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श्री राणकपुर तीर्थ
तीर्थाधिराज ॐ श्री आदीश्वर भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 180 सें. मी. (श्वे. मन्दिर)।
तीर्थ स्थल अरावली गिरिमाला की छोटी-छोटी । पहाड़ियों व शान्त, एकान्त तथा निर्जन आरण्य प्रकृति के त्रिविध सौन्दर्य के बीच कलकल बहती हुई नन्ही-सी मघाई नदी के किनारे ।
प्राचीनता इस तीर्थ का इतिहास वि. सं. 1446 से प्रारम्भ होता है । इस मन्दिर का निर्माण कार्य युगप्रधान आचार्य श्री सोमसुन्दर सूरीश्वरजी के सदुपदेश से, राणा कुंभा के मंत्री श्री धरणाशाह द्वारा, वि. सं. 1446 में प्रारम्भ करवाया गया । अर्द्ध शताब्दी जितने सुदीर्घ समय के निर्माण-कार्य के पश्चात् जब मन्दिर तैयार हो गया, तब वि. सं. 1496 में 'नलिनीगुल्मदेव-विमान' तुल्य गगनचुंबी इस 'धरणविहार' मन्दिर की प्रतिष्ठा, युगप्रधान आचार्य श्री सोमसुन्दरसूरिजी के सुहस्ते असंख्य जनसमुदाय के बीच विराट महोत्सव के साथ हर्षोल्लासपूर्वक सुसंपन्न हुई । साथ ही साथ इस मन्दिर के निकट एक विराटनगरी का भी निर्माण हो चुका था, जिसे राणापुर कहते थे । तत्पश्चात् राणकपुर पड़ा ।
वि. सं. 1499 में स्वयं यात्रा करते हुए आँखों देखकर पं. मेघ कवि ने अपने द्वारा रचित 'राणिगपुर चतुर्मुख प्रासाद स्तवन में इस राणकपुर नगरी को पाटण के समान बताया है । उस समय सुसम्पन्न श्रावकों के 3000 घर विद्यमान थे । अकबर प्रतिबोधक आचार्य श्री हीरविजयसूरीश्वरजी के सदुपदेश से मेघनाद मंडप बनवाने का व जीर्णोद्धार करवाने का उल्लेख मिलता है । अठारहवीं सदी में श्री ज्ञानविमलसूरिजी व श्री समयसुन्दर उपाध्यायजी ने अपने स्तवनों में इस तीर्थ का अत्यन्त सुन्दर वर्णन किया है । ___पं. कवि मेघ गणिवर ने यहाँ 7 जिनमन्दिर व श्री ज्ञानविमलसूरिजी ने यहाँ 5 जिन मन्दिर होने का लिखा है, किन्तु वर्तमान में यहाँ सिर्फ 3 ही जिन मन्दिर हैं और जैन व अन्य जाति का घर तो एक भी नहीं है । इस प्रकार एक समय का विराट राणकपुर, कालांतर में बिलकुल वीरान हो गया । यह नगरी कब 340
ध्वस्त हुई, उसका इतिहास उपलब्ध नहीं । कहा जाता है, औरंगजेब के समय आक्रमणकारियों द्वारा इस नगरी को भी क्षति पहुँची होगी । ऊँची टेकरियों पर अनेकों खणडहर दिखाई देते हैं । 'धरण विहार' तो अभी भी अपनी शान से छटायुक्त पहाड़ियों के मध्य गगन से बातें करता गत सदियों की याद दिलाता है। राजस्थान के गोड़वाड़ की पंचतीर्थी का यह मुख्य तीर्थ है । समस्त जैन संघ द्वारा स्थापित सेठ श्री आनन्दजी कल्याणजी पेढ़ी ने इन मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाकर पुनः प्रतिष्ठा वि. सं. 2009 में करवाई थी ।
विशिष्टता इस तीर्थ की विशेषता का इतिहास भी अति ही गौरवशाली है । इस तीर्थ के निर्माण का मुख्य श्रेय युगप्रधान आचार्य श्री सोमसुन्दरसूरीश्वरजी को है । इनकी ही प्रेरणा से राणकपुर के समीपस्थ नान्दियाँ गाँव के निवासी पोरवाल वंशीय श्रेष्ठी कुंवरपाल शेठाणी कामलदे के पुत्र रत्नाशाह के लधु भ्राता व राणा कुंभा के मंत्री श्री धरणाशाह में उत्कृष्ट धार्मिक भावना जाग्रत हुई, जिससे प्रेरित होकर, 32 वर्षों की यौवनावस्था में ही, शत्रुजय महाशास्वत तीर्थ पर एकचित्र 32 विभिन्न शहरों के संघों के बीच, संघतिलक करवाकर इन्द्रमाला पहिनने का, चौथे ब्रह्मचर्यव्रत धारण करने का व दान-पुण्य एवं तीर्थयात्रा करने का सौभाग्य उन्हें प्राप्त हुआ । उनको श्री आदिनाथ भगवान का भव्य मन्दिर बनवाने की भी भावना हुई। एक दिन स्वप्न में 'नलिनीगुल्मदेवविमान' के उन्हें दर्शन हुए, जिस पर उनकी अन्तरात्मा में 'नलिनीगुल्मविमान' जैसा एक अलौकिक, भावी पीढ़ी के लिए प्रेरणाप्रद, विश्व में जैनधर्म का गौरव बढ़ावे ऐसा, शिल्पकला में उत्कृष्ठ व सर्वांगसुन्दर मन्दिर बनवाने की भावना जाग्रत हुई ।
धर्मनिष्ठ राणा कुंभा द्वारा मन्दिर के निर्माणकार्य में दिया गया योगदान भी उल्लेखनीय है । जब धरणाशाह ने राणा के सम्मुख उक्त मन्दिर बनाने की भावना प्रकट की व उस के लिये जमीन देने की प्रार्थना की, तब राणा प्रफुल्लित हुए व मन्दिर के लिये उपयुक्त जमीन देने के अतिरिक्त उन्होंने मन्दिर के निकट नगर बसाने की भी सलाह दी ।
मुंडारा निवासी सिद्धहस्त, शिल्पकार श्री देपा (दीपा या देपाक) को भी हम नहीं भूल सकते । उन्होंने जिन्दगी की बाजी लगाकर भारतीय जैन शिल्पकला का