वि. सं. 1172 के शिलालेख में तौथोधिराज श्री शान्तिनाथ भगवान, चौहान राजा श्री कटुकराज के सेनानायक श्री यशोदेव पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण 127 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) ।
द्वारा इस जिनालय के एक गोखले में श्री शान्तिनाथ तीर्थ स्थल * गाँव के मध्य बाजार में । भगवान की प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाये जाने का उल्लेख
प्राचीनता इसका प्राचीन नाम शतवाटिका, शतवापिका, समीपाटी, सीमापाटी व सिव्वाडी होने का उस समय यह एक समृद्धशाली शहर था । यहाँ शिलालेखों में उल्लेख है । वि. सं. 1167, 1172 के एक सौ बावड़ियाँ थीं । आज भी जेतल नाम की अति व अन्य 5 शिलालेख, जो मन्दिर में उत्कीर्ण हैं, विशाल व सुन्दर प्राचीन बावड़ी विद्यमान है । युवराज ऐतिहासिक महत्व के हैं ।
श्री सामन्तसिंह के वि. सं. 1238 के ताम्रपत्र में वि. सं. 1172 के शिलालेख में यहाँ के मूलनायक
(जो सेवाड़ी तीर्थ से सम्बन्धित है) समीपाटी के अनिल श्री महावीर भगवान रहने का उल्लेख हैं । संवत् ।
विहार में भगवान श्री पार्श्वनाथ के चैत्य का होना 2014 में जीर्णोद्धार के समय श्री शान्तिनाथ भगवान
अंकित है । इस चैत्य की खोज के सिलसिले में गाँव की प्राचीन प्रतिमा मूलनायक रूप में प्रतिष्ठित की गई। से 17 कि. मी. दूर अटेरगढ़ दुर्ग के कुछ भग्नावशेष इस मन्दिर में सभी प्रतिमाएँ तेरहवीं शताब्दी की।
प्राप्त हुए हैं, जिससे वहाँ जैन मन्दिर होने की प्रतीत होती है । किसी पर लेख उत्कीर्ण नहीं है ।
सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता । संडेरकगच्छीय आचार्य श्री यशोभद्रसूरीश्वरजी की परम्परा
राजस्थान के पुरातत्व-विभाग का ध्यान इस स्थल की के श्री गुणरत्नसूरिजी की प्रतिमा विशेष दर्शनीय है,
खुदाई के लिए आकर्षित करके खुदाई करवाने पर ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध हो सकती है ।
श्री शान्तिनाथ जिनालय-सेवाड़ी
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प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ला तीज को ध्वजाएँ चढ़ाई इसी मन्दिर में श्री सरस्वती देवी की प्रतिमा भी जाती हैं ।
कलापूर्ण व अति आकर्षक है ।। अन्य मन्दिर ॐ इसके अतिरिक्त यहाँ श्री मार्ग दर्शन 8 नजदीक का रेल्वे स्टेशन फालना वासुपूज्यजी का मन्दिर व एक श्री मणिभद्रजी का 16 कि. मी. है। जहाँ से टेक्सी व बस की सुविधा मन्दिर है ।
उपलब्ध है । बाली से यह स्थल 11 कि. मी. है । कला और सौन्दर्य मल गभारे के द्वार पर यहा का बस स्ट5 कराब 200 मीटर दूर
यहाँ का बस स्टेण्ड करीब 200 मीटर दूर है । कार 16 विद्यादेवियों की मूर्तियाँ, यक्ष कुबेर की मूर्तियाँ व बस मन्दिर तक जा सकती है । दर्शनीय हैं । गंभारे में गज लक्ष्मी की मूर्ति अपने आप सुविधाएँ ठहरने के लिए दो विशाल में अनूठी हैं ।
सर्वसुविधायुक्त धर्मशालाएं है, जहाँ भोजनशाला व इस मन्दिर के विशाल एवं उत्तंग शिखर की निर्माण आयम्बलशाला की सुविधा भी उपलब्ध है । कला अद्वितीय है ।
पेढ़ी 8 श्री जैन श्वेताम्बर देवस्थान पेढ़ी, इस बावन जिनालय मन्दिर में सारी प्रतिमाएँ पोस्ट : सेवाड़ी - 306 707. प्राचीन व अत्यन्त कलापूर्ण हैं । किसी प्रतिमा पर लेख
* । किती निमा लेख जिला : पाली, प्रान्त : राजस्थान, नहीं है । ऐसी प्रतिमाओं के दर्शन अन्यत्र दुर्लभ है। फोन : 02938-48122.
श्री शान्तिनाथ भगवान-सेवाड़ी
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श्री कोलरगढ़ तीर्थ
तीर्थाधिराज # श्री आदिनाथ भगवान, श्वेत वर्ण पद्मासनस्थ, लगभग 75 सें. मी. ।
तीर्थ स्थल दूर पहाड़ियों के बीच |
प्राचीनता
सिरोही से लगभग 10 कि. मी.
यहाँ की प्राचीनता का प्रमाणिक इतिहास मिलना तो कठिन है, लेकिन प्रतिमा की कलात्मकता व इस स्थल का अवलोकन करने से यह तीर्थ अति प्राचीन प्रतीत होता है। यह भव्य, अति ही सुन्दर प्रतिमा श्री संप्रतिराजा के समय भराई मानी जाती है। मन्दिर में वि. सं. 1721 का लेख उत्कीर्ण है। उस समय मन्दिर का जीर्णोद्धार होने का अनु
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है । वि. सं. 1858 में श्रेष्ठी श्री जवानमलजी द्वारा पुनः जीर्णोद्धार करवाने का उल्लेख है। वर्तमान में लगभग 20 वर्षों पूर्व प्रारंभ किया हुवा पुनः जीर्णोद्धार का कार्य कुछ वर्षों पूर्व सम्पूर्ण हुवा है ।
विशिष्टता इस तीर्थ की प्राचीनता के साथ-साथ यहाँ का विशिष्ट, अनूठा, प्राकृतिक वातावरण व प्रभु प्रतिमा की कलात्मकता यहाँ की मुख्यतः विशेषता है। तीर्थ के अवलोकन करने से प्रतीत होता है कि किसी समय यह एक समृद्धशाली महान् तीर्थ स्थल रहा होगा परन्तु विस्तृत इतिहास का पता नहीं लग रहा है। इस तीर्थ में पहुँचते ही राता महावीर, मीरपुर, दियाणा, मुछाला महावीर आदि तीर्थों का स्मरण हो आता है । स्वाध्याय के लिये अति उत्तम व अनुपम स्थल है। ऐसे प्राकृतिक दृश्यों से ओतप्रोत इस प्राचीन
श्री आदिनाथ भगवान मन्दिर कोलरगढ़
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तीर्थ की यात्रा करने का अवसर न चूके । प्रतिवर्ष चैत्री बाँध 40 कि. मी. व सिरोही रोड़ 32 कि. मी. है, जहाँ पूर्णिमा, कार्तिक पूर्णिमा व प्रभु के जन्म कल्याणक से बस व टेक्सी की सुविधा है । यह स्थल दिवस चैत्र कृष्णा अष्टमी को मेलों का आयोजन होता सिरोही-शिवगंज मार्ग में सिरोही से लगभग 10 कि. है । इन शुभ प्रसंगों पर विभिन्न स्थानों से भक्तगण मी. हैं । सिरोही से बस व टेक्सी की सुविधा है । भाग लेकर प्रभु भक्ति में लीन हो जाते हैं।
मन्दिर तक पक्की सड़क है । आखिर तक कार व बस इस भव्य मन्दिर की ध्वजा का आरोपण प्रतिवर्ष जा सकती हैं । आसाढ़ कृष्णा त्रयोदशी के शुभ दिन होता है । सुविधाएँ ® ठहरने के लिए मन्दिर के निकट ही
अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त यहाँ विशाल सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला है, जहाँ भोजनशाला कोई मन्दिर नहीं है ।
की सुविधा भी उपलब्ध है । __ कला और सौन्दर्य * पहाड़ियों के बीच मन्दिर पेढ़ी श्री आदिनाथ जैन श्वेताम्बर तीर्थ, कोलरगढ़ का दृश्य सुहावना लगता है । प्रभु प्रतिमा सुन्दर व
पोस्ट : पालड़ी - 307 047. आकर्षक है ।
जिला : सिरोही, प्रान्त : राजस्थान, मार्ग दर्शन ® नजदीक का रेल्वे स्टेशन जवाई
फोन : 02976-54602.
श्री आदिनाथ भगवान-कोलरगढ़
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अन्य मन्दिर वर्तमान में यहाँ इसके अतिरिक्त कोई मन्दिर नहीं है । __कला और सौन्दर्य * प्रभु प्रतिमा की कला अति ही मनमोहक व प्रभावशाली है ।
मार्ग दर्शन नजदीक का रेल्वे स्टेशन फालना 10 कि. मी. है, जहाँ से बस व टेक्सी की सुविधा है। बाली यहाँ से 3 कि. मी. है । बस व कार मन्दिर तक जा सकती है । नजदीक का बस स्टेण्ड पुनड़िया जो 1/2/2कि. मी. दूर है ।
सुविधाएँ * ठहरने के लिए सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला व अतिथिगृह है, जहाँ भोजनशाला की सुविधा भी उपलब्ध है ।
पेढ़ी ॐ श्री दादा पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर देरासर पेढ़ी, पोस्ट : सेसली - 306 701. जिला : पाली, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 02938-22069 (सेसली) मुख्य कार्यालय फोन : 02938-22029 (बाली पेढ़ी)
THEHORE
श्री दादा पार्श्वनाथ मन्दिर-सेसली
श्री सेसली तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री दादा पार्श्वनाथ भगवान, श्वेत वर्ण पद्मासनस्थ , लगभग 75 सें. मी. (श्वे. मन्दिर)।
तीर्थ स्थल पुनड़िया गाँव से लगभग 400 मीटर दूर मीठड़ी नदी के किनारे बसे सेसली गाँव के मध्य ।
प्राचीनता यह मन्दिर संघवी श्री माण्डण द्वारा निर्मित होकर वि. सं. 1187 आषाढ़ शुक्ला 7 शनिवार के शुभ दिन भट्टारक आचार्य श्री आनन्दसूरीश्वरजी के सुहस्ते प्रतिष्ठा सम्पन्न होने का उल्लेख है । अभी भी इन्हीं के वंशजों द्वारा ध्वजा चढ़ायी जाती है ।
विशिष्टता ॐ प्राचीन काल में यहाँ भारी जाहोजलाली रही होगी, ऐसा प्रतीत होता है । प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा व भाद्रपद शुक्ला 10 को मेले का आयोजन होता है ।
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श्री दादा पार्श्वनाथ भगवान-सेसली
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कला और सौन्दर्य र पहाड़ी की ओट में मन्दिर श्री राडबर तीर्थ
का दृश्य अति सुन्दर लगता है ।
__ मार्ग दर्शन 8 पंचदेवल से यह 1 कि. मी. दूर तीर्थाधिराज श्री महावीर भगवान, श्वेत वर्ण, है । नजदीक का रेल्वे स्टेशन जवाई बाँध 32 कि. मी. पद्मासनस्थ (श्वे. मन्दिर) ।
दूर है, जहाँ से टेक्सी का साधन है। नजदीक का बड़ा तीर्थ स्थल * राडबर गाँव के बाहर एकान्त, गाँव पोसालिया 6 कि. मी. हैं । पहाड़ी की तलेटी में ।
सुविधाएँ * ठहरने आदि के लिए वर्तमान में प्राचीनता के यह तीर्थ लगभग 1400 वर्ष कोई सुविधा नहीं है । प्राचीन माना जाता है ।
पेढ़ी 8 श्री राडबर जैन तीर्थ, विशिष्टता ® प्रतिवर्ष आसाढ़ शुक्ला १ को पोस्ट : राडबर - 307 028. ध्वजा चढ़ती है ।
व्हाया : पोसालिया, तहसील : शिवगंज, अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त कोई जिला : सिरोही, प्रान्त : राजस्थान । मन्दिर नहीं है ।
श्री महावीर भगवान जिनालय-राडबर
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श्री महावीर भगवान-राडबर
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श्री उथमण तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री पार्श्वनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ लगभग 55 सें. मी. (श्वे. मन्दिर)।
तीर्थ स्थल उथमण गाँव के बाहर पहाड़ी की तलेटी में ।
प्राचीनता ® मन्दिर में उपलब्ध शिलालेखों से यह मन्दिर बारहवीं सदी पूर्वका सिद्ध होता है । मन्दिर के रंग मण्डप की दिवाल पर वि. सं. 1251 आषाढ़ कृष्णा पंचमी को मण्डप बनाने का लेख उत्कीर्ण है।
वि. सं. 1243 माघ शुक्ला 10 बुधवार का लेख है । जिसमें इस मन्दिर में श्री धनेश्वर श्रावक व कुटम्बीजनों द्वारा कुवाँ बनवाने का उल्लेख है । कुछ वर्षों पूर्व यहाँ का पुनः जीर्णोद्धार हुवा है ।
विशिष्टता प्रतिवर्ष पोष कष्णा दशमी को मेले का आयोजन होता है तब ध्वजा भी चढ़ाई जाती है । पूर्व में भाद्रपद कृष्णा दशमी को ध्वजा चढ़ाई जाती थी जो लगभग ग्यारह वर्ष पूर्व हुई चमत्कारिक घटनाओं के पश्चात् पोष कृष्णा दशमी को चढ़ानी प्रारंभ की गई ।
अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त यहाँ कोई मन्दिर नहीं है ।
कला और सौन्दर्य प्रभु प्रतिमा की प्राचीन कला अति ही विचित्र व अपने आप में अनूठी है । मूलनायक भगवान की गादी के नीचे का विलक्षण शिल्प देखने योग्य है ।। __ मार्ग दर्शन नजदीक का रेल्वे स्टेशन जवाई बाँध 20 कि. मी. है, जहाँ से बस व टेक्सी की सुविधा है। नजदीक के बड़े गाँव सिरोही 22 कि. मी. व शिवगंज 15 कि. मी. है । इन स्थानों पर बस व टेक्सी की सुविधा है । बस स्टेण्ड मन्दिर से लगभग 17 कि. मी. मैन रोड़ पर है। वहाँ आटो के सवारी का साधन हर वक्त उपलब्ध है । कार व बस मन्दिर तक जा सकती हैं ।
सुविधाएँ ठहरने के लिये धर्मशाला हैं, जहाँ पानी, बिजली, बर्तन, ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र व भोजनशाला की सुविधा है ।
पेढ़ी * श्री पार्श्वनाथ भगवान श्वेताम्बर जैन देरासर पेढ़ी, पोस्ट : उथमण - 307 043. जिला : सिरोही (राज.) फोन : 02976-64612.
काकाकाकाकामय
श्री पार्श्वप्रभु जिनालय-उथमण
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श्री पार्श्वनाथ भगवान-उथमण
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श्री शान्तिनाथ जिनालय सांडेराव
श्री साँडेराव तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री शान्तिनाथ भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण, श्वेत वर्ण, लगभग 75 सें. मी. ( श्वे. मन्दिर ) ।
तीर्थ स्थल साँडेराव गाँव के मध्य रावले के
पास ।
प्राचीनता यह तीर्थ स्थान 2500 वर्ष प्राचीन माना जाता है । राजा गंधर्वसेन के समय इस मन्दिर में श्री पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा मूलनायक रूप में प्रतिष्ठित होने के उल्लेख मिलते हैं । वि. सं. 969 में जीर्णोद्धार होकर आचार्य श्री यशोभद्रसूरीश्वरजी द्वारा श्री महावीर भगवान की प्रतिमा मूलनायक रूप में प्रतिष्ठित होने का उल्लेख एक परिकर पर उत्कीर्ण है। तत्पश्चात् 16 वीं शताब्दी में पुनः जीर्णोद्धार के समय श्री शान्तिनाथ प्रभु की प्राचीन प्रतिमा अन्यत्र से मंगवाकर यहाँ स्थापित करने का उल्लेख है, जो अभी मूलनायक के रूप में विद्यमान है, जिस पर कोई लेख नहीं है । मूलनायक भगवान की दोनों प्राचीन प्रतिमाएँ
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भी यहीं विराजमान है, जिन पर लेप किया हुआ है । इस मन्दिर में एक आचार्य भगवान की मूर्ति के नीचे वि. सं. 1197 का लेख उत्कीर्ण है । मन्दिर में प्राचीन भोयरे भी हैं। वल्लभी भंग होने पर वहाँ से कई वस्तुएँ यहाँ लाने का भी उल्लेख है। प्राचीन समय में यहाँ ज्ञान भंडार रहने के भी उल्लेख मिलते हैं । यहाँ का इतिहास अति प्राचीन व गौरव शाली रहने के कारण यहाँ खुदाई करवाने पर अनेकों प्रकार के प्राचीन कलात्मक अवशेष मिलने की सम्भावना है।
विशिष्टता संडेरकगच्छ की स्थापना दसवीं शताब्दी में यहीं पर हुई थी। इस गच्छ में अनेकों प्रभावशाली आचार्य हुए जैसे आचार्य श्री शांतिसूरीश्वरजी के शिष्य समर्थ आचार्य श्री ईश्वरसूरीश्वरजी व मांत्रिक, प्रकांड विद्वान आचार्य श्री यशोभद्रसूरीश्वरजी आदि, जिन्होंने जैन धर्म प्रभावना के जगह-जगह पर अनेकों कार्य किये, जो आज भी अपनी अमर गाथा गाते हैं ।
कहा जाता है वि. सं. 969 में यहाँ पर हुए जीर्णोद्धार के समय प्रतिष्ठा महोत्सव पर आचार्य श्री यशोभद्रसूरीश्वरजी द्वारा दैविक शक्ति से आवश्यक प्रमाण घी, पाली से मंगाया गया था, जिसका वहाँ के व्यापारी को पता नहीं लगा । बाद में रुपये भेजने पर व्यापारी द्वारा रुपये लेने से इन्कार करने के कारण वे नव लाख रुपये लगाकर पाली में ही भव्य बावन जिनालय मन्दिर बनवाया गया, उ , जो आज भी नवलखा मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है। प्रभु प्रतिमा अति ही चमत्कारिक है। विभिन्न प्रसंगों पर पार्श्वप्रभु के अधिष्ठायक श्री धरणेन्द्र देव मन्दिर में नागदेव के रूप में प्रकट होते हैं । मन्दिर के सामने उपाश्रय में श्री मणिभद्रयक्ष का स्थान है जहाँ अनेकों प्रकार की चमत्कारिक घटनाएँ घटती हैं प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ला 6 को ध्वजा चढ़ती हैं ।
अन्य मन्दिर वर्तमान में दो और जिन मन्दिर, एक मणिभद्र मन्दिर व एक गुरु मन्दिर हैं ।
कला और सौन्दर्य मन्दिर निर्माण की कला अजोड़ व अलौकिक है । मन्दिर का भाग समतल से 6 फुट नीचे है । वर्षा के समय मन्दिर में खूब पानी । भरता है, चौक में एक छोटासा छिद्र है । पानी छिद्र से होकर किस प्रकार कहाँ जाता है उसका अभी तक पता नहीं लगाया जा सका | प्रभु प्रतिमा अति ही
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श्री शान्तिनाथ भगवान-सांडेराव
सुन्दर व सौम्य है ।
मार्ग दर्शन नजदीक का रेल्वे स्टेशन फालना 13 कि. मी. है, जहाँ से बस व टेक्सी की सुविधा है। बस स्टेण्ड मन्दिर से लगभग 1/4%कि. मी. दूर है । मन्दिर तक पक्की सड़क है ।
ॐ ठहरने के लिए धर्मशाला है, जहाँ
भोजनशाला सहित सारी सुविधाएँ उपलब्ध है ।
पेढ़ी श्री शान्तिनाथ जैन मन्दिर ट्रस्ट पेढ़ी साँडेराव पोस्ट : साँडेराव -306708. व्हाया : फालना, जिला : पाली (राज.), फोन : 02938-44156.
02938-44124 पी.पी.
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श्री सिरोही तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री आदीश्वर भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ (श्वे. मन्दिर) । तीर्थ स्थल सिरोही गाँव के देरासर मोहल्ले में।
प्राचीनता महाराव शिवभाण के पुत्र सेंसमलजी चौहान ने वि. सं. 1482 में यह गाँव बसाया था । सिरोही गाँव बसने के पूर्व ही व्यापार के लिए यहाँ से होकर जानेवाले एक श्रेष्ठी ने यह स्थान शांत व पवित्र समझकर वि. सं. 1323 आसोज शुक्ला 5 के शुभ दिन श्री आदिनाथ भगवान के इस मन्दिर का निर्माण कार्य प्रारम्भ किया था । निर्माण का कार्य सम्पन्न होने पर वि. सं. 1339 आषाढ़ शुक्ला 13 मंगलवार के दिन प्रतिष्ठापना करवायी गयी, ऐसा उल्लेख मिलता है । इसे अंचलगच्छ का मन्दिर कहते हैं। वि. सं. 1499 में कविवर पं. श्री मेघ गणि द्वारा रचित तीर्थ माला में भी इस मन्दिर का वर्णन है। _ वि. सं. 1424 कार्तिक पूर्णिमा के दिन एक और श्री आदिनाथ भगवान के बावन जिनालय मन्दिर की प्रतिष्ठापना हुई ।
इनके अलावा भी बाद में अनेकों भव्य मन्दिर बने जो अभी भी विद्यमान हैं ।
विशिष्टता * जहाँ गाँव ही नहीं बसा हुआ था, उस जंगल में राह चलते भाग्यवान् व्यापारी श्रावक ने अपने अति उत्तम व निर्मल विचारों से भावपूर्वक जिन मन्दिर का निर्माण करवाया । कुछ वर्षों बाद वह स्थान नगरी के रूप में परिवर्तित होकर अभी तक अखण्ड कायम है । यह सब शुद्ध भाव का ही कारण है ।
जगत्गुरु श्री हीरविजयसूरीश्वरजी को वि. सं. 1610 मार्गशीर्ष शुक्ला 10 के दिन आचार्य पदवी से यहीं पर विभूषित किया गया था । उक्त विराट महोत्सव के शुभ अवसर पर स्वर्ण मूहरों की प्रभावना दी गई थी जो उल्लेखनीय है । वि. सं. 1639 में श्री विजयसेनसूरीश्वरजी ने यहाँ के महाराव को प्रतिबोध देकर प्रभावित किया था ।
वि. सं. 1634 माघ शुक्ला पंचमी के दिन आचार्य श्री हीरविजयसूरीश्वरजी ने श्री आदिनाथ भगवान के चार मंजिल का चौमुखा विशाल मन्दिर की प्रतिष्ठा करवायी थी, जो आज कला आदि में सबसे विशिष्ट माना जाता है । __ भट्टारक श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी ने वि. सं. 1520 में यहाँ श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान के मन्दिर की प्रतिष्ठापना करवायी थी । इस चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान के मन्दिर में श्री हीरविजयसूरीश्वरजी की तीन फुट ऊँची प्रतिमा है, जिसपर सं. 1659 का लेख है।
वि. सं. 1657 में श्री शान्तिनाथ भगवान के मन्दिर की प्रतिष्ठा श्री जिनचन्द्रसूरीश्वरजी के सुहस्ते होने का उल्लेख है । इस मन्दिर में दादा श्री जिनदत्तसूरीश्वरजी व श्री जिनकुशलसूरीश्वरजी की प्रतिमाएँ हैं, जिन पर 1661 का लेख उत्कीर्ण है ।
इस प्रकार यहाँ समय-समय पर अनेकों प्रकाण्ड विद्वान आचार्य भगवन्तों ने इस भूमि पर पदार्पण करके धर्म प्रभावना के अनेकों कार्य किये,वे उल्लेखनीय हैं । श्री आदिनाथ भगवान के बावन जिनालय मन्दिर में पिछले गंभारे के रंग मण्डप के द्वार से राजमहल तक सुरंग है, जो शायद राजा-रानियों के मन्दिर दर्शनार्थ आने के लिए बनवायी गयी होगी । क्योंकि यहाँ के राजा लोग मन्दिर के कार्यों में भाग लेते थे व उनमें जैन धर्म के प्रति अटल श्रद्धा थी ।
जिनालयों का दृश्य-सिरोही
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अन्य मन्दिर वर्तमान में यहाँ पर इस प्राचीन मन्दिर के अतिरिक्त 20 और मन्दिर हैं ।
कला और सौन्दर्य यहाँ पर एक ही साथ पहाड़ की ओट में मन्दिरों के शिखर समूहों का दृश्य अति ही मनोरम प्रतीत होता है । यहाँ के हर मन्दिर में प्रतिमाओं, तोरणों, गुम्बजों आदि में अभूतपूर्व कला के दर्शन होते है, जिनमें कुछ निम्र प्रकार हैं ।
अंचलगच्छ के मन्दिर के पास ही पौशधशाला में भट्टारकजी श्री पूर्णचन्द्रसूरिजी द्वारा वि. सं. 1492 वैशाख शुक्ला 3 के दिन प्रतिष्ठित श्री सरस्वती देवी की प्रतिमा अति सुन्दर है ।
श्री संभवनाथ भगवान के मन्दिर में मूलनायक भगवान की प्रतिमा की कला अति दर्शनीय है ।
श्री अजितनाथ भगवान के मन्दिर में आभूषणों से सुसज्जित काउसग्ग मुद्रा में दो प्रतिमाएँ अति ही सुन्दर व कलात्मक हैं । ऐसी प्रतिमाओं के दर्शन अन्यत्र दुर्लभ हैं । ___ श्री आदिनाथ भगवान के बावन जिनालय मन्दिर में मूलनायक भगवान के प्रतिमा की शिल्पकला अति मनोहर है । मूर्ति पर मोती का विलेपन किया हुवा है। इसी मन्दिर में एक हजार पंचधातु की प्राचीन प्रतिमाएँ, मरुदेवी माता व राजर्षि भरत वगैरह की सुन्दर मूर्तियाँ भी अति दर्शनीय है ।
श्री आदिनाथ भगवान का विशाल चौमुखी मन्दिर के तोरणों, स्तंभों, रंगमण्डपों आदि की शिल्पकला दर्शनीय
इनके अतिरिक्त भी अनेकों कलात्मक प्रतिमाओं आदि के दर्शन हर मन्दिर में होते है ।
मार्ग दर्शन 8 नजदीक का रेल्वे स्टेशन सिरोही रोड़ 24 कि. मी. है, जहाँ से टेक्सी व बस की सुविधा है। मन्दिर से बस स्टेण्ड करीब एक कि. मी. है। गाँव में टेक्सी व आटो की सुविधा हैं । कार व बस मन्दिर से लगभग 100 मीटर की दूरी पर ठहरानी पड़ती हैं।
सुविधाएँ * ठहरने के लिए गाँव में सर्वसुविधायुक्त 2 जैन धर्मशालाएँ हैं । जहाँ भोजनशाला की भी सुविधा हैं ।
पेढ़ी श्री आँचलिया आदेश्वरजी मन्दिर गोठ, पेलेस रोड़, पोस्ट : सिरोही - 307 001. जिला : सिरोही, (राज.) फोन : 02972-30269, पी.पी 30631.
श्री आदीश्वर भगवान-सिरोही
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श्री गोहिली तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री गोड़ी पार्श्वनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 53 सें. मी. ( श्वे. मन्दिर ) ।
गोहिली गाँव के मध्य ।
तीर्थ स्थल प्राचीनता इसका प्राचीन नाम गोहवलि था, ऐसा उल्लेख मिलता है । मन्दिर में उपलब्ध शिलालेखों से प्रतीत होता है कि यह तीर्थ क्षेत्र विक्रम की तेरहवीं सदी से पूर्व का है । विक्रम सं. 1245 वैशाख शुक्ला प्रतिपदा के दिन यहाँ के ठाकुर द्वारा कुछ भेंट प्रदान करने का इस मन्दिर के एक शिलालेख में उल्लेख मिलता है । समय-समय पर आवश्यक जीर्णोद्धार हुए होंगे, ऐसा लगता है ।
विशिष्टता प्रतिवर्ष पौष कृष्णा दशमी को मेले का आयोजन होता है ।
वर्तमान में इसके अतिरिक्त कोई
अन्य मन्दिर मन्दिर नहीं हैं ।
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कला और सौन्दर्य मन्दिर की निर्माण शैली अति ही आकर्षक है । दूर से ही इस भव्य बावन जिनालय मन्दिर की फहराती ध्वजाएँ यात्रियों को मुग्ध करती हैं ।
मार्ग दर्शन नजदीक का रेल्वे स्टेशन सिरोही रोड़ 27 कि. मी. है, जहाँ से बस व टेक्सी द्वारा सिरोही शहर होकर आना पड़ता है। सिरोही शहर यहाँ से लगभग 3 कि. मी है । सिरोही शहर में भी बस व टेक्सी की सुविधा है । मन्दिर से लगभग 14 कि. मी. पर, यहाँ का बस स्टेण्ड है । मन्दिर तक कार व बस जा सकती हैं ।
सुविधाएँ ठहरने के लिए धर्मशाला है । जहाँ पानी, बिजली की सुविधा हैं। सिरोही शहर ठहरकर ही यहाँ आना अति सुविधाजनक हैं ।
पेढ़ी
श्री पार्श्वनाथ भगवान जैन देरासर पेढ़ी,
पोस्ट : गोहिली - 307 001. जिला सिरोही, प्रान्त राजस्थान, फोन : 02972-31762 पी.पी.
श्री गोड़ी पार्श्वनाथ मन्दिर का अपूर्व दृश्य-गोहिली
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श्री गोड़ी पार्श्वनाथ भगवान-गोहिली
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श्री मीरपुर तीर्थ
तोरणों, व स्थभों आदि पर की गयी शिल्पकला लगभग हजार वर्ष प्राचीन मानी जाती है । हो सकता है एक
हजार वर्ष पूर्व जीर्णोद्धार होकर इन शिल्पकला के तीर्थाधिराज 2 श्री भीड़भंजन पार्श्वनाथ नमूने स्थंभों आदि पर प्रस्तुत किये गये हों । वि. सं. भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 90 सें. मी. 1328 में हस्तलिखित 'शतपदिका' प्रशस्ति में भी यहाँ (श्वे. मन्दिर) ।
के पल्लीवाल श्रेष्ठियों का उल्लेख आता है। किसी तीर्थ स्थल मीरपुर गाँव से लगभग 2 कि. समय यह एक विराट नगरी रही होगी, ऐसा यहाँ मी. बाहर जंगल में तीनों तरफ वनयुक्त पहाड़ों के इधर-उधर बिखरे अवशेषों आदि से अनुमान लगाया बीच।
जाता है । अभी भी पुनः जीर्णोद्धार हुवा है ।। प्राचीनता ॐ वि. सं. 808 में हमीर द्वारा इस विशिष्टता है यहाँ की प्राचीन शिल्पकला देखते गाँव को बसाने का उल्लेख है । इसका हमीरपुर, ही आबू-देलवाड़ा, कुम्भारिया आदि का स्मरण हो आता हमीरगढ़ के नाम से भी उल्लेख मिलता है । लेकिन है, यहाँ शिखर पर उत्कीर्ण कला तो आबू से भी यह मन्दिर इससे भी प्राचीन है, राजा सम्प्रति द्वारा निराली है । यह तीर्थ अपनी प्राचीनता, कला व निर्मित हुआ था, ऐसा 'वीरवंशावली' में उल्लेख है । अद्धितीय वातावरण में एकान्त स्थान पर रहने के वि. सं. 821 में आचार्य श्री जयानन्दसूरीश्वरजी के कारण अपना विशेष स्थान रखता है । प्रतिवर्ष पौष सदुपदेश से मंत्रीश्वर श्री सामन्त द्वारा इस मन्दिर का कृष्णा 10, चैत्री पूर्णिमा व कार्तिक पूर्णिमा को मेले का जीर्णोद्धार करवाने का उल्लेख है । यहाँ पर गुम्बजों, आयोजन होता है ।
श्री पार्श्वनाथ जिनालय का सुन्दर दृश्य-मीरपुर
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पार्श्वचन्द्र गच्छ के संस्थापक श्री पार्श्वचन्द्र सूरिजी महाराज की जन्म भूमि यही है, जिनका जन्म सोलहवीं सदी में हुआ था ।
के
पट्टधर 1576 में
। "वर्ल्ड
तपागच्छीय श्री इन्द्रनं दिसूरिजी श्री सौभाग्यनंदिसूरिजी ने यहीं पर वि. सं. श्री मौन एकादशी की कथा रची थी एनसाइक्लोपेडिया ऑफ आर्ट” में भी इस मन्दिर का उल्लेख है । अन्य मन्दिर अतिरिक्त तीन और मन्दिर हैं ।
वर्तमान में यहाँ पर इसके
कला और सौन्दर्य यहाँ की कला अद्वितीय है । मन्दिर के स्तंभों पर वि. सं. 1550 से 1556 के जीर्णोद्धार के महत्वपूर्ण लेख अंकित हैं । मन्दिर की करधनी हाथी की है जो पल्लवकालीन कला का श्रेष्ठ नमूना है, चारों और यक्ष गन्धर्व, किन्नर एवं देवी-देवताओं की महत्वपूर्ण आकृतियाँ उत्कीर्ण है । तीनों तरफ
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छटायुक्त पहाड़ियों के मध्य स्थित इस मन्दिर का शांत वातावरण, अति ही सुन्दर प्राकृतिक दृश्य एवं मन्दिर के सन्मुख सूर्य अस्त का दृश्य निहारने योग्य है ।
मार्ग दर्शन नजदीक का रेल्वे स्टेशन सिरोही रोड़ 32 कि. मी. व आबू रोड़ 60 कि. मी. है, नजदीक बड़ा शहर सिरोही 18 कि. मी. है । इन स्थानों पर बस व टेक्सी की सुविधाएँ उपलब्ध है। मन्दिर तक कार व बस जा सकती हैं ।
ठहरने के लिए सर्वसुविधायुक्त दो
सुविधाएँ धर्मशालाएँ व ब्लाक है। जहाँ भोजनशाला की भी सुविधा है । पेढ़ी
पोस्ट : मीरपुर - 307001. जिला सिरोही, प्रान्त राजस्थान, फोन : 02972-86737 पी.पी.
Marzo 20
शेठ कल्याणजी परमानन्दजी पेढ़ी, मीरपुर
श्री भीड़भंजन पार्श्वनाथ भगवान-मीरपुर
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श्री वीरवाड़ा तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री महावीर भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण, लगभग 90 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल वीरवाडा गाँव के बाहर जंगल में पहाड़ी की ओट में ।
प्राचीनता 8 वीरवाड़ा का इतिहास अति प्राचीन प्रतीत होता है । इसका प्राचीन नाम वीरपल्ली रहने का भी उल्लेख मिलता है । यहाँ के श्रेष्ठियों द्वारा वि. सं. 1208 में यहाँ से नजदीक कोटरा गाँव में मन्दिर निर्माण करवाने का उल्लेख मिलता हे ।
वि. सं. 1410 में इस मन्दिर के जीर्णोद्धार होने का उल्लेख मन्दिर के एक स्थंभ पर उत्कीर्ण है ।
वि. सं. 1499 में मेघ कवि द्वारा रचित 'तीर्थमाला' में वि. सं. 1745 में श्री शीलविजयजी द्वारा रचित "तीर्थमाला” में वि. सं. 1755 में श्री ज्ञानविमलसूरिजी द्वारा रचित 'तीर्थ माला' में इस तीर्थ का उल्लेख हैं।
विशिष्टता यह तीर्थ प्रभु वीर के समकालीन होने का संकेत मिलता है । प्रतिमा पर कोई लेख उत्कीर्ण नहीं है । प्रतिमा की शिल्पकला से ही प्राचीनता सहज ही में सिद्ध हो सकती है ।
यहाँ के श्रेष्ठियों द्वारा जगह-जगह पर मन्दिर निर्माण करवाने के उल्लेख मिलते हैं । लगता है, किसी समय यह एक विशाल समृद्धशाली नगर रहा होगा । आजू बाजू के बीसलगनर, कोटरा आदि वीरवाड़ा के अंग रहे होंगे । आबू के महान योगिराज विजय श्री शांतिसूरीश्वरजी महाराज को आचार्य पद पर यहीं विभुषित किया गया था ।
अन्य मन्दिर * वर्तमान में इसके अतिरिक्त गाँव में एक और भव्य बावन जिनालय मन्दिर हैं । जहाँ के वर्तमान मूलनायक श्री संभवनाथ भगवान है व ऊपरी मंजिल में श्री विमलनाथ भगवान विराजमान हैं। ___ कला और सौन्दर्य * गाँव के बाहर पहाड़ी की
ओट में निर्मित इस मन्दिर का दृश्य अत्यन्त मनोरम लगता है । प्रभु वीर की प्रतिमा अति ही प्रभावशाली, सुन्दर व गंभीर है । गाँव में श्री विमलनाथ भगवान के मन्दिर में बावन देवरियों में सुन्दर प्राचीन प्रतिमाएँ अति ही दर्शनीय हैं । आजू-बाजू बीसलनगर, कोटरा, वीरोली आदि गाँवों में प्राचीन खण्डहर जैन मन्दिरों के कलात्मक अवशेष दिखायी देते हैं । वीसलनगर में स्थित प्राचीन खण्डहर जैन मन्दिर को वसीया मन्दिर कहते हैं ।
मार्ग दर्शन 8 नजदीक का रेल्वे स्टेशन सिरोही
श्री महावीर जिनालय-वीरवाड़ा
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श्री महावीर भगवान-वीरवाड़ा
रोड़ 10 कि. मी. है, जहाँ से बस व टेक्सी की सुविधा है । सिरोही शहर लगभग 14 कि. मी. है । बामनवाइजी तीर्थ यहाँ से सिर्फ 2 कि. मी. है । यहाँ का बस स्टेशन मन्दिर से करीब 1/4 4कि. मी. है । कार व बस मन्दिर तक जा सकती है ।
एँ गाँव में धर्मशाला है जहाँ पानी, बिजली का साधन है । यात्रियों के लिए श्री बामनवाड़जी
तीर्थ में ठहरकर यहाँ आना ही सुविधाजनक है, जहाँ सारी सुविधाएँ उपलब्ध हैं ।
पेढ़ी श्री विमलनाथ भगवान जैन पेढ़ी, पोस्ट : वीरवाडा - 307 022. तहसील : पिन्डवाडा, जिला : सिरोही, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 02971-37138.
स
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श्री बामणवाड़ तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री महावीर भगवान, पद्मासनस्थ, प्रवाल वर्ण, लगभग 60 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल सिरोही रोड़ से 7 कि. मी. दूर वीरवाड़ा के पास जंगल में पहाड़ी की ओट में ।
प्राचीनता शिलालेखों में इसका प्राचीन नाम ब्राह्मणवाटक आता है । यह तीर्थ जीवित स्वामी के नाम से प्रसिद्ध है । तपागच्छ पट्टावली के अनुसार श्री संप्रति राजा ने यहाँ मन्दिर बनवाया था । संप्रति राजा को प्रतिवर्ष पांच तीर्थों की चार बार यात्रा करने का नियम था, जिनमें ब्राह्मणवाड़ का नाम भी आता है। श्री
नागार्जुनसूरिजी, श्री स्कन्दनसूरिजी व श्री पादलिप्तसूरिजी आचार्यों को भी पांच तीर्थों की यात्रा का नियम था, उनमें भी ब्राह्मणवाड़ तीर्थ का उल्लेख है । श्री जयानन्दसूरिजी के उपदेश से वि. सं. 821 के आसपास पोरवाल मंत्री श्री सामन्तशाह ने कई मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया था । उनमें ब्राह्मणवाड़ तीर्थ भी था। अचंलगच्छीय महेन्द्रसूरिजी द्वारा वि. सं. 1300 के आसपास रचित अष्टोत्तरी तीर्थ माला में यहाँ श्री महावीर भगवान के मन्दिर में वीर प्रभु के चरणों युक्त स्थुभ का उल्लेख है । वि. सं. 1750 में पं. श्री सौभाग्यविजयी द्वारा रचित 'तीर्थ माला' में भी यहाँ पर वीरप्रभु के चरणों का उल्लेख है।
कवि श्री लावण्यसमयगणी द्वारा वि. सं. 1529, श्री
श्री महावीर भगवान मन्दिर-बामनवाड़ा
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श्री महावीर भगवान-बामनवाड़ा
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विशालसुन्दरजी द्वारा वि. सं. 1685 पं. श्री क्षेमकुशलजी द्वारा वि. सं. 1657 व श्री वीरविजयजी द्वारा वि. सं. 1708 में रचित तीर्थ स्तोत्रों में इस तीर्थ का महिमा गाई है । इस प्राचीन तीर्थ का अनेकों बार जीर्णोद्धार हुआ होगा । वर्तमान में श्री कल्याणजी परमानन्दजी पेढ़ी द्वारा जीर्णोद्धार का कार्य करवाया गया ।
विशिष्टता कहा जाता है भगवान श्री महावीर के कानों मे कील लगाने का उपसर्ग यहीं हुआ था, जहाँ प्रभु की चरण पादुकाएँ प्रतिष्ठित हैं ।
आचार्य श्री नागार्जुनसूरिजी, श्री स्कन्दनसूरिजी, श्री पादलिप्तसूरिजी एवं राजा श्री संप्रति यहाँ नियमित रूप से दर्शनार्थ आते थे ।
सिरोही के श्री शिवसिंहजी महाराज को राजगादी मिलने की कोई उम्मीद नहीं थी परन्तु इस तीर्थ पर
अखिल भारतीय जैन श्वेताम्बर पोरवाल सम्मेलन यहाँ पर योगीराज श्री विजय शान्तिसूरीश्वरजी की निश्रा में सुसम्पन्न हुआ था, जो उल्लेखनीय है । सम्मेलन की पूर्णाहुती के समय चैत्र कृष्णा 3 के शुभ दिन श्री संघ द्वारा योगीराज को कई पदवियों से अलंकृत किया गया था । अभी भी हमेशा सैकड़ों यात्रीगणों का यहाँ आवागमन रहता है । हर मास के शुक्ल पक्ष की ग्यारस को भक्तजनों का विशेष आवागमन रहता है ।
अन्य मन्दिर इसी पहाड़ी पर सम्मेतशिखर की रचना बहुत सुन्दर ढंग से की गई है जो दर्शनीय है। कहा जाता है भगवान महावीर के कानों में कील मारने का उपसर्ग यहीं हुआ था । जहाँ प्रभु के प्राचीन चरण चिन्ह है, व मन्दिर बना हुआ है । पहाड़ी पर एक कमरा है जहाँ आबू के योगीराज श्री विजयशान्तिसूरीश्वरजी महाराज प्रायः ध्यान किया करते थे, वहाँ उसी पाट पर जहाँ वे बैठते थे उनका फोटो रखा हुआ है, व कमरे में उनकी मूर्ति दर्शनार्थ रखी हुई है ।
कला और सौन्दर्य मन्दिर में श्री महावीर भगवान के 27 भवों के पट्ट संगमरमर में बनाये गये हैं वे अति ही सुन्दर व दर्शनीय है ।बालू की बनी प्रभु प्रतिमा अत्यन्त सुन्दर व प्रभावशाली है । सहज ही में भक्त का हृदय प्रभु तरफ लयलीन हो जाता है । जंगल में रहने के कारण यहाँ का प्राकृतिक दृश्य भी अति शान्तिप्रद है ।
मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन सिरोही रोड़ 7 कि. मी. है, जहाँ से बस व टेक्सी की सुविधा है । पिन्ड़वाड़ा गाँव 8 कि. मी. है जो कि सिरोही रोड़ स्टेशन के पास ही है । सिरोही गाँव 16 कि. मी. है । आबू से व सिरोही रोड़ से सिरोही गाँव जानेवाली सारी बसें बामनवाड़ होकर ही जाती है । धर्मशाला के सामने ही बस स्टेण्ड है ।
सुविधाएँ ठहरने के लिए मन्दिर के अहाते में ही विशाल धर्मशाला हैं, जहाँ पानी, बिजली, बर्तन, ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र व भोजनशाला की सुविधा हैं ।
पेढी श्री कल्याणजी परमानन्दजी पेढ़ी, जैन तीर्थ श्री बामनवाड़जी । पोस्ट : वीरवाड़ा - 307 022. तहसील : पिन्डवाड़ा, . जिला : सिरोही, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 02971-37270.
उपसर्ग स्थल पर प्रभुवीर के प्राचीन चरण
चिन्ह-बामनवाड़ा
श्रद्धा व भक्ति के कारण वे सिरोही के राजा बने, अतः उन्होंने इस तीर्थ की कायम सुव्यवस्था के लिए आसपास के कुछ अरट, बावड़ियाँ, खेती योग्य भूमि आदि भेंट करके वि. सं. 1876 ज्येष्ठ शुक्ला 5 के दिन ताम्रपत्र लिखकर अर्पण किया । यहाँ अभी भी अनेकों चमत्कारिक घटनाएँ घटती हैं व श्रद्धालु भक्तजनों की मनोकामनाएं पूरी होती हैं । वि. सं. 1989 में 388
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श्री नान्दिया तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री महावीर भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण, परिकरसहित लगभग 210 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल 8 नान्दिया गाँव के बाहर सुन्दर वनयुक्त पहाड़ियों के मध्य ।
प्राचीनता इसके प्राचीन नाम नन्दिग्राम, नन्दिवर्धनपुर, नन्दिरपुर आदि थे । भगवान महावीर के ज्येष्ठ भ्राता श्री नन्दिवर्धन ने यह गाँव बसाया था, ऐसी किंवदन्ति प्रचलित है । यह भी कहा जाता है कि
श्री महावीर जिनालय का मनोहर दृश्य-नान्दिया
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यह प्रतिमा प्रभूवीर के समय की है, इसकी एक हैं । लगता है जैसे वीर प्रभु साक्षात् विराजमान हैं । कहावत भी अति प्रचलित है, नाणा दियाणा नान्दिया इस बावनजिनालय मन्दिर की सारी प्रतिमाओं की जीवित श्वामी वान्दिया । इस मन्दिर में स्तम्भों आदि कला का भी जितना वर्णन करें, कम है । साथ ही पर उत्कीर्ण वि. सं. 1130 से 1210 तक के यहाँ का प्राकृतिक दृश्य अति मनलुभावना है । दूर से शिलालेखों से भी इसकी प्राचीनता सिद्ध हो जाती है। जंगल में शिखर समूहों का दृश्य दिव्य नगरी सा प्रतीत इसे पहले 'नान्दियक चैत्य' भी कहते थे । वि. सं. होता है । 1130 में नान्दियक चैत्य में बावड़ी खुदवाने का मार्ग दर्शन 8 यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन उल्लेख हैं । वि. सं. 1201 में जीर्णोद्धार हुए का सिरोही रोड 10 कि. मी. है. जहाँ से आब रोड मार्ग उल्लेख मिलता है । समय-समय पर हर तीर्थ का में कोजरा होकर आना पड़ता है । नजदीक का बड़ा उद्धार होता ही है । उसी भाँति इस तीर्थ का भी अनेकों शहर सिरोही 24 कि. मी. दूर है । इन जगहों से बस बार उद्धार हुआ होगा ।
व टेक्सियों की सुविधा है । नान्दिया तीर्थ से विशिष्टता प्रभु वीर के समय की उनकी बामनवाइजी 6 कि. मी. व लोटाणा तीर्थ 5 कि. मी. प्रतिमाएँ बहुत ही कम जगह है, जिन्हें जीवित स्वामी दूर है । बस स्टेण्ड से मन्दिर 1/27 कि. मी. दूर है । कहते है । उसमें भी ऐसी सुन्दर व मनमोहक प्रतिमा सुविधाएँ 8 ठहरने के लिए गाँव में धर्मशाला है, अन्यत्र नहीं है । श्री नन्दिवर्धन द्वारा बसाये गाँव में जहाँ पर भोजनशाला सहित सारी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। इस प्राचीन मन्दिर को नन्दीश्वर चैत्य भी कहते हैं । टीकापी इस मन्दिर के निकट ही टेकरी पर एक देरी है, जिस
पोस्ट : नान्दिया - 307 042. में शिला पर प्रभु के चरण व सर्प की आकृति उत्कीर्ण
जिला : सिरोही, प्रान्त : राजस्थान, है । भक्तों के मान्यतानुसार प्रभु वीर ने चण्डकौशिक
फोन : 02971-33416 पी.पी. सर्प को यहीं पर प्रतिबोध दिया था । इसी शिला पर कुछ प्राचीन लेख भी उत्कीर्ण हैं, जिनके अन्वेषण की आवश्यकता है । आचार्य भगवंत साहित्य शिरोमणी विजय श्री प्रेमसूरीश्वरजी म.सा. की यह जन्म भूमि है।
विश्व विख्यात राणकपुर तीर्थ के निर्माता शेठ श्री धरणाशाह व रत्नशाह भी इसी नगरी के निवासी थे । प्रतीत होता है यह नगर सदियों तक जाहोजलाली पूर्ण रहा । ___ यह प्रभु प्रतिमा अष्ट प्रतिहार्ययुक्त है जिसमें इन्द्र-इन्द्राणी पुष्प वृष्टी करते हैं, देव दुंदुभी बजाते हैं, भावमंडल है, छत्र है, अशोक वृक्ष हैं, धर्मचक्र है, इन्द्र महाराजा भगवान के दोनों तरफ चामरवींझते हैं और मूर्ति के साथ बावन जिनालय का परिकर भी है जिसमें इक्यावन भगवान हैं और बावनवें मूलनायक श्री महावीर प्रभु है । यह यहाँ की मुख्य विशेषता है। ऐसे परिकरयुक्त प्रभु के दर्शन अन्यत्र दुर्लभ है। __ अन्य मन्दिर 8 वर्तमान में इसके अतिरिक्त गाँव में 2 मन्दिर व एक गुरु मन्दिर हैं । __कला और सौन्दर्य प्रभु वीर के समय की इतनी तेजस्वी कलात्मक प्रतिमा के दर्शन अन्यत्र दुर्लभ
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Re
जीवितस्वामी श्री महावीर भगवान - नान्दिया
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श्री अजारी तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री महावीर भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण, लगभग 75 सें. मी. (श्वे. मन्दिर ) । तीर्थ स्थल अजारी गाँव के मध्य । प्राचीनता यह अति प्राचीन स्थान है । इस गाँव की व मन्दिर की प्राचीनता का पता लगाना कठिन - सा है । शास्त्रों में उल्लेखानुसार कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमाचन्द्राचार्य ने इस गाँव के निकट श्री मार्कन्डेश्वर में श्री सरस्वती देवी के मन्दिर में सरस्वती देवी की आराधना की थी । इस मन्दिर के निकट एक बावड़ी में विक्रम सं. 1202 का लेख उत्कीर्ण है, जिसमें परमार राजा यशोधवल का वर्णन है । यहाँ पर कुछ धातु प्रतिमाओं पर ग्यारहवीं, बारहवीं व तेरहवीं सदी के लेख उत्कीर्ण हैं । प्रतिमाजी
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पर कोई लेख उत्कीर्ण नहीं है। प्रतिमाजी की कलाकृति से प्रमाणित होता है कि यह प्रतिमा अति प्राचीन है । इस भव्य बावनजिनालय मन्दिर में सारी प्रतिमाएँ राजा संप्रतिकाल की प्रतीत होती है । मन्दिर में कुछ आचार्य भगवन्तों की भी मनोज्ञ प्रतिमाएँ हैं । एक प्रतिमा अति ही सुन्दर है, जिसपर सं. 12 का लेख उत्कीर्ण हैं । यहाँ के अन्तिम जीर्णोद्धार के समय प्रतिष्ठा आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरिजी की पावन निश्रा में हुवे का उल्लेख है ।
विशिष्टता कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमाचन्द्राचार्य ने यहाँ के निकट श्री मार्कन्डेश्वर में श्री सरस्वती देवी की आराधना की थी, तब श्री सरस्वती देवी ने प्रसन्न होकर इस मन्दिर में श्री हेमाचन्द्राचार्य को प्रदक्षिणा देते वक्त साक्षात् दर्शन दिया था । कहा जाता है श्री हेमचन्द्राचार्य ने इस मन्दिर में श्री सरस्वती देवी की प्रतिमा की स्थापना करवायी थी जो कि अभी भी
बावन जिनालय का मनोहर दृश्य अजारी
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विद्यमान है । इस प्रतिमा पर वि. सं. 1269 में श्री शान्तिसूरिजी द्वारा प्रतिष्ठित होने का लेख उत्कीर्ण है। हो सकता है श्री हेमाचन्द्राचार्य के उपदेश से यह प्रतिमा बनवायी गयी हो व प्रतिष्ठा श्री शान्तिसूरिजी के सुहस्ते हुई हों । श्री सरस्वती देवी के चमत्कार प्रख्यात हैं । अभी भी अनेकों जैन-जैनेतर विद्या प्राप्ति के लिए जो भावना भाते हैं उनकी मनोकामना सिद्ध होती है । यह तीर्थ छोटी मारवाड़ पंचतीर्थी का एक स्थान है। वर्तमान में लगभग 70 वर्ष पूर्व आबू के योगीराज विजय श्री शान्तिसूरिजी ने भी यहाँ के निकट जंगलों में कठोर तपश्चर्या की थी व मार्कन्डेश्वर में सरस्वती देवी की आराधना करने पर श्री सरस्वती देवी साक्षात् प्रकट हुई थी । विजय श्री शान्ति सूरीश्वरजी के रहने का वह स्थान मार्कन्डेश्वर में अभी भी यथावत् है । कविवर कालीदास की भी यह जन्मभूमि है । ___ प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णीमा को मेले का आयोजन होता है व वैशाख शुक्ला पंचमी को ध्वजा चढ़ाई जाती है ।
अन्य मन्दिर 8 वर्तमान में इसके अतिरिक्त कोई मन्दिर नहीं है । मार्कन्डेश्वर में श्री सरस्वती देवी का मन्दिर यहाँ से लगभग 112 कि. मी. दूर है ।
कला और सौन्दर्य 888 बावनजिनालय मन्दिर की कला अति दर्शनीय है । सारी प्रतिमाएँ राजा संप्रति काल की अति ही सुन्दर व मनमोहक हैं । इस मन्दिर में व मार्कन्डेश्वर में सरसवती देवी की प्रतिमाएँ अति प्रभावशाली हैं । सरस्वती देवी की इतनी प्राचीन व प्रभावशाली प्रतिमाओं के दर्शन अन्यत्र दुर्लभ हैं ।
मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन सिरोही रोड़ 5 कि. मी. है । बामनवाइजी तीर्थ से यह स्थल 12 कि. मी. नान्दिया तीर्थ से 10 कि. मी. व पिन्डवाड़ा से 3 कि. मी. दूर है । मन्दिर तक पक्की सड़क है ।
सुविधाएँ ठहरने के लिए मन्दिर के निकट धर्मशाला है । परन्तु अभी तक खास सुविधा नहीं है अतः पिन्डवाड़ा या बामनवाड़जी में ठहरकर आना ज्यादा उपयुक्त है । जहाँ सारी सुविधाएँ उपलब्ध है ।
पेढ़ी शेठ कल्याणजी सोभागचंदजी जैन पेढ़ी, पोस्ट : अजारी - 307 021. जिला : सिरोही, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 02971-20028. (पिन्डवाडा) पी.पी.
श्री महावीर भगवान-अजारी
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श्री पार्श्वनाथ जिनालय-नीतोड़ा
श्री बावेश्वरजी महाराज-नीतोड़ा
श्री नीतोड़ा तीर्थ
नीतोड़ा गाँव के मध्य ।
तीर्थाधिराज श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण ( श्वे. मन्दिर ) । तीर्थ स्थल प्राचीनता यह स्थान बारहवीं सदी पूर्व का माना जाता है । प्रभु-प्रतिमा के परिकर की गादी पर वि. सं. 1200 का लेख है जिसमें श्री नेमीनाथ भगवान का नाम उत्कीर्ण है । हो सकता है कभी जीर्णोद्धार के समय श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान के इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवायी गयी हो । इसी मन्दिर में एक यक्ष की मूर्ति है जिसे बाबेश्वरजी कहते हैं। उसपर वि. सं. 1491 वैशाख शुक्ला 2 का लेख उत्कीर्ण है ।
विशिष्टता
यह तीर्थ छोटी मारवाड़ पंचतीर्थी का एक स्थल है । यहाँ पर विराजित श्री बाबेश्वरजी यक्ष की प्रतिमा अति चमत्कारिक है । श्री बाबेश्वरजी के हाथों में कमन्डल, त्रिशूल, यज्ञसूत्र व नागपाश है व पैरों में खड़ाऊँ हैं, सिर पर श्री तीर्थंकर भगवान की प्रतिमा हैं । अनेकों भक्त यहाँ दर्शनार्थ आते हैं व मानता रखकर अपनी मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं । प्रतिवर्ष जेठ शुक्ला छठ को ध्वजा चढ़ाई जाती है । अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त कोई मन्दिर नहीं है ।
कला और सौन्दर्य इस बावन जिनालय मन्दिर का दृश्य अति ही मनोरम व प्रभु-प्रतिमा विशेष कलात्मक है । श्री बाबेश्वरजी की मूर्ति दर्शनीय व अति प्रभावशाली है ।
मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन स्वरूपगंज 5 कि. मी. है, जहाँ से बस व टेक्सी की सुविधा है । बस व कार मन्दिर तक जा सकती है। यहाँ से दीयाणा तीर्थ 8 कि. मी. है ।
सुविधाएँ ठहरने के लिए धर्मशाला है जहाँ पानी, बर्तन, बिजली व ओढ़ने-बिछाने के वस्त्रों की सुविधा है ।
पेढ़ी श्री नीतोड़ा जैन देरासर ट्रस्ट, पोस्ट : नीतोड़ा - 307023. स्टेशन : स्वरूपगंज जिला सिरोही, प्रान्त राजस्थान,
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श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान-नीतोड़ा
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की विशेष महत्ता मानी जाती है । श्री लोटाणा तीर्थ
__ अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त यहाँ
कोई मन्दिर नहीं है । तीर्थाधिराज श्री आदीश्वर भगवान, पद्मासनस्थ, कला और सौन्दर्य मन्दिर का दृश्य गाँव की श्वेत वर्ण, लगभग 75 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) ।
छोटी सी टेकरी पर अति ही आकर्षक लगता है । प्रभु तीर्थ स्थल लोटाणा गाँव में एक टेकरी पर । प्रतिमा की कला अपना विशेष स्थान रखती है । इस
प्राचीनता इस का प्राचीन नाम लोटीपुरपट्टन ढंग की परिकरयुक्त प्रतिमा अन्यत्र नहीं है । व लोटाणक था, ऐसा शिलालेखों में उल्लेख मिलता है। मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन मन्दिर में काउसग्गीया मूर्ति पर वि. सं. 1144 का सिरोही रोड़ 20 कि. मी. दूर है । नान्दिया से यह लेख उत्कीर्ण है । मन्दिर में दो और कायोत्सर्ग स्थान 7 कि. मी. व दीयाणा तीर्थ से लगभग 15 कि. प्रतिमाओं पर वि. सं. 1130 ज्येष्ठ शुक्ला 5 का लेख । मी. व बामनवाड़जी तीर्थ से 16 कि. मी. दूर है। उत्कीर्ण है । प्रतीत होता है उस समय यहाँ का सविधाएँ ठहरने के लिए मन्दिर के अहाते में जीर्णोद्धार हुआ होगा । यह श्री आदिनाथ प्रभु की ही कछ कमरे बने हाए है. जहाँ पर पानी व थोडे प्रतिमा श्री शत्रुजय महातीर्थ के तेरहवें उद्धार की है ।
व्यक्तियों के लिए बर्तन व ओढ़ने-बिछाने के वस्त्रों का यहाँ का अन्तिम जीर्णोद्धार वि. सं. 2016 में हुआ था। साधन मिल सकता है । नान्दिया या बामनवाइजी
विशिष्टता यह तीर्थ प्राचीनता के कारण तो ठहरकर ही यहाँ आना सुविधाजनक है । अपनी विशेषता रखता ही है । इसके अतिरिक्त श्री पेढी श्री जैन देवस्थान पेढ़ी, लोटाणा तीर्थ, आदीश्वर प्रभु की भव्य व अद्वितीय प्रतिमा श्री शत्रुजय
गाँव : लोटाणा, पोस्ट : नान्दिया - 307 042. शास्वत तीर्थ के तेरहवें उद्धार की रहने के कारण यहाँ नारी
जिला : सिरोही (राज.), फोन : 02971-2011 5 पी.पी.
श्री आदिनाथ जिनालय-लोटाणा
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BoB
श्री आदीश्वर भगवान- लोटाणा
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श्री दियाणा तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री महावीर भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण, लगभग 90 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) |
तीर्थ स्थल सरूपगंज से 17 कि. मी. दूर घने जंगल में पहाड़ियों के बीच ।
प्राचीनता यह तीर्थ स्थल चरम तीर्थंकर भगवान महावीर के समय का माना जाता है । जैसे
आज भयानक जंगल में सुरम्य पहाड़ियों के बीच सिर्फ यह मन्दिर है, जो प्राचीनता की याद दिलाता है। यहाँ प्राचीन पटों व बावड़ियों पर तेरहवीं व चौदहवीं सदी के लेख उत्कीर्ण हैं । वि. सं. 1436 पौष शुक्ला 6 गुरुवार को यहाँ श्री पार्श्वनाथ चरित्र की रचना होने का उल्लेख मिलता है ।
विशिष्टता यह तीर्थ स्थल प्रभु वीर के समय का माना जाने के कारण यहाँ की महान विशेषता है। का माना जान क कारण यहा का महान वि यह तीर्थ भी छोटी मारवाड़ की पंचतीर्थी का एक स्थान है । इस ढंग के इतने प्राचीन, एकान्त जंगल में, शान्त व शुद्ध वातावरण से युक्त तीर्थ स्थान अल्प ही है । प्रतिवर्ष जेठ शुक्ला 2 को ध्वजा चढ़ाई जाती है।
अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त यहाँ कोई मन्दिर नहीं है ।
कला और सौन्दर्य यहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य का जितना भी वर्णन करें, कम है । तीनों तरफ पहाड़ों के बीच भयानक जंगल में सायं व रात का वातावरण मन को प्रफुल्लित करता है । लगता है जैसे किसी दिव्य लोक में आ गये हैं । रात में जंगली जानवरों
जीवित स्वामी वान्दिया । यह प्रतिमा प्रभ वीर के समय की मानी जाती है । कहा जाता है कि भगवान महावीर इधर विचरे तब काउसग्ग ध्यान में यहाँ रहे थे व उनके भ्राता नन्दीवर्धन ने यहाँ बावनजिनालय भव्य मन्दिर का निर्माण करवाकर यह प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई थी । प्रभु प्रतिमा की कला से ही इसकी प्राचीनता सिद्ध हो जाती है । निःसन्देह इस तीर्थ का अनेकों बार जीर्णोद्धार हुआ होगा एवं किसी समय यह एक विराट नगरी रही होगी ।
श्री महावीर जिनालय का दूर दृश्य-दियाणा
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जीवित स्वामी श्री महावीर भगवान-दियाणा
की बार-बार गर्जना सुनाई देती है । मानों वे भी बार-बार प्रभु का नाम स्मरण कर रहे हैं । प्रभु प्रतिमा अति ही मनमोहक है । जैसे प्रभु वीर गंभीर व शान्त मुद्रा में साक्षात् विराजमान हैं ।
मार्ग दर्शन 8 यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन स्वरूपगंज 17 कि. मी. दूर है । मन्दिर तक पक्की सड़क है ।
सुविधाएँ 8 ठहरने के लिए मन्दिर के अहाते में ही सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला है, जहाँ भोजनशाला की भी सुविधा है ।
पेढी श्री दियाणाजी जीवित स्वामीजी पेढ़ी पोस्ट : दियाणा - 307 023. स्टेशन : स्वरूपगंज, जिला : सिरोही (राज.), फोन : 02971-57436. मुख्य पेढ़ी : स्वरुपगंज फोन : 02971-42574.
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श्री सिवेरा तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री शान्तिनाथ भगवान, पद्मासनस्थ (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल सिवेरा गाँव के मध्य । प्राचीनता 8 इसका प्राचीन नाम सिपेरक रहने का उल्लेख शिलालेखों में मिलता है । वि. सं. 1109 वैशाख शुक्ला 8 के दिन आचार्य श्री शाँत्याचार्यजी द्वारा यह प्रतिमा प्रतिष्ठित होने का प्रतिमाजी की गादी पर शिलालेख है । इसलिए संभवतः यह तीर्थ बारहवीं सदी पूर्व का हो सकता है। पश्चात् समय समय पर आवश्यक जीर्णोद्धार हुए होंगे।
विशिष्टता प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा को मेला लगता है ।
अन्य मन्दिर वर्तमान में यहाँ इसके अतिरिक्त कोई मन्दिर नहीं है ।
कला और सौन्दर्य मन्दिर की निर्माण शैली निराले ढंग की है । प्रभु प्रतिमा की कला अति ही आकर्षक है। इसी मन्दिर में कुछ अन्य प्राचीन प्रतिमाओं की कला भी बहुत ही सुन्दर है । __ मार्ग दर्शन 8 नजदीक का रेल्वे स्टेशन सिरोही रोड़ 8 कि. मी. है, जहाँ से टेक्सी व आटो की सुविधा है । यहाँ से नजदीक का गाँव झाड़ोली है, जो कि. 5 कि. मी. है । मन्दिर तक कार व बस जा सकती है।
सुविधाएँ ठहरने के लिए छोटी सी धर्मशाला है, जहाँ पानी, बर्तन की सुविधा है ।
पेढ़ी 8 श्री कल्याणजी परमानन्दजी पेढ़ी, गाँव : सिवेरा, पोस्ट : झाड़ोली - 307 022. स्टेशन : सिरोही रोड़ जिला : सिरोही, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 02971-33023.
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श्री शान्तिप्रभु जिनालय-सिवेरा
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श्री शान्तिनाथ भगवान-सिवेरा
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श्री धनारी तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री शान्तिनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 60 सें. मी. (प्राचीन मूलनायक) (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल बनास नदी किनारे बसे धनारी गाँव के पुरोहितों के मोहल्ले में ।
प्राचीनता 8 इस मन्दिर में उपलब्ध शिलालेखों से यह तीर्थ वि. सं. 1348 से पूर्व का सिद्ध होता है। वि. सं. 1348 के शिलालेखों से ज्ञात होता है कि उस समय यहाँ के मूलनायक श्री आदीश्वर भगवान थे । हो सकता है कभी जीर्णोद्धार के समय श्री शान्तिनाथ भगवान की यह प्रतिमा प्रतिष्ठित की गयी हो, प्रतिमाजी पर कोई लेख उत्कीर्ण नहीं है । वि. सं. 2006 में अन्तिम जीर्णोद्धार हुआ । तब आचार्य श्री विजयजिनेन्द्रसूरीश्वरजी के सुहस्ते श्री पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा प्रतिष्ठित करवायी गयी, जो अभी मूलनायक रूप में विद्यमान है । विशिष्टता तपागच्छीय कमलकलश शाखा के
श्री धनारी मन्डन पार्श्वनाथ भगवान-धनारी
श्री शान्तिनाथ जिनालय-धनारी
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श्री शान्तिनाथ भगवान-धनारी
श्री पूज्यों की गादी यहीं है, जो पाटण गादी की शाखा है । प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ला 10 को ध्वजा चढ़ती है ।
अन्य मन्दिर नजदीक ही एक बगीचे में देरियाँ हैं जिनमें श्रीपूज्य महेन्द्रसूरिजी के पूर्वज यतियों की चरण पादुकाएँ विराजित हैं ।
मार्ग दर्शन नजदीक का रेल्वे स्टेशन स्वरूपगंज 2 कि. मी. है, जहाँ से आने के लिए आटो, टेक्सी की सुविधा है । मन्दिर तक पक्की सड़क है । बस व कार मन्दिर तक जा सकती है ।
8 गाँव में धर्मशाला है, लेकिन वर्तमान में ठहरने के लिए कोई खास सुविधा नहीं है। स्वरूपगंज था बामनवाड़जी ठहरकर ही यहाँ आना सुविधाजनक है, जहाँ सभी सुविधाएँ उपलब्ध है ।
पेढ़ी 8 श्री परमानन्द मूर्तिपूजक जैन संघ (धनारी) पोस्ट : धनारी - 307 023. व्हाया : स्वरूपगंज, जिला : सिरोही, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 02971-44127पी.पी.
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श्री संभवनाथ भगवान वर्तमान मूलनायक
श्री वाटेरा तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री शान्तिनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 75 सें. मी. (प्राचीन मूलनायक) (श्वे. मन्दिर)।
तीर्थ स्थल वाटेरा गाँव के चौराहे पर ।
प्राचीनता प्राचीन मूलनायक भगवान के परिकर की गादी पर वि. सं. 1171 ज्येष्ठ शुक्ला 4 का लेख उत्कीर्ण है व उस समय श्री महावीर भगवान के मूलनायक रहने का उल्लेख है । इसलिए संभवतः किसी वक्त जीर्णोद्धार के समय उसी परिकर में श्री शान्तिनाथ भगवान की प्रतिमा प्रतिष्ठित की गयी होगी। लेकिन उल्लेखानुसार यह तीर्थ विक्रम की बारहवीं सदी से पूर्व का माना जाता है । अन्तिम जीर्णोद्धार वि. सं. 2022 में होकर ज्येष्ठ शुक्ला 3 के शुभ दिन आचार्य श्री विजयजिनेन्द्र सूरीश्वरजी के सुहस्ते श्री संभवनाथ भगवान की प्रतिमा प्रतिष्ठित की
श्री शान्तिनाथ जिनालय-वाटेरा
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गयी, जो अभी मूलनायक रूप में विद्यमान है । प्रतिमा 8 कि. मी. है, जहाँ पर महावीर भवन में संघ की चमत्कारिक है ।
तरफ से मोटर का साधन है व आवश्यक नकरा लेकर विशिष्टता प्रतिवर्ष ज्येष्ठ शक्ला 3 को ध्वजा दी जाती है । स्वरूपगंज में टेक्सी का भी साधन है। चढ़ती हैं । प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ला 13 व कार्तिक पूर्णीमा सुविधाएँ मन्दिर के निकट ही धर्मशाला है, को मेले का आयोजन होता है ।
जहाँ बिजली, पानी की सुविधा है । परन्तु सरूपगंज अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त अन्य ठहरकर ही यहाँ आना ज्यादा सुविधाजनक है, जहाँ कोई मन्दिर नहीं है ।
सारी सुविधाएँ उपलब्ध है । कला और सौन्दर्य प्राचीन प्रभु प्रतिमा अति
पेढ़ी 8 श्री समस्त जैन संघनी पेढ़ी जैन मन्दिर, ही सुन्दर कलात्मक व प्रभावशाली है । इसी मन्दिर पोस्ट : वाटेरा - 307 024. स्टेशन : स्वरूपगंज में पंचधातु की और भी प्राचीन प्रतिमाएँ दर्शनीय है। जिला : सिरोही, प्रान्त : राजस्थान,
मार्गदर्शन 8 नजदीक का रेल्वे स्टेशन स्वरूपगंज फोन : 02971-54635 पी.पी.
श्री शान्तिनाथ भगवान प्राचीन मूलनायक-वाटेरा
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श्री झाड़ोली तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री आदीश्वर भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण, लगभग 60 सें. मी. (श्वे. मन्दिर)।
तीर्थ स्थल 88 झाड़ोली गाँव के मध्यस्थ ।
प्राचीनता 88 शिलालेखों से ज्ञात होता है कि इसके प्राचीन नाम झाड़वली, झाववली व झाझउली आदि थे । मन्दिर में वि. सं. 1234 व वि. सं. 1236 के शिलालेख विद्यमान हैं । विक्रम संवत 1252 में श्री चन्द्रावती नगरी के राजा धारावर्ष के राज्यकाल में (उस समय उनके कला कुशल मंत्रीश्वर श्री नागड़ थे) इस मन्दिर में मण्डप का उद्धार व छ चौकी बनवाने का उल्लेख है । ___ वि. सं. 1255 में धारावर्ष राजा की पटराणी (नाडोल के चौहान राजा कल्हणदेव की सुपुत्री) श्री श्रृंगारदेवी द्वारा धर्मशील दानी श्री नीरड़ की
उपस्थिति में इस मन्दिर के लिए एक वाव (अरट) भेंट करने का उल्लेख भी मन्दिर के एक शिलालेख में उत्कीर्ण है। इस शिलालेख के रचियता आचार्य श्री तिलकप्रभसूरिजी हैं यह वाव आज भी जैन संघ के आधीन है जिसे लोग “देव की वाव" कहते हैं । इस वाव में भी शिलालेख विद्यमान है ।
उक्त वृतांत से यह सिद्ध होता है कि यह मन्दिर वि. सं. 1252 से पूर्व का है । उस समय मूलनायक श्री महावीर भगवान थे । तत्पश्चात् कभी जीर्णोद्धार के समय श्री आदीश्वर भगवान की प्रतिमा प्रतिष्ठित की गयी होगी । इसी प्रतिमा को श्री शान्तिनाथ भगवान भी कहते हैं । वि. सं. 1499 में श्री मेघ कवि ने अपनी तीर्थमाला में यहाँ श्री शान्तिनाथ भगवान के मन्दिर का उल्लेख किया है । प्रतिमाजी पर सं. 1632 का लेख उत्कीर्ण है ।
विशिष्टता किसी समय यह एक समृद्धशाली शहर था, ऐसा यहाँ उपलब्ध शिलालेखों से प्रतीत होता है । समय समय पर राजाओं की इस तीर्थ के प्रति अटूट श्रद्धा व भक्ति उल्लेखनीय है । प्रतिवर्ष मिगसर शुक्ला 6 को ध्वजा चढ़ती है ।
अन्य मन्दिर 8 वर्तमान में इसके अतिरिक्त एक और जिन मन्दिर एक माणिभद्रजी का मन्दिर, नाकोड़ा भैरव व घंटाकर्ण महावीर के मन्दिर हैं ।
कला और सौन्दर्य मन्दिर में तोरणों व स्थभों पर की हुई प्राचीन शिल्पकला दर्शनीय है, जो कि आबू देलवाड़ा की याद दिलाती है ।। __ मार्ग दर्शन 8 नजदीक का रेल्वे स्टेशन सिरोही रोड़ 3 कि. मी. है, जहाँ से आटो,टेक्सी की सुविधा है । मन्दिर से बस स्टेण्ड 100 मीटर दूर है । मन्दिर तक कार व बस जा सकती है । बामनवाड़जी तीर्थ से यह स्थल 4 कि. मी. दूर है ।
सविधाएँ ठहरने के लिए धर्मशाला है. जहाँ पानी, बर्तन, बिजली, ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र व भोजनशाला की सुविधा है ।
पेढ़ी श्री आदीश्वर जैन श्वेताम्बर पेढ़ी, पोस्ट : झाड़ोली- 307 022. जिला : सिरोही, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 02971-20170.
श्री आदिनाथ प्रभु जिनालय-झाड़ोली
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श्री आदिनाथ भगवान-झाड़ोली
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श्री आहोर तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री शान्तिनाथ भगवान, पद्मासनस्थ, (श्वे. मन्दिर)।
तीर्थ स्थल सुखडी नदी के किनारे बसे आहोर शहर के मुख्य बाजार से कुछ दूर ।
प्राचीनता 8 इस तीर्थ का इतिहास लगभग सातसौ वर्ष के पूर्व का माना जाता है ।
यहाँ के क्षत्रियवीरों ने वि. सं. 1365-68 में जालोर के शासक सोनगरा चौहान कान्हडदेव व अलाऊदीन के बीच हुवे भीषण युद्ध में अद्भुत वीरता का परिचय दिया था । इससे यह सिद्ध होता है कि यह शहर वि. सं. 1365 के पूर्व बस चुका था ।
यह आहोर शहर मारवाड़ के एक मशहूर समृद्ध ठिकाने में माना जाता था । यहाँ का राजकीय ठिकाना मारवाड़ के एक प्रतिष्ठित ठिकाने में मारवाड़ राज्य के प्रथम कोटि के रियासतों में था । इसको प्रथम श्रेणी का दीवानी-फोजदारी हक, डंका निशान व सोना निवेश का मान प्राप्त था । ___ इस नगर के उत्थान व समृद्धि में जैन श्रावकों का भी हमेशा बड़ा हाथ रहा । यहाँ के समृद्धशाली श्रावकों ने कई मन्दिरों का भी निर्माण अवश्य करवाया ही होगा ।
वर्तमान में स्थित मन्दिरों में श्री शान्तिनाथ भगवान का मन्दिर, प्राचीनतम माना जाता है, इस मन्दिर का निर्माण वि. सं. 1444 में हुवा माना जाता हैं, परन्तु संभवतः उस समय जीर्णोद्धार होकर पुनः प्रतिष्ठा हुई हो । अंतिम जीर्णोद्धार वि. सं. 1997 में हुवा । __ विशिष्टता 8 श्री शान्तिनाथ भगवान का प्राचीन मन्दिर विशुद्ध परमाणुओं से ओतप्रोत मंगलमय आशीष देता हुवा यहाँ की गौरवपूर्ण गरिमामयी पूर्व इतिहास की याद दिलाता नजर आता है ।
चमत्कारिक घटनाओं के साथ निर्मित श्री गौडी पार्श्वनाथ भगवान का बावन जिनालय मन्दिर अपनी विशालता एवं चमत्कारिक घटनाओं के लिये विख्यात है यह यहाँ की विशेषता है ।
कहा जाता है कि यहाँ श्री गोडी पार्श्वनाथ भगवान के मन्दिर का निर्माण होकर श्री पार्श्वप्रभु की अलौकिक
श्री गौड़ी पार्श्वनाथ भगवान
श्री गौड़ी पार्श्वनाथ मन्दिर दृश्य-आहोर
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प्राचीन प्रतिमा की प्रतिष्ठा वि. सं. 1936 माघ शुक्ला दशमी को कलिकाल कल्पतरु आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के कर कमलों से सम्पन्न हुई थी । उसके लगभग एक माह पश्चात् चैत्र कृष्णा एकम को रात्री में चौथे प्रहर की चौथी घड़ी में आकाश वाणी हुई कि "श्री गोड़ी पार्श्वनाथ तुष्टमान हुवे हैं । पंचतीर्थ बावन जिनालय का निर्माण करावें । राजेन्द्रसुरि अंजनशलाका करेंगे । मरुधर में प्रतिष्ठित तीर्थ होगा। कृष्ण पक्ष होने पर भी अद्भुत प्रकाश बरस रहा था। सेवक आदि जाग पडे । उन्होंने आकाश में दुंदुभी का स्वर सुना, चारों और कुंकुम के चरण चिन्ह देखे और पंचवर्णी पुष्प वर्षा देखी, सेवकों आदि ने नगर में जाकर सारा वृतांत सुनाया । सम्पूर्ण समाज ने दैविक वाणी को शीश नमाकर शुभ मुहुर्त में कार्य प्रारंभ करने का निर्णय लिया व कार्य प्रारंभ किया गया जो लगभग 19 वर्षों में बावन जिनालय का काम सम्पूर्ण होने पर वि. सं. 1955 फाल्गुन कृष्णा पंचमी गुरुवार के शुभ दिन प. पू. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी म. सा. के कर कमलों द्वारा 951 जिनबिम्बों की अंजनशालाका करवाकर इस बावन जिनालय मन्दिर की प्रतिष्ठा का कार्य सम्पन्न हुवा ।
मन्दिर बहुत ही विशाल भव्य व चमत्कारी है । कहा जाता है कि श्री गौडी पार्श्वप्रभु की प्रतिमा श्री कुमारपाल राजा के समय में श्री हेमचन्द्राचार्य द्वारा प्रतिष्ठित उन्हीं तीन प्रतिमाओं में से हैं, जो अत्यन्त प्रभाविक और चमत्कारिक सिद्ध हुई थी । कहा जाता है कि पूर्व में यह प्रतिमा चन्द्रावती नगरी में थी । अभी भी चमत्कारिक घटनाएं घटती रहती हैं ।
प्रतिवर्ष जेठ सुदी 6 को श्री शान्तिनाथ भगवान के मन्दिर में व फाल्गुन वदी 5 को श्री गौडी पार्श्वनाथ भगवान के मन्दिर में ध्वजा चढ़ती है तब भव्य मेले का आयोजन होता है ।।
अन्य मन्दिर इनके अतिरिक्त गाँव में 8 और मन्दिर व 3 दादावाड़ी व गुरु मन्दिर हैं ।
कला और सौन्दर्य 8 श्री गौड़ी पार्श्वनाथ भगवान का मन्दिर विशालता के साथ-साथ कलात्मक भी है । हर जगह विभिन्न शैली की कला नजर आती है । इस मन्दिर में तीन भमती व डबल शिखर हैं जो बहुत कम जगह देखने मिलते हैं ।
श्री शान्तिनाथ भगवान-आहोर
मार्ग दर्शन 8 नजदीक का रेल्वे स्टेशन जालोर यहाँ से 18 कि. मी. दूर है । यहाँ से जोधपुर 120 कि. मी. व फालना 55 कि. मी. दूर है । मन्दिरों तक कार व बस जा सकती हैं।
* ठहरने के लिये बस स्टेण्ड के पास सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला व यात्री भवन हैं । पास ही में जैन भोजनशाला भी हैं ।
पेढ़ी 1. श्री शांतिनाथ भगवान जैन श्वे. मन्दिर, जैन देरा की सेरी । पोस्ट : आहोर - 307 029. जिला : जालोर (राज.)
2. श्री गौडी पार्श्वनाथ भगवान जैन श्वे. मन्दिर पेढ़ी, सदर बाजार, पोस्ट : आहोर - 307 029. फोन : 02978-22409 मन्दिरजी, 22411 पिढ़ी)।
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श्री सियाणा तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री सुविधिनाथ भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण ( श्वे. मन्दिर ) ।
सियाणा शहर के पहाड़ी
तीर्थ स्थल की ओट में । प्राचीनता कृष्णावती नदी के पश्चिमी किनारे "कालो" नामक पहाड़ी की ओट में उत्तर तरफ स्थित यह सियाणा शहर पूर्वकाल में साणारा के नाम विख्यात था ।
कहा जाता है, यहाँ पर पूर्वकाल में परमार, सोलंकी, सोनगरा, चौहान आदि शासकों का शासन रहा था, परन्तु यह पता लगाना कठिन है कि इस शहर की स्थापना कब व किसने की थी ।
इस भव्य मन्दिर का निर्माण गुर्जर नरेश महाराजा कुमारपाल द्वारा वि. सं. 1214 में होकर कलिकालसर्वज्ञ आचार्य भगवंत श्री हेमचन्द्राचार्य के करकमलों द्वारा अतीव उत्साह पूर्वक प्रतिष्ठा होने का उल्लेख है ।
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लगभग उसी समय इसके पश्चात् इसी शहर के निकटतम स्थित जालोर के स्वर्णगिरि पर्वत पर भी महाराजा कुमारपाल द्वारा मन्दिर का निर्माण होकर वि. सं. 1221 में आचार्य भगवंत श्री वादीदेवसूरीश्वरजी के करकमलों द्वारा प्रतिष्ठा होने का उल्लेख है ।
उक्त विवरणों से यह सिद्ध होता है कि यह शहर उसके पूर्व ही बस चुका था व यहाँ समृद्धिशाली श्रावकों का निवास रहा होगा जिसके कारण आचार्य भगवंतों का इधर आना हुवा व कुमारपाल राजा द्वारा मन्दिरों के निर्माण होने व ऐसे प्रकाण्ड आचार्य भगवंतों के करकमलों द्वारा प्रतिष्ठा होने का सौभाग्य इस पावन भूमि को प्राप्त हुवा |
महाराजा कुमारपाल ने आचार्य भगवंत श्री हेमचन्द्राचार्य से प्रेरणा पाकर अनेकों जगह मन्दिर बनवाये व प्रतिष्ठा करवाई जिनमें कई अभी भी विद्यमान है ।
श्री जयसिंहसूरीश्वरजी द्वारा रचित श्री कुमारपाल चरित्र में भी महाराजा श्री कुमारपाल द्वारा गुर्जर, लाट, सौराष्ट्र भभेरी, कच्छ, सिंधव, उच्च, जालंधर, काशी, सपादलक्ष, अन्तर्वेदी, मरु, मेदपाट, मालव, आमीर,
श्री सुविधिनाथ जिनालय - सियाणा
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महाराष्ट्र, कर्णाटक, कोंकण आदि अनेकों स्थानों में जगह-जगह पर मन्दिर निर्मित करवाने का उल्लेख है ।
यहाँ के सम्पन्न श्रावकों द्वारा यहाँ और भी कई मन्दिरों का निर्माण अवश्य हुवा होगा परन्तु वर्तमान में स्थित मन्दिरों में यह मन्दिर प्राचीनतम माना जाता है । इस मन्दिर का लगभग सौ वर्ष पूर्व जीर्णोद्धार होकर वि. सं. 1958 माघ शुक्ला 13 गुरुवार के शुभ दिन आचार्य भगवंत गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी के करकमलों द्वारा पुनः प्रतिष्ठा होने का उल्लेख है । उसके पश्चात् भी जीर्णोद्धार होने का उल्लेख है । प्रभु प्रतिमा वही प्राचीन अभी भी विद्यमान है ।
विशिष्टता
कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य भगवंत श्री हेमचन्द्राचार्य के करकमलों द्वारा प्रतिष्ठित व महाराजा श्री कुमारपाल द्वारा निर्मित प्राचीन व भव्य मन्दिर रहने के कारण यहाँ की मुख्य विशेषता है ।
परम पूज्य आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय राजेन्द्रसुरीश्वरजी म.सा. ने विश्व विख्यात "राजेन्द्र अभिधान कोष” के लेखन कार्य का शुभारंभ वि. सं. 1946 में यहीं पर रहकर किया था ।
प्रतिवर्ष आषाढ़ कृष्णा 6 को ध्वजा चढ़ाई जाती है । अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त श्री आदिनाथ भगवान का एक और मन्दिर हैं । प्राचीन प्रभु प्रतिमा अतीव
कला और सौन्दर्य भावात्मक व कलात्मक है ।
पहाड़ी की ओट में रहने के कारण मन्दिर का दृश्य अतीव सुन्दर लगता है ।
मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन बागरा 16 कि. मी. व जालोर 36 कि. मी. है, जहाँ पर सभी प्रकार की सवारी का साधन है ।
यहाँ से सिरोही 41 कि. मी., मान्डोली 11 कि. मी., पाली 151 कि. मी., शिवगंज 67 कि. मी. दूर है । सुविधाएँ ठहरने के लिये सर्वसुविधाजनक धर्मशाला है, जहाँ भोजनशाला की भी सुविधा है । पेढ़ी श्री सुविधीनाथ मन्दिर जैन पेढ़ी, पोस्ट : सियाणा - 343024. जिला : जालोर, प्रान्त राजस्थान,
फोन : 02973-40083 (पेढ़ी),
02973-40025, 40101 पी. पी.
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श्री सुविधिनाथ भगवान - सियाणा
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श्री लाज तीर्थ
तीर्थाधिराज ॐ श्री आदीश्वर भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 55 सें. मी. (प्राचीन मूलनायक) (श्वे. मन्दिर)।
तीर्थ स्थल 8 लाज गाँव के मध्य विशाल परकोटे में ।
प्राचीनता इस मन्दिर के एक स्थंभ पर वि. सं. 1244 माघ शुक्ला 6 का लेख उत्कीर्ण है । इससे यह सिद्ध होता है कि यह मन्दिर वि. सं. 1244 के पूर्व का है । ____ अन्तिम जीर्णोद्धार वि. सं. 1977 में होकर धनारी के श्रीपूज्यजी श्री महेन्द्रसुरीश्वरजी के सुहस्ते प्रतिष्ठा संपन्न हुई । वर्तमान मूलनायक श्री पार्श्वनाथ भगवान
श्री आदीश्वर भगवान-प्राचीन मूलनायक
अन्य मन्दिर र वर्तमान में इसके अतिरिक्त कोई मन्दिर नहीं हैं ।
कला और सौन्दर्य प्रभु प्रतिमा की कला अति सौम्य व निराले ढंग की है ।
मार्ग दर्शन 8 नजदीक का रेल्वे स्टेशन सिरोही रोड़ 11 कि. मी. है, जहाँ से आटो, टेक्सी की सुविधा है। यहाँ से कोजरा 3 कि. मी. है । कार व बस मन्दिर तक जा सकती है ।
सुविधाएँ मन्दिर के निकट ही धर्मशाला है, जहाँ पर बिजली, पानी की सुविधा है । निकट के तीर्थ बामनवाइजी या नान्दिया ठहरकर यहाँ आना ज्यादा उपयुक्त है क्योंकि वहाँ पर सारी सुविधाएँ उपलब्ध है।
पेढ़ी 8 श्री जैन देरासर पेढ़ी, लाजगाँव पोस्ट : कोजरा - 307 022. तहसील : पिन्ड़वाड़ा, जिला : सिरोही, प्रान्त : राजस्थान, फोन : पी.पी - 02971-33380.
श्री आदीश्वर भगवान मन्दिर-लाज
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राप्दै २५१४ वि.सं.२०४d
म योर रत्वलभर शाशश्रीमानशेठकागत
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याविनाकारापितधि, राजन ति.दि.२६-necc
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श्री आदीश्वर भगवान-वर्तमान मूलनायक (लाज)
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श्री नाणा तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री महावीर भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 1.22 मीटर, परिकरयुक्त लगभग 1.98 मीटर (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल नाणा गाँव के मध्यस्थ ।
प्राचीनता यह तीर्थ महावीर भगवान के समय का बताया जाता है । जैसे कहा है 'नाणा, दीयाणा, नान्दिया जीवित स्वामी वान्दिया' । मन्दिर में प्राप्त वि. सं. 1017 से वि. सं. 1659 तक के शिलालेखों से प्रमाणित होता है कि यह तीर्थ सदियों तक जाहोजलालीपूर्ण रहा । लेकिन नाणा कब बसा, इसका इतिहास मिलना कठिन है ।
श्री महावीर भगवान के जीवन काल की प्रतिमा शायद जीर्णोद्धार के समय बदली गयी होगी, ऐसा प्रतीत होता है । क्योंकि वर्तमान प्रतिमा पर वि. सं. 1505 माघ कृष्णा 9 शनिवार को श्री शान्तिसूरीश्वरजी द्वारा प्रतिष्ठित किये जाने का लेख उत्कीर्ण है । लेकिन यह प्रतिमा भी बहुत ही प्रभावशाली है ।
विशिष्टता यह तीर्थ प्रभु वीर के समय का माना जाने के कारण इसकी महान विशेषता है । नाणक्यगच्छ का उत्पत्ति स्थान यही है । इस गच्छ की उत्पत्ति वि. की बारहवीं सदी से पूर्व हुई होगी, ऐसा उल्लेखों से ज्ञात होता है । यह बामणवाड़ा पंचतीर्थी का एक तीर्थ स्थान माना जाता है । अमरसिंह मायावीर राजा ने त्रिभुवन मंत्री के वंशज श्री नारायण मूता को नाणा गांव भेंट दिया था । नारायण ने एक साहराव नाम का अरट भगवान की पूजा सेवा के लिए मन्दिर को भेट दिया था । उस समय उपकेशगच्छीय आचार्य श्री सिंहसूरि विद्यमान थे । शिलालेख पर वि. सं. 1659 भादवा शुक्ला 7 का लेख उत्कीर्ण है। उक्त अरट अभी भी जैन संघ के आधीन है । प्रतिवर्ष जेठ वदी 6 को ध्वजा चढ़ाई जाती हैं ।
अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त एक और मन्दिर हैं ।
कला और सौन्दर्य प्रभु प्रतिमा की कला अति ही आकर्षक व हँसमुख है और सहज ही में मन को मोह लेती है । प्रतिमा के आसपास तोरण की कला दर्शनीय है । यहाँ पर प्राचीन नन्दीश्वरद्वीप का पाषाण पट्ट कलात्मक है । पट्टपर वि. सं. 1274 का लेख उत्कीर्ण है ।
मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन नाणा 2 कि. मी. है, जहाँ से आने के लिए आटो की सुविधा है। मन्दिर से बस स्टेण्ड की दूरी सिर्फ 100 मीटर है । बामनवाड़ से नाणा 25 कि. मी. दूर है । सिरोही रोड़, पिन्डवाड़ा होकर जाना पड़ता है ।। __ सुविधाएँ 08 ठहरने के लिए धर्मशाला है, जहाँ पानी, बिजली, बर्तन व ओढ़ने-बिछाने के वस्त्रों की सुविधा है ।
पेढ़ी श्री वर्धमान श्वेताम्बर जैन पेढ़ी, नाणा तीर्थ पोस्ट : नाणा - 306 504. तहसील : बाली, जिला : पाली, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 02933-45499.
श्री महावीर भगवान मन्दिर-नाणा
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४) महावीरगवान
श्री जीवितस्वामी भगवान महावीर-नाणा
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श्री काछोली तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री कछलिका पार्श्वनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 90 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल काछोली गाँव के मध्यस्थ ।।
प्राचीनता मन्दिर में उपलब्ध शिलालेखों से प्रतीत होता है कि इसका प्राचीन नाम कछुलिका था। मूलनायक भगवान के परिकर की गादी पर वि. सं. 1343 का लेख उत्कीर्ण है । यह तीर्थ उससे भी पूर्व का माना जाता है ।
विशिष्टता काछोलीवाल गच्छ का उत्पत्ति स्थान यही है । प्रतीत होता है किसी समय यह नगर जाहोजलालीपूर्ण था व सुसम्पन्न श्रावकों के सहस्रों कुटुम्बों से आबाद था । । प्रतिवर्ष मागशीर्ष शुक्ला 10 को ध्वजा चढ़ती है ।
अन्य मन्दिर वर्तमान में यहाँ इसके अतिरिक्त कोई मन्दिर नहीं हैं ।
मार्ग दर्शन नजदीक का रेल्वे स्टेशन स्वरूपगंज 5 कि. मी. है, जहाँ से टेक्सी, आटो की सुविधा है। स्वरूपगंज में महावीर भवन में भी गाड़ी का साधन है। मन्दिर तक कार व बस जा सकती है । __ सुविधाएँ ठहरने के लिए धर्मशाला है, जहाँ पर पानी, बिजली की सुविधा है । परन्तु वर्तमान में स्वरूपगंज (महावीर भवन) में ठहरकर आना ज्यादा सुविधाजनक है, जहाँ सभी सुविधाएँ उपलब्ध है ।
पेढ़ी ॐ श्री काछोली जैन संघ, पोस्ट : काछोली - 307 023. स्टेशन : स्वरूपगंज, जिला : सिरोही, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 02971-42512 पी.पी.
श्री कछुलिका पार्श्वनाथ जिनालय-काछोली
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श्री कछुलिका पार्श्वनाथ भगवान-काछोली
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श्री मुनिसुव्रत स्वामीजी भगवान - वर्तमान मूलनायक
शिलालेख था । जीर्णोद्धार के समय शायद शिलालेख कहीं रह गया होगा । अतः यह तीर्थ बारहवीं शताब्दी पूर्व का माना जाता है । वर्तमान मूलनायक भगवान की प्रतिमा पर कोई लेख उत्कीर्ण नहीं है । अनुमानित पहिले यहाँ के मूलनायक श्री पार्श्वनाथ भगवान होंगे। जीर्णोद्धार के समय किसी वक्त श्री संभवनाथ प्रभु की यह प्रतिमा प्रतिष्ठित की गयी हागी । अभी भी पुनः जीर्णोद्धार हुवा है । अभी मूलनायक श्री मुनिसुव्रतस्वामी
भगवान है । श्री संभवनाथ भगवान मन्दिर-कोजरा
विशिष्टता उल्लेखित शिलालेखों से प्रतीत होता है कि यहाँ के राव राणा को जैन धर्म के प्रति अटल श्रद्धा थी । तभी तो वि. सं. 1224 में हुए जीर्णोद्धार में उन्होंने भी भाग लिया था ।
अन्य मन्दिर वर्तमान में यहाँ इसके अतिरिक्त तीर्थाधिराज 8 श्री संभवनाथ भगवान, श्वेत
___कोई मन्दिर नहीं हैं । वर्ण, (प्राचीन मूलनायक) पद्मासनस्थ, लगभग 75
कला और सौन्दर्य मन्दिर निर्माण का कार्य सें. मी. (श्वे. मन्दिर)।
अति ही सुन्दर ढंग से हुआ है । प्रभु प्रतिमा अति ही तीर्थ स्थल कोजरा गाँव के मध्यस्थ ।
प्रभावशाली व सुन्दर है । प्राचीनता मन्दिर में गूढमण्डप के एक स्थंभ
मार्ग दर्शन 8 नजदीक का रेल्वे स्टेशन सिरोही पर वि. सं. 1224 में राणा रावसी द्वारा श्री पार्श्वनाथ रोड़ 8 कि. मी. है, जहाँ से आटो, टेक्सी का साधन भगवान के मन्दिर में स्थंभ निर्मित करवाने का 418
श्री कोजरा तीर्थ
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श्री संभवनाथ भगवान-प्राचीन मूलनायक (कोजरा)
है। यहाँ का बस स्टेशन मन्दिर से करीब 200 मीटर पेढ़ी श्री मुनिसुव्रतस्वामी जैन श्वेताम्बर ट्रस्ट, दूर है । कार व बस मन्दिर तक जा सकती है । पोस्ट : कोजरा - 307022. तहसील : पिन्ड़वाड़ा,
सुविधाएँ ठहरने के लिए धर्मशाला है, जहाँ जिला : सिरोही, प्रान्त : राजस्थान, बिजली व पानी का साधन हैं ।
फोन : 02971-33380 पी.पी.
02971-33305 पी.पी.
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श्री पिन्डवाड़ा तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री महावीर भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल पिन्डवाडा गाँव के मन्दिर मोहल्ले में ।
प्राचीनता इसका प्राचीन नाम पिन्डरवाटक रहने का उल्लेख मिलता है । विश्वविख्यात राणकपुर मन्दिर के निर्माता श्री धरणाशाह के पिता धनाढ्य श्रेष्ठी श्री कुंवरपाल व मंत्रीश्वर लीबा द्वारा वि. सं. 1465 फाल्गुन शुक्ला प्रतिपदा को इस मन्दिर का उद्धार करवाने का उल्लेख इस मन्दिर में नवचौकी के दीवार पर अंकित है। वि. सं. 1469 माघ शुक्ला 6 के शुभ दिन श्रेष्ठी श्री कुंवरपाल के पुत्र श्री रत्नाशाह व धरणाशाह द्वारा इस मन्दिर में एक प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाने व अधूरा कार्य पूर्ण करवाने का उल्लेख है। इसी मन्दिर में एक प्रतिमा पर वि. सं. 1229 का लेख उत्कीर्ण है । प्रतीत होता है कि यह तीर्थ विक्रम की बारहवीं सदी से पूर्व का है । यहाँ के अन्तिम
जीर्णोद्धार के समय प्रतिष्ठा आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी की पावन निश्रा में हुवे का उल्लेख है ।
विशिष्टता वसन्तगढ़ ध्वंस होने पर वहाँ से लायी गयी प्राचीन गुप्तकालीन अद्वितीय कलात्मक धातु प्रतिमाओं के दर्शन का लाभ यहीं पर मिल सकता है। ये प्रतिमाएँ सातवीं, आठवीं सदी की है । गुढ़ मण्डप में कायोत्सर्ग मुद्रा में दो भव्य धातु प्रतिमाएँ हैं, जिनमें एक पर वि. सं. 744 का लेख उत्कीर्ण है । प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ला 6 को ध्वजा चढ़ती है।
अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त यहाँ चार और मन्दिर हैं ।
कला और सौन्दर्य मन्दिर निर्माण का कार्य तो अति ही सुन्दर ढंग से किया हुआ है ही, साथ ही इस मन्दिर में गुप्तकालीन प्राचीन प्रभु प्रतिमाओं की कला का बेजोड़ नमूना है । भाँति-भाँति की कलापूर्ण प्राचीन धातु प्रतिमाएँ अति ही दर्शनीय हैं । ऐसी प्रतिमाओं के दर्शन अन्यत्र दुर्लभ हैं । इन प्रतिमाओं का जितना वर्णन करें कम है । भक्तजन यहाँ के दर्शन का मौका न चूकें ।
श्री महावीर जिनालय-पिण्डवाड़ा
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श्री महावीर भगवान-पिण्डवाड़ा
मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन सिरोही रोड़ आठ कि. मी. है। जहाँ पर टेक्सी, आटो का साधन है। यहाँ का बस स्टेण्ड मन्दिर से करीब 200 मीटर है । मन्दिर तक कार जा सकती है । रास्ता तंग रहने के कारण बस 200 मीटर दूर ठहरा पड़ती है । यह स्थान माउन्ट आबू से 75 कि. मी. आबू रोड़ से 50 कि. मी., दियाणा तीर्थ से 50 कि. मी., नाणा तीर्थ से 20 कि. मी., नान्दिया तीर्थ से 14 कि. मी., बामनवाइजी तीर्थ से 8 कि. मी. व अजारी
से 3 कि. मी. दूर है ।
सुविधाएँ ठहरने के लिए स्टेशन के सामने एक व गाँव में दूसरी विशाल सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला है, जहाँ पर भोजनशाला की सुविधा भी उपलब्ध हैं । पेढ़ी श्री कल्याणजी शोभाचंदजी जैन श्वेताम्बर पेढ़ी, जैन मन्दिर मार्ग ।
पोस्ट
पिन्डवाड़ा 307022.
सिरोही, प्रान्त राजस्थान,
जिला फोन : 02971-20028.
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श्री हंडाउद्रा तीर्थ
वहाँ भूतल से प्रकटित आदिनाथ प्रभु की श्याम वर्ण अतीव भव्य व प्राचीन प्रतिमा है जो अभी भी वहाँ
विराजमान है । तीर्थाधिराज श्री आदीश्वर भगवान, श्वेतवर्ण, प्रायः पर्वत पर गांव बसने के पूर्व उसकी तलहटी पद्मासनस्थ, लगभग 35 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) । में गांव अवश्य रहता है या बसता है परन्तु यह गांव
तीर्थ स्थल आबू पर्वत की प्राचीन तलहटी कब व किसने बसाया उसका उल्लेख नहीं है । लेकिन अणादरा गाँव में ।
यहाँ भी हजारों वर्ष पूर्व भूभीगत हुवे मन्दिर व प्राचीनता आज का अणादरा गांव प्राचीनकाल प्रातमाआ क कलात्मक भग्नावशष अ
प्रतिमाओं के कलात्मक भग्नावशेष अभी भी जगह-जगह में हन्डाउद्रा, हणादरा आदि नामों से विख्यात था ।
निकलते आ रहे हैं जो यहाँ की प्राचीनता व भव्यता अरावली पर्वत की एक मुख्य चोटी, जो सदियों से को सिद्ध करते हैं । इससे यह भी प्रतीत होता है कि अर्बुदाचल के नाम से विख्यात है व सहस्रों वर्ष पूर्व किसी समय यह एक विराट नगर होगा व अनेकों से ऋिषि मुनियों की तपोभूमी रही है, उसकी तलहटी मन्दिर रहे होंगे । का यह गांव था । इसी रास्ते पर्वत पर आना-जाना
आज यहाँ यही एक मन्दिर है जिसके निर्माता व होता था ।
निर्माण काल का पता नहीं परन्तु प्रभु प्रतिमा अतीत अर्बुदाचल पर विश्व विख्यात देलवाड़ा जैन मन्दिरों
सौम्य व सम्प्रतिकालीन है । के निर्माण पूर्व भी वहाँ जैन मन्दिरों के रहने का प्रमाण
इस मन्दिर का अन्तीम जीर्णोद्धार लगभग तीन वर्ष पूर्व होने का उल्लेख है । प्रतिमाएँ वही प्राचीन है।
विशिष्टता 8 यहाँ की प्राचीनता ही इस तीर्थ की मुख्य विशेषता है ।
अर्बुदाचल पर्वत पर जाने हेतु यही रास्ता था अतः पहाड़ पर चढ़ते व उतरते वक्त यहीं ठहरना पड़ता था। राजा-महाराजाओं ने भी अपनी-अपनी कोठियाँ यहाँ बना रखी थी । आबू पर्वत की प्राचीन मुख्य तलहटी रहने के कारण भी यहाँ की विशेषता है ।
यह मन्दिर व प्रतिमा भी सम्प्रति कालीन मानी जाती है । मूर्ति पर कोई लेख उत्कीर्ण नहीं है । ___ योगीराज विजय श्री शांतीसूरीश्वरजी आचार्य भगवंत जो आबू के योगीराज के नाम आज भी विख्यात है, इसी रास्ते से अचलगढ़-देलवाड़ा जाया-आया करते थे। यहाँ पर कई वर्षों तप-जप करते रहे, वह स्थान आज भी विद्यमान है । _ वि. सं. 1996 माघ शुक्ला पंचमी को उनका स्वर्ण जयन्ति समारोह अतीव धूमधाम से मनाया गया था। उस अवसर पर पण्डित किंकरदास ने भजनों की पुस्तक समर्पित की थी जो आज भी भक्तों द्वारा उपयोग में ली जा रही है ।
कई वर्षों से यहाँ से पर्वत पर जाने का रास्ता
सुगमता पूर्वक नहीं रहा था । अब फिर से ठीक कर श्री आदीश्वर जिनालय-हंडाऊद्रा
दिया गया है लेकिन अभी तक कार व बस जा सके 422
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वैसा नहीं है । आजकल कभी कभी पैदल यात्रा संघ इधर से जाया करते हैं ।
अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त अन्य कोई मन्दिर नहीं है । हाल ही में यहाँ से 3 कि. मी. दूर श्री भेरव तारक धाम व लगभग 18 कि. मी. पर श्री पावापुरी, नवीन तीर्थों का निर्माण हुवा है । __ कला और सौन्दर्य यहाँ की प्रतिमाएँ अतीव मनमोहक व चमत्कारिक है । नेमिनाथ प्रभु की एक श्याम वर्ण प्रतिमा कसौटी पाषाण की निकट की नदी में से प्रकट हुई थी जो अतीव दर्शनीय है । ___ मार्ग दर्शन 8 नजदीक का रेल्वे स्टेशन आब रोड 44 कि. मी. दूर है, जहाँ से आटो व टेक्सी की
श्री आदीश्वर भगवान-हंडाऊद्रा
स्टेण्ड 1/2 कि. मी. दूर है । गांव में आटो की सवारी का साधन है । नजदीक का हवाई अड्डा उदयपुर व अहमदाबाद 200 कि. मी. दूर है ।
सुविधाएँ ठहरने हेतु सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला हैं, परन्तु फिलहाल भोजनशाला की सुविधा नहीं है । __ यहाँ से 3 कि. मी. दूरी पर नवनिर्मित श्री भेख तारक धाम एवं 18 कि. मी. दूरी पर पावापुरी तीर्थ हैं, जहाँ पर भोजनशाला व सर्वसुविधायुक्त धर्मशालाएँ हैं ।
पेढ़ी 8 श्री आदीश्वर जैन श्वेताम्बर पेढ़ी, पोस्ट : अनादरा - 307 511. जिला : सिरोही (राज.) फोन : 02975-44232. पी.पी. 02975-44209.
श्री नेमिनाथ भगवान-प्राचीन प्रतिमा
सुविधा है । यहाँ से सिरोही 36 कि. मी. मन्डार 30 कि. मी. वरमाण 25 कि. मी. जीरावला 14 कि. मी. व बामनवाड़ा 42 कि. मी. दूर है । सभी जगहों पर आटो, टेक्सी का साधन है । मन्दिर तक पक्की सड़क है, बस व कार जा सकती है। यहाँ का बस
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श्री घवली तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री महावीर भगवान, पद्मासनस्थ, ( श्वे. मन्दिर ) ।
घवली गाँव के मध्य ।
तीर्थ स्थल प्राचीनता इस तीर्थ की प्राचीनता लगभग तेरहवीं सदी के पूर्व की मानी जाती है क्योंकि आबू के देलवाड़ा - लूणवसही मन्दिर की व्यवस्था में वि. सं. 1287 में यहाँ के श्रावकों द्वारा भाग लेने का उल्लेख है अतः यह स्पष्ट होता है कि उस समय यह गांव भी जाहोजलालीपूर्ण था एवं अनेकों जैन श्रावकों के घर
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श्री महावीर भगवान मन्दिर - घवली
थे। इससे यह भी सिद्ध होता है कि उस समय यहाँ भी मन्दिर अवश्य होंगे ही ।
इस मन्दिर का कब व किसने निर्माण करवाया उसका पता लगाना कठिन है प्रभु प्रतिमा पर कोई लेख उत्कीर्ण नहीं है परन्तु प्रभु प्रतिमा की शिल्पाकृति से ही यहाँ की प्राचीनता व भव्यता सिद्ध हो जाती है।
मन्दिर अतीव प्राचीन है । इसका अंतिम जीर्णोद्धार आबुगोड समाज मीरपुर भोजनशाला ट्रस्ट द्वारा करवाया गया व आचार्य पद्मसुरिजी के सुहस्ते 6 वर्ष पूर्व प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई । प्रतिमा वही प्राचीन है । विशिष्टता यहाँ की प्राचीनता व प्रभु प्रतिमा की भव्यता ही यहाँ की विशेषता हैं ।
वर्तमान में इसके अतिरिक्त कोई
अन्य मन्दिर मन्दिर नहीं हैं ।
कला और सौन्दर्य प्रभु प्रतिमा की कला अतीव दर्शनीय है ऐसी अलौकिक व भावात्मक प्रतिमा के दर्शन अन्यत्र दुर्लभ है ।
मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन आबूरोड़ लगभग 25 कि. मी. दूर है । जहाँ पर सभी प्रकार की सवारी का साधन है । मन्दिर तक कार व बस जा सकती है । हवाई अड्डा अहमदाबाद व उदयपुर 200 कि. मी. है। यहाँ का बस स्टेण्ड दोलपुरा 4 कि. मी. है ।
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सुविधाएँ ठहरने हेतु वर्तमान में मन्दिर के निकट ही धर्मशाला हैं, जहाँ बिजली, बर्तन, बिस्तर आदि की सुविधा है । कायमी भोजनशाला नहीं है । परन्तु पूर्व कहने पर व्यवस्था हो सकती है ।
पेढ़ी श्री महावीर स्वामी जैन श्वे. तीर्थ घवली पोस्ट : घवली, व्हाया रेवदर, स्टेशन आबू रोड़,
जिला सिरोही, प्रान्त
राजस्थान,
फोन : 02975-66689.
व्यवस्थापक : आबुगोड़ समाज मीरपुर तीर्थ जैन भोजनशाला ट्रस्ट, गाँव : मीरपुर, पोस्ट सिन्दरथ - 307001. जिला : सिरोही,
फोन : 02972-86737.
पी.पी. 02975-56635.
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श्री महावीर भगवान-घवली
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श्रंगार चौकी के साथ बिना पबासन व बिना किसी श्री दंताणी तीर्थ
प्रतिमाओं के जीर्ण हालत में खण्डहरसा कई वर्षों से
था। संभवतः किसी भय या अन्य कारणवश प्रतिमाएं तीर्थाधिराज श्री सीमंधर स्वामी भगवान, स्थानान्तर कर दी गई होगी । उक्त मन्दिर कब व पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण, लगभग 67 सें. मी. किसने बनाया था उसका पता नहीं । हो सकता है (श्वे. मन्दिर) ।
ऊपर उल्लेखित प्रभु श्री पार्श्वनाथ भगवान का मन्दिर तीर्थ स्थल दताणी गाँव में ।
ही हो । प्राचीनता आज का दताणी गाँव पूर्वकाल में उक्त उल्लेखित भव्य मन्दिर का पुनः जीर्णोद्धार दंताणी के नाम विख्यात था ।
करवाकर वि. सं. 2042 में प. पू. अंचलगच्छाधिपति यहाँ की प्राचीनता ग्यारहवीं सदी के पूर्व की मानी
आचार्य भगवंत श्री गुणसागरसूरीश्वरजी की पावन जाती है ।
निश्रा में प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई ।
विशिष्टता ___ अंचलगच्छ के संस्थापक आर्य रक्षितसूरीश्वरजी म.
यहाँ की प्राचीनता के साथ प. सा. का जन्म इसी पावन भूमी में वि. सं. 1136 में
पूज्य आचार्य भगवंत अंचलगच्छ के संस्थापक श्री आर्य होने का उल्लेख है ।
रक्षितसुरीश्वरजी म. सा. की यह जन्म भूमी रहने के
कारण भी यहाँ की विशेषता है। ___ आचार्य श्री जयसिंहसूरिजी ने वि. सं. 1141 में यहाँ पदार्पण कर इस भूमी को पावन बनाया था अतः
चरम तीर्थंकर श्री महावीर भगवान का इस क्षेत्र में उस समय यहाँ कई श्रावकों के घर अवश्य रहे होंगे
भी पदार्पण होने का उल्लेख है जो यहाँ की मुख्य अन्यथा आचार्य भगवंत के यहाँ पदार्पण का सवाल ही
विशेषता है । नहीं उठता ।
इधर-उधर विखरे प्राचीन भग्यनावशेषों से पता वि. सं. 1298 के एक शिलालेख में यहाँ श्री
लगता है कि किसी समय यह एक जाहोजलालीपूर्ण पार्श्वनाथ भगवान का भव्य मन्दिर रहने का उल्लेख है।
भव्य नगर रहा होगा । अतः वह मन्दिर उससे प्राचीन तो था ही परन्तु उसका अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त कोई निर्माण कब व किसने कराया था जिसका पता नहीं है। अन्य मन्दिर नहीं है ।
यहाँ पर श्वेत पाषाण से निर्मित विशाल व भव्य कला और सौन्दर्य मन्दिर में सभी प्रतिमाएँ मन्दिर मूल गंभारे, गूढ मण्डप, छचौकी, सभा मण्डप. अतीव सुन्दर व कालात्मक है ।
श्री सीमंधर स्वामी मन्दिर-दंताणी
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भगवान श्री सीमंधर स्वामी-दंताणी
मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन आबू रोड़ 25 कि. मी. दूर है । जहाँ पर हर तरह की सवारी का साधन है । यहाँ का बस स्टेण्ड 1/2 किमी. दूर है । मन्दिर तक कार व बस जा सकती है।
सुविधाएँ ठहरने हेतु सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला, अतिथी भवन है । जहाँ पर भोजनशाला की भी
व्यवस्था है । भाता भी दिया जाता हैं ।
पेढ़ी श्री आर्यरक्षित जैन श्वे. तीर्थ दंताणी पोस्ट : दताणी - 307 0 26. व्हाया : आबूरोड़, जिला : सिरोही (राजस्थान), तालुक : रेवदर, फोन : 02975-66611.
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कुटुम्बीजनों ने मन्दिर का निर्माण करवाकर वि. सं. श्री भान्डवाजी तीर्थ
1233 माघ शुक्ला 5 के शुभ दिन प्रतिष्ठापना
करवाई। आज भी उनके वंशजों की ओर से प्रतिवर्ष तीर्थाधिराज श्री महावीर भगवान, श्वेत वर्ण, ध्वजा चढ़ती है। अभी भी यह चमत्कारिक स्थल माना पद्मासनस्थ, लगभग 60 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) । जाता है व हजारों जैन व जैनेतर यहाँ की मानता रखते तीर्थ स्थल छोटे से भान्डवपुर गाँव के बाहर।
हैं । उनके कथनानुसार उनका मनोरथ पूर्ण होता है । प्राचीनता प्रतीत होता है किसी वक्त यह एक
प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ला 13 से पूर्णिमा तक व कार्तिक विराट नगरी थी । वि. सं. 813 मार्गशीर्ष शुक्ला
पूर्णिमा को मेला लगता है । तब हजारों भक्तगण सप्तमी को वेसालगाँव में प्रतिष्ठित हुई इस भव्य ।
__ आकर प्रभु भक्ति में तल्लीन होते हैं । प्रतिमा को यहाँ वि. सं. 1233 माघ शुक्ला 5 के दिन
__ अन्य मन्दिर वर्तमान में यहाँ इसके अतिरिक्त पुनः प्रतिष्ठित किया गया । वि. सं. 1340 पौष शुक्ला ।
___एक गुरु मन्दिर हैं । 9 के दिन जीर्णोद्धार पश्चात् पुनः प्रतिष्ठित किये जाने ____ कला और सौन्दर्य एकान्त जंगल में विशाल का उल्लेख है ।
परकोटे के मध्य स्थित इस प्राचीन भव्य बावनजिनालय विशिष्टता यह प्राचीन तीर्थ स्थल तो है ही. के मन्दिर में प्रभु प्रतिमा की कला अति ही आकर्षक उसके साथ चमत्कारिक स्थल भी है । प्रभु प्रतिमा का है । चमत्कार विख्यात है । कहा जाता है वेसाला नगर में मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक के रेल्वे स्टेशन जब सत्तारूढ़ आक्रमणकारियों का आक्रमण शुरु हुआ, जालोर 56 कि. मी. विशनगढ़ 40 कि. मी. मोदरा तब वहाँ मन्दिर को भी भारी क्षति पहुंची थी । इस 35 कि. मी. व भीनमाल 50 कि. मी. दूर है । इन प्रभु प्रतिमा को कोमता ग्रामवासी संघवी पालजी अपने सभी जगहों से बस व टेक्सी की सुविधा है। बस व गाड़े में विराजमान करके गाँव कोमता की ओर चले, कार आखिर मन्दिर तक जा सकती है । लेकिन गाड़ा कोमता न जाकर मेगलवा होता हुआ
888 ठहरने के लिए मन्दिर के अहाते में भान्डवा आकर रुक गया । संघवी पालजी को स्वप्न ही सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला है, जहाँ पर भोजनशाला में यहीं मन्दिर बनवाकर प्रतिमा को प्रतिष्ठित करवाने व भाते की सुविधा उपलब्ध हैं । का संकेत मिला । तदनुसार संघवी पालजी व उनके
पेढी श्री महावीर जैन श्वेताम्बर पेढ़ी, भाण्डवपुर तीर्थ, गाँव : भाण्डवपुर, पोस्ट : मेगलवा - 343 022. जिला : जालोर, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 02977-66689.
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श्री महावीर जिनालय-भाण्डवाजी
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श्री महावीर भगवान-भाण्डवाजी
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श्री स्वर्णगिरि तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री महावीर भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 100 सें. मी. (श्वे. मन्दिर ) । तीर्थ स्थल जालोर शहर के समीप स्वर्णगिरि पर्वत पर जालोर दुर्ग में । प्राचीनता यह स्वर्णगिरि प्राचीन काल में कनकाचल नाम से विख्यात था । किसी समय यहाँ अनेकों करोड़पति श्रावक रहते थे । तात्कालीन जैन राजाओं ने 'यक्षवसति' व अष्टापद आदि जैन मन्दिरों का निर्माण करवाया था, ऐसा उल्लेख मिलता है । उल्लेखानुसार विक्रम सं. 126 से 135 के दरमियान राजा विक्रमादित्य के वंशज श्री नाहड़ राजा द्वारा इसका निर्माण हुआ होगा । ऐसा प्रतीत होता है ।
श्री मेरुतुंग सूरिजी द्वारा रचित 'विचार श्रेणी' में व लगभग तेरहवीं सदी में श्री महेन्द्र सूरीश्वरजी द्वारा रचित 'अष्टोत्तरी तीर्थमाला' में भी इसका उल्लेख मिलता है । 'सकलार्हत् स्तोत्र' में भी इसका कनकाचल के नामसे उल्लेख है । कुमारपाल राजा द्वारा वि. सं. 1221 में 'यक्षवसति' मन्दिर के उद्धार करवाने का उल्लेख है ।
स्वर्णगिरि में कुमारपाल राजा द्वारा निर्मित श्री पार्श्वनाथ भगवान के मन्दिर 'कुमारविहार' की प्रतिष्ठा सं. 1221 में श्री वादीदेवसूरिजी के सुहस्ते सम्पन्न होने का उल्लेख है । वि. सं. 1256 में श्री पूर्णचन्द्रसूरिजी द्वारा मन्दिर में तोरण की प्रतिष्ठा, वि. सं. 1265 में मूलशिखर पर स्वर्णदण्ड व वि. सं. 1268 में संस्कृत भाषा में 7 द्वात्रिशिका के रचयिता श्री रामचन्द्रसूरिजी द्वारा प्रेक्षामध्यमण्डप पर स्वर्णमय कलश की प्रतिष्ठा करवाने का उल्लेख है । वि. सं 1681 में स्वर्णगिरि पर सम्राट अकबर के पुत्र जहाँगिर के समय में यहाँ के राजा श्री गजसिंहजी के मंत्री मुहणोत श्री जयमलजी द्वारा एक जिन मन्दिर बनवाने व अन्य सारे मन्दिरों के जीर्णोद्धार करवाने का उल्लेख है । मंत्री श्री जयमलजी की धर्मपत्नियां श्रीमती सरूपद व सोहागद द्वारा भी अनेकों प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करवाने का उल्लेख है, जिनमें से कई प्रतिमाएँ विद्यमान है । श्री महावीर भगवान के इस मन्दिर का जीर्णोद्धार मंत्री श्री जयमलजी द्वारा करवाकर
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श्री जयसागर गणिजी के सुहस्ते प्रतिष्ठा करवाने का उल्लेख है । कहा जाता है यही 'यक्षवसति' मन्दिर है जिसका श्री कुमारपाल राजा ने भी पहिले उद्धार करवाया था । अन्तिम उद्धार श्री विजयराजेन्द्रसूरिजी के उपदेश से सम्पन्न हुआ था ।
स्वर्णगिरि की तलहटी में जाबालिपुर (जालोर) भी वक्रम की लगभग दूसरी सदी में बसे का उल्लेख मिलता है । विक्रम सं. 835 में जाबालिपुर में श्री आदिनाथ भगवान के मन्दिर में आचार्य श्री उद्योतनसूरिजी द्वारा 'कुवलयमाला' ग्रंथ की रचना पूर्ण करने का उल्लेख है । उस समय यहाँ अनेकों मन्दिर थे । उनमें अष्टापद नाम का एक विशाल मन्दिर था । इसका वर्णन आबू के लावण्यवसहि मन्दिर में वि. सं. 1296 के शिलालेख में भी है ।
वि. सं. 1293 में राजा श्री उदयसिंहजी के मंत्री दानवीर, विद्वान व शिल्प विद्या में निष्णांत, श्री यशोवीर द्वारा श्री आदिनाथ भगवान के मन्दिर में अद्भुत कलायुक्त मंडप निर्मित करवाने का उल्लेख है ।
खतरगच्छ गुर्वावली के अनुसार राजा श्री उदयसिंह के समय वि. सं. 1310 के वैशाख शुक्ला 13 शनिवार स्वातिनक्षत्र में श्री महावीर भगवान के मन्दिर में चौबीस जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा महोत्सव अनेकों राजाओं व प्रधान पुरुषों के उपस्थिति में महामंत्री श्री जयसिंहजी के तत्वाधान में अति ही उल्लासपूर्वक सम्पन्न हुवा था । उस अवसर पर पालनपुर, वागड़देश आदि जगहों के श्रावकगण इकट्ठे हुए थे ।
वि. सं. 1342 में श्रीसामन्तसिंह के सान्निध्य में अनेकों जिन प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित किये जाने का उल्लेख है । वि. सं 1371 ज्येष्ठ कृष्णा 10 के दिन आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरिजी के विद्यमानता में दीक्षा व मालारोपण उत्सव हुए का उल्लेख है । इसके बाद अलाउद्दीन खिलजी द्वारा यहाँ के मन्दिरों को भारी क्षति पहुंची व कलापूर्ण अवशेष आदि मस्जिदों आदि में परिवर्तित किये गये जिनके आज भी कुछ नमूने नजर आते हैं। कुछ पर प्राचीन जैन शिलालेख भी उत्कीर्ण हैं । वि. सं. 1651 में यहाँ मन्दिरों के होने का उल्लेख मिलता है । आज यहाँ कुल 12 मन्दिर हैं ।
विशिष्टता वि. की दूसरी शताब्दी से लगभग आठारहवीं शताब्दी तक यहाँ के जैन राजाओं, मंत्रियों व श्रेष्ठियों द्वारा किये धार्मिक व सामाजिक कार्य
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श्री महावीर भगवान-स्वर्णगिरी (जालोर)
उल्लेखनीय है जिनका वर्णन करना शब्दों में संभव नहीं ।
यहाँ के उदयसिंह राजा के मंत्री यशोवीर ने वि. सं. 1287 में मंत्रीश्वर श्री वस्तुपाल तेजपाल द्वारा शोभनसूत्रधारों से निर्माणित आबू के लावण्यवसहि मन्दिर के प्रतिष्ठा महोत्सव में भाग लिया था । उस समय अन्य 84 राजा, अनेकों मंत्री व प्रमुख व्यक्ति हाजिर थे । यशोवीर शिल्पकला में निष्णात विद्वान होने के कारण इस अद्भुत मन्दिर में भी 14 भले बताई
थी, जिसपर उनकी विद्वता व अन्य गुणों की भारी प्रशंसा हुई थी । वि. सं 1741 में यहाँ के मंत्री मुणहोत जयमलजी के पुत्र श्री नेणसी जोधपुर के महाराजा श्री जसवंतसिंहजी के दीवान थे, जिन्होंने अपनी दिवानगिरि में भारी कुशलता दिखायी थी, जिसपर 'नेणसीजी री ख्यात' की रचना हुई जो कि आज भी जनसाधारण में प्रचलित है । इस तीर्थ के तीर्थोद्धारक प. पू. राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. की भी यह साधना भूमि हैं ।
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अन्य मन्दिर इसके अतिरिक्त स्वर्णगिरि पर्वत जगहों से बस व टेक्सी की सुविधा है। किले पर पर किले में 4 मन्दिर एक गुरु मन्दिर व इसकी स्थित इस मन्दिर से तलहटी 272 कि. मी. व तलहटी तलहटी जालोर में 12 मन्दिर अभी विद्यमान है। किले से जालोर रेल्वे स्टेशन 3 कि. मी. है जहाँ से तलहटी पर चौमुखजी मन्दिर व पार्श्वनाथ मन्दिर प्राचीन हैं, तक आने के लिए आटो व टेक्सी का साधन जिन्हें अष्ठापदावतार मन्दिर व कुमार विहार मन्दिर उपलब्ध है । पहाड़ पर वयोवृद्ध यात्रियों के जाने के भी कहते हैं । जालोर में श्री नेमीनाथ भगवान के लिए डोली का साधन है । मन्दिर में वि. सं. 1656 में प्रतिष्ठित अकबर
एँ ठहरने के लिए गाँव में कंचनगिरि प्रतिबोधक श्री विजयहीरसूरीश्वरजी की गुरुमूर्ति है । विहार धर्मशाला व नन्दीश्वर द्वीप मन्दिर की धर्मशाला नवनिर्मित श्री नन्दीश्वर द्वीप मन्दिर अति ही सुन्दर है, जहाँ पर बिजली, पानी, बर्तन, ओढ़ने-बिछाने के बना हुआ है।
वस्त्र व भोजनशाला की सुविधा उपलब्ध हैं । दुर्ग पर कला और सौन्दर्य समुद्र की सतह से भी मन्दिर के निकट ही भोजनशाला सहित लगभग 1200 फुट ऊँचे पर्वत पर 272 कि. मी. लम्बे सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला व मुनि भगवन्तों के लिए व 174 कि. मी. चौड़े प्राचीन किले के परकोटे में उपाश्रय की सुविधा है । मन्दिरों का दृश्य अति ही सुहावना लगता है, जो कि पेढ़ी 8 श्री स्वर्णगिरि जैन श्वेताम्बर तीर्थ, पूर्व सदियों की याद दिलाता है । यहाँ मन्दिरों व (जालोर दूर्ग) कार्यालय :- कचनगिरि विहार धर्मशाला मस्जिदों में अनेकों प्राचीन प्रतिमाएँ व कलात्मक पुराने बस स्टेण्ड के सामने। अवशेष आज भी दिखायी देते हैं ।
पोस्ट : जालोर - 343 001. मार्ग दर्शन यहाँ से भाण्डवपुर तीर्थ 56 कि. जिला : जालोर, प्रान्त : राजस्थान, मी. राणकपुर लगभग 100 कि. मी. नाकोड़ाजी तीर्थ फोन : 02973-32316 (दूर्ग आफिस) लगभग 100 कि. मी. जोधुपर 140. कि. मी. व
02973-32386 (कंचनगिरि विहार आफिस) मान्डोली लगभग 35 कि. मी. दूर है । इन सभी
मन्दिर-समूह का दृश्य-स्वर्णगिरि (जालोर)
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FENTRALATAR
श्री पार्श्वनाथ भगवान-भिनमाल
श्री भिनमाल तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री पार्श्वनाथ भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण, पंच धातु से निर्मित (श्वे. मन्दिर)।
तीर्थ स्थल भिनमाल शहर मध्य, शेठवास में।
प्राचीनता 8 गुजरात की प्राचीन राजधानी का मुख्य नगर यह भिनमाल एक समय खूब प्रसिद्ध था। यह नगर किसने बसाया था, उसका निश्चित इतिहास उपलब्ध नहीं । पौराणिक कथाओं के अनुसार इसका नाम सतयुग में श्रीमाल, त्रेता युग में रत्नमाल, द्वापर युग में पुष्पमाल व कलियुग में भिनमाल रहा ।
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श्रीमाल व भिनमाल नाम लोक प्रसिद्ध रहे । इस ओसियाँ नगरी उस समय बसी हुयी थी, जब ही वे नगरी का अनेकों बार उत्थान-पतन हुआ ।
वहाँ जाकर बस सके होंगे । जैन मन्दिरों के एक खण्डहर में वि. सं. 1333 का किसी जमाने में इस नगरी का घेराव 64 कि. मी शिलालेख मिला है, जिसमें बताया है कि श्री महावीर था । किले के 84 दरवाजे थे, उनमें 84 करोड़पति भगवान यहाँ बिचरे थे । यह बहुत बड़ा संशोधन का श्रावकों के 64 श्रीमाल ब्राह्मणों के व 8 प्राग्वट ब्राह्मणों कार्य है, क्योंकि जगह-जगह वीरप्रभु इस भूमि में के घर थे । सैकड़ों शिखरबंध मन्दिरों से यह नगरी विचरे थे ऐसे उल्लेख मिले है । संशोधकगण इस तरफ रमणीय बनी हई थी । ध्यान दें तो ऐतिहासिक प्रमाण मिलने की गुंजाइश है। श्री जिनदासगणी द्वारा वि. सं. 733 में रचित
विक्रम की पहली शताब्दी मे आचार्य श्री वजस्वामी निशीथचूर्णि' में सातवीं, आठवीं शताब्दी पूर्व से यह भी श्रीमाल (भिनमाल) तरफ बिहार करने के उल्लेख नगर खूब समृद्धिशाली रहने का उल्लेख है । मिलते है ।
____ श्री उद्योतनसूरिजी द्वारा वि. सं. 835 में रचित एक जैन पट्टावली के अनुसार वीर निर्माण सं. 70 'कुवलयमाला' ग्रंथ में, ऐसा उल्लेख है कि श्री के आसपास श्री रत्नप्रभसूरिजी के समय श्रीमाल नगर । शिवचन्दगणी विहार करते हुए जिनवन्दनार्थ यहाँ पधारे का राजकुमार श्री सुन्दर व मंत्री श्री उहड़ ने यहाँ से व अत्यन्त प्रभावित होकर प्रभु चरणों में यहीं रह गये। जाकर ओसियाँ बसाया था, जिसमें श्रीमाल से अनेकों
सातवीं शताब्दी से दसवीं शताब्दी तक प्रायः सारे कुटुम्ब जाकर बसे थे । एक और मतानुसार श्रीमाल
प्रभावशाली आचार्य भगवन्तों ने यहाँ पदार्पण करके इस के राजा देशल ने जब धनाढ्यों को किले में बसने की
शहर को पवित्र व रमणीय बनाया है, व अनेकों अनुमति दी तब अन्य लोग असंतुष्ट होकर देशल के
अनमोल जैन साहित्यों की रचना करके अमूल्य खजाना पुत्र जयचन्द्र के साथ विक्रम सं. 223 में ओसियाँ छोड़ गये हैं जो आज इतिहासकारों व शोधकों के लिए जाकर बसे थे । अतः इससे यह सिद्ध होता है कि एक अमूल्य सामग्री बनकर विश्व को नयी प्रेरणा दे
रहा है ।
लगभग दसवीं, ग्यारहवीं शताब्दी में इस नगर से 18000 श्रीमाल श्रावक गुजरात की नयी राजधानी पाटण व उसके आसपास जाकर बस गये, जिनमें मंत्री विमलशाह के पूर्वज श्रेष्ठी श्री नाना भी थे ।
निकोलस उफ्लेट नाम का अंग्रेज व्यापारी ई. सं. 1611 में यहाँ आया जब इस शहर का सुन्दर व कलात्मक किला 58 कि. मी. विस्तार वाला था, ऐसा उल्लेख है । आज भी 5-6 मील दूर उत्तर तरफ जालोरी दरवाजा, पश्चिम तरफ सांचोरी दरवाजा, पूर्व तरफ सूर्य दरवाजा व दक्षिण तरफ लक्ष्मी दरवाजा है। विस्तार में ऊंचे टेकरियों पर प्राचीन ईंटों, कोरणीदार स्तम्भों व मन्दिर के कोरणीदार पत्थरों के खंडहर असंख्य मात्रा में दिखायी देते हैं ।
आज यहाँ कुल 11 मन्दिर हैं जिनमें यह मन्दिर प्राचीन व मुख्य माना जाता है । प्रतिमाजी के परिकर पर वि. सं. 1011 का लेख उत्कीर्ण है । यह प्रतिमा
भूगर्भ से प्राप्त हुई थी । भूगर्भ से प्राप्त यह व अन्य श्री पार्श्वनाथ भगवान मन्दिर-भिनमाल
प्रतिमाएँ, जालोर के गजनीखान के आधीन थीं । वह
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इन प्रभु प्रतिमाओं को रखने से मानसिक क्लेश का अनुभव कर रहा था । आखिर उसने प्रतिमाएँ श्री संघ के सुपुर्द कीं, जिन्हें संघवी श्री वरजंग शेठ ने भव्य मन्दिर का निर्माण करवाकर विक्रम सं. 1662 में स्थापित करवाई । उस अवसर पर गजनीखान ने भी 16 स्वर्ण कलश चढ़ाये थे, ऐसा श्रीपुण्यकमल मुनि रचित "भिनमाल-स्तवन" में उल्लेख है ।
विशिष्टता पौराणिक कथाओं में भी इस नगरी का भारी महत्व दिया है । भगवान श्री महावीर यहाँ बिचरे थे, ऐसा उल्लेख मिलता है । पहली शताब्दी में आचार्य श्री वज्रस्वामी यहाँ दर्शनार्थ पधारे थे । श्री उहड मंत्री व राजकुमार सुन्दर ने यहीं से जाकर ओसियाँ नगरी बसायी थी ।
'शिशुपालवध महाकाव्य' के रचयिता कवि श्री मेघ की जन्मभूमि यही है । ब्रह्मगुप्त ज्योतिषी ने 'स्फुट आर्य सिद्धान्त' ग्रन्थ की रचना यहीं पर सातवीं शताब्दी में की थी । वि. की आठवीं शताब्दी में यहाँ कुलगुरुओं की स्थापना हुई । तब 84 गच्छों के समर्थ आचार्य भगवन्त यहाँ विराजमान थे । शंखेश्वर गच्छ के आचार्य श्री उदयप्रभसूरिजी ने
श्री महावीर भगवान-प्राचीन प्रतिमा विक्रम सं. 791 में प्राग्वट ब्राह्मणों को व श्रीमाल ब्राह्मणों को यहीं जैनी बनाया था ।
कलापूर्ण अवशेषों के खण्डहरों से भरा है । हर मन्दिर आचार्य श्री सिद्धर्षिजी ने प्रख्यात 'उपमितिभवप्रपंच में कई प्राचीन कलापूर्ण प्रतिमाएँ हैं । कथा' की रचना विक्रम सं. 992 में यहीं की थी । मार्ग दर्शन यहाँ का भीनमाल रेल्वे स्टेशन
श्री वीरगणी की जन्मभूमि यही है, जो कि प्रख्यात एक कि. मी. है । गाँव के बस स्टेण्ड से भी मन्दिर पण्डित थे । उन्होंने गुर्जर नरेश चामुंडराज को अपनी एक कि. मी. है । मन्दिर तक पक्की सड़क है । अलौकिक शक्ति से प्रभावित किया था ।
जालोर सिरोही व जोधपुर आदि स्थानों से सीधी __ श्री सिद्धसेनसूरिजी ने 'सकल तीर्थ स्तोत्र' में इस भिनमाल के लिए बस सर्विस है । यह स्थल जालोर तीर्थ की व्याख्या की है। इस तीर्थ की कीर्ति बढ़ानेवाले से मान्डोली, रामसेन होते हुए लगभग 70 कि. मी. ऐसे अनेकों उदाहरण हैं,जिनका यहाँ शब्दों में वर्णन
है । मान्डोली यहाँ से 30 कि. मी. व भाण्डव्यपुर तीर्थ करना असंभव है।प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णीमा के दिन ध्वजा लगभग 50 कि. मी. दूर है ।। चढ़ाई जाती है।
एँ ठहरने के लिए दो धर्मशालाएँ है, अन्य मन्दिर इसके अतिरिक्त गाँव में कुल 15
(निकट के महावीरजी मन्दिर व किर्ती स्तंम में) जहाँ मन्दिर है । ज्यादातर मन्दिर प्रायः चौदहवीं से अठारहवीं ___पानी, बिजली, बर्तन, ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र व भोजनशाला शताब्दी तक के हैं । इनमें गाँधीमता वास में स्थित की सुविधा उपलब्ध हैं । श्री शान्तिनाथ भगवान के मन्दिर की पुनः प्रतिष्ठा श्री पेढ़ी 8 श्री पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर तपागच्छीय हीरविजयसूरिजी के सुहस्ते वि.सं.1634 में हुई थी । ट्रस्ट, हाथियों की पोल, कला और सौन्दर्य % इतनी प्राचीन नगरी में पास्ट : भिनमाल-3430
पोस्ट : भिनमाल - 343029. कलापूर्ण अवशेषों आदि की क्या कमी है । शहर जिला : जालोर, (राज.), फोन : 02969-21190
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2017XX
श्री महावीर भगवान मन्दिर - सत्यपुर
श्री सत्यपुर तीर्थ
श्री महावीर भगवान, पद्मासनस्थ,
तीर्थाधिराज श्वेत वर्ण (श्वे. मन्दिर ) । तीर्थ स्थल साँचोर गाँव के मध्य । प्राचीनता यह तीर्थ प्रभु वीर के समय का बताया जाता है । 'जग चिन्तामणि' स्तोत्र में इस तीर्थ का वर्णन है । कहा जाता है इस स्तोत्र की रचना भगवान महावीर के प्रथम गणधर श्री गौतम स्वामीजी ने की थी । साँचोर का प्राचीन नाम सत्यपुर व सत्यपुरी था।
पराक्रमी श्री नाहड़ राजा ने आचार्यश्री से उपदेश पाकर विक्रम सं. 130 के लगभग एक विशाल गगनचुम्बी मन्दिर का निर्माण करवाकर वीर प्रभु की स्वर्णमयी प्रतिमा आचार्य श्री जज्जिगसूरिजी के सुहस्ते प्रतिष्ठित करवाई थी, ऐसा चौदहवीं शताब्दी में श्री जिनप्रभसूरिजी द्वारा रचित 'विविध तीर्थ कल्प' में उल्लेख है ।
'विविध तीर्थ कल्प' में यह भी कहा है कि इस तीर्थ की इतनी महिमा बढ़ गयी थी कि विधर्मियों को ईर्ष्या
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होने लगी । इसको क्षति पहुँचाने के लिए विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में मालव देश के राजा, वि. सं. 1348 में मुगल सेना, वि. सं. 1356 में अलाउद्दीन खिलजी के भाई उल्लुधखान आये । लेकिन सबको हार मानकर वापस जाना पड़ा । प्रतिमा को कोई क्षति न पहुँचा सका । आखिर वि. सं. 1361 में अलाउद्दीन खिलजी खुद आया व उपाय करके मूर्ति को दिल्ली ले गया, ऐसा उल्लेख है वि. की तेरहवीं शताब्दी में कन्नोज के राजा द्वारा भगवान महावीर का मन्दिर कष्ट में बनवाने का उल्लेख है । गुर्जर नरेश अजयपाल के दण्डनायक श्री आल्हाद द्वारा वि. की तेरहवीं सदी में पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा स्थापित करने का उल्लेख है । यहाँ पर एक प्राचीन मस्जिद है, जो प्राचीन काल में जैन मन्दिर रहा होगा ऐसा कहा जाता है । मस्जिद में पुराने पत्थरों पर कुछ शिलालेख है, जिसमें वि. सं. 1322 वैशाख कृष्णा 13 को भंडारी श्री छाड़ा सेठ द्वारा महावीर भगवान के मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाने का लेख उत्कीर्ण है ।
वर्तमान मन्दिर के निर्मित होने के समय का पता नहीं लगता । जीर्णोद्धार वि. सं 1963 में हुआ था। जो स्वर्णमयी प्रतिमा अल्लाउद्दीन खिलजी दिल्ली ले गया था, उसका पता नहीं । वर्तमान प्रतिमा भी प्राचीन व प्रभावशाली है। अभी पुनः जीर्णोद्धार चालू है । विशिष्टता भगवान श्री महावीर के समय का यह तीर्थ होने व प्रभु के प्रथम गणधर श्री गौतमस्वामी द्वारा 'जगचिन्तामणि स्तोत्र में इस तीर्थ का वर्णन करने के कारण यहाँ की महान विशेषता है ।
कविवर उपाध्याय श्री समयसुन्दरजी की यह जन्मभूमि है, जिनका जन्म विक्रम की सत्रहवीं सदी में हुआ था । वर्तमान में भी इस मन्दिर को जीवित स्वामी मन्दिर कहते हैं ।
अन्य मन्दिर इसके अतिरिक्त यहाँ पर 6 और मन्दिर व एक दादावाड़ी है ।
कला और सौन्दर्य पुराने मन्दिरों के ध्वंस हो जाने के कारण प्राचीन कलाकृतियों कम नजर आती हैं। मस्जिद जो प्राचीन जैन मन्दिर बताया जाता है, वहाँ प्राचीन अवशेष दिखायी देते है ।
मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन राणीवाड़ा 48 कि. मी. है, जहाँ से बस व टेक्सी की
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सुविधा है । साँचोर के लिए जालोर, भिनमाल, बाड़मेर, आबू, जोधपुर, सिरोही, जयपुर, पालनपुर, थराद व अहमदाबाद से बसों की सुविधा उपलब्ध है । मन्दिर से बस स्टेण्ड लगभग 200 मीटर दूर है । मन्दिर तक पक्की सड़क है । आखिर तक बस व कार जा सकती
भोजनशाला है ।
पेढ़ी 8 श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ की पेढ़ी सदर बाजार, पोस्ट : साँचोर - 343041. जिला : जालोर (राज), फोन : 02979-22028 (पढ़ी), 02979-22147 (न्याति नोहरा), 02979-22491 (भोजनशाला) ।
सुविधाएँ ठहरने के लिए सर्वसुविधायुक्त न्याती नोहरा है । श्री कुंथुनाथ भगवान मन्दिर के पास
श्री महावीर भगवान -सत्यपुर
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कला और सौन्दर्य प्रभु प्रतिमा की प्राचीन श्री किंवरली तीर्थ
कला अति सुन्दर है ।
मार्ग दर्शन 8 नजदीक का रेल्वे स्टेशन आबू रोड़ तीर्थाधिराज 8 श्री पार्श्वनाथ भगवान, श्वेत
___ 10 कि. मी. है, जहाँ से टेक्सी का साधन है । यहाँ वर्ण, पद्मासनस्थ (श्वे. मन्दिर) ।
से आमथला 12 कि. मी. है । कार मन्दिर तक जा तीर्थ स्थल किंवरली गाँव के ब्रह्मपुरी मोहल्ले सकती है । रास्ता तंग रहने के कारण बस मन्दिर से में ।
400 मीटर दूर ठहरानी पड़ती है । प्राचीनता मूलनायक भगवान की गादी पर सुविधाएँ एक उपाश्रय है, जहाँ फिलहाल वि. सं. 1132 का लेख उत्कीर्ण है । एक स्थंभ पर ठहरने की सुविधा नहीं है । आबू रोड़ ठहरकर ही यहाँ भी वि. सं. 1132 फाल्गुन शुक्ला 10 का लेख आना सुविधाजनक है । उत्कीर्ण है । इससे संभवतः यह तीर्थ क्षेत्र उससे पूर्व पेढी श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ पेढ़ी, का हो सकता है । वि. सं. 1764 व वि. सं. 1903
श्री पार्श्वनाथ भगवान जैन मन्दिर, में जीर्णोद्धार होने का संकेत शिलालेखों में मिलता है।
पोस्ट : किंवरली - 343041., व्हाया : आबू रोड़, विशिष्टता प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष शुक्ला 11 को जिला : सिराही, प्रान्त : राजस्थान ध्वजा चढ़ायी जाती है ।
अन्य मन्दिर वर्तमान में यहाँ इसके अतिरिक्त अन्य कोई मन्दिर नहीं है ।
मी मनमोहनचिन्तामणी पारनाथ
ताम्बर जैन मन्दिर किलर
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श्री पार्श्वनाथ मन्दिर-किंवरली
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श्री पार्श्वनाथ भगवान-किंवरली
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श्री कासीन्द्रा तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री शान्तिनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 75 सें. मी. (श्वे. मन्दिर)।
तीर्थ स्थल कासीन्द्रा गाँव में । प्राचीनता इसका प्राचीन नाम काशाहृद रहने का शास्त्रों में उल्लेख मिलता है । वि. सं. 1091 में पोरवाल श्री वामन श्रेष्ठी द्वारा इस मन्दिर में एक देहरी निर्मित करवाने का लेख देहरी के दरवाजे पर उत्कीर्ण है । इसलिए यह सिद्ध होता है कि यह मन्दिर उसके पूर्व का है । मूलनायक भगवान की गादी पर वि. सं. 1234 का लेख उत्कीर्ण है । संभवतः वि. सं. 1234 में जीर्णोद्धार के समय यह प्रतिमा प्रतिष्ठित की गयी होगी ।
विशिष्टता काशहदगच्छ का उत्पत्ति स्थान यही है । यहाँ के धर्मवीर व शूरवीर श्रावकों द्वारा, वि. सं. 1253 में शहाबुद्दीन गोरी व धारावर्षदव राजा के बीच हुए युद्ध के समय तीर्थस्थल की रक्षा के लिए दिया
गया योगदान उल्लेखनीय है जिससे शहाबुद्दीन को यहाँ से घायल होकर वापिस लौटना पड़ा था । यहाँ के श्रावकों ने काशहृदगच्छ के आचार्य भगवन्तों से प्रेरणा पाकर अनेकों धार्मिक कार्य करके धर्म की प्रभावना बढ़ायी है । प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ला 10 को ध्वजा चढ़ती है ।
अन्य मन्दिर वर्तमान में यहाँ इसके अतिरिक्त कोई मन्दिर नहीं है ।
कला और सौन्दर्य 8 इस प्राचीन बावन जिनालय मन्दिर का दृश्य अति सुरम्य है । श्री शान्तिनाथ भगवान की प्राचीन कलात्मक, परिकरयुक्त प्रतिमा अति ही मनोहर व भावात्मक है । लेकिन अन्य देरियों में प्रतिमाजी नहीं है ।
मार्ग दर्शन 8 नजदीक का रेल्वे स्टेशन आबू रोड़ 12 कि. मी. है, जहाँ से बस व टेक्सी की सुविधा है। यहाँ से भारजा 2/2 कि. मी. है जो कि सिरोही रोड-आब मार्ग पर स्थित है।
सुविधाएँ वर्तमान में ठहरने के लिए कोई
श्री शान्तिनाथ मन्दिर-कासीन्द्रा
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श्री शान्तिनाथ भगवान-कासीन्द्रा
सविधा नहीं है । मानपुर या आबू रोड़ ठहरकर यहाँ संघ जैन मन्दिर, गाँव : कासीन्द्रा आना सुविधाजनक है, जहाँ सारी सुविधाएँ उपलब्ध है। पोस्ट : अजपुरा - 307 026. पेढी श्री कासीन्द्रा जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जिला : सिराही, प्रान्त : राजस्थान,
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श्री देलदर तीर्थ
अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त यहाँ कोई मन्दिर नहीं है ।
कला और सौन्दर्य प्रभु प्रतिमा की कला तीर्थाधिराज श्री आदीश्वर भगवान, श्वेत अति ही सुन्दर व आकर्षक है । वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 65 सें. मी. (श्वे. मन्दिर)।
मार्ग दर्शन 8 यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन तीर्थ स्थल देलदर गाँव के मध्यस्थ । आबू रोड़ 11 कि. मी. है, जहाँ से टेक्सी की
प्राचीनता 8 मन्दिर के एक स्थंभ पर वि. सं. सुविधा है । मन्दिर तक बस व कार जा सकती है । 1101 का लेख उत्कीर्ण है, जो यहाँ की प्राचीनता को सविधाएँ फिलहाल यहाँ ठहरने के लिए कोई सिद्ध करता है।
सुविधा नहीं है । आबू रोड़ ठहरकर ही यहाँ आना मूलनायक भगवान के परिकर की गादी पर वि. सं.
सुविधाजनक है । 1359 का लेख है । मन्दिर में एक गादी पर वि. सं.
पेढ़ी श्री देलदर जैन संघ, 1331 का शिलालेख उत्कीर्ण है । यहाँ से कुछ प्राचीन
गाँव : देलदर, प्रतिमाएँ साबरमती ले जायी गई हैं ।
पोस्ट : आबू रोड़ - 307026. विशिष्टता प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ला 6 को ध्वजा जिला : सिराही, प्रान्त : राजस्थान । चढ़ायी जाती है ।
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श्री आदीश्वर भगवान मन्दिर-देलदर
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श्री आदीश्वर भगवान-देलदर
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श्री डेरणा तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री संभवनाथ भगवान, पद्मासनस्थ, (श्वे. मन्दिर)।
तीर्थ स्थल डेरणा गाँव के बाहर एक परकोटे में ।
प्राचीनता इसका प्राचीन नाम देहलाणा होने का शिलालेखों में उल्लेख है । मन्दिर के एक गोखले में परिकर की गादी पर वि. सं. 1172 फाल्गुन शुक्ला 3 का लेख उत्कीर्ण है । इससे यह प्रमाणित होता है कि यह तीर्थ क्षेत्र लगभग बारहवीं सदी से पूर्व का
कोई मन्दिर नहीं है । ___ कला और सौन्दर्य दूर से ही प्राचीन मन्दिर का दृश्य अति ही मनोहर लगता है । यह प्रतिमा अति ही भावात्मक रहने के कारण सहज ही में भक्तजनों को अपनी ओर आकर्षित करती है । __मार्ग दर्शन नजदीक का रेल्वे स्टेशन आबू रोड़ 8 कि. मी. है, जहाँ से आटो व टेक्सी का साधन है। कार व बस मन्दिर तक जा सकती है ।
सविधाएँ वर्तमान में यहाँ ठहरने का कोई साधन नहीं है । आब रोड ठहरकर आना ही सुविधाजनक है। __ पेढ़ी 8 श्री डेरणा जैन श्वेताम्बर तीर्थ, गाँव : डेरणा, पोस्ट : आबू रोड़ - 307 026. जिला : सिरोही, प्रान्त : राजस्थान, मुख्य कार्यालय : श्री पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर पेढ़ी, पोस्ट : रोहीड़ा - 307 0 24. (राजस्थान) फोन : 02971-54743 (रोहीड़ा) ।
विशिष्टता प्रतिवर्ष फाल्गुन कृष्णा 6 को ध्वजा चढ़ाई जाती है । इस अवसर पर स्वामीवत्सल का आयोजन होता है ।
अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त यहाँ
श्री संभवनाथ भगवान मन्दिर-डेरणा
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श्री संभवनाथ भगवान-डेरणा
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श्री मुण्डस्थल तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री महावीर भगवान, कायोत्सर्ग मुद्रा, श्वेत वर्ण, लगभग 1.07 मीटर ( श्वे. मन्दिर ) । तीर्थ स्थल मुंगयला गाँव के बाहरी भाग में। प्राचीनता यह तीर्थ भगवान महावीर के समय का माना जाता है। कहा जाता है कि भगवान महावीर ने जब अपनी छद्मावस्था में इस अर्बुदगिरि की भूमि में विचरण किया तब मुण्डस्थल में नंदीवृक्ष के नीचे काउसग्ग ध्यान में रहे थे । विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में आचार्य श्री महेन्द्रसूरिजी द्वारा रचित " अष्टोत्तरी तीर्थ माला" में भी इसका वर्णन है। इस तीर्थ माला में यह भी कहा गया है कि श्री पूर्णराज नामक राजा ने जिनेश्वर की भक्ति के कारण महावीर भगवान के जन्म के बाद 37 वें वर्ष में एक प्रतिमा बनाई थी । एक शिलालेख पर भगवान महावीर का छद्मावस्था काल में यहाँ काउसग्ग ध्यान में रहने का व पूर्णराज राजा
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द्वारा भगवान की प्रतिमा निर्मित करवाकर श्रीकेशीस्वामी के सुहस्ते प्रतिष्ठित करवाने का उल्लेख है । उपरोक्त तथ्यों के सर्वेक्षण की आवश्यकता है ताकि काफी जानकारी प्राप्त हो सके । विक्रम सं. 1216 वैशाख कृष्णा 5 को यहाँ स्तम्भों के निर्माण करवाने का उल्लेख है। विक्रम सं. 1389 में श्री धांधल द्वारा मुण्डस्थल में महावीर भगवान के मन्दिर में जिनेश्वर भगवान की युगल प्रतिमाएँ बनवाकर आचार्य श्री कक्कसूरिजी के सुहस्ते प्रतिष्ठित करवाने का उल्लेख
है ।
विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में श्री जिनप्रभसूरिजी द्वारा रचित "विविध तीर्थ कल्प" में इस तीर्थ का उल्लेख है ।
विक्रम सं. 1442 में राजा श्री कान्हड़देव के पुत्र श्री बीसलदेव द्वारा वाड़ी के साथ कुआँ भेंट करने का उल्लेख मिलता है । विक्रम सं. 1501 में तपागच्छीय श्री लक्ष्मीसागरजी महाराज को मुण्डस्थल में उपाध्याय की पदवी दी गयी ।
श्री महावीर भगवान मन्दिर-मुण्डस्थल
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विक्रम सं. 1722 में रचित तीर्थ माला में मुण्डस्थल में 145 प्रतिमाओं के होने का उल्लेख है । ___ उसके बाद मन्दिर बहुत जीर्ण अवस्था में रहा, जिसका पुनः उद्धार होकर विक्रम सं. 2015 वैशाख शुक्ला 10 के दिन आचार्य श्री विजयहर्षसूरिजी के सुहस्ते पुनः प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई ।
विशिष्टता भगवान महावीर का अपने छद्मावस्था काल में यहाँ पदार्पण कर काउसग्ग ध्यान में रहने का उल्लेख यहाँ की मुख्य विशेषता का सूचक है । मंत्री श्री विमलशाह व वस्तुपाल तेजपाल ने विमलवसही व लावण्यवसही की व्यवस्था हेतु मण्डलों की स्थापना की, तब मुण्डस्थल के श्रावकों को भी व्यवस्था के कार्य में शामिल किया था ।
अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त कोई मन्दिर नहीं है ।
कला और सौन्दर्य आज यहाँ पर कोई खास प्राचीन अवशेष प्राप्त नहीं हो रहे हैं । उल्लेखों के अनुसार यहाँ से कुछ प्राचीन प्रतिमाएँ बाहर मन्दिरों में भेज दी गई ।
मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन आबू रोड़ 10 कि. मी. है, जहाँ से बस व टेक्सी की सुविधा है। बस व कार मन्दिर तक जा सकती है । यहाँ से दंताणी 16 कि. मी. दूर है ।।
सुविधाएँ ठहरने के लिए धर्मशाला है । भोजनालय व ठहरने हेतु नुतन धर्मशाला का कार्य लगभग सम्पूर्णता में है ।
पेढ़ी 8 श्री कल्याणजी परमानन्दजी पेढ़ी, श्री मुण्डस्थल महातीर्थ पोस्ट : मुंगथला - 307026. जिला : सिरोही, प्रान्त : राजस्थान ।
श्री महावीर भगवान-मुण्डस्थल
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श्री जीरावला तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री जीरावला पार्श्वनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 18 से. मी. । (प्राचीन मूलनायक ) (श्वे. मन्दिर) ।
जीरावला गाँव में जयराज पर्वत
तीर्थ स्थल की ओट में ।
प्राचीनता जैन शास्त्रों में इसके नाम, जीरावल्ली, जीरापल्ली, जीरिकापल्ली एवं जयराजपल्ली आदि आते है । उपलब्ध प्राचीन अवशेषों से प्रतीत होता है कि किसी समय यह एक समृद्धशाली नगर था ।
उल्लेखानुसार यहाँ जीरावला पार्श्वनाथ भगवान का मन्दिर विक्रम संवत् 326 में कोड़ी नगर के सेठ श्री अमरासा ने बनाया था | कोड़ीनगर शायद
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भीनमाल के पासवाला होना चाहिए। कहा जाता है कि अमरासा श्रावक को स्वप्न में श्री पार्श्वनाथ भगवान के अधिष्ठायक देव के दर्शन हुए । अधिष्ठायक देव ने जीरापल्ली शहर के बाहर भूगर्भ में गुफा के नीचे स्थित पार्श्वप्रभु की प्रतिमा को उसी पहाड़ी की तलहटी में स्थापित करने को कहा । अमरासा ने स्वप्न का हाल वहाँ विराजित जैनाचार्य श्री देवसूरिजी को बताया। उसी दिन आचार्य श्री देवसूरिजी को भी इसी तरह का वप्न आया था । आचार्य श्री व अमरासा सांकेतिक स्थान पर शोध करने गये । पुण्ययोग से वहीं पर पार्श्वप्रभु की प्रतिमा प्राप्त हुई ।
श्री अधिष्ठायक देव के आदेशानुसार वहीं पर मन्दिर का निर्माण करवाकर विक्रम सं. 331 में आचार्य श्री देवसूरिजी के सुहस्ते प्रतिष्ठा संपन्न हुई । विक्रम सं. 663 में इसका प्रथम जीर्णोद्धार संघपति श्रेष्ठी
श्री जीरावला पार्श्वनाथ मन्दिर जीरावला
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श्री जीरावला पार्श्वनाथ भगवान-प्राचीन मूलनायक
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बाध
श्री जैतासा खेमासा द्वारा जैनाचार्य श्री मेरुसूरिजी के उपदेश से हुआ था, जो कि 10 हजार यात्रियों के साथ संघ लेकर आये थे । उसके बाद दूसरा जीर्णोद्धार विक्रम सं. 1033 में जैनाचार्य श्री सहजानन्दजी के उपदेश से तेतली नगर के श्रेष्ठी श्री हरदासजी ने करवाया था ।
इसके पश्चात् भी कई बार जीर्णोद्धार हुए होंगे लेकिन उनके कहीं उल्लेख नहीं मिल रहे हैं । अंतिम प्रतिष्ठा विक्रम संवत् 2020 वैशाख शुक्ल पक्ष में श्री तिलोकविजयजी के सुहस्ते सुसम्पन्न हुई । यहाँ पर उपलब्ध शिलालेखों, विभिन्न आचार्य भगवन्तो द्वारा रचित स्तोत्रों व चैत्य परिपाटियों में जीरावला पार्श्वनाथ भगवान का नाम विक्रम सं. 1851 तक आता है । उसके बाद पता नहीं किस कारण श्री नेमीनाथ भगवान की प्रतिमा मूलनायक भगवान के रूप में परिवर्तित की गयी । मान्यता है कि आक्रमणकारियों के भय से पार्श्वप्रभु की इस प्राचीन प्रतिमा को सुरक्षित किया होगा, जो कि अभी एक देहरी में विद्यमान है ।।
विशिष्टता श्री जीरावला पार्श्वनाथ भगवान की महिमा का जैन शास्त्रों में जगह-जगह पर अत्यन्त वर्णन किया है । अभी भी जहाँ कहीं भी प्रतिष्ठा आदि शुभ काम होते हैं तो प्रारंभ में "ॐ श्री जीरावला पार्श्वनाथाय नमः" पवित्र मंत्राक्षर रूप इस तीर्थाधिराज का स्मरण किया जाता है । उन अवसरों पर प्रायः चमत्कारिक घटनाएँ घटती हैं व श्रद्धालु भक्तजनों की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं । इस मन्दिर में श्री पार्श्वनाथ भगवान के 108 नाम की प्रतिमाएँ विभिन्न देरियों में स्थापित है ।
प्रायः हर आचार्य भगवन्त, साधु मुनिराजों ने यहाँ यात्रार्थ पदार्पण किया है । आज तक अनेकों संघ यहाँ आ चुके हैं, जिनके अनेकों वृत्तांत है । अनेकों आचार्य भगवन्तों मुनिमहाराजों ने अपने स्तोत्रों आदि में इस तीर्थ के महिमा की व्याख्या की है, उन सबका वर्णन यहाँ करना संभव नहीं । इस तीर्थ के नाम पर जीरापल्लीगच्छ बना है, जिसका नाम चौरासीगच्छों में आता है । यहाँ के चमत्कार भी प्रख्यात हैं, जैसे एक बार 50 लुटेरे इकट्ठे होकर मन्दिर में घूसे । मन्दिर में उपलब्ध सामान व रुपयो को जिनके जो हाथ लगा, गठडियाँ बाँधकर बाहर आने लगे । दैविक शक्ति से
श्री पद्मावती पार्श्वनाथ भगवान-जीरावला
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उन्हे कुछ भी दिखायी न दिया जिससे जिधर भी जाते दीवारों से टकराकर खून से लथपथ हो गये व अन्दर ही पड़े रहे । सुबह मय सामान पकड़े गये ।
एक बार आचार्य श्री मेरुतुंगसूरिजी ने जीरावला तीर्थ की ओर जाते एक संघ के साथ 3 श्लोक लिखकर भेजे । संघपति ने उन श्लोकों को भगवान के सामने रखा । अदृश्य रूप से अधिष्ठायक देव ने सात गुटिकाएँ प्रदान की व निर्देश दिया कि आवश्यकता पड़ने पर प्रयोग करना । ऐसी अनेकों घटनाएँ घटी है व अभी भी घटती रहती हैं ।
यहाँ पर जैनेतर भी खूब आते हैं व प्रभु को दादाजी कहकर पुकारते हैं । प्रतिवर्ष गेहूँ की फसल पाते ही सहकुटुम्ब यहाँ आते हैं व यहीं भोजन तैयार करके हर्षोल्लास के साथ प्रभु के चरणों में चढ़ाकर पश्चात् खुदग्रहण करके अपने को कृतार्थ समझते हैं । इनके कथनानुसार यहाँ आने पर उनकी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं । चैत्री पूर्णिमा, कार्तिक पूर्णिमा व भादरवा शुक्ला 6 को मेले लगते हैं ।
अन्य मन्दिर वर्तमान में यहाँ पर इसके अतिरिक्त कोई मन्दिर नहीं है ।
कला और सौन्दर्य श्री पार्श्व प्रभु की प्रतिमा अति ही प्राचीन रहने के कारण कलात्मक व भावात्मक है सहज ही भक्तजनों के हृदय को अपनी तरफ खींच लेती है । जंगल में शान्त वातावरण के साथ जयराज पर्वत की ओट में यह बावन जिनालय मन्दिर का दृश्य अति ही आकर्षक लगता है ।
मार्ग दर्शन यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन आबू रोड़ 42 कि. मी. जालोर 90 कि. मी. सिरोही 70 कि. मी. डीसा 87 कि. मी. दूर है । इन सभी जगहों से बस व टेक्सी की सुविधा है। नजदीक का गाँव मन्डार 24 कि. मी. रेवदर 8 कि. मी. व वरमाण 14 कि. मी. दूर है । इन जगहों से भी बस व टेक्सी की सुविधा उपलब्ध है । बस व टेक्सी मन्दिर तक जा सकती है । नजदीक रेवदर गाँव से जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर, नाकोड़ा, मुम्बई (कल्याण), दिल्ली व अहमदाबाद के लिए बस सेवा उपलब्ध है । __ सुविधाएँ 488 ठहरने के लिए मन्दिर के निकट ही सर्वसुविधायुक्त विशाल धर्मशालाएँ, ब्लॉक व हॉल है, जहाँ पर भोजनाशाला, नास्ता व भाते की भी व्यवस्था
श्री पार्श्वनाथ भगवान-जीरावला
है । संघ वालों के लिए अलग से आधुनिक सुविधायुक्त रसोड़े के साथ भोजन गृह की सुविधा हैं ।
पेढी श्री जीरावला पार्श्वनाथ जैन तीर्थ, पोस्ट : जीरावला - 307 514. तालुका : रेवदर, जिला : सिरोही, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 02975-24438.
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श्री वरमाण तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री महावीर भगवान, पद्मासनस्थ, लगभग 1.4 मीटर (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल वरमाण गाँव के बाहर एक छोर में छोटी टेकरी पर ।।
प्राचीनता वि. सं. 1242 में श्रेष्ठी श्री पुनिग आदि श्रावकों द्वारा श्री महावीर स्वामी के मन्दिर (ब्रह्माणगच्छका) की भमती में श्री अजितनाथ भगवान की देरी के गुंबज की पद्मशिला करवाने का उल्लेख है।
विक्रम सं. 1287 में आबू देलवाड़ा के लावण्यवसही मन्दिर की व्यवस्था के लिए मंत्री श्री वस्तुपाल तेजपाल द्वारा स्थापित व्यवस्था समिति ने यहाँ के श्रीसंघ को प्रतिवर्ष होनेवाले अठाई महोत्सव में फाल्गुन कृष्णा 5 (तृतीय दिवस) की पूजा रचवाने का कार्य सौंपा था । विक्रम सं. 1446 में इस मन्दिर में एक रंगमण्डप निर्माण करवाने का भी उल्लेख है । विक्रम सं. 1755 में श्री ज्ञानविमलसूरिजी द्वारा रचित "तीर्थमाला" में यहाँ का उल्लेख है । इन सबसे यह सिद्ध होता है कि यह मन्दिर विक्रम सं. 1242 से पहले का है । ब्रह्माणगच्छ की उत्पत्ति भी इसके पूर्व हो चुकी थी ।
यहाँ उपलब्ध मकानों के असंख्य खण्डहरों, प्राचीन बावड़ियों व कुओं से प्रतीत होता है कि किसी समय यह विशाल नगरी रही होगी । इस मन्दिर के जीर्णोद्धार का काम अभी-अभी हुवा है ।
विशिष्टता ब्रह्माणगच्छ का उत्पत्ति स्थान यही है । प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ला 13 को यहाँ पर मेले का आयोजन होता है, जिसमें दूर-दूर से श्रद्धालु भक्तगण काफी संख्या में आकर भक्ति का लाभ लेते हैं । यहाँ का सूर्य मन्दिर भारत के प्रसिद्ध सूर्य मन्दिरों में एक है, जिसका निर्माण विक्रम की सातवीं सदी से पूर्व का बताया जाता है ।
अन्य मन्दिर 8 वर्तमान में इसके अतिरिक्त एक और मन्दिर है ।
कला और सौन्दर्य 8 यहाँ के तीर्थाधिराज भगवान श्री महावीर की प्रतिमा की कला बेजोड़ है । मन्दिर के घूमट पर किये हुए प्राचीन (श्री नेमिनाथ भगवान की बरात, भगवान का जन्मोत्सव आदि) कला के नमूने दर्शनीय हैं । भगवान के आजू-बाजू श्री पार्श्वनाथ भगवान की काउसग्ग मुद्रा में दो प्रतिमाओं की, लक्ष्मी देवी, अम्बिका देवी व अन्य प्राचीन प्रतिमाओं की कला अति दर्शनीय है ।
मार्ग दर्शन 8 नजदीक का रेल्वे स्टेशन आबू रोड़
श्री महावीर भगवान मन्दिर-वरमाण
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श्री महावीर भगवान-वरमाण
44 कि. मी. हैं, जहाँ से टेक्सी व बस का साधन है। मन्दिर तक पक्की सड़क है। नजदीक के बड़े गाँव रेवदर 3 कि. मी. मन्डार 10 कि. मी. व जीरावला तीर्थ 5 कि. मी. है। इन जगहों से बस व टेक्सी का साधन है ।
सुविधाएँ ठहरने के लिए मन्दिर के निकट ही विशाल धर्मशाला है, जहाँ बिजली, पानी, बर्तन, ओढ़ने बिछाने के वस्त्र, भोजनशाला, चाय नास्ता व
भाते की सुविधा उपलब्ध है। वही पर दो हाल व उपाश्रय भी है ।
पेड़ी श्री वर्धमान जैन तीर्थ, वरमाण । पोस्ट : वरमाण 307514. व्हाया रेवदर, जिला सिरोही (राज.), फोन : 02975-64032.
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श्री मंडार तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री महावीर भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 120 से. मी. (श्वे. मन्दिर)।
तीर्थ स्थल मन्डार गाँव के मन्दिर की सेरी में ।
प्राचीनता 8 प्राचीन शिलालेखों में इस गाँव का महाहृद व महाहड नामों से उल्लेखित किया है ।।
प्रकाण्ड विद्वान आचार्य श्री वादीदेवसूरीश्वरजी का जन्म इसी गाँव में वि. सं. 1143 में हुआ था । वि. सं. 1287 में आबू देलवाड़ा के लावण्यवसहि मन्दिर के वार्षिक महोत्सव हेतु कमेटी बनायी थी जिसमें इस गाँव का नाम भी शामिल था । __वि. सं. 1499 में श्री मेघ कवि द्वारा रचित 'तीर्थ-माला' में यहाँ के श्री महावीर भगवान के मन्दिर का उल्लेख है । उक्त महावीर भगवान का मन्दिर किसी समय भूकंप आदि के झपेटों में आकर भूगर्भ में समा गया होगा, ऐसा प्रतीत होता है । वर्तमान मूलनायक श्री महावीर भगवान की विशाल काय प्रतिमा व अन्य दो कायोत्सर्ग मुद्रा में श्री पार्श्वनाथ भगवान व श्री विमलनाथ भगवान की प्रतिमाएँ (श्री विमलनाथ भगवान की प्रतिमा पर वि. सं. 1259 का लेख है) गाँव के बाहर एक टेकरी के निकट जमीन में से प्राप्त हुई थी । संभवतः यह वही प्रतिमा है जिसका श्री मेघ कवि ने अपने तीर्थ माला में उल्लेख किया है । यहाँ पर पुनः मन्दिर निर्माण का कार्य करवाकर वि. सं. 1920 में चरम तीर्थंकर वीर प्रभु की उस प्राचीन अलौकिक प्रतिमा को पुनः प्रतिष्ठित करवाया गया । अभी मन्दिर के पुनः जीर्णोद्धार का कार्य चालू
श्री विमलनाथ भगवान-मंडार
विशिष्टता सुप्रख्यात प्रकाण्ड विद्वान आचार्य श्री वादीदेवसूरीश्वरजी की यह जन्म भूमि है । श्री 'महाहृतगच्छ' का उत्पत्ति स्थान भी यही है ।
गाँव के बाहर जगह-जगह अनेकों खण्डहर अवशेष बिखरे हुए दिखायी देते हैं । इससे प्रतीत होता है किसी समय यह एक विराट नगरी रही होगी व यहाँ अनेकों जिन मन्दिर रहे होंगे । यहाँ के श्रेष्ठियों द्वारा भी जगह-जगह धार्मिक कार्यो में भाग लेने का उल्लेख
श्री महावीर भगवान मन्दिर-मंडार
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श्री महावीर भगवान-मंडार
मिलता है । प्रतिवर्ष माघ शुक्ला 13 को ध्वजा चढ़ायी जाती है ।
अन्य मन्दिर इसके अतिरिक्त यहाँ एक और श्री धर्मनाथ भगवान का भी प्राचीन मन्दिर हैं । ___ कला और सौन्दर्य भगवान महावीर की प्रतिमा अति ही सुन्दर व प्रभावशाली है । भूगर्भ से प्राप्त कायोत्सर्ग मुद्रा में श्री पार्श्व प्रभु की व श्री विमलनाथ भगवान की प्रतिमाएँ भी अति दर्शनीय
50 कि. मी. हैं, जहाँ से बस व टेक्सियों की सुविधा है। कार व बस मन्दिर तक जा सकती है । यहाँ से वरमाण 10 कि. मी. व जीरावला 24 कि. मी. है ।
सुविधाएँ ठहरने के लिए उपाश्रय है, जहाँ पानी, बिजली, का साधन है । आयम्बिलशाला है ।
पेढ़ी 8 श्री पंचमहाजन जैन धर्मादा व धार्मिक ट्रस्ट, मंडार । पोस्ट : मन्डार - 307 513. जिला : सिराही (राज.), फोन : 02975-36131
हैं।
मार्ग दर्शन
नजदीक का रेल्वे स्टेशन आबू रोड़
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श्री महावीर भगवान का उल्लेख है । गूढ़ मण्डप में अन्य कायोत्सर्ग प्रतिमाओं पर वि. सं. 1242 का लेख उत्कीर्ण है जिनमें भी मूलनायक श्री महावीर भगवान रहने का उल्लेख है । पन्द्रहवीं शताब्दी में श्री साधुचन्द मुनिवर द्वारा रचित "चैत्य परिपाटी" में भी श्री महावीर भगवान का उल्लेख है । हो सकता है तत्पश्चात् जीर्णोद्धार के समय श्री आदीश्वर भगवान की यह प्रतिमा प्रतिष्ठित की गयी होगी । इस प्रतिमा पर कोई लेख नहीं है । प्रतिमा अति ही प्राचीन हैं । कुछ वर्षों से जीर्णोद्धार का कार्य चालू है ।
विशिष्टता प्रतिवर्ष फाल्गुन कृष्णा प्रतिपदा को ध्वजा चढ़ायी जाती है ।
अन्य मन्दिर 8 वर्तमान में यहाँ इसके अतिरिक्त कोई मन्दिर नहीं हैं ।
कला और सौन्दर्य 8 यहाँ के मन्दिर में मूलनायक भगवान व अन्य प्रतिमाओं की कला दर्शनीय है।
मार्ग दर्शन 8 नजदीक का रेल्वे स्टेशन व बस स्टेशन आबू रोड़ 6 कि. मी. हैं, जहाँ से आटो व टेक्सी का साधन है। मन्दिर तक कार व बस जा सकती है । यहाँ से मानपुर 4 कि. मी. दूर है ।
सुविधाएँ ठहरने के लिए निकट ही छोटी धर्मशाला है, परन्तु आबू रोड़ धर्मशाला या मानपुर तीर्थ में ठहर कर यहाँ आना सुविधाजनक है, वहाँ भोजनशाला आदि की सारी सुविधाएँ उपलब्ध हैं । __ पेढ़ी 8 श्री ओर जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ पोस्ट : ओर - 307 026. व्हाया : आबू रोड़, जिला : सिरोही, प्रान्त : राजस्थान ।
श्री आदिनाथ जैन मन्दिर-ओड़
श्री ओड तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री आदीश्वर भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 80 से. मी. (श्वे. मन्दिर)।
तीर्थ स्थल बतरिया नदी के किनारे बसे ओर गाँव के बीच ।
प्राचीनता इसका प्राचीन नाम ओड़ रहने का शिलालेखों में उल्लेख मिलता है । मन्दिर में श्री अम्बिका देवी की प्रतिमा के परिकर पर वि. सं. 1141 आषाढ़ शुक्ला १ का लेख उत्कीर्ण है, जिसमें 456
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श्री आदीश्वर भगवान-ओड़
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श्री अचलगढ़ तीर्थ
द्वारा श्री महावीर भगवान का मन्दिर निर्मित करवाने का उल्लेख है । हो सकता है जीर्णोद्धार के समय
प्रतिमा परिवर्तित की गयी हो । पहाड़ के ऊंचे शिखर तीर्थाधिराज श्री आदीश्वर भगवान, श्वर्ण पर श्री आदिनाथ भगवान के जग विख्यात चौमुखी वर्ण, धातु प्रतिमा, पद्मासनस्थ, लगभग 1.50 मीटर मन्दिर का निर्माण राणकपुर तीर्थ के निर्माता शेठ श्री (श्वे. मन्दिर) ।
धरणाशाह के बड़े भाई रत्नाशाह के पौत्र शूरवीर, तीर्थ स्थल अरावली के अबूंदाचल पर्वत की
दानवीर, एवं बादशाह गयासुद्दीन के प्रधान मंत्री श्री
दानवार, एव बादशाह गयासुद्दान उच्चतम चोटी पर राणा कुंभा द्वारा निर्मित किले में, सहसाशाह ने आचार्य श्री सुमतिसूरिजी से प्रेरणा पाकर जहाँ की ऊँचाई समुद्र की सतह से 4600 फुट है । उस वक्त यहाँ के महाराजा श्री जगमाल से अनुमति प्राचीनता अचलगढ़ भी अर्बुदगिरि का अंग
लेकर करवाया था । विक्रम सं. 1566 फाल्गुन शुक्ला रहने के कारण इसकी प्राचीनता भी आबू तीर्थ के
10 के दिन श्री आदिनाथ भगवान के विशालकाय समान है । वर्तमान मन्दिरों में अचलगढ़ की तलेटी के
(120 मण) घातु प्रतिमा की प्रतिष्ठा आचार्य श्री पास छोटी टेकरी पर श्री शान्तिनाथ भगवान का मन्दिर
जयकल्याणसूरिजी के सुहस्ते सुसंपन्न हुई थी । यह सबसे प्राचीन है, जो कि श्री कुमारपाल राजा द्वारा
वर्णन 'गुरु गुण रत्नाकर' काव्य, शीलविजयजी कृत निर्मित बताया जाता है । इसका उल्लेख 'विविध तीर्थ
'तीर्थ माला' आदि में उल्लिखित हैं । इसी मन्दिर में कल्प' व 'अर्बुदगिरि कल्प' में आता है,लेकिन कुमारपाल
पूर्व दिशा में विराजित श्री आदीश्वर भगवान व दक्षिण दिशा में विराजित श्री शान्तिनाथ भगवान की
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तीर्थाधिराज श्री आदिनाथ भगवान मन्दिर-अचलगढ़
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श्री आदिनाथ भगवान-अचलगढ़
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प्रतिमाओं पर मेवाड़ के डुंगरपुर नरेश श्री सोमदास के सारे गुरुदेव के चरणों में साष्टांग नमस्कार करने प्रधान, ओशवाल श्रेष्ठी श्री साल्हाशाह द्वारा आयोजित लगे । सब सजेधजे होकर भी उन्हें अपने वस्त्रों का समारोह में वि. सं. 1518 वैशाख कृष्णा 4 के दिन भान न रहा. इतनी भक्ति थी उनमें । स्वामीजी लिखते श्री लक्ष्मीसागरसूरिजी के सुहस्ते प्रतिष्ठा हुए का लेख है कि उस वक्त का दृश्य फोटो लेने योग्य था, परन्त उत्कीर्ण है । पश्चिम दिशा में विराजित श्री आदिनाथ ।
केमरा नहीं था । गुरुदेव ने अनेकों राजाओं से शिकार प्रभ की प्रतिमा पर इंगरपुर निवासी श्रेष्ठी श्री साल्हा व माँस मन्दिरा का त्याग करवाया था । विक्रम सं. शाह वगैरह श्रावकों द्वारा विक्रम सं. 1529 में श्री 1999 के आसोज कृष्ण पक्ष 10 को गुरुदेव अचलगढ़ लक्ष्मीसागरसूरिजी के सुहस्ते प्रतिष्ठा होने का उल्लेख में कुथुनाथजी के मन्दिर के पास एक कमरे में देवलोक है । मूलनायक भगवान के दोनों बाजू खड्गासन की । सिधारे । वहाँ आज भी वह पाट विद्यमान है, जिसपर प्रतिमाओं पर वि. सं. 1134 के लेख उत्कीर्ण है, इन उनका स्वर्गवास हुआ था । लेखों के अनुसार सांचोर में श्री महावीर भगवान के
उनकी देह श्री मान्डोली नगर ले जायी गयी व मन्दिर के लिए ये प्रतिमाएँ बनी थीं । इस मन्दिर के
अग्नि संस्कार वहाँ हुआ जहाँ भव्य मन्दिर बना हुआ है। दूसरी मंजिल में सर्व धातु की चौमुख प्रतिमाजी
अन्य मन्दिर इसके अतिरिक्त वर्तमान में 3 विराजित हैं, जिनमें पूर्व दिशा में विराजित प्रतिमा
मन्दिर (श्री आदिनाथ भगवान, श्री शान्तिनाथ भगवान, अलौकिक मुद्रा में अत्यन्त सुन्दर व प्रभावशाली है ।
श्री कुंथुनाथ भगवान के) और हैं । ये भी प्राचीन हैं। इस पर कोई लेख उत्कीर्ण नहीं है । यह प्रतिमा
इनके अलावा श्री कुंथुनाथ भगवान के मन्दिर के पास लगभग 2100 वर्ष प्राचीन मानी जाती है । संभवतः
आबू के योगीराज विजय शान्तिसूरीश्वरजी के स्वर्गस्थल यह प्रतिमा पहिले मूलनायक रही होगी । अतः यहाँ
में पाट पर विशाल फोटो दर्शनार्थ रखा हुआ है । हाल भी देलवाड़ा की भांति प्राचीन मन्दिर रहे होगें ।
ही में कुछ वर्षों पूर्व गुरु मन्दिर का निर्माण हुवा है। विशिष्टता यहाँ पर धातु की कुल 18 अम्बा माता के प्रावीन मन्दिर का भी जीर्णोद्धार हुवा प्रतिमाएँ हैं व उनका वतन 1444 मन कहा जाता है।
है । यहाँ से लगभग 3 कि. मी. दूर गुरु शिखर है, इन प्रतिमाओं की चमक व वर्ण से प्रतीत होता है कि
जो कि अरावली पर्वत की उच्चतम चोटी मानी जाती इनमें सोने का अंश ज्यादा है। इतनी विशालकाय धातु है । वहाँ पर एक देरी में श्री आदीश्वर भगवान के की प्रतिमाएँ अन्यत्र नहीं है । इन प्रतिमाओं का
चरण स्थापित हैं । डुंगरपुर के कारीगरों द्वारा बनाया माना जाता है ।
कला और सौन्दर्य यहाँ का प्राकृतिक दृश्य राजा कुंभा द्वारा विक्रम सं. 1509 में निर्मित इस दुर्ग
अति मनलुभावना है । मन्दिर से चारों तरफ का दृश्य में विध्वंस महल भी है । आबू के योगीराज विजय
ऐसा लगता है जैसे स्वर्ग लोक में खड़े हैं, बहुत ही शान्तिसूरीश्वरजी की अंतिम तपोभूमि व स्वर्ग भूमि भी
शान्ति का वातावरण है । मुख्य मन्दिर में धातुकी बनी यही है । यहाँ जंगलों में उन्होंने घोर तपस्या की थी।
चारों प्रतिमाएँ अलग अलग समय की होने पर भी मुख्य मन्दिर के पास एक कमरा है, जहाँ प्रायः वे रहा
ऐसा प्रतीत होता है जैसे एक ही साथ निर्मित हुई हो। करते थे । उनके अनेकों राजा अनुयायी थे ।
इस प्रकार की कलात्मक धातु प्रतिमाएँ अन्यत्र नहीं है। श्री पुडल तीर्थोद्धारक आत्मानुरागी स्वामी श्री
इस मन्दिर के दूसरी मंजिल में पूर्व दिशा में विराजित रिखबदासजी द्वारा रचित 'आबू के योगीराज' पुस्तक में
अलौकिक धातु प्रतिमाकी सुन्दरता का तो जितना अनेकों चमत्कारिक व अलौकिक घटनाओं का आँखों
वर्णन करें कम हैं । शायद विश्व में भी इतनी सुन्दर देखा वर्णन है । उनमें एक वर्णन यह भी है कि
भावात्मक प्राचीन प्रतिमाएँ कम जगह होगी । श्री एक वक्त योगीराज अचलगढ़ विराजते थे, जब स्वामीजी
कुंथुनाथ भगवान की प्रतिमा कांसे से निर्मित है, जो भी पास थे । 22 रजवाड़ों के नरेश व राजकुमार आदि ।
कि प्रायः कम पायी जाती है । इनके अलावा सिरोही के राजकुमार की शादी करके दर्शनार्थ आये ।
मन्दाकिनी कुण्ड, भर्तृहरी व गोपीचन्द गुफा, भृगु दरवाजा बन्द था । सारे राजा व राजकुमार दर्शन की
आश्रम, तीर्थ विजय आश्रम आदि दर्शनीय स्थल है । प्रतीक्षा कर रहे थे । ज्यों ही दरवाजा खुला,सारे के
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श्री आदिनाथ प्रभु की धातु से निर्मित अलौकिक प्राचीन प्रतिमा-अचलगढ़
मार्ग दर्शन नजदीक का रेल्वे स्टेशन आबू रोड़ 37 कि. मी. दूर हैं, जहाँ से माऊन्ट आबू व देलवाड़ा होकर आना पड़ता है, आबू रोड़ से माऊन्ट आबू अनेकों बसें मिलती रहती है । माऊन्ट आबू से भी कुछ बसें अचलगढ़ आती है । टेक्सी का भी साधन है। अचलगढ़ की तलेटी से मन्दिर की चढ़ाई 400 मीटर है, जहाँ वयोवृद्ध महानुभावों के लिए डोली का साधन है । तलहटी तक पक्की सड़क है । बस व कार जा सकती है । माऊन्ट आबू से अचलगढ़ की तलहटी 6 कि. मी. व देलवाड़ा से 4 कि. मी. दूर है।
सुविधाएँ ऊपर मुख्य मन्दिर के पास ही ठहरने हेतु सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला व ब्लॉक है । जहाँ
भोजनशाला, नास्ता व चाय आदि की सुविधा है । आबू रोड़ व माऊन्ट आबू देलवाड़ा में भी जैन धर्मशालाएँ हैं जहाँ सारी सुविधाएँ उपलब्ध है । आबू रोड़ व माउन्ट आबू के बीच आरणा में भी धर्मशाला है व माऊन्ट आबू की तलेटी में शांती आश्रम है । इन जगहों में ठहरने की व पूज्य साधु संतों के लिए वैय्यावच की व्यवस्था हैं।
पेढ़ी 8 शेठ श्री अचलसीजी अमरसीजी जैन श्वेताम्बर पेढ़ी, अचलगढ़ । पोस्ट : अचलगढ़ - 307 501. जिला : सिरोही (राज.), फोन : 02974-44122
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श्री देलवाड़ा (आबू) तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री आदीश्वर भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण, 1.5 मीटर (श्वे. मन्दिर)।
तीर्थ स्थल समुद्र की सतह से लगभग 1220 मी. ऊंचे अर्बुदगिरि पर्वत की गोद में ।
प्राचीनता कहा जाता है श्री भरत चक्रवर्ती जी ने यहाँ श्री आदिनाथ भगवान का मन्दिर बनवाकर चतुर्मुख प्रतिमा को प्रतिष्ठित करवाया था । जैन शास्त्रों में इसे अर्बुदगिरि कहते हैं । यहाँ जमाने से मुनिगण जैन मन्दिरों के दर्शनार्थ आते थे, ऐसा उल्लेख है । तदनन्तर यह भी कहा जाता है कि अन्तिम तीर्थंकर भगवान श्री महावीर ने भी अर्बुदभूमि पर पदार्पण किया था । भगवान श्री महावीर के बाद कई जैन आचार्य इस पवित्र धाम आबू पर यात्रार्थ पधारे हैं व तपस्या की है । जैसे ई. पूर्व 475 में श्री स्वयंप्रभसूरिजी, ई. पू. 236 में श्री सुहस्तिसूरिजी ई. प्रथम शताब्दी में श्री पादलिप्तसूरिजी, ई. सं. 203-225 में श्री देवगुप्तसूरिजी ई. सं. 937 में श्री उद्योतनसूरिजी ई. सं. 1606-74
श्री आदिनाथ प्रभु की प्राचीन प्रतिमा-देलवाड़ा (आबू)
मन्दिर-समूह का दृश्य जिनमें अलौकिक कला का अमूल्य खजाना भरा है-देलवाड़ा (आबू)
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श्री आदीश्वर भगवान-विमल वसही
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श्री पार्श्वनाथ भगवान-खरतर वसही
श्री ऋषभदेव भगवान-पीतलहर मन्दिर
में श्री आनन्दघनजी, वि. सं. 1981 में योगिराज बंधुओं के पुत्र धनसिंह व महणसिंह एवं उनके पुत्रों ने विजयशान्तिसूरीश्वरजी आदि ।
पुनः जीर्णोद्धार करवाकर विक्रम सं. 1378 ज्येष्ठ श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुस्वामीजी द्वारा रचित "बृहत् कृष्णा 9 के दिन श्री ज्ञानचन्द्रसूरिजी के सुहस्ते प्रतिष्ठा कल्प सूत्र" में भी इस तीर्थ का उल्लेख आता है । करवाई । विक्रम सं. 1287 चैत्र कृष्णा 3 के दिन वर्तमान में स्थित यहाँ का सब से प्राचीन मन्दिर मंत्री वस्तुपाल तेजपाल ने 13 करोड़ 53 लाख रुपये खर्च श्री विमलशाह द्वारा विक्रम की 11 वीं सदी में निर्मित करके विमलवसही के सामने ही मन्दिर बनवाकर हुआ था । इससे पूर्व के जैन मन्दिरों का पता नहीं नागेन्द्रगच्छाचार्य श्री विजयसेनसूरिजी के सुहस्ते प्रतिष्ठा लग रहा है । शायद कभी भूकंप में धरातल होकर या करवाई थी इस मन्दिर को लावण्यवसही कहते किसी कारण विच्छिन्न हुए हों । श्री अम्बिकादेवी की। इस मन्दिर को भी विक्रम सं. 1368 में अल्लाउद्दीन श्री विमलशाह द्वारा आराधना करने पर चम्पकवृक्ष के खिलजी द्वारा क्षति पहुंची थी, जिसे तुरन्त ही 10 वर्ष पास यहाँ भूगर्भ से श्री आदिनाथ भगवान की प्राचीन बाद चन्द्रसिंह के पुत्र श्रेष्ठी श्री पेथड़शाह ने जीर्णोद्धार प्रतिमा प्राप्त हुई थी जो लगभग 2500 वर्ष प्राचीन करवाया । इनके अलावा विक्रम सं. 1525 में बताई जाती है, इससे यह तो सिद्ध होता है कि यहाँ अहमदाबाद के सुलतान मेहमूद बेघड़ा के मंत्री सुन्दर प्राचीन काल में जैन मन्दिर थे ।
और गदा ने पीतलहर मन्दिर का निर्माण करवाया था। वि. सं. 1088 में श्री विमलशाह ने 18 करोड़ एक और खरतर बसही मन्दिर है, जो कारीगरों के 53 लाख रु. खर्च करके मन्दिर निर्मित करवाया व
मन्दिर के नाम से जाना जाता है । आचार्य श्री धर्मघोषसूरिजी के सुहस्ते प्रतिष्ठा करवायी विशिष्टता यह एक प्राचीन व महत्वपूर्ण तीर्थ थी, इस मन्दिर को विमलसही कहते हैं । इसका माना गया है। इसका विशिष्ट उल्लेख ऊपर प्राचीनता पुनरुद्धार इनके ही वंशज मंत्री श्री पृथ्वीपाल द्वारा वि. में दिया गया है । जैसे भरत चक्रवर्ती द्वारा श्री सं. 1204-1206 में करवाने का उल्लेख है । विक्रम आदिनाथ भगवान का यहाँ मन्दिर बनवाना, भगवान सं. 1368 में अलाउद्दीन खिलजी द्वारा मन्दिर को क्षति श्री महावीर का इस भूमि में पदार्पण होना अनेकों पहुँची, तब मंडोर निवासी शेठ गोसन व भीमाना मुनियों की तपोभूमि रहना आदि । वर्तमान में कुछ
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श्री नेमिनाथ भगवान-लावण्य वसही
वर्षों पूर्व ही योगीराज श्री विजयशान्तिसूरीश्वरजी ने यहाँ भयंकर जंगलों में तपश्चर्या की थी, व आबूगिरिराज के आजू-बाजू गांवों में प्रायः विचरते रहते थे । अनेकों राजा उनके भक्त थे, जिन्हें उपदेश देकर शिकार, मंदिरा व मांस, भक्षण आदि का त्याग करवाया था । श्री विजयशान्तिसूरीश्वरजी आबू के योगीराज के नाम से आज भी विख्यात हैं, जो विक्रम सं. 1999 आश्विन कृष्णा 10 के दिन श्री अचलगढ़ में देवलोक सिधारे ।
हिन्दू लोग भी इसे अपना मुख्य तीर्थ स्थान मानते हैं । यहाँ के जंगलों में वनस्पतियों का भण्डार है । जंगलों में अनेकों जैनेतर मुनिगण भी तपस्या करते हैं। भारत के मुख्य पहाड़ी स्थलों में यह भी एक है। यहाँ पर प्राकृतिक दृश्यों से ओतप्रोत अति ही रोचक अद्वितीय अनेकों स्थान हैं जिन्हें देखते ही मन प्रफुल्लित हो उठता है । यहाँ की आबहवा स्वास्थ्य के लिए अति उत्तम है । गर्मी के दिनों में हमेशा हजारों पर्यटक देश-विदेश से आते हैं, इस ढंग का पहाड़ी स्थल कम जगह पाया जाता है । यह स्थान धार्मिक दृष्टि से अपनी प्राचीनता आदि के लिए तो प्रसिद्ध है ही लेकिन शिल्प कला में भी विश्व में अपना विशेष स्थान रखता है । यहाँ के विमलवसही व लावण्यवसही मन्दिरों में संगमरमर के पाषाण पर की शिल्पाकृतियाँ अजोड़, अनुपम, और महीन एक से एक बढ़कर, अति आकर्षक है । इस विश्व विख्यात विमलवसही व लावण्यवसही के निर्माता मंत्री श्री विमलशाह व वस्तुपाल तेजपाल हैं। ___ मंत्री श्री विमलशाह, वीर महान योद्धा, प्रख्यात धनुर्धरी व प्रबल प्रशासक गुर्जर नरेश भीमदेव के मंत्री व सेनापति थे । उनहोंने पाटण के धनाढ्य सेठ की कन्या श्रीदत्ता से विवाह किया था । प्रोढ़ावस्था में विमलशाह चन्द्रावती नगरी में गवर्नर की हैसियत से रहते थे । उनकी पत्नी बुद्धिमती व धर्मपरायणा श्राविका थी । जब प्रखर विद्वान महान आचार्य श्री धर्मघोषसूरिजी चन्द्रावती पधारे तब आचार्य श्री ने समराँगणों में किये दोषों के प्रायश्चित स्वरुप प्राचीन अर्बुदाचल तीर्थ के उद्धार करवाने की प्रेरणा दी। उन्होंने श्री भीमदेव आदि से विचारविमर्श करके मन्दिर बनवाने हेत यह जगह पसन्द की । परन्तु यहाँ के ब्राह्मणों द्वारा यहाँ जैन तीर्थ बनवाने का विरोध किया गया । उनका कहना था कि पहिले यहाँ जैन मन्दिर था, यह साबित किया जाय ।
श्री विमलशाह चाहते तो अपनी सत्ता के बल से चाहे जो कर सकते थे, परन्तु उनका हमेशा कहना था कि प्रजा को संतोष हो वैसा कार्य किया जाय । इसलिए श्री विमलशाह ने तीन उपवास करके श्री अम्बिकादेवी की आराधना की जिससे उनको यहाँ पर चंपक वृक्ष के पास श्री आदीश्वर प्रभु की श्याम वर्ण प्राचीन प्रतिमा रहने का संकेत मिला व शोध करने पर विशालकाय भव्य प्रतिमा प्राप्त हुई, जो कि सहस्रों वर्ष प्राचीन मानी जाती है । वह अभी विमल वसही मन्दिर में विद्यमान है । (इस प्रतिमा को श्री मुनिसुव्रत स्वामी की प्रतिमा भी कहते हैं) । विमलशाह ने तुरन्त निर्माण कार्य प्रारंभ किया व 18 करोड़ 53 लाख रुपये खर्च करके इस मन्दिर का निर्माण करवाया । इस कार्य में 14 वर्ष लगे, व 1500 कारीगर एवं 1200 मजदूर काम करते थे । पत्थर, अम्बाजी गांव के पास आरासणा पहाड़ी से हाथियों पर लाया जाता था । निर्माण कार्य सुसम्पन्न होने पर प्रतिष्ठा महान आचार्य श्री धर्मघोषसूरिजी के सुहस्ते विक्रम सं. 1088 में सुसम्पन्न हुई । इस मन्दिर का नाम विमलवसही रखा गया ।
लावण्यवसही के निर्माता राजा श्री वीरधवल के मंत्री श्री वस्तुपाल तेजपाल बंधुओं ने गुजरात की डगमगाती
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AMADHEPHERDHURMEENA
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सभा मण्डप का कलात्मक अपूर्व दृश्य देलवाडा (आबू)
सत्ता को अपनी अपूर्व प्रतिभा व कार्यकौशल से अचल कल्याणार्थ विमलवसही के सामने एक भव्य मन्दिर का बनायी थी । इनकी ख्याति हर जगह राजाओं में खूब निर्माण करवाया व मन्दिर का नाम लावण्यवसही रखा, बढ़ गई थी । ये दोनों भ्राता वीर व उदार थे । वस्तुपाल जिसकी प्रतिष्ठा नागेन्द्रगच्छाचार्य श्री विजयसेनसूरि के स्वयं बड़े कवि भी थे । उनको 24 बिरुद प्राप्त हुए सुहस्ते विक्रम सं. 1287 चैत्र कृष्णा 3 के शुभ दिन थे । उनमें से “सरस्वती धर्मपुत्र' भी एक था । सुसंपन्न हुई । इस मन्दिर की कला भी विश्व में इन्होंने शत्रुजय व गिरनार के उद्धार में भी करोड़ों महत्वपूर्ण स्थान रखती है । यहाँ हमेशा हजारों रुपये खर्च किये थे । इनके अलावा अन्य धार्मिक यात्रीगणों की भरमार रहती है । प्रतिवर्ष जेठ शुक्ला कार्यों में, संघ निकलवाने आदि में कुल करोड़ों रुपये पंचमी को सभी मन्दिरों पर ध्वजा चढ़ाई जाती है । खचे किये थे । इन्होंने गुजरात के सोलंकी राजा अन्य मन्दिर यहाँ विमलवसही व लावण्यवसही भीमदेव के महामंडलेश्वर आबू के परमार राजा श्री के अतिरिक्त पितलहरमन्दिर, श्री महावीर भगवान सोमसिंह से अनुमति लेकर 13 करोड़ 53 लाख रुपये
मन्दिर व खरतर वसही मन्दिर हैं । सारे मन्दिर खर्च करके श्री तेजपाल के सुपुत्र लावण्यसिंह के आसपास ही हैं । कुछ दूर एक दिगम्बर मन्दिर भी है।
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माउन्ट आबू में सनसेट पाइन्ट के रास्ते में योगीराज श्री विजयशान्तिसुरीश्वरजी का गुरु मन्दिर अभी बना
कला और सौन्दर्य यहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य तो अपना विशेष स्थान रखता ही है, साथ ही यहाँ के इन मन्दिरों की शिल्प व स्थापत्य कला का जितना भी वर्णन करें कम है । विमलवसही मन्दिर की छतों, गुम्बजों, दरवाजों, स्तम्भों तोरणों और दीवारों में सुन्दर और ऐश्वर्य युक्त नक्काशी की झलक नजर आती है । इनकी महानता और गौरव का वर्णन करने के लिए कोई उपयुक्त शब्द नहीं है । सब नमूने सुन्दरता व बारीकी से विभिन्न प्रकार के बने हए हैं । उनका विवरण देना यहाँ संभव नहीं । प्रदक्षिणा में कुल 59 देरियाँ हैं । लावण्यवसही की रचना विमलवसही के समान हैं । यहाँ की बारीक खुदाई की खुबसूरती भिन्न, निराली व मनमोहक है । भगवान श्री कृष्ण की जीवनी, नर्तिकाओं और गाययिकाओं के समूहों और देरानी जेठानी के गौखलों की आकृतियाँ यहाँ की विशेषता है । इस मन्दिर में प्रदखिणा में कुल 52 देरियाँ हैं ।
मार्ग दर्शन नजदीक का रेल्वे स्टेशन आबू रोड 30 कि. मी. दूर हैं, जहाँ से टेक्सी व बसों की सुविधा उपलब्ध है। आबू रोड़ से पहाड़ी रास्ता शुरु हो जाता है । आबू रोड़ से माऊन्ट आबू 27 कि. मी. है व वहाँ से देलवाड़ा 3 कि. मी. है । माऊन्ट आबू से भी टेक्सी व बसों की सुविधा है । देलवाड़ा का बस स्टेण्ड मन्दिर से 200 मीटर दूर है । आखिर तक पक्की सड़क है । बस व कार जा सकती है ।
सुविधाएँ यहाँ के बस स्टेण्ड के सामने ही पुस्तकालय है, जहाँ साधु-साध्वीयों हेतु अध्ययन की सुविधा है । पुस्तकालय भवन में ही विशाल उपाश्रय है । यात्रियों के लिए मन्दिर के निकट ही सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला है व यहाँ के बस स्टेण्ड के सामने नुतन यात्री आवास गृह है । जिसमें सर्वसुविधायुक्त 28 ब्लॉक बने हुये है । उसके निकट ही विशाल भोजनशाला की उत्तम व्यवस्था है ।
नोट : पर्यटकों के लिए दर्शन का समय मध्यान्ह 12 से सायं 6 बजे तक है । यहाँ पर अन्य दर्शनीय स्थल नक्की झील, सनसेटपोइन्ट, गोमुख, वसिष्ठाश्रम
तीर्थ स्थापना की सहायिका-माता श्री अंबिका देवी
अधरदेवी, गुरुशिखर व अचलगढ़ है । अचलगढ़ तीर्थ यहाँ से सिर्फ 4 कि. मी. दूर है ।
पेढ़ी शेठ श्री कल्याणजी परमानन्दजी पेढ़ी, देलवाड़ा जैन मन्दिर ।। पोस्ट : माऊन्ट आबू - 307 501. जिला : सिरोही, प्रान्त : राजस्थान, फोन : 02974-38424.
02974-37324. मुख्य कार्यालय : सुनारवाड़ा, सिरोही (राजस्थान), फोन : 02972-32525.
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PUNJAB
HIMACHAL PRADESH
JAMMU & KASHMIR # JAIN PILGRIM CENTER 1 GURDASPUR 2 HOSHIARPUR PAKISTAN 3 AMRITSAR 4 KAPURTHALA 5 JALANDHAR 6 KAPURTHAL 7 NAWANSHAHR 8 RUPNAGAR 9 LUDHIANA 10 FATEHGARH 11 PATIALA 12 SANGRUR 13 MANSA 14 BATHINDA 15 MUKTSAR 16 FARIDKOT 17 MOGA 18 FIROZPUR
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RAJASTHAN
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HIMACHAL PRADESH JAMMU & KASHMIR
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PUNJAB
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3
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1 SIRMOR 2 SOLAN 3 SHIMLA 4 BILASPUR 5 MANDI 6 KULLU 7 KINNAUR 8 LAHUL & SPITI 9 CHAMBA 10 KANGRA 11 HAMIRPUR 12 UNA
HARYANA
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विराजमान करवाया था, जो आज भी दर्शनीय है ।
एक और वृतांत के अनुसार ग्यारवीं सदी में जब जैन-अजैन विद्वान अपने-अपने पक्ष की विजय के लिये कार्यरत थे, पाण्डित्य के साथ-साथ मंत्र-तंत्र का भी खुलकर प्रयोग होने लगा था, देवी-देवताओं की मान्यता सफलता पूर्वक जड़पकड़ती जा रही थी, उस समय दक्षिण भारत का समूचा भाग चक्रेश्वरी माता के प्रभाव से नतमस्तक था । गुजरात काठियावाड़ आदि प्रांतों में श्री चक्रेश्वरी माता की प्रसिद्धि दिन प्रतिदिन बढ़ रही थी । पंजाब में जैन धर्म संकट में था उस समय यहाँ का जैन संघ एकत्रित होकर जैनाचार्य श्री धर्मघोषसूरिजी की सेवा में अर्बुदाचल (आबू) में उपस्थित हुवा व सारा हाल कह सुनाया । आचार्य भगवंत ने अपने दो विद्धान मुनियों को श्री सोमदेव व समंतदेव के संरक्षण में श्री चक्रेश्वरी देवी की प्रतिमा को पंजाब ले जाने का आदेश दिया। श्रीसंघ, मुनियों के साथ प्रतिमा को साथ लेकर पुनः पंजाब की ओर रवाना
हुवा, सरहिन्द की सीमा में एक वृक्ष के नीचे रात्री श्री आदीश्वर भगवान-सरहिन्द
विश्राम हेतु ठहरा । प्रातः प्रस्थान के लिये तैयारी हुई
तो माताजी की पालकी से आवाज आई कि मेरा यहीं श्री सरहिन्द तीर्थ
पर ही वास रहेगा यह स्थान मुझे अत्यंत प्रिय है ।
साथ में रहने वाले संघ के सदस्य झूम उठे व छोटे से तीर्थाधिराज 8 1. श्री आदीश्वर भगवान,
मन्दिर का निर्माण करवाकर माताजी की प्रतिमा को पद्मासनस्थ,श्वेत वर्ण,लगभग 37 सें. मी. (श्वे. मन्दिर)।
वहीं विराजमान कराया जो आज भी दर्शनीय है ।। 2. माता श्री चक्रेश्वरी देवी श्वेत वर्ण (श्वे. मन्दिर)।
उक्त दोनों वृतातों से यह सिद्ध होता हैं कि यह तीर्थ स्थल अतेवाली गाँव में ।
प्राचीन तीर्थ तो है ही साथ में चमत्कारिक स्थल भी प्राचीनता उपलब्ध विवरणों से यह तीर्थ स्थान है । काल के प्रभाव से यह सरहिन्द गाँव कई बार विक्रम की ग्यारवीं सदी का माना जाता है । कहा। बसा व उजड़ा परन्तु माताजी का यह पावन स्थल जाता है कि महाराजा श्री पृथ्वीराज चौहान के शासनकाल किसी भी आक्रमण व प्रकोप के लपेटों में नहीं आ में श्री कांगड़ा महातीर्थ की यात्रा हेतु राजस्थान से सका व ज्यों का त्यों ही बना रहा जो आज भी मौजूद बेलगाड़ियों में जाने वाले एक यात्रा संघ ने इस तीर्थ है । अभी पुनः जीर्णोद्धार का कार्य प्रारंभ किया गया भूमि पर विश्राम हेतु रात्री पड़ाव डाला । माता श्री है । चक्रेश्वरी देवी की प्रतिमा उनके साथ थी । रात भर विशिष्टता समस्त भारत में इस अवसर्पिणी भावभीना कीर्तन गान चलता रहा । प्रातः काल प्रस्थान काल के प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ भगवान की के समय बेलगाड़ी बहुत जोर लगाने पर भी वहीं रुकी अधिष्टायिका श्री चक्रेश्वरी माता, जिसे शासनदेवी भी रही बिल्कुल नहीं बढ़ सकी एवं चारों और प्रकाश के कहते हैं, का यही एकमात्र तीर्थ स्थान है. वैसे तो साथ आकाश से आवाज आई कि भक्तजनों यह स्थान शासनदेवी की प्रतिमा प्रायः हर मन्दिर में विराजित है। मुझे अत्यन्त प्रिय है, यहीं निवास करना है। यात्रीगण शासनदेवी के प्रभाव की यहाँ की चमत्कारिक घटना झूम उठे, नाचने गाने लगे व छोटे से मन्दिर का प्रायः कर्नाटक में श्री पद्मावती माता के हुम्बज तीर्थ निर्माण कर श्री चक्रेश्वरी माता की प्रतिमा को वहीं
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शासन देवी श्री चक्रेश्वरी माता-सरहिन्द
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के समान है अतः उत्तर भारत में श्री चक्रेश्वरी माता कला और सौन्दर्य माताजी के प्रतिमा की का यह मन्दिर व दक्षिण भारत में श्री पद्मावती माता कला अपने आपमें अनूठी है । मन्दिरजी में माताजी का मन्दिर अतीव प्रभाविक व विख्यात है ।
के चमत्कारिक घटनाओं एवं एतिहासिक प्रसंगों की ऐसे तो यहाँ अनेकों प्रकार की चमत्कारिक घटनाएँ।
रोचक गाथाएँ कांच पर बनाये गये चित्रों में दिखाई गई घटी है परन्तु पानी के अभाव में एक बालिका द्वारा
है जो अतीव दर्शनीय है । माता के गुणगान गाने पर पानी का झरना फूट पड़ना मार्ग दर्शन नजदीक का रेल्वे स्टेशन अम्बालाएक अत्यन्त प्रभाविक घटना है, वही झरना आज भी लुधियाना मार्ग में सरहिन्द-मण्डी लगभग 5 कि. मी. यहाँ मौजूद है व अमृतकुन्ड के नाम से विख्यात है। मैन लाइनपर है व फतेगढ़ साहिब लगभग 2 कि. मी. भक्तजन यहाँ के जल को गंगाजल के समान ही ब्रांच लाइनपर हैं । सरहिन्द मण्डी बस स्टेण्ड भी पवित्र मानकर अपने घर ले जाते हैं व सेवन करके। लगभग 5 कि. मी. दूर है । जहाँ से टेक्सी, आटो की अनेक रोगों से भी छुटकारा पाते हैं । ऐसा भक्तजनों सुविधाएँ है । कार व बस मन्दिर तक जा सकती है। द्वारा अभिहित है । उसी अमृतकुण्ड परिसर में भगवान नजदीक का हवाई अड्डा लुधियाना 55 कि. मी. व श्री आदिनाथ प्रभु की बहुत सुन्दर प्रतिमा विराजमान दिल्ली 300 कि. मी. दूर हैं । की गई, जो आज भी दर्शनीय है । अभी भव्य मन्दिर
सुविधाएँ वर्तमान में ठहरने के लिए 50 कमरे के निर्माण का कार्य चालू है ।
बने हुवे है, जहाँ भोजनशाला सहित सारी सुविधाएँ प्रतिवर्ष आश्विन शुक्ला चतुर्दशी को ध्वजा चढ़ाई उपलब्ध है। जाती है व आश्विन शुक्ला त्रयोदशी से पूर्णीमा तक पेढ़ी माता श्री चक्रेश्वरी देवी जैन तीर्थ भारी उत्सव मनाया जाता है जिसमें लगभग दस
प्रबन्धक कमेटी (रजि.) गाँव : अते वाली, हजार जैन अजैन भक्तगण भाग लेते है । माताजी के
पोस्ट : सरहिन्द, व्हाया : मानुपुर जिला : फतेगढ़ दर्शनार्थ जैन व अजैन आते ही रहते हैं व अपना साहिब (पंजाब),फोन : 0176 3-32246. मनोरथ पूर्ण करते हैं ।
पी.पी. 0171-530781, 533481, 530166. अन्य मन्दिर वर्तमान में यहाँ इसके अतिरिक्त कोई मन्दिर नहीं है ।
माता श्री चक्रेश्वरी देवी जैन तीथ
प्रवेश द्वार-सरहिन्द
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श्री वासुपूज्य भगवान-होशियारपुर
श्री होशियारपुर तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री वासुपूज्य भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण, लगभग 100 सें. मी. (श्वे. मन्दिर)।
तीर्थ स्थल होशियारपुर शहर के शीश महल बाजार में ।
प्राचीनता प्राचीन समय से पंजाब से सिंध तक यह पूरा क्षेत्र जैन धर्म का अतीव जाहोजलालीपूर्ण केन्द्र रहा ।
आचार्य मानतुंगसुरिजी ने नाडोल में रहकर लधुशांती स्तोत्र की रचना कर इसीक्षेत्र में चल रही महामरी उपद्रव को शांत किया था ।
आर्य कालकासूरि, तत्वार्थसूत्र के रचियता वाचकपुंगव
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प्राचीन मन्दिर नजर नहीं आ रहे हैं । संभवतः काल के प्रभाव से उन्हें क्षति पहुँची हो ।
वर्तमान में पंजाब में स्थित मन्दिरों में यहाँ का यह मन्दिर सबसे प्राचीन माना जाता है जो संभवतः दो सौ वर्ष पूर्व का है ।
विशिष्टता इस भव्य मन्दिर का शिखर स्वर्णमय है । शिखर पर सोने का पत्तर चढाया हुवा है अतः इसे स्वर्ण मन्दिर कहते हैं । ___इस शैली का स्वर्ण मन्दिर जैन मन्दिरों में पूरे भारत में यही एक मात्र है, यही यहाँ की मुख्य विशेषता
श्री बुटेरायजी का यह जन्म क्षेत्र है, जिन्होंने कई मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई थी । इस क्षेत्र में हुवे आत्मारामजी महाराज साहब ने भी धर्म प्रभावना के अनेकों कार्य किये । आज स्थित गुरु भगवंतों में उनके शिष्य समुदाय के अधिकतर हैं ।
अन्य मन्दिर 8 वर्तमान में इसके अतिरिक्त एक और पार्श्वनाथ भगवान का मन्दिर है ।
कला और सौन्दये यहाँ पर इस मन्दिर के शिखर की कला निराले ढंग की है । प्रभु प्रतिमा भी अतीव मनमोहक व प्रभाविक है । यहाँ पर हस्त लिखित पुस्तक भंडार है । अन्य मन्दिर में मुलनायक श्री पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा भी प्राचीन व प्रभाविक है जो दर्शनीय है ।
मार्ग दर्शन यहाँ का रेल्वे स्टेशन व बस स्टेण्ड मन्दिर से सिर्फ 1 कि. मी. दूर है । गाँव में आटो व टेक्सी की सवारी का साधन है । नजदीक का हवाई अड्डा अमृतसर लगभग 120 कि. मी. दूर है ।
सुविधाएँ 8 ठहरने हेतु मन्दिर के अहाते में ही धर्मशाला है । परन्तु फिलहाल खास सुविधा नहीं
श्री वासुपूज्य जिनालय-होशियारपुर
श्री उमास्वातीजी, आचार्य जिनदत्तसुरीजी, हरिगुप्रसुरिजी, विजयसेनसुरिजी, जिनचन्द्रसुरिजी आदि अनेक प्रकाण्ड गुरु भगवंतों ने इस क्षेत्र में विहार कर इसे पावन बनाया था ।
विक्रम की तीसरी सदी में इसीपंजाब क्षेत्र के तक्षशिला में लगभग 500 जिन मन्दिरों के रहने व जैन धर्म का मुख्य विधाकेन्द्र रहने का उल्लेख है । जिससे इस पंजाब क्षेत्र की जाहोजलाली स्वतः प्रमाणित हो जाती है ।
उक्त प्रमाणों से यह भी माना जा सकता है कि इस क्षेत्र के हर गांव में मन्दिरों का अवश्य निर्माण हुवा ही होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं । परन्तु आज वे
पेढी श्री आत्मानन्द जैन सभा (रजि.), श्री वासुपूज्य भगवान जैन श्वे. मन्दिर, शीश महल बाजार, पोस्ट : होशियारपुर - 146 001. (पंजाब), फोन : पी.पी. 01882-223325
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श्री काँगड़ा तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री आदीश्वर भगवान, पद्मासनस्थ (श्वे. मन्दिर)।
तीर्थ स्थल रवि व सतलज नदी के संगम-स्थान काँगड़ा के बाहर सुरम्य पहाड़ी पर प्राचीन दुर्ग में ।
प्राचीनता यह तीर्थ क्षेत्र वर्तमान चौवीसी के बाईसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ भगवान के समय का है।
शास्त्रों में इस नगरी का प्राचीन नाम सुशर्मपुर रहने का उल्लेख है । कहा जाता है महाभारत युद्ध के समय राजा श्री सुशर्मचन्द्र ने राजा दुर्योधन की तरफ से विराट नगर पर चढ़ाई की थी । महायुद्ध में पराजय होने के कारण इस प्रदेश में आकर अपने नाम से नगर बसाया था । तब जिन मन्दिर का निर्माण करवाकर श्री आदिनाथ भगवान की प्रतिमा को प्रतिष्ठत करवाया था । श्री नेमिनाथ भगवान के समय राजा श्री सुशर्मचन्द्र द्वारा यहाँ श्री आदिनाथ भगवान की प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाने का 'वेद्य प्रशस्ति' में व वि. सं. 1484 में श्री जयसागर उपाध्याय जी द्वारा रचित 'विज्ञप्ति त्रिवेणी' में भी उल्लेख मिलता है । ___ काँगड़ा के प्राचीन नाम भीमकोट व भीमनगर भी
श्री आदिनाथ भगवान-काँगड़ा रहने का उल्लेख मिलता है । 'विज्ञाप्ति त्रिवेणी' में इसे 'अंगदक' महादुर्ग' भी बताया है । आज इसे नगरकोट किला भी कहते है । मुगल बादशाहों के राज्यकाल में
___के कारण यहाँ की महान विशेषता है । प्राचीन काल काँगड़ा नाम पड़ा होगा, ऐसा प्रतीत होता है ।
में यह एक बड़ा वैभव संपन्न जैन तीर्थ क्षेत्र था व __श्री जयसागर उपाध्यायजी द्वारा वि. सं. 1484 में
अनेकों यात्रा संघ यहाँ दर्शनार्थ आते रहते थे । आज रचित 'विज्ञप्ति त्रिवेणी' में उस समय यहाँ 4 मन्दिर
भी यहाँ पर उपलब्ध प्राचीन मन्दिरों के ध्वंसावशेष पूर्व रहने का उल्लेख है । उसके बाद वि. सं. 1497 में
काल की याद दिलाते हैं । कटौच राजवंश ने शताब्दियों रचित -नगरकोट चैत्य परिपाटी' में यहाँ 5 मन्दिर रहने
तक इस तीर्थ को पूजा । पश्चात् शताब्दियों तक यह
क्षेत्र ओझल रहा । पाटण भन्डार में उपलब्ध 'विज्ञप्ति का उल्लेख है । अन्य तीर्थमालाओं में भी यहाँ वि. सं. 16 34 तक मन्दिर रहने के उल्लेख है । कालक्रम से
त्रिवेणी' नामक ग्रन्थ में इस तीर्थ का उल्लेख देखकर उसके पश्चात् यहाँ के मन्दिरों को किसी वक्त क्षति
मुनिश्रीजिनविजयजी ने आचार्य श्री विजयवल्लभसूरीश्वरजी
से जानकारी पाकर इस तीर्थ की खोज की, जिससे वि. पहूँची होगी । वर्तमान में यहाँ यही एक प्राचीन मन्दिर है, जहाँ कटौच राजवंश द्वारा सदियों तक पूजित श्री
सं. 1947 से पुनः यात्रा संघों का आवागमन प्रारम्भ
हुआ । प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ला त्रयोदशी से पूर्णिमा तक आदीश्वर भगवान की विशालकाय भव्य प्रतिमा के
मेला भरता है । उक्त अवसर पर प्रतिवर्ष होशियारपुर दर्शन का लाभ मिलता है ।
से यात्रासंघ में हजारों भक्तगण आकर प्रभु-भक्ति में विशिष्टता यह तीर्थ-क्षेत्र श्री नेमिनाथ भगवान
तल्लीन होते हैं । के काल में राजा श्री सुशर्मचन्द्र द्वारा निर्माणित होने
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दुर पहाड़ी दृश्य-काँगड़ा
अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त यहाँ किले की तलहटी में स्थित धर्मशाला के निकट एक और नवनिर्मित मन्दिर है ।
कला और सौन्दर्य 8 यह क्षेत्र पर्वत की हरी-भरी घाटियों, हिमालय की बर्फीली चोटियों व नदी-नालों से सुशोभित है । यहाँ से हिमालय का प्राकृतिक दृश्य देखते ही बनता है । __ यहाँ के खण्डित मन्दिरों में प्राचीन कला के नमूने नजर आते हैं । मूलनायक प्रतिमा की कला विशिष्ट शोभायमान है । __ मार्ग दर्शन 8 काँगड़ा रेल्वे स्टेशन से यहाँ की जैन धर्मशाला लगभग 1/2 कि. मी. किले के समीप है । धर्मशाला तक पक्की सड़क है । कार व बस जा सकती है । स्टेशन से लोकल बस व आटो-टेक्सी का साधन है । होशियारपुर से यह स्थल लगभग 102 कि. मी. दूर है । पठानकोट से रेल मार्ग द्वारा सीधा काँगड़ा पहुंचा जा सकता है । बस स्टेण्ड से धर्मशाला लगभग 4 कि. मी. है । धर्मशाला में किले पर जाने हेतु डोली का इंतजाम हो सकता है । धर्मशाला से किले का मन्दिर लगभग 12 कि. मी. है । पैदल चढ़ना पड़ता है परन्तु रास्ता सुगम है ।
सुविधाएँ ठहरने के लिए किले के समीप ही सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला है, जहाँ भोजनशाला की भी सुविधा है ।
श्री आदिनाथ प्रभु जिनालय-काँगड़ा
पेढ़ी 8 श्री श्वेताम्बर जैन काँगड़ा तीर्थ प्रबन्धक कमेटी, जैन धर्मशाला, काँगड़ा किले के सामने । पोस्ट : पुराना काँगड़ा - 176 001. जिला : काँगड़ा, प्रान्त : हिमाचल प्रेदश, फोन : 01892-65187.
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गनवण
श्री सुमतिनाथ भगवान (श्वे.)-इन्द्रप्रस्थ
श्री इन्द्रप्रस्थ तीर्थ
2. श्री पार्श्वनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, (दि. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल 8 1. श्वे. मन्दिर - किनारी बाजार के नौघरा मोहल्ले में ।
3. दि. मन्दिर - चान्दनी चौक में (लालमन्दिर) ।
तीर्थाधिराज 8 1. श्री सुमतिनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 38 सें. मी. (श्वे.मन्दिर) ।
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प्राचीनता प्राचीन काल का "इन्द्र प्रस्थ" शहर आज दिल्ली शहर के नाम विख्यात है, जिसे प्रारंभ से भारत की राजधानी रहने का सौभाग्य प्राप्त हुवा है ।
इन्द्रप्रस्थ शहर श्री नेमिनाथ भगवान के शासनकाल में श्री पाण्डवों द्वारा बसाया जाकर अपनी राजधानी बनाने का उल्लेख है । कहा जाता है कि पाण्डवों ने यहाँ पर अपना किला भी बनाया था ।
इन्द्रप्रस्थ शहर का घेराव यमुना-नदितट से लेकर महरोली के निकट तक रहने का संकेत मिलता है ।
पाण्डवों को श्रमण संस्कृति पर अत्यन्त अनुराग गौरव व श्रद्धा थी। श्री नेमिनाथ भगवान के परम भक्त थे।
तीर्थाधिराज श्री शत्रुजय महातीर्थ के बारहवाँ उद्धार का सुअवसर पाण्डवों को प्राप्त हुवा था एवं वे अपने अंत समय में अनेकों मुनिगणों के साथ तपश्चर्या करते हुवे शत्रुजय गिरिराज पर ही मोक्ष सिधारे ऐसा उल्लेख
प्राचीन मन्दिर आज नजर नहीं आ रहे हैं । हो सकता है कालक्रम से जगह-जगह पर असंख्य मन्दिरों को क्षति पहुँचने का उल्लेख आता है, उसी प्रकार यहाँ भी हुआ होगा । जगह-जगह पर भूगर्भ में से अनेकों प्राचीन प्रतिमाएँ अभी भी प्रकट होती आ रही है । यहाँ पर भी कई ध्वंशावशेष अभी भी इधर-उधर नजर आते हैं।
तोमरवंशीय राजाओं के शासनकाल में “इन्द्रप्रस्थ" का नाम “दिल्ली” के नाम में परिवर्तन होने का उल्लेख है ।
वि. सं. 1223 में तोमरवंशीय राजा मदनपाल के समय प. पूज्य मणिधारी आचार्य भगवंत श्री जिनचन्द्रसुरीश्वरजी का राजसी स्वागत के साथ यहाँ चातुर्मास होने का उल्लेख है । दुर्भाग्यवश उसी चातुर्मास के दरमियान मिती भाद्रवा कृष्णा चतुर्दशी के दिन आचार्य भगवंत सिर्फ 26 वर्षों की अल्प आयु में यहीं पर देवलोक सिधारे, जिनका अग्नी संस्कार तात्कालीन राजा द्वारा प्रदानित जगह महरोली में अतीव ठाठपूर्वक राजकीय सम्मान के साथ हजारों श्रावकगणों की उपस्थिति में हुवा था । यह स्थान आज भी
अतः ऐसे भाग्यशाली पुण्यवंतो ने अपनी राजधानी इन्द्रप्रस्थ में भी अवश्य कई मन्दिरों का निर्माण करवाया होगा इसमें कोई सन्देह नहीं । परन्तु वे
श्री दिगम्बर जैनलाल मन्तिरजी
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दिगम्बर जैन लाल मन्दिर-इन्द्रप्रस्थ
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श्री पार्श्वनाथ भगवान (दि.मन्दिर)-इन्द्रप्रस्थ
विद्यमान है जो दादावाड़ी के नाम विख्यात है व वहाँ मातंड व वरह नामके दो गांव भी बादशाह द्वारा भेंट पर दादा गुरुदेव की चरण पादुका भक्तों के पूजा-सेवा देने का उल्लेख है । बादशाह ने आचार्य भगवंत के व दर्शनार्थ स्थापित है । आचार्य भगवंत ने धर्म उपदेशों से प्रभावित होकर शत्रुजय गिरिराज व गिरनार प्रभावना के अनेकों कार्य किये जो आज भी तीर्थों के रक्षार्थ फरमान जाहिर करने का भी उल्लेख है। विख्यात है ।
__ पश्चात् समय-समय पर अनेकों श्वे. व दि. आचार्य वि. सं. 1305 में आचार्य भगवंत श्री गुरु भगवंतों के यहाँ चातुर्मास हुवे । कई मन्दिरों का जिनलाभसूरीश्वरजी ने प्रथम अंग की रचना यहीं पर । भी निर्माण हुवा । कई तीर्थमालाओं की भी यहाँ रचना की थी ।
हुई । कई तीर्थ मालाओं में यहाँ के मन्दिरों का वि. सं. 1389 भाद्रवा कृष्णा दशमी को आचार्य उल्लेख मिलता है । यहाँ से शत्रुजय, गिरनार आदि भगवंत श्री जिनप्रभसूरीश्वरजी ने अपने द्वारा रचित ताथ यात्राथ कई यात्रा सघ निकलन का भा उल्लेख है। "विविध तीर्थ कल्प" नामक तीर्थ माला की रचना को संभवतः प्रारंभ से अभी तक यहाँ अनेकों मन्दिरों का यहीं पर पूर्ण किया था । वह रचना आज भी प्रचलित निर्माण हुवा होगा परन्तु वर्तमान में स्थित श्वे. मन्दिरों है, व इतिहास की दृष्टी से अतीव महत्वपूर्ण व में श्री सुमतिनाथ भगवान का मन्दिर व दि. मन्दिरों में उपयोगी मानी जाती है । आचार्य भगवंत के प्रवेश के श्री पार्श्वनाथ भगवान का लाल मन्दिर के नाम समय वैशाख माह में यहाँ पर मन्दिर की प्रतिष्ठा विख्यात मन्दिर प्राचीनतम माने जाते है । श्री सुमतिनाथ करवाने का उल्लेख है । उस समय बादशाह हमीर भगवान (श्वे. मन्दिर) के निकट का श्री संभवनाथ मोहमद तुगलक) का शासन था । मन्दिर के लिये भगवान का श्वे. मन्दिर भी लगभग उसी समय का
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माना जाता है ।
श्री सुमतिनाथ भगवान श्वेताम्बर जैन मन्दिर लगभग 1500 वर्ष से पूर्व का माना जाता है । यहाँ की विख्यात प्राचीन कला, प्राचीन हस्त स्वर्ण चित्रकारी
आदि प्राचीनता प्रमाणित करते हैं । जिसका वर्णण विश्व की गाईडों में भी हैं अतः विदेश के दर्शनार्थी व छात्र-छात्राएं भी आते रहते हैं ।
श्री पार्श्वनाथ भगवान दिगम्बर जैन मन्दिर लगभग 800 वर्ष पूर्व का मुगलकालीन ऐतिहासिक बताया जाता है । जिसका निर्माण एक दिगम्बर फोजी भाई द्वारा करवाया जाने का उल्लेख है । यह विशाल व अतिशयकारी प्राचीन मन्दिर है । इसका अन्तिम जीर्णोद्धार सं. 1935 में हुवा तब लाल दिवारें लगायी गई । कहा जाता है कि उसी समय से यह लाल मन्दिर के नाम से जाना जाने लगा । इसके पूर्व यह रेती के कूँचे का मन्दिर, उर्दू मन्दिर व लश्करी मन्दिर के नाम से जाना जाता था । ___कहा जाता है कि औरंगजेब के समय मन्दिर में एक नगाड़ा बजता था जिसे नहीं बजाने के लिये सम्राट ने शाही फरमान जाहिर किया परन्तु नगाड़ा बिना किसी के बजाये ही बजता रहा । यह एक विशिष्ट चमत्कारिक घटना थी ।
विशिष्टता यह पावन स्थल भगवान नेमिनाथ के समयकालीन प्रभु के परम भक्त श्रमण धर्मोपासक श्री पाण्डवों द्वारा स्थापित राजधानी को आज तक भारत की राजधानी रहने का सौभाग्य प्राप्त हुवा, यह यहाँ की मुख्य विशेषता है । ___प. पुज्य मणिधारी दादागुरुदेव आचार्य भगवंत श्री जिनचन्द्रसूरीश्वरजी का यहाँ समाधी स्थल व उसी प्राचीन अग्नी संस्कार स्थल पर उनके चरण पादुका पूजा-सेवा व दर्शनार्थ प्रतिष्ठित रहने के कारण यहाँ की विशेषता को और भी प्रधानता मिली है । इतने प्राचीन मूल स्थान पर आचार्य गुरुभगवंतों के प्राचीन चरण चिन्ह बहुत ही कम जगह नजर आते है । आज भी दादागुरुदेव प्रत्यक्ष है व यहाँ हजारों भक्तगणों का निरन्तर आवागमन रहता है । आने वाले श्रद्धालु भक्तजनों की मनोकामना पूर्ण होती है ।
प. पूज्य आचार्य भगवंत श्री जिनप्रभसूरीश्वरजी द्वारा रचित अतीव मशहूर आज भी अतीव उपयोगी
श्री “विविध-तीर्थ कल्प" जेसी तीर्थ माला के रचना का यहाँ पर सम्पूर्ण होना भी महत्वपूर्ण विशेषता है । आज भी यह तीर्थ माला प्रमाणिक मानी जाती है ।।
अन्य मन्दिर इनके अतिरिक्त श्वेताम्बर मन्दिर व दिगम्बर मन्दिर है । महरोली दादावाड़ी के अतिरिक्त एक और दादा श्री जिनकुशलसुरिश्वरजी दादावाड़ी व आत्म वल्लभ स्मारक गुरु मन्दिर है ।
इस लाल दिगम्बर मन्दिर में हजार वर्ष प्राचीन प्रतिमाएं दर्शनीय है जिसके दर्शनार्थ यात्री व देश-विदेश
के पर्यटक आते रहते हैं । __कला और सौन्दर्य इस श्वे. मन्दिर में स्वर्ण चित्रकारी, हस्तलिखित धार्मिक पुस्तकों का संग्राहलय व अन्य कला आदि तो अतीव दर्शनीय है । महरोली के निकट एवं कुतुब मिनार आदि के पास भी प्राचीन कलात्मक अवशेष नजर आते हैं । कुतुब मिनार में भी कई प्राचीन जैन कला के नमूने नजर आते है ।
मार्ग दर्शन भारत की राजधानी का शहर होने के कारण भारत में सभी जगह रेल, बस, व हवाई जहाज द्वारा जाने की सुविधा है । विदेश में सभी जगह जाने हेतु हवाई जहाज की सुविधा है ।
इन श्वे. व दि. मन्दिरों से नई दिल्ली लगभग 3 कि. मी. व पुरानी दिल्ली एक कि. मी दूर है । दोनों मन्दिरों तक पक्की सड़क है । कार, बस व आटो मन्दिर तक जा सकते है । हवाई अड्डा लगभग 20 कि. मी. दूर है । शहर में सभी जगह बस, टेक्सी व आटो की सुविधा है ।
सुविधाएँ ॐ श्वेताम्बर मन्दिर के निकट सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला है । भोजनशाला का निर्माण कार्य चालू हैं । दोनों दादावाड़ियों व आत्म-बल्लभ स्मारक गुरु मन्दिर में भी भोजनशाला सहित धर्मशालाएं है ।
दिगम्बर मन्दिर के पास भी सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला व अतिथी भवन आदि है । दिगम्बर जैन भवन-फव्वारा के पास भोजनशाला है ।
पेढ़ी 1. श्री सुमतिनाथ भगवान (श्वे.) जैन मन्दिर, श्री जैन श्वे. मन्दिर व पौशाल चेरिटेबल ट्रस्ट, 1997 नौघरा किनारी बाजार, दिल्ली - 110 006. फोन : 011-3270489 2. श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन लाल मन्दिर, चाँदनी चौक, दिल्ली - 110006. फोन : 011-3280942.
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