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श्री नाकोड़ा तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री पार्श्वनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 58 सें. मी. (श्वे. मन्दिर)।
तीर्थ स्थल बालोतरा से 13 कि.मी. व मेवा-नगर से 1 कि.मी. दूर जंगल में पर्वतों के बीच।
प्राचीनता इसका प्राचीन नाम वीरमपुर होने । का उल्लेख है । कहा जाता है कि वि. पूर्व तीसरी शताब्दी में श्री वीरसेन व नाकोरसेन भाग्यवान बंधुओं ने अपने नाम पर बीस मील के अन्तर में वीरमपुर व नाकोरनगर गाँव बसाये थे । श्री वीरसेन ने वीरमपुर में श्री चन्द्रप्रभ भगवान का व नाकोरनगर में श्री सुपार्श्वनाथ भगवान का मन्दिर निर्मित करवाकर परमपूज्य आर्य श्री स्थूलिभद्रस्वामीजी के सुहस्ते प्रतिष्ठा संपन्न करवायी थी । तत्पश्चात् श्री संप्रतिराजा प्रतिबोधक आचार्य श्री सुहस्तीसूरीश्वरजी,विक्रमादित्य राजा की
सभा के रत्न आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर, भक्तामर स्तोत्र रचयिता आचार्य श्री मानतुंगसुरिजी, श्री कालकाचार्य, श्री हीरभद्रसुरिजी, श्री देवसूरिजी आदि प्रकाण्ड विद्वान आचार्यों ने इन तीर्थों की यात्रा कर राजा श्री संप्रति, राजा श्री विक्रमादित्य आदि राजाओं को प्रेरणा देकर समय समय पर इन मन्दिरों के जीर्णोद्धार करवाने के उल्लेख हैं । नाकोरनगर लगभग तेरहवीं शताब्दी के अन्त तक आबाद रहा । वि. सं. 1280 में जब आलमशाह ने चढ़ाई की, तब श्री संघ ने प्रतिमाओं को वहाँ से चार मील दूर कालीदह गाँव में सुरक्षा हेतु गर्भगृह में रख दिया था। बादशाह ने मन्दिरों को खाली पाकर तोड़ डाला । भय से जनता इधर-उधर गाँवों में जा बसी ।
वि. सं. 909 में वीरमपुर शहर, सुसम्पन्न श्रावकों के लगभग 2700 घरों की आबादी से जगमगा रहा था । उस समय श्रेष्ठी श्री हरखचंदजी ने प्राचीन मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाकर श्री महावीर भगवान के प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवायी थी, ऐसा उल्लेख है । वि. सं.
श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ जिनालय का अपूर्व दृश्य
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