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प्राचीनता प्राचीन काल का "इन्द्र प्रस्थ" शहर आज दिल्ली शहर के नाम विख्यात है, जिसे प्रारंभ से भारत की राजधानी रहने का सौभाग्य प्राप्त हुवा है ।
इन्द्रप्रस्थ शहर श्री नेमिनाथ भगवान के शासनकाल में श्री पाण्डवों द्वारा बसाया जाकर अपनी राजधानी बनाने का उल्लेख है । कहा जाता है कि पाण्डवों ने यहाँ पर अपना किला भी बनाया था ।
इन्द्रप्रस्थ शहर का घेराव यमुना-नदितट से लेकर महरोली के निकट तक रहने का संकेत मिलता है ।
पाण्डवों को श्रमण संस्कृति पर अत्यन्त अनुराग गौरव व श्रद्धा थी। श्री नेमिनाथ भगवान के परम भक्त थे।
तीर्थाधिराज श्री शत्रुजय महातीर्थ के बारहवाँ उद्धार का सुअवसर पाण्डवों को प्राप्त हुवा था एवं वे अपने अंत समय में अनेकों मुनिगणों के साथ तपश्चर्या करते हुवे शत्रुजय गिरिराज पर ही मोक्ष सिधारे ऐसा उल्लेख
प्राचीन मन्दिर आज नजर नहीं आ रहे हैं । हो सकता है कालक्रम से जगह-जगह पर असंख्य मन्दिरों को क्षति पहुँचने का उल्लेख आता है, उसी प्रकार यहाँ भी हुआ होगा । जगह-जगह पर भूगर्भ में से अनेकों प्राचीन प्रतिमाएँ अभी भी प्रकट होती आ रही है । यहाँ पर भी कई ध्वंशावशेष अभी भी इधर-उधर नजर आते हैं।
तोमरवंशीय राजाओं के शासनकाल में “इन्द्रप्रस्थ" का नाम “दिल्ली” के नाम में परिवर्तन होने का उल्लेख है ।
वि. सं. 1223 में तोमरवंशीय राजा मदनपाल के समय प. पूज्य मणिधारी आचार्य भगवंत श्री जिनचन्द्रसुरीश्वरजी का राजसी स्वागत के साथ यहाँ चातुर्मास होने का उल्लेख है । दुर्भाग्यवश उसी चातुर्मास के दरमियान मिती भाद्रवा कृष्णा चतुर्दशी के दिन आचार्य भगवंत सिर्फ 26 वर्षों की अल्प आयु में यहीं पर देवलोक सिधारे, जिनका अग्नी संस्कार तात्कालीन राजा द्वारा प्रदानित जगह महरोली में अतीव ठाठपूर्वक राजकीय सम्मान के साथ हजारों श्रावकगणों की उपस्थिति में हुवा था । यह स्थान आज भी
अतः ऐसे भाग्यशाली पुण्यवंतो ने अपनी राजधानी इन्द्रप्रस्थ में भी अवश्य कई मन्दिरों का निर्माण करवाया होगा इसमें कोई सन्देह नहीं । परन्तु वे
श्री दिगम्बर जैनलाल मन्तिरजी
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दिगम्बर जैन लाल मन्दिर-इन्द्रप्रस्थ
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