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मुहूर्त में कोरटा व ओसियाँ नगरी में जिन-मन्दिरों की श्री ओसियाँ तीर्थ
प्रतिष्ठा करवाने का उल्लेख है । भीनमाल के इतिहास
में भी राजकुमार उपलदेव व मंत्री द्वारा इसी काल में तीर्थाधिराज श्री महावीर भगवान, पद्मासनस्थ, यहाँ उपकेशनगर बसाने का उल्लेख है । श्वर्ण वर्ण, लगभग 80 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) ।
नव प्रमोद द्वारा रचित 'ओसियाँ वीर स्तवन' के तीर्थ स्थल ओसियाँ गाँव के मध्य ।
अनुसार अगर यह नगरी ही विक्रम की 11 वीं सदी प्राचीनता इस नगरी के प्राचीन नाम में बसाई गई होती तो उसके सात सौ वर्ष पूर्व संप्रति उपकेशपट्टण, उरकेश, मेलपुरपत्तन, नवनेरी आदि रहने
राजा के यहाँ आने का व प्रतिमा निर्मित करवाने का के उल्लेख मिलते हैं । विक्रम की चौदहवीं सदी में ____ कारण ही नहीं बनता । आठवीं सदी की शिल्पकला भी रचित उपकेशगच्छपट्टावली के अनुसार विक्रम की चार यहाँ कैसे उपलब्ध होती ? शताब्दी पूर्व लगभग वीर निर्वाण सं. 70 में श्री अतः यह सिद्ध होता है कि यह नगरी वीर प्रभु के पार्श्वनाथ भगवान के सातवें पाटेश्वर आचार्य निर्वाण के लगभग 70 वर्ष पश्चात् बस चुकी थी। व रत्नप्रभसूरीवरजी अपने पाँच सौ शिष्यसमुदाय सहित इस मन्दिर का निर्माण भी उसी काल में हुआ था । यहाँ पधारे थे । तब यहाँ के राजा उपलदेव व मंत्री समय-समय आवश्यक जीर्णोद्धार होते ही है । उसी उहड़ थे । राजा उपलदेव व मंत्री उहड ने आचार्य भाँति आठवीं सदी में जीर्णोद्धार हुआ होगा । लेकिन श्री से प्रतिबोध पाकर जैन धर्म अंगीकार किया था । यह प्रतिमा वही प्राचीन मानी जाती है, जो भगवान राजा उपलदेव द्वारा इस मन्दिर का निर्माण करवाकर महावीर के 70 वर्षों पश्चात् भूगर्भ से प्रकट हुई थी। आचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी के सुहस्ते इस प्रभु अभी भी जीणोद्धार का कार्य चालू है, जो कुछ वर्षों पूर्व प्रतिमा की प्रतिष्ठा होने का उल्लेख है । किसी समय प्रारंभ किया गया था । यह एक समृद्धशाली विराट नगरी थी । इस नगरी का
विशिष्टता भगवान महावीर के 70 वर्षों क्षेत्रफल बहुत बड़ा था । लोहावट व तिंवरी आदि इसके
पश्चात् श्री पार्श्वनाथ भगवान के सातवें पाटेश्वर मोहल्ले थे ।
आचार्य श्री रत्न-प्रभुसूरीश्वरजी ने यहाँ के राजा __ श्री हीर उदयन के शिष्य श्री नयप्रमोद द्वारा वि. सं. उपलदेव, मंत्री उहड़ व अनेकों शूरवीर राजपूतों को 1712 में रचित 'ओसियाँ वीर स्तवन' में इस प्रतिमा जैन-धर्म अंगीकारकरवाया एवं ओशवंश की स्थापना को संप्रति राजा द्वारा निर्मित बताया है । सदियों तक करके उन्हें ओशवंश में परिवर्तित किया था । यह यह प्रतिमा भूगर्भ में रही । जब उहड़ मंत्री ने यह ओशवंश का उत्पत्ति स्थान रहने के कारण यहाँ की नगरी बसाई तब आचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी का मुख्य विशेषता है । आज ओशवंश के श्रावकगण भारत यहाँ पदार्पण हुआ व उहड़ मंत्री ने आचार्य श्री से में ही नहीं, दुनिया के हर कोने में बसे हुए हैं व प्रायः प्रतिबोध पाकर जैन धर्म अंगीकार किया था । उस सारे समृद्धिशाली है, जो सदियों से धर्म प्रभावना व समय यह प्रतिमा भूगर्भ से प्रकट हुई थी, जिसे मन्दिर परोपकार के अनेकों कार्य करते आ रहे हैं । यह सब का नव निर्माण करवाकर वि. सं. 1017 माघ कृष्णा शुभ समय में प्रकाण्ड आचार्य द्वारा किए स्थापना का 8 के दिन प्रतिष्ठित करवाने का उल्लेख है ।
मूल कारण है । 'ओसवाल उत्पत्ति' शीर्षक के हस्तलिखित पत्र में
ओशवाल समाज का हर व्यक्ति अपने पूर्वजों की उहड मंत्री द्वारा वि. सं. 1011 में ओसियाँ बसाने का पवित्र भूमि पर ओशवंश के संस्थापक द्वारा प्रतिष्ठित व वि. सं. 1017 में मन्दिर बनवाने का उल्लेख है। भगवान महावीर के दर्शन करने का अवसर
पुरातत्व-वेत्ताओं के अनुसार यहाँ की शिल्पकला न चुकें । आठवीं सदी की मानी जाती है ।
मन्दिर में श्री पुनिया बाबा के नाम से विख्यात अति कोरटा के इतिहास में वीर प्रभु के निर्वाण के 70 चमत्कारिक श्री अधिष्ठायक देव की प्रतिमा नाग-नागिनी वर्ष पश्चात् आचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी द्वारा एक ही के रूप में विराजित है । यह प्रतिमा भी मूल प्रतिमा 276