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श्री अजयमेरु तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री संभवनाथ भगवान, पद्मासनस्थ ( श्वे. मन्दिर ) ।
तीर्थ स्थल अजमेर शहर के लाखन कोटड़ी में । प्राचीनता आज का अजमेर शहर पूर्वकाल में अजयमेरु के नाम विख्यात था ।
महाराजा अजयदेव द्वारा बारहवीं सदी में यह शहर बसाने का उल्लेख है । पहिले किला बनाकर पश्चात् शहर बसाया अतः इसका नाम अजयमेरु दुर्ग रखा था।
शहर बसाते वक्त प्रारंभ से ही कुछ जैन श्रेष्ठीगण अवश्य साथ रहे होंगे व कुछ मन्दिरों का भी निर्माण हुवा होगा अन्यथा प. पू. युग प्रधान भट्टारक शिरोमणी दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरीश्वरजी म. सा. का शहर बसने के कुछ ही वर्ष पश्चात् यहाँ पदार्पण संभव नहीं होता ।
विक्रम की तेरहवीं सदी के प्रारंभ में युगप्रधान दादागुरुदेव श्री जिनदत्तसूरीश्वरजी का यहाँ पदार्पण हुवा उस समय यहाँ के राजा अजयदेव के पुत्र राजा श्री अर्णोराज थे । गुरुदेव के उपदेश से राजा अर्णोराज प्रभावित हुए और गुरुदेव को हमेशा के लिये यहीं पर रहने हेतु विनती की । जैन संतों का एक जगह रहना सवाल ही नहीं उठता अतः गुरुदेव ने कहा कि आता-जाता रहूँगा । राजा अर्णोराज ने दक्षिण दिशा में पहाड़ की तलहटी में उपयुक्त जगह श्रावकों के निवास व मन्दिरों के निर्माण हेतु प्रदान की । संभवतः उस समय भी कुछ मन्दिरों का निर्माण हुवा ही होगा ।
दुर्भाग्यवश उसी दरमियान वि. सं. 1211 आषाढ़ शुक्ला ऐकादशी के दिन दादागुरुदेव का यहाँ देवलोक हो जाने पर महाराजा अर्णोराज द्वारा गुरुदेव के दाह संस्कार हेतु उपयुक्त जगह अजमेर के पूर्व दिशा में मदार पहाड़ के पास प्रतापी नरेश श्री वीसलदेव द्वारा निर्मित "वीसला पाल" (सागर की पाल) के ऊँचे स्थान पर प्रदान की गई । उसी स्थान पर अंतिम संस्कार हुवा ।
दादा गुरुदेव के दाह संस्कार के स्थल पर छत्री का निर्माण करवाया गया जिसे वि. सं. 1221 में दादागुरुदेव के पट्टधर मणीधारी दादा जिनचन्द्रसूरीश्वरजी
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ने संस्थापित किया । तदपश्चात् स्थानीय गुरुभक्तों द्वारा छत्री को अभिनव नयनाभिराम रूप में परिणित करके दादागुरुदेव के पट्टधर विद्याशिरोमणी आचार्य भगवंत श्री जिनपतिसूरीश्वरजी के सुहस्ते वि. सं. 1235 में प्रतिष्ठा करवाने का उल्लेख है ।
वि. सं. 1221 में यहाँ पर श्री महावीर भगवान का विशाल मन्दिर रहने का उल्लेख है। कर्नल टॉड ने अढ़ाई दिन के झुपड़े के नाम से विख्यात विशाल - कलात्मक जैन मन्दिर यहाँ के किले के पश्चिम तरफ रहने का उल्लेख किया है । संभवतः उसके पश्चात् भी कई मन्दिर बने होंगे ।
कालक्रम से कई जगह मन्दिरों को क्षति पहुँची उसी भान्ति यहाँ भी क्षति पहुँची हो, आज उन प्राचीन जिन मन्दिरों के सिर्फ कुछ भग्नावशेष इधर-उधर नजर आ है ।
वर्तमान में स्थित पूजित मन्दिरों में यहाँ श्वेताम्बर मन्दिरों में श्री संभवनाथ भगवान का मन्दिर प्राचीनतम माना जाता हैं । विशिष्टता यहाँ का गौरवमयी इतिहास ही यहाँ की विशेषता है । जैन धर्म के प्रतिभा सम्पन्न युगप्रधान भट्टारक शिरोमणी आचार्य भगवंत बड़े दादाजी के नाम जग - विख्यात एक लाख तीस हजार नूतन जैन बनाकर ओशवंश में सम्मलित करनेवाले महाप्रभाविक दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरीश्वरजी का अन्तिम संस्कार स्थल रहने के कारण यहाँ की मुख्य विशेषता है । यहीं • दादा गुरुदेव देवलोक सिधारे व वि. सं. 1211 आषाढ़ शुक्ला ऐकादशी के दिन इसी स्थान पर अंतिम संस्कार हुवा, जहाँ पर दादा गुरुदेव के पट्टधर महान तेजस्वी मणीधारी श्री जिनचन्द्रसूरिजी की निश्रा में स्तूप का संस्थापन किया गया । वि. सं. 1235 में दादागुरुदेव के पट्टधारी विद्याशिरोमणी श्री जिनपतिसूरिजी महाराज जब अजमेर पधारे तब उनकी निश्रा में गुरुभक्त श्रावकों ने स्तूप को अभिनव नयनाभिराम रूप में परिणित कर प्रतिष्ठा करवाई जो आज भी विद्यमान है। गत लगभग आठ शताब्दियों में कालक्रम से जगह-जगह अनेकों मन्दिरों आदि को क्षति पहुँची परन्तु यह पवित्र स्थान प्रभु कृपा से आज भी सुरक्षित है, यह भी एक महान विशेषता है ।
जगह-जगह से जैन-जैनेतर हमेशा दर्शनार्थ आते रहते है ।