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सूरीश्वरजी के हाथों प्रतिष्ठा करवाने का भी उल्लेख आता है । हो सकता है, मन्दिर का जीर्णोद्धार होकर प्रतिमा की पुनः प्रतिष्ठा वि. सं. 1473 में करवायी गयी हो । उस समय मन्दिर का नाम लक्ष्मण विहार रखने का उल्लेख है । इसी मन्दिर में कई अन्य प्रतिमाओं व पाषाण पट्टों पर वि. की पन्द्रहवीं व सोलहवीं सदी के भी लेख हैं । यह जैसलमेर का मुख्य मन्दिर माना जाता है व श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान के मन्दिर के नाम से प्रचलित है । यहाँ के अन्य मन्दिर प्रायः सोलहवीं सदी में निर्मित हुए का उल्लेख है ।
किसी समय यहाँ सुसम्पन्न जैन श्रावकों के 2700 परिवार रहते थे व जैन धर्म का यह केन्द्र स्थान था।
विशिष्टता * जैसेलमेर अपनी विशिष्ट कला के लिए प्रसिद्ध है । शिल्पकारों ने किसी पाषाण में कहीं भी ऐसी जगह नहीं छोड़ रखी है, जहाँ कला के कुछ न कुछ दर्शन न हो । भारत मे जैसलमेर ही एक ऐसा
स्थान है, जहाँ मन्दिरों में ही नहीं, हर घर के छज्जों, झरोखों आदि में झीणी-झीणी कला के नमूने नजर आते हैं । यहाँ का पीला पत्थर इतना कड़क होते हुए भी शिल्पकारों ने अपनी कला का जबरदस्त नमूना पेश किया है ।
जैसलमेर जैन ग्रन्थ-भन्डारों के लिये भी देश-विदेश में विख्यात है । विभिन्न विषयों पर यहाँ ग्रन्थ संग्रहीत हैं । ऐसा अमूल्य संग्रह अन्यत्र कम है । यह जैन धर्म का अमूल्य खजाना है । शोधकर्ताओं के लिए यह एक महत्वपूर्ण व आकर्षक केन्द्र है ।
यहाँ बृहत् ग्रन्थ-भन्डार में प्रथम दादा श्री जिनदत्तसूरीश्वरजी की 800 वर्षों से प्राचीन चादर, महपत्री व चौलपट्टा भी सुरक्षित हैं । यह मान्यता है कि गुरुदेव के दाह-संस्कार के समय ये वस्तुएँ दिव्य शक्ति से अग्निसात न होने के कारण गुरुभक्तों ने सुरक्षित रखीं । ___ यहाँ निम्र ग्रन्थ भन्डार हैं :- बृहत् भन्डार - किले के मन्दिर में, तपागच्छीय भन्डार - आचार्यगच्छ के उपाश्रय में, बृहत् खरतरगच्छीय भन्डार - भट्टारकगच्छ के उपाश्रय में, लोंकागच्छीय भन्डार - लोंकागच्छ के उपाश्रय में, डुंगरसी ज्ञान भन्डार - डुंगरसी के उपाश्रय में, थीरूशाह भन्डार-थीरूशाह सेठ की हवेली में । ___ यहाँ अनेको आचार्य भगवन्तों ने यात्रार्थ पदार्पण किया है । वि. सं.1461 में जिनवर्धनसूरीश्वरजी जब जैसलमेर आये, तब मूलनायक श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान के पास भैरवजी की मूर्ति थी । उन्होंने स्वामी व सेवकको बराबर बैठाना उचित न समझकर भैरवजी को बाहर विराजमान करवाया । दूसरे दिन देखने पर भैरवजी की मूर्ति पुनः अन्दर उसी जगह पर थी । दूसरे दिने वापिस बाहर बैठाने पर भी यही हुआ । आखिर में सूरिजी ने हठीदेव समझकर गर्जना के साथ मंत्रोच्चारण किये । उसपर मूर्ति स्वयं ही बाहर विराजित हो गई, तब सूरिजी ने ताँबे की 2 मेखें लगवायीं । भैरवजी की मूर्ति अति चमत्कारी है । सूरिजी द्वारा यहाँ और भी चमत्कार बताये गये हैं । उन सब का वर्णन यहाँ सम्भव नहीं ।
यहाँ पर हजारों छोटी-बड़ी पूजित जिन-प्रतिमाओं के दर्शन होते हैं । इतनी प्रतिमाएँ शत्रुजय के बाद यहीं पर है । एक पाषाण पट्ट में जौ जितने मन्दिर में तिल जितनी प्रतिमा उत्कीर्ण है ।
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श्री पार्श्वप्रभु जिनालय का प्रवेशद्वार-जैसलमेर
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