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सम्पादकीय - "तीर्थ-दर्शन" पावन ग्रंथ के प्रथम प्रकाशन के आमुख आदि में सम्पूर्ण विवरण दिया हुवा था उसे ज्यों का त्यों इस प्रकाशन के प्रथम खण्ड में पाठको की जानकारी हेतु छापा गया है । उसी भान्ति इस प्रकाशन की आवश्यकता आदि के बारे में भी काफी विवरण पाठकों की जानकारी हेतु इस आवृति के प्रथम खण्ड में दिया है ।
हमारे पूर्व नियमानुसार इस आवृति में 40 प्राचीन तीर्थ स्थलों को मिलाया गया जिनका इतिहास सात सौ वर्ष से पूर्व का है । मिलाये गये तीर्थ स्थलों की प्राचीनता, विशेषता आदि का विवरण तैयार करके छपवाने के पूर्व उन-उन तीर्थ स्थलों के व्यवस्थापकों को जानकारी व सुझाव हेतु भेजा गया । पश्चात् आचार्य भगवंत श्री कलापूर्णसूरीश्वरजी को भी जानकारी व ध्यान से निकालने हेतु भेजा गया था ताकि कोई, त्रुटि उनके ध्यान में आ जाय तो सुधर सके ।
पाठकों व दर्शनार्थीयो से अनुरोध है कि कृपया प्रथम खण्ड में छापी गई प्रस्तावना आदि भी अवश्य पढ़े ताकि आपको सारी जानकारी अवगत हो जाय ।
इस बार हिन्दी व गुजराती के अतिरिक्त अंग्रेजी में भी तीर्थ-दर्शन के तीनों खण्ड प्रकाशन हुवे है । ताकि विदेश में बसने वाले जैन व जेनेतर बंधुवों को भी जानकारी मिल सके जिससे उनमें भी यात्रा की उत्कंठा पैदा होकर यात्रा का लाभ मिल सके । ___ग्रंथ छपते-छपते कुछ और प्राचीन तीर्थ स्थलों का विवरण प्राप्त हुवा जहाँ का इतिहास प्राचीन है अतः अलग रखा है । कम से कम पच्चीस तीर्थ स्थलों का विवरण प्राप्त होने पर उन्हें देखकर अलग इसी भान्ति नया चौथा खण्ड निकालने की कौशीश करेंगे व अभी खरीदने वाले सभी महानुभावों को लागत आदि की इतला कर दी जायेगी ताकि उनके पास भी वह पहुँच सके ।
इस बार अग्रीम बुकिंग के समय पता लगा कि बहुत से बंधुवों ने अभी तक तीर्थ-दर्शन देखा ही नहीं न उन्हें उसकी जानकारी है । मेरी ख्याल से कम से कम पचतर प्रतिसत जैन भाई अवश्य होंगे, जिन्हे जानकारी ही नहीं अतः हमने निर्णय लिया है कि इसका ज्यादा से ज्यादा प्रचार हो ताकि आवश्यतानुसार पुनः पुनः नई आवृति छपा सकेंगे जिससे ज्यादा से ज्यादा बंधुवों को इसका लाभ मिल सके । अब नई आवृति में दिक्कत नहीं रहेगी क्योंकि अब फिल्म आदि संभालकर रखने के बहुत साधन हो गये हैं ।
इस ग्रंथ के पाठकों से विशेष अनुरोध है कि इसके प्रचार प्रसार में अपना पूर्ण सहयोग दें । आपसे तो हम यहीं चाहते है कि यह पावन ग्रंथ ज्यादा से ज्यादा महानुभावों को दिखावें व ज्यादा से ज्यादा घरों में जाने के आप भी निमित बने ताकि पुण्य के भागीदार आप भी बन सके जिसका प्रतिफल निरन्तर मिलता रहेगा । करना कराना व अनुमोदन करना इन तीनों का समान फल शास्त्रों में बताया है ।
"तीर्थ-दर्शन" मार्ग दर्शिका भी छपवाने की कोशीश में है ताकि यात्रा में वह साथ में रखने से ज्यादासुविधा रहेगी व मूल ग्रंथ खराब नहीं होगा । उसमें फोटु नहीं रहेंगे बाकी आवश्यक विवरण सारा रहेगा जिसकी लागत भी बहुत ही कम रहेगी ।
इस बार और भी ज्यादा विवरण देने की कोशीश की है । परन्तु त्रुटि भी रहना स्वाभाविक है पाठको से अनुरोध है कि कोई त्रुटि हो तो कृपया क्षमा करें व कोई सुझाव या कोई त्रुटि हो तो अवश्य हमारे ध्यान में लावें, उन पर अवश्य गौर, करके अगली आवृति में सुधारने की कोशीश करेंगे ।
अंत में प्रभु से प्रार्थना है कि यह ग्रंथ ज्यादा से ज्यादा घरों में पहुंचे व वहाँ की ज्योति बनकर पुण्योपार्जन का निरन्तर साधन बने इसी शुभ कामना के साथ.....
सम्पादक व संस्थापक मानन्द मंत्री चेन्नई, मार्च 2002
यू. पन्नालाल वैद
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