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________________ व अति सुन्दर (कसौटी पाषण में निर्मित) दो प्रतिमाएँ, लेकर मुलतान जा रहे थे । तब विश्राम के लिए यहाँ रुके । रात में दैविक शक्ति से इनको स्वप्न आया कि यहाँ के सेठ थीरुशाह को ये प्रतिमाएं दे देना । उधर थीरुशाह को भी स्वप्न में इन प्रतिमाओं को लेने के " लिए प्रेरणा मिली । दूसरे दिन दोनों एक दूसरे को ढूँढ़ने निकले व मिलने पर सेठ ने दोनों प्रतिमाओं के बराबर सोना देकर प्रतिमाएँ प्राप्त की । कारीगर लोग अत्यन्त खुश हुए । जिस काष्ट के रथ में कारीगर प्रतिमाएँ लाये थे वह अभी भी यहाँ विद्यमान है । एक मत यह भी है कि सेठ थीरुशाह जो रथ संघ में साथ लेकर गये थे वही यह रथ है । वापस आते वक्त इन प्रतिमाओं को पाटण से लेकर आये थे । इन "तीर्थ-दर्शन" सफलता हेतु आशीर्वाद-लोद्रवपुर विशिष्ट कलात्मक प्रतिमाओं की इस मन्दिर में वि. सं. 1673 मिगसर शुक्ला 12 के दिन आचार्य श्री जिनराजसूरीश्वरजी के सुहस्ते प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। मन्दिर का निर्माण करवाया था, जिसका उल्लेख विद्वान इस प्रकार सेठ थीरूशाह ने जीर्णोद्धार करवाकर इस श्री सहकीर्ती गणिवर्य द्वारा लिखित सतदल पद्मयन्त्र की प्राचीन तीर्थ के गौरव को अक्षुण बनाये रखा । वर्तमान प्रशस्ती में है, जो अभी भी इस मन्दिर के गर्भद्वार के में लगभग 25 वर्षों पूर्व मन्दिर का पुनः जीर्णोद्धार दाहिनी ओर स्थित है । तत्पश्चात् सेठ श्री खीमसी द्वारा करवाया गया । जीर्णोद्धार का कार्य प्रारम्भ होकर उनके पुत्र श्री विशिष्टता जैसलमेर पंचतीर्थी का यह प्राचीनतम पूनसीद्वारा सम्पूर्ण होने का उल्लेख है। मुख्य तीर्थ स्थान है । यहाँ की शिल्पकला बहुत ही कालक्रम से यहाँ के रावल भोजदेव व जैसलजी निराले ढंग की है । पश्चिम राजस्थान के कारीगरों ने (काके-भतीजे) के बीच हुए भंयकर युद्ध के कारण पूरा हर स्थान पर विभिन्न ढंग की शिल्पकला का नमूना शहर विध्वंस हुआ तब इस मन्दिर को भी क्षति पहुंची। प्रस्तुत करके राजस्थान का गौरव बढ़ाया है । प्राचीन विजयी जैसलजी ने अपनी नयी राजधानी बसाकर कल्पवृक्ष के दर्शन सिर्फ यहीं पर होते हैं । उसका नाम जैसलमेर रखा । यहाँ के राज-सम्मान किसी जमाने में भारत के बड़े शहरों में इसकी प्राप्त सम्पन्न श्रावकों द्वारा जैसलमेर किले में मन्दिरों गिनती थी। तब ही तो भारत का बड़ा विश्वविद्यालय का निर्माण करवाया गया । उस समय श्री चिन्तामणि यहाँ रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था । पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा को यहाँ से जैसलमेर ले पूर्व काल में जैनाचार्य इसी रास्ते मुलतान जाते जाकर नव निर्माणित मन्दिर में पुनः प्रतिष्ठित करवायी होंगे। तभी तो यहाँ के राजकुमार प्रतिबोध पाकर जैन थी जो अभी वहाँ विद्यमान है । धर्म के अनुयायी बन सकें, जिन्होंने यहाँ एक बड़े भारी दानवीर धर्मनिष्ठ सेठ श्री थीरुशाह ने इस प्राचीन तीर्थ की स्थापना कर दी । जो सहसों वर्षों से इस मन्दिर का पुनः जीर्णोद्धार का कार्य प्रारम्भ कर संघ वीरान रेगिस्तान में आँधी व तूफानों की झपेटों को लेकर शत्रुजय यात्रार्थ पधारे । यात्रा से लौटे तब तक सहता हुआ जैन इतिहास के गौरवगरिमा की याद जीर्णोद्धार का कार्य सम्पूर्ण हो चुका था । अब वे दिलाता है । यह सब शुभ समय में आचार्य भगवन्त सुन्दर, अलौकिक व अपने आप में विशिष्टता पूर्ण ऐसी व पुण्यवान राजकुमारों द्वारा शुद्ध विचारों से किये प्रतिमा की खोज में थे । दैवयोग से पाटण के प्रभ महान कार्य का फल है । भक्त दो कारीगर अपने जीवन काल की कृतियों में जंगलों में बिखरे सहस्रों इमारतों के खण्डहर यहाँ सर्वोत्कृष्ठ सहस्रफणा पार्श्वनाथ भगवान की अलौकिक, के प्राचीन इतिहास की याद दिलाते हैं । जंगल में 292
SR No.002331
Book TitleTirth Darshan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Kalyan Sangh Chennai
PublisherMahavir Jain Kalyan Sangh Chennai
Publication Year2002
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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