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खजांची आदि जैन श्रावक ही रहे ।
राव हमीर के पश्चात् यहाँ की सत्ता राव राम, राव इंगरसी, राव मालदेव व उदयसिंह के पास रही । पश्चात् कुछ वर्ष तक जैसलमेर व बीकानेर के आधीन रही । वि. सं. 1672 से पुनः जोधपुर के आधीन है।
उक्त वर्णन से यहाँ की प्राचीनता स्वतः सिद्ध होती है व प्रतीत होता है कि इस स्थान का अनेकों बार उत्थान पत्तन हुवा ।
पूर्व काल में जैन राजाओं, जैन मंत्रीगणों व जैन श्रेष्टीगणों द्वारा समय-समय पर अनेकों मन्दिरों का भी अवश्य निर्माण हुवा होगा, परन्तु आज उन प्राचीन मन्दिरों का पता नहीं हैं । संभवतः राज्य क्रांति या भूकम्प आदि के कारण भूमीगत हो गये होंगे, जैसा प्रायः हर जगह पाया जाता है । यहाँ पर भी भूगर्भ से प्राचीन भग्नावशेष प्राप्त होते रहने का उल्लेख है।
वर्तमान पूजित जैन मन्दिरों में यह श्री शांतिनाथ भगवान का मन्दिर प्राचीनतम माना जाता है ।
श्री शान्तिनाथ जिनालय शिखर-विजयपुरपत्तन जिसका अंतिम जीर्णोद्धार वि. सं. 1689 में होने का उल्लेख मन्दिर में एक शिलालेख में है । उस समय
भी सहयोग मिलने का उल्लेख है, जो सराहनीय है । इस शहर का नाम फलवृद्धिकानगर रहने का उल्लेख
कहा जाता है कि श्री सिद्धूजी कल्ला पुष्करणा ब्राह्मण
थे । आज भी यहाँ ओसवाल समाज व पुष्करणा किले में स्थित प्राचीन जैन मन्दिर के भग्नावशेष ब्राह्मण समाज के घर ज्यादा है ।। भगवान की गादी के साथ आज भी दिखाई देते है जो शताब्दी पूर्व प्राचीन काल में और भी अनेकों जैन यहाँ की प्राचीनता की याद दिलाते हैं । परन्तु मन्दिर श्रावकों ने धर्म प्रभावना व जन कल्याण के अनेकों में प्रतिमाएं नहीं है संभवतः सुरक्षार्थ कहीं और जगह कार्य किये होंगे । वर्तमान शताब्दी में भी यहाँ के विराजमान करदी होगी । किले के दरवाजे के ऊपरी श्रावकों ने धर्म प्रभावना व जन कल्याण के अनेकों भाग में पाट पर श्री पार्श्व प्रभु की अति मनोरम । कार्य किये हैं उनका पूर्ण विवरण यहाँ देना संभव नहीं। प्रभाविक सुन्दर प्रतिमा उत्कीर्ण है जो आज भी । अनेकों यात्रा संघों का भी आयोजन हुवा, जिनमें वि. विद्यमान है।
सं. 1990 में श्री पांचूलालजी वैद द्वारा आयोजित यहाँ विशिष्टता * इस पावन नगरी की प्रथम से जैसलमेर का भव्य छःरी पालक यात्रा संघ विख्यात स्थापना करने का सौभाग्य जैन धर्मावलम्बी राजा को व चिरस्मरणीय है । जिसे आज भी भाग लेने वाले प्राप्त हुवा जिन्होंने सैकड़ों वर्ष तक राज्य किया । यह साधु-साध्वीगण व यात्रीगण याद करते हैं । स्व. श्री यहाँ की मुख्य विशेषता है ।
किशलालजी लुणावत दानवीरों में आज भी मशहूर है, गत विध्वंस के पश्चात् भी पुनरोद्धार में जैन श्रावक जिन्होंने किसी याचक को खाली हाथ नहीं भेजा । राव जोधाजी के विश्वासपात्र खजांची श्री मेहपालजी के उन्होंने मन्दिर, धर्मशाला व उपाश्रय का भी निर्माण पुत्र श्री कोचरजी का भी विशेष सहयोग प्राप्त हुवा था। करवाया । आज भी यहाँ के श्रावक भारत भर में ऐसा उल्लेख है । यह भी यहाँ की विशेषता है । गत जगह-जगह बसे हुवे हैं व अनेक प्रकार के जन विध्वंस के पश्चात् पुनरोद्धार में श्री सिद्धूजी कल्ला का कल्याण व धर्म प्रभावना के कार्य करते आ रहे हैं ।
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