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__तीर्थ - 'दर्शन'
पावन गंध का उपयोग एवं प्रतिफल इस पावन ग्रंथ में सभी तीर्थाधिराज जिनेश्वर भगवंतों की अंजनशलाका युक्त प्रतिष्ठित प्रतिमाओं के मूल फोटु रहने के कारण यह ग्रंथ शुभ दें विक परमाणुओं की उर्जा से ओत प्रोत । जिसे हमेशा, र समय ध्यान में रखते हुर निम्न प्रकार उपयोग में लें। 1. उस पावन ग्रंथ को जिनेश्वर देवों का स्वरूप ही. समझकर
अच्छे से अच्छे उच्च, शुद्ध, साफ क पवित्र स्थान में ही रखें जिससे वहाँ के परभाओं में शुहता व निर्मलता अवश्य रहेगी व शांति की अनुभुति होगी। २. पुति दिन अगर बन सके तो सामाधिक ग्रहण करके कम से कम
48 मिनर दर्शनार्थ उपयोग में हमें जिससे सामायिक लाभ के साथ चित्र प्रभु में एकाग्र होने के कारण पुन्योपार्जन व निर्जरा
का लाभ निरंतर मिलता रहेगा) 3. प्रतिदिन कम से कम एक तीर्य का इतिष अवश्य पटें व दूसरों
को पढ़ने की प्रेरणा देवें जिससे सबको यात्रार्थ जाने की भावना जागृत होगी व वहां जाने से विषेश आनंद की अनु सुति होगी
जो पुग्यो पार्जन का साधन होगा। 4. कृप्या झूठे मुंह, गंदे तथों व -वस्पल आदी पहनकर इस पावन
ध का उपयोग न करें और नहीं इसे आतित्र जगह रखें ताकि पाप कर्म म आशातना से बच सके। 5. हमेशा दर्शन स्वाध्याय करने से शनै: शनैः दैविक परमाणुओं
में वृट्टी होयी जो सुख समृट्टि का कारण बने गा ।
यह तीर्थ दर्शन -ग्रंथ है जिसके माध्यम से हमें घर बैठे ही मानस यात्रा - भाव यात्रा करने का लाभ प्राप्त होता है। भूतिकी तरह चित्र भी शुभ भाव जगाने में कामयाब होते है। इस दृष्टि से उस ग्रंथ का उपयोग आत्मा के लिये हितकर रहेगा।
परमात्मा के प्रति जो भक्ति भाव हमारे हृदय में प्रदिप्त होंगे वह हमें आत्मिक वसन्ता एवं आतिभक उन्नति की और ले जायेंगे, यह निशिचत बात है। लिलामरिकाल
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